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बीजक कबीर साहब। || ( कबीरसाहबकीकथा, मूछ रमैनी तथा बघेरुबंशागम निर्देश ) रह

साकेतवासी श्रीमन्महाराजाधिराज श्रीमहाराज श्रीविश्वनाथ सिंहजूदेंव |, बहादुर कृत पाखण्डखण्डनी टीका सहित ब्प्प्ण्य्यप्य्य्य 7 फि कि ससपटसस जिसको | बघेल कुछ तिलक श्री १०८ श्रीमहाराजाधिरान रीबॉधिपति बान्धवेश श्री सीतारामकृपापाञाधिकारी श्री सर बेहटरमण रामानुजप्सादसिहजूदेव बहादुरकी आज्ञानुसार; “आवेडुटेश्वर ( स्टीम ) यन्त्राल्याध्यक्ष खेमराज श्रीकृष्णदासने स्वामि युगलानन्द कबीर पंथी भारत पथिक द्वारा शुद्धकराय, मोद्रतकर प्रसिद्ध किया

बंबई. संवत्‌ १९६१, शके १८२६.

पथ. पका ताकत ारंनान-ज की &2%-७-१2४/वभकादकसफ पवैमन--९-+मगक"त-क-म.-१..६५००९६ओ-#+०५०>क९१- अर +माक १० करमानका+॥नहगक़फक 3५3०-५६ धरना -३+के +पंक नाक /%: महक €यन्‍भत४५+५५५७५५३७ ४३४५ +-१वान ३-० ने -५+- -#-7०५०पप कक ३०कव-3-+ मकान कानन कक - पैन तय पी पिन पमममनन ताल लक ता परत िफकिनीन-ी लिन खत .............. ला हट १,» की

हा पुनर्मुदरणादि सर्वाधिकार “आवेडडूटेश्वर” प्रेसाध्यक्षने स्वाधीन रक्‍्खा £ ,

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शरीमहाराजापिरान सर वेडुटरमण रामानुनसादर्सिह जूदेव बहादुर (जी. सी. एस. आईं. ) रीवॉनरेश .

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चान्धवेश, रीवॉधिपति, प्रमामिय, धर्मपरायण, सिद्धि श्रीमन्महा-

ाधिराज श्री १०८ श्रीमहारान श्रीसीताराम कृपापात्राधिकारी

श्रीसरवेड्टरमणं रामानुन असाद सिंहज्‌ देव बहादुर ( मी. सी स. आईं. ) के कर कमलेंमें--

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पिरान श्रीमहाराज श्रीविश्वनाथ सिंहजू देव बहादर विरचित श्री

ही वस्तु आपकी सेवामें रखकर कृपाकोी अनिलाषा करताईूँ। श्रीमानका विनयावनतसेवक-खेमराज श्रीकृष्णदास, श्रीवेडुटेथर !? ( स्टीम ) यन्त्राल्याध्यक्ष-बंबई

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श्रीमानकी मुझ अकिश्वनपर पूर्ण कृपा है। श्रीमान्‌ £5 सच्चे देशहितेषी, धर्महितेषी, जातिहितेषी, और हिन्दीहितेषी हैं श्रीमानका सनातन धर्म पर अनुराग वंशपरम्परासे चला | आता है श्रीमानके पूर्वनोमें अच्छे * कवि, अच्छे * शासक, | और अच्छे * धर्मनिष्ठ होगये हैं इसप्रकारके अनेक सद्ठणोंसे मुग्ध होकर श्रीमानके पितामह श्रीसाकेतवासी औ्रीमन महाराजा-

कबीर साहबके बीनककी पाखण्डखण्डनी टीका जो श्रीमानकीही ££ आज्ञासे छापी गयीहै. श्रोमानहीके करकमडोॉमें अत्यन्त नम्नतासे | परम सम्मान पुवेक अपेण करता हूँ अर्पण क्या करताहूँ आपकी- |

7प प्रशाशआ 9 #शएए0 सर काजाकाकाज शुरू वमण्याम्याााा हाफ

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भूमिका।

इस यन्थके अथम कबीरकसो्ी, सत्यकबीरकी साखी और कबीर उपासना पद्धांति नामक पुस्तकें छप चुकी हैं, सत्य कबीरकी साखीकी भूमिकाकी - मतिज्ञानुसार बीनककी टीकाओंक़ो छापना आरंभ किया है

बीनककी करंटीकाओंमें यह टीका परम प्रसिद्ध और वैष्णवमान्रकों ' मान्य है। मान्य क्यों नहों जबकि साकेतविहारी भगवान्‌ रामचन्द्रजीके अनन्य उपासक, वेंद, शाखके पूर्ण ज्ञाता, सांगीत आदि विद्या कुझाछू श्रीमन्म- हारानापिरान बॉधवेश, रीवॉधिपति साकेतनिवांसी श्रीमहारान विश्वनाथ सिंहजूदेव बहादुरने स्वयम्‌ इसंकी टीका की है। इस परभी सोनामें सुगन्‍्ध यह है कि, यह टीका भी स्वयम्‌ कबीर साहबकी आज्ञासे हुईं है और श्री कबीर साहबने इसे पसन्द भी कियाहै निसका विस्तृत विवरण इस पुस्तकके आदि मंगढकी टीकामें मिलेगा

जब कि समयके फेर्से भारत वर्षसे वीरता, छक्ष्मी और विद्या ती- नेनें भारतपर कोप कर सात समुद्र पार जा बसनेकी प्रतिज्ञाडी है तब भी पवित्र बघेलवशीय बॉधविश,, रीवॉधिपतिके वंशमें धर्मके संपूर्ण स्वृरुपसे विराननेके कारण तीनोंही एक स्थानमें पाये जाते हैं।

जिसका कुछ वर्णन इसी पुस्तकके अन्तमें छपे हुए बघेल बेशागमनिर्दे- नामक पुस्तकके बाचनेसे ज्ञात होगा

उसी पवित्र वेशंके वतेमान नृप श्रीमान्‌ गोब्राह्मण प्रतिपाठक, बघेल कुछ तिछक, अवनीश, बान्धवेश, रीवॉनरेश, प्रभाप्रिय, सिद्धि श्री मन्महाराज पिराज श्री १०८ श्रीमहारान श्रीस्तीताराम कृपा पानाधिकारी सर वेड्ुटरमण रामानुजप्रसाद सिंह जू देव बहादुर जी. सी. एस. आई-की आज्ञानुसार यह पुस्तक छापी गयी है। इतनीही नहीं आपने अपने पूवैनोंकी बनायी. हुईं सर्व

(२)

पृस्तफोंके छापने की आशा दीहै केवछ आश्ञाही नहीं दी है दवव्यकी सहायता देकरभी आपने यश छूटा आप वीरता के साथ पूर्ण विदान है; आप पूर्ण रसिक और सत्य शौरय्यंधारी हैं; आप न्याय और सुविचारके स्वरूप हैं आप स्वयम सर्व गुण सम्पन्न कवि हैं यही कारण है कि, आप गुणियों और कवियोंके पूर्ण परीक्षक हैं

आपकी आज्ञा की हुई साकेतवासी श्री १० ८श्रीमन्महारानाधिरान बॉपवेश रीवॉधिपति, श्रीमहारान रघुरान सिंहजुदेव बहादुरकी बहुतसी पुस्तर्के हमारे यहां छप चुकीहैं और यह अबकी बौजक। इसी प्रकार से और भी पुस्तकें कमशः प्रकाशित होती गावेंगी

इस पुस्तककी अवछोकन करनेवाढे सर्वे सब्ननोंसे निवेदन है कि यदि आपके पास कबीरसाहबकी पुस्तकें हों तो अवश्य कृपाकर भेजदीनिये जिससे हमोरे यहाँ आयी हुई अनेक पुस्तकें शुद्ध होकर छप जायें

इस पुरतकका कबीरपंथके अन्थोंके मीर्णोद्धारक, कबीर मनशरके अनुवादक, मूंढ बीनक,शब्द कुजी मौर सासी आदि अनेक गन्थोंके संशोधक और वेदान्त- के अनेक धुस्तकोंके संशोधक कबीरोपास्रापद्धतिके कती स्वामी युगढानन्द्‌ कबीरपंथी भारतपायिक रसीदपुर ( शिवहर ) निवासीदारा संशोधन कराकर छापा है

सवे सल्नेका कृपाकांक्षी- खेमराज श्रीकृष्णदास,

बीजककी-अनुक्रमणिका

रोड * <ई--- विषय. पृष्ठ, विषय. पृष्ठ. आदिमंगल। अछढख निरंजन लखे कोई अथमे समरथ आप रहे अल्प सुख॒हि दुख आदिऊ भंता ८५ रमेनी चन्द्र चकोर अस बात जनाई ८७

नीवरूप एक अंतर बासा २७ अंतरज्योति शब्दु एक नारी ३४ प्रथम आरम्भ कीन को भयऊ ३८ प्रथम चरन गुरु कीन्ह बिचारा ४० कहँछो कहों युगन की बाता ४२ वर्णहू कौन रूप रेखा ४६ जहिया होत पवन नहि पानी ४८ तत्वमसी इनके उपदेशा ४९ बांधे अष्ट कष्ट नो सता ५२ राही के पिपराही आंधरी गुष्ट सृष्टि भई बौरी ५६ मायिक कोट पषानक ताला ६० नहें पतीति नो यहि संसारा ६२ बडा सो पापी आहि गुमानी ६७ उनई बदरिया परिगो संझा ७० चलत चलढत अति चरन पिराने ७२ जस जिव आपु मिले अस फोई ७४ अद्भधत पंथ बरणि नहिं जाई ७७ अनह॒द अनुभव की करि आशा ७८ अब कहु रामनाम अविनाशी ८० बहुत दुखे है दुःख की खानी ८२

बही ५४ _

चोतिश अक्षर को यही विशेषा ८९ आपुहि करतों भें करतारा ९० बह्मा को दीन्हों बह्मेडा ९३ अस नोछ॒हा का ममे जाना ९५ बजहु ते तृण छनमें होई ९६ भूले पट दरशैन भाई ९८ स्मृति आहि गुणनकों चीन्हा १०० अन्धकी दर्षण वेद पुराना १०१ वेदकी पुत्री स्मृति भाई. .... १०२ पढ़ि पढ़ि पंडित करहु चतुराई १०५ पण्डित भूके पढ़ि गुनि वेंदरा १०७ जशानी चतुर बिचक्षण छोई १०९ एक सयान सयान होई ११० यह विधि कहीं कहा नहिं माना११२ जिन्ह कलमा कलिमांहि पढ़ाया ११३ आदम आदि सुद्धि नहिंपाई ११५ अंबुकी राशे समुद्र की खाई ११६ जब हम रहहू रहा नहि कोई ११८ जिन्हे जिंव कीन्ह भाषुविश्वासा ११९

(४) विषय, पृष्ठ, कबहुँ भये संग ओसाथा १२१ हरिणाकुश रावण गौ कंसा १२३ विनसे ताग गरुढ गलिजाई १२५ जरासैंध शिशुपार संहारा १९६ मानिक पुरहि कबीर बसेरी १९७ द्की बात कहो दरर्वेशा १९८ कहते मोहि भयर युगचारी १६५९ साकर नाम अकहुआ भाई १३० भेहिकारण शिव अजह वियोगी १३३ महादेव मनि अंत नपाया १३४ मारि गये बह्मा काशीके वारसी १३५ गये राम गये छक्षमना १३७ दिन दिन जरे जरछ के पाऊ १३९ कृतिया सूत्र छोक एक अहई १४० तैंसुत मान हमारी सेवा १४२ चदत चढावत भड़हर फोरी १४३ छादहु पाति छाडहु लवराई १५४५ धर्म कथा जो कहते रहईं १४६ जो तोहि कत्तो वर्ण विचारा १४८ गाना वर्णेझप एक किन्हा १५० काया कंचन यतन कराया १५१ अपने गुणकी ओगुण कहहु १५२ सोई होतु बन्धु मोहि भावे १५५ देहहछाये भाक्ते होंइ १५६ तेदहि वियोग ते भये अनाथा १५७ हैसा योग देखा भाई १५५ बाढ़ना कासो बोढिये भाई १६९१ स्ोंग बधावा समकरे माना १६३

बीजककी-अल्लक्रमणिका

विषय, पृष्ठ. नारी एक संसारिे आईं १६५ चलढीनात देखी एकनारी १६६ तहिया गुप्त थूछनहि काया १६८ तेहि साहब के छागहु साथा १७० माया मोह कठिन संसारा १७३ एके काठ सकरू संसारा १७७ मानुष जन्म चके जगमांझी १७६ बढ़वत बाढ़ि घटावत छोटी १७८ बहुतक साहस करिजिय अपना १७५९ देव चारिेत्र सुनो रे भाई १८० सुखक वृक्ष एक जगत डपाया १८१ क्षत्री करे क्षत्रिया धर्मों १८३ जो जिय आंपन दुखहि संभार १८४ इति रमेनी अथ शब्द | सन्‍तो भक्ति सतोगुरु आनी सनन्‍तो जागत निन्‍द्‌ कीजे सन्‍तो पघपरमें झगरा भारी सन्‍तो देखत जग बौराना १९५६ सेतो अनरण एक भो भाई २०० सन्‍्तों अचरण एक भौो भारी २०२ सन्‍ते कहों तों को पतियाईं २०४ सन्‍तो आवे जाय सो माया २०५ सन्‍तों बोढ़े ते जग मारे २१३ सन्‍्तो राह दुनों हम दीठा २१५ सन्‍्तों पांड़े निपुण कूसाई २१७ सन्‍तो मंते मातु जन रंगी २१९

१२८५

२९० १९७

(५) विषय. पृष्ठ.

बंत्री यंत्र अनूपम वाज़े ३४२ बस मासु नरकी तस मासु पशुकी ३४५ बातुक कहां पुकारे दूरी ३४७ बलहु का टेढों ठेटों टेंढों ३४८ फिरहु क्या फूछे फूछे फूछे ३४९ बयोगिया ऐसी हैं वदकर्मी ३५१ हेसो भर्म विगुरवचन भारी ३५४ आपनपो आपुष्ठि विसरयों ३५६ भापन आशा किये बहुतेरा ३५८ भव हम जानिया हो हरि वानी

को खेल .«».. «०० ३५९ कहहुहों अम्बर कार्सों छागा ३६० बन्दे करके आप निबेरा ३६१ तुतो ररा ममा की भांती हो ३६० तुम एहि विधि समझइ छोई ३६५ मृदा थे अहमक नादाना ३६७ काजी तुम कीन किताब बखानी ३६८ मंछा लोग कहे घर मेरा ३७१ फबिरा तेरो घर कंदछामे या

जग रहत भुठाना --« ३७२ कविरा तेरोघर कंदलामें मने अहेरा खेले -«« ... ३७७

स्ावम होय भाई सावन नहोई ३७५९ खुभागे केहिकारन छोभ छागे ३८२ बत्ती सुमिरों सोई ३८२ बोदेला सो दुखिया तनधारे सु

सिया काहु देखा ««« ३८५ का मनको चिन्दों रे भाई ३८६

बीजककी-अल॒क्रमणिका

विषय. पृष्ठ, बाबू ऐसो है संसार तिहारों ३८९ कहों निरंगनन कीनी बानी ३९१ को अस करे नगर कोतवलिया ३९४२ काकहि.. रोवोगे बहुतेरा ३९३ अल्छाह राम जिव तेरे नाई ३९४ आब बे आव सुभे हरिकी नाम ३९७ अबकह चल्यों अकेढे मीता २९८ देखहु लोगो हरिकी सगाई ३९० दोखे देखि निय अचरज होईं ४०० होदारी कहां ले दे तोहिंगारी ४०२ छोगो तुमहि मतिके भीरा ४०३ कैसेकै तरों नाथ कैसे के तरों ४०५ यह श्रम भूत सकछ जग खाया ४०७ भवर उड़े वक बेठे आय ४०८ खसम बिनु तेली के बैठ भयों ४०९ अब हम भयलर बहिर जग मीना ४२१ लोंग बोले दुरिगये कबीर ४२२ आपन कर्म मेये जाई ४१४ है कोई पंडित गुरु ज्ञानी ४९५ झगरा एक बढो ( जियजान ) ४९६ झठेजन पतियाहु हो संतसुनाना ४१९७ सारशब्दसे वाचिहों मानहु- यतवाराहो जज हि .. संतों ऐसी भूछ जग माही इति डशाब्द

अथ चोतीसी ४२१ ३» कार आदिहि नो जाने ४२७

अ०ऋ०के

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बीजककी-अल्ुक्रमणिका

विषय. पृष्ठ. कंका कमल किरनि में पाबे ४२५ खखा चाहे खोरी मनावे ४२५

गंगा गुरुके बचनहि. मान ४२६ घधा घट विनशे घट होईं ४२६ छूडा निरखत निशिदिन जाई ४२७ चचा चित्र रचो बहु भारी ४२७ छछा आहि छत्रपति पासा ४२८ नजा ईं तन जियतहि. जारों ४२८ झझा अरुझि सराझे कित जाना ४२५९ अञा निर्सत नगर सनेहू ४२५९ टटा विकट बात मन माहों ४३० ठठा ठौर दूरी ठग नियरें ४३० डंडा ढर किन्हे डर होई ४३९ ढठा हृढ़तही कित जाना ४३१ णणा दरे बसो रे गाऊं ४३१ तत्ता आति त्रियों नहिं चाये ४३२ थथा थार थहो नहिं जाई ४३२ ददा देखहु विनशनि हारा ४३३ घधा अर्थ माहिं अंधिआरी ४३३ नना वो चौथे मह जाई ४३४ प्रा पाप करें सब कोई ४३४ फफा फलर छांगो बड़ दूरी ४३५ बयबा बर बर करे देख सब कोई ४३५ भभा भरम रहा भर पूरी ४३५ ममा सेये ममें पाई ४३६ यया जगत रहा भर पूरी ४३६ रा रारे रहा अरुझ्ाई ४३७ छछा तुतुरे वात बनाई ४३७

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मकमाभयाक "कक

(७) विषय. पृष्ठ. ववा वह वह कर सब कोई ४३८ शशा शर नहिं देखे कोई ४३८ प्रा पता कहै सब कोई ४३९ ससा सरा रच्यो बारियाई ४३५ हहा होय होत नहिं बनाने ४४० क्षक्षा क्षण परछय मिटिनाईं ४४० इति चोतीसीं

अथ बिप्रमतीसी सुनहु सबन मिलि बिप्र मतीसी ४४९

अथ कहरा सहज ध्यान रहु सहन॒ ध्यान रहु ४४७ मत सुनु माणिक मत सुनु माणिक ४५५ राम नाम को सेबहु बीरा ४५५ ओढ़न मेरों राम नाम ७४६० रामनाम भजु रामनाम भज्ु ४६२ राम नाम बिनु राम नाम बिनु ४६७ रहहु सम्हारे राम विचारे ४७१

क्षम कुशछ और सही सढामत ४७३

ऐसन देह निरापन बेरे ४७७

हों सबहिन में हों नाहीं ४७५ कप ्रल पप

ननदी गे ते विषम सोहागिन ४७८

| माया रघुनाथ की बौरी ४८०

इति कहरा

अथ बसंत नह बारहिं मास बसंत होय ४८९१ रसना पढ़ि भूले श्री बसंत ४८३

(८) बीजककी-अलुक्रमणिका

विषय. पृष्ठ.

दषय, पृ >>

(|

में आयो मेहतर मिठन तोहि ४८५ | जहं छोभ मोहेके खंभा दोझ ५२४

बुढ़िया हसि कहे में नितही वारि ४८७ तुमबूझहु पण्डित कौनि नारि ४८५९ माइ मोर मानुष है अति सुजान ४९० घरहि में बाबू बढ़ी रारे ४९१९ कर पल्छवके बछ खेछे नारि ४९४ ऐसो दुलेंभ जात शरीर ४९५ सबही मदमाते कोई जाग ४९६ शिव काशी केंसी भई तुम्हारी ४९७ हमेरे कहर के नहिं पतियार ४९९ इति बसंत

अंथ चाचर खेलत माया मोहिनी जेर किये संसार ..« ००० ५०९

जारहु नगको नेहरा मन बौराहो ५०५

अथ बेली ईसा सरवर शरीर मह हो रमैया राम. «०० ५०९ मन सुस्मृति जहडायह हो रमया राम .«« ००० २९३ इति बली बिरहुली आदि अंत नहिं होत, बिरहुडी ५१७ हिंडोला भमे हिंडोा झुले सब जग आय ५२०

बहुविधि चित्र बतायके हरे र्ये कीडा राख... ५२३

इति हिंडोला

अथ साखी जहिया जन्म मुक्ताहता ५२५ शब्द हमारा तू शब्द का ५३९ डगबद हमारा आदिका ५३२ शब्द विना श्रुति आंधरी ५३३ शब्द शब्द बहु अंतरहीमें, ५३३ शब्दे मारा गिर गया ५३४७ रबद हमारा आदिका ५३४७ जिन जिन सम्बल ना कियो ५३७ हईं हुई सम्बल करिले ... ५३४७ जो जानहु जिय आपना -.-- ५३५ जो जानहु पिव आपना ५३५ पानी प्यावत क्या फिरो ... ५३५

हसा मोती बिकानियां .-.. ५३६ हंसा तुम सुबरण बरण ... ५३६ हेसा तूतो सबक्क था ...- ५३६

हसा सरवर॒ ताजे चले ५३७ हसा बक एक रंग छूखिये ५३७

काहे हरिणि दूबरी ... ५३७ तीनछोक भो पीजमरा ... ५३८ लाभ जन्म गवाँया .... ५३८

आधी साखी शिर खंडै ५३८

पांचतत्व का पूतछा युक्ति रची-

| मैं कीय «०० »-- ९३९

पाचतत्व का पूतछा मानुष- धरियानाई ... ... ५३५९

बीजककी-अज्लुक्रमाणिका (

विषय, पृष्ठ. रंमहिते रंग ऊपने ... ५३५९ जाग्रत रूपी जीवहेँ «-«« ५३९ पांचतत्व ले. इंतन कीन्हा ५४० पांचतत्व के भीतरे «-«« ५४० अञुन तरुत अडि आसंने ... ५४० हृदया भातर आरसी «.. ५७९ ऊंचे गांव पहाड़ पर ..-- ५७१ जेहि मारग गे पंडिता ५७१ है कबीर तें उतरि रह ७४१९ घर कबीर का शिखर पर ५७२ बिन देखे वह देशकी ५७२ शब्द शब्द सब काई कहे ५७२ प्बँत ऊपर हर बसे ... ५७२ चन्दन _ बास निवारहु «.. ५४३ चंदन सपे लपेटिया... -.«. ५४३ ज्योंमृदाद स्मसान शिक्षक ««« ५४३ गही टेक छाडे नहीं ५४४ चकोर भरोसे चन्द्रके (नोटमें)# ५४४ झिल मिल झगरा झूछते -«- ५४४ गोरख रसिया योगके . ... ५४५ बन ते भागि विहडे पडा ... ५४७५ बहुत दिवस ते हीठिया -«« ५४५ कबिरा भर्म भानिया .... ५४६

हू आाआ

बिनु डांड़े जग डांडिया ««« ५४७

# यह दूसरी पुस्तकों की४१ 9 ७. कर ऑरध

है किन्तु इस टीका नहीं लींहे में डे दियाहै

विषय.

मल्यागिरिके बासमें वक्षरहा- सबगोय ०० ०५००

मल्यागिरि. के बासमें वेधा- टाकपछास .,.. ..-

चलते चह्षत पगु थका ... झाल़ि परे दिन आथये ... मन तो कहे कब जाइये ... गृही तजिके भये उदासी रामनाम जिन चीन्हिया जेजन भीगे राम रस ...

) पृष्ठ.

पु थे 9

५७७ ५७७ ५७८ ५७८ ५छ९

०००० “५,

५७९

काटे आम मोरसी. ... ५५० पारस रूपी जीव है , ५५० प्रेम पायका चोछना .... ५०० दर्पण केरी गुफामें ... ... ५५१

छत

ज्यों दर्पण प्रति बिम्ब देखिये

५५९१

जो बन सायर मुज्ञते ... ५५१ दोहरा तो नवतन भया -.. ५५२ कबिरा जात .जकारिया «० ५७०२ सबते सांचा है भला « ५५३ सांचा सोदा कीनिये.... .... ५५३ सुकृत वचन माने नहों .... ५५४ छागी आग समुद्र में . ५५९७ छाई छावन हारन की .... ५५४ बुंद जो परा समुद्र में...... ५५४ जहर जिमीं दे रोपिया ... ५५५ दी की डाही छाकड़ी. ... ५५५ विरह की ओदी छाकड़ी ... ५५५ बिरह बाण जेहि लागिया .... ५५६

(१० ) बीजककी-अल॒ुऋमणिका

विषय.

साया शब्द कबीर का नो तू सांचा बानंया कोठी तो है काठ की सावन केरा मेहरा ««« दिग वड़ा उसलछा नहा साखी कहें गहें नहीं कहता तो बहुते मिला एक एक निरुवारिये निद्ठा को दे बन्धने नाकी जिहा बन्द नहीं पानी तो नित्ये ठिगे हिलगो भाल शरीर में आगे सीढ़ी सॉकरी. ««

संसारी समय विचारिया संशय सब जग सखंधिया

बोढछना है बहु भांतिका मर गहेते काम है. «« भैंवर बिठम्बे बाग में भैंवर नाऊ बगु जाछ है तीन छोक टीड़ी भई नाना रंग तरंग है -.- बानीगर का बांदरा मन चंचल चोरई

पृष्ठ,

००० 4९१६ «» + ५9 «» ५७9 « ५७9 ,. ५५८

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विरह अवंगम तन डसा -«« ५६४७

राम वियोगी विकछ तन «««

विरह भुवंगम पेठिके करक करेजे गड़ि रही काला सर्प शरीर में

५६४

»०० ६५ «०० +५६९<

५६६

विषय- पष्ठ. का खड़ा शिर ऊरपरे --- ५६७ कायाकाठी काछुघुन «० १६८ मन माया की कोठरी -*- ५६८ मन माया तो एक है. --- ५६०

बारी दिन्हों खेतमें ..«. “*-» ५६५ मन सायर मनसा छहारे --«- ५६५९ सायर बुद्धि बनाय के. ---- ५६५ मानष होके ना मुभा » ५७० मानष ते बड़ पाषविया «»«« ५७० मानष विचारा क्या करे कहे

ते खुड कपाद «« ००० ९७9० मानुष विचारा क्‍या करे जाके

श्न्य शरीर ०००. ००० १39७०

मानुष जन्महिं पायके ««« ५७१ ज्ञान रतन को यतन करू -«- ५७१९ मानुष जन्म दुलेम अहै --- ५७१ बांह मरोरे जात ही. .... ५७२ “#साखी पुलंदर दह परे .... ५७२

बेरा वाधिन सपे को «०० ५७२

कर खोरा खोवा भरा »« “५७३ ०3 05 एक कहें तो है नहीं. .... ५७9४ अमृत केरी पूरिया »« ५७४ अमत केरी मोटरी “०० ५७४ जाकों मुनिवर तप करें .... ५७५ एकते हुआ अनंत... --- ५७५ एक शब्द गुर देवा. .-- ५७५

राउर को पिछुआरके.. .... ५७५

बीजककी-अलुक्रमाणिका

विषय.

वो गोड़ा के देखते. . तीन छोक चोरी भई चंकी चलती देखिके चार चोर चोरी चढ़े बलिहारी वहि दूध की बलिहारी तेहि पुरुष की विषके विरवे घर किया नोई घर है सपका . . -

घुघुची भर जो बोइया # ««

मनभर के बोये कबों आपा तनो हारे भजो पक्षा पक्षी कारने .... मांया त्यागे क्‍या भ्या बुघुची भर जो वोइया बड़ेते मये बढापने. . मायाकी झक नगशरे मायाजग सांपिन भई सांप बीछिको मंत्र है तामस केरे तीन गुण मनमतंग गेयर हने. . . मन गयंद माने नहीं या माया है चूहरी ... कतक कामिनी देखिके मायाके वश सब परे पीपर एक लो मेहगेमान शाह ते भो चोरवा -.-« ताकी पूरी क्यों परे. . .

पृष्ठ.

- १७६

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विषय.

जाना नहीं बूझा नहीं नाको गुरू है आंधरा मानस केरी अथाइया चारमास घन वरापरैया

गुरु के भेला निव डरे

छीजनहा

तन संशय मन सोनहा शाहुचोर चीन्हे नहीं .... गुरु सिकलीगर कीजिये म्रखको समुझावते. « - मुठ कर्मिया मानवा. « « सेमर केरा सूवना ««« समर सुबना वेगितजु सेमर सुबना सेइया .. लोग भरोसे कौनके . « समुझि बूझ नड़ होइरहे होरा वही सराहिये . . . हरे होरा जन जोहरी हीरा तहां खोलिये हीरा परा बनार में. . ही राकी ओबरी नहीं अपने अपने शीश की हाड़ जरें जस छाकड़ी घाट भुछठाना बाट बिन मूरख सो क्या बोलिये जैसे गोछि गुमनज की ऊपर की दोऊ गई

केते दिन ऐसे गये

(११) पृष्ठ. ००० ३८५ ५८५ ००० १८५ »०० ८५

काया

«०० ५८६ « ५८६ « “६ « ५८७ « ५८७

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« से

( १२) बीजककी-अनुक्रमणिका

विषय. पृष्ठ. भैगोऊं सब नगव को. .... ५९४ साहेब साहेब सब कहें ««« ५९४ निव बिन जिव बांचे नहीं ५९०४

हमतो सबही की कही. .... ५९७ प्रकट कहों तो मारिया .... ५९५ देश विदेशन हों फिशय --- ५९५६

कलि खोया जग आंपरा .... ५९६ मासे कागज छूबों नहों --- ५९६ फहमें आगे फहमें पीछे... ५९७ हद चले सो मानवा . +* ५९७ समुझे की गति एक है ... ५९७ राह बिचारी कया करे .... ५९७ मुआ है मारे जाहुगे बिन शिर-

थोथा भालऋ ... -.. ५९८ बोछे हमारी पूर्व की .-- ५९८ लेहि चछतरवदे पर .«..- ५९८

पायन पुहुमी नापते ०» ५९९ नव मन दूध बठोर के... ५९५९ केत्यो मनावें पावपरी. -«« ६०० मानुष तेरा गुण बढ़ा .... ६०१

नो मोहि जाने ताहि में जानों छोक बेदका कहा मानों #

# नोट-यह साखी इस टीकामें छोड दी हे

मुआ दै मारे नाहुंग मुये की बाजी ढोल

सुपन सनहीं नग भया, सहि दानी रहिंगो बोल

विषय. पूछ. जो ढागे ड़ोछा ती छागि बोछा ६०१ सबकी उतपत्ती धरणि में ... ६०९१ घर्तों जानते आपगुण_.... ६०१ जहिया किरतिम ना हता -««- ६०२ जेह बोल अक्षर नहि आया-

आया ००० «०० ६०४२५ जो छो तारा जगमगे. ... ६०३ नाम जाने ग्रामककी ««« ६०३ संगति कीमे साधु की --- ६७०३ संगाते से सुख उपभे # जैसी छागी ओरकी ,. ६०३ आज काढछ दिन एक मे .... ६०३

करु बहियाँ बल आपनी .«« ६०३ बहु वन्‍धन से बांधिया .«. ६०४ जीव मत मारहु बापुरा .-«- ६०४ जीव घात ना कीजिये --.- ६०४ तीरथ गये सो तीन नन॒.... ६०५ तीरथ गये ते बहि मये ... ६०५ तारथ भे बिष बेलरी ...- ६०५ है गुणवंती बेछरी ... --. ६०५ बेल कुटंगी फल बुरा... ६०६ पानी ते अति पातछा -- ६०६ सतगुरु वचन सुनो हो संतो ६०६

ऐकरुआई बेलरी ... ...- ६०६ सिद्ध भया तो क्‍या भया # परदे पानी दारिया .... ... ६०६

की फाभतनभपमधादर्््इ्झफ # इस पुस्तकर्म यह साखी छोड दीहे

बीजककी-अनुक्रमणिका

विषय. पृष्ठ.

अंस्ति कहों तो कोई पतीने ६०९

सोना सजन साध जन « ६९० काजर केरी कोठरी... -- ६१० काजर ही की कोठरी » ६९० अर्ब सबब छौ दब्य है - ६१० मच्छ बिकाने सब चछे..... ६९१९ पानी भीतर घर किया « ६९१ मछ होय ना बाचिहों ... ६१२ बिनु रस्तरी गर सब बंध्यो .... ६१३ समुझाये समुझे नही. -«- ६१३ नित खरसान छोह घन टूंटे # लोहे केरिनावरी ... ««« ६१३ कृष्ण समीपी पांडवा »»» ६९३ पूरव ऊगे पश्चिम अथवे ... ६१४ तैनके आगे मन बसे... ६१४७ मनस्वारथी आप रसिक .... ६१४ ऐसी गति संसार की ज्यों गाडरकी ठाट ... .... ६१५ वा मारग तो कठिन है..... ६१५ मारी मेरे कुसंगकी... .... ६१५ केरा तबही चेतिया ..... ६१५ जीव मरण नाने नहीं « ६९६ जाको सतगुर ना मिल्‍यो ... ६१७ अनत वस्तु जो अन्ते खोजे .... ६१७

कक

सुनिये सब की निवोरिये अपनी ६१७

वानन दे वायंत्री .... ६१८ गावै कथे विचौरे नाहीं ... ६१८

# यह साखी इस में छोडदी है।

(१३ ) विषय. पृष्ठ, प्रथमे एक जो हों किया «««- ६२८ कबिरन भक्ति बिगारिया .... ६१९ रही एक की भई अनेक की ६१०

तन बोहिते मन काग है .... ६१९ ज्ञान रतन की कोठरी . ६२० स्वर्ग पताछ के बीच में .... ६२०

सकलो दुर्मति दृरकरू_... ६२० जैसी कहे करे जो तेसी -.. ६२० द्वारे तेरे रामनी * ६२९ भर्म परा तिहु लोक में « ६२१ रतन अडाइन रेत में « ६२१ जते पत्र वनस्पती ... ... ६२९१ हम जान्यो कुल हंस ही. ... ६२२ गुणिया तो गुणको गहैँ ... ६२२ अहिरहु ताने खसमहु तज्यो. .. ६२२ मुखकी मीठी जो कहें . ६२३ इतते सब तो जात हैं - ६२३ भक्ति प्यारी रामकी . . . ६२३ नारिकहाँवै पीवकी --. ... ६२३ सजह्नन तो दुर्नेन भया ६शईे विरहिनी साजी आरती. --« ६२७ पलमें प्रछलय बीतिया. . .. .... ६२७ एक समाना सकल में --- ६२४ यकसाधे सब साथिया . ६२५ जैहिबन सिंह संचरे ६२५

सांच कहीँ तो है नहीं # के यह साखी इसमें नहीं है।

(१४) बीजककी-अनुक्रमाणिका

विषय. पृष्ठ. विषय. पृष्ठ, बोली एक अमोल्है .... *-«» ६२५ | दृष्टिहि माहिं विचार है. --- ६३१ करबीहियां बल आपनो # जब छगदोला तब छग बोला ६३२ वोहतो वैसहदी भया.... --« ६७६ | रह बन्दगी विवेक की -.-- ६३२

जे, नोमतवारे राम के # सुरनर मुनि ओर देवता .-. ६३२ नोमतवारे राम के # जौछग दिलूपर दिल नहीं -.- ६३२ साधू होना चाहहुनों -«- ६२६ सुना दिंहें केरी खोडरी ......... ६२६ यंत्र बजावत हो छुन! «०» परेके जो तुम चाहो मुसका --«- ६३३

ज्यहिखोनत कल्पौगया -«- ६२७ | साधु भया तो कया भया ... ६३३ दश द्वारेका पीनरा.... .... ६२७ हंसाके घट भीतरे ... ... ६३३ रामहे सुमराहिं रण भिरे ... ६२७ | मधुर वचन है औषधि ... ६३४ खेते भठा बीजों भठ्ा ««»- ६२७ |ई जगतो जहडे गया. ... ६३४ गुरु सीढी ते ऊतरें --« ६०७ | ठाट्सदेखमरनीवको .--- ६३४७४ जामे नो छागी समुद्र्में ... ६२८ ऐं मरजीवा अमृत पीवा -.. ६३५ नो मोहि जाने त्यहि में जानों ६२८ के तेबुन्द्हलुफेगये -- ६३५

मौन मिछा सो गुरु मिछा ६२८ | आगि जो छगी समुदरमें. .... ६३५ जहं गाँदक तहँ हों नहीं ... ६२५ | सँचे शाप नछागई... -.. ६३५

शब्द हमारा आदिका_.... ६२५ / रा साहव सेइये ... --- ६३६ नग पषान जग सकलूहै ... ६२५९ | जाह वैद्य घर आपने... ६३६

ताहि कहिये पारखी ... ६३० |औरन के सम॒ झावते ... ६३६ सारे दुनिया विशशती ... ६३० : मैं चितबत हैं तोहिको -.-. ६३६

सपने सोया मानवा. - .«« ६३० | तकत तकावत तकिरहे ... ६३७ नष्टेका यह राज्य है... .... ६३१ | जस कथनी तस करनीने ... ६३७ दृष्टमान सब वीनरै. ... ... ६३१ | अपनी कहै मेरी सुने._... ६३७ -एएए--"स्‍न्‍श्भशणणशाश्ननभांसाा 33 बल नलदललीकब देशदेश का कर

इस सा खी तक तो साखियोंका मह बांगिया न्न्न्य्‌ डे र् कम निकृूटही निकठ मिलता बहता लोहे चुम्बक श्रेति नस... ६३३८

आया है पूर्ण साहबकी टीकाके साथ, | गुरू बिचारा क्या करे... ६३८ किन्तु यहांते आगे बहुत गड बड | दादा बाबा भाईके छेखे ... ६३८ होगया है छघुताईं सब ते भी. ... ६३५०

बीजककी-अनुक्रमणिका ( १५) विषय. पृष्ठ. विषय, पष्ठ. मरते मरते नग मुवा -«-«- ६३९ |सुत नहिं माने बात पिताकी. .. ६४९ बस्तु औह गाहक नहीं .... ६३५९ |संबे आश कर शून्य नगरकी ६५०

सिंह अकेला वन रमें. .-. ६३५९ |भक्ति भक्ति सब कोई कहे ... ६५० मरते मरते नग मुवा..- ६४० | समुझो भाई ज्ञानियो. --- ६५० पेठा है घट भीतरे.... --. ६४० | धोखे सब जग बीतिया .... ६५० बोलतही पहिचानिये. -«- ६४० |मायाते मन ऊपने .... --- ६५१ दिलका महरम कोई मिलिया ६४० | राम कहत नग बीते सिरे... ६५१ बना बनाया मानवा “** ६९४१९ यह दुनिया भई बावरी .-.. ६५१ सांच बरोबर तप नहीं. ““ १४२ राजा रैयत होय रहा... ६५१ भागे पड शी हा जिसका मंत्र ज॑पै सब सिखिकै ६५२ सर हर पेड आगध फछ -.. ६४२ आओ अझशानी ..« पैपर बैठ रहे सो बोनिया. -..- ६४२ पक देखा सेव कही. + १५३

तेरी गति तें जाने देवा .... ६५२

युवा जरा बालपन वीत्यों -.. ६४२

भूछासो भूला बहुरकै चेतु ... ६४३ | सी देखिके अम भा ... ६५३ सबही तहतर नायके.. -.. ६४३ | रह अपनी थिर रहे ... ६५३ श्रोता तो घरही नहीं... .-. ६४३ | ऐेखा देसी सब जग भरमा. . .. ६५३ कंचन भो पारस परसि ... ६४४ [हकी आश छगाइया --» ६५३ बेबूने जग राचिया ......... ६४४ | के विचकले सब घर बिचछा ६५३ साईं नूर दिल एक है ०० ६४५ रामरहे बन भीतरे ००० ६४५ रेख रूप जेहि है नहीं... ६४५ | बिता रूप बिन रेखकी ... ६५४ घन्यो ध्यान वा पुरुषको -.. ६४६ (डर उपजा जिय है ढरा ... ६५४ यह मनतो शीतछ भया -.-. ६४६ |सुख को सागर मैं रचा ..... ६५५ जासों नाता आदिकों --. ६४७ | दुख हता संसारमें. ... ६५५ बूझी शब्द कहां ते आया -.. ६४८ | लिखा पढी में परे सब ... ६५५ बूझो कतो आपना .--. -«- ६४५ | धोखे धोखे सब जग बीता . ... ६५६

हम कतों हैं सकल सृष्टिके ... ६४९ | साखी आंखी ज्ञान की _.... ६५६

( १६) विषय.

फुटक्र शब्द ( टीकाननगेंत )

बाढि हारी अपने साहब की १९ ज्यों भृंगी गये कीट के पासा ८९ आसन पवन किये हट रहुरे १०३ मन रे जब ते राम कह्ोरे.... ११० चारो युग में कबीर साहबका-

प्राकद्य .«« , ११२ दुरूहिन गावो मंगल चार --. १४६ दश मुकामी रेखता ०० २३८ राम नप्यो कहाँ भो मन्दा ३२५९ चलो सखी बेकुण्ठ विष्णु

माया जहाँ. ..« . ३५७ जहूँ सतगुरु खेलें ऋतु बसंत ३७७ जागुरे जिव जागुरे . ७५० हम मेरें मारे है संसारा «५ जो ते रसना राम कहि है ४६० राम कहते चछु राम कहत

8

चछु ( गो ०स्वा० ) - ६३ क्या नागे क्‍या बंधषि चाम ... ४७२५

सदा बसंत होत नेहि ठारऊं ४८२

चेति ते देखेरे जग घचचा -गनग०. १०० 5 पचदह निर्णय

एक जीव नो स्वतः पद ... ५२७

सता पट पकार की देही ... ५२७ सतो सृक्ष्म देह प्रमाना ५२८

बीजककी-अनुक्रमणिका

विषय. पृष्ठ, सतो कारण देह सरेखा -«. ५२१८ संतों महा कारण तन जाना ५२८ संतो केवछ देह बखाना ... ५५९ संतो सुना हँस तन ब्याना... ५२९

| अब तो अनुभव अभिहि छागी ५५५

संतो राम नाम जो पावे ... ५६७ जहां पुरुष सतभाव तहेँ हेंसनको बासा ... -«» -»- ५७६

रामका नाम चामुक्तका मृठ है ५९१

संतों या मन है बड जालिम. . . ५९२ कालके माथे पगधरी «०० ६०४ गगनमंडर हग महलमें ... ६०४७ यहि ओतार चेतो नहीं -.- ६०४ केचन केवल हारे भमन -««« ६०७ जो रक्षक है जनीचकी. --«- ६०७ जहाँ कालकी गम नहीं * ६०८

चौंका विधानका शब्द अगर चन्दन घसि चोकपुराबा ६०८

दशोदिशाकर मेणें धोखा ««. ६०५९ अबधू ऐसा योग विचारा ».. ६१२ विन प्रसन दरशन विन ६२१६

बहुतक लोग चढ़े विन भेदा, .. ६४२ कलिमां बाग निमान गजारें. .. ६४४७ रूप अखाण्डत ब्यापी चेतन्‍न्य ६४७५ सुनुधमंदास भक्तिपद्‌ ऊंचा... ६४७ संते बीनक मत प्रमाना -«« ६५७

इति अनुक्रमणिका

शरुबे नमः

अथ श्रीकबीरजी की कथा।

दोहा-अब कबोरजों को कथा, श्रोता सुनहु विशाल जोी।हदू अरू तुक की, उपदेशयों सब काल २१॥ हारे विमुखी सब धमिन काहों कद्यो अधर्म अखंड सदाहीं ! योग यज्ञ तप दान अचारा राम भजन विन कह्यों असारा॥ क्यो. रमेनी साखी जेती | अटपट अर्थ शाखमय तेती जो बीमकको ग्रंथ बनायो | तासु तिरछूक मो पितु निरमायो आगे कहिहों मति अनुसारा पुरुष पुरुष बंश विस्तारा ।। भी कबीरणी को हइतिहासू। पूर्व पूरषः मम वर्णन तासू निन कुछ वर्णत छागति छाजू जनि हैं अस सब समाति समाज |। निमकुलकोा महत्व. प्रमाटायो | गाथा सकछ सपा मर गायों ।। पे श्रेता सब यदुपति दासा। ताते छागति कछ नहिं ब्ासा ।॥ सहि छेहँँ सब मारे ठिठाईं। में सषा पभता कछ गाईं ॥। जूस कभश्ीर वष्यों निजग्रेथा वणा निमकुछ सेोई पंथा और कबीर कथा सुखदाई। प्रियादास नाभा जस गाई

दोहा-सोई में वर्णन करों, संक्षेपह विस्तार भथमाहे जन्म कबीर की, श्रोता सखुनहु उदार रामानद्‌ रहे जग स्वामी ध्यावत निशि दिन आअतयीमी तिनके दिगे विधवा इक नारी | सेवा करे बड़ो श्रमघारी प्र यक दिन रह ध्यान छगाई। विधवा तिय [तिनके टिंगे आईं प्रभाहे किया वेदन बिन दोषा | प्रभु कह पत्रवती भारे घोषा तब तिय अपनों नाम बखाना | यह विपरीत दियो बरदाना स्वामी कह्यों निकाले मुख आयो | पुत्रवती हरि तोहिं बनायो

है हैं पुत्र कछेक छागी। तब सुत है है हारे अनुरागी

( १८ ) कचीरजीकी कथा

तब तिय कर फुछका परि आयो कछु दिनंमें ताते सुत जायो जनत पृत्र नभ बने नगारा। तदपि जनाने उर सोच अपारा सो सुत ले तिय फेंक्यो दूरी। कढ़ी नोहछाहिन तह यक रूरी सो बाठलकहि अनाथ निहारी | गोद राखि निन भवन सिधारी ठालन पालन किय बहुभौती सेयो सुतहि नारि दिन रांती

दोहा-कछुक सयान कबीर जब, भये भई नभवानि सो प्रियदास कवित्तको,इक तुक क्यों बखाने £ ( भई्द नभवानी देह तिलक रमानी करो करो गुरू रामानंद गरे माला भारिये )

पुनि कबीर वोल्यों अस वानी मोहिं मलेच्छ लियो ग्रुरु जानी रामानंद मंत्र नहिं देंहें।पै उपाय हम कछु रचि हैंहें अस कहि गंगा तीरें आयो। सीटी तर निज वेष छुपायो मज्जन हित रामानद आगे तेहि जेंगुरी निन चरण चपाये रोय उठयो तहँ तुरत कबीरा। रामानंद क्यो मतिषीरा राम राम कहु रोवे नाहीं। ग॒न्यो कबीर: मंत्र सोह काहीं रामानंदी तिररकहि धारयो मार पहिरि मुख राम उचारयों मातपिता मान्यो बौराना। रामानंदहि वचन बखाना याकोी प्रभु किमि वेकछ॒वायों। राम कहत सब काज भुछायो रामांद कबीर बोछायों | ताके बिच परदा बँधवायों कही मंत्र तोकी कब दौीन्‍्हों कह्यों कबीर जोन बिधि कीन्हो ग़मनाम सब शासन सारा। वार तीनि मोहिं कियो उचारा दोहा-रामानंद कबीरकोी, झुनि अनन्य हरिदासु परद्य टारिछु मिलत मे, हगन बहावत ऑसु ४॥ सुरति राम नामहि महँ छागी। कछु गृहकान करहिं बड़भागी है विकनन पट नाहि बारे | नो | मेँगे ताही दैढारै परले रहें मातु पितु ताके। गनें कछ दुख क्षुपा तृषाके

कबीरजीकी कथा (१९ )

आवते कबीर छलजाहीं | छूंछे हाथ कौन विधि जाहीों परयो सोच तब हरिकों भारी। मम जनके पितु मातु दुखारी घरि व्यापरी रूप मुरारी | भरि बैलन बहु चाडर चारी आय कबीर भवन महँडारे कह्मो पठायो पुत तिहारे माता क्यो कहां सुत मोरा कोहुकी वस्तु छेत नहें छोरा तब कबीर परमें व्यापारी | डारि अन्न गे अनत सिधारी जब कबीर गे भवन सिधारी देखि अन्न हरि कृपा विचारी साधु तुरंत बोलाय छुटायो। यक दिनको घर नाहिं धरायो तुरत ठोरि निनभ तानों वानों। राम भरोसा को डर आने

दोहा-तब काशीके विप्र सब, बेठ कवीराहि घेरि

मुडिअनकी रोटी दियो, हमहें बेठ मुख फेरि ॥५४' कह्यो कबीर न॒ करो संदेह | मोहिं बनार भर गवननदेह भागे गये कबीर मिसि येही। प्रभु कबीर हित भे संदेही आये धरि कबीरकों रूपा। सबको भोजन दियो अनूपा यथा योग दे सबन बिदाई। पुनि छिय अपनों वेष छिपाईं तब कबीरकी बढयो प्रभाऊ | माँनि रंकहु राजा राऊ॥ श्रेता सुनहु पुरान घमाना | रागभक्ति है धमे जधाना राम विमुख जो कोड जग होई मूछ सकरछ पापनकों सोई लखि कबीर अति निन प्रभुताईं गुन्यी डपद्रव ताहि महाई मेटन हेतु महा परभुताई गणिका द्वार गये प्रगटाई दे धन गणिकाकी गहि हाथा। चढ़े बजार बनारहि साथा यह रखि भये संत जन शोकी | छहे अनंद असंत अश्ोकी ॥॥ इक दिन गये भूप दरबारा। डठथो राजा तुच्छाविचारा दीहा-तब कबीर मनमें गुन्थों, मयो अनादर मोर

आदर ओर अनादरों, साहि जातो है थोर ६॥ रहे भरे जरू घट बहुतेरे। टरकायो तिनको कर फेरे

पक आह,

राजा पूछथो का यह कीने। तब कबीर बोस्यो सुनि लीने

(२० ) कबीरजीकी कथा

श्रीनगदीश पुरी यहि काला गईं आगि छांगे पाकहिं शार्व परी पठायों तरत खवारा | पुरों छांग सब किया उचारा जो कबीर वह दिन वुझावत तो सिगरी नगरी जारे जावत यह सुनि भूपति बहुतं डेराना रानी सों अस वचन बंखाना है कबीर मूरति भगवाना। याको हम कॉन्हों आपमाना ताते अब अस करहु विधाना पैदल तेहिं ठिग कराहिं पयाना त्रोहि नाहि केहि चरणन मिरहीं | जो वह कहे ते घर फिरहा अस विचारि राजा अरू रानी। राज विभव तह तनि डर मानी पैदर चढे सुलाण विहाई। सचिव मजा सबे छिय पछि आईं

दोहा-राजा रानीकी विनय, सुनि कबीर मतिधीर ॥! बहत नौर दग पीर विन, कियो धीर झुत भार तहँ कवित्त भियदास यह, कीन्ही खुभग बखान सो में इत लिखि देतहों, श्रीता सुनहु खुजान कवित्त-कही राना रानी सो जो बात यह सांच भई आंच छागी हियें अब कहो कहा कीजिये चलेही बनत चले श्लीश तृण बोझ भारी गरे सो कल्हारी बांधि तिया संग भीजिये निकसे बजार द्ेके डारि दई लोक छाज कियो में अकान छिन छिन तन छीजनिये दूरे ते कबीर देखे है गये अधीर महा आये उठे आगे क्यो डारे मति रौक्षिये रो सिकंदर शाह सुजाता | सुनेहु कबीर प्रभाव महाना तब लिखि पठयो येक खीता सुनियत तुम्हें कबीर पुर्नाता न्याय ब्याकरण शाख अनंता | करे एक जेहि संमत संता ॥# हिंदू मुसलमान दोड दीना तिम निन मत देखों सुख भीना ऐसो शासत्र देहु पठवाई। तो हम जाने अजमत भाई तब कबीर लछिखि उतर पठायो। सहस शकट कागन पठवायों ऐसे सुनि कबीर खत शाहा। अति विस्मित हैके मनमाहा सहस शकट भारे कागज कोरा | पठयों दूत कविरकी वोरा सहस शकट कागन जब आयो तब कबीर अति आनंद पायों

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कबी रजीकी कथा (२१)

सबके उपर शकट यक माहीं। छिख्यों राम अक्षर दे काहीं सहसहु॒ शकट साहठिंग भेजा। प्रगट्यो राम नाम कर तेजा सकल शाखत्र सब कागन माहीं लिखिगे आपहि ते श्रम नाहीं दौहा-हिंदू ओर मलेच्छहू, चहें जो मतके पंथ सो तेहि ते निकसन लगे, और सकल सतपंथ॥ |॥ जानि प्रभाव सिकंदर शाहा। काशीकों आयो सडछाहा तब सह पंडित चलि फिरियादा | छूटी दोठ दीन मयीदा यक जोलछहा चेटक पढ़ि आयो | करि जादू विश्वास बढ़ायों तेब कबीरकोी झ्ाह बोलायों जब कबीर दरबारहि आयो काजी कह करू साह सहामा | तब कबीर बोल्यो सुखधामा जानहिं राम सलाम जाने | सुनत शाह किये कोप महांने दियो हुकुम करियो नहें दरी। गंगा बोरहु भरि प्रग बेरी सुनि अनुचर पग पाई जँनी रे बोरयो गंगा माँ कबीर रहेंगे बेरी नीर गँभीरा। गंग तीर भो ठाढ़ कबीरा पुनि छकरी पट जअंगणि बांधी | आगि छगायो कोठरे धांधी भयों भस्म तनुको सब मेला निकस्यो कंचनरूप उतेढा पुनि इक मत्त मतंग बोलायो | कचरावन हित सी हँघवायों दोहा-गजकी सिह स्वरूपसों, देखी परो कबीर भग्यों चिकारत नाग तब, भरचो महा भय भी | १० बादशाह अस देखि धभाऊ। पकरयो आय कबीरहि पाऊ देख्यों करामात में तेरी | अब रक्षा करू जगते मेरी मोस भयों बढो अपराधा। दीन्हों रामदासकी बाधा देशगार्ड धन जो काहि दीने। सो याही क्षण प्रभ लेलीने कह्यो कबीर रामको चौहें ग्राम दामसों काम कहा हैं त॑ंचे विरोधी पंडित जेते विरचे यह डपाइ तह तेते अ्रवेष्पप दश पांच बनाईं। दियो सकछ देशन गोहराई यह कबीरको नेवतो जाने सबकर्वीर घर करो पयानो

२े२ ) कचीरजी की कथा

यह सुनि साधु विप्र समुदाई छियो कबीरहिे को समुहाईं ढाखन विप्र साधु ज॒रि आए | तब कबीर मन माह डराए अपने भवनत्यागि हुत भाग्यों रघुपतिकों यह नीक छाग्यो धारे. कबीरकों रूप तुरंते शत शत मुद्रा द्िय पति संते

दौहा-साधुनकों सत्कार कारे, विदा कियो रघुनाथ ॥|

उदर पूर पूजन दियो, सबको गहि गहिहाथ ॥११॥ सब देशन विख्यात भो नामा | कह कबीर अनुकंपा रामा येह विधि पंडित जब हारे। तब गोरखको तुरत हँकारे गोरख आय गयो जब कासी छाखे कबीरको भयो इंठासी कृप उपर राचे पांचहि स॒ता। बेठयों ताहि प्रभाव अकूता तुरत कबीरहि छियो बोलछाई | मोसो करहु विवाद बनाईं अन्तरिक्ष तब बैठ कबीरा | देखता गोरख भयो अधीरा तेहि दिन गवन्यों गोरख हारी। आयो भोरहि सिंह सवारी कह्यो कबीरहिसों गोहराई आबे वाद करे मन जाई तब मगकाी रति सिंह कबीरा | आयो चछो चछावत घीरा तब गोरख कह सुनहूँ कबीरा। गंगामें इृबे दोड. वीरा की काकों हेरे यहि काछा | कूदे गोरख मथम डताछा त्रब गोंरख गूछर है. गयऊ जानि कबीर पकारे तेहि छयऊ

दोहा-गोरख सुनहूँ कबीर कह, प्रगटो अबहुं तुरत

नातों कर मलि डारि हों, दोषदेहिंगेसंत १२॥ तब प्रसन्न गोरख प्रगटाना तेहि कबीर अब वचन बखाना में अब छिपई हेरे तुम लेहू | कह गोरख छिपु विनु संदेह तब डृव्यो मधि गंग कबीरा हैं गो तुरत गंगको नीरा तब गोरख कारे योग प्रभाऊ जान्यो सकरू कबीर दुराऊ दोऊ सिद्ध फेरि भगटाने | गोरख बेदन किय इहुछूसाने कहो सत्य साहब तुम रूपा संत शिरोमाणे शुद्ध अनूपा एक समय कबीर ले माता चले जात कोड देश विख्याता

कबीरजीकी कथा। ( २३ )

तहँ इक मारग मोहर यैली परी रही अतिशय तहेूँ मैली माता थैली दौरे उठाई तब वारयो कबीर तहूँ जाई परधन ले मातु दे डारी। परपन दुइ मुहँकी तरवारी बैठ बृक्षरर देख तमासा | यह करे है केतेनको नासा माता पूत बेठ तरु छांहों | चारे सिपाही कद़े तहाँहों

देाहा-थली चार निहारिके, हर्षित लियो उठाइ चलत भये तेदि पंथकी, लिय कबीर पछिआइ ॥१३॥

जाय सिपाही इक पुरमाहीं। डेरा किये वणिक घर माहीों सो कियो कबीरहु डेरा। एक सिपाही यक कहूँ टेरा

डराम तुम दोड रहे जाहू। दे जन जाहें करन निरवाहू अस कहि दू जन गये सिधाई | लियो हाटमहँ कछुक मिठाई बैठि कुर्वों छांगे जब खाने | तब आपसमहँ संमत ठाने माह भरें मिठाई माँहीं। जामें दे खाते मरिजॉहें नातो हिस्पां हैहें चारी | हम तुम होहिं उभय हिसदारी अस विचारि भारे माहुर दीन्हे उत विचारि डेरा दोड कीन्हे जब वे आइ खाइ इत सोवें | तिनके तुरत घाण हंम खोवें इतेनेमे दोड छियो मिठाई। आय गए डेरे अमछाई कह्यो दुहुँनसों खाहु मिठाई इन कह थंके अहैं हम भाई अस कहि दोउ सिपाही सोये | श्वास बर्त तिनकों तहेँ जोये

दोहा-तब मिठाई खायके, दोहुनके गलमाहिं मार कटदारा पार ।कंयथ, दोऊ मरे तहा।ह॥ १४

कछुक कालमह विष तह छाग्यो ते दोऊ तरते तन त्याग्यों भोर वणिकछखि शोणितघारा | कोतवाढके जाय पुकारा कीतवारू तहिं दोष छगायो। ताकी संपाति सकृछ छुटाणें मोहर ओर वणिक्न धन नेतों गयो भूष भंडारहि तेतो कह कबीर छख मातु तमाज्ञा ये मोहर दोड ओर विनाशा माता कह्यो सुबन चलु अन॑ते | कह कबीर लख और दगनते

ता >प्त

४) कवीरजीकी कथा

4 जप कर

भैडी परी रही जेहि ठोरा।सों थल रहे भपको औरा सो पठयो तुरत असवरा | क्यों देव धन अंहे हमारा जेहिं वह नगर कट्मों सो राना | हम देब विनसमर द्राजा यह सुनि भूप तुरत चढ़ि आयो उभय भूप अति युद्ध मचायो दोऊ छारि मरिंगये तहांही तब कबीर कह माता काहीं जो चाहै आपन करस्पाना। तो परपन नहीं छेय सुनाना हा-जो परधन लेतो जननि, तासु हाल यह होय लगते हाथ वराडिका, नाहक कलह उदोय॥ २५॥

येक अप्सरा आयके, मोहन चह्मो कबीर ताहि मातु कहि किय बिदा,करी मनसिज पीर २६

कबित्त

येक समे माय जगदीश पुरी दास कीन्हों भयों तहँ संतन समागम सोहावनो कोई संत बोल्यो कियो काशीमें चरित्र केते इते कीन्हों कांहे नहिं महिमा देखावनों॥ ताही समय कोतुक कबीर कीन्हों रघुरान देखि सब संतनकों मंडल भो पावनो एक रूप हाथ चोर हांकते जगतनांयै एक रूप साधुन समाज प्रगठावनों ॥१॥ पुनि जगदीश पुरी ते सोई चल्यों कबीर महाम॒द मोई बांधव गठ मम डुगे महाना। शिवसंहिता जाखु परमाना सतयुग वरुणाचड कहवायो कछि बांधवगढ नाम कहायो पूरुव पुरुष रहे जे मोरा रहे ते सब गुजरातहि ठोरा तेऊ पाई कबीर निदेशा विंध्य पृष्ठ आये यहि देशा तब ते बांधवर्गठ भुवाले कीन्हों नप वधेल निज आंडे आंगे तासु कथा में गैहों सब श्रोतनकों सविधि सुनैहों विरसिंददूव वधेछ भुवाछा | सुनि कबीर आवनकों हांछा चहुकित दूत दियो बेठाई दियो कबीरहि खबरि जनाई और पंथ है नहिं कि जाई सावधान रहियों सब भाई गुणि विरसिहंदेव अभिछाषा ताको शिष्य करन चित राखा बांधवगट कबीर सिघारे राजा आग लेन परे

आदााक आयााकाक अआकष्काक #न्मकृजकी, अलाभानक'

कबीरजीकी कथा ( २५६ )

दोहा-सादर ल्याइ कबीर को, कारे उत्सव हषोइ शिष्य भये परिवारयुत, भवभय दियो मिटाइ॥ १७ भक्तमालकी यह कथा, किय संक्षेप बखान अब कबीर इतिहासकी, विस्तर सुन हु सुजान॥ १८ देश गहोरा युत पारवाग भयो शिष्य विरासेंह भुवारा॥ कछुक काछ छगि नप ठिंग माहीं वस्यो कबीर सुमिरि हरि काहीं येक सप्रय विराप्रैंह नरेंगी दियो बोलाईं कबीर निदेशे देहँ तोहिं कछू हम ज्ञाना ताते कर अस भूप विधाना यक ब्राह्मगी रचे यक धोती वरष दि्विसमहँ भतिहि उदोती ए॒ पाणिमहँ टोरि कणसू सूत भूमि परहौनहिं तासू | घोताड़े आवहु राजा | तब है हो तुरंत कृतकाना सुनि विरसिंह तुरंत खखारी | गो ब्राह्मणासमीप सिधारो ती माग्यो तब द्विन नारी। सनु महीप सो गिरा उचारी थघोती व्षे अयंत बनाऊं। जगन्नाथकों जाय चढ़ाऊं छेह महीश शीश बरूु मोरा | घोती छेब डचित नहिं तोरा राजा फिरे कबीर टदिग आयो सकल ब्राह्मणी वचन सुनायों दोहा-कह कबीर जगन्नाथकों, धोती देइ चढ़ाइ॥ प्रतीहार कारे साथ न॒प, लियकी दियों पठाइ ॥१९ ॥। जाय ब्राह्मगा वसन चढायों प्रभ ढिग ते तुरंत फिरि आयो कियो ब्रह्मणी घरन तहांहीं | स्वं्त कह्यों नाथ तेहिं काहों मांग्यो हम बांधवगढ़ काहीं | काहे दिल्यो मोहिं के नाहीं जाय. कवपी रे देइ चढ़ाई | तब जैहे प्रण फल पाईं॥ द्विन तिय फिरे बांधवगढ़ आईं दियो कबीरहि वश्नन चढ़ाई वसन पहिरे जब बैठि कबीरा | तब आयो विरसिंतद भबीरा

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महितें यक कर ऊंच निहारा। तब कीन्हीं अस बचन डचारा जो हरिको हरि छोकहु काहीं | दीने म्वहिं देखाइ सुखमाहीं रच

तो परतीति मोरे पारे जाई ।॥ये तो रुत्य कबीरे आईं॥

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(२६ ) कबी रजीकी कथा!

तब रानहि कबीर बैठायों | ध्यानावस्थित ताहि करायो # योग मार्ग ते तेहिं है गयऊ | हरि हरि छोक देखावत भयरऊ तब विरसिंह भूष विश्वासे छहन विज्ञानहि हिये हुलासे दोहा-श्रीकबी रजी तहेँ कियो, सुभग ज्ञान उपदेश ॥। मिटे सकल संसारके, ताके काय कलेश २० कह कबीर है चछहु शिकारा भूष कियो तेंहिं नाग सवारा गनके ऊपर हाथ सवाऊ | बैठ कबीर छखे सब काऊ बांधवगठढके. पूरब ओरा | सदर तृषित भो नृप तेहि ठोरा कहों कबीरे गुरु भगवाना। जछू बिन जात सबके प्राना तब कबीर परभाव देखायो। तुरत सकल तरु सफछ बनायो प्रटणगी वापी निर्म नीरा। तहें अंर्ताहत भयो कबीरा अब बघेल वंशावद्धि जोईं। श्रीकबीर विरचित है सोई अरू आगम निदेशह ग्रंथा | तामें हैं बबेल सतपंथा उक्ति कबारहि की ले नीकी | बणों मोरे उक्ति नहिं ठीकी यदपि वेश महिमा निम्रवरणत | उपजति छान तद॒पि भातिसुखरत तेहि अनुसर वरणों कर जोरी | श्रोता दियों मोहें नहिं खोरी करि. द्रशन जगदीश कबीरा उत्तर दिशा चल्यों मतिधीरा दोहा-बांधवदुग बघेलकों, ताटिंग जबहिं कबीर आए तब नप रामसिह, आरनेद युत मतिधीर ॥२१॥ ले आगे ल्याए तुरत, बांधवदुर्ग लेबाइ अति सत्कार कियो तहाँ, मानि रूप यदहुराइ २२ पुनि कबीर स्थानमें, भूप॑तेिे गये अकेल तब कबीर नपसों कहो, मोदि गुर कियो बघेल॥२४३॥ तेरे पूरुबके पुरुष, कियो शुरू जस मोहि मे ले आयो हंस दें, सकल खुनाऊं तोहि २४ वाराणसी जन्म में छीन्‍्हों। जगन्नाथ दरशन मन दीन्‍्हो

के के

तह समुद्रकों करि मयोदा | गमन्यो गुनराति अविषादा

करबी रजीकी कथा (२७ )

तहँ को भूप पुत्र ते हीना। विनती कियो मोहिं अति दीना में वरदान दियो लृप काहीं | दे सुत हैहें तुब तिय माहीं मोर अंश ते जो यक होईं। बदन बाब देखी सब कोई तब सुढूक नृप आनंद पायो। दे सुत निन तिय महँ जनमायो व्याश्नदेव भो जेठ व्याप्रमुख | अनुज तासु भो सुंदर हरदुख व्यात्रवदून छखि पंडित आये। जानि अद्युभ वनमहँ फिकंवाये तब कबीर धारे पंडित वेशा। जाइ भूषकी दियो निदेशा स्थाबहु व्याप्रबदन सुत काहों। ताते चढलिहे वेश सदाहीं भूष सुलंकदेव विन शेका।| स्यायो तुरत सुतहि अकलंका व्याप्रदेव तेहि. नाम सुहंसा तिनते चल्यो बघेछहि वसा

दाहा-तब कबार अस वर दियो, जगमें सहित प्रसंश अचल राज बांधा रही, चली बयालिस वेछा २५

ब्याप्रदेवके सुत नहें रहेऊ सो कबीरसें निन दुख कहेऊ तब कबीर किय मनमहँ ध्याता | कियो तुरत गिरिनार पयाना चंद्र विनय नृप रहो तहाँहीं। रानी इंदुमती राति छाहीं तीहे प्रुष कोर उपदंशा | दृपति किय हारिपरहि पवेशा सा कब्र हारेछोक सिधारी | देपाते काहिं योग मति थधारी ल्याया छुत गुनरातहि देशा | कीन्हों व्याप्रदेव सुतवेशा दियो नाम नजिसिद्ध प्रापैद्धा पारित वद्ध ऋद्धि अरु सिद्धा युवा बेस जैसिद्धहि आईं। निशिमहँ चिंता भई महाई केहि विधि नाम चढ़े चहुँओरा | क्षत्रीपर्म विनय वरजोरा व्याप्रदेवोों कह्यो पमाता | सो कह पितामहै कहु बाला तबे सुलंक देव हिग जाई। निन मनकी शंका सब गाई॥ सा सादर शासन तेहि दीन्हों। ले कछु सैन्य पयानों कीन्‍्हों

दोहा-गढा देशमहँ सो बस्यो, भूप नर्मदा तीर कणेदवताके भयो, तासख्ु सारेस रणधीर २६॥

(२८ ) कबीरजीकी कथा |

आर

गंगागार डॉडिया खेर | बेसनकी तहें रहे बसेरा॥ तहँ कीन्हों विवाह सुत केरा। डास्यो चित्रकूट पुनि डेरा बीती तहाँ बहुत दिन राती | व्याप्रदेवके भयो पनाती बहुत काठ जब बीतत भयऊ तब जयसिंह छोड़ि तनु दयऊ कर्ण देव तब भयो नरेशा | ताप्तु पुत्र॒केशरी सुवेशा भयो केशरीसिंह जुमाना | तब काछिनर कियो पयाना कालिंनर भूपति चेरेला | तासों कियो केशरी मेछा ले चेंदेछ चतुरंग महाता | कीन्‍्हों देश गहोंरा थाना बहुत काठ छगि बसे गहोंए | चल्यो केशरी उत्तर ओरा रह नवाब राजा तहेँ भारी। कीन्हों अमछ केशरी सारी सुनि नवाब दर छे चढि आये सुनि केशरी निसान बजायो

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माच्यी तहों महा संग्रामा विनय छक्यों केशरी छछामा

दीहा-पुनि नवाब तहँ आइक, कियो केसरी मेल

अधे राज्य देवे छग्यो, सो। लथो गणिखेल २७ पुनि नवाब केशरी बचधेढा | गोरखपुर पर कीन्‍न्हों हेला तब नवाब अति पभीति दे बावो गोरखपुर महँ तेहि बैठायों कहत भयो रक्षहु अब मोही मह दछ कोश छाज है तोही गोरखपुर वस्े॒ केशरि भूपा प्रगट/यो यकर पुत्र अनूपा इत नृप कणे देव मतिधीरा। चित्रकूय्मह तज्यों दरीरा पुत्र केशती को जो भयऊ। तेहिमछार नाम अस भयऊ सुत मढारके शारंग देवा दशारंगके भीमरू हरि सेवा भीमल देव प्रचंड प्तापी | अतिसुंदर हरि नामहि जापी भीमलदेव पुत्र जो भयऊ। ब्रह्मदेव तेहिं नामहि ठयऊ सो मगहरमहँ कीन्ही थाना। तहाँ वष्तत बहुकाल बिताना बह्देव ले कक महाईं। मिले -गहरवाननसों आईं

है आवक [4० कप

पुति सिरनेतनदेश सिधारा। कीन्हों व्याह उछाह अपारा

फम्फररकामार, कला अध्णयपकायह

अन्य,

कबी रजीकी कथा | (२९).

हा-तहँ कीउ भूपति बंधु इक, कीन्हे रहे विरोध ताहि पकारे ल्यायी सदुल, कारे चहूँ दिशि अबरोंध२१८

कर री 5.

ब्रह्नैवकके भों सिघ देवा। नरहारे देव तासु सुत भवा नरहरेके भई भेदसुधन्या व्याहीसों शिर्नेतन कन्या नरहारे वस्पो कछुक दिनकाशी भेदचस्यों हे दुल अरि नाशी भयो शालिवाहन सुभेद सुत विरसिहदेव तासु सुत नृप नुत भों विरासेंह महान भुवाका वस्यो प्रयाग आइ तेहि काला लियो अमऊ् सब देशन काहीं। छाख सवार रहें सेंगमाहों वीरभानु सुत भो पुनि ताके। राजाराम भये तुम जाके जब प्रयाग देश चहुओरा | अमस्यो ।वेराक्षेह निजभज नोरा॥ तब प्रना किय जाय पुकारा | दिल्ली शाह हिंमाऊदारा आये कोड कबीर बघेछा | छाले सवार चंदे बगमेला अमल कियो सो मुछुक तुम्हारा | सो सुनि शाह तुरंतरूधारा चित्रकू. आये जब शाहा। चलन टग्यों विरासेंह नरनाहा

दाहा-वररभाह तब जायक, वारन कयो बझाइह तुम जाइ मब्लच्छाहामल, एंद्ू सी इतधाय २५

तव॒ पृत्रहि विरापिह वबुझाईं। चल्यों तुरंत निशान बजाई चित्रकू/ विरतसिंह सिंधारा | सुतत शाह आगू पगधारा दोडद्छ भये बरोबर जबहीं सादर शाह बोढायो तबहीं बे भूयात गा शाह समाप्रा। बिहास शाह कह सनहु मह।पा कवन हेतु परणत दुखदीन्हों | काहे मुझुक हमारों छीन्हों तब विरसिंह बोल्यों मुसकाई | कोहसों किय नहीं छशाई जे हमहीं मारे तेहि मारें। अमल्यो तिनके देश अपारे कह्यो शाह कहँ सुबन तुम्हारा | वीरमानु कहें भप हँकारा वीरभानु_ तब वानि डड़ाई। परबोशाह होदामईँ . जाई

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शाह उतर हाथीते आयो। वीरमानु गोदहि बेठायों

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(३० ) कबी रजीकी कथा

बैठों तख्त माह जब शाहा। वीरभानु कहूँ बहुत सराहा पुनि विरासिंहहि कह दिल्लीशा अब हम तुमको देत अशीशा दोहा-बारहिं राजा कारि स्ववश्ा, करद्ु राज्य चहुँओर बांधवगढ़ निज्र वसनको, लीजे नृपशिरमोर ३० असकहि लिखित दियो दिल्लौशा चल्पो तब विरसिह महीशा 'दिल्लीपति प्रयाग हे आयो। करि मेहमानी भवन पठायो है दल पनि विरसिंह भुवारा। दक्षिण चल्यो सहित परिवारा आयो तमस नदीके तीरा | तब छाडिर परिहार सुवीरा नरों शेर महँ दुगे बनाई। वसत रहे सो बढी महाई सो मारग महूँ कियो छड़ाई। तासु नरों गढ़ छियों छँड़ाईं नरों नीति विरतिंह भुवालढा | बाधा नगर रहो तेहि काछा तहाँ कछुक दिन कियो निवासा पुनि गवनतमो दक्षिण आसा रहे रतपुर करचाडि राजा तुव पितुकेर कियो तहूँ कांगा सोदायन महँ बंॉधव दीन्दह्यों। तहेँ विरसिह वास चढि कीन्हो वीरभानुकी दे पुनि राजू | आय प्रयाग बस्यों ऋृतकाजू क्यों तोरे वेशावक्कि ऐसी नानी रही मोरि यह जैसी दोहा-सुनि अपनी वंशावली, बहुरि कह्यो शिरनाइ ॥। अब भविष्य यहि वेशकी, दीजे कथा खुनाइ २१ बांधव दुगे वसीकी नाहीं। राज्य चढी यहि भाँति सदाहीं आगे केसो हेँहें. बंशा | यह सिगरो अब करहु परशंशा तब कबीर बोले मुसुकाई रानाराम सुनहु चित छाई तुम्हें दशये वेशहि माहीं | छेही तुमहोा जन्‍म तहोँहीं सुत समेत बांधबगठ ऐही | बीमक ग्रंथ मोर तहूँ पेशे ताके अर्थ सम्थन करिही। संत समाजनकोी सुखभारिहों बीारमद्र तुम्दोी खुत होई। करिहो राज्य सदा सुख मोई संवत अष्टादृश॒ नवषटमें ऐही बांधव गढ़ अट्पटमें तबते ताहि विशेष बसहो। अपनो विमरू महलूस्ववैहों

“कवीरजीकी कथा | (३१)

गन जुट, कड़ीछ&)

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गायो वर्णत तेहि में पार ते पायो

निर्देश मम शासित वर्णित युगलेशा विस्तारा जानिेहू सब संत उदारा

दोहा-ओर कबीर कथा अमित, वरणि लहों किमिपार ॥| संक्षेपेते इत लिख्यों, कीन्धों नहि विस्तार १२

यथा बघेलवंशकी गाथा | वर्ण्यों मृत भविष्यहु नाथा तैसेहि अबढों प्रगण देखाती | पलछह बढ़े पछ घटि जाती मगहर गे यह समय कबीरा ढौंढठा कीन्ही तजनन शरीरा अतिशय पुष्प तुरंत मँगाई। तामें निमतनु दियो ईुंशई सबके देखत तन्‍्यों शरीरा। हिंदू यमनहुकी से भीरा हिंदू यमन शिष्य. रहे दोड आपूस में भाषे सब कोड यमन कह्यो माठी हम देंहैं। हिंदू कहें अनल्में हेहें तब दोड बाय पृष्पकेह टरथों। नाहिं कबीर शरीर निहारों आधे आंषे के दोड सुमना। दीह्यो हिंदू गाड़यो यमना भये कबीर प्रगंट मधूरामें | विचरन छंगे सकल वसुधामें यहि विधि आह अनेकवगाथा | सति कबीर है वषु जगनाथा . यह लीढ़ा करे सकल कबीरा | आयो बांधव पूनि मतिथीरों दीहा-अबलीा गृहा कवीरकी, बाँधवहुर्ग मेंझार जगन्नाथकों पंथ सो, पावत नबहिं कोठ पार ३३॥

इति श्रीमंक्तमाढान्तगंत श्रीछबीरज्ञीकी कथा स्वामी युगलानन्द कबीरपंथी भारतपयिद्द्वारा संशोधित समाप्ता |

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३२ ) आोष दोनोशछाब्द शब्द एकसो चोदह॥ ११४ सार शब्द से बांचि हो मानहु एतवारा हैं। आदि परुष यक बद्ुक्ष हँ नरजन डारा हा त्रिदेवा शाखा भये पत्ती संसारा हो। ब्रह्मा वेद सदी किये शिव योग पसारा हो विष्ण माया उतपति किया उरला व्यवहारा हो + तीन छोक दरशहं दिशा यम रो।कन द्वारा हो कौर है सब जीयरा लिय विषका चारा हा। ज्योति स्वरूपी हाकिमा जिन अमल पलारा हो।॥ कर्मकी बंसी लायके पकरयो जग सारा हो। अमल मिटारझऊं तासुका पठऊे भव पारा हो

कह कबीर निर्मेथ करों परखे टकसारा हो।

शब्द एक सो पनद्रह ११५॥ सनन्‍्ती ऐसी भूल जगमा ही जाते जिव मिथ्या में जाही पहिले भूले तबह्म अखण्डित झाई आपूुर्दि मानी। झाई मानत इच्छा कीन्हा इच्छाले आभमाना॥ अभिमानी करता दे बठे नाना पंथ चलाया। वही भूल में सब जग भूले भूछक मम नहि पाया लख चौरासी भुल ते कहिये भूलाहे जग विटम!या। जो है सनातन सो भूला अब सोइ भूलाहे खास भूछ मिटे गुरू मिले पारखी पारख देइ लखाईइ। कहाहि कबीर भूछ की आषध पारख सब की भाई ॥११९५॥

र्टर्ति

श्रीकवषीरजीकी कथा (३३) ( श्रीदाभाजीके भक्तमालखे दीकासददित )

मूल कबीर कानि राखी नहीं वर्णोअमषटद्रशनी॥ भक्तिविमुखजोधर्म सोअधमेकरिगायो योगयज्ञव॒तदानभजनविनतुच्छादिखायों हिंदूतुरकत्रमानर- मैंनी सबदीसापषी पक्षपातनहिं वचनसबाहिकेहितकीभाषी॥:आरूढ्द्श द्वैलगतपर मुखदेखीनाहिनमनी कबीरकानिराखीनहींवर्णोश्रमषटदरशनी ६०

टीका अतिहीगभी रमतिसरसकवीरहियोलियोभक्तिभावनातिपॉतिसबय रिये॥ भईनभवार्णद्हतिलक रवानीकरौकरीगुरुरामानंद गरेमालथारिये | देखनहींमुखमे रोनानिकेमलेच्छमोकी मातन्हानगंगाकहीमगतनडारिये रजनीकेशेशमयआविश- सोचलतआपपरे पगरामकहैंमेजसोंविचारिये २६५ कीनीवहीबातमालाति- छकबनाइगातमानिउतपातमातशोर कियोभारिये पहुँचीपुकाररामानंदजुकेपास- आइकही कोऊएपँछेतुमनामडेठचारिये छावोज्ञपकरिवाकोकबहमकियो'शैष्पला- यैकरिपरदामें पूछीकहिडारिये। रामनाममंत्रयहीलिख्योसबतंत्रनिमं खोलिप॑टामेले सांचोमतउरघारिये २६६

0. और आय, ह० #*.... छा

बुनेतानोहियराममड़रानोकही कैंसकेबसानेवहीरीतिकछुन्यारियें डतनेही- करे तामेंतनुनिरवाहहोइभोइगइओरेबातभक्तिलार्गाप्यार्यि उड़ेसेंडीमांझपटबे- चनडेजनकीऊआयोमोकोदेह॒देहमेरीहेउघारिये लग्योदेनआधोफारैआधोसों कामहोयदिये सबलबोजोपेयहीडरघारिये २६७ तियागुतमातमगदेखेभूंखे आवें कब दबिरहेहाटनमेंटविकहाधामकी सांचोभक्तिभावजानीनिपट सजानवेतों कृपाकेनिधानगृहशो चपरेउश्यामकों बालदंडेधाये दिनतीनियोंबितायेनब आये धीरडारिदईलहेउहैपरामकी माताकरैशोरकोऊहाकिममरेरिबांपे डारोबिनजाने सुतनहींलेतदामकोी २६८ गयेजनदोइ चारिदूठिकेलिवाइडायेआयेवरसुनी बात जानिप्रभूपीरको रहेसुखपाइकृपाकरीरघुराइद्इक्षणमेंठुटाइसबबोलिभक्तभी - रको दयोाछोडितानोबानोसुखसरसानोहियेकियेरोषधायेसुनिविष्रतजिधीरको क्योंरेतेजुलाहिधनपायोनाबुलायहमैं शद॒निकोदियोनाबोकहैँयोंकबीरको ॥९६५०॥

क्योंजुअठिनाईकछुचोरीधनलाउँनितहरिगुणगाउंकों उराहमेनमारी है उनको हैमानकियोयाहीमें भमान भयो जोपैनाइमँगा हमैंतोहीतोजियारीहै घरमेंतोना- होमंडीनॉउतुमरहोबैठे नीठिके छड़ायोंपेडोंछिपिब्याधियारीहे। आयेपभुआपद्ब्य लायेसमाधान कियोलियोसुखहोयभक्तिकीर्रतउजारीहै २७० ब्राह्मणकोरू

छा ३“ आर

पधरिआयेछिपिबिठेजहांकाहेकोमरतभूखानावोज्॒ कबीरके कोऊ जाइदारताहिदे-

( ३४ ) श्रीकबीरजीकी कथा तहैअठाईसेरवेरनिनिछावोचलेजावोयोंबही रके आयेघरमांझदेखिनिपट्मगनभये नयेनयेकातुकसाकेसेरहैंधीरके वारमुखीलईसंगममानोवाहीरंगरंगेनानो यहबातक- रीउरआतिमीरके २७१ संतदेखिदुरेसुसभयोईअसंतानिकेतबतीविचारिमन मांझ औरओआयोहे बेटीनृपसभातहांगयेपैनमानकियो कियोएकचीनउठिनछृटर कायों है राजानियशोचपरयोकह्यो कहाकह्योतबनगन्नाथपंडापॉवजरतबचायोंहै सुनिमचरजभारेनपनेपठायेनरलछायेसुधिकही अजूसांचहीसुनायो है २७२

| >पीिक

कहीरानारानीसोंजुबातवहसांचमईआंचछागीहियेअबकहौ कहा कीजिये चले हीबनतिचलेशीरातृणबो झभारीगरेसेकुल्हारीबांधीतियासंगभी निये निकतेबजार- « हैकैदारिदईछोंकछाजकियों में अकानछिनछिनतनुछीजिये ड्ररिनेकबीरदेखिदै- गयोअधीरमहाभआायोडठिभागेकह्योडारैमतिरीझिये २७३ देखिंकैप्रभावफे- रिउपज्योअभावदिनआयोबादशाहजूसिकंदरसोनामहै विमुखसमूहसंगमाताहू मिलठाइठईनाइकैपुकारे ज़दुखायोसबगाँवहै लावोरेपकरिवाकेदिसोरेमकरकैसो- अकरमिटाऊंगाढ़ेनकरतनावहै आनिठाद़ेकियेकाजीकहतसलामकरौजानिनसरा-

/ जय न्‍ कप

मलामेरामगाढ़ेपावहै २७४ बांभिकैजेनीरगंगातीरमांझबोरिदियोनियोौतीर ठाठीकह्दैयंत्रमंत्आवहीं ऊकरीनमांझडारिभगिनिप्रजारिदईनईमानें भई देहकंच- नलजावहीं विफलडपाइभयेतऊनहींभाइनयेतबमतवारों हाथीआनीकेझुकावहीं आवतनठिगओं बिघारिहरिभाजिनाइआयआपसिहरुपबैठेशो भागावहीं २७५ देख्योबादशाहिभावकूदिपरेगहेपाव देखिकरामातिमातभयेसब छोक हैं। . प्रभुपैबचाइलीसैहमैनगमबकीलीनैसेई भावैगांवदेश ना भोंग हैं चाहैंएकरामजा- कोनपैआठीयामऔरदाम्सोनकामजामेंभरेकीटिरोग हैं आयेघरनीतिसाधुमिल्े- करिपौतिजिन्हें हरिकी प्रतीतिवेईगायबेकेयोगहें ॥| २७६ होइकेखिसानेद्िन निनचारिविभनके मूड़निमुडा|इमेषसुंद्रबनाये हैं दूरिद्रिगावनमेंनामनिकोपूछि- पूछि नामनोकबीरजूकोझूटेंन्योतिभाये हैं आयेसबसाथुसुनिये तौदूरिगयेकहूंचह दिशिसंतनिकेफिरेंहरिधाये हैं इनहीकोरूपधरिन्यारेन्यारेटीरबैठेएऊमिलिगयेनीके पोखिकेरिझायेंहँ ॥९७७॥ आईअप्सराछरिबिकेडियेबैसकिये हियेदेखिगाढ़ोफिरि- गईनहींछागी है। चतुर्भुनरुपप्रभुआनिकैमगटकियोलियोफलनेननिक्रोबड़ोबडभागी है। शीशर्धरंहाथनसाथमेरेधामआवो गावोगुणरहीनोरीतिरेमतिपागी है। मगर्में- हैजाइभक्तिभावकोंदिखाइबहु फूछनिमगाइपौट़िमिस्योहरिरागी है २७८ इति

मूल र्मेनी प्रारम्भ

“5 “अली... +++-++ ( अक्षर सण्डकी श्मेनी )

प्रथमशब्दहेशुन्याकार पराअव्यक्त सो कहे बिचार॥अंत: करणउद्यजबहो पेश्यातिअधमात्रासोथ सैवरसाोकठ मध्यमाजान चालिसअक्षरमुखस्थान अनवानेवानीतेहि- केमांहि | विनजानेन रभटकाखाँहि बानी अक्षर स्व॒र सेंम- दाय ! अंधपरयोतिजातनशाय शुन्याकारसोप्रथमारहे अक्षरत्रह्मसनातनकहे निद्विति भंवृतिहेशब्दाकार प्रण वजानेइहे!बिचार साक्षी अक्कुलाहटकेशब्दजों, भई चारसोभिेष बहुबानीबहुरूपके प्रथकप्थकसबदेश १॥ रमेनी॥अनवनिबानीचारप्रकार काल संधि झांई सार।॥ दहेतुशब्दबूझियेजोय जानिय यंथारथ द्वारासोय॥ आमिकझां इसंघिकओकाल सारशब्दकाटेश्रमजाल द्वारों चारअथपरमान पेदारथ व्यंगौथपहिचान सवा १५९ ध्वन्याथंचार द्वाराशब्दकीइलखेविचार पेरा पराइति सुखसोजान मोरे सोरहकला निदान॥ साक्षी विन- जानेसोरहकला, शब्दीशब्द कोआये झाब्द सुधारप-

इसका स्थान नाभी इसका स्थान हृदय सोलह स्वर इत्यादि इसका स्थान कंठ व्यंजन नाना भकारकी एकट्ठा परयंति होय फिर परा अवस्था को प्राप्त होता है॥ लय॥ २० उत्तपत्ति ११ ओकार १६ उविभाहठ १३ सच्चा १४७ भरमाने १५ मांगे, रस्ता॥ १६ पद, अथ, शब्दका जो अर्थ, शब्दार्थ॥ १७ व्यंग, अर्थ, ब्यंग भाव से नों कहा जावे १८ मतरूब' आशय वाढ्ा नो अर्थ १९ घ्वनिमात्र २० परा और अपरा दो विद्या कोई शब्द प्रा विद्या को वर्णन करता हैं कोई अपरा को २१ भटकता है

( ३१६ ) रमेनी

हिचानिये, कोनकदहावोआय ॥२॥ रमेनी अक्षरवेद्पुराणव खान घरमकरमतीरथअल्ुमान अक्षरपूजासेवाजाप।ओर महातमजलेथाप॥यदहीकहावतअक्षरकाल जा एगडी उर हो यके भाले ओहं सोहे आतमराम मायामंत्रादिकसब काम यग्रेसबअक्षर संघधिकहे जेहिसानिंशिवासर जिव रहे नि- रशुणअलखअकहनिवोण मनबुधि इन्द्रिय जायनजान बिघिनिषेघजह॑ बेनितादोय कहेंकबीरपदझांइसोय साक्षी प्रथमेझांई झांकते, पेठासंथिककाल पुनिझाईकी झांइरही, गुरूविन सकेकीडाल दे मे रसमेनी प्रथमही संभवशब्द अमान !॥ दब्दीशब्दकियोअलुभाव सानमहा तममानखुलान मानल मानत बावनठान॥ फेश फिरतल- यो अ्रमजाल देहांदिकजगनये विश्वाल देह भईतेंदेहिक- होय जगतभईतेकता कोय कता कारणकर्महिलाम घरघर लोगकियों अनुराम छी दरशनवणेअंमचार नो छो भणए पाखंडबेकार कोई त्यागी अलुराणीकोय विधि- निषेघभाबधियादीय कल्पेउम्ंथपुराणअनेक भरभिरहे सबबिनाबिवेक साक्षी मरभिरहासब झाव्दमें, खब्दी- शब्दूनजान शुरूऋपानिजपसखेवल, परखोयेोखाज्ान ४॥

२२ तीर ३३ जगत को निषेधकर और बह्मका प्रतिपादन करना यह है ख्री निस्का २४ होंताभया २५ शब्दका मालिक छझब्द कहने वाछा «६ हेतु॥२७ श्योगी९ जंगम३ सेवड़ा सन्यासी५दर्वेश छठांकहिये ब्राश्न घर है भेश २८ ब्राह्मण क्षत्री वेश्य शाद्‌ वर्ण और ब्रह्मचय्य गहस्थ बाणप्रस्थ सनन्‍्यास आश्रम ३९५-६३०८ छ्यानवेषासण्ड ३९१ विरक्त ३२ गृहस्थ

रमेनी ( ३७ )

रमेनी धोखाप्रथमपरखियेभाई नामजातिकुलकमबड़ाई क्षितिजिल पॉवक मैरुतअकाश तामहपं्च विषयपरकाश!।। तत्व पांचमेंड्वासासार प्राणअपानसमान उदार ओर- वब्यानबावनसंचार निजानेज थैलनिज कारजकार ।॥ इंग- ला पिंगला खुखमनी इकइस सहस्सल छोसत सोगनी निगम अगम सो सदा बतावे इवासासारसरोदा गावे साक्षी धोखा अंधेरी पायके, याविधिमयाद्ारीर कल्पेठकारताएक पुनि, बढ़ीकर्मकी पीर ५॥ रमेनी योग्य जप तपध्यानअलेख तीरथ फिरतघरेबहुमेख योगी जंगमातिद्धउदास घरको त्यागि फिरिबनबास कैन्द मूल फेछ करतअहार कोइकोइ जटाधरे शिरभार मन- मलीन मुखलायेधूर आगे पीछेअप्लिओ सर नम्नहीोयनर खोरे नफिरे पीतरपाथरमेंशिरधरे साक्षी कालझाब्द- केसोरते, होरपरीसेसार देखा देखीभागिया, कोइ नकरे विचार ६॥ रभेनी जब प्रॉनेआयखसी यह बानि॥ तबपुनिचित्तमाकियों अजुमानि महीं बह कर्ताजगकेर

३४ अप्नि ३३ प्रृथ्वी ३५ वायु ३६ शब्द आकाश का विषय स्परी वायुका रूप अग्नि का रसजलका गंध पृथ्वीका रे७ उदान ३८ स्थान॥ २९ शाख्र ४० वेद्‌ ७१ अविदा अज्ञानता ४२ दुख ४३ जो पृथ्वी के नीच होता है जैसे आलू शकरंद केसउर फर इत्यादि ४४ जो मूछ से होता है अर्थोव्‌ काठ फोंड कर नो निकलता है जैसे कट हल; गूछर इत्यादि ४५ जो फूल से पैदा है जैसे आंब ( केरी ) अमरूद (नामफछ) इत्यादि ४६ सूय्ये ४७ बेशामं ४८ शोर हल्छा ४५ फिर शब्द ५०

( १८ ) रमेनी

परेसोजालजगतकेफेर पांच तीनशुणजगउपजाया सो मा- यार्मेबह्मानिकाया उपजे खपेजगविस्तारा भेंसाक्षीसव जानानिहारा॥ मोकह जानिसकेनाहिंको जोपविधिहरि शां- करहोय अस सन्धिककी परी बिकार बिनुशुरूऋपानहो - उबार मश्न बह्मसंधिककेज्ञान असजानिअबभयाश्रमहान साक्षी संधिशब्द्हेमममो, भूलिरहा कितलोंग पर- खेउघोखामेवबेनहिं, अंतहोतवड़ सोंग रमेनी जोकाइ संधिकधोखाजान सोपुनिउछाटे कियोअनुमान मनबुद्धिइन्द्रियजायनजान निर्रेबचनीसोसदाअमान अंकल अनीह अबाध अभद नेतिनेतिकेगाबेवेद सोहं बत्ति अखण्डितरहे एकदोयअबकोतहांकह जानिपरी तब नित्याकार झांई सो श्रममहाबेकार साक्षी संभव शाब्द्अमानजो, झांईप्रथम बेकार परखेड धोखा- भेवनिज, शुरुकी दयाउवार ॥८॥ रमैनी॥ पहिले एकदाब्द- समुदाय बाबनरूपधरेछितराय इच्छा नारिधरेतेहिभेश॥ तातेब्रह्मा विष्णुमहेश चारिड उरप्रबावनजागे॥ पंच अठ- रहकंठाहिलागे तालू पंचशुन्यसों आय दद्खऋरसनाके पूत- कहाय॥पांचअधर अधरहीमारहे। 'जुन्नेकठसमोधेवहे॥ ठकी- ठलेप्रंगंटे ठोर बोलनलछांगे औरकेओऔर साक्षी एक-

शब्द सम्॒दायजों, जामेचार प्रकार कालशब्द सैं-

५१ पंचितत्व देखो रमैनी ।१० इत्यादि ५३ कहां ५४ भेद ५५ शोक दुख, ५६ कहने में नो नहीं आवे ५७ कढा अंश रहित ५८ इच्छा रहित ५९ बाद रहित ६० भेंद रहित ६९ लगन, ख्याल, सुरत ६२ सत्य रूप

रमेनी | ( ३९ )

हुडडुे दंड #९ का

घिटशबद, झाइईओपुनि सार॥ रमेनी पांच तीलने मो की आचार ॥और अंठारह करेपुकार कमंधमेतीरथ- केभाव इसवकालशब्दकेदाव सोहेआत्मात्रहलखाव तत्वमसी मृत्यंजयभाव पंचकोश नंवकाश वखान सत्य- झूठ मकर अनुमान इेश्वरसाक्षी जानानिहार येसवर्साधि- ककहेविचार॥का रजकारणजहांनहो यामिथ्या को मि थ्या कट्ठि- सोय बैन चेननहिंमोनरहाय इसबझांइदीनसुलाय॥को काहका कहानमाना॥जोजेहिभावेतहंऊँरुझान परेजी वतेदि यमकेघार॥जोलोपावेशब्द्नसार॥जी दुसह हु खदे खिद्‌॒या ल॥ तवम्ररीप्रशभुपरखरि साल साक्षी परखायेत्रश्ठ एक को, जामे चारप्रकार काल संधि झांई लखी लखी छाब्द्‌ मत सार १०॥ रमेनी प्रथमेण्कशब्दआ रूढठ तेहितकि कमकरेवहुमूठ अह्मयमरमहोयसब [ जग ] में पेठा निरम- लहोयफिरिवहुएँठा मरमसनातन गाव पाँच अटकि रहेन- रभवकी खंच आगेपीछेद्हिनेबांये भरमरहाहेचहुदिशि छाये डठीममंनरफिरिउदास घरकोत्यागिकियो वनवास

६३ पांच तत्व ६४ तीनगुण ६५ नो व्याकरण ॥६६ छो शाखर ॥६७ चार वेद ऋगवेद यज़ुवद * सामवेद्‌ रे अथबेवेद६८अठारह पुराण॥ १मा « कंडे पुराण मत्स्य पुराण रे भागवत भविष्यत पुराण ब्रह्म वें वतेक ब्रह्माण्ड पुराण ब्रह्मपुराण विष्णपुराण १० वाराहपुराण १९ वायुपुराण अश्निपुराण १३ नारद पुराण १४ पद्म पुराण १५ कूर्म एराण १६ स्कंद पुरा १७ लिंग पुराण १८ गरुड़ पुराण ६९ नाम वायु ७० अन्नमय, प्राणम य, मनेमय, ज्ञानमय, विज्ञानमय ( आनंदमय )७१ उपरोक्त ओर शब्द्मय प्रकाशमय आकाशमय आनंदमय देखो बोजक के ५० वीं साख्ी का टीका पृष्ठ ३६१ ओर कबीर मंशूर बड़ा पृष्ठ ६९६ ७२ बाणी

७३ फंस गया ७४ कठिन ७५ शष्द ७६ पांचतत्व ७७ कीचड़ पंक,कांदों ७८ निराकार

( ४० ) रमेनी

भरमबढ़ीशिरकेशबढदाब तकेगगन कोइ बांह उठावे देता री करनाशाग है भरमिकग॒रू बतावे लहे भरम बढ़ी अरू घूमन लागे वितछु गुर पारख कहु को जामे साक्षी॥ कहे कवीर पुकाश:के, गहदुशरणतजिमान परखावे गरभर- मकोी, वानि खानिसहिदान ११ रमेनी भरमजीव परमा लममाया॥मरमंदेहओ भरम निर्काया | अनहृदनाद ज्पो ति प्रकास आदिअन्तलोभरमांहे भास इत उत करे भरम निरमान॥नरम मान ओभमरमअमान॥ की हैं जगतक हांसे भया॥ इंसबमरम अत्तीनिरमया पलय चारे श्रमपुण्य पापद्ष मन्त्रजापपूजाश्रमथाप साक्षी बाट बाद सब भम हें, माया रचीबतवायथ जेद दिना भरमें सकल,गुरुू बिन कहांल- खाय॥ १२ ( बापपूत दोठ भरमहे, सायारची बनाय भेद बिनाभरमे सकल, शुरू बिनकहॉलखाय ) साक्षी बापपूल दोऊझ भरम, आधकोश नवपांच बिन गुरू भरम नछुटे, केसे आवेसांच १३॥ रमेनी कैलमा बाग निर्मोज गुजारे॥मरमभडे अछाहपुकारे अजबभरम एकभईतमासा॥ ली मुकाम बेचूननिवासा वेनेंमूनवहसबव केपारा॥ अखि- रताको करे दिदोरा रगंडेनाक मेंसजिद्अचेत निंदे बुत

७९ स्थित ८० नित्य प्रछयय नेमित्रिक पछय महाप्रय आात्ये तिक ग्रठय ८९१ अधामात्री मुसलऊमानो का गुरु मन्त्र छा एला इलि- सलाह मुहम्मदुरंस लिस्छाह <३ अनान जो निमान पढ़ने के थोड़ही पहले निमान के समय सूचन करने को कलमा श० पुकारते है ८४ जो ख़दा के प्रार्थना पांच समय दिन और राज्री पढ़ते हैं पश्चिम मुह होकर ८५ स्थान रहित ८६ निराकार ८७ अद्वितीय ८८ क्यामतके दिन,स॒ष्टि के अंत में नब ख़दा सबका न्याय करेगा ८५९ दरशन ९० मुसलमानों के नेमात्त पढने की जगह ९१प्रतिमापूजक

स्मेनी (६ ४१ )

परस्ततोहिदित बोबन तीखेंबरन निरमान हिन्दू तुरक दाऊभरमान साक्षी भरमिश्हेसब भरममहं, हिद- तुरूुकबर्खांन कहहिंकबीरपुकाश्के, बविह्गुसकोपहिचान १४ ) रमैनी सरमत मरसतसबे भरमाने रामसनेही विरलेजाने तिरदेवा सबखोजतहारे सुरनरम्न॒निनहिपा- वबतपारे थकितभयातबकहाबेअन्ता विरंहानिनारिरदी बिल्ठु केंन्ता कीटिनतरक करें मनमाही दिलकी हुबिधा कतहुंनजाही कोई नख शिखजटदटा बढ़ाबे भमरमिभरमि- सबजहँतहँधावें बाटनसूझे भईअँधेरी होयरहीबानी की चर बाना पन्‍्थ बराननाहुजआई ( जातिकम गुन नापग्र बढ़ाई ) जाति वरणकुलनामवड़ाई रेन दिवसवे ठौटेरहही वक्ष पहारकाहुनाहितरदीं साक्षी खैंसमनचीन्दहे बावरी, परप्रषछोलीन कहंदिकबीर पुकारके परीनबानीचौन १५ रमेनी केनरसकी मतवालीनारि॥ कुँटनीसेखो- जे लगवारे कुटनीआंखिन कीजरदियऊक | लागिवंतावन ऊपरपोयऊ काजरलेकेहवैगइंअंधी सम्झनपरीबांतेंकी

संधी बाजेकुटनीमारे भंटकी सब छिनरोतामहँअ- टका वेरहिनिहाय के देहसुखावे कोड शिरमह केशव- ढाव मानि सानि सब कीन्ह सिंगारा बिनपिथपरसेस- बेअंगारा साक्षी अटकीनारिछिनारि सब, हर- दुम कुंदनाद्वार खसम चान्देबावरी, घरघराफिरतखु-

९२ संस्कृत वणमाला के ५२ अक्षर ९३ मुसलमानीवर्णमाछा के ३० अक्षर ९४ मुसलमान ९५ वियोगिव ९६ पिया माढिक ९७ खड़े ९८ मालिक ९९५ बाणी १०० गुरुआ छोग २०१ आशना, जार १००२ झूंठा उपदेश १०३ उपदेश करने छगी १०४ मिलढावट १०५ इशारा

( ४२ ) रमेती

वार १६॥ रमेनी #॥ नवदरवाजाभरमविलास भरमहि- वावनबहेवतास कंनडजबावनभूतसमान कहं लागिगनों स्रों प्रथमठड़ान माया बह्मजीवअनुमान मानतही मालि बारान अकबकभूतवके परचंड व्याि रहा सकलो बह्ांड भम भूत की अकथकहानी गोत्योजीवजहांन- हिपानी तनकतनकपरदोरे बोरा जहांजायेतहंपावेन- ठारा साक्षी योगी रोगीभमक्तबराबरा, ज्ञानीफिरे

निखटू संसारोकी चेन नहींहे, ज्यॉसरांयकाट्टू॥ १७ रमनी इतउँतदोरेसबससार छुटेनमरमकियाउपचार जरेजीवकोबहुरिजराब काटे ऊपर लोनलगावे योगी ऐसी हालबनाई उल्टी बत्ती नाक चलाई काइविभूत्ति मृगछालाडार अगमपन्थका राहानहारे काइहको जलमां- झसुताबवे कहरतही सबरेनगंवाब भमगती नारी कीन शगार बिन भिया परचे सबे अंगार॥ एकगल ज्ञानअन- मान तारि पुरुषकाभेद्नजान संसारीकहंकलनदिंपावे कहरतजगर्मजावगवाबवे चारिदेशामें मंत्रीआरे लियेपलीतामुलनाहारे जरैनभूतबड़ो वरिशिं।रा काजी पाण्डत [ पचिपाचे | पढ़िपाढ़ि हारा इन दोनों परणके भूत झारग क्यामाका चूत साक्षी घ्तनउतरे चूतसों, सन्‍्तो करावचार कहकवीरपुकारिके, बितुगुर नहिंनिस्तार

११७ 9१ 89७... हक.

साक्षा॥परमप्रकाश भासजो, होत भ्रीटाविशेष॥ तद क्‍प्रकाश

२०६ अक्षर १०७ डुबाया १०८ उदाप्त १०९ सुख ११० यहां ब॒वां १११ नेती धोती बाहर कराता है ॥११५ हाय करते २॥ ११३ पंडित छोंग॥ ११४ मनबूत बढीबलवान ११५ अध्यास २११६ हंढ़ |

रमेनी ( ४३ )

संभव भई, महाकादा सो छोष १९॥ साक्षी झांइंसंभवजुद्धि ले, करीकल्पना अनेक सोपरकाशक जानिये, ईश्वरसाक्षी एक साक्षी बिषमभइशंकल्प जब, तदाकारसोरूप महा अधरीकालसो, परेअविद्या कूप साक्षी महातत्व तन्रीगुणपांच तत्व,समष्ठि वर्थष्ठि परमान दोय प्रकार होयप्र- गठे, . खेंड अखंडसोजान २२॥ रमेनी सदा अस्तिमा से निजमास सोइकहियेपरम प्रकाश परमप्रकाशलछे झां- ईं होय॥ महदअकाश होयबरते सोय॥बरतेबते समानपरचंड भासक तुरियातीतअखंड कालसंघिहोये उश्वास आगे पीछे अनवनि भास विविधि भावना कलिपित रूप॥ परका- शी सोसाक्षि अनूप शून्य अज्ञान खुब॒प्तिहोथ अकुलाहट ते नादे सोय (शून्य ज्ञान सुषुप्ती होय अकुलाहटंस नादी सोय )॥ नादवेद अकषंण जान तेजनीर प्रगंठे तेहिआन पानी पवन गांठि परिजाय देही देह धरे जग आय ।॥ सो कौआर शब्द परचंड बहुव्यवहार सण्डब्रह्मण्ड साक्षी जतन भये निज अर्थ को, जेहि छूटे इस मूँरि॥ धर परी जब आंखमें, सूझे किमि निजमूर २३ रमैनी पांजी परख जबे फारिआवे तुरताहि सभे विकार नशाजे शब्द सुधारि के रहे अकरम स्वाती भक्ति के खोटे भरम काल जाल जो लखि नहिं आवे तोौलो निजपद नहीं पावै॥ झांई संधि काल पहिचान शार झावद बिलु गुरू नहिं- जान परखे रूप अवस्था जाएण॥ आन विचार ताहे समाए॥ झौंई संधि शाब्दले परखे जो य॥ संशय वाकेर है को य॥

१९७ समूह जैसे बन ११३ एक जैसे एक वक्ष ११५० अंस कल पूणे १२१ सत्य १२२ अध्यात् का कराने वाछा १९३ हटेर सम॒ह १२७ वेदात

( ४४ ) रमेनी

साक्षी धन्य घन्य तरण तरण, जिन परखा संसार वददी छोरकबीरसों, परगटगुरू विचार २७४॥ रमेनी शब्द साँंधे ले ज्ञानी सूट देह करमजगत आरूढ़ नाइसं पघेले सपना होयथ झाँद शून्य सुषोपाते सोय ज्ञान प्रका शक साक्षी संघथि लरियातीत अभास अवंधि झांई ले बरले वतमान सो जो तहां परे पहिचान काल अस्थिति के भासनशाए परख प्रकाश लक्ष बिलगाएण बिलगेलक्ष अपन पो जान आपु अपन पो भेद आन साक्षी आप अपन पो भेद्‌ बिलठु, उलटिपलाटिें अरझाय गुरू वि मिंटे दुगहुगी, अनवनियतननशाय २५ रमेनी निञ्ञ प्रकाश झांइ जो जान | महा संघि माकादश बखान सो पांजी बुद्धि विशेष।प्रकाशक तरियातीत अरूझछोष॥ (वोविध भावना बधि अलुरूप विद्यामाया सोई स्वरूप सो संकल्प बसे जिव आप फुरी अविद्या बहु संताप त्री गुण पाँच तत्व विस्तार तीन छोक तेहि के मंझार अदेबु दकला बरान नाहे जाई उपजे खंपे तेहिमाहे समाईं निज झाँइ जो जानी जाए॥ सोच मोह संइंह नशाए अन जाने की णद्दो रात नाना भाले करें परतीते सकल जगत जाल अरुझान बिरला और कियी अज्लुमान क- ता बहा भजे दुःख जाए कोई आपे आप कहाए पूरण सम्भव दूसरनाहिं बंधन मोक्ष एको आहिं॥ फल आ- ख्ित स्वगंहिके भोग कम छुकम लहे संयोग करम हीन बाँना भगवानासत कुँसत लियो पद्दिचान भांतिन भाँतिन

१५५ अंतर का जो शब्द १२६ दाव, स्वरूप १२७ फरि औता १२८ अनुसार मुताबिक १६५ स्फुण हुआ १३० नाना रंगका आइचये- मय १३१ नाश होता है १३५ भेष १३३ भछा ॥१३४ बुरा

रमेनी ( ४५ )

5१32५ #७

पहिरे चीरायुग युग नाचे दास केबीर २१ रमेनी ॥भासे जीवरूप सो एक तेही भास के रूप अनेक कोई मंगन रूप लोलीन कोइ अरूँप इश्चर मन दीन कोई कहे कमे- रूप हे सोय छाब्द निरूपन करे पुनि कोय सैंमंय रूप कोड भगवान कत्ता न्‍्यारा कोह अन्लमान कोई कहे इशेर ज्योतिद्ठि जान आतम को कोई स्वतः बखान कीाईइ कहे सब पाने सबते न्यारा आपे राम विश्व विस्ता- 'रए॥ छावद भीव कोई अनुमान अदे रूप मई पाहिचान॥ ढुगेंदुग रही की बोल बात बोलतही सब तत्व नशात्त बोल अबोल लखे पुनि कीय भास जीव नहिं परणे सोथ

साक्षी निज अध्यास झांई अहै, सोसंधिक शोभास प्रथम अनुहारी कल्पना, सदा करे परकास २६ स्मैनी! लख चोराशी योनि जेते देही बुद्धि जानिये लेते जई जेडहि भास सोईइ सोइ रूप निश्वे किया परा भवकूप नाना भांति विषय रस लोन अरूझि जिव पमिथ्धा दीन दोवा विषय जरे सब लोय बाँचा चंहे गहे पुनि सोय ॥द८ विशास भरोसा राम कबहं तो वे आँवे काम विषय विकार मांझ संग्राम राम खठों छा किया अशम घायल बिना तौर तश्वार सोहइ अभरणे जेदहि सीझे मरतार

१३५ भक्त छोग १३६ सगुण उपासक १३७ निरगण उपासक १३८ पूर्व मीमांसक १३९व्यसकरणी १४० वैशेषिक ( काछ वादी ) १४९१ तक वादी नेयाइक १४४२ योगी ( पातांजठ ) १४३ सांख्यक | १४४ वेदांती १४५ बोलता १४६अद्भुत रूप १४७ शुंका १४८ विज्ञानी १४९ करपना १५० उसके बद्धि का नो विषय १५१ अग्ि ॥९७० आशा १५३॥ क्षोंम, ऐबे १५४ गहन

पी

( ४६) रमेनी

कामिनी पहिर पिया सों रॉची॥ कहें केवीर भव बूड़त बाँची २३॥ रमेनी भव बूड़त बेडों भगवान चढ़े धाये लागी लोज्ञान थाह पावे कहे अथाह डोलत करत तराहदि तराह सूझ परे नहिं वार पार कहे अपार रहे मेझधार मांझधारमें किया विवेक॥कहां के दूना कहांके एक बेरा आपएु आपु अवधार आप उतरन चाहेपार बिन जाने जाने है ओर॥आपे शाम रमेसब ठोर॥ वार पार ना जाने जोर कहे कवीर पार है ठोर २४ रमेनी अक्षर खानी अक्षर वानी ॥अक्षर ते अक्षरठतपानी अक्षर करता आदि भकास ताते अक्षर जगत विलास अक्षर ब्रह्मा विष्णु महेश अक्षर रज सत सम उपदेश छिति ज्ञल पावक मरुत अकाशा।।ये सब अक्षर मो परकार॥। दशा ओतार सो अक्षर माया अक्षरनिगंणबह्यानिकाया

अक्षर काल संधि अरू झाँइ अक्षर दोहेने अक्षर बाई अक्षर आगे करे पुकार मँटके नर नहिं उतरे पार

१5१

गुरुकपा निज डेंदेयविचार जानिपरी तव गुरूमत- सार साक्षी जहां ओसको लेश नही, इंडे सकल जहांन गुरु कृपानिज परखबलछ, तव ताको पहि- चान॥ २७॥ रमेनी अक्षर काया अक्षर माया अक्षर सतगुरु भेद बताया।॥ अक्षर यन्त्र मन्त्र अरू पूजा॥ अक्षर धान धरावत दूजा अक्षर पढि जगत झुलान अक्षर

कऋ..... १६३ ७०५

बिनु नहिं पावे ज्ञान विन अक्षर नहें पावे गती अक्षर

3५५ छगी १५६ गुरूु॥ १५७ नाव किश्ती १५८ बीच वारम १५५ दक्षिण पंथ ॥१६०वाममाग १६१ अपना॥ १६२प्रकाश॥ १६३ मुक्ति

रमेनी | ( ४७ )

बिन नहिं पावे रती अक्षर भएण अनेक उपाय अक्षर खुनि शून्य समाय अक्षर से भव आवबे जाय अक्षर काल सबनकी खाय !! अक्षर सबका भाषे लेखा अक्षर उत्पति प्रलय विशेखा अक्षरकी पावे सहिदीनी कहें क- बीर तब उतरे प्रानी साक्षी परखावे डझुझूुकृपा कारि, अक्षर की सहिदानि॥ निज बल उदथ विचारतले, तब होवे श्रम ह्ाानि॥ २८ रमेनी बावन के बहु बने तरंग ताले भासत नाना रंग उपजे पाले अनुसरे बावन अक्षर आखिर करे राम कृष्ण दोठ लहर अपार जेहिपद गहि नर उतरे पार महादेव लोमर नहीं बांचे अक्षर त्रास संब झुनि नाचे ब्रह्मा विष्ण नाचे अधिकाई जाकी धमें जगत सब गाई नाँचि गण गमंधवे मुनि देवा नाचे सनकादिक बहु भेवा अक्षर न्ांस सवन को होई साधक सिद्ध बचे नहिं कोई अक्षर चास लखे नहि कोई दि भूछ बंछे सब लोई अक्षर सागर अक्षर नाव करणधार अक्षर सझुदाव अक्षर सबका भेद बखान बिन अक्षर नहिं अक्षर जान अक्षर आसते फंदा परे॥ अक्षर लखे ते फंद्ा टरे॥ गुरु शिष अक्षर लखलखावे चाराशी फंदा मुक्तावे विज्ठ गुरु अक्षर कौन छोडावे अक्षर जाल ते कोन बचाव संचितें क्रिया उदय जब होय भाठुष जन्म पावे तब सोय गुरुपरख बल उदय विचार परख लेद्ठु जगत श॒रूसुख सार अस्ति हंसप्रकाश अपार॥

१६४ प्रवात्ते १६५ चिह्न, पारख, पहिचान, १६६ भय १६७ जन्मांतरोंमें संचित किया हुआ कर्म

(४८ ) रमेनी

गुरुमुखत सुख निज अति दातार ३७ साक्षी अक्षर है तिहु भमंका,विठु अक्षर नहिं जान॥गुरू कृपानिज बुद्धिबल, तब होवे पड्चिचान २९ साक्षी जंहवां से सब प्रगठे, सो हम समझत नांहि यह अज्ञान हे मानुषा, सो गरु बहा कहि ताहि ३० साक्षी ब्रह्म विचारें ब्रह्मकी, पारख गुरू प्रसाद रहित रहे पद परखिके, जिव से होयथ अवाद ३१ मूल रमेनी सम्पूणा काठिन शाब्द जेले रहे, टिप्पणी करि बनाय बाकी अब कछु द्ोय जो दीजो संत जनाय ग़रूथल हौोंता जानिये, शिविंहर जन्म स्थान॥ युगलानन्द मम नाम है, जानो संत खुजान ९२

१६८ जहांसिे १६५९ दया, कृपा १७० अढूग १७१ वाद रहित . १७३ जिछा सारन डा० घ० कुवाहकाट्के इलाकेमे और हथुभासें पांच कोस उत्तर पर हैं १७४ बिहार प्रान्तके मुजफ्फरपुर जिक्ेमें राजस्थान हैं

इति श्रीमूछरमैनी प्रसिद्ध अक्षरखण्डकी रमेनीं स्वामी युगलानन्द कबीरपंथी

भारतपयिद्वोरा संजोधिता समाप्ता

पुस्तक मिलनेका ठिकाणा- खेमराज भीकृष्णदास, & ीवेकटेशवर ! ( स्टीम) यन्ताहय-बबूबई.

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अथ आदिमंगल रीहा-प्रथमे समरथ आप रहे, दजा रहा कोइ दूजा केहि विधि ऊपजा, पूछत हों गुरु सोइ॥ १॥ तेबसतगुरु सुखबोलिया, सुकृतसुनोसजान आदि अन्त की पारचे, तोसों कहों बखान॥ २॥ प्रथमसुराते समरथ कियो, घटमें सहजउचार॥ ताते जामन दीनिया , सात करी विस्तार॥ दूजे घट इच्छा भई, चितमनसातो कीन्ह॥ सातरूप निरमाइया, अविगत काहु चीन्ह॥ ४॥ तबसमरथ के अवर्णते, मूलसुरति भै सार रशष्द कला तातेभई पाँच ब्रह्म अनुह्दार «॥ पाँचो पाँचे अंड धारे, एक एकमा कीन्‍्ह।॥| दुई इच्छा तह गुप्तहं, सो सुकृत चितचीन्ह ६॥

(२) बीजक कबीरदास |

योगमया यकु कारणे, ऊजे अक्षर कीन्ह याअविगतिसमरथकरी, ताहिशप्तकरिदीन्ह बासा सोहं ऊपलजे, कीन अमी वंधान॥ आठ अंश निरमाइया, चीन्हों संत सुजान॥ तेज अंड आचित्यका, दीन्हों सकल पसार अंड शिखा पर वैठिके; अधर दीप निरधार॥ ते अचिन्त के प्रेमते, उपजे अक्षर सार चारि अंश निरमाइया, चारे वेद विस्तार ॥१०॥ क्षका दीनिया,नीद मोह अलसान॥ वेसमरथरअविगतिकरी, मर्मेकोइनहिजान ॥११॥ जब अक्षरके नींदंगे।देबी सुराति निरवान इयामवरण यकअ्ंड है, सों जलमें उतशन ॥१२॥ अक्षर घटमें ऊपजे,व्याकुल संशय शूल॥ किन अंडा निरमाइया, कहा अंडका मूल ॥११॥ तेहि अंडके सुकखपर, छूगी शब्दकी छाप अक्षर दृष्टिसे फूटिया, दशद्वरि कढ़ि बाप॥१४॥ तेहिते ज्योति निरश्षनो; प्रकट रूप निधान काल अपरबल बीरभा, तीनिलोक परधान॥१५॥ ताते तीनों देव भे, बह्मा विष्णु महेश चारिखानितिनसिरजिया, मायाके उपदेश ॥१६॥ चारि वेद पट शाब्रऊ, दशअष्ट पुरान आशांद जग वॉचिया, तीनों लोक झुलठान ॥१७॥ .

आदिमंगलरू। (३)

लख चोरासी धारमा, तहाँ जीवदिय बास

चौद॒ह यम रखवारिया, चारिवेद विश्वास ॥१८॥

आपु आपु सुख सबरमे, एक अंडके माहि

उत्पतिपरलयदुःखसुख, फिरिआवहिंफिरिजाहिं १९

तेहि पाछे हम आइया, सत्य शब्दके हेत

आदि अन्तकी उतपती, सो तुमसों कहिदेत ॥२०॥

सात सुराते सबमलह, प्रढयहु इनहा माह

इनही मासे ऊपजे, इनहीं माहँ समाहि ॥२१॥

सोई ख्याल समरत्थकर, रहे सो अछप छपाइ॥

सोई संघिले आइया,सोवत जगहिं जगाइ॥२२॥ . सात सुरातिके बाहिरे, सोरह संखके पार

तहँ समरथको बेठका; हेसन केर अथार ॥२३॥

घर घर हम सबसों कही, शब्द सुनें हमार

ते भवसागर डूबहीं, रूख चोरासी धार॥२४॥ मंगल उत्पत्ति आदिका, घुनियो-संत सुजान

कह कबीर गुरु जाग्रत, समरथका फरमान ॥२५॥

65 ७.१

वरतानदशातत्मक मगढ

दोहा-प्रथमे समरथ आपरहे, दूजा रहा कोय दूजा केहिविषि ऊपजा, पूंछतहों गुरुसोय ॥१॥

हक ७. का.

कबीरनीकी वाणीके अर्थ करिवेकों मोमें सामथ्ये नहोंरही परंतु साहब यह बिचारिके कि कबीरजीके बीनककों पासण्ड अर्थछगाइकै नीवबिगरे जायहें सो

(४) यीजक कबीरदास

साहब तो परमदयालु हैं उन को करुणाभईं तब कबीरनीको भेज्यो याकहिंके कि आगे हम तुमको भेज्ये हतों सो तुम ग्रन्थबनाइकै बहुत जीवनकों डप- देशकरिके उद्धार कियो सो अब तिहारे ग्रन्थको पाखंड अर्थकरिके पाखंडी दे कै जीव बिगरे नायें हैं बहुत बिगरिगये सो तुमनाइके जौन अर्थ तुम बीज- कमें राख्योंहै सो अथे विश्वनाथ सें बनवावों जाते सो अर्थ समुझिक जीव हमारे पास आवें सो कबीरणी आयके मोसों कह्यों कि तुम बीजकको अथे बनावो हम तुमको बतावेंगे सो उनके हुकुमते में बीजककों अर्थ' बनाऊंहों बतावने वाले श्रीकबीरहीजी हैं मोमें ताक़त नहोंहे जो में बनायसकीं और ना- भाजी भक्तमालमें लिख्योंहै कि “कबीर कानि राखी नहीं बरणाश्रम पटद्रशनी सो इहां कबीरजी को सिद्धात मत मैं कहौंगो सर्वैसिद्धांतग्रंथ जो मैं बनायोंहि तामें सबको सिद्धांत यथार्थ राख्योहै सो यहां बीनकके तिऊुक में साहबको कबीरजीको हुकुम यहीहै कि एक सिद्धांत रहे नो सबतेपरेंहे और सिद्धांत सबखंडन ब्ैजायेँ सो सबके सिद्धांतनकोीं खण्ड़न करिके एक सिद्धात में बर्णन करोहों सो सुनिके साहब के हुकुमी जानिके साधुलोग पंडितलोंग और और मत वाहढे जेहें ते मेरे ऊपर खफा होयेँ प्रसन्न रहें ना समुझिपरे तो प्रसन्नहो३के गुरूसों पूंछि- ढेईं अब अर्थ लिखेंहें

अथ-प्रथम समरथ जे श्रीरामचन्डहैं ते आपही हैं दूसरा कोई नहीं रो जो कहो उनके छोक में तो हंस हँसेनी सब बर्णन करेंहें उनके पाषद सबहैं ताकी बेन निर्भेय ज्ञानमें विस्तारते हैं सो इहां संक्षेप तें सूचित किये देई हैं “सत्य पुरुष निर्भय निरबानां। निर्भय हंस तहेँ निर्भयज्ञाना *” इत्यादिक बहुत वर्णन निर्भेयज्ञानमें कबीरती कियोंहे तुम एकही कैसे कहीं हो सो सत्यहै उहांकि जीव सनातन पाषेद्‌ बने रहे हें साहब साहबको छोंक सनातन बने रहें परंतु उहांके पापषेदनीव और उहांकी सब बस्तु साहबहीके रूपहै सब चिन्मयहै सो वेद कहेंहें इढोक॥ “सर्च दानन्दों भगवान्‌ सचिदानन्दात्मिकास्यव्यक्ति:॥''औ वह अयोध्या नगरी बह्नके परेहे ब्रह्म वाकी प्रकाशंहै रघुनाथनी के समीप के जे पार्षद हैं ते साहबके स्वरूपहें तामें प्रमाण: '“ अयोध्याचपरंत्रह्म सरयू सगुणःपुमान्‌ तन्निवासी* जगन्नाथः सत्यंसत्यंवदाम्यहम ॥१५॥ अयोध्यानगरीनित्यासब्चिदानन्दरूपिणी

आदिमंगल . (९५)

यदंशाशेनगोलोकः वैकुण्ठस्थ:प्रतिष्ठित! ॥” इति वासिष्ठासाहितायाम्‌ £ देवानांप्रयोध्यातस्याहिरण्मयः कोशः स्वर्गेोकाज्योतिषाबृतः ”” इतिश्र॒तेः से इहां कहैँहें कि प्रथमती समर्थ साहब वह लोक में आपही आपंहै दूजा कोई नहीं रहो दूना नो रहो सो तो साहबके छोककों प्रकाश चैतन्याकाशर्में रहोंहै से कबीरनीते धमदास कहे हैं कि हे गुरुजी में तुमंस पूछोंहों कि साहबके छोकको प्रकाश चैतन्याकाशमें जो समष्टि जीव वह दूनारहो सो केहिविधिते उपज्यो संसारी भयो काहेते कि साहबतो दयाछुहं जीवों को संसारते छुड़ाइदे- हहैं जीवोंको संसारी नहीं करिदेशहें वह समष्टि नीवके तब मनादिक नहीं रहे शुद्धरह्मोहै उपजिबे की सामथ्ये नहीं रहीहे साहब सामथ्थे देंके जीवकों संसारी करबही नकरेंगे सो दूसरा जो है समष्टिनीव सो उपजिके व्यप्टिरूप सेसारी केहि बिधिते भयो जीवके अपने ते डपनिब की सामर्थ्य॑ नहींरही तामेंप्रमाण कतृत्वंकरणत्वंचसुभावरचेतनाथ्वातिः तत्पसादादिमेसंतिनस तियदुपेक्षयाइतिपयंगश्रुतेः ””

दोंहा-तबसतग्रुरु्ुखबोलिया, सुकृत खुनोसुजान अर यों आदि अन्तकी पारचे, तोसोंकहों बान २॥ गुरू साहबकों कहे हैं काहेते सबते श्रेष्ठ मे यथार्थ उपदेश करे हैं तिनको सतगुरु कहे हैं औजे अयथार्थ उपदेश करे हैं तिनको गुरुवाछोग कहें सो यह बीजक यन्थकी अनुभवातीत प्रदशनी यहटीका की यह सेली है तब सतगुरु जे कबीरजी हैं ते मुखत बोले कि हेसुनान देसुकृत जीव समष्टिते व्यष्टि जेहि प्रकार भये हैं स्रों सुनो में तुमर्सो आदि भन्तकी परचे कही हों जैहिते तुम जानिेड उत्पत्त।

दोहा-प्रथम सुरति समरथ कियो, घटमे सहज उचार॥

ताते जामन दीनिया, सातकरी बिस्तार॥

(६) बीजक कबीरदास

प्रथम समर्थने साहब श्रीरामचन्दहैं साकेत निवासी दयाछु जिनके , छोकके प्रकाशमें समष्टि रूपते यह जीव है ते श्रीरामंचन्द्र परमदयाठु यह जीवको देखि- कै कि कछू बस्तुकों याकों ज्ञान नहीं है जब यह जीवपर साहबकी दयाभई तब सुरातिमात्र दैंकै अपने जानिबेकों वाकों समर्थ करतभये कि जब याके सुराति- होंयगी तब मोकोजानिगो में हंसस्वरूप देंकै अपनेडोक हेआऊंगो जहां मन- मार्यों काछकीगतिनहींहै तहां सुखपांवैगों अबैतों याकों सुखको ज्ञानही नहीं है यह करुणा कारक वह समष्टिरूप जीवके घटमें सहजही सुराति को. उच्चारकरत भये कहें अंकुर करतभये सो साहबतो अपने जानिबिकों सुंरतिदियों कि मो- कोजोॉन यह जीव वही सुरति को पाइके. मनादिकन को कारण इनके रहंबई करे शुद्ध रहे दूधरहे जीव अपनी शुद्धता रूप दूधम जगवको कारण बनोई रहे तामें वही सुराति को जामन देदियों सो बिनशिगयों सो बह सुरतिं पाइके साहबकेंपास तो गयो जीव बिनशिके इच्छादिक जे सात तिनकों बिस्तार करत भयो। जे यह चैतन्य जीवको सुराति देंके साहब चेतम्य करहदे। साहब चेतन्यो को चैतन्यहै तामें प्रमाण इछोक॥ ““नित्योनित्यरचेतनश्रेतनानां! बव्येकर्मंचकालश्वस्वभावोजीव एव्च।यदनुग्रहतःसंतिनसंति यदुपेक्षया इति भांग- बते॥'”औ इच्छादिकतन को कौन सात.बिस्तार करतभयों सो आगेकहैहें ॥३॥

दोहा- दूजेघटइच्छाभईं, चितमन सातोकीन्ह सातरूपाने रमाइया, अविगतकाहुनचीन्ह 8७

जब याको साहब सुराति दीन तब जीवके जगत को कारणमें रामाज्ञान बनोईरहै तेहिते सुराति साहबमें रुगायो जगत्‌ मुख छगायो जब सुरति जगत्‌ मुखछाग्यों तबभथम जगवको कारण पुष्ठभयों विनाशेगयों तेहिति दूसर इच्छा रूप अंकुरभयों तीसर चित्तमयों चौथमनभयो पांचौंबुद्धिभईं छठों अहंकार भयो सातों अहंत्नह्म कहेअनुभवते भयोजों ब्रह्म ताकोमान्यों कि मैंहींबल्नहों सों जुद्धते अशुद्ध हैंके सातबिस्तार कारके समष्टिरुपनो नींव सो अहंब्रह्मास्मिमान्ये तब याको अनुभव ब्रह्ममाया सबलित भयों, ताहीदारा जगव्‌ उत्पन्न भयों, ताहीदारा यहजीयो उत्पन्नमयों अर्थात समश्टिरुप जीवको अनुमान जो ब्रह्म सों

आदिमंगल | (७)

इच्छा कियो एकत अनेकंहोऊं सो वा अनुमान ब्ह्मसमष्टिजीवकोंहै यहिहेतु तें वहसमष्टिनीव एकतेअनेकह्रैगयो फिंरि वहसमष्टिरूपनीवकों जो अनुमान बह्सो विचान्यो कि ईं जे अशुद्धरूपजीवात्मा तिनमें प्रवेश केके नामरूपकरों याही अर्थमें प्रमाणकोक संदेवसोम्येदमग्रआर्सीदेकमेवादितीयं तंदैक्षतबहुस्यां अनेननीवेनात्मनानुप्रविश्यनामरुूपेब्याकरवाणिर॒त्यादिश्वुतयः॥ ”” जो कहो वा संत ब्रह्मजीवको अनुमानकैसेकहीहों अह्महीसबभयों ऐसोकाहेनहींकहोहौती “यते वाचोनिवत्तेन्तेअप्राष्यमनसासहं ॥” इत्यादिक श्रुतिनकारकैमनबचनकेपरेहें सत- नाम कहनोवामें नहीं संभवितहै काहैते वो निर्विकारहे सविकार हैके एकतें अनेक हेंनेबो नहीं सम्भव या हेतुते यह समष्टि जीवही अपनों अनुमान रूप धोखा ब्रह्मठाय्कैके माया सबलित हैंके तद द्वारा जगत उत्पन्नकैँके तददारा आपों उत्पन्नहेंके समष्टिते व्यश्हिंगये अविगति समर्थ ने साहब हैं तिनको ना चीन्हत भये | यह संक्षेप सृक्ष्मरीतिते नो डल्पत्ति भई सो कहिदियो। जब जीव साहब के जानिबें को समर्थ भयो तब जैसी उत्पत्ति भई है सो कहेंह्ें साहब जो सुराति दियो सोती अपने में छगायबेकों दियो यह संसार में लगायो परंतु नो संसारते खैंबिकै अजहूं सुराति सम्हारै साहब मेरूगांवै तो साहब के हजूर आठोपहर बनोरहै अर्थाव्‌ साहबै सर्वत्र देखेपरे संसारदेखिही ना परे तामें प्रमाण कबीर जी को साखी सुराति फँसी संसार में, तेहिसे परिगा- दूर सुराते बांधि स्थिर करे, आठोपहर हजूर आगे जौनीतरह ते उत्प- त्ति भई्े साहबकी त्यागे संसारीमयों सुरति पाय काजकरिबेको समर्थभयो तबहूं साहब सारशब्दको उपदेश दियोंहै ताको साहबमुख अर्थ ना समुझिके संसारमुख अर्थ समुझिके अह्मकी कस्पना कैंकै संसार को उत्पन्न कैके संसारी भयो है यह जीव सो आगे कहैंहें

दोहा-तब समरथके अ्रवणते, मूल सुरति भइसार रेब्द कला ताते भई, पांच ब्रह्म अनुहार

साहब को दियो सुराति पाईके समरथ भयो नो समाष्टे जीव ताके श्रवण में मूलसुरति जो साहब अपने जानिबे को दियो है सो सार भई कहें रामनाम

(<) बीजक कबीरदास

रूपते पकटमई साररामनामको कहेंहैं तामेंम्रमाणसाखी कबीरजीकी रामैना- भअहैनिनसारू औसबझूंठसकलरूससारू साहब जो सुराति दियोंहे सो वह सुरातिके चैतन्यतांत नामसुन्यों अथीव्‌ साहबजो याको गोहरायो कि रामनाम- को जपिके बिचारिके मोकोजानो तो में हंसस्वरूप दके अपने पास बुलाइछंउ

किक,

सा सानेक रामनामम जगत्‌ सुख अथ॑ है तार्का ग्रहण [कया शब्दम रूगाइ

च्ख् दियो वही राम नाम छेके शब्द्रूप बाणी उचरीहे सो कबीर जीकी रमैनी

हक ७.

में आगे लिख्योंहे '“ रामनामडे उचरी बाणी आओ वहीं रामनाम ते शब्द कलाबाणी होतभई सो पांच ब्रह्म के अनुहार हैं। पांच ब्रह्म कोनहें ते कहे हैं सोहं, रसकार, अऑकार, अकार, पराशक्तिरुप परम श्री कबीर जी के भेद्सारगन्थ को प्रमाण प्रथम शब्द सोहं जो कीन्हा सबधघट माहीं ताकर चीन्हा रंकार यक शब्द डचारी ब्रह्मा विष्णु जपं तिपुरा- री ओंकार शब्द जो भयरकू तिनसबही रचना करिकूयऊ राब्दस्वरूप निरेजन जाना जिनयह कियो सकलबंधाना शब्दस्वरूपी शक्ति सो बोलि पुरुष अडोंछ कबहूं बोले ५॥

दोहा-पांचो पांचे अंडवरि, एक एकमा कीन्ह दुइइच्छा तरग॒प्तह, सो सुकृतचितचीन्ह

ते पचहुनको पांचअंडकह पांचस्वरूप बनाइकै एकएकस्वरूपमें एक एक अक्षर राखत भये औओ दुइ इच्छाजे परथमकहिआर्येहें एक वह इच्छा कारणरूथा जब साहब सुराति दियो है तब जो रहींहे साहब मुख. नहीं होनादिया याकों बिनशिंके जगत्‌ मुख कियो दूसरी वह सुराति पाइकै जगवमुख होइके अपने अनुभव ब्रह्मकी खड़ाकियो वह बह्ल मायासबलित हेगई तौन माया . आादिशक्ति गायत्रीरूपा इच्छा सो ये दोनों इच्छा पचहुनमें गुप्त सो कबीर- जी कहेंहँ कि हे सुकृतचित्तम चीन्‍्हों में ब्णन करोहा बिचारिके देखो ये पच- इनर्मेदोनों इच्छा कि नहीं ? ये सिर्गरेज्नह्म जे सारशब्द के जगवमुख अर्थ ते भये हैं ते माया सबलित हैं कि नहीं ! तुम चीन्हों सो आगे कहै हैं

आदिमंगल (९)

दोहा-योग मया यक्ुु कारनो, ऊजो अक्षर कीन्ह या अविगाति समरथकरी, ताहि गुप्त करि दीन्ह॥»॥

कारण रूप सुराति योगमाया गायत्री ये जे दुइइच्छा हैं ते वे पांचों ब- हझको करती भई सो सबत्र तो यह सुने हैं कि ब्रह्मते सब होइ है यहांइन- ते बह्म होहहै पांची, यह बड़ी आश्चर्य है यह अंबिगति समर्थ जे परमपुरुष श्री रामचन्द्र हैं ते जब सुराति दियो है तब ये सब भये हैं तिनको गुप्त कारे

दियो अर्थात्‌ इनहीं पांची ब्रह्ममें नौविमें नामकी अर्थ लग्राय दियो है ते पचहुनको बतांवेंहे |

दोहा-श्ासा सोह ऊपजे, कौन अमी बंचान आठ अंश निरमाइया, चीन्हों संत सुजान॥ ८॥ यह सोहेशब्द वह प्रम पुरुष जो है सर्मष्टीनीव ताके शवासाते डपज्यों .

सोई बतावैंहे कि, “सोहं कहे सः अहं॑ सो जौह अनुभवगम्यत्रह्मसो मेंहों” वही आदिपुरुष समाष्टि जीव इवासा ते अमीबंधान करतभयों कि इनकी मिठाई पाइके छोग छोभायजायँ कौन भमी बेधान करत भयो वहीं शवासाते आउभंश बना- वतभये, कहेआठों सिद्धि निकासतमये आठो सिद्धिकेनाम “अणिमामहिमा चैव गरिमार॒ुघिमातथा प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वंवशित्व॑चाष्टसिद्धयः "' अथवाआठशभंश निरमाइया कहे आठ प्रधान ईश्वर प्रकटकियों तेईं परम पुरुष समष्टि जीवके मंत्रीमये तामिंप्रमाण महातंत्र्म महादेवकोी बाक्य “काछी- चकीशिकीविष्णु: सूर्येहिंगणनायकः”” “'ब्रह्माचभैइक्योबई छबराइति कीर्ति- ता; यह प्रमाण शतानन्दभाष्य में विस्तार केकैहे सो हेसंतसजानों तुम चीन्हत जाउ वह जोसार शब्द रामनामहे सो साहब संमष्टि जीव पुरुषकों बतायो सो, सुंन्यो साहबको जान्यो धोखात्रह्मरूप आपकहैके वाको औरई जगद्गप अंर्थ निकासिलियों वह जो सोहं शब्द प्रकट्भयो सो संकर्षणहै काहेते कि, सोहंशब्द जीवमें घटित होइहै कि, वह जीव जोंहै सोई बिचारकरे है कि, सो जोहै ब्रह्म सो अहंकहे महीं हों एक और दूसरो कोई नहीं है।

( १० ) बीजक कबीरदास

सो उन्हीं को आदिपुरुष बिराट हिरण्यगर्भ कहेंहे सहस्नशीषीपुरुष कहेंहे समष्टिरूपजीव पुरुषहें सोवही सम्मष्टिरूपते संकषेण स्थूलरूप धारणकारकै प्रकट भयो “सबको आकर्षण करिके एक्हैरहे ताकोसेकषण- कही समष्टि जीव” काहेते महामहरूयमें जबनीव स्माष्टिनीवैंमें रहे हैं औव्यजन मकार पचीसौबणहैं सोजीव बाचकहै ताको अर सर्माष्टनीवरूप संकर्षण समुझ्यो रामनामकी जो मकार है से|ती बणोतीतहै पीसी बर्ण नहीं है रामनामके व्यंजन मकार में संकर्षणके अंशी जे हैं लक्ष्मण तिनको अर्थ समुस्यो वहांपांच बह्म कहि आयें हैं सो इहां एकबह्मकी रामनामंके एकमान्नाकी प्राकट्य भई <

दोहा-तेजअण्ड आविन्त्यका, दीन्होसकलपसार अण्डशिखापर बेठिके, अधर दीप निरधार॥

अचिन्त्यनों है रामनाम ताकेतिन बडजोंहे रामनामको रेफ तौने रेफको अर्थलैके सर्वत्र पसराइ दियो अथीत रेफ अधैमात्रा को अर्थ पराआशद्याशक्ति बह्मस्वरूगसमुझयो सोसब जगवमेंपसराइदियों वहीमाया ते संपूर्ण जगत्‌ होते भयों सो वह पराआद्या शक्ति अंडजोंहे ब्रह्मांड ताकी शिखापर बैठिके अधरदीप कहे नीचे के ब्रह्मांडनकी निरधारकहे प्रकाशकारके निर्माण करत भई सो वहीकी योगीछोग ब्ह्यांडमें प्राण चढाश्के वहीं ब्रह्म ज्योति को ध्यानकरें हैं .वही ज्योति में नीवका मिलावैंहें। रेफ पद वाच्य ते श्री जानकी जी हैं सो अर्थ समुझ्यो इहां दूसरे ब्रह्मकी प्राकव्य मई व, 5 जे

दोहा-ते अजिन्त्यके प्रेमते, उपज्यो अक्षर सार

गा | कु एरि [

चारिअशनिरमाइया, चारिवेदविस्तार॥ १० ॥।

तीन जो अचिन्त्यरामनाम ताकेप्रेमते कहे जब वामें पेमकियो कि याकों समुझे कहा हि पु छ्छ काम ह#। जोहि ०० भरे 4०. कक है तब रामनाममें नो है रकार तेहिमें जोहे छघुअकार तौनेके शक्तिहू अक्षर सार जो है,

रामनाम सो प्रणवरुपते प्रकटहोतभयो ताहीको दब्द्ब्ह्मरूप करिके समुझतभयें तौनेप्रणवकी चारि मात्राहै अकार उकार मकार बिंदुते एकरक माता ते एकएक

आदिमंगल (११)

वेदभये सो चारि वेदहोत भये सबते परे ने श्रीरामचन्द्हें रकाराथे तिनको समुझतमये सो याहीमें एकाक्षरों अह्मकी शब्दह ब्रह्मकी पराकव्यभई सो इहां तीसरे ब्रह्मकी प्राकव्यभई वहांरकारके अकार को अर्थकरिआयो यहाँर- काराथे श्रीरामचन्द्रको कहोहों यहकैसे सेरिफवाच्यते जानकी सो श्रीरामचंद्गते बिलग नहीं होयहै याही अभिप्रायते लघुरकारकी जो अकार तौनेके रेफतेसहिते कह्मेंहि रकारवाच्य श्रीरामचन्द्र को लिख्यो याहीं प्रमाणके अनुरोधतें बोहू रकारवाच्य श्रीरामचंद्रकीं लिखिदियों सीताराम बिढूग नहोंहोयहैं तामें प्रमाण॥ अनन्याराघवेणाहं भास्करेण प्रभायथा” वा जानकीकों बचनहै “अनन्याहिं मयासीताभास्करस्यप्रभायथा॥ ये श्रीराम के बचन हैं याही अभिषाय ते कबीरजी जानकी को बर्णन नहींकियों श्रीरामहीके बणन ते जानकी आईगई काहेते सीताराम में अमेद है तामें प्रमाण “रामःसीतानानकीरामचंदों नित्याखंडों- येचपर्यंतिधीरा: इतिश्रुतिः” १०

दोहा-तव अक्षरका दीनिया, नींद मोहअलसान ॥#' वेसमरथअविगातिकरी, ममेकोइनहिंजान ११

तब योगमाया, अक्षर कहे जो एकाक्षर ब्रह्म प्रणव तत्यातैपाद्य जो ईश्वर प्रकट भयो जो जीव, ताकों नींद मोह आहुस्य देंत भई मवण वेदनते पुंथ्वी अप तेज वायु आकाशादिक सब जगत्‌ प्रकट भयो ताही प्रवण वेद नंते सब जीवनके नामरूप शुभाशुभ कर्मोदिक सब बस्तु प्रकट भई अथौत्‌ वेद्ही में सब वर्णित है सब के नाम रूप वेदही ते निकसे हैं सो प्रणव रकारही

का 8

ते प्रकट भयेंहें सब अक्षर प्रकट भयेंहें ताही ते सब वेद भये हैं याहीं हेतु ते पणव वेद॒ह अविगति समर्थ जे श्री रामचन्द्हें तिनकी माहिमा

३००९० वह

करीकहे कहीं जो वेद्‌ तातलस्ये करि के बतोावहें तैनिको मर्म कोई जानत भयो प्रणव तात्पर्य करिके श्रीरामचन्द्ही को कहें हैं सो अर्थ तापिनकि। प्रमाण दे के छिख्यो है सो मेरे रहस्यत्नय ग्रन्थ में है सो म्रणवअक्षर वेद सब

का

रामनामही ते निकसे हैं सो मेरे मन्त्रार्थमें प्रकय्हे ९१

( १२ ) बीजक करबीरदास

दोहा-जबअक्षरकेनीदगई, दर्बासरतिनिवान इयामबरणयकअण्डहै, सोजलमेंउतरान॥ १२॥ योगमाया में सोय रहे अक्षर कहे नाशरहित जे नारायण तिनकों जब योगमाया जगायो नींद गई तब उनको निर्वाण सुराति देत भई। काहेते ईं जे हैं नारायण तिनकी निवोण रूप कहे निराकार रूप केके अंतर्य्योमी रूपते सबके भीतरदबाइ देत भई अथीव्‌ चेश्शाराहित दिव्यगुणविशिष्ठट सब्बेत्न- व्यापक अंतस्पीमी तत्त्वरूप जे निर्वोण नारायण तिनकी सबके अन्तर दबाइ देत भई कहे सबके अन्तय्योमी करि देत भई तेई प्रकट होतभये इयामबणे अण्ड कंहे चतुभुन रूप धारण करिके जल में उतरान कहे जल में रहतभये से इनके शरीरमें शरीर जे हैं निराकार नारायण तिनको नित्य सम्बन्ध होतभयो सो रकारमें जोहै अफार ताकी नारायण अर्थ करत भये भरतबाची जो है अकार सो अर्थ समुझत भये यहां चौथे ब्रह्म की प्राकव्य भई॑ १२ दोहा-अक्षरघटमेंऊपजै, व्याकुलूसंशयश्ल

किनअण्डानिरमाइया, कहाअण्डकामूल ॥११॥ अक्षर ने नारायण हैं तिनके घटते ऊपने अर्थात्‌ तिनकी नाभि में कमल होइ है तेहिते बह्मा होइहै ते ब्रह्मा सब जगत करे हैं तब सर्माष्ट जीव बुद्ध ते अशगुद्ध है के ब्रह्मा ते उत्पन्न हैँंके बहुत शर्ररधारण करेंहें ते बह्म जब उत्प- न्॒भेये तब ब्याकुडठभये संशय करतभये कि कहां अण्डका मूलहे को अंडाकी बनायो है हम कहांते उत्तन्नभये हैं सो खोज्यों खोने ना पाये तब तपस्था करत भयो तब नारायण म्रकटभये ते ब्रह्मा ते कह्यो कि तुम

जग़त्‌ की उत्तात्ति करी यहकथा पुशणन में प्रसिद्धहे १३

दोहा-तेही अण्डके मुख पर, रूगी शब्दकी छाप अक्षरदश्सि फूटिया, दश द्वारे कढ़िबाप १४

. तैने अह्मरुपी अण्डके मुखपर शब्दकी छाप छगी अर्त्यात्‌ शब्द ब्रह्म जो बैद्सार ताको नारायण बताय दियों तौने को ब्रह्मा जपत भये तब वाहीतें

आदिमंगल।। (१३)

प्रकटे जे चारोवेद ते ब्रह्मा के चारिड मुखते निकसतभये तौने वेदनकों अक्षर जो समष्टि जीव है सो जगवमुख दृष्टि कियों अर्थीवत्‌ जगवमुख अर्थ देख्यो तब द्वारे हैके वह मायाते सबलित जो है ब्रह्म जाको आगे बाप कहि आयें हें जो शुद्धते अग्युद्ध जीवन को कैंकै उत्पन्न करे है सो दश दारेते कहे दशौ इन्द्रिनतें कड़त भयो तब इन्द्रिन के विषय हैंके इन्द्री हैके चिदंश हैंके चिद्चिदात्मक जगव्‌ होत भयो अथीव्‌ वेदन को अर्थ जब जगतमुख देख्यो तब वह जीव चिद्चिदात्मक जगतको धोखा ब्ह्महीं देंसत भयो सो जगव तो साहब के छोक प्रकाश को शरीरहै, तोने को वेदेरथ करिंके घोखा बह्नही देखत भयों यही धोखा है तातये केके वेद नो साहब को कहे है ताको जानत भये लघु रकार की अकार ते नारायण भये तिनते ब्रह्मा की उत्पात्ति भाई सो कहि आये अरु वाहे ते जेतो जगव्‌ के उत्पन्न को प्रयोजन रहो सो कहि गये अब फेरि सिंहावक्षोकन करिके पंचम ब्रह्म की प्राकव्य कहैहें ४॥

दोहा-तेहिते ज्योति निरंजन, प्रकटे रूप निधान

काल अपरवल बीरभा, तीन लोक परचान॥१५॥ तेहिते कहे वही रामनामते व्यज्नन मकारकों जो अर्थकरि आये हैं तामें जो अकार रही है ताको महाविष्णु अर्थ करतभये जे विरजा के पार पर बैकुण्ठ में रहे हैं नितके अंशते रमा वैकुण्वासी भगवान्‌ भये हैं सो अंजन जो जविया माया तांते वे रहित हैं काहेते कि, अविद्या माया विरजा- के यही पार भर बनतहै। पै पुराणादिक में सो ब्यकज््नन मकार की अकार- को मंहाविष्णु अर्थ करत भये, वह अकार शज्ुन्तन/चक है सो अर्थ स- मुझत भये ते अकाररूप महाविष्णु ते महाकारू अपरबलू बारभा कहे जे- हिते प्रबल बीर कोई नहीं है अथवा अकार जे विष्णुहैं तेई हैं परमबरू जि- नंके सो तीनलोक में प्रधान होत भयों इहांपॉचों ब्ह्मकी प्राकस्य हैगई १५

दोहा-ताते तीनों देवभे, ब्रह्मा विष्णु महेश चारि खानि तिन सिरजिया,मायाके उपदेश॥ ६॥

१७४) बीजक कबीरदास

तैने काछते कहे वही कालमें कार पाईके एकएक अह्याण्डमें तीनतीन देवता ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पन्नहोंतमये सो कोटिन ब्रह्माण्डनमें कोटिन बचह्ा- दिक भये तें माया के डपदेश ते कहे मायाको ग्रहणकरिके संसारम चारिं- खानि जे जीव हैं तिन को सिरजिया कहे उत्त्ति करतभये सो उत्पतत्तिको क्रम ब्ह्मात पहिले कहिआंये हैं १६

दोहा-चारिवेंद षट्शाख्रऊ द्शअष्ट पुरान आशा दे जग बाँघिया, तीनों लोक शुलान॥१७॥

चारोंवेद, छवोंशाख्र अठारहौ पुराणमें मायाजो है सो औरई और फलकी आशा बताइके औरई और नाना मतन में छगाइदियो और संपूर्ण नगत्‌ मुख अथैकरिके जगवको बांधिलडियों साहबको भुठाय दियो ये सब तातये कैंके साहबकी कहैंहें सोसाहबकी जानन पाये ताते तीनों छोकके जीव भुलठायगये १७॥॥

दोहा-लछखचोरासी घारमा, तहां जीव दियबास

चौद्ह यम रखवारी, चारिवेद विश्वास ३८॥ चौरासीलाख जो योनिहें सोरहें धारा ताहीमें जीवको बास देतभये कहेवही चौरासीलास योनिरूपी धारामें सबनीव बहे जाईहें अथीव नानारूप धारण करेंहे सो चारिविदके विश्वासते कहें चारिवेदके मतंते नानामतहोतभये शातिलेत्वंजगन्माता शौतिलेत्वंजमात्पिता ?” इत्यादिक नानादेवतनकी उपासनागुरुवाछोग बतावत भये वेद जो तात्पय्यकरिके बतावै है साहब को सो अथ जानतभये। चौद॒ह यम जीवकी रखवारी करत मभये यहजीव निकसिके साहबके पास जानपाये। चौद॒ह यमके नाममें प्रमाण ज्ञान- सागरको॥दुगेदचित्रगुप्तबरियारा इतोयमके हैं सरदारा मनसा महछअपरबलछ मोहा।कामसैनमकरन्दी सोहा॥चितर्चचछ अंधअचेता।मृतकअंघजोजीतिखेता सूर सिंह औरो क्रमरेखा भावीतेनकालकापेखा अघनिदा कोधितंअंधा जेहिमानीवनतुसबबंधा परमेश्वर प्रबरू धर्मराजा | पाप पुण्यसबते मछछा-

जा यह सब यमें निरंगनकीन्हा लिखनीकागद्रचिकै दीन्हा ”?

आदिभंगल ( १५९ )

अथधे- प्रथम दुर्गदं कहें हैं दु्गकहाँवे [क जो कोई पृण्यकरेंहै ताको स्वर्गदेके पुण्यमोग करावेंहे जो पापकरेंहे तिनकी तरकनमें पापकी भुगताइकै किलछा- रूपी नो है शरीर सो जीवकोदेयहै याते दुर्गेट यम एक दूसर वचित्रगुप्त जे कर्मनके लेखाकरेंहे रतीसर मलिनमन औओ चौथ मोह४ओऔपांचो काम काल- की सेनाका मकरन्दीकहे बसंतते सहित औछठोअंधअचेत जोंहे चित्त सो सातोंमत्यु भई जोखेतकों जतेंहै कहैसबकी मारेंहै आतठेंसरकहे अंधा अर्थात्‌ अञ्ुभकमेकी रेखा नवों सिंहकहे समय शुभकमकी रेखा ओऔ दशों यमभावी नो कालको पेखांहै कहे जो कर्म होनहारहै सो काल करिके होइहै अर्थीत्‌ कालकी अपेक्षा राखेंहे १० ग्यारहों अधकहे पापरूपनिद्रा ११ ओबारहोंअंधको देनवारो क्रोध जामें सबनीव जंतु बेँधेहें१ रतेरहों प्रबल परमेश्वर रमाबैकुण्ठवासी विष्णु जेशभाशुभ फलके दातहैं १३ औचौदहों धर्मरन यज्ञपुरुष १७ ये चोदहों यमनिरंगन(जों आंगे कहि आयेहें विरणापार विष्णु)की सत्ता विना ये सब नड़है काये नहीं करे सके हैं वोई छिखनी कांगद देहहैं १८

दोहा-आपु आपुसुखसब रमे, एक अण्डके माहिं उत्पतिपरलयदुखसुख, फिरिआंवेंफिरिजाहि॥१६८॥

एक अंडजोहै बह्मांड तौनेमें जीव अपने अपने सुखकेलिये सबरमेंहें कोई मानें कि हम जीवात्मौहें, कोई मानेहे कि हम बह्महै, कोई मार्नेंहे कि हम ईंबवरहैं, कोई मानेहै कि हम देवताहैं,कोई मारनेहै कि हम सेवकहें,कोई मानेहै कि शरीरमर सबेकुछहै, आंगेकछ नहीं है सो विषयही सुख करिक्ेइ, कोई यज्ञादिक कारक स्वगेकी सुखचाहै है, औकोई यशचाहै हैकि अपने स्वस्वरूपको भाप्तहोयेँ तो हमको अक्षयसुखहोय सो जिन जिन मतन करिके नौनजौन स्वस्वरूपई मानिंहे तेंइनके स्वस्वरूप नहीं है ये अच्छे सुख काहेकी पांव तेहिते ईनके जनम मरण छूटत भये,उत्पत्ति प्रठ्यमें दुःख सुखको पाप्तहाई है ओफिरे आंवे है फिरि जाइहै ककार चकार जादिक जे बण्ण हैं तिनमें बुन्दार्थ चंद्रंदेंह तब सानुनासिक ताकी एकमात्रा रामनाममें औरहै सोयाके अर्थ हेसस्वरुपहे सो साहबदेइंहे सो नासमु झो प्राकृतनानाजी4रूप आपनेको मानिके नानामतनमें छागिके संसारीहेगये

( १६ ) बीजक कबीरदास

रामनाममें छामात्राहै तामें प्रमाण रामनाममहाविन्धे पड़भिवंस्तुभिरावृत- मं जीवबह्ममहानादैखिमिरन्यंवदामिते स्वेरेणअधैमानिणद्व्ययामाययापिच इतिमहारामायणे और रामनामको जो. अर्थ भूलिगये हैं तामें प्रमाण सब मुनिन को श्रममयों श्रुतिनकों प्रमाणदैँ कोई कहै हमारोमत ठीक है कोई कहे हमारों मत ठीक है तब सब मुनि वेदन ते पूछयो जाइ वेंदहू विचारेउ कि सबमें तो हमारही प्रमाण मिंल्हे सोबेदहकी श्रममयों तब सबमुति वेद बल्माके पासगये तबबल्मा ते पूंछयो तब बअह्मौके श्रमभयों के, साँच मत साँच साहब कीन है से महदेवजी पार्वती जीते कहे हैं कि, तब सबकोई साहब श्रीरामचद्धकों ध्यान कियों तब साहब कह्मों कि यह बात सबके आचाये जे संकर्षण है ते जानेंहँँ तिनके पास सबको पड़े देहुवे समझाय देयेंगे तब ब्ह्या की आज्ञाते सब संकर्षण रूप शैषके इहांगये सो वेद उहां पुछयो, संकर्षण ते, तब संकर्षण जी एक छि- द्वांत जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र हें तिनको बतायो हैं राम नाम को यथार्थ अर्थ तौन सदाशिवसंहिता के ये छोक हैं

“/ रामनाम्नोइथमुख्याथभगवत्स्वेतप्रतिष्ठितम्‌ विस्मृतेकंठमणिवद्वेदाश्वणततत्त्व तः ताल॑य्येवृत्याविज्ेय बोधयामिविभागतः रामनाम्निशुचिरज्षैयाः पण्माचांत त्वबाधका: रामनाम्निस्थितोरेफोनानकीतेनकथ्यते रकारेणतुविशेय:शरीराम; पुरुषोत्तम; रे आकारेणतथाजेयोभरतोव्श्वषालकः व्यंजनेनमकोरेण लक्ष्मणों धत्ननिगयते हस्वाकारेणनिगमाःशजुन्न:।समुदाहतः मकारार्थोदिधाज्ञेय;सानु- नासिकमेद्तः भोच्यतेतेनहंसाविजीवाशअतन्यावैग्रहा:॥ सेसारसागरोत्तीर्णा पुनरावृ त्तिव॒निता; दास्याधिकारिणःसर्वेश्रीरामस्यमहात्मनः एतत्तालयमुख्याथीद- न्यार्थेयोनमूपते सो5नर्थइतिविज्ञयेःसंसारमापरिहेतुकः इतिसदाशिवसंहितायां- विशाध्यायेवेदान्मतिशेषवचनम्‌ सो जौननाम साहब बतायो ताके औरई औ- रअयेकरिके जीव संसारीहेगयेसाहबकानजान्यी १९

दोहा-तेहि पाछे हम आइया, सत्य शब्द के हेत आदिअन्तकीउतपति, सोतुमसोंकहिदेत २०

आदिमंगल ! ( १७)

इहां कबीर जी कहे हैं कि तेहिपीछे कहे जब संसारकी उत्पत्ति हैगईं जीव नाना दुःख पावन छगे तब साहिब ने दयालुहैं तिनके दयाभई कि हमतोे अपने नामको उपदेशकियों कि हमारे रामनाम की जो यह अर्थ लक्ष्मण जान- की हम भरत शज्रन्न हमोरे हंसरूप पापेद तिनको जानिके हमारेपास आवै औये सबजीव संकर्षण आद्यापराशक्ति शब्दबह्न नारायण महाविष्णु जीव इनके पक्षमें रामनामकी छवोमात्रा छगाइके ओरे ओरे मतनमें छूंगिके संसारी हैं के तानादुःख पावन छगे तब रामनाम को यथार्थ अर्थ बतावनको हमको भेज्यों सो हम सारशब्द जो है रामनाम ताको सत्यकहे सांच जो अ्थैहे ताके बताव- नके हेतु आये सो आदि अंतकी उत्पत्ति हम तुमसे कह्दे देयहें आदिकौन है जोयह उत्पत्ति है आईं संसारमयों औअंतकीन है नो हम रामनामको सांच- अर्थ बतायो सो अर्थ समुझिलिइ साहबके पासजाय वाकों संसारको अंत हेजाइ है फिरे ससारमें नहों आवहे सो यह आदिअंतकी उत्पत्ति हमतुम सों कहिदियों कि यहिभांतिते जगवकी उत्पत्ति होयहै जीवसंपारी हों औयहि

$ है“, ५. *

भाँतिते जब रामनामको सांचअथ जने है तब संसारको अंत है जाइहै ॥२०॥

दोहा-सात सुरति सब मूलहे, प्रलयहु इनहीं मारे

इनहीं मासे ऊपजे, इनहीं माह समाहँ २१ इहांमंगकी उपसहारकरेंहे सबकीमूछ सातसुरतिने प्रथम वर्णन करे आयें सो वेतो सोई सुराति स्थूछरूप सात रूपते प्रकटर्भाशहै सातकौनहै; दुइच्छा एक- योगमायां एकनगवको अंकुरकारणरूपा पांचौबह्मरूपा येई सातौसबकेमुलहैं इनहति उपनेहें इनहीं ते मय हैनायहै कहे नाशहैंद्रे ज|यह इनहींमें पुनि- समाइहे सातो सूरातमें प्रमाण साखी शंकरगुष्ठकी “निरअंजनअक्षर अचित वोहंसोहंनान नोपुनिमूलअँकूरकहि स्रात सूरति परमान”' २१

दोह-सो३ रुयाल समरत्थ कर, रेसो अछप छपाह॥

के (१. किक जञ 5 . सोई संघिले आयड, सोवत जगहि जगाइ २२ सो समष्टिजीव अपनेको समय मानिके साहबको जानि कै यह ख्याछू करतभयों अछपकहे रामनामके अर्थमें साहब छपे रहे सर्वत्र पर्णस्हे सा-

(१८ ) बीजक कबीरदास हयके सब सामग्री साहबकोलोक साहिबेको रूपवर्णन करिभाये हैं जो साहब- के छोंककी प्रकाश सर्वत्रपूणरहा तौसाहब पूर्णईरहे सर्वत्र सो जीव रामनाम को और ओर अर्थ करके ओर ओर मतनमें रूग्यों तेहिते साहब छपायगये साइबको जीव जानतभये सो तने संधिलेके में आयों कि जीवते “संधि कहे बीच” परिगयों है, रामनाम को सांच अथे भलिगयों

बिके

से जोने संसारमें यह सोवे है तौनी जगह में आयो कि में याको सोबत ते जगाय देहु कि, जीने * मतनमें तुम लगेहों सो रामनाम को अभी नहीं है येसंसारक देनवारे हैं, तुम संसारी ह्वेगये, सब स्वप्त देखी हो, वह अर्थ नाम को मिथ्या है, तुम जागिके रामनामार्थ ने साहब हैं तिनको जानो २२

दाहा-सात सूरातक वाहिर, सारह सख्यके पार

तह समरथका बंठदका, हसनकर अचार ०२३

साहब केसेंहँँ कि सात सूरातिने कहिआये तिनके बाहिरहैं पषोडशकढा जीवको छान्दोग्य डपनिषद्में तत्वमत्रिके पूर्बलिख्योंहे सोइहां कहे हैं कि सोरहसंल्यके कहे सोरहसंख्यक जे जीवहँ अथीत्‌ षोड़शकलात्मक जे समष्ि जीव जे लोकके प्रकाशर्में रहें हैं शुद्धरूप तिन के साहब पार हैं सो जहां सोरह संख्यकहे पोड़शकलात्मक जीवहै तिनके पार वह लछोक साहब कॉँहे

तहां समय ने साहबहैं तिनकों बैठऊाहै कहे वहीछोक में रहैंहेँ समर्थ जो कहो सो समर्थ साहिबही हैं जीव समर्थ नहीं है उन्‍्हींके किये जीव समर्थ

होइहे यह आपको झुठही समय मानिलियो है याही हेतंते जीव संसारी भयों

शँ

8 कक

हैं। सो हसन के आधार तो परमपुरुष श्रीरामचन्द्रहींह तेहिते लब हँसरूप पावि तब साहब के पास वह लोकमें बसे जाय २३

दो ०-घरघर हमसबसों कही, शब्द सुनें हमार ते भवसागर डूबहीं, ठख चोरासीचार २४ सोकबीरजी कहेँहँँ कि घर हम सब सों बातकही हमारो कह्मों सांच शब्द को अर्थ कोई नहीं समुझैंहे नासुने है ते संसाररुपी सागरके चौरासी- लाख योनि जो हैं धारा तामें दूबिजायहें २४

आदिमंगल (१९

दो ०-मड़लछूउतपतिआदिका, सुनियो संतर्संजान कह कवीरगुरुजाग्रत, समरथकाफुरमान २५ ॥|

सो आदिकी उत्पात्तिका मड़ल हमयह कट्मोंहै सो हेसंतसुनानों सुनत जाइयो। हम आपनो बनायके नहीं कह्याहै हम यह मज्गजल गुरुकहे सबते श्रेष्ठ तीनों- कालमें जाग्रत कहे ब्रह्ममनमायादिकनकेश्रमतेराहित ऐसेजे सम सत्यलोकानिवासी शीरामचन्डहैं तिनकी फुरमान कहे उनके हुकुमते में कह्मों है सबके पर सा- हबहैं साहबकोलछोकहै तामेंप्रमाणआदिबाणीकोशब्द ““बलिहारी अपने साहबकी निन यह जुगृुति बनाई। डतकी शोभाकेहि बिधि कहिये मोसों कही जाई बिनाज्योतिशी जहँ. उनियारी सो दरशे वहदीपा “निरते हंसकरेकॉतूहलवोहीपुरुबसमीपा झछके पदुम नाना विधिवानी माथे छत्रविरानि कोटिनभानु चन्द्रतारागण एक फुचारेयय छामे करगहिबिहँसि जबैमुसबोडेतबहंसा सुखपांवे वेशअंश जिन बूझ बिचारी : सो जीवनमुकतावे चोंदहछोकवेदकामण्डल तहँलगकालदोहाई छोक वेद्‌ जिन फंदाकाटी ते वह छोंक सिधाई सातशिकारी चौदृंहपारथ भिन्नभि- झनिरतावे चारजेशानैनसमाझी बिचारी सोजावन मुकतावै चोदहछो बसे यम चोदह तहँछलगकार पसारा ताके आगे ज्योति निरंजन बैठे सुन्नमझारा सोरहखंड अक्षरमगवाना जिनयह सृष्टिउपाईं अक्षश्कछा सृ- छ्टिसे उपनी उनहीं माँ समाद संच्रहसंख्यपर अधरदीप जहँ शब्दातीत बिरन निरतेसखी बहूबिधि शोभा अनहृदबाजाबाजै॥ताकेऊपर परमधामहै मरम कोईपाया। जोहमकहीनहीं कोउमाने ना कोइ दूसरभाया वेदनसाखी सब जिउअरुझेपरमधामठहराया फिर फिरे भटके आपचतुरहे वह घर काहु नं पाया जोकोइहोइ सत्यका किनका सोहमका पतिआई। औरन मिलैकोटि करथाके बहुरिकालूपरजाई॥ सोरहसंख्यकेआगे समरथ जिननग मोहिं पठवाया। 'कहैकबीर आदिकीबाणीवेद भेद नहिंपाया”' २५

१्सात सर्रत चोदह यम चारवेद सोरह कलार्ज|बकी ५सत्रहत्त्व सूक्ष्म शरीरके

( २० ) बीजक कवी रदास रे (१ अथ पट लिग वर्णन ““उपक्रमोपसंहारावभ्यासोपूरव॑ ता फलमः अर्थवादोपपत्तिश्व लिंगंतात्पर्यनिर्णये" उपक्रमउपसंहार अभ्यास अपूबेता फल अर्थबाद उपपत्ति इहांबस्तु तातपयंके बणनमें लिंगकह बोधकंहेँ उपक्रम उपसंहार को लक्षण यह है “अकरणके विष प्रतिपाद्य नोबस्तु ताके आदिभंतके बिषयमोंहे बणेनसो उपक्रम ओ। उपसंहार कहाबै”” प्रकरणके बिंषे प्रतिपाद्य जो है बस्तु ताको फेरि फेरिजोहै वर्णन सतोअभ्यास कहाँवेहै * प्रकरणकेबिषे प्रतिपाय नो है बस्तुसो औरे प्रभाणकरिकेबणनमे आबै सोकहँते अपूर्बता प्रकरणके बिये म्तिपाद्य जो है बस्तु ताकेजशञानिकरिके ताकी नोहे प्राप्ति सो कहांबे फल प्रकरणमें पति पाद्मोहै बस्तु ताकीजेहै प्रशंता सो कहाँवे अर्थवाद अकरणमं पतिपाय जो है वस्तु ताकादष्टांतकरिकै फेरिनोह प्रतिपादन सोकहँव उपपात्ति इहांकबीरजीके बीजककेप्रकरणकेआदिमि भो आदिमंगलर में कहांहै कि गुद्ध जीव साहबके लोकके त्रकाशरमें पूणेरह है लब साहब सुरति देइ्हे तब जीव उत्तन्रहोयेंहे यह नीव शुद्ध है साहब को है मन मायादेक यामें नहीं है ये बैचहीते भयथेहें मनमायादिककों कारण यामें बनोरहोंहै तातिसाहबमें नालगेसंसारमुख हैगये जब श्रीरामचन्द्रकीमाप्ति होई तबहीं झुद्धनीवहोई सो साहब हटक्यों सो नामान्यो मन माया अब् में छागेंके संसारी है गयो। ( जीवरूप यक अंतरवासा अंतर ज्योति कीनपरकासा इच्छारूप नारि अवतरी तासु- नाम मायत्रीधरी ) यहउपक्रम वाक्येंहे। पदन के अंतमें बिरहुलीहे ( बिपहरमंत्र ने मानबिरहुली गाडुरी बोंढे और बिरहुडी बिपषकी क्यारीबोयों बिरहुडी जन्‍म जन्म अवतेर बिरहुली फल यक कनइल डाल बिरहुडी कहें कबीर सचुपायबिरहुठी नो फढचाख॒हु मोर बिरहुढी १) सोबिरहुली में यहलिख्योंहै |कि तुम तो प्रथम झुद्ध रहों सर्वक्ञ पुरुषोंके छिखे मितने ग्रन्थ हैं सबमें पटलिड्र अवश्य होतेंहैं ओर यह न्‍्थ सह सत्यगुरु कबीरसाहब विरचितंदें इस कारण पद्लिंग का स्वरूप प्रदर्शित करत हू .

आदिमंगल | (२१ )

हैं तुमहीं मनमायादिकन को बनायेके फँसि गयेहौ यह उपसंहार भयो साखिन के आदिमें यह साखीहै। ( नहियानन्म मुकताहता तहिया हता कोय छठीतिहारी हों जगा तू कहँचछाबिगोय ) एक पोथीके अंतमें यह साखीहे ( जासोंनाताआदिकाबिसारिगयोसोठीर चौरासीकेबशपरेक- हतऔरकेऔर ) सोयेहमेवहीबातहैऔदूसरी पोथीकेअंतमेंयहसाखोंहै ( धोखे * सबजगबीता देतअंगफेंसाथ कहे कबीर पेड़ नोबिगर्यो अबका आवैहाथ ) सोयहमेंवही ब[तहै। अट्ठाइस साखीं कौनिर्क पोथीमें औरहें तते दुइसाखी अंतकी छिख्यों है यह उपकम उपसंहारभयों औरपकरणमें यहहे कि श्रीरामचद्धकोी जब नीवजाने तबछेट सोग्रन्थभेर- मेंबारबार यहीउपदेशहे ( रूखचौरासी जीव योनिमें भठकि भटकि दुखपाव कहें कबीर जोरामाहिनानि सो मोहिंनीकेभावै राम बिनानरहैंहों केसा बा- टमांझ गोबरीरा जैसे * ) इत्यादिक बहुतवाक्यें याते अभ्यास मयों सगुण जेहेँ ईंबवर परमेश्वर अवतार अवतारीसब निगुंणनेहै अल्मनोन मनबचनकेपरे है ताहतेपरे नित्यसाकेतरासविहारी रामचन्छहैं यह अपूबंताभई “अवध छोड़हु मन विस्तारा सोपद्गहीनाहिते सद्गति पारबह्मतेन्यारा नहीं महादेव नहीं महम्मद हारहिनरत तबनाहीं आदम ब्रह्मनहिं तवहोंते नहीं धूपनहिं छाहीं अससिहसपैगम्बर नाहीं सहसअठासीमूनी चेद्सूर्यतारागण नाहीं मच्छ कच्छ नहिंदुनी वेद्किताबस्मतिनहिंसेयम नाहें यमनपर- साही बागनिमाज नहींतवकछमा रामीनहींखोदाही आदिअंतसन मध्य होते आतश पवन पानी छखचौरासी जीव जंतुनहिंसाखी शब्द बानी कहहिं कबीर सुनोहैअवधू आगेकरहुबिचारा प्रणब्रह्म कहांते प्रकटेकिरतम किनडपचारा”! यहपद्‌ यही बीजकग्रन्थकों है सोनहां यापदहै तहांअर्थलिख़्यों है सो देखिडीनियो यातें अपूर्वताभई भो रामनामहीं के जपेंते श्रीरामचन्दहीके जानेतें मनबचनके परे श्रीरामच- न्द्रूप फल की भाप्रिहोईहि यह फल है 'छच्छाआहि छत्रपति पासा। छके किनर है छोंड़िसबआसा मेतोहींक्षणक्षणसमुझाया खसमझों- ड़िकस आपबँधाया १॥ ररोरारिरहाभरुझाई रामकहेदुखदारिद जाईं

(२२ ) बीजक कबीरदास

ररांकहे सुनौरेभाईं सतगुरुपूंछिकिसेवहुआई:॥२॥"” इत्यादिक बहुत वाक्यहैं : यहफलदहै।औ अर्थबाद कबीरजी तो साहबके पासके हैं उनको संसारका कौन डर है यह परशंत्रा करे है याते अर्थवादभयों “डरपतभहेा यहझूलिबेको राखंयादव राय कहकबीरं सुनु गोपार बिनती शरण हारेतुबपाय” प्रकरणमें प्रतिपाद्य जोहे कि रामनामैकोजानिंहे सोई छूटिजायेहै औजे नहीं जनि हैं औरमीरेमतनमें लगेहै तेईससारी होयहैं यहबात दृष्ठांतदिके रामनामही को हृढ़ कियो है “राम नाम बिन मिथ्याजन्म गँवाईहो सेमरसेइसुवाजोजहँड्यों ऊनपरेपछिताईहो ज्यों मदिपगांठि अरथेंदे घरहुकी अकिलगवाईहो स्वादहुउद्रमभरेजों केस वोसहिप्यास जाइंहो” इत्यादिककहरामें लिख्यो है यह उत्पत्तिभई। येई षट्लिंगहैं ने इनको देखिके अर्थकरे हैं सो सत्यहै,ने इनको नहों जानिके अथकरेहें वहग्रन्थकों तात्पयें औरहे और अर्थ करेंह्ठै सो अन्थहै जैसे बीनकको कोई निराकार ब्रह्ममें लगवैंहै कोई जीवात्मामें लगाव कोई नये नये खामिन्द्‌ बनाइके अथेलगाँवहे इत्यादि वेमनमुखी अपने अपने मनते नाना मतनमें अथैरूगावेहें ते अनर्थ हैं अर्थनहीं हैं वेगुरुज हैं सबते गुरू परमपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनके दोहीहें ताते भमाण “गुरुदोही औमनमुखी नारपुरुष अबिचार तेनरचौरासीशभ्रमहिं जबलगिशशिदिनकार!”

अरु हम जो बीजकको यह अर्थ करहें तामें छट्उालिड्ः श्रीरामचन्द्रमें घटितहैं तेहितजो अथ हम करेंहें आनिवेचनीय श्रीरामचन्द्रकों प्रतिपादन सोई ठीकहै काहें ते कि जहांभारिप्झ्हैं तिनहंके अर्भहैं तौनेमें ममाण बाल्मीकीयकों “'सूर्य्य- स्यापिभवेदसूयोहिमेरमिःप्रभोःषभु:”” अर्थ जोयेईस्‌ूर्यमें येईअम्निमेंअर्थलगांवे तो पुनरुक्तिहोंयहै काहेते जबबड़ोमकाशमान सूर्यको कह्यो तब अग्नि को कहिवे कोहै तातेयहअरथहै जो कमेनमें छोकनंकी भेरणाकरे सोकहावै सूर्य अर्थात्‌ अन्तयोमी औसबकेआंगेरहतभयो यातिअग्निकहावै ब्लह्मसोसूर्यके सूर्यक्है अंतर्यामीके अंतर्यामी ओऔ अभिकहे ब्रह्मकेब्रह्मअंतयोंमी पारिछिन्नहै तातेबड़ो बह्महै जो सबैन्न पुर्णदँ औप- रिछिन्नहे ताते बड़ोनाकी प्रकाश यह ब्रह्महै जामें सबजीव भरे रहेहें ऐसोसाहब- कोछोकहै सबकोप्रभुपरबह्मस्वरूप ताहकेपभुवह छोकके मालिक श्रीरामचन्दहैं वहब्रह्मनोहै सोई मनबचनके परेंह्ते पुनिनाको वो प्रकाशहै बह्मसोलोककैसेंमन

आदिमंगल। (२५३)

बचनमें आवे साहब तौदुहुनका माहिकहे उनकी कहदबाई कहाकरे जो कहो सबके माछिक श्रीरामचन्दरहें यह कहतई जाउहों कही कि मनबचनमें नहीं आँवहें यहबड़ो आश्रय है सो सत्यहै ये कबीरहजीकतहै हैं 'किरामो नहीं खोदाई”' काहेते रामो नहीं खोंदायहौ कहै हैं “रामे नाम अहै निन सारू सब झूठ सकल संसारू”” इत्यादिक बहुत प्रमाणदैंके बीजक भरेमें रामैनामको सिद्धांतकियोंह ताही में याको समाधानहै औताही में कबीरजीकों बीजकरांग है ओरीभांति अर्थ किये नहोंठांगै है। सोसुनो नो साहबको रामनाम॑है ताके साध* नकीन्हे ते वहमनबचनके परेजोरामनाम ताकोंसाहब देइ है सो वह नाम याके बचनमें नहीं आवेंहे साहिबै दीन्हेते पॉवेहे जब याकों संसार छूट्यो तब अपने छोकको साहब हंसस्वरूप देइहै तीनिहंसस्वरूप में टिकिकिे साहबकोदेखै- हँंनामलेइहें साहब साहबका नाम साहबकों छोक साहबकोदियों हेसस्वरूप या प्राकृत अपाकृत मन बचनके परे हैं तामेंप्रमाण यतोवाचोनिवर्तेतेयतपर- म्बह्मणःपरम्‌ अतःश्रीरामनामादिनमवेद्य्राह्ममिन्द्रियि! यह रामना- मके जपन की बिधिनेसी कबीर जी आपने शब्दनमेंकह्मोहे तेहिरीतिते जो जपकरे तो रामनाममन बचनकेपरे जोआपनो स्वरूप सोयाके अंतःकरणमें अस्फू- तिकरि देय हैं साहब को रुपअस्फूर्ति करिदेयँ हैं आर्थीत्‌ आपदीअस्फूर्ति हैनायहै ता्मेममाण नामचिन्तामणीरामरचैतन्यपरविग्रह: नित्यशुद्धोनित्ययुक्तोन भिन्‍तन्नामनामिनः अतःश्रीरामनामादि नभवेद्््राह्मामिन्दियें: स्फुरतिस्वयमें - वैतज्निह्ादौअवणेमुखे”” ॥२॥ सो यही रामनाम जो मनबचनके पंरहै ताही को कबीर जाने सो जाने जेहिमहीं जनाऊं। बांह पकरि छोके ले आऊं सहन जाप धुनि आपेहोई यह सँघिबृझे बिरछा कोई रग बोढे रामजी रोम रोम राकार सहने धुनि छागीरहै सोई सुमिरणसार ॥'” ओठकंठहलिनहीं जिहानाहिंउचार गुप्तबस्तुकी जो रखे सोईहंसहमार जो हेसरूपमें टिकिके जपत रहेहें तौनेमें प्रमाण भक्तमालके टीकामें श्रीमियादासनीलिख्यहै “बिने तानो बानो हिय राममड़रानो” श्रीमहाराजाधिरानरामसिंहबाबा पंछचोंहै तब कबीर साहबकट्मेहि॥ राअक्षरघट रम्योकबीरा निजपरमेरोसाधुशरीरा'!

तातेरामनामही को परत्व बजिकमें है माक्ते रामनामहीमें है और साधनमनहा

(२४) बीजक कबीरदास |

है यह कबीरनी बीजकभरेमें कहे है। और अर्थ ज॑ करे हैं ते बीनक को अरे नहीं जॉनिहैं काहेते भागूदास बीजक ढैभागेहैं सो बबेठवंश विस्तार में कबीरही जी कंहि दियो है कि अर्थ नहीं जाने हैं तामें प्रमाण ।। भागूदासकी खब- रिजनाई लेचरणामृत साधूपियाईं कोठउ आयकह कछिअजर गयऊ बीन- कग्रन्थचोराइडेगयऊ॥ सतगुरु कहूँ वहनिगुरापन्थी काह भयोंले बीजकग्रेथी चोरी करि वह चोएकहाई काह भयों बड़ भक्त कहाई बी मूछ हम प्रगट चिन्हाई बीन चीन्‍न्हों दुर्मति स्याई बघेलवेश में शगटी हँसा बीनक ज्ञान को करी प्रशंसा सबसों पूछी भेम हिंताई आप सुराति आपैमें ल्याई बीजकछाय गुफा में राखी सत्यै कंहों बचन में भाखी ”॥ सो और अथे जे कबीरह। करें हैं ते भागूदास भगूदास के शिष्य भशिष्य, ते बीजक को बितंडाबाद अथ करिके कबीरजी के सिद्धांत को अर्थ जो राम- नामहै ताते जीवन को बिमुख करिडार्यो नरककी राहबताय दियो काहेते दूसरी पोथीती रही नहीं वोहीं पोथी रही तौने को मनमुखी अर्थ करिके आपबिगरे शिष्यन प्रांशिष्यनकी बिगारयो जे उनके सत्संग किये ते सब याही ते नाम तोरहैं भगवानदास पे भागूदास कबीरजी कह्मोंहे में नो तिरुक करोंहों बीनक को सो एकतो साहबके हुकुमई ते कियो है सो आगेछिसखि आये हैं दूसरे तिछक बनाइ बांधौगढ़में आाये तहां बयालिसवेश बिस्तार ग्रंथदेख्यो ताकीम्माण तिलकममें लिखिदियोंहे पाथी पंद्रहसैयकइसके साढकी घर्मदासके हाथकी छिखींहे येहीपोथी में कर्बीरती रानारामते आगम कहिदियो है “तुमसे दशो बंश जो है हैं सो तो शब्द हमारो गहि हैं परमसनेही अनु- भव बानी कर्थिहें शब्द छोक सहिदानी॥२॥तेहिते में जो अर्थ करों हों सोई कबीर जी का सिद्धांत है? अतुबन्ध चतुष्ठय-अधिकारी ओऔ यह ग्रंथ में चारि साधन करिके युक्त जो पुरुष है सो आधिकारी है चारि साधन कौन हैं नित्यानित्य बस्तु विषेक भो इहामुत्राथेफल भोग बिराय दम शम उपरति तितिक्षा श्रद्धा समाधान ईं पट्संपत्ति मुम॒क्षुता नित्यानित्यबिवेक का कहावें, जीवात्मा नित्य देह इन्द्रिय आदि देके जो संसार सो अनित्यहै यहैं कहांवे नित्यानित्याविवेक इहाम॒त्रार्थ फल-

आदिमगल। (२५ )

भोग विराग का कहे यह लछोकके परलेकके विंषे जेहें खकू चन्दन बनि- ता यह आदि दैंकै जेहें तिनकी अनित्यता बुद्धिकिके तिनेत जो है बैराग्य सो इहामुत्रार्थपूमोग बिराग कहाँवे छोकिक व्यापारते मनके जो है निवृत्ति सो कहाँवे शम ओऔबाह्य जे इच्द्रियहें तिनकी श्रीरामचन्दके संबंधते व्यतिरिक्त जो विषय है तेहिते निवृत्तिहोब जोहे सो कहवे दम अरामचन्द्को जो ज्ञान है तेहि पूर्वक उपासनाके अर्थ विहितनेहैं नित्यादिक कर्म तिनको जो है त्याग सो कहंवे उपरति श्ञीत उष्ण आदि देंकै जहें दन्द तिनकों जो है साहब सो कहांवै तितिक्षा निद्रा आल्स्य प्रमाद इनको जो है त्याग तेहि पूर्वक मनके जोंहे स्थिरता सो कहाँवै समाधान गुरु वेदांतवाक्यमें अवि- चल विश्वास सो कहाँव श्रद्धा संसारते छूठिबेकी जो है इच्छा सो कहाँवे मुमुक्षता साधना चतुष्टय जामें होय सो कहाँवे अधिकारी

विषय-ओ यह जीव साहबकों है ओरको नहीं है यह जो है ज्ञान सो यह ग्रंथमें विषय है सम्बन्ध-ओ गन्थको, विषय सो संबंध कौन है तात्पर्य करिके प्रतिपाद्य प्रतिपादकभाव ३॥ प्रयोजन-ओ यह ग्रंथमें प्रयोजन का है कि मन माया अहंब्ह्म जो है ज्ञान तैनेमें बँघा जोहे जीव सो मन माया बह्मते छूटिंके रघुनाथनीकों श्राप्त होय सो प्रयोनन जीवकी मन माया बह्मते छोड़ायकैे श्रीरघुनाथनीके पास प्राप्त करिवेकों कही, अपनी उक्तिते कही, साहबकी उक्तिते कही, मायाकी उक्तिते कही, जी - वकी उत्तितें कही, बह्लकी डक्तिते कबीरनणी उपदेश कियो है उत्पत्ति प्रकरण केयो प्रकारते अपने ग्रेथनम कवीरजी कह्ोंहै | सो इहां कबीरजी प्रथम रमेनी में आदिकी उत्पत्ति कहैहँँ | जबकुछ नहीं रह्मो है तब वही साहबकों- लोक रहो है ताहीकी परम अयोध्या कहे हैं सत्यछोक सांतानकलोक नापैदछोक आदि दैके नाना नामहैं तौने छोकमेंने हंस हंसनी हैं गुल्मछता तृणआदि देंके तेसब चिन्मय हैं भे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र सबके मालिक हैं तामें प्रमाण॥“राजाधिराज:सर्वेषां रमएवनसंशय: इतिश्रुतेः॥दूसरोप्रमाण यत्र वृक्षझतागुल्मपत्रपुष्पफादिकम यत्किंविवपक्षिझृंगादितत्सबभातिचिन्म- . यम्‌ ॥” इतिवसिष्ठत्हितायाम्‌॥कर्बारी नी कद्यो है ॥सदा बसंतनहँफूलहिंकुंज

(२६ ) बीजक कवीरदास

सोहावही अक्षयवक्षतरसेज सोहंस बिछावहीं धरती आकाशनहांनहीं जग मंगे वहियांदीनद्याल हंसकेसगलगे तोने श्रीभयोध्यानी को जो है प्रकाश तामें बुद्ध जीव जे हैं तेभरे हैं तिनकी साहबकी साहबके लोकको ज्ञान नहीं है जो साहबकों जॉन साहब के छोक जाय तो ना उलटि भाव सो साहबको तो जाने नहींहे याही ते माया उनको धारै लेभावेंहे सो प्रथम साहब दयाकू उनमें दयाकरिंके आपनी शक्ति दैके उनके सुरति उत्पत्ति करतभये कि हमको जाने हमारे पास आाँवे तो मायातें बचि जाय सो आदिमंगलमें कहि आये हैं जब उनके सुराति भई तब वे धोखा ब्रह्ममें माया में छगिकै संसारी भये सो साहब बहुत हटकयो सो हटको ना मान्यो सो आगे बेलिमें कहेंगे तू हंसामनमानि कहो रमैया राम हट्ल मान्‍्यों मोर हो रमैया राम जसकीन्ह्योत्सपायोहों रमैया राम हमरदोषज निदेह हो रमैया राम साहबके छोकमें मनादिकनको कारण नहींहे, तामें भ्रमाण नयत्रशोकोनजरान मृत्युनेकाढुमायाप्रढ्यादिवि- श्रम: रमेतरामेतुसतभ्गत्वास्वरुपतांप्राप्याचिरनिरंतरम इति वसिष्ठस- हितायाम्‌ ॥१॥ कर्बरी जीकह्यों है तत्वभिन्ननिहतत्वनिरक्षरमनीप्रेमसेन्या रा नाद बिदुअनहदनिरगोचरसत्यशब्दनिरधारा ॥!ओ साहब को छोक सबके पार है सो मंगछ में कहिभाये हैं नो साहब को जाने साहबके लोक जाइ तो संसार में ना आवे सो तौने उत्पात्ति श्रीकबीरनी प्रथम रमेनी में संक्षेप ते कहे हैं सबकी उत्पत्ति साहब के छोकके प्रकाश के बहिरेह्दीते होइहै तामें प्रमाण ज्ञानसागरकों ॥जानिमेद दूसरकोई उतपतिसबकीबाहरहोई॥ १॥!"

ऊअथ बाजक प्रारम्भर

ना “अअक८9पंच्ची <-+

... अथ रमेनीप्रथम॥१॥ २॥ चो ०जीवरूपयकअन्तरवासा।अन्तरज्योतिकीनपरगासा इच्छारूपनारि अवतरी तासु नाम गायत्री धरी तेहिनारीकेपुत्नतिनमयऊ। ब्रह्माविष्णुमेशनामघरेऊ तवब्रह्ापंछतमहतारी कोतोरपुरुषकाकरितुमनारी तुमहमहमतुमओरनकोई तुममोरपुरुषहमेंतोरिजोई< साखी-बाप पूतकी एके नारी एके माय विआय ऐसापूत सपत देख्यो जोबापे चीन्हे घाय १॥ चो० जीवरूपयकर्ंतरवासा। अंतरज्योतिकीनपरगास! श्रीरयताथनीके ढोकको जो है भकाश ताहके अन्तर जे हैं जीव एक रूपत कहे समाश्िरूप ते बास किये रहे, यहां यह भाव प्रगट है कि, जीवनकी सुराति ओरई है ओर वह ( जीव ) औरई है सो-अंतरज्योति कहे साहबेक छोकको जोंहे प्रकाश तेहिके अंतरकहे भीतरे आपनई प्रकाश करतमये अथीव सुरतिकी चेतन्यता पाय मनादिक उत्पन्नकै संसार प्रकटके संसारी हेंगय साहबका ने जानत भय या बात मंगढमें वस्तारत काहआयह याते इ्ह प्रसज़मात्र सूचित कियो है जब पलयहोयहै तबह वही ब्रह्ममं छीन होई

आर

है उहैंते पुनि उत्पत्ति होईहे अनुभव थोखा ब्रह्ममें ज्ञान करिंके ने मुक्त

१५८ ) बीजक कबीरदास

होयहैं ते सनातनज्योति जोंहै अयोध्यानीकों प्रकाश बही ब्रह्म जहां पूर्वछीन रहे है तहें जाय लीनहोयहै जे श्रीरामचनच््को जाने हैं तेज्योति वह भेदिक श्रीरामचन्द्के पास जायहैं तामें प्रमाण ( सिद्धाब्ह्मसुखेमग्रादित्या- इचहरिणाहताः तज्ज्योतिर्भदनेशक्तारासिकाहरिवेदिन: तामें कबीरजीको प्रमाण ( जैसे माया मन भिल्‍यों ऐसेरामरमाय तारामंडलभेदके तंबेजअमरपुर- जाय ) धोखाकों अथैयहहै जो औरेको और देखे सो कौनहै कि, एक जाहे सवैत्रपू्ण छोंकप्रकाशबह्म ताके अंतर कहे भीतर अनुरूप जेजीव ते सम- प्िरुपते बास कियेरहे | सो अंतरज्योति प्रकाश कहे जब साहब सुरतिदियों सोईं अंतरमकाश करतभई तबजीवको जान परनरग्यों चेतन्यता आईं तब संकल्प विकर्ल्पकियों कि में कौन हों यही मनकी उत्पत्तिभई सो जीवकोरू- पतोी ( बाछाग्रशतभागस्य शतधाकल्पितस्थच भागोजीवःसर्विज्षेय: सचाने- त्यायकल्पते ) इतिश्रुतेः तामे कबीरजीकों प्रमाण-(बहुत बड़ा ना तनकसा, तनकी भी है नाहि औरत मरद्‌ कहिसके, रह सबही माँहि ॥)३त्या- दिक प्रमाण करिंके वाकों स्वरूप तो अणुहै सोतो वाकों देखिपरये सर्वत्र प्रकाशरूप बह्मदेख्यों सो मान्यो कि महीं बह्महों यही धोखा ब्रह्मह जीव ब्रह्मविषयक शोकासमाधान॥नो कहो जीव बह्मतो बने है नीव कहना यहीयाकी भूलहे जब याको ज्ञानभयो ज्ञानते बिज्ञानमयों अनुभावानन्द प्राध्ष भयो जबभर अनुभवानन्द बनोरहै है तबभर याको नीवृत्वको लेश बनोरहैंहै जब अनुभवानन्दरुप ही हैगयो तबयाकी जीवत्व मिटिगयो संसारऊ मिटिगयो एक आपही आप रहतभयो ! तुमकैसे कहीोहो कि “' जीवको बह्यहोना धोखा- है?। जो ऐसे! कही तो सुनो ! जोपदार्थ बीचकोहोय है सो मिंटिजायहै जो पदाय सनातनहे सो नहीं मिटिनायहैं कैसे जैसे तुमकहौही कि जीवत्व बीचहीकी है वही अह्म अनेकरूप धारण कैलियो है, एकत अनेक हेइगयेंहै, जब जीवत्वकोीं श्रम मिटिगयो तब बह्मद्दी रहिनायहै, जो प्रथम रहोंहै सोईरहि- जायहै जो पदार्थ बीचकों होयहै सो मिटिजायहै। तेसे हमहूं कहैंहें कि आदि में ते जीवरहो है सो जब संसार छूट्यो तब शुद्धनीवकों जीवही रहिनायहै जोकहो जह्ही जीवहैनायहै ते .हम तुमतों या पूछे हैं कि प्रथम तो अद्महीं

रमेनी (२९ )

#5

रहतभयो सो ब्रह्म अकतोहै निर्धमेहे, मतमायादिकते रहितहै, देशकाहुू बस्‍्तु परिच्छेदत शन्यहै सो ऐसे अह्मकी जीवत्वकों श्रम कहातिभयो जों कहे वह ब्रह्म जीवत्वकों धारणनहींकियों वाकों ते| श्रमही नहोंहै काहेते कि सत्यंज्ञानमनंतंत्रह् यह श्रुतिलिख है वाकों श्रमतो संभविंते नहीं है श्रमतों जीवनको भयों है, जिनको बल्यको विज्ञानहे, तिन को जीवत्व है संसार है। नेसे अज्ञानी जीवनको संसारही देखिपरे है तैसे ज्ञानी जीवनकों अह्नही देखिपरे है | तो सुनो तमही दुइणीब कहाहों एक अज्ञानी जीव एकज्ञानी नीव सो अज्ञानी जीवकों या कद्यो कि संसारही देखाय है सो बह्के तौ अज्ञान होताहीं नहीं है, जाते आपको जीवत्व मानिके संसारीहाय जो कहों मायाते शबलित हैंके ब्रह्मदी जीव होइ संतारी है जाय है तो माया को तो मिथ्या कहोंहों जायासामाकों अर्थ मिथ्यैव फिर बह्मकों तो ज्ञान- स्वरूप कहि आयेहों कि बह्मकों मायाकों स्पर्श नहीं होयहैं, ब्रह्म जीव नहीं होइ सके है, तो ज्ञानी अज्ञानी जीव संसार वह बह्मश्रम करिके केंसमयो। जो कहो जीव संसार या हुईं नहीं है तो पुराण कुरान वेदांतका को उपदेश करे है तेहिते तुम्हारो समाधान कियो नहीं होयहै जीव अह्म कबहूं नहीं होइ हैं सनातनते जीव भिन्नहै बह्लमिन्न काहेते साहबके

छोकप्रकाश बह्ममें अनादिकालतें समष्टिरुप ते जीवरहेै है, ताको साहबद्यारु दयाकारिक सुरतिदियों कि, मोमें सुरति छगाँवे तो मैं हंसरूप देकै अपने

पास लेआऊं सो अनादि कालछते श्रीरामचनद्धको जनबई किये या मनादिक- नेकी कारण उनके रहबही करे, वही सुरतिपायकै संसारी द्वैगये जो साहब- को जानते तो संसारमें ना आवते जब मनादिक भये तब अनुभव बह्मको उत्पन्नकियों सो यहतो साहबकों हैं सों साहबका ना जान्यो आपहीको अक्ष मान्यो यही थोखाहै और जीव सनातन है सर्वत्रपुण छोकप्रकाशरूप ब्रह्म नहींहोय है वही प्रकाशमें अचल समष्टि रूपते भरों रहैंहे तामें प्रमाण “नित्य।सवेगतः स्थाणुरचलीयंसनातनः:” इतिगीतायाम्‌ छोकप्रकाश व्यापक ब्रह्मते जीवते भेदहै तामें प्रमाण “सत्यआत्मासत्योजीवः सर््यं मिदः सत्यंभिद।' अज्ञानहूते ब्रह्ममें ठीनहोयहै तबहँमाया परिले आविहे

( ३० ) बीजक कबीरदास

4 40 पक

तामें प्रमाण येन्येररविन्दाक्षविमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तमावाद्विशुद्धुद्धय:/ आखर्ह्मकृच्छेणपरंपदृततः पतंत्यधानाइतयुष्मदघ्रयः” इतिभागवते तेहिते साहबके छोक प्रकाशमें भरे जे जीवहँ तहैंतेब्यष्टि होतहै तहें समष्टिरूप करि लीनहोंतहे अनादिकाल यहीक्रमहे सो जेसोहम वर्णनकारैआये हैं ताही रीतिमें प्रकाशरूप जो ब्रह्म! ताम निर्विकारतनिषमत्वादि ने वेदांतमें विशेषणहैं बह्के ते बन रहेंहें औरीमांतिनहिं संघटित होयहैं प्रकाशरूप जो ब्रह्मेह सो निविकारहे निर्धभे है अकत्तोहै, वाकी करो रक्षा जीबकी नहीं होयहे दूनोते परे जे साहबह तिनको नोजोनेंहे, जानिके उनके छोकको जाय है सो फेरि नहीं अवैहे वे रक्षाकरिछेयहैं काहेते वहां मन मायादिकन की गति नहीं है तार्मेपरमांण “यद्गत्वाननिवर्ततेतद्धामपरमं मम” जगवकी उत्पत्ति नो उपनिषद्नमें लिखेंहे सो समष्टिरुप जीवहीं ते लिखेंहै सोकहूँह “सदेवसोम्येदमग्रआसीदेकमेवादिताय! इतिश्रते। एककरहे सजातीयभेद्शन्य अद्तीय कहें विजातीयमेदशून्य एवकारते स्वगत भेदशून्य यद्यपि सूक्ष्म भेद वार्मे बने हैं परन्तु समष्टिरूपकरिके जीव एकही- रहे है | पलयमें अथवा जीवत्व कारेके एक रहेंहे यह श्रुति सतनाम कैंकै कहँहे ताते अनामा जोब्रह्म है ताम नहीं लगे है दूनी श्रुति है “सएऐ- क्षतएको5हं बहुस्याम” तोने जो है समष्टि जीव सो सुरति पायकै इच्छा करतभो कि, एकते बहुत होईं सो या ब्ह्माख्य जो सर्मष्टे जीव ताहीमें लगेहे ब्ह्मपद्‌ यह समष्टि जीवहीमें घटित होय है काहेते बहिवृद्धों यह धातु है व्यष्टित समष्टि हैनायहै समष्टिते व्यष्िहोइजायेहू वहनो छोकप्र

काश ब्रह्मरक रस घंटे बढ़े तामें एको5हबहुस्याम्‌ या अर्थ नहीं लगे है

अनुभव कार आपनेको नो बह्म मान्य है सो तो धोखिंहे नाममिथथ्यहै सो एके समष्टि जीव रूप सगुण बह्म तीन एक छोफ प्रकाश रूप निगृण ब्रह्म तौंन ईं दूनोति साहब परेहें। मंगढमें पांच अह्मयकहिभायेहैं सोनारायणर्जेहँ साकार ते तिनके अंतर्या्माजेहें निराकारतत्त्वरूप नारायणते दूनों मे साकार निराकारहें तिनते साहब परे है निराकार साकार ये दोऊ साहबके शंरीरहैं तामें प्रमाण “यामेच्छासैमहारान तांतनुंपविशस्वकाम वैष्णवींतांमहातेनो यद्घाकाशंसनात

रमेनी (१3१ )

नंद्साहितायोँ 3:55 प्रोक्तेमूत्तेरचामूत्तरवच अमूत्तैस्याश्रयोमूर्त्त:पर मात्मानरक्ृृतिः इतिभानंद्सहितायां मुसल्माननके जे अच्छे समझ वारहैंतेसाकारहीमानैंहे, काहेतेकिकुरानमें लिखै है-अल्छाह कहैँहै कि ''महम्मद मोकी एकबार जब लड़काईमेंदेखा हैं एक बार मेंने बुछाया मेरे सामने च- छाआया दुइकमानते कम फरक रहिगया” सो महम्मद्‌ देखा यातोअस्छाहकेसूराति है यह आयो महम्मदकीहदीस “खलकलईनसान'””'अल्लाहके सूरतहीमें बना याहे ईनसान अपनी सूरतिका यहिसे यह आयाकि अल्लाह द्विभुजहै यहिसे या माठ्म भया कि अल्छाह कहिके दविभुन श्रीरामचन्दही वर्णन करेंहे जे अस्छाहकी सुरातिकहतेह कि नहीं है, कुरानकी जबानी नहीं मानते हैं तिनको काफरकहंतें वह जो है निर्गुण सगुणके परे साहब नराकृति सो जाके ऊपर कृपा करें है, ताको आपनोहंसतरूप आपनींइन्दी देशहे अपि देखिपरे है तामें भमाण ब्रह्मणैवनिम्रतित्रह्मगैव परयति बह्मणै- वश्वणोतिइतिश्रुतं: साहबकों रूप साकार निराकारते बिलक्षणहै यांतअहूपीरूप कहैंहें - औजेसोयहनामेह तैसोनामनहीं है वहनामविलक्षणः मन्‌ वचनकेपरे है यातेवाकी अनामानामकरे हैं तामेंप्रमाण | ““अनामासो्मपिद्धत्वाद रूपोभूतिवर्ननाव्‌ इतिअभिपुराणे अप्राकृतशरीरत्वादरूपीभगवान्विभः इतिवायुपुराण॥ साहबके हाथ पांय नहीं हैं निराकार आयो चहैंहे ग्रह- करिलेइहै याते साकारआयोतामेंपमाण॥““अपाणिपादोंजवनोग्रहीत्तापद्यत्यच्‌ झःसश्वणोत्यकर्णे:”इतिश्वतेः हो ऐसे साहबके छोक प्रकाश है ब्ह्मको यह जी वना समुझयो कि साहबको छोकः:प्काश है मनते अनुभवकरे वह ब्रह्म आपही _ को मानतभयो यही धोखा ब्रह्म है सो जीवपे कहे एकरूपते कहेसमश्रिप जीवछोक प्रकाशके अंतरमेंबास कियेरहे, सो अंतर ज्योति कहे सरातिपाय पका-

शकान कह मतादिक उततन्न कारें समष्टिते व्यह्ठि होवेकी इच्छाकरत भये सो आगे कहे हैं

(३२ ) बीजक कबीरदास |

इच्छारूपनारिअवतरी तासुनामगायत्रीधरी २॥

आपनेको जो धोखाते ब्रह्म मानिलियो समश्टिरुप जीब, ताके जब इच्छाभई सोई मूल प्रकृति माया है तेहिते शबलित ब्रह्म भयो सो इच्छा माया जबपकट भई ताको नामगायत्री धरावत भये गायत्री तो सर्यमध्यवर्ती जे श्रीरामचन्दरहैं तिनकों तात्पर्य ते बतावैंहे सो अर्थतों ग्रहण करत भये सुर्यके मध्यमें साहब है तामें प्रमाण॥ 'सूर्यमंडलमध्यस्थं रामंसीतासमन्वितम्‌ ?॥ सूर्यम्मतिपादक अर्थ गअहण करतभये तेहिते दिन राति संध्या होतमई ब्ह्यादिक देवताभये सो आगे कहेंगे यह संसार मुख अर्थसमुझयो तेहिते गायत्री सबकी उत्पत्ति कर तभईं जो कहे काहेते जानो कि गायच्रीके देअर्थ हैं तो सुनो यहबाणी जोहे सो सार शब्द जो रामनाम ताको छेऊकके प्रथम प्रगटभई है तामें द्वेअर्थहैँ एकसाह मुख, एक संसारमुख ऐसे प्रणव . निगम आगम इनमें दे दे अरथहैं, एक साहबमुख एक संसारमुखाकाहेते कि रामनाम ते सब निकसेहैं सो जो कारणमें ड्वैअर्थभये तो कार्यमें देअर्थहोवई चहैं | सो संसारमुख अथडैकै जीव संसारी होतभये सो यह उतत्ति मंगलमें बिस्तारत लिखिआये हैं ताते संक्षेप इहाँ उत्प त्ति लिख्यो है ९२ | तेहिनारीकेपुत्नतिनिमयऊब्लह्माविष्णुमहेशनामचयऊ ३॥

तौने गायत्रोरूप नारीके पुत्र बह्मा विष्णु महेश उत्पन्न होत भये तब वह नें गायत्रीरूप नारी है॥ तबब्रह्मापूंझतमहतारी कीतोरपुरुषकेकरतुमनारी

तालोंब्रह्मा पूंछत भये कि को तोर पुरुष है काकरि तू नारी है काके हम पुत्रहेँ सो बताउ हम जानो चहैँहें तब वा नारी कहत भई ॥!

तुमहमहमतुमओरनकोई तुममोरपुरुषहमेतोरजोई ॥५ प्रथम साहब के छोक मकाशमें अनादिकालते साहबते विमुखतारूप जों

७. 2

जगवकोी कारण तेहिते सहित जीव समशिरुप बास कियोरह्यो तिनके ऊपर साहब दया कियो कि “' अबोध सुषुप्ति ऐसे में परेँें इनकी सुखकी अनुभव

रमेनी ( ३३ )

नहीं है ”' यह जानि साहब बिचारचों कि हम इनको सुरति देयें जेहिते हमको जाने लेइ तो में हसरूप दैंके आपने धामकों बोलाय लेडँँ। सो जब साहब सुरति दियो तब चेतन्यता भई अथौीत्‌ स्मरणभयों यही चित्तकी उत्पत्तिहे। वाकी रूपतों अणुहे सोतों आपनोदेखैनहीं है संकरप विकल्प करेंहै कि मेंहों कि नहींहों, यही मनकीउत्पत्ति है। फिरि विचारयो कि में हों तो, पे कौनहों आ- पतो रूपतो देखनहीं है। फिरे निश्वयकियों कि जोमें होतो तो यहसंकरप विकर्प काके होते याते मेंहों यहीं बुद्धि की उत्पात्ति मई | जीने छोक प्रकाशर्मे अपार है ताको देखि मानत भयो ॥के सत्चित्‌ आनंद स्वरूप सो महींहों यही अहंब्रह्मरूप अहड्डारकी उत्पत्ति है। सो जब समश्टििजीव आपनेकों चिद्गभूप ब्रह्म मान्यो तब वहीं प्वेनगत्‌ कारणरूपा योगमाया अरथोत्‌ साहब ते विमुखता- रूपा सो स्थूलरूप ते चिटद्रपा योगमाया छागी | तब आपनेको सब्चिदानंद ब्रह्म मानिके एकते अनेक होबेकी इच्छाकियों अथोव समष्टिते व्यष्टि होबेकी इच्छा« कियो तब साहब जान्यो कि समष्टि जीव आपनेको सच्चिदानन्द बह्य मानि संसारी होनचेह है तब सार शब्द जो रामनाम ताकी दियो कि, याकाये अर्थ समुझि हमको जांने तो हम हंसस्वरूपदे आपने धामको लेआबें सो रामनाम की अर्थ साहब मुखतो समुझ्यों जगतमुख अर्थ छगाय राम नामकी जे पटमात्रा हैं तिनते पांच माज्राते पांच ब्रह्म मकट कियो छठों मात्राकों अर्थ जीव को हंसस्वरूप है सों जान्यो वाहीकी जीवकों अथ करि समष्टि ते व्यष्टि ह्वैगयों | सो समाष्टि ते व्यष्टि होवेवाी जो इच्छाहै सोई गायत्रीरूपा मायांहै तेहि ते ब्ह्मादिक देवता भये सो प्रथम शुद्ध जीव आपनेको बह्म मानि अशुद्ध हैगये है याही हेतु ब्रह्मकी कोई जगवकों निमित्त कारण कहैहें कोईनि- मित्त उपादान कारण कहेहें याही ते वा ब्रह्म अगुद्ध जीवनकों बाप है सातों धोखई है गायत्री केसे बतावे के प्रथम ब्रह्मासों कि तिहारा बाप है ताते यहकहै हैं कि प्रथम तुमरहे तिनकी इच्छा हमें अबहम तुमकहे हमते तुम- भये ओर तो कोई हई नहींहै। तुमहीं हमार पुरुषही हमेंतुम्हारि जोई हैं अर्थीत्‌ जबतुम जुद्धते अशुद्धभयेहों तब चित अवितरूपा जो माया हमहैं तिनहोंति सब छित है उत्पन्न भयो है तबहूं हम तुम्हारी नारी रही हैं। अबह सरस्वती " आदिक तुमको देयँगे ते हमहीं हैं याते तुमहीं पुरुषहो हमहीं नारी हैं

(३४) बीजक कबीरदास

साखी।॥ बाप पृतकी एकेनारी, एके माय बिआय

ऐसा पूत सपूत देखों, जोवापचीन्‍न्हेंचाय ६॥ बापता पाखान्रह्कनह जात श॒ुद्धनावअशुद्धद् उत्पन्नसयहूं त॑ अशुद्ध जाव पृतह सा दांऊमाया सबालत भय तात बाप प्तकाएक ना[र। भई | जसगत्‌ का-

कर आर अर कर आस कस अंक

रण रुपा जो माया है तेनिहींत(अहंबह्म[स्मि)मान्योंहे तोनेहींते व्यष्टि जीवनकी उत्पात्तिहभई है याते दोहुनकी एफे महतारी है।याते एके माया वियानी है।सो ऐसा पत सपूत नहीं देखेह् है कौनसे बाप जोहे ब्रह्म ताको धायके कहे बहुत बुद्धि दीरायंके चीन्हें कि, यह धोखा है। अब जाकी शक्ति करिंके यह जगत्‌ भयोंहै

8 का आज. #

जानी भाँतित सा समार्ट क॑ [(हावद्धांकन कक पोते कहह इंति प्रयम रमेनी समाप्तम

अथदूसरीरमभेनी ॥२॥१॥ चोपाई। अंतर ज्योति शब्द यक नारी॥हरि ब्रह्मा ताके जिपुरारी॥ १॥ तेतिरियिभगलिगअनंता तेडउनजानिआदिउअंता २॥ बाखरीएकविधातेकीन्हा चोदहठदरपाडिसोलीन्हा॥ हरिहसब्ह्ममईतोनाऊ तेपुनितीनिवसावबछगाऊ ४॥ तेपुनिरचिनिखंडबह्लंडा छादशनछानवेपखंडा « पेटहिकाहनवेदपढ़ाया। सुनतिकरायतुरुकनाहिआया॥ ६॥ नारीमोचित गर्भप्रसृती स्वांगघरे बहुतेकरतूती तरियाहमतुमएकेलोहू एकेप्राणबियायलमोह <८॥ एकजनी जनासंसारा। कानज्ञानते भमयोनिनारा मावालकभगद्वारेआया भगभोगेतेपुरुषकहाया १०॥

रमेनी (३५ )

अविगतिकीगतिकाहुनजानी।एकजीभकितकहोंवखानी जोमुखहोइजीमदशलाषा | तोकोइआयमहंतो भाषा १२॥ साखी॥ कहहिंकवीर पुकारिके, छेऊ व्यवहार

एक रामनाम जानेविना, भव बूडि झुवा संसार॥१३॥

अंतर ज्योति शब्द यक नारी।हरे ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी॥१॥ अन्तरण्योति कहें वह ज्योतिके अन्त्रकहेभीतरें नारी जोहे गायत्रीरूपबा- णी सो दब्द जो है राम नाम ताको छेंके प्रगट भहहे सो मड्गलम कहि आ- हें तीने शब्दकी शक्तित तानारके हारे बह्मा त्रिपुरारी भये हैं अर्थात रामनामकी जगत मुख अर्थ लेके वहै बाणी रूप नारी वेद शाख्र सब सं- सार प्रगठकियो रामनाममं ये सब भरेंहें सो में अपने मंत्राथम लिख्यो है सो राम नाममें जो साहब मुख अथहे ताकी (छिपाय दियो तेतिरियेभगलिगअनंता तेउनजानेआदिउअंता तौन जो है तिरिया ताते अनंत भग छिंग होत भये अर्थात्‌ बहुत ख्री पुरुष भये ते अनेक शाखनमें अनेक वेदनमें बिचार करत * थके तबहें वह राम नामके अर्थकीं अन्त पाये वखरीएकविधांतेंकीन्हा चोदहठहरपाटिसोलीन्हा ॥१॥ एक बखरी यह ब्रह्मांड ब्रह्मा बनावत भये सो चौदह ठहर कहे चौदह

का जे बिक

भुवन करके पाटि छेते भये

हरिहरकह्ममहंतोनाऊ तेपुनितीनिवसावलगाऊ ओऔ हारे हर ब्रह्मा जोन बह्यांड प्रथम ब्रह्मा बनायो है वोही अह्माण्ड में

तीनि गांव बसावत भये तहांके मालिक होत भये ने प्रथम बल्यादिक देव-

ता भये हैं तेई बह्लादिकनके अंगनके देवता होतमये सो मड़लमें लिखि-

आयेहैं अह्मादिकनकी उत्पत्ति औपुनि भगवानकी नाभीमें कमछ भयो तेहिते

कि

'बल्लाभयहैं तिनते उत्पत्ति भई है बह्यवैवर्ततमें मरथम बह्माकी उत्तत्ति प्रकृति

( २६ ) बीजक कबीरदास |

निकन

पुरुषके अंगनते भह्है औपुनि भगवानकी नाभीमें कमछ भयोंहे मो मंगर में कहिआये हैं, तेहिते ब्रह्माभये हैं तिनरतें उत्पत्ति भई है तीने बात या रमैनीहूं में कहै हैं कि पहिंे इच्छा रूपी नारीते ब्रह्मादिक भये पुनि बह्माण्डांतरानुवर्ती ब्रह्मादिकभये ते सतोगुणामिमानी जे विष्णुते ऊपर देवलछोक बसावतभये ते ताके मालिक और जो गुणाभिमानी जे ब्रह्माति मध्यके छोक बसाये ते तहांकें मालिक | तमोंगुणामिमानी जे महादेव ते नीचेके छोक बसाये तहांके मालिक होतभये सो येतीनी तीन छोकके मालिक होत भये सोये तीनों तीन छोकके मालिके हैं परंतु लेन तौन छोकनकी प्रधानता देखाई है

तेपुनिरचिंनिखंडब्रह्मंडा छादशेनछानवेप्खंडा «५

पेटहिकाइनवेद्पढ़ाया सुनतिकरायतुरुकनहिआया॥६॥

तेतीनों देवता मिलिके ब्रह्मांड में छा दशेन छानबे पाखंड बनावत भये ५४ योगी लेगम सेवरा संन्यासी दुरवेश छठयें कहिये ब्राह्मण छाघर छाडप- देश दशसंन्यासी बारहयोगी चोदहशेष बखाना। बौध अठारहि जंगम अठारहि चोबिस सेवरा जाना ॥” प्रथम उत्पत्तिम कहि आये हैं बह्ा विं- ए्णु महेश ते यह ब्रह्मांदके ऊपर अपने छोक बसाये फिरि एक अंशते अनंत कोटि ब्रह्मांडन में बसे जाय पेटेते कोऊ वेद नहीं पढ़ि आया कहे गायत्री नहीं पढ़यो बरुवा नहीं भयो ओऔ पेंटेतें सुनति करायकै तुरुक बनिआया है ताते हिन्दू तुरूककों जीव एकईहै सोतो ना जान्यो वेद किताब की बाणी सुनिके अपने कर्मते सब अनेक भेद हेगये वेद किताबकों भेद जान्यो

नारीमोचित गर्भप्रसृती स्वांगधरे बहुतेकरतूती 9॥ तहियाहमतुमएकेलोडहू एकेग्राणवियापलमोहू॥ गर्भबासमें जबतुम रहेहो तब हिन्दूए रहोंहे नातुरुकरह्मों वेद पढचों

के 4

ने तिहारी सुन्नति भई जब गर्भते निकसे तब कर्म करिके हिन्दू मुसलमान हैगये बहे नारी जो है वाणी ताही में चित्त लगायकै कर्म कारक नाना

स्मेनी (२७ )

आर # आर क..

स्वाग हिंदू मुसलमान भये सो कबीरजी कहेंहें कि जैसे हम शुद्धहैं तेसे तुमहे शुद्ध रहेही जब तुमहीं मन प्रकट कियो है इच्छा भई है तब हम तुम एकही छोह रहे हैं अर्थात्‌ एकई जाति चित्त स्वरूप शुद्ध रहे हैं सो एक मोह कहे श्रम जो है मन सो ब्याप्त हैकै नाना भांतिन तुमकी कराइ दियों के हम हिंदू हैं हम तुरुकहें इत्यादिक सबसें

एकेजनी जनासंसारा कोनज्ञानते भयोनिनारा॥ ९॥ भावालकभगद्वारेआया भगभोगेतेपुरुषकहाया ३० अविगतिकीगतिकाहनजानी। एकजी भकैतकहों बखानी

एक जनी कहै उत्पात्ति करनहारी माया एके जना कहे उर्तत्ति करन- हार मनका अनुभव ब्रह्ममाया सबलित इनहीं ते सब जगत है तुम कौन ज्ञा- नते हिंदू तुरुक नाना जाति बनाय लिये निनार नितार जब भगके दारे आया तब बालक कहाया जब भोगन छग्यो तब पुरुष कहाया २० अविगति जों है धोखा ब्रह्म ताकी गति कोई नहीं जाने है में एक जीभते केतो बखा- निंके कहों ११

जोमुखहोइजी मदशलाषा तौकोइआयमहंतो भाषा॥ १२॥

जो एक मुख लाख जीम होय तो कोई कहे महन्त वहीं बह्मको भाषे अर्थात्‌ भाषे यह याकुअर्थ है काहेते कि वाके तो कुछ रूप रेखा हुई नहीं 'है घोखही है अथवा महंत जे बह्लादिक अपने छोकके माछिक जिन जग- वकी उत्पत्ति कियों है तिनके करतव्यताकी जो काहके दशछाख जीम होय कहे तो का कहिसके अर्थात्‌ नहीं केहिसके १२

साखी कहरहिंकबीर पुकारिके / लयऊ ब्यवहार रामनाम जानेबिना; भव बूड़ि मुवा संसार॥ ३॥

कबीरनी पुकार कहैँहें कि या जो उत्पत्ति वर्णन करिआये सो सब लय कहे नाशमानहै कहे वह धोखा बह्मको जो वर्णन करि आये सो व्यवहा-

(३८ ) बीजक कबीरदास

है मात्रहे अर्थात्‌ संमुझेते धोखौहीहै कुछ वस्तु नहीं है सो एक विना रामनामके जाने कहे साहबको नो बतावेंहे रामनाम सो अर्थ बिनजाने मायाकों बताये जनों है राम नाममें संसार बह्माको अर्थ तौनेहे भव कहे भयरूप समुद्र तौनेंमें संसार बूड़ि मुवा इहां लक्षणा है संसार बाड़े मुवाकह संसारो जीव बूड़ि

मुये १३

इतिदूजीरमेनीसम।प्तव

अथ तीसरी रमेनी चोपाई।

प्रथम अरंभ कोनके भाऊ। दूसर प्रकट कीन सोठाऊ १॥ प्रकटेत्रह्म विष्णु शिव शक्ती।प्रथमे भक्ति कीन जिव उक्ती॥२॥ प्रकटेपवन पानी छाया।बहुबैस्ता रके प्रकटी माया ३॥ प्रकटे अंड पिड ब्रण्ह्मडा।प्रथिवी प्रकटकीन नवखंडा॥४॥ प्रकटे सिध साधक संन्‍्यासी। ये सव लागिरहे अविनासी* प्रकटे सुरनर मुनिसबझारी। तेऊ खोजि परे सबहारी॥६॥ साखी॥ जीउ सीउ सब प्रकटे, वे ठाकुर सव दास

कविर और जानेनहीं, एक रामनामकी आस॥»॥

प्रथम अरंभ कोनके भाऊ। दूसर प्रकटकीनसोठाऊ॥ १॥ प्रकटेब्रह्मविष्णुशिवशक्ती। प्रथमेभक्तिकीनजिवउक्ती ॥२॥

प्रथमभरंभ कौनके भाऊकहे भयो दूसर कौन घकटकियों जाते ये सब व्यवहारहें प्रथम अनुमान समष्टिजीवकियों मनके अनुभव ते ब्ह्म« भयो बाणीमई ताते बह्मा विष्णु महेशादिक देवता प्रकटमये उनकी सब

रमेनी (३९ )

शक्ति प्रकटभई ओऔपथम ही जीव जेंहि सो अपनी उक्तिकरिके उतक्तदेवतनकी भक्तिकरत भयो अथीत नाना उपासना बांधिलछितमये

प्रकटेपवनपानी ओछाया बहुविस्तारकेप्रकटी माया ॥३॥ प्रकटेअंडापडब्रह्मण्डा। प्रथिवीप्रकटकीननवखण्डा

की

वे जे ब्रह्मादिकहें ते अपनों अपनो ब्रह्माण्ड करतब करतभये तेहिसे पवन पानी औछाया बहुतबिस्तारँकिे मायापकटभई औचारि जे खानिहें अंडन पिंडज स्वेदन उद्धिज्ज प्रकट भये जे ब्रह्मांडमें हैं जो नवखण्ड पथ्वी प्रकट भईं ४॥

कम कि हक (१ का प्रकटेसिघसाधकसंन्यासी इसवलागिरहे अबिनासी॥५॥

कप [+ ििक

प्रकटेसुरनरमुनिसवझारी तेऊखोजिपरे सबहारी

सिद्धसाधक संन्यासी प्रकथ्होतमभये ये संपृणजे हैं ते अबिनाशीमें ढागि- रहे हैं अर्थात्‌ अबिनाशीको खोनेंदें औसुरनरमुनिसब झारिके प्रकटहोत भये तेऊ अबिनाशीकी खोनत खोजत हारि परे तिनह पायों

साखी जीव _सीव सब प्रकटे, वे ठाकुर सबदास कबिर ओर जाने नहीं, एकरामनामकी आस॥७॥

जीव सींब कहे इंदवर सो सब प्रक से इंश्वर तो ठाकुर भयों सब जीव दासभये सोकबीरनी कहे हैं कि हमतो दूसरोकाहको नहीं जाने हैं अबिनाशी निर्गुण अह्मको जाने, सगुणईइवरन को जाने निगेण सगुण के परे जे श्रीरामचन्दहें तिनके एक रामनामकी हमोर आशोहै कि वही हमारों उद्धार करैगो। अथवा कबीर कहै काया के बीर जीव! और को तैनाजानु एक रामनामही को जानु यहीं संसार ते छाड़ावैगों

इति तीसरी समेनी समाप्तम

( ४० ) बीजक कवीरदास अथ चोथीरमेनी चोपाई

प्रथम चरणगरुकीन बिचारा करतागावे सिरजनहारा॥ १॥ कम करिके जग वोराया।र्शक्ति भक्तिले बांधिनिमाया॥२॥ अद्भतरूप जातिकी वानी।उपजी प्रीति रमेनी ठानी ॥३॥ गृणिअनगुणीअथर्नाह आया।बहुतकजने ची निह नहिं पाया 9 जो चीन्हे तेहि निर्मल अंगा।अनचीन्हे नल भयेपतंगा॥५॥ साखी चीन्हि चीन्हि कह गावह, बानी परी चीन्हि॥ आदि अंत उत्पति प्रऊुष, ते आपुहि कहि दीड्हि॥९॥

जे 6.

प्रथमचरणगुरुकीनविचारा। करतागावैसिरजनहारा ॥१॥ कमें करिकेजगवोराया शक्तिर्मक्तिलेबांधिनिमाया॥२॥

प्रथभचरणकहे जगवकी आदिमें गुरुकहे साहब बिचारक्रोन कहेसुरति दीन कि हमको जाने,हम हंसरुूपदे आपनेधामकोले आवें।सो नीवनेह ते वा चेतन्यता पाय जगवमुख है जगतउत्पन्नकरिके संसारीहैगय सो करता तो साहबहैं जिनकी चैत- न्यता पायनीव समष्ठटिते ब्यश्मिये तैनेिसाहबकी करतब्यता तो जान्योबल्लादिक नहींको सिरलनहार मानतभये १॥ तेईब्रह्मादिक नानाकर्मनकों प्रतिपादन कारेके जगत बोरायदियों औशक्ति जो है गायत्री तोने के उपदेशकी बिधिकैके

कर चर

ताकी भाक्ति आपंकैके ओजीवनकों कराय के माया में बांधदियों अद्भुत रूप जातिकीवानी उपजीप्रीतिरमनीठानी॥ गुणिअनगुणीअथनहिंआया।बहुतकजने चीन्हिन हि पाया अद्भधुत रूप नाना जातिकी जोहे कम प्रतिपादक ब्रह्मादिकनकी बाणी अर्थात्‌ अद्भुतरूपनके हैं ध्यान निनमें कहेकाहके बहुत मूड़ काहके बहुत हाथ

रमेनी | ( ४१ )

का न्प | आक.

काहके बहुतपांय काहके मृहनहीं ( छिन्नमस्ताको ध्यान्‌ लिखे है कि, हाथमे मैंडलीने है गलेमें लोइ चले है सो मुहेमें परेंहे ताको पीये है )। और नागा- भांतिकी जो है कम्में-पतिपादिका बाणी अर्थीत अद्भुत रूपनकाहै ध्यान तिनमें यहिरीति के देवतनकी उपासना करेंहे औनाना नातिकीकहे नाना तरहकी है उपासना ब्णेन जिनमें ऐसी उनकी बाणीसुनके तिन तिन देवनपर जीवनकी शीति उपनतभई रमेनीठानी नो कह्यों सो अपने अपने उपास्य देव तनकी रमनी कहे कथा सो बह्मादिकन की बाणीकोीं' आशयढेके बनाय छेते भेये गुणीजहे सगुण उपासनावाके तेजीवकोी स्वस्वरूप दासरूपता खोजनलगे औमअनगुणी जेंहें निमुणवाल्ले ते जीवकों अनुमान जो बह्मत्वरूपता खोजनलगे सो वा वेदतालय्योथ दुइमें कोई नहीं पाये अर्थात्‌ बहुतेरेजनेवह्ुत- बिचारकियों परंतु चीनन्‍्हपायो

जोचीन्हे तेहिनिमंलअंगा अनचीन्‍न्हेनलभयेपतंगा «

जे यह धोखाको जानेहें कि यह भोखाँहे तिनहीं को जानिये कि इनके पारखहै यहबात बिनाजाने जगतके नेनीवहें ते जैसे दीपकमें पतंग जरिजा- यहे ऐसे वह धोखामेंपारेके नाना दुःखपावहै जोकोई साहबको चीन्‍न्हेंहे जाको नेतिनेति वेदकहैहें पारिख करेंहें ताके निर्मेलभंग द्वेनायहै अर्थात्‌ हंसरूप पवे है काहेते कि वह साहब ते निगुण सगुण मनबचनके परेहे सोजब वाको चीन्द्यो तब वाह मनबचनके पर है जायहै

साखी॥चीन्हि चीन्हि कह, गावहू वाणीपरी चीन्ह आदिशभअंत उत्पत्तिप्रलय,सवआपुहिकहिदीन्ह ॥६९॥

चीन्हीं चीन्हों तुमकहा गावहुही भर्थाव्‌ कहाकहाहों वहबाणीतों तुमकों चीन्हि नहीं परी काहेते बाणी आपही कहतनाय है कि नाकी उत्पत्तिहोयहै ताकी प्रढययभी होय है; नाकी आदि होयहैं ताको अंतहू होयहैं, तातेजेते पदार्थ भगवमें बाणी आदिदेकैंहें ते मत बचनके परे नहीं हैं जोचीन्‍हेंहै ताको निर्मे अंग होयजायहे यहनो कह्मयों ताते यहदेखाय दियो कि जब

( ४२ ) बीजक कबीरदास

मनादिक एको नहीं रहिनायहैं, तब मन वचनके परे जो पुरुषहैं सो वह मुक्तनीवकों हंसरूप देइ हैं ताको पायके तेहिहँसरूपके इन्द्रिनते साहबको देखेँहें सो याकोममाण बेदमें है मुक्तस्यविग्रहोाभः”” इतिकठशाखायाम ।!

जे आर,

सो यह बिचारनहीों करे हैं बाणीकेफेरमें ब्रह्मह भूलिगये सो आगे कहेंहें इतिचोथीरमैनीसमाप्तम

अथ पांचवीं रमेनी चापाई

हलोंकहोयुगनकीवाता भूलेब्रह्म चीन्हे चाता हरिहर ब्रह्माकेमनभाई बिबि अक्षरले युगतिवनाई २॥ विविअक्षरकाकीनविधाना।अनहदशब्दज्योतिपरमाना ३॥ अक्षरपढ़िगुनिराहचलाई सनकसनन्द्नकेमनभाई॥ ४॥ वेदकिताबकीन्हबिस्तारा। फेलगेलमनअगमअपारा॥ «॥ चहुंयुगभक्तनबांचलवाटी समुझिनपरंमोटरी फाटी ६॥ भेभे पृथ्वीचहुंदिशियावे सुस्थिरहोयनओषचपावे ७॥ होयभिस्तजोचितनडोलावे ।खसमेंछो ड़िदो जखको घावे८॥ पूरब दिशा हंसगाति होई। है समीप सँघि बूझे कोई ९॥ भक्तोभक्तिनकीन शुगारा बृड़िगयेसबर्माझहिंचारा ०॥

| या 2

साखी विनगुरुज्ञानदुन्दभो, खसमकही मिलियात ॥| बुगयुग कहवेया कहे, काहु मानीजात ॥११॥

कहँलॉक्होयुगनकीबाता भूलेत्रह्म चीन्हे जता ॥१॥ हरिहर ब्रह्मकेमनभाई बिबि अक्षरलल युगतिबनाई २॥

रमेनी . (४३ )

युगनकी बातमैंकहांलोंकहों मतबचननके परेजोंहे ताकीबाटबह्मों भूलिगर्येहें जो बाट पाठहोयहै तोयह अथहै औनोंत्राता पाठ होयहैं तो यहअर्थ है कि सबके आाताकहे रक्षक जो साहब ताको बह्मा भूलगयेंदेँ जोन रामनामकों अर्थ जग- वमुख लेके बाणी औसमष्टि जीव आदि जगव्‌ रच्योंहे तौनेयुगतिबल्लोंविष्णु महे-

ओर च, हम

शफे मन में भावत भई सो दनों अक्षर रामनाम को लेके रचत भये

विविअक्षरकाकीनविधानाअनहदशब्दज्योतिपर माना ३॥ अक्षरपढ़िगुनिराहचलाई। सनकसनन्दनकेमनभाई

ओई जे दे अक्षरहें तिनकी बिधान करतभये ( और जो बंधान पाठहोई कौ बेधान करतभये ) | कहांबिधानकियो कि ज्योतिरूपी जोहे आदिशक्ति रेफरूप अग्निबीन परा जाकोमंगछ में पांचब्रह्ममें लिख्यो है ताहीते अनहद्‌ शब्द उठावत भये मनमें जो कुछ कहनेकी बासना आई चित्तमें सो मूछाधारकी भोहै ज्योति तौनेमें मन मिस्यों कहे संकर्पउठयों तबवह ज्योति डोछी ताते कछ पवनको सं- चारभयों ताते नादकी प्रकटता भई तब वह पराबानी उठी सो परयंती मध्यम त्रिकुटीके ऊपर मकारहे विन्दरूपसहस्न कमठमें तहां ग्करपाय बैखरी ये तीनरूप- हैकैबाहरकी आई। सो जहां अग्नरिको ओपवनको संयोग होयहै तहां जोशब्द- होयहै सो अनहद कहावैंहे। सो वह बाणीं जो बाहर आईं सोसम्पूर्ण अक्षर भे। तोने पढ़ि गुणिकि सनक सनंदन जे जीव हैं तिनके मनमें भावत भईं अथवा सनकसनंदनादिक जे ब्रह्मकिपुत्र तिनके मनमें भावत भई सो बहे राह चछावत भये

वेदकिताबकीन्हबिस्तारा। फेलगेलमनअगम अपारा ॥५॥४

3 आर.

तेई अक्षरनकों लेके वेद्‌ किताब कुरान पुरान जेँहें तिनका बिस्तार करतभये ! सो सबके मनमभें फेलगेल कहे फेलजात भईं अर्थात्‌ जाकेमनमें जोन गैलनीकी लगी सोचलछुतभये सोवहंगैल तोभूछहीगय बहुतगैल हैंगई अपने अपने मत '

नकी अपनी अपनी गेछूकहैंहें कि यही सिद्धांतहै तिहिते नानादिद्धांत है गये जोसिद्धतिह ताकी तो पांवे नहीं। वेदादिकनको कुरानादिकनकों कहु-

(४४) बीजक कबीरदास

नलगे कि अगमहै अपारहै काहेते कि नानामतहें तिनमवेदकुरानकों पमाण सब मभेहे सो एक सिद्धांतमें निश्रय काहकी होत भई अथवा अगम अपार जों धोखा ब्रह्मनह सोई सबके सिद्धांतमें फेठगयो कहे ब्रह्मही रहिगयो अथीव अपने अपने मतनमें सिद्धांत वही ब्रह्महीकों करत भये सों वह धोखा तों

की कया

अगम अपारहै काहको मिलबइ नहों कियो

चहुंंयुगमक्तनवांचलवाटी समुझिनपरेमोटरीफाटी॥ ६॥ भैमे पृथ्वीचहुंदिशिधावे। सुस्थिरोयनओषधपांव ७॥

चारिहयुगके नाना देवतनके जेभक्तहैं ते अपनी अपनी राह संसार छुटवेकी बांधत भये तबहू वह ऐिद्धांत समुझि परयो काहेते कि बहुत राह ह्वैगई रामनामके संसार मुख अथमेंहे तो सब मतबनेही हैं परंतु साहबमुख जो अर्थ है रामनामको ताको भूछही गये। भरमकी जो है मोटरी सो फटी कहे पृण्डित भये पढ़े भरम नाश्चकी उपायकरनछगे अर्थीत्‌ शाखनके अथ बिचार- नछगे यही फटिबों है सो वह राह तो पाई नहीं बहुत राह ड्वैगई तब नाता मकारकी शंकाउठी भरम फेलिरहो नाना शाखनके सिद्धांतनमें वेदकी प्रमाण सबहीमें भिरछेहें काको सांच कहें काको असांच कहें ताते शाखनंमे एको सि- छ्वांत करिसके तब जीवजेहें ते भे भे प्रथ्वीमेंचारों ओर श्रमन लगे खो- जनलगे एकहु मतको सिद्धांत नेंहीं पर्वहिं सो यहरोगकी औषध, जो साहब* को जाने है ताही, बिरले संतंके पासमें है सो तौ पावत भये औरे और में लगे ताते स्थिर होत भये

होयभिल्तजोचितनडोलाबै। खसमैंछोड़िदो जलको धावै८॥ पूरुवद्शाहंसगातिहोई है समीप संधि बूझेकोई

जो बित्त डोछावे स्वधर्ममें चड़े तौ मिस्त नो स्वगे सो होय है अथवा जो ' ने जोने देवतनकी उपासना करेंहे तिनके छोकनायहै अथवा यज्ञपुरुषफी आरा- -धना करिके स्वर्गनायहै खसम कहे मालिक ऐसे ने श्रीरामचन्द्रहं तिनकों

रमेनी (४५ )

: अंछाइके सब जीव दौरे हैं मुक्तकहांते होय। दोनस जो नरकहै ताहीमें परेहें इहांस्वगेहकी नरकही मानिके कहैँहें काहेते कि खसमके भूले जो स्वगहू जायगो तो दुःखही पावैगों आखिर गिरिही परैगो पूरब दिशा कहे सबके पूर्व जब शुद्धनीव रह्मोहे कहे जब शुद्धहैके अपनेस्वस्वरूपकों चीन्है तब साहब हंसस्वरूप देय है सो वा साहबका बिचार कमके बाहिरहै सो याकी जो संधिंहे कहे बिचारहे सो समीपही है जो अपने स्वरूपको चीन्हे तो साहब हँसरूप दवे करे परन्तु बुझत कोई कोई है भक्तोभक्तिनकीनशँगारा बूड़िगयेसवर्मांझहिधारा ॥१ ०॥ ज्ञान मिश्रावाले जेभक्तहैं ते भक्तिनि जो माया तेहिते श्ृंगार करतभये कहे बिचार करतभये कि हमहीों ब्ह्हैं वह मनकी धारामें बूड़िगये कहां बूड़े ? के यहसब मिथ्याहै यहकहतकहत एक अनुभव सिद्धांतराख्यों सों अनुभवजीव को है ताते मनते भिन्न नहों है वहीं मनकी मांझ धारामें बड़िगये अथवा साहवको छोड़िके जे नाना देवतनके भजन करेंहें ते भक्त भक्तिनि कहावै हैं ते साहबका तो जान्यो श्रेगार करतभये कहे नानावेष बनावतभये कोई छिद्द- नांकोकी ओर चंदनदियो कोई मत्तिका दियों कोई राख लगायो इत्यादिक नानाविष बनावत भये ते सब संसाररुपी संमुद्रकी मांझ थारामें बूड़िगये॥१०॥

साखी विनगुरुज्ञाने द्रन्द्रभो, खसमकही मिलिबात

युगयुग कहवेया कहे, काहू मानीजात ॥११॥

खसम जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं ते मिलीबात कही कहे अपनों रामनाम बतायो तामें द्ेअर्थ रच्मो एकसाहबमुख एकसंसारमुख सो आदिमड़छ में छि- खिआये हैं | सोसबते श्रेष्ठ गुसुसाहब तिनकाो ज्ञान तो नहीं भयो संसारमुख अर्थ ग्रहण कियो ताते द्वन्दकहे जन्ममरण दुःख सुख सत्री पुरुष ज्ञान अज्ञान इत्यादिक संसारमें होतमये सो कबीरजी कहैंहेँ कि युगयुगमें कहनहार जो भैहों कबीर सो कह्यो मेरीकही बात काहूसों नहीं मानी जातहै ११

इतिपैचइरमनीसमाप्तम क्‍ंरभा कर कक आजम; पका,

४६ ) बीजक कबीरदास अथ छठी रमेनी | चोपाई

बणहुं कोनहप रेखा दूसर कोन आय जो देखा ओंकार आदिनहिबेदा ताकर कहोंकोन कुलभेदा नहितारागणनंहिरबिचंदा नहिकछुहोत पिताके विदा नहिजलर्नाहिथलनहिंथिरपवना।को धरेनामहुकुमकी वर ना -नहिंकछुद्देतदिवसअरुराती ताकरकहहुकीनकुलजाती* साखी शून्यसहज मनस्प्नतिते, प्रकटभई यकज्योति बलिहारी तापुरुष छवि, निरालंब जो होति 5॥

वर्णहुकीनहूपओरेखा दूसरकान आय जो देखा ओकार आदि नहींवेदा ताकरकहोंकीनकुलभेदा

वह जो अनिवेचनीयहैं ताकी कीनरूप रेखावर्णनकरों मेँहीं नहीं बर्णन करि सकोंहों ती दूसर कौन आयजोदेख्यों प्रणवकों वेदह नहीं जानेहैं काहेते कि भ्रणव एकाक्षरत्रह्मवेदनकों आदि है सो तो प्रणवह नहीं रहो ताहकी आदि है उसको कौन कुछ भेद कहों नाहतारागणनाहराबचंदा नाौहकछुहातापताकाबदा ४३ नहिंजलर्नाहिथलनाहिथिरपवना।को धरे नामहुकुमकी बर ना 9 नहिकछुदतदिवसअरुराती ताकरकहहुकीनकुलजाती*

तारायण सूर्य चंदसा पिताकों बिंदु एकी नहीं रहे जाते सब उत्पत्तिहे ॥३॥ प्थ्वी अष तेज वायु आकाश ये एकौ नहीं रहे तहां कौन ताम धरतभये काको हुकुम वर्णन करत भये तहां द्विस होत भेयो राजि होत भई ताकी कौन कुलजाति कहों

रमेनी ४७)

साखी शृन्यसहजमनस्थ्ृतिते ) प्रकटमई यकज्योति बलिहारी तापरुषछबि, निरालेब जो होति॥

सहज शून्य जो ( प्रकाश देखिपरे ) ब्रह्मताके मनके स्मरणते एक ज्योति प्रकट्होयहै सो साढूबह, योगीजन त्ह्माण्डमें देखे हैं। वह जो अनुभव अह्नह सोऊ सालंबहे कहिते कि वाहको मन करिके अनुभव होयहै सो कबीर- जी कहे हैं कि ये दोऊ सालंबहे के तिनकी बलिहारी में कहां जाऊं सबके मालिक निरालंब परमपुरुष जे श्रीरामचन्द्र हैं तितकी छबिकी में बलिहारी जाऊँहों साहब निरालंब काहेतेहें कि नीवकी जेंती सामग्रीहें मनादिक इंदियन- करिके ज्ञानकरिके अनुभव करिके साहब देखेजायहैं जाने जायहैं जब आपही अपनो हेसरूप देय हैं तब वह रूप करिके देखेनायहें आपही ते जानेनाय हैं ताम प्रमाण ( सो जाने जेहि देहु नगाई जानत तुम्हें तुम्हें हैनाई तुम्दरी कृपा तुम्हें रघुनन्दन जानहिं भक्त भक्ति उरचंदन ९) अर्थ है आरामचन्द्र जाको तुमननाइ देहुहों सो जॉने है जो कहे हमारहीं जनाये कैसे जनिगो बेदशाखता सबननेतेंहें ती एकबड़ो अवरोधहै जबतुम्हारे जानवेके लिये शमदमादिक कियो हृदय शुद्ध भयो तब आपहीको मॉर्नेहे कि, महीं रामहों सो तुमको कैसे जानिसके या हेतुते तुम्हारीकृप ते तुमको जॉनिंहे अथवा तुमके जानेंहै तब तुमही हैंके नानिहै तुम्हारे छोंककी जायहै। अरथीव्‌ जब तुमने वाकी हंसरूप दियों तब वह पांचों शरीर ते भिन्नहेंके हंसरूपमें स्थितमयो तुमको जान्यो वह हंसस्वरूप केसोहै तुम्हारी अनिबेचनीयासभाक्तिरूप जो चन्दनह सो वांके उरमें लग्योहै ताकी शीतछता ते वह धोखा ब्रह्मके ज्ञौनकी गरमीनहीं अआयसकैंहै | जिनकी कृपाकरिके तुम हंसरूप देहुहों सो जॉनेहे तुमको सो ऐसे जे साहब हैं परमपुरुष निराठंब तिनको कवीरनी कहेँहें कि में बलिहारी जाऊँहों परमपुरुष श्रीरामचन्द्रही हैं तामें प्रमाण -- धर्मीत्मासत्यसंधश्चरामोदाशराथियेदि पोरुषेचामतिद्वंद्रःशरैननाहिरावाणिम )॥ इतिबाल्मीकीये लक्ष्मण जीने मेघनाद के मारत में शपथ कियो है कि जोपोरुषमें अपतिदंदी श्रीरामहोर्य कहेपुरुषत्वमें वैसो दूसरों होय तो हमारों

प्र

( ४८ ) बीजक कबीरदास

बाण मेघनाद का शिरकाटि छेइ स्रों मेघनादकी शिरकाटि छियों. भागवत हमें हैं ( ध्येयेसदापारैमवष्नमभीष्ठदोह तीथास्पदंशिवाविरंचिनुतरारण्यम्‌ भृत्यातिहंमणतपालमवब्धिपोतंवद््‌महापुरुषतेचरणारविंदम्‌ ) अर्थ हे महापुरुष तिहारेचरणारबिंदकीहम बेदना करेंहें कैसे तिहारे चरणारबिंदहैं कि सब काढमें ध्यानकरिबेके योग्य परिभव जो तिरस्कार ताकेनाश करने- वाले हैं अथीत्‌ जो कोई ध्यानकरे है ताको तिरस्कार छोंकमें कोई नहीं करेंहे मनोबांछित पूर्ण करनेवाले तीर जे हैं तिनके आश्रय भूत शिव विरंचि ते स्तुतिकरेगये शरण्यमकहे रक्षाकरनेमें समर्थ दासनके पीड़ा हरणवाले दीननके पालनवाछे संसार समुद्रके नोकारूप तामें प्रमाण कूबीरजीकी ( साहब काहियेएक को, दूजा कहा जाय दूनासाहब जो कहे, बादबितेंडें आय )

चर

इतिछठवीं रमेनी समाप्तम्‌ |

अथ सातवीरमेनी ( जीवमख )

जहियाहोतपवनहिंपानी ताहियासाशिकोनउतपानी ॥१॥ तहिया होत कली नहिं फूला।तहिया होत गर्भ नहिंमुल्ा तहिया होत बिद्या वेदा ताहिया होत शब्द नाई खेदा तहिया होत पिंड नाहें बाध्।नाथर घरणि गगन अकाशु७ ताहिया होत गुरू नाहें चेला ।गम्य अगम्य पंथ दुह्देला & साखी अविगति की गाते क्याकहों, जाकेगाँड ठाँड॥

गुण बिहीना पेखना, का कहि लौजे नॉउ ॥६॥

रमेनी ( ४९ )

जहियाहोतपवननहिपानी। तहियासृष्टिकोनडतपानी॥१॥ ताहयाहातकलानाहफूला। ताहयाहातग मना हसूला ॥२॥ नहिया कहें जेहि समय सृष्टि नहीं रही जेहि समय पवन रहो पानी रहो तब सृष्टिको कौन उत्पन्नकियों तब कछी रही फूल रह्यो अथीत्‌ बालरहो वृद्धरह्मो गर्भरहों गर्भकभों मुलबीन रहो तहियाहोतनविद्यावेदा तहियाहोतशब्दनहिंखेदा ३॥ तहियाहातापिंडनहिवासू नाधरघरणिनगगनअकासू॥8॥ तहियाहोतगुरूनहिचेला गम्यभगम्यनपंथदुहेला वेद्रह्मो चौंदही बियारहीं शब्द रहो खेद कहे दुःखरहों पिंडरहो। पिंडमें जीवको बासरहो अधरकहे पाताछरयों ना धरागिरही आकाश रहो गुरुरहमों चेछा रहो गम्यकहे सगुणरह्मों अगम्य कहे निर्गुणरह्मो दुह्ेा कहे दूनोंपंथ नहोंरहे साखी अविगतिकीगतिक्याकहों, जाकेगॉउनटॉँड गुणविहीना पेखना, काकहिलीजे नाँड॥ वह जो अविगतिकहे अब्यक्त जो नहीं मकट्होय, धोंखा अह्म है निराकार ताकेगाँड ठाँड नहीं है वह गुणकारिके विहीन जो निर्गुणहै ताकी पेखना कहे देखिबेको का कहिंके नामर्ठीने कि यहंहै वातों कुछबस्तुही नहीं है इति सातवीं रमैनीसमाप्तम

अथ आठवीं रमेनी ( वेदांत विचार ) तत्त्वमसी इनके उपदेशा इंटपनिषद्‌ कहे सन्देशों ऊनिशचय उनक्रेवड़भारी। वाहिकिवर्णकरे अधिकारी ॥२॥ परमतत्त्वकानिजपरमाना ।सनकादिकनारदसुखमाना॥ ३॥

(«० ) बीजक कवबीरदास

याज्षवल्क्थओजनकसँबादा दत्ताजयी व्‌हे रसस्वादा ॥४॥ वहे वसिष्ठ राममिलि गाई वहे कृष्णऊधवससझाई ॥५॥ वहे बात जो जनक हृढाई देंहे घेरे विदेह कहाई ६॥

साखी कुल अभिमाना खोयके, जियत स॒वा नहिं होय॥

देखत जो नहिं देखिया, अद्श कहावे सोय ॥७॥ तत्वमसी इनके उपदेशा ईउपनिषद कहे संदेशा

कैने धोखा बह्यको जौनी रीतिते गुरुवालोग उपनिषदकों प्रमाणदैरके प्रतिफादन करे हैं सो, सांच जो अर्थ है सो कबीरभी दोऊ तात्पय्थे करिके देखावे हैं तत्वमसी जो श्रुति उपनिषदकों डपदेश ताको गुरुवाछोग संदेश ऐसोकहि हैं संदेश कौन कहावे है कि बातकों पूबोपर नहीं समुझे वाकी कहनूति वासों कहि देईं जे संदेशको हेंतुपुछे कि कौनेहेतुत कहो है तो बह कहे हैं कि संदेश कहि दियो यह नहीं नाने हैं कि कौन हेतु ते कह्यो है सो ऐसे गुरुवा छोग ते को तो पूर्वोपर जाँने नहीं हैं अक्षर मात्रको अर्थ करे हैं कि तत्त्व ब्रह्मत्व से तौन बह्मतृही है सो जीवहीको अनुमान तो बक्महै जीव बअह्मकैसेहोयगो

# 0 आर

ह्मते ज्ञानस्वरूप है शुद्ध है माया कैसे घरिछावती अज्ञानी फेश्रहोतो तो गुरु- बालोग कहेंहें कि वा अतर्क है तक करो सो जीवहीको अनुमान तो अह्है

जीव ब्ह्मकैसे होयगो सो श्रुतिकोी अर्थ यहह कि पूर्वपोड़शा कछात्मकजीवकों

कहिभाये हैं ताहीको कहे हैं कि त्वमसि तौन पषोड़श कछात्म जीव है षोड़श

कछा तोहींमें हैं तू उनते भिन्न है शुद्ध है यह जीवको स्वरूप रूखायो सो नहीं हैं सो या बात मेरे तत्त्वमस्यार्थबादमें विस्तारतेहै

पे 0622

किक

समुरी हे

ऊनिश्चयउनकेबड़ भारी ।! वाहिकिवरणकरेअधिकारी॥ २॥ कहे वह जो धोखा ब्रह्म॑हँ ताहीकी निरचय उनकेबड़ीभारीहै बाहीकी

4

..घेरण कहे वही धोखा बह्मको अधिकारी जे चेलाहें तिनको बरणकरे है अर्थोंद

रमेनी (५९१) अंगीकार करायदेंइ है। परमतत्त्व ने श्रीरामचन्द हैं तिनको नहीं नानेहें जे “न हैं तिनकी कहें ; तिनको कहैंहें परमतत्वकानिजपेरवाना सनकादिकनारद्सुखमाना

याज्षवल्क्थओजनकर्सवादा दत्तो्रयीबहैरसस्थादा

परमतत्त्व जे श्रीरामचन्द्हैं तिवको निजते परमानत भये याहीहेतुते सनका- दिक नारदजहैं ते सुखनानत भय अथीव्‌ सुसीहोतभये भाव यहहै कि जे कोई परमपुरुष श्रीरामचन्द्रको अपने ते परमानें तेईं सुखीहोयैं औफिर कहे हैं याज्वत्क्य जनकको सम्बाद भयोहै सो याज्ञवतक्य कह्यो जोपरम तत्त भीरामचन्द सो जनकजो जान्येहै वही तत्त्व दत्ताजयी चौबीसगुरुव- नाय संतारते वैराग्यकैंके तालर्य वृत्तितेनान्यो है॥

आकर

वहैवशिष्ठराममिलिगाई वहेक्ृष्णअपवसमुझाई वहैवात जो जनकद॒द्ाई देह घरे विदेह कहाई

वहीं परमतत्त जे श्रीरामचन्द्र हैं तिनको मिलिकै गायकहे कहिके वशिष्ठजी

जान्यो है वही परमतत्त्व तालयवृत्ति करके कृष्णचन्द्र ऊपवको उपदेश

कियाहै वही परमतत्त ने औरामचन्द्हे तिनको हृढस्मरण कैके देंहै धरे

जनकजी बिंदेह कहावत भये इहां द्वैनगक नो कट्मों सो वा वेश में एक जनक दब किष्यप

नाम करिंके राजा भये है तेहिते बिदेह होत आये और एक रघुनाथ नी के रपदूर धध्वन भये हैं तिनको जनक कहत रहे है

हैं तिनको क्ट्मा है सो वे

और जनक हैं | ये और जनक हैं ' साखी कुलअभिमानाखोयकै, जियतसुवानहिंहीय॥ - देखत जोनहिंदेखिया, अदृष्कहावे सोय ७॥

ऐसे जे परमतत्त्व श्रीरामचन्द हैं तिनको जानि आपनो कुलाभिमान खोयके कहे त्यागिकै जियते मुवा असनाभये अथौत्‌ हंसुस्वरूप में टिकिकै पांची शरीर ते भिन्न ना भये देखत जो ना देखे सो अद्ृष्टि कहा सो परमतत्त्व ने श्री-

(९५२१) बीजक कवी रदास

रामचन्द्र हैं तिनका वेद, पुराण, कुरान, शाख, महात्मा इनकेद्धारा देखतऊहै जिनके बर्णन करिआये समकादिक महात्मन को उद्धार हेगयो यही ज्ञान- दृष्टि देखतऊ हैं परन्तु ये मुख जीव गुरुवालोग ना जाने तेहिते अदृष्टि कहांवे हैं कहे आँधरे कहांवे हैं | परमतत्त्व श्रीरामचन्दही हैं तामें ममाण (रामएवप रंतत्वं श्रीरामोब्ह्मतारकम्‌ इतिहनुमदुपनिषद ) जो यह कहो शुकसनकादिक येऊ जान्यों तो अब को जाँवेगो नास्तिकपना भाँवि बस्तु मिथ्या होय है ताते साधु तो जानतई हैं जिनकी साहब जनाय दियो है कबीरोजी कह हैं ( ध्रुउफ्ह्मद्श बारिया सोहरिहमरेसाथ हमको इकाकछुनहीं, हमसेवें रघुनाथ ) इति आठवीं रमैनी समाप्तम्‌ जरा

अथ नवा[रत्षना चोपाई

बांधे अह् कष्ट नो सुता यमवांधे अंजनिक्क पृता १॥ यमकेबाहनवांधिनिजनी बांधेसशिकहालोंगनी २॥ बांधे देव तेंतीस करोरी समिरतबंदि लोहगेतोरी राजासुमिरे तरियाचठी पंथीसुमिरि नामलेबढ़ी अर्थ विददीनासमिरेनारी परजासुभिरपुहुमीझारी साखी वंदि मनाय फल पावहीं, बंदि दिया सो देव कह कबीर ते ऊबरे, निशि दिन नामाहि लेव॥ ६॥

बाँधे अष्ट कष्ट नो सूता। यमवांघे अंजनीके पूता अष्ठ ने अष्ठाड़' योगहें कष्ठ जो बिज्ञानहै तेहिते बांधिगयों धोखा बल्न- को बिज्ञानरूपकष्टद तामें ममाण ( अव्यक्ताहिगतिदुःखंदेहव॑द्धिरवाप्यते )॥

4 के.

इतिगीतायां अ्यःश्रुतिमक्तिमुद्स्यते विभों क्किश्यन्तियेकेवलबोधघलूब्धये तें

हे 62५

रमेनी | («३ )

पामसौक्ंशलूएवशिष्यते नान्यंयथास्थूछतुषावधातिनाम इति भागवते ) नो सृतकहे सगुना जो. नवधा भक्ति है तेहिकरिके, बांधिगययो यमकहे दुई बिद्या अबिदा तेहिकरिके अंजनी जो माया ताके पुत जे जीव हैं ते सब

बांधि गये ९॥ यमकेवाहनवॉधिनिजनी बॉथेसश्टिकहांलोंगनी २॥ बाँधे देवतेंतीस करोरी सुमिरतबंदिलोहगैतोरी यम ने विद्या अबिदा दूनें मायहैं तिनके सब॑ जीव बाहन भये काहेतें कि उनहींकों ढोवन छंगे उनहींकी चाल चलन लगे वे जे दूनों मायाहें ते बांधिनिजनी कहे फेरिफेरि जीवनको उत्पन्न करिके संसार देंके बांधि छियो शीशमें चदी रहती हैं से अनादि कालते बँधीजो सृष्टि ताक कहांलें गनी > तेंतीसकोंटि देवता बधिगये तिनको सुमिरतमात्रहीमें बंद कहे छोहेकी बेड़ी में परिके तोरी कहे मारेगये अथवा तेंतीसकोटि देवता बांधिगयें तिनके सुमिर तमात्रहदीमें बन्दी कहे छोहेकी बेरी में पारेके तोरि कहे मरि गये अथवा तेतीस कोटि देवता बांधे गये तिनके सामिरत मात्रहीबन्दीकहे छोहेकी वेरीमें परिके तोरिकहे मारेगये अथवा तेतीसकोटि देवता बांधेगये तिनके सुमिरतमानर्में. का बन्दि लछोहेकी बेरी जीव तोरिगये ! नहीं तारिगये रे राजासुमिरे तरियाचढ़ी पंथीसमिरि नामलेवढ़ी॥ ४॥ अर्थबिहीना सुमिरेनारी | परजासुमिरेपुहुमीझारी « तुरीया अवस्था को नामहै तामें ज्ञानी ठछोग चदी कहे आरूढ हैँंके राजित होयहैं ताहीते राजा कहे हैं ते अहंबह्मकोीं सुमिरे हैं भा पेथी ने अनेकपंथ चला बन वलिहें ते नानामतके पंथमें आरूढहें अपने अपने इष्ददेवनके नामडैंके साधन में बंदेंहें सोयही बिरही हें अर्थ बिहीना कहे अर्थ जो है दव्य ताको वैराग्य ते त्यागि बनमें बसिंके अपने इष्टदेवनकों सुमरे हैं ते पर जो ब्रह्म है तामें जो जायोचाहै सारी पुहुमी सहित सुमिरिहे अर्थाव सवत्न ब्रह्मही देखेंहे ते ये दोऊ सगुण निगशुण उपासक नोंरी जो माया है ताहीको सुमिरेहें काहेते कि जहांडी मन जाय है तहां को सब माया है

(५४) वीजक कबीरदास |

साखी वँदिमनायफलपावहीं, वंद्दियासोदेव कहकवीरतेऊबरे, निशिदिननामहिलेव

बंदि कहे विद्या अविद्यारूप जो बेरी ताको ने मनांवे हैं ते तोने फल* पाँवै हैं अथीव्‌ जे स्वग्गीदिक की चाह करेंह्ें ते लोहेकी बेरीमें परे जे अहं- ब्ह्मास्मि मानेते सोने की बेरीमें परे सो जोने इृष्टद्वतनकी मनाये सोब- न्दीही फल देतभये अथवा ते फल देवते दियोंहे मिन उपासना कियोंहै बन्दि- में नाय कहे बन्दिर्में डारिदिये हैं तेई फल पाँव हैं अर्थोत्‌ स्वग्गादिक जे फर्लकेह तेसब बंदिमें डारनवारे हैं सो बंदि डारनवारों मे फलदेय हैं तेकादेव

हैं! नहीं हैं सो कबीरनी कहे हैं कि जे श्रीरामचेद्र को नाम निशिदिन लेयहैं तेई ब्बरे हैं

०५

हात नवा रमन। समाप्तम्‌ |

अथदशवा रमना। चौपाई

राही ले पिपराही बही | करगी आबत काहु कही आई करगी भो अजगूता।जन्म जन्म यम परहिरे बूता २॥ बुतापहिरयमकरे पयाना।तीनलोकमें कीन समाना ३॥ बांधे ब्रह्मा विष्णु महेशू। पावेती सुत बांध गणेशू॥ ४॥ बथेपवन पावक नभनीरू। चन्द्र स॒य्य वाँधे दोउ बीरू ५॥ सांचमन्त्र बांघेसबआरी अमृत बस्तु जाने नारी ६॥ साखी अमृत वस्तु जाने नहीं, मगन भये कित लोग

कहहि कबिर कामोनहीं, जीवह मरण योग॥७॥

रांही लेपिपराहीवही करगीआवतकाहुनकही राहीकहे सुराहके चछनवाले पिपराही कहेपीपरकी बनिका की नाई अनेक मति में डोढनवाले जे जीव तें राही जे हैं तिनहूं को लैके संसारसागर में

रमेती (५५ )

बहतभये करगी बूड़ाकोजलनो छिट्कैहे ताको कहैहं। सो यह माया बह्मको जो धोखारूपबूड़ाहै ताकेआवतमें काहुनकही कियाधोखाबह्म भेंनपरोबूड़िनाउगे ॥९॥

आईकरगीभोअजगूता जन्मजन्मयमपहिरेबृता २॥

जब करगी आईं तब अयक्ति होत भई कैसी भई कि, जन्म जन्म कहे जब जब ब्रह्मांडनकी उत्पत्तिमईँ तब तब यम पहिरे बता कहे यमको काड़ निरंजन जहें तिनकों बृता कहे पराक्रम कार पहिरत भयो अथीत्‌ काछ तो जड़है निरंजने को पराकम लैके जीवनको मरेंहै

बुतापहिरियमकीनपयाना। तीनिकोकमोकीनसमाना॥ ३॥ बांधे ब्रह्मा विष्णु महेशु पार्वती सुत बांधगणेशू 8 वंधेषपनपावकनभनीरू चंद्रसूये बॉँधे दोउबीरू: «५

वही निरंजन को बुताकहे पराक्रम कालढैके पयान कियो सो लव दिन पक्ष मास॒ वर्ष युग कल्परूप करके तीनछोकमें समाइ जातभये जोन काल तीनछोकमे समानो ताहीमें ब्रह्मा विष्णु महेश षण्मुख गजमुखादि आयुर्दा- प्रमाण रूपते सब बँधतमये अरू ताहीमें पवन औओ पावक पानी चन्द्र सूय्ये नम सब बँधत भये

+ + है ने सांचमंत्र सबबांधे झारी। अमृत वस्तु जाने नारी ॥६॥ झारादेकै जे साहबके सांचमंत्रहें तिनहूँकी काछ बांधिलियों काहेते कि जो साहबके मंत्रकी अर्थप्रभाव सोई आवरण है साहबको जश्ञानरूप अमृत वस्तु जानि परत भये नारी जो आवरणकैलियो माया तामेंपरे जे जीव ते जानें जो जानेंगे तो हमारेमारे मेरेंगे याही हेतुते बांध्योहै हि] का साखी अमृत वस्तु जाने नहीं, मगन भये कित लोग॥ [० प़ो कहँकबिरकामोनहीं, जीवहमरन योग अम्रत बस्तु जो साहब है ताकी तो जान्यो कोने कुत्सित संसारमें त्‌ मगन भयो कीन साहब जो कामोनहीं अथौत्‌ कामें नहीं है सबहीमें है सों

(५६) बीजक कबी रदास |

ऐसो अमृत बस्तु साहब समीपई हैं वा जीवका जननमरण योगहै अथोव नहीं है ब्यंग्यते या कहेँहें कि जीव महामूदुहै काहेते जो साहब को जानि लेइ तो जन्म मरन छूठ जाईं काहे ते के रक्षक साहबही है। अथवा जिनको सांच मंत्र माने रहे ते तो सब बांधिगये अमृत वस्तु नो रामनामकों साहबमुखभर्थ सो जानतही नहींहै याते जनन मरण छूटतभयों

अरु जो प्रथम तुकमें छोइ और दूजे तुकमें जीवहिमरन नहोइ ऐसा पाठ होवे तौ यह अधथ कि, छोइ कही लपट जाइहैे प्रकाश तौंने ही भें सब छीन भये, जो कहो लीन भय जीव रहिगये तो जीव बनेहैं काहेते कि, जीवकों मरन नहीं होइहै वह ब्रह्मका में नहीं !

इति रमनी दहावीं समाप्तम्‌ अथ ग्यारहवीं रमेनी गुरुसुख | चोपाई। आऑँधरगश्िसश्मिवोरी तीनिकोकमहँलागिठगोरी॥ ब्रह्महिं ठग्यो नागसंहारी। देवन सहित ठग्यो तिपुरारी॥२॥ राज ठगोरी विष्णुहिं परी। चोदह शुबन केर चोघरी ३॥ आदि अंतजेहि काह जानी, ताकी डर तुम काहे मानी॥४॥ ऊउतंगतुम जाति पतंगा यमघर किहेहु जीव के संगा॥५॥ नीमकीट जस नीमपियारा विषकी अमृत कहे गवारा॥९॥ बिषके संग कवन गुण हो किंचित लाभ मूल गो खोई ॥9॥ विष अम्ृृतगों एकहदी सानी। जिन जाना तिनविषके मानी८ कहा भये नल सुध वेसूझा विनपर चे जग मृढ़ बूझा ॥९॥ मतिके हीन कोन गुण कहई। लालच लागे आशा रहई॥ ०॥

रमेनी। (५७)

साखां झुवा भहे मरिजाहुगे, मुये कि वाजीढोल स्वप्रसनेही जगभया, साहिदानी रहिगावोल ११

आँधर गुष्टि सृष्टिभे वौरी तीनिकोकमहँलागिठगोरी॥ १॥

साहब कहेहें कि जे मोको ज्ञानदष्टि करिके नहीं देखेहें ते ने आँधरहें ते माया निराकार धोखा बह्मयाहीकी गोट्ठीनोवार्ता सो करतेभये ताहीमें सारीसृष्टिबोरीदे जातभई कोई ती मैंही बह्महों यहमानि अपने को मृक्तमानत भये, कोई जीवात्मेकों मांने कोई शुन्नहिकी मानतमये कोई मायएमें परि नानादेवत- नकी उपासना कारे अपनेको भक्तमानत भये सो यही उठगौरी जो माया है सो तीनेंलोकमें लागतभई सो आगे कहे हैं १॥

ब्रह्महिंठग्योनागसंहारी देवनसाहितठग्योत्रिपुरारी २॥ कप कप 3 तो चर राजठगोरी विष्णुहिंपरी चोदहअवन केर चोधरी

मायात्रह्माकोठग्यो ते संसार की उत्पात्ति करनकृगे शेषनागकों संहारिक कहेबांधिके नागकहजाई जो पाठहोय तो मायात्रह्मा को ठगेसि शेषनाग कहँनाइके ठगिसे सो शेषनाग पृथ्वीको भारशीशमें धरतमये | देवन सहित महादेवकी ठग्यो ते संसारके संहारमेंछंग देवता अपने अपने काममें छंगे * चोद॒ह भुवन को चौधरी विष्णुको करिके ठग्यो ते संसारकों पाछन करनलगे याहीरीतिते मायाते जेगुणामिमानी रहे तिनकोी सबकोठग्यों

आदिअंतज्यहिकाहुनजानी ।ताकी डरतुमकाहिनमानी॥ 8॥

फिरिकेसीहे माया जाको आदि अंतकोाई जनबई कियो काहेते जा- न्‍्यो वा कुछबस्तुही नहीं है भ्रमहामाज्रहे जेतोपदार्थ देखंहै सुनहै कहैंहै सो सबजिगुणमय है गुण आत्मईमें है बह्महीम है | ताते ये सब मिथ्या- हैहें धोखा ब्रह्ममिथ्याहै केसे सो कहै हैं सबको निराकरण करतकरत जो वा रहिजाय है ताही को मानोंहों कि सो बह्महमहैं ”' ताहुको मूलअ-

(५८ ) वबीजक कबीरदास

ज्ञान कहें सो जब सोऊ रहो तब वह दशामें बिचारिदेखो तुमहीं रहिना- डहीो, तुम्हारोई अनुमान बह्नहै, ताते मिथ्याही है जब तुम्हीं रहे गये तब तुममें तो माया अह्मते छूटनेकी सामर्थ्य है नहीं जो सामथ्यैहोती तो पहिलेही ते तुमकी काहे को बांधिढेती याति तुम डेराउहौ कि, हमकैसेके छूटेंगे सो यामाया घोखाबह्मका डर तुम काहेको मानतेही में नो अनिबेचनी- यहीं ताके तुम अंशाही तुमह अनिबेंचनीय हो नाहक धोखा बह्य माया कों अनुमान कैके नानादुःख पावतेही | तुममाया बल्मको श्रमत्यागि मेरे आनिर्बंच- नीय नाम में लागेंके मेरे पासआवों में रक्षाकरि छेडेंगो। यह माहछिक जे श्रीरामचन्द्र हैं ते कहे हैं

ऊडतंगतुम जातिपतंगा। यमघर कहें जीवके संगा॥५॥ नीमकीटजसनीमपियारा बिषकोअम्ृतमानगंवारा ॥६॥

वहजोमाया धोखा बह्मअग्निरूपताकी उत्तुंगकहे बड़ीऊंची छूपरेंहें तुम- जातिकेपतंगहैंके वार्मेकाहेजरिनरिमरोहीौं सोहेजीव नानाबस्तुनकोसंगकरि जाहीमेंमनलगायमरथें सोई भयो याहीभांतिजनमिंके मरिके यमकेपासघर- बनायेही अथीत्‌ या संग का प्रभावहै जो यमके यहां घरबवनायेों जैसेनीमके किरवा को नीमही पियारछमैंहे, जो मिश्टानत्नी पॉवै तो खाय, ऐसे बिपरूप

५४

जो विषय ताको अमृतमानिगँवार जोजीवहेंसो खायें विषकेसंगको नग्रण होई। किचितलाभमूलगो खोई॥ ७॥ विषअमृतगोएकाहिसानी। जिनजानातिनविषकेमानी॥ ८॥

सोयाबिषरुपी विषयके संगकौनगुणहै क्षणभरेकोसुस्है सबकोमूल जो मेरोशानसो नशायगों अनेकजन्म दुःखपावनलग्यो साहब कहे हैं कि और नाता देवतन को जो नामनपिवों तिनहीं के छोक में नाय सुर पाइवो या तोबिष है मेरे नामको जपिबो मेरे छोकमें नायसुख पाइबो यातो अमृतहै से ये दूनों बिष अमृत एकैमें सानिगो कैसे मैसे साहबको नामछीन्हे मुक्त द्वैनायहै साहबंके छोकमें जाय सुखपांवे है ऐसे औरहूदेवतनके नामडीन्‍्हेंसे

रमेनी | (५९ )

मुक्त हैनायंह तिनके लोकमें जाय सुख पावेहै वास्तव एकही नाम भेद- से और और कहैंहे या भांतिते ने ज्ञात राखहैं तिनके ज्ञानकों मेरे अनिर्वेचनीय नामरूप धामके जे जनेया हैं तिनके ज्ञानको ते विषयी मांगे हैं

कहाभयेनलसुधवेसूझा विनपरचे जगमूढ़ बूझा ॥९॥

मतिकेहीनकोनगुणकहई छालचलांगेआशारहई॥१०॥

ऐसे बे सूस्त जीवजिनको नहीं सूझपेरहे ते कहां गुद्धभये, नहीं भय मैं नो अनिर- चनीय ताकेपरचे बिना जगमें मृढ़नीयों तुम बूझत भयो सो ऐसे मातैके हीन जे तुम तिनके कौनगुण कहें लाहूचरम छागेरेहेहें काहकी दब्यकीआशा काहकों ब्रह्मतानकी आशा काहकों नाना देवतनकी आशा काहको विषयकी आशा में फिरेहे सांचजावेद को अथ में ताकों जानतभये अथीव साहबकहेंहे कि मोको जानेंगे तो कबहीं बचोंगे नहीं, तो वेद पुरान कहहैें कि, सब मरिजाहुगे ॥५ १९० साखी म॒वा अहे मरिजाहुगे, मुयेकी बाजी ढोल

स्वप्रसनेही जगभया, सहिदानीराहिगाबोल ११॥

साहबकहेंहे कि हेजीवी मुवानोधोखा ब्रह्म नानादिवतातिनमें जो लछागेंगे तोमारेजाहुंगे अथात्‌ जनमतैमरत रहौगे यातुम्हारे मुयेकी दो जो वेद्पुराणहै सो बानहै कहे कहेहें | तब तुम्हारा इष्ठदेवन को स्नेह सबसुख नगतकों स्पप्त ऐसाहैजायगा ये सब मुयेहें ये वेद्पुराण तालप्यते डका दैकेकहह अथवा- जोगुरुवालोग ब्रह्मको नाना देवतनमें लगावे है सो सबसंसारमें मुये की ठोंल बा- जैहे मरिजाहुगे जो यामें छगौगे तो तुम्हारी सहिदानी बोलरहिनायगा बोल कहाहै तुम अपने इृष्टद्वनके ग्रन्यबनाय जावगे तेईं रहिनायेंगे कि फलानेकेबना- ये ग्रन्थहै कालपाय वोह रहिजायेंगे अथवा सहिदानी बोल रहिजायगा कौन जोन मेरे रामनामकों संसारमुख अर्थ करि संसारी भयोहीं सोइनगवकी सहिदा- नी भरोनाम रहिजायगो ताहीको फेरिं संसारमुख अथैकारे संसारी होडगे जब नामर्मे मोकी जानोंगे तबहों मुक्त होडगे ११॥

इतिग्यारहवीं रमैनी समाप्तम्‌

६६० ) बीज कबौीरदास

अथ बारहवीं रमेनी चोपाई

माटिक कोट पषराणकताला सोई बनसोई रखवाला सो बनदेखत जीवडेराना ब्राह्मण विष्णुएक करिजाना जोरि किसान किसानी करंई उपजे खेत बीज नहिंपरह त्यागि देहु नर झेलिक झेला बूढ़े दोऊ गुरु अरु चेला8 : तीसर बूड़े पारथ भाई जिन बन दाह्यों दवा लगाई॥५«॥ भूृंके भूकि कूकुर मरिगयऊ। काज एकस्यारसोंमयऊ< साखी मूसविलारी एकसग, कहु कैसे रहिजाय

यक अचरज देखो संतो, हस्ती सिंहहिखाय॥»॥

माटिककोटपषाणकताला सोइंवनसोईरखवाला

माटीका कोट यहरशरीरहै मनरूप पाषाणका ताछाहै कठिनश्रमजोनेते माया धोखा ब्रह्ममें लग्योंहे सोई श्रमके बनकोी तानाबाणीमाया ताकी रक्षक सोईं म्रमदी है जबश्रम मिंटे तब माया धोखाब्रह्म तबहींमिंटे संसारताला खुढे तबमें स्वेत्र देखपरों

सोबनंदेखतजीवडेराना ब्राह्मणविष्णुएककारेजाना॥२॥

तौन जो श्रमको वनहैं संसारं नानाशाख तिनके द्वारा देखिकिडरानभाय नाना मतनमें तुम सब नहिंपारपाये कि कौनमतलेंके संसार पारहोई थे शाख एक म- तनहीं कहेंदँ तब डेराय ब्राह्मण भये ब्रह्मजानातिब्राह्मणः सब ब्रक्लकों जानतभये: वैष्णव्हें ते एक व्यापक तुमसब॒विष्ण॒ुही को मानतभये व्याप्य पदार्थ मानतभये सो हेलीवो! जो व्याप्य पदार्थ ने होयगो तो व्यापक काममें होयगो तांते एक मानिबो धोंखई है अथवा ब्राह्मण जेहँ ब्ह्मश्ञानी ते एक

रमेनी (६१ )

ब्रह्मदानने वैष्णव जेहें विष्णुके दास तौनेके एके मानतभये के दास भाव करत करत जब अंतःकरण शुद्धदोशगो तब अभेदई भावहोइंगो आपही विष्णु मानेगो काहेते कि देव हैक देवताकी पूजा करिबेको होई है यह शासत्रमें छिखा है ताते हम विष्णही हैनाईँगे तैने दृष्टांत देइहैं कि वह तो बनेंहै वहै रखवार तो कैसे पूरपरे माया अह्म ईश्वर सब मनके कर्पित हैं मने है यंही म- नकों रक्षक मान अथवा ब्रह्मज्ञान को रक्षक माने है सो वही तो श्रम है वही को रक्षक माने है सो कैसे पूरपरेगो

जोरिकिसानकिसानीकरई उपजेखेतबीजनाहिपरई ॥३॥ जैसे सिगरी सामग्री मोरे किसान किसानी करे है जनोनबीजखेतमें बॉवेंहे

सोई उपनेहे | तैसे हेनीबों तुमंसेब नानाबाणीको बिस्तार कारे नानामतनमें

छाग्यों सोईफल भयो मेरो जो रामनाम बीज सोतीखेतमें परबईं ने कियेमिरो- ज्ञानफल कहांतेहोंय तुम्हारे खेतमेंनानामतनकों फल संसार उपज्यो

छांडिदेहुनरझेलिकझेला बूड़ेदोऊगुरू अरु चेला ४॥ तीसरबूड़े पारथ भाई जिनवन दाद्यों दवालगाई

सो हे नरो! झेली का झेला तुमछांड़ि देहु। धोखा बह्ममें छागिकै तुममाया को झेला चाहौहौ, माया तुमहींकों झेंलेहे या नहींनानौही कि, धोखा ब्रह्ममाया सबलितहै ताही मायाकी धारमें गुरु जे तुमको उपदेश किये ते तुमदोऊ, बूड़े प्ृथु बिस्तारे धातुद्ै अपने ज्ञान दवाग्निको बिस्तार कैके अपने सेवकन केजे बनरूप कर्म जारि अपनेछोकनको छैगये ऐसे जे इश्टदेवता निनको गुरुवा लोग उपदेश करैंह सो हे भाई तीसर तेऊ मायाकी धारमें बूड़े काहेते महापक्- समें वोऊ नहीं रहिनायँगे ॥॥ ५॥।

भूंकिभ्ृृंकिककूरमरिगयऊ काजनएकस्यारसोंभयऊ॥ ६॥

हे नरौ! जैसे कूकुर शीशाके महलमें अपनारूप देखि भांके भूंकि मरिजायहै 'तेंसे तुल्लारोई अनुभव जो धोखा ब्रह्म तामें लंगि भूंकि भूंकिकहे शाखार्थ करिकारि

(६२ ) बीजक कबीरदास

शक

जन्मत मरतरहौही अथवा अहंब्रह्म अहेब्रह्म अहंभीशवरः अहंसोगी अहँसेश्य+- अहंबलवान्‌ अहंसु्खी इहै भूृंकेंहे तामें प्रमाण॥ (ईइवरो5हमहंभोगी सिद्धा$हेबल वानसुखी ) इत्यादिक स्यार जो बाणी ताते एकीकाज नहींभयो,. अर्थात्‌ जोनी बाणीकेदेखाये प्र बिंबदेखयों अनुभव बह्नममान्यो तैनिकेकान भयो जनन मरण छृट्यों अथवा हे जीवो ! तुम जे कूकुरही ते स्थार शिवा भवानी रुद्वाणी अमरमें लिखेहें से हे जीवों !सोई स्थार रूपनों बाणीहैं ताको देखिदेखि भूंकतेहीं कहे पढतेहीँ वा स्पार रूपबाणीके धरिवेकोतो भूकैभोके तुमहीं मरिगये स्पारते काये भयों अथौत स्थाररूप जोबाणी सोतुम्हारीधरी धारिगई वाफों तालय्योंथकीं जानतभये वृत्तितोनहीं राखोहीो अपने जानपनीकी घमण्टराखो ' हो ततिमायाते छूटे

साखी घूस विछारीएकसँग, कहु केसे रहिजाय

यक अचरज देखे संतों, हस्तीसिहेखाय ॥७9॥ है नरो! मूृस जे तुमहों तिनको बिछारी जो मारयाहै सों कैसे खाय एक संग तोरहींही सो कैसे बिनाखाये रहिमाय सो हेसेतोी एकआश्चय्ये और देखो तुम जे जीवही तेती सिंहहीं तितकी जो हाथी धोखाबह्म॑दे सो खायलेयहै जो मोकों तुमनानो तो तुम सिंहही बनेही तुमसब घोखा मिटावन वारेहों हाथीके खानेवारेों साहब स्वामी है जीवदासहै सो हमारा सिंहरूपी ताक अति जो है धोका बह्मतों हमारे सिंहरूपी जो ज्ञान ताकी खाय है यह बडा आश्वय्ये है। इति बारहवीं रमैनी समाप्तम

अथ तेरहवीं रमेनी गुरुसुख चोपाइ नहिपरतीतिजोयहिसंसारा।इब्यकचोटकठिनकोगारा ॥१॥ सोती शेषे जाय छुकाई काइके परतीति आई॥२॥ चले छोक सब धूलगँवाई। यमकी वाढ़िकारिनाहिंजाई॥३॥

रमेनी (६३ 3

आजुकाजजियकाहिहअकाजा।चलेलादिदिग्गंवरराजा॥8॥ सहज विचारत मूल गँवाई लाभतेहानि होय रे माई॥५॥ ओछी मती चन्द्रगो अथई। त्रिकुटीसंगमस्वामी बसई॥६॥ ' तबहींविष्णु कहासझुझाई मेथुनाश् तुमजीतहु जाई ॥७॥ तवसनकादिकतलाविचारा।ज्योंधनपावहिरंक अपारा ॥८॥ भोगय्यांद बहुत सुखलागा। यहिलेखे सवसंशयभागा॥९॥ देखत उत्पति लागु बारा। एकमरे यककरे बिचारा॥ ०॥ म॒ुये गये की काहु कही। झूटी आश लागिजबरही॥१ १॥

साखी जरत जरत से वाचहू, काहेन करह गोहारि विषविषयाकखायहू, रातदिवसमिलिझारि॥३२॥

नहिपरती तिजोयहिसंसारा।दृव्यकचोटकठिनको मारा १॥

साहब कहैँहेँ यह तो उपदेश हमकरते हैं तुमसबकी परतीति जो नहीं आई सोयेहि संसारमें पृथ्वी अप तेन वायु » आकाश दिशा काल७मन ८आत्माको पोका ब्रह्म ९६ नवो दव्यकी चोट कठिन कीन मारयों तुमको जाते तुम या मारयोकि शरीर मैंहींहों देवता मेंहीहू बह्ममेंहींहों सो तुम भूलगये नवी द्रव्य मेराही शरीर है ताको जान्यो तुम तामें प्रमाण ( खंवायु- ममिसलिलंमहींच ज्योतीषिसत्वानिदिशोद्मादीन्‌ सरिवसमुद्राइचहरेः शर्सीरें यत्किचभूत॑पणमेद्नन्थ; ) इतिमागवते ( यभात्मनितिष्ठनयमौत्मानवेद्य-

कह [2

स्थात्माररीरमितिश्रुतिः ) सोतो शेषे जाय लुकाई। काहके परतीति आई २॥

... साहेब कहैँंहै हे जीवी ! चित्‌ आचिन्‌ जगवरूप जो मेरो शरीर तामें तुम द्रव्यबुद्धि किये हो सो त्यागिदेहु यह मेराही शरीर केके देखो तो नित्यंहै

(६४) बीजक कबीरदास

नहींते शेषहोतहोत सब छुकाय नायहै एक एक में लीनहैनायहैं कहीं ढोप है जाय है कहीं अछोप है जायहे निषेध करत करत तुमहीं रहिनाउही के मैं रहिनाउँहों तब में तुमको हेसरूपदे आपने धामकों लेआवों हों सो या जगतमरेही शरीरहे या परतीतितुमकी काहकी आईं दब्यही बुद्धि मानते भये

चलेलोगसब मृलगवाई यमकीवाड़िकाटिनहिंजा३ ॥३॥

सबको मूल नो मेरों रामनाम ताको गँवाय कहेभूलिके हे जीवो|तुम सब ना- तापन्थमें चलेहो परन्तु यमकहे दोऊविद्या अविद्यारूप जो घोरनदी तिनकीबा- दिनेंहै धारा सो काटीनायगी अर्थीव्‌ पैरी जायगी। वाही में बूड़िजा- बोंगे अथवा यम जो है काछ रुप ब्रह्म ताकी बाढ़ि जो बाणी जो एकते अनेक भई है सो हे जीवो तुम्हारी काटी काटिनायगी जो काटि पाठहोय तौयह अं है विद्या अविद्याकी दुइ नदी बाढ़ी तुम्हारे हिय में सो तुम्हारी काटि काटिनायगी अथीत वाहीमें परेरहोंगे अथवा चौदहीं जे यमबर्णन करिआये है तिनकीबाद़िबढ़ी है सो तुम बिना मेरी कृपा छूटोगे सो तुम्हारी

॥॥पीशिलिक कि

काठी कंटंगी बिनामोकाजाने है

आजकाजजियकाल्हिअकाजा | चलेलादिदिग्गंतरराजा8

हेजीवी ! अनिबेचनीय नो मेरोनाम ताको जोआजु समुझौ तो कार्य्ये होयगो तिहारों जोकार्हि कहे शरीर छूटेमें समुझो चाहोती अकाजहे नाजाने कोन योनिमें परौ फिरि समुझो थों ना समुझी सो हे जीवो तुमतों राजा हो मन मायादिक ये तुम्हारे ही बनाये हैं सोती तुम भूछिगये च्े छादि कहेविद्या- अविद्याके ने नानाकम तिनको अंगीकार करि अथीव्‌ वहे बोझाअपनेमाथे में परि दिगंतरमें नाय नानाशरीर धारण करत हो सो अबहूं मोकोी जानि. तुम सब यहदुःख त्यागो यह मायारुप धोखावालेनकी उपदेश दियो अब सहजस- माधिवालेनकोी कहे हैँ

देंखों मंगल में १८ वीं साखीकी टीका

रमेनी ( ६५ )

सहज विचारत मूलगँवाई लाभतेहानिहोयरेमाई

सहजकहे सोहंसअहं यह प्रतिश्वास बिचारतबिचारत सबको मूछ जोमेरो नाम ताकों गँवाय दियो अथीत्‌ भुछठायदियों सो है जीवों ! तुमको तो धोखा ब्रह्म्ी लाभभई परन्तु यह छाभते मेरे जाननेवाढा जो ज्ञान ताकी हे भाइयों ! “हानिहैगई अथीत नहा माप्मई अवयोगिनको कहे हैं।

ओछीमती चन्द्रगो अथई त्रिकुटीसंगमस्वामीबसई॥६॥ तवहींविष्णुकहाससुझाई मथुनाशतुमजीतहुजाई

बैयंकी उछटी गतिकरतकरत ओछीमातिकहे बुद्धयादिकसूक्ष्म है थिरहेगई तब चन्द्ररूप जो वीर्य्य सो अवैगयों अथीत्‌ उछटी गतिहैगई तब दूनेनिन्नकों उलटिके ध्यानलगाय ग्राणके साथ वीर्यकी चढ़ाय निकुर्यमें जहां इड़ा पिंगछा गंगा यमुना सरस्वतीकों सद्गभमम स्वामीबसैंहै नहां पहुंचोहीो तब लक्ष्मीनारा- यण तुमसों कहे हैं कि अब ऊपर गेवगुफा में जायके आ्पमकारके मैथुन जीति लेहु अबे एकही प्रकार जीत्यों है तब तुम उहां जाउही सोआगे कहेहँ |

तबसनकारिकितत्त्वाषिचारा जेसेरेंक्धनपावअपारा ॥८॥ भोमय्योंद्वहुतसुखलागा याहिलेखेसबसंशयभागा ॥९॥

हक

सो जबंगेवगुफामें ध्यान छूग्यों ज्योति में मिस्यो तब सनकादिक कहे शुद्ध जीवसो अपनेको अशुद्धमानिके यहीं मरणतत्त्वविचारे है की, हम मुत्तहे गये कहीं है जीवों ! तुम सब वाहीकी सुखदतत््व बिचारोही कैसे जैसेरंक अपारधन पायके परमतत्त्व माने है भोमय्योंद ब्रह्म जो ज्योति तामें जब आत्माकी मिलायों ज्योतिही द्वैगयो यहीं तक मय्योंदाहै या मान्यों तब तुमकी बहुत सख लागतभयो अथाॉंत्‌ वाहीमें मग्नहोई नातेमये सो तुम्हारे

छेखे तो सब संशय भागिगई परंतु संशय नहीं गई सो आगे कहैंदह प्‌

( ६६ ) बीजक कबीरदास

4 चर के देखतउतपतिलाशु वारा एकमरेयककरंबिचारा ०॥ हे जीबी! तुम या देखतही कि नो समावि डतरी तो मनादिक डलपन्नहोत बारनहीं छगेहे तौ संसार कबे छृत्पो येहू देखतहों कि एकेमेरेंह तिनको

आप

हायआय गैवगुफा नरिगई फिर वही गेवगुफामें प्राणचढ़ाय मुक्तिको बिचा-

रैहौ अथथीत मुक्तिचाहोही सो हे जीवों तुम सब बिचारी ! तो जो समाधि सुख

नित्य हो तो तो कैसे मिटिनातों ताते नित्य नहीं है ॥१०॥

ही वि 4 * 8 ७५

भुयेगयेकी काह कहा। झंडा आशलागिजगर ही तुहारे गुरुवा लोगमरे मार्रेके कहांगये कीनी गतिकों पाप्त भये या निकासकी

बात तो काहू कह्मो सो तो तुम सबनविचारयों धोखा बह्महोवेकी नो झूटी

शा ताहीमें तुमसबल!गिरेहै मोकों जानतभये ११ साखी जरतजरतसेबीचह, काहे करहुगोहारे

विषविषयाकेखायह,रातिद्िविसमिलि झारि॥ १२॥

8 8 9०, चार,

प्रथम तो हेनावीं नानायाने नरकगने बासक जठरामम जरत जरतस बचेहु अर्थात्‌ मोसों नानाप्रार्थना करि गर्भबास ते निकसे सो गर्भवास को दुःख

तो तुमको भूलिगयो जोन मोसों करार कियेरहौ सोऊ भूलिगयों बिपरू पा नो बिषयताही को रातिवदिन खायहु अर्थात्‌ झारे बिवयही भोंगकीन्हों मे शरण को काहे गोहरायों ले मेरी शरणकों गोहर बंचै हैं सो जीवों! जब मेरी शरणको गोहराबोंगे तबहीं बचोगे मेरी या प्रतिज्ञहि जो

मेरी शरणको गोहरांवह ताको में बचायही लेउहों। गाहारिको अर्थ हहै कि

द्रा /०॥7 2:70

रण.

कोई हमारी रक्षाकरे सो साहब शरणगयेरक्षा करतही हैं तामेंप्रभाण ( सक्कंदे वपपन्नाय तवास्मीतिचयाचते अमयंसवेभूतेभ्योददाम्येतद्वतम्मम ) इतिबाल्मीकीये १२

इंति तेरहवींरमनी समाप्तम

ताना प्रकारके कम, उपाश्नना ओर ज्ञान की जो कसना सेई करपना विषय |

रमेनी ( ६७)

अथ चोदहवीरमेनी गुरुमुख। चोपाईे वड़सो पापीआयगुमानी पा्खेंडरूपछलोीनरजानी नामनरूप छल्योवालिराजा|ब्राह्मणकीन कोनसोकाजा॥२॥। ब्रह्मणही सवकीन्होंचोरी ब्राह्मणहीकी छागी खोरी ३॥ ब्राह्मण कीन्होग्रंथ पुराना | कैसेहकमोहि मानुषजाना॥७॥ यकसे ब्ह्े पेथ चलाया यकसेहंस गोपालहिगाया «५ ॥| यकसे शंभ पंथ चलाया। यकसे भूतप्रेत मनठाया यकसे पूजा जोन विचारा। यकसेनिहरिनेमाजगुजारा॥७॥ काई काहकीहटा माना। झठा खसमकबीरन जाना ८॥ तनमनभाजिरहु मेरे भक्ता सत्यकवीर सत्यहे वक्ता ॥९॥ आपुहिद्वआपुही पाती आपुहिकुलआपुहिहैजाती॥ ०॥ स्वेभूतसंसार निवासी आपुद्िकुसुमआपुसुखरासी॥ १॥ कहतेमोहिभये युगचारी काके आगे कहों पुकारी ॥१२॥

साखी सांचो कोई मानई, झूटाके सगजाय झूउझुठा मिलिरहा, अहमक खेहखाय १३

बड़ोसोपापी आयगमानी पार्खेंडरूपछलो रजानी १॥ वावनरूपछल्योवालिराजा|ब्राह्मणकीनकी नकरकाजा ॥२॥

साहब कहहेँ ते बड़ोपापी है बड़ोगुमानी है काहेते कि में येतो समझाऊंहों तैं समशझहे सो मेनान्यों पाखंडरूप जो थोखा बल्लताते हेनर ! तुमछलेगये

और जिनको छल्यो तिनको कहैहें वहीमाया सवद्धित ब्रह्म बामनरूप करिके

(६८ ) वीजक कबीरदास

बलिराजाको छल्यो है सो या ब्राह्मण जोमाया सबलित ब्रह्म सो कौनको काजकीन्हों है अर्थात्‌ नहीं कीन्हों हैं ब्राह्मफहीसवरकीन्होंचोरी ब्राह्मण की लागीखोरी वहीबह्य सबकी चोरीकियो है काहेते कि मायातों जड़ेहे यह चैतन्यहै ब्रह्मही माया सबलितहैं मायहकी कतोीके मेरेसांवेज्ञानको संसारमें शंकादिक पदार्थ बनाइ चोराइराख्योहे सो जब व्यापकरूप ते सबपदार्थ ब्रह्महीठहर्यों ओऔजह्महीके संयोगते मायाकर्ता भई है तब बह्महीकोीं खोरिछभी कि वही सब करेंहे रे बरह्महिकीन्होंग्रंथपुराना केसेहकेमोहिमानुषजाना ४॥ वहीमाया सबलित जो बह्हे ताहीते सब वेदपुराण निकसेहें ताहीते ना- नामतभये कोई निराकार ब्रह्मही कोई चतुर्भन कोई अष्टभुन इत्यादि मानत- भये तुम सब बसहु जो निगुण के सगुणपरे वेदपुराणकों तात्पर्यताकों जा* निंके ऐसो मेरों मनुष्य रूप केसहुकैकह जसतसके कोई .िरलेसंत जाने हैं और नहीं जाने हैं अथवा मोको सब बातके जनेया श्रीरामचन्द्रकों सांच मनु- प्यरूप है तामें प्रमाण ( आत्मानंमानुषंमन्ये रामंदशरथात्मनम्‌ ) इति और जे नानापंथ वेदतनिकसे तिनकोी आगे कहें ( दशतिसर्पानि- तिदशः गरुड़ः सरथोयस्यसः: दृशरथः विष्णु; सएव आत्मजोयस्यस: दशरथात्मन: ते )

यकसेब्रह्महिपन्‍्थचलाया यकसेहसगोपालहिगाया ॥५

यकसे कहे एकजों माया सबछित बह्य ताही को प्रतिपादन करत बल्लैना- ना शाख्रके नानापथ चलावतमये यकसे कहे एक जो माया सबढित ब्रह्मताहीकों बिचारकर॒त हंसजों जीव सो गोपाछाहि गावतमेय अथौतव गोजो- इंद्िताकी पालनवारों जो मनताहीको गावतभये अर्थात्‌ मनमुखी पेथ चलावव भये बह्माने वेदकह्है बेदते सबमत निकसेहें जीवनकों जोजुदेकरि के कह्मे सेमेरे सम्मुखको जो अथ है ताका छपाय दीन्‍न्हों वेद अथे नानादेवतन . यज्ञादिम छगायदीन्दे

रमेनी (६९)

यकसे शम्प्रपंथचलाया यकसे भूतप्रेत मनलाया ६॥ यकसेपूजाजोनविचारा यकसेनिहरिनेवाजगुजारा ॥७ यकसेकह एकजो माया सबलित ब्रह्मताहीकों प्रतिपादन करत वेदको

अर्थ बदलिके महादेवनीकों तामसमत चछावतभये यकसे कहेएक जों- माया सबलित बह्ताहीकी पमतिपादनकरत जीवनकों मन भूत प्रेतदेव सब लगायदेतेभेय अथीत माया में अरुझाय देतेभये यकसे कहे एक जो माया

सबलित ब्रह्म ताके ज्ञानहेतु निहुरिके मुसल्मानलोग नेवान गुनारतभये ॥७॥

कोउकाहूकी हटा माना झूठाखसमकबीरनजाना ॥८॥ तनमन भजिरहुमेरेभक्ता सत्य कबीर सत्यहेवक्ता॥ ९॥

कोऊ काहूका हटकों मानतभये झठाजों धोखा ब्रह्म ताही को दृढ़करि- के कायाके बीरने जीव ते नाना देवतनसोते खसम जानतभये कोई महीं बह्महों या मानतभये। खसम जो परमपुरुष मैंहॉताकीं तुमसब जानतमभये ८॥ तनमनते मोहींम छगो तबहीं तिहारों उबारहोंइगों सोहे कबीर जीवों एकतो तुम सत्यहीं एक जो तिहारे समुझावन वाला वक्ता में सो सत्यहीं और सबझूठे हैं वही ब्रह्म चारों ओर द्वैगयों है यह द्वेमत देखायो तामें प्रमाण ( सत्यमात्मा सत्यजीवो सत्योगेद: )

आपुहिदेवआपुद्दीपाती आपुहिकुलआपुहिहेजाती॥१ ०॥ सर्वेक्षतसंसारनिवा सी आधप्ुहिखसम आपुसुखरासी॥ १॥ कहतेमोहिभयेयुगचारी काकेआगेकहोंपुकारी १२

औवंही माया सबलित ब्रह्म आपृद्दी देवता हैगयोंहे आपुह्दी फूलपार्तीहैं आपुहदी पूजा करनवालो है आपहीकुछ जातिहे १० सोयाभां।तिते वहीवह्म सबब- भूतमें निवासी हैंके आपुह्दी खसमंहे रह्महिे औओ जामें पुरुषके सुखको सांचहै ऐसी सुखराशी नारीहे रहोंहे ११ सो यह बात चारों युगमोंको कहतभयो काके आगे पुकारेके कहा कोई समुझे या धोखा ब्रह्मको नहीं देखोपरे ॥१२॥

. (६ ७० ) बीजक कबवीरदास ;

साखी॥ सांचेकोइ मानई, झूठाकेसँगजाय

झूडे झूठा मिलिरहा, अहमक खेहाखाय १३ सांचो में सांचे तुम जीव यह मततों कोई नहीं मानिहै झूंठानों वहजह्मताकें संगसब जायहैं अर्थात्‌ वहीको सर्वस्वमाने है सो झूंठावह ह्ममौझंठाज्ञानवाला नोजीब सोमिलिके अहमक खेहा खायहै अर्थात्‌ मस्यो तब राख खायहैं जनम मरण नहीं छूंटे है १३ इते चोदहवीरमैनी समाप्तम्‌

+ 3 जू #ऊ # अथ पहहवाीरमनी चे।पाई उन वद्रिया परिगै सांझा।अग॒ुवा भूले वनखँड मांझा॥१॥ पियअनतेघनअनतैरहई चौपरि कामरि माथे गहई ॥२॥

साखी फुलवा भार लैसके, कहै सखिन सों रोइ ज्यों ज्यों भीजे कामरी, त्यों त्यों भारी होइ॥३॥

उनरईवदरियापरिगेसाँझा | अग्रवामलेबनखेंडमाँझा॥ ॥!

भमकी बद्री ओनई परिंगे साँझा कहे जगतमें अँधियारी है गईं साहबकों शानरूपी रबिमूंदिंगयों समुझि परत भयो तब बनखंड जो चारिड बेद तामें भगुवा जे बह्मादिक सब मुनि ते भूलिगये कोई भैरव कोईं भवानीकी कोई गणेशको इत्यादि नानोदवतनकी उपासना करतेभये औश|खहमें नानामत हो* तगये कोई कर्मको, कोई अह्मको, कोई पक्नतिपुरुषको, कोई ईंश्वरकी, कोईका- छकी, कोई शब्दको, कोईबह्मांडमें ज्योतिकों, प्रधानमानतमय तिनहमें एकएक मतनमें अनेक मतहेंतिमये ओपुसलमानहेके मनहबमं तिहत्तार किसके हांत भये एकमें तो मुक्ति होतीहै औरनमें नहीं होती सो जो जौने फिस्केमें

रमेनी (७१ )

पराहि सोताहीकों मुक्तिवाडा मनेंहैं सो या एक छिद्धांत अह्मके पुत्र वेदन ते पूछथों वेदबह्माते पूछयों तब को भ्रम भयो तब आकाशवाणी सुनि के सं- श्रमपूर्वक सबको शेष के पास पठयो सो शेषजी जोन वेदको तालय्य सिद्धांत सबको समुजायेंहे सो आदिमंगलम लिखि आयेहें ओमरे बनायेरामायणके अंत* हमें लिख्योंहे सो या हेतुते कबीरनी कहेंहें कि अगुवा जेजह्मा तिनहीकों : श्रमभयों है पियअनते घनअनतेरहई चोपरिकामरिमाथेगहई॥ पियतो साहबहै औपषियके मिलनवारों जोजीवनकों ज्ञान सोईं धनहै सों दोड अनतही रहेहें कोई बिरले संत पविहें चौपरिनो चारों वेद तिनकी का* मरि ऐसी भारी शीशपर धरे अपने अपने मनको अर्थ करेहें वेदकों पिद्धांत नहीं पाँविहें अथवा चौपारे जो चारों खानिकेनीव ते कर्मरूप जोहे कार्मारि

ताको कांधिपैधरेहें साखी फुलवाभार ले सके, कहे सखीसोरोय ज्यॉज्योंभमीजेकामरी, त्योत्यों भारीहोय

जीबनेहैं ते अल्प हैं कम्मेकांडरूप जोफूलछ ताही की भार नहीं सीहिसके अ- थाँत्‌ सोईं नहीं समुझिपेर बह्मविचार कैसे समुझिपरे सो वेद्रूप कामरि कांवें- घरे जब ब्रह्मविचार करनलगे निषेष करतकरत तब विचारमें बह्म आयो तबसखी जे जीवहें तिनते रोइके कहतेँहें नेति नेति यतने नहीं है अब और क« छुहे नहीं समुझिपरे यही रोइबांहे सो सो गुरुभाछोगहैं तिनसे पूछथों कि, जो- तुमने बतायोकि, अक्ृहे सो हमको समझ ने परी तब उन गुरुषालोगन ज्यों ज्यों वेदरूप कामरीभीजैंदें कहे बिचारत जाहईहेँ त्यों त्यों भारीहोतजायहै सो कामरीमें दोय अर्थ दोयहै एक कर्मविचाररूपहै एक ब्रह्मविचाररूपहैं सो दोनोंको तारनाह पावहै ज्यों ज्यों विचारत जाई है त्यों त्यों कठिनई होते जाहहै अर्थात्‌ गहिरो अर्थ होतजायहे सो कैसे समुझिपरे वातों वेदार्थमें विचार करे है अह्मरूप कामरी सो तो धोखाबह्म कुछ बस्तुही नहीं है

इति पंद्रहवीरमैनीसमाप्तम

(७9२ ) बीजक कबीरदास ! अथ सोरहवीरमेनी चोपाई

चलतचलतअतिचरणपिराने।हारिपंरेतहर्अतिखिसि आने गणगन्धवेम॒निअंतनपाया हारिअलोपजगधंघे छाया गहनी वंधन बांध सुझा।था कि परे तब कछ बूझा॥३॥ भूलिपरे जिय अधिक डेराई। रजनी अंधकूप ह्वै जाई मायामोह उहां भरि भूरी | दादुर दामिनि पवनहु पूरी ॥५॥| बरसे तपे अधण्डित घारारोनिमयावनि कछुन अहारा॥३॥ साखी॥ सवैलोग जहँडाइया, अंघा सभे भुलान

कहाकोह नहिं मानही, सव एकेमाह समान ७॥

चलतचलतअंतिचरणपिराने।हारिप्रेतहँ अतिखिसियाने

नाना मतमें लगे जीव तिनकेचरण ब्रह्मके खोजहीमें पिरान छगे अ्थीव थकिआये मतिनहीं पहुंचे एकह शांखके बिचारके पार गये तामें प्रमाण ( इन्द्रादयोपियस्पांतंनययुः शब्दवारिषरेः प्रक्रियांतस्यकृत्स्तस्यक्षमोवक्तुंनर: कथम्‌ ) तब खिसि आइके यह कहते ( भये अतिरिेंसयान पाठ होय तो अर्थ कि बड़ेसयानों रहे तेऊ हारिंगे )॥

गणगंधर्वेसयुनिअतनपाया। हरिअलोपजगर्धचेलाया ॥२॥

जीने ब्रह्मको अंतगन्धव मुनिनकें गण नहीं पायो ताकी हमकैसे जानि- सकें नो बरह्मको साकारकहै हैं तौमध्यम प्रमाणमें आयजाय है, अनित्य होयहै जो ब्रह्मको निराकारकहै है तोनगवकी कतुँत्व कैसे होयगो यही संदेह मेरे सिद्धांत भयो कबीरजी कहे हैं कि, कैसे होयगी सन्देहमें परे जैसे हारे हैं तेते बिनासदगुरुके बताये तोजानतही नहीं है, यहिते हरि अलोप

रमेनी (७३)

कहे हरि अप्रकंट भयें तिनके बिना जाने जगतके पन्‍्धेमें जीव सब अपनों मन लगायराख्यो

गहनी बंधन वांचनसूझा थाकिप्रेतवकछनबूझा

गहनी बंधत जो मायासबलछित बह्म जौन बांबिंके संसारमें डारि देनवारों ऐसो जो ब्रह्म ताको बांधनीवनकों सूझिपरयो कौन बांध कि जो कोई मोहमेंलगेंहे तोमें बांधिके संसारमें डारिदेडें हों या मायासबलित अक्मको बांध ना सूझि परयो जो कहो काहेते बांधबाध्यों है तो जगतकी उत्पत्ति वहीं अह्मते होय है वा ब्रह्म जगवकों रहिबोई चहैंहै याही ते नो कोई वामें लगे है ताको साहबको ज्ञान भुछायके संसारहीमें राखैंह सो कबीरजी कहे हैं कि जब वही संसार में थकिपरे तब कछू बूझत भये अर्थात्‌ अनेक मतनकों बिचारेंह्े पे श्लिद्धांत पावतभये साहबको ज्ञान भूलिगये

भूलिपरे तब अधिक डेराह रजनी अंधकृपदेजाइ ४॥ मायामोह उहाभरिभ्री दादुरदामिनिपवनहुपूरी ५॥ बरसतपेअखंडितधारा रोनिभयावनिकछनअहारा

सोजब साहबफ़ो ज्ञानभूछे संसारमेंपरे तबअधिकड़र आवत भयो काहेते कि मूलाज्ञानरूप रमनीकी बेंड़ी अधियारीहोत भई कछू सुझिपरयों काहेते कि अहंब्ह्मास्मिमानिक छीन हैंके वहीं संतारमें परचो जहां मायामोह भूरिभरे हैं तब ते माया कारणरूपारहीहै अब कार्गरूुपाभईबहुत मोहादिकहोतभयेतामें परे जैलेदादुर बेहिहें अर्थकुछ नहींहै तेसे उनको वेदकोपढ़िबो है अभैनहीं जानेहें नो काहकेकहे कछूज्ञानमयों तबदामिनीकैसी दमक्हैनाय है कछ हृदय में नहीं ठहराय है पवनहु पूरी जो कह्यों सो पवन चढ़ायकै योगकरिये तो श्रम करेंहे कि कोई खेचरी आदिक मुदाकरि अखंडघारा अमृतवर्षाई नागिंनी उठाइ समाधिकरेंहे कोई तपै अखंडित धाराकहे पांचहजार कुंभक करिके ज्वाला उठाइ तैनेते नागिनीकों जगाय प्राणचढ़ायसमाधिकरेंहै तहीं- भयावनिरेनि जोमूछा ज्ञानकी अँधियारी ताहीमें परचो अर्थाव जबतक ज्योति

( 9४ ) बीजक कबीरदास।।

देख्यों तबतक तो उनियारी जब ज्योतिमें छीनहैगयो तब सुषुप्ति ऐसेमेंः परयो रहयों यही भयावनि रोनेहे भयावनिकों हेतु यह है कि प्राणके उतरिबेकी.

अवधि बनींहे 3 ५॥ 5 साखी॥ समेलोगजहडाइया, अन्धासभेभ्ुुलान॥ कहाकीइनहिमानही, सबएकमाहंसमान॥ ७॥

और जे मायाते समयरहे डेराते रहे ते लोग नहँडाइया कहे बहेकिके ओ- रई और मतनमें छूगिगये जेअज्ञान आंधेररहें ते संसारहीमें परे संसार छूटिबेकों उपविना किये भूलिही गये सो कबीरजी कहैँहेँ कि मेरो कहा कोई नहीं मानेंहे सब जे जीव हैं ते एक जो मायात्रह्म ताहीमें सब समाते भये इत्यर्थ साहबको बिनानाने अल्यहम॑ लीनहै संतारहीमें अआवेहे वाको प्रमाण पीछे लिखिआयेहें

ईति सोलहवों रमनी समाप्तम्‌

अथ मसत्रहवीं रमेनी चोपाई।

जसजिवआपुमिलेअसकोई। वहुतथमंसुखहदयाहोई १॥ जासों बातरामकी कही। प्रीति काहुसोंनिबेही एकेभाव सकलजगदेखी वाहेरप्रेसोहोयविवेकी विषयमोहकेफ॑दछोड़ाई जहांजायतहँकाटुकसाई आय कसाई छूरी हाथा। कैसहु आवे कार्टोमाथा ५॥ मानुष बड़े बडे ह्वैआये। एके पण्डित सबे पढ़ाये ६॥ पढ़नापदहुधरह|जनगोई नहिंतोनिश्वयजाहुबिगोई॥ 9 साखी॥ सुमिरन करहु सुरामको,ओ छांड्ह दुखकी आस॥ . .. तरऊपर घर चापिहे जसकोल्हूुकोटिप्चास ॥८॥

रसेनी ( ७५ 3)

4 आर

हक ने दूँ दर बिक

जसजिव आपुमिलेअपकोई वहुतवर्ममुखहदयाहोई॥ ३॥ जासोंवात रामकीकही प्रीति काहूसों निवही २॥

जैसो आपु होइ तैसों जबताको मिले तबहीं धर्मंबद़े है हृदयमें बड़ों सुखहोयहै तामें प्रमाण गोसाईजीकी दोहा इश्टमिडे अरु मन मिले, मिरे भजनरसरीति तुलछसिदास तासों मिले, हठिके उपने प्रीति सो ओरी- भांति सुखनहींहोयहै काहे ते कि जासें कहे जीने जीवनसों रामकी बात में कहौहों कि तें रामचन्द्कोंहे तितको अपनों साहब मानु नाना ईश्वर जो तैंने माने हैं सो येसब्र मायाके जाहमें परहें तोकों कहा उबारेंगे सो कबीरजी कहैहैं के या मेरी बातपे काह जीवनकी प्रीति ने निबहतभ३ अर्थात्‌ जो मेरीबात पीतिते सुने साहब को जाने जपने अपने मतमें आरुढ़हे बादसोकरेंह्दे बस्तुनहीं ग्रहणकरे है एकेभाव सकलजगदेखी बहिरपरें सोहोय विवेकी ३॥ विषयमोहकेफंदछोड़ाई जहाँ जाय तहँकाटुकसाई॥

एकेभाव सकल जगदेखी कहे जे एक ब्ल्यैभाव जगवको देख हैं तेहिते बा* हेर अपनेको दासमानि सब में चिदृरूपकों जो जाने है सोई बिवेकी होयहैं सोऐसे विवेकिनके पासतो नहीं जायहै नाता बिषयके मोहके फंद छोड़ायके अर्थाद संसारते वैराग्य करिके अधिकारिहहैंके नहांजहांनायहैं तहांतहां कसाई जे गुरुवा छोंग ते गछाकाटहें अर्थांत् साहबकों ज्ञानकांटि धोखा ब्ह्ममें लगाय दयेँ हैं। सो याके गलाकाव्यों गलाकांटे फेरिनन्महेयहे याते गुरुवाछोगनको कसाई कह्यो ऐसे याहको जनन मरण होय है। ब्यंग्य यहहै कि जे जीव साहब को त्यागि औरे औरमें लगे हैं ते पहुहेंडनको ऐसही गछाकात्यों नायहै ॥४

कम्ताई तो शरीरकों गछाकांटे हैं और-

का ९५ /५ थृ बज ज्ू कट आय कंसाइ३ छ्र| हथा। कंस आवब काटा भाथा ५॥|

स्वार्थी गुस्वालोग जिनको सेंसारी सुख और क्षणिक मान बडाईके अतित्क

सत्यका ज्ञानही नहीं है। गुहुगलोगोंके नानाप्रकारसे जीवोंकों ठगनेंके उपाय

( ७६ ) बीजक कवीरदास मानप बड़े बड़े है आये एके पण्डित सभे पढ़ाये॥

कसाई जे गुरुपलोग तिनकी बनाई पोथी सोई छूरीहाथमें छीन्हे यह -

ताके हैं कि केसेहुकै कौन्यों मतकी आवे तो-ठगिके अपनेमतमें केडेई माथ कारिलि कहेमूंड़िडारे चेलाकारेलेयँ सो साहबकों छोड़ाइ औरे आरम छगाबनवारो हैं सो गुरू कसाई है ) यहो देत ज्ञानवाले गुरुवाढोग जीवनकों गछाकारे हैं नो संसारम रहते तो कबहूं दैवयोगते साधु सड्भयों उद्धारह होतो सो तैने धोखा ब्रह्म॑म लगायदियों जह॒॑ति उद्धार नहीं है वहां काहेकों कोई साहबकों बतावेंगे मनुष्य जे वडबढ़े ज्ञानीलोग हैं ते यही पढ़ावतभये कि एक वही ब्रह्नहै जीवनहोंहे और कोई या पढ़ाया कि एकनीवही सांच है और सब असांचहै

पढ़नापद्हुधरहुजनिगोई। ना है तीनिश्चय जाउबिगोई ॥७॥

जोनपढ़ना तुम गुरुवाछोगनतेपढ्थोहै सोभबननिगोइराखो जो गोइरा- खोगे तो कुमतिहीमें परेरदींगे नो गोइ राखोंगे तो संतछोग समुझायके अ्रम काटिडारैंगे केसे कि नो एकबह्म होते तो श्रम कौनकी होतो जो एक जीवही साहब होतो तो बँधिंकेसे जातो सोमायातों बांधनवार्लहै औजीव- बंधनवारोंद साहब छुड़ावनवाछाहै यह बिचारि साहबकों जानो साहब छुड़ायलेईंगे नहों निश्चय बिगोइई जाहगे अथौव कुमतिमें छागि कै बिगरिजाहुगे

4 .ु +

साखी॥सुमिरनकरहुसुरामको, ओछांड्रहुद्ुखकीआस

तरऊपरधारिचापिहे, जसकोल्हकोटिपचास ८॥

सो परमपुरुष जे श्रीरामचन्द्हें तिनको सुमिरनकरी घोखा ब्रह्म औमाया

इनकी दुःखरूप जो आश सो छांड़ो जो छांड़ोगे ती तेरे तो मायारूप कोल्ड

ऊपर ब्रह्मरूपजाठमें तुमको पेरिडारेगो पचासकोटिकोस्हकद्मों सोअगाणितबल्मां- हहें तामेंडारिके

इतिसत्रहवी 'मैतीसमाप्तम

रमेनी। ( ७७ )

३५५ ३१५.

अथ अठारहर्वीरमेनी

चोपाई। अद्भुत पंथ ब्रणिनहिं जाई भूले रामभूलिदुनिआई॥१॥ जो चेताता चेतुरे भाई। नहिंतो जिय जरि मूले जाई॥२॥ शब्द माने कथे विज्ञाना | तातेयम दीन्द्यों है थाना॥३॥ संशय साउज बसे शरीराते खायल अनबेघल हीरा॥४॥

साखी संशय साथ्ज देह में, संगहि खेल जुआरि॥ ऐसा घायल वापुरा, जीवन मारे झारि

[ आप ६०५५ शः दिआापप [कम रे अड्डुत २४ नाहे जाइ।मूलेराम भूलिदुनिआई ॥१॥ किक जा लिप ९५ 25७ जा का शिकिआआर ९5 जो चेतो तो चेतुरे भाई नहिंतो जियनरिमलेजा३ २॥ अद्भुत पंथ जो ब्रह्म ताको वर्णतकोईने अंतनहींपायो रामजे साहबहैं तिनके भूलेकह बिना जानेते सब दुनिया धोखा ब्रह्म मायामेंभुलिगई हे भाइड चेतौती चेती नहीं तो मायाबह्मकी आगिमें जरिके मूठतेमाउगे | यह कबीर- जीकहै हैं नहीं तो यम जीव हैजाइ जो यहप!।ठहोयंती यहअथहे कि चेतातों

चेतों नहीं तों यम लेनायके बरकमें डारिदेरंगे का चर पक पे कस कर शब्द मानेकथे विज्ञाना | तातियमर्दान्द्योहैथाना॥ $ पार विकप

संशय साउज बसे शरीरा। तेखायलअनबेघलहीरा ॥४॥

बिज्ञानहकी सार जाते सबशब्द निकसे हैं ऐसो जोरामनाम ताक तो माने- नहीं है और और मतिमें छागेंके विज्ञान के है ताते यमरान् जो नैसो करमकरेंहे ताकी तैसो नरक स्वगैकोथान देयहैं संशयरूपी साउज जो मन सो शरीररूपी बनमें बासेके अनवेधछकहे जाकोयश रामनाममें नहींहै ऐसों

5 ही क4.. 3

जो हीगभीब ताको खायगयो कौनीरीतिते खायो सो आगे कहे हैं

(७८ ) बीजक कबीरदास |

साखी संशयसाउजदेहमें, संगहिखेलेजआरि ऐसावायलवापुरा, जीवनमारेझारि ॥|

जैसे शिकारी बाघकों मरेहैे जो बाब घायलभयों तो शिकारीकों धरिडौरेहै तैप्ते संशयसाउन जो ब्याप्ररूप मन सो देहरूपी बनमें बंसैंहे ताके संग नजीब जुआं खड़े है जब मनोबासनांडेकी उपायकियों तब वही वाको घायछ हबोंहै सो ब्याधरूप जो मन है सो घायलहैंके बापुरे जे सबनीव हैं तिनको झार दैके मारहे अर्थात्‌ सबकी वही माया धोखा बह्ममें छगायदियो जोयह पाठहोय कि ( ऐसा घायल बापुरा सब जीवनमारे झारि) तो यह अथहै कि ऐसा घायछकहे

आए 5 अर अरे,

घाती जो मन सो बापुरेजीवनकोझारादैफेमारेह जनननमरणदेइईहे

#५* _ जहर #ण

इति अठारहबींरमेनीस मात्तम्‌ | छऊझ- अथ उच्चेसवा रपनां चोपाई। अनहृदअनुभवकीकरिआ शादेखो यहविपरीततमाशा। ।१॥ यंहे तमाशा देखहु भाई जह॒हेशून्यतहां चलिजाई २॥ शून्यहिबांछा शून्यहि गयऊ। हाथाछोड़ि वेहाथाभयऊ॥३॥ संग्य साउन सब संप्तारा कालूभहेरी सांझसकारा ॥७॥ साखी सुमिरन करह से रामको, काल गहेंदे केश नाजानों कब सारि है, क्यापर क्यापरदेश॥«॥

अनहदअतुभवक्कीकरिआश। | देखोयह विपरीततमाशा

अनहृद्‌ शब्द सुनतसुनत जौने बलह्मकी अनुभव होइंदे ताको तू बिचारेंदै के ब्रह्म महीहों या नहीं ननेंदे कि अतहद मेरे शरीरहीकोहै वह ब्रह्म मेरही अनुभवहे यह बड़ो तमाशाहैताही की आशाकरे है यह बड़ी बिपरीत है १६

रमेनी। ( ७९)

यहैतमाशादिखहुभाई जहँहेशून्यतहांचलिजाई शुन्यहिवांछाशून्यहिगय ऊ। हाथाछोड़िवेहाथाभयऊ

सो है भाइयों! है जीवों ! यह तमाशा तुमहं अनेकन जन्मते देख॑तैआयेही परनन्‍्ज जहां शन्‍्यहें तहां नाइक मुक्ति द्वेवों चहोंहो तुम या नहीं बिचारोहो कि शनन्‍्य जो घोखा ब्रह्म तामें जो हम जायेंगे तो हमारी सुक्तिकी बांछहु शून्य द्वैनायगी अथीत्‌ मुक्ति होयगी सो या बड़ो आइचयहै आपनेते झुठेमे वांधिके साहब को हाथ छोड़िकै बेहाथ भयऊ कहे धोखा बअह्नके हाथमें हेनाउ हो अथवा कबीरजी छूटे मीवनते कहेंहें हे भाइयों | देखी तो तमाशा ये जीव जहां शून्य धोखाँहै तहां सब्र चढेतायहै जोने ज्ञानमें साहब भरेपूरे हैं

नहां जायहे * | संशयसाउजसबसेसारा कालभहेरीसांझसकारा

संशय कहे मनरूप जो खाउन ताहीकी सकलकहे सरति यासंतार है रहो है अर्थीत्‌ मनरूप जीव है रहो है संकल्प विकत्प सबकैरहेंह संशय सब जीव को छग रही है। सो अहेरी नोकाछ शिकारी सो सांझ सकारकहे काह को जन्मतमें मारेहै काह का मध्य अवस्थामें और काहको आयुर्दायके अंतमें 3. मोरेहै

साखी सुमिरनकरहुसोरामकी, कालगहेंहे केश नाजानोंकवमारिहे, क्याघरक्यापरदेश «

सो कबीरनी कहेंहँ के परमपुरुष जें शरामचन्द्रहँ तिनकी सुमिरण करहु शिकारी जो कालहै सो केश करमें गहेहैे या नहीं जानोहीं थीं कब मारे या

घरमें या पंरदेशमें अथोंत्‌ साहबकेबिना स्मरण घरमेरहोगे तो बचोगे जों बनमें जाउगे तोह बचौगे

इते उन्नीसबीरमैनी समाप्तमू॥

(८० ) बीजक कबी रदास अथ बीसवीं रमनी चोपाई |

अबकहुरामनामअविनासी।हरितजिजियराकतहँनजासी जहांजाहु तहँ होहुपतगा। अवजनिजरहुस8झिविषसेगा रामनामलोलायपोलीन्हा। भृड्गीकीट समुझि मनदीन्‍हा रे भोअतिगरुवा दुखके भारी। करुजिययतनसोदेखुबिचारी मनकीवातहैलहरिबिकारा त्वहिनहिं सूझे वार पारा « साखी इच्छाक़ी भतसागरे, वोहित राम अधार

कहैंकविरहरिशरणगहु, गोवछखुरविस्तार ॥६॥

अवकहुरामनामअविनासी।हरितजिजियराकतहुंनजासी अबिनाशी जो रामनाम ताको अबहू कहु हरिकहे भक्तन के आरति हार- णहारे जे साहब हैं तिनको छोड़ि हे जीव ओरेमतनमें कतहुंनना आशथोवचित- चित्तते विग्रहकरि सवेत्रसाहिबिकोदेख जहांजाहतहँहोहुपतंगा अवजनिजरहुसबझिविषसंगा जौनेन मतमें जाहुही तहां पतंगहीसे जरिजाउहौ सो ते गुरुवन को संगनो बिषाग्नि ताको सम्राक्षे अबननि जरहु अथोत्‌ जो इनकों संगकरहुगे तो मन इन्द्रिया- दिकन को बिषय जो सिद्धांत कीन्हेहे ताही में तुमहँकों छगाइ देयँगे तो ससारही में परेरहोगे ताते इनकी संगत्यागे रामनाम जपी जो कही कौनीरीति- ते जप रामनामती मन वचनके परेहे सो आगे कहैंहें 4 रामनामलोलायसांलीन्हा भ्ृृंगी कीटसमुझि मनदीन्हा रामनाममें सो छो लगाय लीनंहे कोननोन भज़ी कीट की ऐसीगति समुझिके अपने मंनदीन्‍्हहै अर्थात्‌ जैसे कीटभड़ी को देखत देखत वाको शब्द

रमेनी (<१)

सुनत सुनत वाकों डेरात डेरात तदाकारहै भड्गीहीरूप है जाय है तेसे रामनाम नपतजाइहै, वाको सुनतनाइहै, जगतमुख अर्थते डेरातनायहै; भो साहबमुख अयथमें साहबकी रूप अपनों हंसस्वरूप बिचारत निन्र हंसरूप में तदाकार हैजायहै, मनादिकें मिंटिजायहै शुद्ध रहिनाय है सो अपनेरूप पायजायहै तब मन वचनके परे जो रामताम सो आपनेते अस्फूर्त्तिहो३ है तामें लौछगायकै जैसे कीटभड़ी बनिके और कीटको भड्गे बनवेंहे तैसे यही जीव उपदेश करिके ओरेहको हंसरूप बनूवे है | सो जो भड़की शब्द कीट ग्रहणकरै तो कीट- ही रहिनाय ऐसे जो रामनामको जीव ना ग्रहणकरे ते! असारही रहिजायईहैं तामें प्रमाण अनुरागसागरके॥ ( ज्यों भ्क्गीगे कीटके पासा | कीटहिगहि गुरग मिं परगासा बिरला कीट होय सुखदाई प्रथम अवान गहै चितराई॥ कोइ दूजे कोइ तीने माने तन मत रहित शब्दहित जाने तबंडेगे भड़्ी निमगेन हा स्वाती दैकर निम समदेहा )॥

भोअतिगरुवादुखकेभारी करुजिययत॒नजोदेखुविचारी७ मनकीवातहैलहारिविकारा। त्वदिनहिंसूझेवारनपारा ५॥

यह संसार भारी दुःखकरेंके अति गरुवा बोझाहै जीव तू बिचारि देखु जो तोको बोझाछगे तो रामनामको यतन करु ॥४॥ मनकी बातकहे मनते गुरुषन को धोखा बह्म तेहिते उठी जो काररूप लहारे माया ताको कौनों मन कहके तोको वारपार नहीं संस है

साखी इच्छाकेभवसागरे, वोहितरामअधार कहकवीरहरिशरणगहु, गोवछखुरविस्तार ॥६॥ यह जो समष्टि जीवको इच्छाहप भवसागर तामें बोहित जो नौछ रामना" सोई आधार है और नहीं है सो कबीरजी कहे हैं हारे ने साहेबहैं तिनकी शंरणगहु यह भवसागर गऊके बछवाके खुरके सम उतारे जायगो यामें संदेह नहीं है इति बीसवीं रमैदी समाता

६-००. ..;07+- (५० कम्यकआ४-> हद चाय९.०पकामक,

(८२) दीजक कबी रदास अथ इकीसवीं रमेनी चोपाई।

वहुतदुख है दुखकी खानी तववचिहोजवरामहिजानी रामहि जानियुक्ति जोचलई युक्तिहिते फंदा नाहें परई युक्तिहि युक्ति चलत संसारा। निश्चयकहा मानुहमारा कूनक कामिनी घोरपटोरा। संपत्ति बहुत रहे दिनथोरा थोरेहि संपतिगों बोराई। धरमरायकी खबारि पाई « देखित्रासमुखगोकुम्हिलाई अमृत थोखे गो विष खाई साखी॥ में सिरजों में मारहूं, में जारों में खाडँ॥

जलथलमेंदीरमिरशों,मोरनिरंजननाऊँ

चर

बहुतदुख दैदुखकीखानी तबवचिहोजवर महिजानी ॥१॥ रमहिजानियक्तिजोचलई युक्तिहितिफंदानहिपरई २॥ युक्तिहियुक्तिवलतसंसारा निश्वयकहानमानुहमारा॥ ३॥ यह दुःखकी खानि जो संसारसो बहुतदुःखंह्े अथोत्‌ बहुतदुःख देइ्है तुम तबहीं यतिबचींगे जब सबकेमालिक रक्षक जे श्रीरामचन्द्रतनकोजानोंगे आनउपाय बचोंगे ॥२॥ काहेते जे श्रीरामचंद्र को नानिके युक्ति सहित चहेंह्ै तेई वही यु- क्तिदते संसारके फेदाम नहीं परेंहें सो कबीरजी कहेहं सो युक्ति आगे लिखैंगे॥ २.॥ यासंसार केवछ अपनी अपनी युक्तिहीते चले है फबीरनी कहैंहें भें जो निश्चय बात कहोहों कि, रामनामहीते तेरों उद्धार होयगो याकी युक्ति कोई नहीं माँनिहै भपनेही मनकी युक्ति चडहे क्‍ कनककामिनी घोरपटोरा। संपतिवहुत रहेदिनथोरा ॥४॥ थोरेहि संपति गो बोराई धर्मराजकी खबारि पाई ५॥

रमेनी (<३ )

कनक नजेंहे कामिनी नह घोड़े नहें हाथी जहें पंटंबर जेहें ये संपाति तो बहुतहै परंतु इनके भोग करिबेको दिनतो थोरही है अथीत्‌ आयुर्दाय थोरी है

| ४॥ सो ते तो थोगदी रि ते नहीं पाई कि

संपत्तिमें बोराय गयो धमेरात् | रहे जायगी तब कोन भोगकरेगों «

जाईंगे तब सारी संपत्ति हियई बिचारि साहब को जानो

देखित्रासमुखगोकुम्हिलाई अमृतथोखेगोविषखाई ॥६॥

दैवयोगजो कदाचिद तुम्हे धर्मरानफी त्रासदेखिके मुख जब कुम्हिलां- यगयो कहे संसारते- बैराग्यमई तब गुरुवाठोगनके निकटजाइ अपनो स्वरूप समुझो कि, में अमृतहों मन मायादिक ते भिन्नहों सो बाततों तू सांचबिचारी ऐसहीह परंतु भगवत्‌ अंशत्व तेरे स्वरूपमें है सो गुरुवाठोग नहीं बतायो और- हीमें लगाय दियो सो अपनो स्वरूप समुझबों जो अमृत ताही के धोखे ते अहं ब्रह्मास्मि बिषखायगयों भगवददास आपनेको मान्यों साहबकी जान्यों सर्बत्र मैहीहों या मानि कहनलाग्यों

साखी मेंसिरजों मेमारहं, में जारों में खाउँ

जदथल संहारामरद्यां, मॉरॉनरजवननार ७॥| मेंहीं जगत्‌ को सिरती हों भेहीं मारोहों मेंहीं जारोहों जोने अप्रिते

जारोहों ताको मेंहीं खार्हों जलथरूम मेंहीं रमि रह्योहों मोर निरंभन

पर अज

नाड है केवस्य महँहों भो अं नन जो माया ताते सबलितंदेके मेंदीं सबकराह[॥७॥ इंत इकीसवा रमनापमाप्ता।

री

बाइसवीं स्मेनी चोपाई। अलखनिरंजन लखेनकोई जेहिके बँपे वैंधा सब कोई॥१॥

जेहि अूठो सो वैघोअयाना झूठी बात सांच के माना॥२॥

(८४) . बीजक कबीरदास

धंधा वँधा कीन्ह व्यवहारा। कमे विवजित बसे निना* ..३ पटआश्रमपटद्रशनकीन्हा 4 पटरसवस्तुखोटसवच, जेन्ा७ चारि वृक्ष छाशाख बखाने विद्याअगणितगने जाने॥९ औरो आगम करे विचारा। तेहिनहिसूझे वार पारा है जप तीरथ ब्रत पूजे भूता। दान पुण्य किये बहुता॥»। साखी मंदिर तो है नेहकी,मति कोइ पेंढे चाइ॥ जोकोइपठ घाइके, बिन शिर सेतीजाइ ८॥

अलखनिरंजनलखेनकोई जेहिकेबेपे बैचासवकोई जेहिशूे सो वैचो अयाना। झूठीवातसांचकेमाना २॥ धंधावधाकीन्ह व्यवहारा। कमंविवर्जितवसेनिनारा कबीरनी कहेंदें कि, हे मीव! तूतो आपनेको निरंगन मान्ये सो निरंजन तें अलखहै वाको कोईनहीं लखेंहे जाके बँधतेकहे मायामें सब कोई बंधे हैं ॥१॥ हे अजानों | जोने झूठे सो तुम बँधे हो सो झूठही है तुम सांच मःनोही सो ने मानो धन्धा नो साहबकीसेवा ताको बँधाकहे बांधनवारे तोनेकी व्यव- हार तुम कीन अ्थात्‌ ब्यवहार मानि कर्मते वर्शित ब्रह्म सबते न्‍्यारही रहै है या परमार्थ तुमछोग कहौही वाहीमें आरूढ होतहौ साह- बको नहीं नानोहों पटआश्रमषटद्रशनकीन्हा पटरसवस्तुखोटसबचीन्हा8 [के हि चारिवृक्षछाशाखबखाने विद्याअगणितगनेनजाने पटरसनकी खोटमानि त्यागन करिके परठ्आश्रम करिके पट दर्शन कारेंके वही पोखा बह्मही को सिद्धांत मानते भये पुनि चारे वेद छवोशासत्र अगणित विद्या वाच्यार्थ करिंके धोखा बह्मकी कहैँहें ताको तो तुम ग्रहणकियों ताले वात्ति ते नो साहबको कहेंहे सो तुम नानत भये

रमेनी (८५ )

ओरो आगम करेविचारा। त्यहिनहिंसूझेवारनपारा॥ ६॥ जपतीरथ ब्रत पूजेभ्रता। दान पुण्य कियेबहता

अरु औरो आगम जेहें ज्योतिष यंत्र मंत्र आदिदेके तेऊ तात्पये वृत्तिते जोने साहबको कहैंहें ताक़ो वारपार तो तुमको सूझिपरथों वाच्यार्थ प्रतिपाय जो धोखा बह्म और और देवता ताही में छागत भये॥६॥सो यहिपकार नाना मतन करिके मानते भये कोई नाना देवतन के जपकिये कोई तीर्थ किये कोई ब्रत किये कोई भूतनकी पूनाकिये कोई दानकिये कोई पुण्य जो यज्ञादिक कर्म ते किये

साखी मंद्रितोहे नेहको, मतिकोई पैंठेचाई॥ जोकोइपेठेधाइके, बिनुशिरसेंती जाई सो यह सब मतमा एक नानदिवता धोखा ब्रह्म इनमें जो प्रीति है सो नेहको मंदिरहै तामें तू धायंके मतिपिंठे जो इनमें धायके पैठैगो तो वबिनु शिरकहे सबकेशिरे जे साहब तिनके बिना सैंतिही जाईंगो कछुहाथ छंगैगो तेरेसाधन मुक्तिदेनवाले होवेंगे संसारही देनवाले होईंगे अथवा तुह्मारोमाथा . काटे जायगो वृथा मरिजाउगे इति बाइईसर्व-रमेनी समाप्ता। ७. 4०७ मैनी अथ तेइसवी रमेनी चोपाइ अर 5३३ के + अंम॑ * ल्पसोख्यदुखआदिहुअंता। मन भुलानमगर मेमंता॥ १॥ सुख विसराय सुक्तिकहँपावे। परिहरिसां चझंठनिज घावे॥२॥ अनल ज्योति डाहे यकसंगा।नयन नेह जसजरे पतंगा॥३॥ क्रु विचारज्यहिसवदुखजाई परिहरिझ्ूठा केरि सगाई॥8॥ लालच छलागे जन्म सिराई।जरामरणनियरायरूूआई॥५॥

( ८६ ) वीजक कबीरदास

साखी भ्रमकी वॉचल जगत, यहिविधि आविजाई |, मानुष जन्महि पाइनर, काहे को जहँडाइ॥

अल्पसीख्यदुखआदिहुअंता मनभुठानमैगरमेंमंता सुखबिसरायस॒क्तिकहँपावे।परिहरिसां चझूंठनिजधावे २॥

अनलज्योति डांहे यकसंगा।नयननेह जसजरेपतंगा॥रे॥ जौने संसारमें अल्प तो सुखहै आदिहमें अंतहमें दुःखंहे ऐसे संसारमें मैगर मैमेताकहे मतवारों हाथी जो मन सोभुलाईके मैंमंताकहे मेंही ब्रह्महों या मानिलियों अथवा मेंहों देहहों या मानिलियों॥ १॥सुखरूप जे साहब हैं तिनकों बिसराइ के कबीरनी कहैंहें कि मुक्ति कहां पाँव सांचको छोड़िके झूठ जो पोखा बह्मदे तामें तो धावेहै यह जीव कैसे सुखपावि अनलज्योतिनों बह्महै सो एकसंग सब ज्ञानिनको दहैंहे अभि बह्को नाम है अज्ञात्वादमिनामा सो! केसेदाहहे जैसे नयननेह कहे देखनके छालचलगे दीपकर्काज्योतिमें पतं- गजरेहें करुविचा रज्यहिसवदुखजाई।परिहरिझ्यूठा केरिसगाई॥ लालचलागेजन्मसिराई।जरामरण नियरायरूआई॥ झूठ जो या धोखा बह्महे अपनो कलेवर तौने की सगाई त्यागिके परमपुरुष जे श्रीरामचन्द्हँ तिनकी बिचारकरु जाते तेरे सब दुःख जाई ॥४॥ बोखा बह्मके लालच में लगे कि, हमारी माक्ते होयगी हमको विषयही ते सुख होयगो याहीमें छगेंढग जन्मसिरायगयों जरा जो बुढ़ाई मरण सो नियराय आये

साखी भ्रमको वांचल जगत, यहि विधिआवेजाय

मानुषजन्महि पायनर, काहेकीजहँडाय॥ ६॥ यही रीतिते श्रमको बांधा या जगत है वहीं ब्रह्मते भाँवि है कहे उत्पन्न होइहे जाइहे कहे ढीन होइ है मानुष जन्महि पायनर काहेकों जहँढाय'

रमेनी (८७)

कहे काहे मड़वंत्‌ होयहै मनुष्य जन्म याते कह्मों अथवा नहैंडाय कहे काहें भूले जाते हैं कि, मनुष्य के मानुष्य होय हैं हाथीके हाथी होय हैं कछू हाथी के मनुष्य नहीं होयहैं ऐसे जो तें निराकार ब्रह्मको हो तो तोहू निराकार होतो सो तें मनुष्य है ताते मनुष्यरूपने श्रीरामचन्द्रहें तिनहीं को है

लक बाध्य

इति तेइंसवीं रमेनी समाप्ता अथ चोवीसवीं रमेनी चोपाई !

चंद्रचकीर कसिवातजनाई मानुषबुद्धिदीन पलटाई॥१॥ चारि अवस्था सपनो कहई झूठे फ्रे जानत रहई ॥२॥ मिथ्यावात जाने कोई यहिविधि सिगरे गये विगोई॥३॥ आगेदेद सबन गवावा। मानुष बाद्धे सपनेहु पावा[॥४॥ चौंतिस अक्षरसों निकले जोई।पापपुण्य जानेगा सोई॥५॥ साखी सोइकहते सोइ होउगे।निकाले वाहेरआउ

होहुजूरठाढ़ी कहों, धोखे जन्म गँवाउ

चन्द्रचक़नोरक सिबातजनाई माडुपबुद्धिदीनपलटाई॥ १॥

साहब कहैंहें कि,हे जीवों | तुमको गुरुवाछोग चन्द्रचकोर कैसो दृष्टांत जना- यके नानाईइवरमें छगायदियों केसे जैसे चर््मा को ताकत ताकत चकोर चन्द्रुपैंहे या बुद्धिमानिहे तब चकोरको अप्विकी गरमी नहीं लंगहै अभि खाय- जायहै तैसेअपनोस्वरूप जो ब्रह्म ताको जबजानिलेहुगे तबतुमकों दुःखसुख जानिपरेगो कोई यह कहेंहेँ कि,जैस चन्द्रमा चकोरमें नेहकरेंहै ऐसे तुम ईदवर- नमें शतिकरोंगे तो दुःखसुख जानिपरेंगो यह जो तुम्हारी मनुष्यब॒द्धि कि, में हंसस्वरुपहों द्विभुजहों द्विमुनई को होडँगो सो पछूटायकैे बह्ममें रूगायदियें नानादेवतनमें छगायदिये

(८८) वबीजक कबीरदास

चारि अवस्था सपनों कहई। झूठेफूरे जानत रहई री 8 87 विआ पे मिथ्यावातनजानकोई यहिविविसिगरेगयेविगोई हे चारिभवस्थनिह जाग्मत स्वप्न सूप््ति तुरिया ते सपनकहाती हैं तो झूठी फुरि जानत रहे हैं॥२॥वह केवल्य जो है पँचं३ अवस्था तदूप है जाइबो कि, मेंहों बह्महों सामिथ्योहे यहबात कोई नहीं जाने है यहीविधि सिगरे जीव विगरिंगये कहे बिगोइगये

आगे देदे सवन गँवावा मानृषवाद्दि सपनेहपावा। ।४॥ चोंतिसअक्षरसॉनिकलेजोई पापपुण्य जानेगासोई॥

वहीधोखा अह्मके आंग ओर कुछ नहीं रहो आदिकी उत्पत्ति वहीतेहै यही बात आगे देंदे कहे विचारि के सिगरे जे ऋषिमुनि हैं ते आजअपने स्वस्वरू- पको गँवावतभये मनुष्यरूपनों में तिन के जाननेवाली बुद्धि सपन्‍यों पावत- भये चोंतिसअक्षरके जो निकेरेगा सोई पापपुण्यजानैगा में साहबको हों मोर में लागौहों सो पापई करोंहों या बातमेरों आनिवेचनीय निवोण जो नाम है ताको जपिके जानेगो अपने स्वस्वरूप जानेगो

साखी॥ सोइकहते सोइ हो3गे; निकलि वाहेरआउ हो हुजूरठाढ़ो कहों, थोवबे जन्म गैवाउ ६॥

नोपदार्थ देखोगे जो सुनीगे जो कहौंगे जो स्मरण करोगे संसारमें सोई होडगे वही धोखामें छागिकै पुनिसंसारी होडंगे वा में ते निकारेंकै बाहर होउगे काहेते कि, वहतों अकत्तहै तुम्हारी रक्षाकौन करैगों सो साहब कहे हैं कि, सर्वत्र पूर्णहों तेरे हुजूर ठाढ़ कहतई हों कि, तें मेरो है त्‌ काहे धोखा अह्म

५. ि

में इंइवरनमें जगतेके नाना पदार्थमें छागिंके जन्मगेंवाये देतहै

किए!

इति चौबीसवीं रमेंनी समाप्ता।

[आ

रमेनी | ( ८९.) अथ पचीसवीं रमेनी |

चोपाई। चौंतिस अक्षरकोयहीबिशेखा। सहसो नामयहीमें देखा का भूलिभटकि नर फिरिघरआर होतज्ञान सोसबन गवोविंर खोजदहिंब्रह्मविष्णु शिवशक्ती अनंतलो गखोजहिबहुभक्ती खोजहिंगणगँयवंसुनिदेवा अनंतलोकखोजहिवहुसेवा साखी यतीसती सबखोजहीं, मने माने हारि

बड़ेवड़े बीरबाचें नहीं, कहादे कवीरपुकारे ५॥

चौंतिसअक्षरकोयहीविशेखा सहसोनामयही मेंदेखा ॥१॥ भूलिभटकिनरफिरिपरआबे। होतज्ञानलोसवनगवाँवे ॥२॥

चौतिस अक्षर को विशेष धोखई है काहते हजारनाम यही चोतिस अक्षरेमे देखेहें अर्थीव जे भरि वचनमें आँवे है ते माया बह्मरूप धोखईहै मिथ्याही सो चौतिसे अक्षरके भीतर सबहै अनिर्वचनीयपदार्थ तोको केंस मिल्ले॥ १॥चौतिस अक्षरकी विस्तार जो निगम अगम तामें साहब को ज्ञानभूलि भटकिंके जब- पार नहीं पाँवै है तब किरे थकिकै आपने घटमें आय या कहै है कि एकये- हनहीं है वेदह तो नेतिनेतिकहै हैं तब अपनो स्वरूपमें आयो सो साहबके ज्ञान होतही गुरुवा छोंग भटकाइके अज्ञानमें डारि दिये जोन यह विचारकियों कि ये सब अनिरबंचनीय नहों हैं सो गँवायंदियो अनिर्बंचनीय धोखाबह्महीको मानतभये

खोजहिंत्ह्नविष्णुशिवशक्ती। अनतलोकखोजहिंवहुभक्ती खोजहिंगणगँपवंसुनिद्वा अनतलोकखोजहिबहुसेवा

९० ) बीजक कबीरदास

अनंत जे लोकहें [तिनमें अनंत जे ब्रह्मा बिप्ण महेश शक्ति तिनकी भक्ति करके वही ब्रह्माण्डनमें अनिर्ववनीय की खोजन लगे अरु वही को अनंत छोकमें बहुत सेवाकरि गंधब मुनि देबता सोजनलगे | १7 साखी यती सती सबखोजहीं, मने मानेहारि

बड़े बड़े वीरवार्चेनहीं,कहहिकवीरपुकारि «॥।

यती सती सब मनमें हारे ना मानिके वहीं अनिर्वेचनीय जो मायात्रह्म ताहीको खोनेंदे सो कबीरनी कहै हैं कि. में पुकारिके कहोंहों या माया ब्ह्मके धोखाते बड़े बड़े बीर नहों बाचे है मे कोई बिरले संत साहबको जाने हैं तेई बाचे हैं तामें प्रमाण कबीरनीकों (रसना रामगुण रमिरमि पीजे गुणातीत निर्मुडक ढीजे निरगुण बह्मजपो रे भाई | जेहि समिरत सुथिबृधि सब पाईं॥ विषतजिराम जपसि अभांगे। काबड्ेलाहूचकेटागें ते सब तरे रामरस स्वादी कह कबीर बूड़े बकवादी )

इते पचीसवी रभेनी समाप्तम अथ छब्बीसवीं रमेनी चोपाई

आपुहि करता मे करतारा वहुविधि वासनगढ़े कुम्दारा विधनासवंकीनयक ठाऊं अनेक यतनके बनकबनाऊं२ जठरअप्निमहंद्यिपरजाली तामें आपुभये प्रतिपाली वडुत्‌ यतनक बाहर आया। तब शवशक्ता नामचराया परका सुत जा होय अयाना ताक संग जायसयाना«< सांचीबात कहों में अपनी भया देवाना ओर कि सपनी६ गुत अगद है एके झुठ्गा काकी कहिय ब्राह्मण शु॒द्रा थ। झूठ गये भूले माति कोई हिन्दू तुरुक झूंठ कुल दोई ॥८॥

रभेनी (९१ )

साखी जिनयह चित्र बनाइया, सांचा सूत्रधारि कहही कबिरते जन भले; चित्रवंतहिलेहिवि चारि॥4॥

आपुहिकरताभेकरतारा बहुविधिवासनगढ़ेकुम्हारा ॥१॥ विधनासवंकी नयकठाऊं अनेकयतनकैवनकबनाऊं॥२॥

बिधि जे ब्रह्म:हैं ते अपनेकी करों भानि सब साजुजारे अनेक यतन के जगत बनावतभये जैसे कुम्हार दृण्ड चक्र सब साज जोरके बासन गठे है सों करतार जो अपनेकों कर्ता मान्यो सो वाकी अज्ञानताँहै काहेते कबीरणी कहे है कि सबसाजु आगेही उत्पन्न हैेरही है कौन नइंसान बनाइ करतार अपनेको कतोमाने साजुतों सब आगेकी उम्रन्न भई है. सो कहे हैं ९१

जठरआश्रमहदियपरजाली तामेंआपुमयेप्रतिपाली॥ ३॥ बहुतयतनकेबाहरआया तर्वाशिवशक्तीनामघराया ॥शा

जब महामलय होइ जाइहे तबनोनकाछरहिनायहै सोकारू सदा शिवरूपहै ताके जठरमें कहे पेयमें अग्नि नो छोकप्रकाश बह्ल तामें सर्माष्ठट जीवपर जालिदिये पराशक्ति को जाल छगाइ दिये अर्थात्‌ अग्रे जो छोकप्रकाश बह्म से महीं हो यह मानि माया सबलित होतभयों तामें तोने माया के परति- पाली आंप ही होतभये अंथीव्‌ जीवनके मानेमात्र मायहै ३॥ सो माया सबलित जो बह्म सर्मष्टे जीवरूप सो अनेक यत्र कहे रामनामकों संसारमुख अर्थ करि पांचों ब्रह्म आदि सब बस्तु उत्पन्तके समष्ठिति ब्यष्टिद्रेके जगत उतना कियो ताको शिव शक्त्यात्मक नाम पघरावतमय

घरकोसुतजोहोयअयाना ताकेसंग जाहिसयाना ॥५॥ सोकबीरजी कहैंहें कि, हे जीवो! येबह्मादिकतुम्हारही स॒त हैं तुमहीं समष्ठि: ते व्यष्टि मयेहोी कि, जो घरकोपूत अयान होइ है ताकेसंग सयान नहीं जायहै:

(९२ ) वबीजक कचीरदास

शेसेही बह्मादिक नें अनेकमत करिके आपनेको कत्तोंमानि लिये हैं तिनके संभ तुम छागो अथीव्‌ अनेक मतनमें तुम ने परी तुम साहब को जानो #॥

साचीवातकहोंमेंअपनी भयादेवानाओरकिसपनी ६॥

सो कबीरनी कहे हैं कि, सांचीबात में अपनी कहोहों अपनी कौनकी में नाना मतनको छांड़ि साहबको जान्यो है सोतुम नहीं बूझीही और की सपनी कहे स्वमवत्‌ झूठी नानामतनकी वाणीमें देवाना कहे बिकल है रहेही हें जीवों | सो नातामत त्यागि साहबकों जानो कहे और की पुनि जो या पाठहोय ताको अर्थ या है साँचोबात अपनी में कहताहूं जोमेरे मतमें साहबकी जानता

है सोई सॉचह सासनि पुनि और का जा भया सोईं दिवाना अर जे मुद्रा ३. आप गुप्त प्रगट है एके मुद्रा काकाकाहैये ब्राह्मणशुद्र ७॥ झू भू कर रे ठग भूले मतिकोई। हिंदू तुरुक झूठ कुल दोई ८॥ सो हेनीवो! गुप्कहे जब समषौिमें रहे हौ तबहूं जबमग< कहे व्यष्टिमें रहेहो तबहूँ एकही मुद्रारहेहो अथीद साहिबे के रहे हों तुम ने नाना मतनमें परे नाता साहब मान ब्राह्मण शूदरकहतेही सो झूठेही नीवत्व तो एकही है ७॥ मैं हिंदूहीं में तुरुकहों यह झूठों गवकारकै मति कोई भूलो विचारिके देखो ते हिंदू तुरुक कुल ये दोऊ झूठे हैं तुमतीं साहबके ही

साखी॥ जिन यह चित्र बनाइया, साचा सो सूत्रधार कहहिकविरतेइजनभले,चित्रवंताहिलेहिविचार ॥६॥ जिन यह नाना चित्र बनाइया कहे मित यह जीवको मन नाना शरीर जगतमें

बनायो है तोमने को सूत्रधारी साहब सँंचो है जोन सबको सुरतिदियो है सो

विआर

कबाीरनी कहहे चित्रवृत जो या मन नानादेह देनेवालों याको जो कोई बिचा- रिलियो कि या मिथ्याँहै औो साँच साहब को जानिहियो ते जन भले हैं ॥६॥

इति छब्बीसवीं रमेनी समाप्त

रमेनी (९३ ) अथ सत्ताइसवीं रमेनी

चोपाई ब्रह्मा को दीन्हों ब्रह्मण्डा। सात द्वीप पुहुमी नोखण्डा ॥१॥ सत्य सत्यके विष्णुद्॒ढाई | तीनिलोकमह राखिनिजाई॥२॥ लिग रूप तव शंकरकीन्हा। धरतीकीलि रसातलदीन्हा॥३॥ तब अष्टंगीरची कुमारी तीनिडोक मोहनिसबझारी ॥8॥ द्वितीयानामपारव॑तीमयऊ।तपकरता शंकर को दयऊ॥«॥ एके पुरुष एक है नारी। ताते रचिनि खानि भो चारी॥ ६॥ शर्मन वमन देवो दासा। रजगुणः रघु् घरनिभकासा॥ आ। साखी एक अंडऊकारते, सब जग भयो पसार

कहकवीरसवनारिरामकी, अविचलपुरुषभतार<८

ब्रह्माकोदीन्होंब्रह्मण्डा सातद्वीपप्रहुमीनीखण्डा सत्यसत्यकेविष्णुदढाई। तीनिलोकमहँराखिनिजाओ॥ २॥ अष्टांगकीन हैं ( भूमिराणेनछावःयुःखंमनोबुद्धिरेवच अहेकारइतीयेमेमि- त्रामकृतिरष्टधा ) ऐसी नो इच्छारुपी नारिभष्टांगीसो अह्माको ब्रह्मांड देत- भई सात दीप नवोखण्ड पृथ्वी बिष्णुको देकै तीनिलोकमें राखिनि कहे व्यापक करिदेतभई बिष्णुको नाम सत्य धरावतमई सो आठ नाममें प्रसिद्धहै॥ “हारे: सत्योजनादेन:'” सो नव ब्रह्मा विष्णु दोऊ अपने अपनेको माह्षिक भानि छरे तब महादेवनी कहो कि, हम लिंग बढ़ावै हैं नोई अंत डे अदि सोईं बड़ो १५॥ २॥ लिंगरूपतवशंकरकीन्हा। घरतीकीलरसातलदीन्हा ॥३॥ तब महादेवनी सातछोक नीचे के सात ऊंचेके तामेंकीलवत्‌ लिंग बढ़ावत भये ब्रह्मा विष्णु दोझकोपठयों कि, नाय अंतौठआवों सोंवेष्णु नायके या क्यों

६९४ ) बीजक कबीरदाख

कि, हम अंत नहीं पाये बल्माकह्मों हम अंत के आये सुरभीके दूधते नहवाय केतकीके फूछतेपूज्यो है सोसुरभी केतकी साखींहें तब महादेवतीनोंको झूठा- जानि तीनोंकी शापदियों बह्माको कहो छोकमें अपूज्यहोंड सुरभीको कद्यो तुम्हारोमुख अशुद्धशोइ केतकीकों कह्मो हमपर चढ़ो विष्णुका प्रसन्न हैक या कह्यों कि, तीन छोकमें पूज्य होठ तुम सत्य कह्मोंहे यह पुराणमें कथा प्रसिद्धहें तबअष्टगीरचोकुमारी तीनिकोकमोहनिंसवझारी द्वितियानामपावेतिभयऊ तपकरताशकरकोीदयऊ॥ «॥ तबअष्टेगी जो कारणरूपाशक्ति सोपसन्न हैके तीने छोककी मोहनहारी कुमारी सती रचिक्ै तपकरता जेदक्षेह तिनकेद्ारामहादेवनीकी देतभई तौनही को दूसरों पार्बती नाम भयो

एकेपुरुपएकद़े नारी। ताते रचिनि खाने भे चारी॥ ६॥ शमनवमेनदेवोदा वा रजगुणतमग्रणघचरणिअकासा

एके पुरुष जोंहे ब्रह्म अरु एके नारी नहे माया ताते चारिखानिके जीव उत्पत्ति होतमये अंडज पिंडन स्वेदन उद्भिज॥६॥ रार्मन बर्मन देवों दासा कहे शर्मन ब्राह्मण बमन क्षत्री देवों वैश्य दासा शद अथवा शर्मन कहे श्रोता बर्मन कहेवक्ता अरदेवता उन्केदास रनोगुणी तमोगुणी ओघषरती औमा- काश होतभये $ हि किक विकार साखी यक्रअंड 3) क्रारते, सव जग भयो पसार कृह कृवीर सबनारिरामकी,अवि चलपुरुषभतार८ मंगलमें पांच ब्रह्म पांच अंडमें राख्यों है या कहि आये हैं सो तामें शब्द ब्रह्महूप नोहे अंडपणव ता प्रतिपाद्य नो ब्रह्म सोमायासबलछितदै इच्छा भादि अष्यंंगी उत्पन्नके जगत्‌ पेदाकियों है सो कबीरभी कह हैं कि, धोखा वही है प्रणव्रतिपाय श्रीरामचन्डही हैं काहेते रामनामहीके जगवमुख अर्थते

रमेनी (९५ ) .अणव मगठभयो है तते प्रणवमतिपाय श्रीरामचन्द्रहों हैं यह रामनामकों साह नसमुख अर्थ रामतापिनीमें प्रसिद्धहै तात हेजीवों! तुमसब रामचन्द्हीकी नारीहों ' अविचछ कहे चढायमान निर्विकार सदा एकरस ऐसे भतार कहे स्वामी तुम्हारे श्रीरामचन्द्रही हैं जीव चिव्शक्ति माया अशंगीआदि अचिद शक्ति ईं दूनों शक्ति उनहींकी हैं यते पति श्रीरामच-द्रही हैं इहां कबीरजी मायामें सब परे हैं या देखाय साहबकी लखायों इहां सब नीवनकों या देखायो कबी- रही कि, तुम रामकी नारीहो और पुरुवकरीगी तो मारी नाउगी इति सत्ताइंसवीं रमैनी समाप्तम भृ अटठ कि जी अंथ अट्टाइसवरमनी चोपाई।... अस जोलहाकामर्म जाना।जिनजगआइपसारलताना महि अकाश ढुइ गाड़वनाई। चन्द्र घूर्य ढुइ नरा भराई॥२॥ सहस तार ले पूरिन प्री अजहं विने कठिनहैदूरी॥ कहहि कबीर कम सा जोरी।सूतकुसूत विने भलकोरी ४॥ अस जोलहाकाममंनजाना जिनजगआयपसारलताना महिअकाशढुइगाड़बनाई चंद्र झूर्य दुश्नरा भराई यहि भांतिकी नोलहा जो मनहें जौन नगवमें तानपसारथो है कहे बाणी पसारयेहै ताकोमम कोई जानतभयों भतारश्री रामचन्द्रको भूलिगये घोखा- अह्म नानापते खोनवढूग्यो महे आकाशकहे अपः ऊर्ध्वे दुश्गड़वा बनावतभये तामें चन्द्र सूर्य इडा पिंगछाहै तिनकर नराभरावत भये २॥ सहसतारले पूरिनपूरी अजड बिनेकठिनहै दूरी ३॥ कहहिकवीरकमसोंजोरी सूतकुसूत विनेमलकोरी 8॥

(९६ ) बीजक कवीरदास

अरु तार जोंहे प्रणव ताकी हजारन दोनों कुम्मकर्में जपत भये अनहूलों बाहीमें लगहें यहकहैंदें कि, कठिन दूरिहै॥ ३॥कबीरनी कहैहें जब तानाको+' ताग टूटिनाइहै तब कोरी भिने के जोरिदेश्हें ऐसे वह साधक अभ्यासरुप कर्मते जोरिदेहे सोकर्म को छाठिनमें बांधिंके सूतनों है जीव कुसूत नेंहै वाणी ताको जोलहा जो मनंहे सो विनयहै अथवा विद्या अविद्या सृतकुसूत विनय है

किक

जब बस्तु तय्यार होइजायहे तब जोरूहाकों बिनियो छूटे है सो धोखा अह्ममें छागि अनांदिकाढते बिनतई है जब साहबकी जॉन तब साधनरूप कमैकरिवो डूटिनाइ हेसरूप साहबदेइ जरामरणमिटिनाइ ४॥ -

चर छल

इति अद्टाइंसवीं रमेनी समाप्तम

अथ उनतीसवीं रमेनी चोपाई

बन्नहु ते तृण क्षणमें होई। तृणते बच्नकरे पुनि सोई १॥ नि छह जानि परिहरइ।करमकबांचल लालच करई॥२॥ कम धमवुधिमतिपरिह रिया झठानाम सांचले घरिया॥३॥ रजगति त्रिविषकीनपरकाशा कर्म धर्म बुधिकेर विनाशा 9 रविकेउदय ताराभी छीना चखेहर दोनों में लीना॥५॥ विषकेखाये विष नहिं जावे।गारुड़सो जो मरतजिआवे॥ &॥। साखी अलखजोलागी पलकर्मोंपलकहिमोंडसिजाय

विषहर मन्त्र मानही, गारुड़ काह कराय ॥७॥

वज्हुते तण क्षणमें होई। तृणते वजकरे पुनि सोई १॥ निझ्रूनरूजानिपरिहरई कमेकवांधललालूचक्रई ॥२॥

र्मेनी (९७)

२. का, पक पक

बजहुते तृण क्षणमें करिदेइहे अरु तृणते बज्ञकरिदेइहै ऐसेपरमपुरुप श्रीरामच- न्दको जानो १॥ निहरूनरूकहे जिनको मायाबह्मको धोखा निझरि गयो कहें मिटेगयो ऐसे जे नर हैं ते पूरा गुरुपाईके परमपुरुष ने श्रीरामचन्द्र तिनकों जानिके संपूर्ण जगतके कर्म त्यागिदिईँ हैं जे कर्ममें बँधे हैं ते अनेक छाछूचकरै हैं कोई दव्यादिक की कोई बह्ममिलन की कोईईइवरनकी

कमधमंबुधिमतिपरिहरिया। झूठानामसांचलेचरिया ॥३॥ रजुगतित्रिविधिकीनपरकाशा | कमधमंबुधिकेरविनाशा ४॥

साहबके मिलनवारों जो क्मेधमे बुधिहे ताको त्याग्दितिभये झूठेझूठे ने देवताहै तिनकी नाम सांचमार्निकेनपतभय ॥३॥ गुरुवाछोग रजोगुणी तमोंगुणी सतोगुणी तीनम्रकारके मत मकाशकैंके साहबके मिलनवारो नो कर्म धर्म बुधि है ताकी नाशकरि देत भये

रविकेउद्यतारा भोछीना चरवेहरदोनों में छीना «॥ विषकेखायेविषनहिंजावे गारुड़सोजोमरतजिआवबै ॥६॥

हे जीवो ! गुरुवालोग तुमको उपदेश देयेँ हैं नैसे सर्यके उदय मो ताराकों तेजक्षीण हैजायहे ऐसे जबज्ञानभयों जीवत्वमिव्यो तब चर वेहर नो अचर ये दोनोंमें लीन है जाय है चरभचर बह्मरूपते आपनेनको मानहै॥ ५॥ सो साहब कहै हैं कि हेजीबो! ऐसो उपदेश नो गुरुवालोग तुम्हें दियो सो ठोकनहीं है काहेतें कि संसार बिष उतारिबेको तुम धोखा बह्ममें छगैहीं सो बिपके खाये बिष क्‍ नहीं जाइहे यह घोखाबह्य विषरूपेहे संसार देनवारोंहै गारुड़ सो कहूवेंहे जो मरतमें निभाइलेइ सोमेरोज्ञान घोखा अह्मबिषते बचाई काछते बचाइलेइ ताकों जानों

साखी अलखजोलागीपलकमों,पलकहिमोंडसिजाय ॥- विषहरमंत्र मानही, गारुड़ काह कराय ७॥

(९८ ) बीजक कवीरदास अरूख नो वह अह्महै सो सबके पलकमें लाग्योहै अर्थातृपठपलमें ध्यानकरेहे एक पछही में डसिनायहे अर्थात्‌ जो गुरुवनके मुंहेते कढ्यो सो पंले में वा ज्ञान लगिनायहै सा साहब कहै हैं कि तें मेरोंहे मेरी तरफ आड़ यहि विषको हरनवारों जो ज्ञान ताकी तो मानतही नहीं है में जो गारुढ सो काहकरों॥७॥

इति उनतीसदी रमेनी समाप्ता |

अथ तीसवीं रमेनी

चोपाड

गले पटदरशन भाई | पार्खडवेष रहा रूपटाई जीवसीवका आयन सोना।चारो वद्ध चतुरगण मोना ॥२॥ जेनी पर्मेकमर्म जाना पातीतोरि देव चर आना ॥३॥ दवना मरुवा चंपा फूला। मानोंजीव कोटि समतूला ॥४॥ प्रथिवी को रोम उचारे | देखत जन्म आपनो हारे%॥ मन्मथ विन्दुकरे असरारा। कलपेविन्दुखसे नहिंद्रारा॥६॥ ताकर हाल होय अधघकूचा।छादरशनमें जेन विगूचा ॥५। साखी ज्ञान अमर पद बाहिरे, नियरे ते है द्वारे जो जाने तेहि निकट्हे, रो सकल घटपूरि॥

ओमूले पट दरशन भाई पा्खेंडवेषरहा लपटाई ३॥ जीवसीवकाआयनसोना। चारोवद्धचतुरगुण मोना २॥

पाखण्ड वेष जो धोखा बह्य सो सवेत्र छूपयाइ रहोंहे ताहीमें पट्दशन जहूँ तेझ भूठिगये ॥१॥यह जो धोखा बल्नकों ज्ञान सो मीव नोहे ताको सीव जो कल्याणहै सो नशावनवारोंहे औचारों प्रकारके जीब जे हैं तेऊ बद्धहैं जे चनुर हैं तेगुणमौनाकहे गुणातीत हैं परंतु बोझ धोखा बल्नही में हैं ॥२

रमेनी (९९ %

गीत | + डक.

जनी धर्मक मर्म जाना। पातीतोरि देवघर आना ॥३॥ दवना मरुवा चंपा फूला। मानोंजीवकीटि समतूला ॥४॥

अस्जैनी ने नास्तिकहेँ ते धर्मकों मर्म नहीं जान्या काहेते कि बांधे तो सेंहै पट्टीरहेंहं |के कहे किरवा थुसिनाय जीवकी बचोवेहें कि हिंसा हम करेंगे सो जिन वृक्षनमें जीव हैं तिनकी पातीकों तोरिके पाषाण ने पारसनाथ देवरहैं तिनमें चढ़ावे हैं दवना मस्या औच॑पाके फूछकी तोरके कोटिन जेनीवहैं तेसूँषिके अघायहैं तिनके तारे तारिके पारसनाथकी मूर्तिमें चढ़ावै हैं सो भरे मूढ़ा! प्रतक्ष जे जीव वृक्षहें तिनका पत्रकों तोरेके मड़ नो पाषाणहै तामें काहेकी चढ़ावोहो तुम तो प्रत्यक्ष प्रमाण मानोहों कम किये फल होय है यह मानतही नहीं हो पाषाणपूजे कहा फल होइगो

पृथिवीकोरोमउचारे देखत जन्मआपनोहोरे ५॥ मन्मथ विंदु करे असरारा। कलपेविन्दुखसेनहिद्वारा॥ ॥॥

ताकरहालहोयअघकूचा छादरशनमेंजेनविग्चा

पृथ्वी के रोमाजेंहँ वृक्ष तिनको चेछनते उखरावै हैं शिष्यनकी खिन- को देखिकै भोगकारेंके अपनो जन्म हारिदेहहैं कहे नरकको जायें साधन कारिंके मन्‍्मथ के बिन्दुकी असरारा कहे सरझकरे हैं ओऔ कन्यनते भगि- नी नाते उनकी खिनते भोग करे हैं तव वह बिन्दु ऊपरते नीचेकोकल्प- तहे कहे बढ़तेहे पुनि नीचेते मेरु दूंडहैंके ऊपरको चढ़ाइ डैनाईहै सोने जैनपर्मी हैं छः दर्शन में बिगूचा कहे भूलि गयेहें तिनकी जिनके

कहिआये हैं बीये बढ़ावन बारे तिनको हार अथ कूचा कहे नरकनमें कूचे जाहि हैं

साखी॥ ज्ञान अमरपद्‌ वाहिरे, नियरेतेहे दूरि॥ जो जान तेहि निकट॒हे, रह्मोसकलूघटपूरि ८॥

( १००) बाजक कबीरदास

अमरपद कहे आत्माकों जो स्वस्वरूपहे सो साहवकेअंशहे दासहै सोई अमरहै ताको ज्ञान नियरेते दर्हि औबाहिरहे इहा नियरेते दूरि कह्मों तातें अपनेको ज्ञाननहीं है बाहिरे है कहे बहुत दूरि देखि परेंहे परन्तु जो संतगुरु भेद बतवे है तो ज्ञान होइहे आत्माके स्वरूपको जॉनिहे ताको साहब निकट्ही है काहे घटघटमें तो पूर्ण है ती आत्माके निकट्है इति दीसवीं रमेन्री समाप्ता हक | निकल. अथ इकतासवा रनंना | चोपाई। स्वृतिआहि ग्रुणनको चीन्हा।पापएुण्यकों मारगलीन्हा ३॥ स्मृति वेद पढ़ेअसरारा। पाखंड रूप करे अहँकारा॥ २॥ पढ़े वेद कर बंड़ाई। संशय गॉँठिअजहुंंनहिजाई पढ़िकेशास्रजीवबचकरई। मड़ काटि अगमनके घरई॥४॥ साखी कह कवीर पाखण्डते, वहुतक जीव सताय अनुभवभाव दुशईं, जयत आपुलेखाय॥५॥

स्मृति आहिग्रुणनकोचीन्हा | पापपुण्यकोमारगलीन्हा १॥

स्मातवदपढे असरारा | पाखंडरूप करे अहकारा २॥

स्मति गुणनकों चीन्हा आहि कहे तीनोंगण स्मति में देखिपरे है कहितें के पाप पण्यकों मांगे चीन्हे हैं अथात्‌ पापपण्यके मागे वाहीते जानिपरेंहें ९॥ रारा जो जीव स्मति वेदका असपद्तांहे पासण्डरूप हैके या अहंकार करेंहै जानिबेकेलिये नहीं पंढहे अर्थात्‌ हमविय्ार्में जीते कोई विद्यामानजानि हमें

माने चेलाहोई इत्यादिकछ आपने पंड़े है पढ़े वेद करे बड़ाई संशय गांठि अजहुंनहिजाई ॥३॥ दिकेवेदजीववध करई म्ड़काटिअगमनके घचरई॥ 8॥

रमेनी (६ १०१ )

वेद पढ़ेँहे सब देवतनकी बड़ीईकहें स्तुति करेंहे अथवा अपनीबंड़ाई करेहे कि में महापण्डितहों संशयकी गां।/उनो परिगई है सो अनहं नहीं नाइहै वेदांत शात्र आदि पढ़ेहै आत्मा सवैत्नहे या कहेंहे पै चैतन्य जो जीवहै ताको मूड़ काटिके पाषाण की मूंत्तिहे ताके आगू घरेंहे ३।

साखी कहकवीर पाखण्डते, बहुतक जीव सताय अनुभवभाव दशेई, जियत आपुलूखाय ॥५॥ कवीरजी कंहेंहेँ कि यहिपाखण्डते बहुत जीवनकों सतावत भय उनको अनुभवको भाव नहीं दरहोहे कि जैसे हममारेहें तेसे येऊ हमको मारेंगे जब भरिनिए्हें तबभर अपनी इच्छानहींकरे हैं जेहिते बचें # इति इकतीसवीं रमेनी समाप्ता

अथ बत्तीसवीं रमेनी चोपाई। अँध सो दर्षण वेद पुराना दरवी कहा महारस जाना॥१॥ जसखर चन्दनलादिभारा।परिमलवास जानगँबारा॥२॥ कहकबीरखोजेअसमाना।सोनमिलाजोजायअभिमाना ३॥

अर

जैसे आधरके| दर्पण वह आपनो मुख कहादेखैं औदरवी जो करछुडीहैसो पराकके रसको कहानोने ॥१॥ औगद्हा चन्दनकोछादे चन्दनकी सुबास कहा- जॉन तैसे गँवारनेहें ते बेदपुराणको तात्पर्यार्थनि साहबहैं तिनकों कहाजानें जो गरबीपाठहोय तो या अथहै अहंकारी छोगमधुर रसको काजानें सोकबीरजी कहें कि आसमान जो निराकार थोखात्रह्मताको खोने हैं सोबातो झूठदहै सो पुरुष याकी मिछा जाके उपदेशते अहंबह्म को अभिमान जाय साहब को नानिढेय

इति बत्तीसवीं रमेनी समाप्ता

(१०२१) वीजक कबीरदास + #2५ तेंतीसवीं | ग्मेनी + अथ ₹_ [|| चोपाइ। बेदकी पुत्री स्मृति भाई सो जेवरि कर लेते आई ॥१॥ आएहि बरी आप गरवंवा झूठी मोह कालको घंचा॥२॥ बँववतबंच छोड़िना जाई विषयस्वरूपभूलिदुनिआई हमरेलखतसकलजगढूटा दासकबीर रामकहिछूटा॥ ४४

साखी रामहि राम पुकारते, जीभ पारेगोरोस सूधाजल पीवैनही, खोदिपियनकां होस

वेदकी पुत्री स्माति भाई | लो जेवारि कर लेते आई॥ १॥

यहांकमेकाण्ड उपासनाकाण्ड ब्लानकाण्ड ये तीनोंकी कठिनतादेखाइ तातार्य वृत्तितेछुड़ाइ साहबमें छगावैंहे कबीरजी कहे हैं कि हेभाइडजोनीस्मृतिकों कर्मे प्रतिपादक अर्थकारे कर्मेरुप जबरीमें तुम बँधिगयेही स्मार्त भयेहीं सो स्मृति वेदकी पुत्री है तौने वेदहीकी अर्थ तुम नहीं जानतेहीं थौं वाको तात्पर्य कर्म के छुड़ाईंबमे है धोंकमंके बांधिबमें है तो स्मृतिको अर्थ कबजानोंगे ? सो वेदकों

तातये तो कमते छड़ायबेहीमें है केसे मैसजीवनकी मांसमें आसक्ति स्वभावईतें है वैसे छोड़ावे ती छूटे ताते वेद नियम बंतावै है कि मांसखाय तौयजञमें खाय ताते या आयो कि जब बहुत श्रमकारे बहुत द्रव्यछगाय यज्ञकरैगो तब थोड़ामांस बिनास्वादका पावैगो तामें या बिचारैगोकि या थोड़ेमांसबिना स्वाद- के खाये यामें कहाहे या बिचारे मांसछोड़ि देयगो याभांति कर्मकांडको तात्पर्य निवृत्तिहीमिहे स्मृति नाना देवतनकीउपासना कहैंहें सो उन पूजनकी यंत्र मंेत्रकी पुरश्वरणकी बिधि कठिनहै जोकरतमें सिद्धिभयों ती उनके लोककों य्यो जो कछू बीच परिगयो तो बैकछाइकै मारिनाइ है या भांति उपासना काण्डकोी तालय निवृत्तिहीमें है स्म्रतिज्ञानकाण्डनोक्है हैं सो मनके साधन

रमेनी | ( १०४ )

कठिन है काहेते कि नो अहंबल्मास्मि मान सबे कर्मनकों त्यानिदियों दूसरी बुद्धिन गईती पतितड्े नायहै तामें एक इतिहासहे।एकराजाके गोहत्यालगी से हत्याआई तब रानाकह्यो कि सर्वत्र बह्मही है हमह बह्ाहें हमको हत्याका- हेको लगेगी हाथके देवता इन्हहें सो इन्ही को छंगेगी इत्यादिक जवाब देत- भयो तब वहहत्या राजाकी बेटीके पासगई सो वो शंगारकरि रानीके पढछंगमें परिरही तहां राजाआाये कन्याकों परी देखी तब कह्मोकि तू कहापरीहै तब कन्याकद्यों जैपरानी तेसे में अह्मती एकही है तब राजा उंलटिचले हत्या राजाके शिरम चढ़िबिठी या भांति ज्ञानकाण्डहको तात्पयें निवत्तिहीमें है कि जौनसरछ उपाय वेद तातलये केके बतोवहे कि मनादिकन को छोड़िके रामनामकोलपे साहबकी ह्वैनाय तौमुक्ति द्वेनाय तामें प्रमाण ( द्वापरात्ते नारदेबलह्माणप्रतिजगाम कथंनु भगवन्‌ गांपर्य्यटन्कलिसंतरेयामीति सहोवाच भगवत आपुरुषस्यथनारायणस्यनाम्नीति नारदःपुनःपप्रच्छभगवृत३किेंत- न्नामोतिसहोंवाच हरेरामहरेरामरामरामहरेहरे श्रुतिः ॥)आदिपुरुष भगवान्‌ नारा- यणके नामहें उद्धार करनवारे सो नारायणनाम सुनावह कियो पृछचो के कौननामहैं तब रामनामको बतायो तेहिते उद्धारकर्तारामनामही है पुनि स्मतिह कहेँहे "'सप्तकोटिमहामंत्राथ्रित्तविश्रमकारकाः एकएवपरोमंत्रोरामरत्यक्षर- दयम्‌॥ ताते वेदकों तालयें कर्मेकांड उपासनाकांड ज्ञानकांड तीनोंके त्याग्मेंहे साहबकेमिलायबेमहैतामें ममाण सर्वेबेदायत्पदमामनंति इतिश्रुतेः''॥ के- बीरजीहू कह्यों है कि वेदकोअर्थ डलटिकैकहे तात्पयते समझैतोतौने अर्थ वेदकें सांचहें अपरोक्ष अर्थतीझठो है तामें प्रमाण “'दौड़धूप सबछोड़ो सखिया, छोड़ो कथापुरान उछांदे वेदका भेदछखो, गहि सारशब्द गुरुज्ञान॥? दुनोप्रमाण॥ आसन पवन किये हृढ्रहुरे मनको मैल छांड्रिदेवौरे काश्ंगीमड़ा चमकायें। क्या बिभूति सब अंगछगाये क्याहिंदृक्या मूसठमान जाको साबित रहैं इमान॥क्यानो पंढ़ियावेदपुरान सोबाह्नणबूझेबह्मजञान कहैकबीर कछुआनन- कीमे राम नामजपिछाहाछीजने ॥” सोस्मृतिमें जोतुमको नानाअथ भासमान होय है सोई बंधनरूपजेवारे करमें लेते आई है सो वा जेवरि तुम्हा- रहौ बरी है

( १०४ ) बीजक कवीरदास |

आपुहि बरी आपुगरंधा झूठामोह कालकोच॑धा २॥ सों आपही स्मतिकों कम प्रातिपादनकारे कर्मेरष रसरीबरिके आपही गरबांधत भयो अर्थाव कम करमछूग्यों झेठानोमोहहै तामें परिके काछकों धन्धाबनावतभयों अथीत्‌ नानोदिहधरतमयों कारुमारतभयों साहबको जो तात्पर्य ते स्मृति बतावै है ताक ना संबुझावत भयो

बंधवतवंपछोड़िनाजाई विषयस्वरूपभूलिदुनिआई ॥३॥ हमरेदेखत सबजगलूटा दासकवीर रामकहि छूटा ॥४॥ सो बांध तो बांध्यो पे वह बंधते छोडयों नहीं छूटे विषयमें सब दुनियां भूलिगई मांस खाइबे को चाह्यो तो छागरमारे बलिदानदै खाइलियो औसु- रापानहू करिबेको चाह्यो वेश्या राखिबों चाह्यो तो बाममार्गेलियो इत्या- देक अर्थ करके सो कबीरजी कहे हैं कि हमारे देखत देखत यह- माया संपूर्ण जगकी छूटिलियों सो मैंती रामे कहिके छूटिगयो सो में सबको बताऊं हों सो दुष्टनीव नहीं माने साखी रामहिराम पुकारत जीभपरिगोरोस सूधानलपीवेनहीं, खोदिपियनकीहोस ॥५॥

मोको रामैराम पुकारत पुकारत कि राममें छगो जीभमें रोस परिगयों कह ठहर परिगयो पे जीव मानत भये सो सूधा जछ तो पीवै नहीं है कि सीधे रामकहे तरिजाय वही धोखा अह्ममें छगाईके नानामत दक्षिण बामा- दिक कारेके खोदिके नलपियन कौ हवस करेंहे कहे आशा करेंहे सो ये तो सब धोखाई है मुक्तिकेसे होयगी सीधे रामनपि स्वामी सेवक भावकरि संसार साग- रते उतरि कांहे नहीं जायहे इति तेतीसर्वी रमैनी समाप्ता

श्र

पढ़िपढ़िपंडितकरिचतुराई। निज्रमुक्तिहिमोहिकहहुबुझाई कहँवसे पुरुषकवनसोगाऊँ।सोम्बहिंपण्डितसुनावहुनाऊँ२ चारिवेद ब्रह्मा निज ठाना मुक्तिक मम उन्हों नहिजाना३ दानपुण्यडनबहुतबखाना अपनेमरनकिखबरिनजाना४ एकनाम है अगम गँभीरा।तहँवाँ अस्थिर दास कवीरा«

साखी॥ चींटी जहां चढ़ि सके, राई नाहें ठहराय आवागमन कि गमनई। तहँसकली जगजाय॥६॥

पीढ़िपीड़पेंडितकरिचतुराई निजसुक्तिहिमोहकहहुबुझाई कहँवसेपुरुषकवनसोगाऊँ सोम्वहिं पंडितसुनावहुनाऊँ

हे पण्डिती ! पढ़ि पाढ़े के चतुराई करोही सो अपनी मुक्तिती समुझाइ कहीं कहां ते तिहारी मुक्तिहोइहै जोने को मुक्ति माने हो सो बह्ल धोखाह अरु वह बह्मोक प्रकाशहै सो जाकेछोक को प्रकाश सो वह पुरुष कहां बसहे ताको गाई कौन है सो मोको बतावो अरु वाको नाई बताओं वह कौनहे (

चारिविदब्ह्लानिजठाना मुक्तिकम्मउन्होंनहिंजाना ॥३॥ चारिवेद को हम कियो है हमहीं जानेंहें हमहीों पह़ैँदैं यंह ब्रह्मा मानत भये पे वेदकी तालय्योथे मुक्तिको मरम बोंऊ जानत भये काहेते

कि जो जानते ते रजोगुणी अमिमानी हैके जगवकी उत्पत्ति काहेकी करते अह्ाहको भ्रम भर्योहे सो प्रमाण मंगलमें कहिआये हैं तो पण्डित कहाजाने

( १०६ ) वबीजक कबीरदास |

8.

वही धोखामें पण्डित छोग लगावतभये कि वह जो ब्रह्म सवैत्म पूर्ण है सो तुद्दों है अहंत्रह्मास्मि यह भावना करु सो वातों जीवहीकी अनुभवंहे जीव ब्ह्न कैसे होइगो अरु पण्डित कहा बतावे वाको तो अनामाकहेहँ अरू वाकों बस्तु गाईँ कहां क्‍्तावें वाकों तो देशकारू बसस्‍्तुके रहित कहे हैं सो जाके नाम हूप नहीं है देशकाल बस्तुते रहितईहै सो वहहे कि नहीं है जो कहो अनु» भवमें ते आवेहे तौतों अनुभवी तो जीवहीको है जो यह विचारिबों धोखाई भयो तो जीवब्रह्म केसे होईंगो रे

दानपुण्यरनवहुतवखाना।अपनेमरनकी खबरिनजाना॥ ४॥ एक नामहेअगमगेंभीरा। तहवांअस्थिरदासकवीरा «५

अरुकमेकांडवारे दानपुण्य बहुतबखान्योंहे पे अपनेमरिबेकी खबारे नहीं जान्यों कि यहकालछ बहुतदान पृण्यपारेनकों खाइ लियोंहै हमकैसेबचेंगे जीने नाममेंठगे जन्म ,मरणनहीं होइहै औअगमहै कहे जेसंतलोगहैं तेईपाव हैं भरु गभीरपद है कहेगहिर अर्थ है सो कबीरजी कहे हैं कि तौने नाममें में स्थिरहों कण चीटी +. कर ५5 आए साखी चीटी जहां चढिसके, राई नाहें ठहराय हे 2१७ तहेँ ९३ आवागमन कि गमनहीं,तहं सकलोजगजाय ॥६३॥४ वो अक्म कैसो है कि चौटी जो बाणी है सो नहीं पहुँचे राई जो बुद्धि है सो नहीं ठहराय अथोव्‌ मन बचन के परे है आवागमनकी गमनहीं है

अर्थाव्‌ वहांते कोई आंवे है यहां ते कोई जाय है अथोतव मिथ्याहै तहां सिगरों जग जायेहे ६॥

चर का

इति चोंतासवीं स्मेनी समाप्ता |

(१०८ ) बीजक कबीरदास

ब्राह्मण क्षत्री वैद्य उपदेशपांवै है कहो मुक्तिकेहिकी भई है काहेते वाकोता- त्पर्य ती यहहै कि मबसाहब को स्वरूप अरु आपनो स्वस्वरूप जाने तो मुक्तिहोर सो साहेबकों स्वरुपओ आपनो स्वरूपतों जानतई नहीं है मुक्ति कैसे पावे

ओर के छुये लेतहों सीचा।तुमते कहो कोन नीचा॥ 8॥ यहग्रुणगवे करो अभिकाई ।अतिकेगवे होइभलाई॥ ५॥ जासु नाम हे गये प्रहारी | सोकसगवेहिसकेसहारी

औरको छुबौहीों तो गंगाजल सींचोहीो कि पविन्नहैनाय सोकहों तुमते कौननीचंहे :॥ मलमृत्रादिक तुमह में भरे हैं अपने गुणकों गये अधिक तुम करतेहों सो अतिगबे किये भाई नहीं होइहै काहेते कि ॥५॥ जाको नामगयवें प्रहारी है सोकैसे गवंको सहारे सके वह जो परमपुरुषहे सो गबें पहारीहै तिहारोगवे केसे सहेगो

साखी कुल मयोदा खोइके, खोजिनि पदनिवोन अंकुर बीज नशाइके, भये विदेही थान॥ ७॥

जेकमेंकी त्यागकियेहैं तिनकों गांठिहकी धर्मंगयों आपनीकुछमयादा ते पहिले खोइदियों है निवोन पदकों खोजत भये अंकुर जो है सुरतिबीन नो है गुद्धनीवआत्माबीजनो है साहेब ताको नशायके बिंदेहीनाहै ब्रह्म निरा- कार ताहीके थानभये कहे आपनेकों ब्रह्म मानतभये सो जाको अनुभवहे अन्न ताको तो भूछिही गये बिनाअंकुरपाले कैसे होइगों अथीत्‌ थोखेहीमें परेरहिं गये वार्मे कुछनहीं ।मैंडे है तामें मरमाण कबीरनी को ( अंकुर बीन जहां नहीं, नहीं तत्त्व परकाश तहांनाय का छेडगे, छोड़हु झूठी भाश ) अर्थात्‌ चेष्टारहित बह्लको खोनतमयें सो वाते कुछ वस्तुंही नहों है मिलिबोई कहां कर

इति पेंतीसवीं रमनी समाप्ता

रमेनी ( १०९ ) छ्ध 8 की. अथ छत्तासवा रमना |

चोपाई ! ज्ञानीचतुर विचक्षण लोई। एकसयान सयान होई ॥१॥ दुसरसयानको मर्मनजाना|उत्पतिपरलूयरेनिविहाना ॥२॥ वाणिजएकसवनमिलिठाना। नेमधर्म संयम मगवाना॥३॥ हरि अस ठाकुरते जिनजाई। वालनभिस्तगांवदुलहाई ॥४॥ साखी॥ तेनर मारिके कह गये, जिन दीन्ही गुरु छोट

राम नाम निज जानिंके, छोड़हु बस्तू खोट ॥५॥

ज्ञानीचतुरविचक्षण लोई एक सयानसयाननहोई ॥१॥

2 र< 0 | का दुसरसयानकाममनजाना उत्पातपरलराने|वहाना २॥

शानीने हैं चतुरने हैं विचक्षणनेहें तिनहींडछी ने ईलोगहैं अर्थात्‌ सूक्ष्म तेसुक्ष्म ताहतेसक्ष्मलोबिचारनवारे जे दैतबादी सबलोगहे ते एक जो बह्म ताहीमें सयानजों भये 'कै, मेंहीं ब्रह्महों यही मानतभये तो वे सयान नहीं हैं॥ १॥दूसर सयानने द्वैतवादी हैं ने साहबकों आपनेहीको माने हैं ताको तौ मरमई नहीं जाने हैं भूलिके उत्पति परे कहे संसारकी जो उत्तत्ति प्रत्य होंतरहै है ताहीमें रोने बिहाना कहे दिनराति जनमतमरतररे हैं

बाणिजएकसवनमिलिठाना नेमधर्मसंयमभगवाना ३॥ हरिअसठाकुरते जिनजाईं। वालनभिस्तगॉवदुलहाई॥४॥ . एक वणिन तब मिकछति ठानतभये नेम धमे संयम इत्यादिक जे सब साधनहें तिनहींकी भगकहे ऐड्वर्य्ये मानिके तिनमें सब छागतभेय॥ ३॥हरिकहे आरतके हरनहारे जे साहबहें तिनते जिन नाइकहे जेजेफरक्ट्वैगयहें ते बालनकहे बालककी ऐसीहें बुद्धि निनकी ऐसे जेजीवहैं ते भिस्तगाँव दुलहाई कह भिस्त जोस्वगहै

(११० ) बीजक कंबीरदास !

ताहीकी दुद्धहाइक गावतभये अथात्‌ संयम नेमकरि स्वगे में जाइ अप्सरन ते भोगकरे यही गावतभये साखी ते नर मरिके कहँगये, जिन्हदीन्होंगुरुछोट हर | पल) किक राम नामनिज जानिके, छोड़हु वस्तू खोद

जिनको गुरुछोट दियाहे अर्थात्‌ थोरे अक्षरकों मंत्रदियों जो घोट पाठहेइ तो यह अयहै कि, गुरू उनको मृड़घोटि दियो अथीव मृड़ मड़िदियों अथवा जेठप्याठाको धोयदैदियों पियाय दियो ते नर नेहें हिंदू मुसमान तेम- रिके कहांगये अर्थात्‌ कहूँ नहीं गये संसारहीमें परे हैँ सो अपनो जो रामनाम ताको जानिकै खोट बस्नतुनो नाना देवतनकी उपासना धोखात्रह्न स्वंगेकी चाह ताकी छाद्ों अंतमें उदार रामनामही करेगो तामें प्रमाण ( मनरें जवते राम कह्ोरे फिरिकहित्रे को कछुनरहोरे कामोयोग यकज्ञनप- दाना। नोतें रामनामनहिंजाना ॥१॥ कामक्रोधदोउभारे गुरुपधादसवतारे कहेकबीरश्रमनाशी रानाराम मिले अविनाशी )

इंतिंछत्तीसवीं रमेनी समाप्ता अथसेंतीसवीरमेनी | चोपाई। एक सयान सयान होई दुसर सयान जाने कोई॥१॥ तिसर सयान सयानेखाई चोथ सयान तहां है जाई॥२॥ पँचये सयान जानेकोई छठयें महँ सव गेल विगोई॥३॥ सतयेसयानजोजानोभाई। लोक वेद मो देहु देखाई॥ साखी विजक बतावे वित्तको, जोबित गुप्ताहोह शब्द बतावे जीवको, बूझे विरला कोइ॥ ५॥

रमेनी | १११)

एकसयान सयान होई दुसर सयान नजाने कोई १॥ तिसरसयान सयानखाई चोथ सयान तहां ले जाइ॥२॥

एक जो ब्रह्म ताहीमें जे सयानेह अथीत्‌ वाही को सांचमाने हैं और सब मिथ्यहि ते सयान नहीं हैं इसरमायामें जेसयान हैं वे कहेंहें कि; मायाकों हम जाने हैं सो माया तो सतअसत ते विलक्षणेह ताकोी कोई जानतही नहींहे कि, कौन वस्तुहै॥ १॥अरू तीसर जो जीव तामें जे सयानहें कि,जीवात्मे सबका मालिकहै या विचारहें ऐसे जे गुरुवाछोगह ते सयान जोजीवहे ताकीखा- इहें कहे पासण्डमतमें छगाय नरकमें डारिदेश्हें चौथ जो ईश्वर और सत्र देवता तामें जे सयान हैं अर्थीत्‌ उनकी उपासना जो करे हैं ईइबर देवता तिनको अपने छोककों ढेनाय हैं २॥ पंचयेंसयान जानेकोई। छठयें महँ सवगयेविगोई ॥३॥ सतर्येसयान जो जानोभाई लोक वेद महँदेहुदेखाई॥ ४8

पॉचोइन्द्रिककी विषय तिनमें ने सयानहैं ते तो वे कछ नानतही नहीं हैं बद्धही हैं भरु छठों है मन ताहीते सबैंगैठ विगोइगई है॥३॥सातवें सयान नो साहब ताके जो जानो तो हे भाई ! छोक वेदमें में देखाय देऊें कि नेते बणेन करिआये तिनते साहब परेहै साखी विजकवतावे बित्तको, जोबितगुप्ताहोइ॥

शब्द बतावे जीवको,बूझे विरकत कोइ ५॥

श्री कबीरजी कहेंहें कि जैसे जौन बित्त गुप्तहोयहैं कहे गाड़ा होंइ तैंने धनको बीजक बतावेंहे तेसे सारशब्द जोरामनामबीनक सो साहब मुख अभ्थैमें जीवकों बतावे है कि तू साहब को है तेरोधन साहिब है सो या बात कोई

बिरलासाधु बूझँहै इति सैंतीसवीं रमैनी समाप्ता |

( ११२ ) बीजक कवीरदास 4 # अर. (8. अथ अड़तासवृरभना चोपाई। यहिविधिकहों कहानहिंमाना|।मारगमाहिपसारिनि ताना१

|+० पी 4 मलिक की

रातिदिवसमिलिजोरिनितागा। ओदतकाततभर्म नभागार भेम सवधघट रहो समाई। सर्मछोंड़ि कतह नहिं जाई॥३॥

प्रेनपूरि दिनोंदिन छीना।जहां जाहु तहँ अंगविहीना ॥8॥

जोमतआदिअंतर्चालिआया।सोमतिउनसव प्रगटसुनाया *

साखी वहसदेश फुरमानिके, लीन्हो शीशचढ़ाय संताहे संतोपसुख, रहहु तो हृदय जुड़ाय ६॥

१5.

हर गॉकहा रू [० [हक याहिविधिकहोंकहानहिंमाना।मार गमाहिपप्तारिनिताना १॥ कबीरनी कहेंहें कि सतयुगमें सत्यखुऋत नामते, भेतामें मुनीनद्र नामतें, - द्वापरम करूणामय नामते, कलियुगम कबीर नामते, मैं चारों य॒गमें नीवनकों रामनामको अर्थ साहबमुख समुझायो पे कोई जीव कहा मान्यों वेदमार्गमें ताना पसारतभये कहे अपने कहें अपने अपने मतमें अर्थ करिलेतेभये

/ यी 2७

रातिदिवसामैलिजोरिनितागा।ओटतकाततभर्मन भागा र॥

रातिउ दिन तागा नोरतमये कहे वेदार्थकी अपने अपने मतमें छूगावत भये अथीव्‌ जहां जहां आर्थ नहीं छमगैहै तहांतहां अपने मतमेँ योगित करतभये ओटत कातत कहे शंकासमाघधान करत करत भर्म भाग्यों इहां ताना अथम क्यो ओटब कातब पीछे कह्मों सो प्रथम शेका समाधान कारके काति ओरे कै ताना तनतमये अर्थ बनावत भये नब बन्यो तब फेस्फेर शंका समाधान करे ओटिकाति अर्थेकों ताना पसारत भये भर्म भाग्यो एक सिद्धांत भयो २॥

रमेनी। (११३) वि है धर * हि श्‌ ' भर्में सबघट रहोसमाई मर्मछोड़ि कतहूं नहिं जाई ॥३॥ प्रेनपूरदिनोदिनछीना। जहां जाहु तहूँ अंगे बिहीना ॥8॥ + किक लखाया . जोमतआदिअंतचलि आया। सोमतउनसवप्रकटलखाया< वही भर्म घट घटठमें समाइ रहो है भम छोड़िके अनत जात भये वही सेशयमें रहिगय॥ ३॥पूर नहीं परहे कहे निश्चय नहीं होइहै दिनौदिन क्षीण होते जाई क्षीणकहां होहहै कि, यह जॉनेहे कि हमारो अज्ञान दूप्भियों पै नहां जईहै तहैं निराकार घोसखई मिहँहै हाथ कछु नहीं छगेहै ॥४॥ बेदकों अर्थ तो परोक्षेदेकह अमगरहै तातपये वृत्तिकरिंके साहबको छखावेंहै तौन अनादिमत ताकों समुझतभये वहवेदकों अर्थ गुरुवाढोग प्रगढ करिके अर्थाद भपरोक्ष मौन आदि अंतते चलो आयो है ताके बड परिगयों 6 / 0 विश साखी वहिसइेश फुरमानिक, लीन्हों शीशचढ़ाइ कर + सताह सताषसुख, रहहुतोहदय जुड़ाइ वहीं तत्त्वमसि उपनिषतकों संदेश शीश चढ़ाइ लेतेभये वेदनमें वाणीमें तात्पर्य करके सांचपदार्थ कह्मो ताको जानतभये संतपद संतोष सुखहे तौने जो रहो तो हृदय जुड़ाइ औरेमें तो तापईं होइगो काहेते सबतें परे है नाकों साहब दूसरो नहींहै ऐसे ने चक्रवर्ती श्रीरामचन्द्हैं तिनको जबपायो तब उनते कम अह्महोबकी ईश्वरके मिलिवेकी और मायिक नेपदार्थ हैं तिनके मिलिबेकीचाहई होइगी काहेते कि वहचकवर्ती के मिलिवेकेसमसुख नहीं है अह्मानंद विषया- नंद आदिकनमें जबलगैगो तहहीं सबते संतोष हे याके मन झांतड्ै नाइगो॥ ९४ इति अड़तसर्वी रमैनी समाप्ता

अथ उन्ताछीसर्वी रमेनी चोपाई। क्‍ जिन्हकालिमाकालिमाहँपढ़ाया ।कुदरतखोजितिन्होंनहिंपाया करिप्ततकर्म करे करतूती वेद कितावभयासवरीती ॥२॥

(११४) बीजक कबीरदास

करमतसो जो गरभओतरिया। करमत सोजो नामहिधरिया रे करमत सुन्नति ओर जनेऊ। हिंदू तुरुक जाने भेऊ॥४॥

साखी पानीपवन सजोयके, रचिया उत्पात शुन्पहिसुरतिसमानिया, कासोकहियेजात ॥५॥ जिन्हकलिमाकलिमाहपढ़ाया।कुद्रतखोजितिन्होंनहिंपाया करिसतकम्मकरेकरतूती वेदकिताब भया खबरीती २॥ जिन्‍्ह महम्मद सबको कलियुगमें कलिमा पढ़ायाहे तेऊकह्योहि कि हम अस्लाहके कुंद्रतिकों खोजकहे अंतनहीं पायो ॥१॥ आपन आपने मतकरिके

ही कक. घ्

करतूति कैंके कमे करनछगे सो वेदकिताब सबरीति इजातभये करमतसाजागभअंतारया | करमतसाजानामाहपारया

क्रमत सुन्नाति ओर जनेऊ। हिंदू तुरुक जानिभेऊ ॥४॥

“कर्महिते गर्भमें आय अवतार लेतेमये अरु कर्महीते नामपरतभये कर्मेते सुन्नति जनेऊ चढछतभयों ताको भेद हिंदू तुरुक दूनों लानत भये

साखी पानी पवत संजोयके, रचिया उत्पात | शुन्यहिसुरतिसमानिया, कासोकहियेजात ॥५॥

पानी कहेविंदु अरुपवन ये दूनोके संयोग ते गर्भभयो कहे शरररूपी उत्पात खड़ाभयो से कमे में छंग जन्म मरणादिक येते उत्पात भये पे कम ने छोड़ तमये अरु निन कर्म छोंड़ियोऊकियो तिनकी सुराति शन्यैम समाइ नाती भई सो वहांकी बात कारसों कही जातहे अर्थीत्‌ काहूसों नहीं कहिनायेहे नेति- नातिकहिं २३ हैं अथाव्‌ उहां ते गशन्येहे कुछृहाथ रूग्यो

शति उन्तालीसंवी रमैनी समाता

रमेनी (११५ ) अथ चालीसवीं रमेनी

चोपाई

आदम आदि सुद्धि नहिंपावा।मामाहोवा कहेँ ते आवा॥ तवहाते तुरुक हिन्दू।/मायके रुधिर पिताकिबिन्दृ॥२॥ तबनहिहाते गाय कप्ताई।कहुविसमिल्लहकिन फुर मा ई॥ ३॥ तबनारद्योंहे कुछओजाती।दोजकभिस्तकहां उंतपाती॥७॥ मनमसलेकीखवारि जाने।मतिभुलानदुइदी नवखाने॥ «॥ साखीं संयोगे का गुनरवै, विनयोगे गुणजाय

जिद्दास्वादकेकारणे, कीन्हे बहुत उपाय॥

आदमआदिसुद्धिनहिपावा मामाहोवाकहँते आवा ॥१॥ तबहोंते तुरुक हिंदू मायकेरुचिरपिताकेविंदू ॥२॥ आदि जआदम जे त्रह्मा ते मामाकहे जगतपिता हौवा नामऐसी जो वाणी मेहयाकी नारी सो बह्मही सुधि ना पायो कि कहां ते आई है १॥ तब भादिमें हिंदुग्हे तुरुकरहे मायके रुषिरते पिताके बिंदते गर्च होइहै सोऊ नहीं रहो २॥ क्‍ क्‍ तबनहिहोतेगायकसाई | कहुविसमिकहकिनफुरमाई ॥३॥ तवनरहोहेकुठ ओजाती | दोजकमभिस्तकहांउतपाती॥ 8४

मनमसलेकीखबरिनजाने।मतिथुलानदुइृदीनवबखाने . तब गाइ रही कसाई रहे सो जो बिसमिक्का कहिकेहछार करे है यो किन फुरमाइहै अरु तब कुछरहो जाति रही दोनक भेस्त कहांरहोेहै मनके मसलेकी सुधि जान्यो कि मेरेमनैंके बनाये हैं दोनोंदीय अपने आत्माको मत न्‌ जान्यो कि: यह हिंदू हैं मुसलमान है मतिहीन दुइदीन बखानत मय

(११६ ) बीजक कबीरदास

साखी संयोगेका गुणरवे, विनयोगे गुणजाय जिहस्वादके कारणे, कीन्हे बहुत उपाय ॥६॥ जब मनकों आत्माकों संयोग होइहै तबहीं संकल्प होइईहे तबहीं गुणहो- यहै अरुमब मनको आत्माकों संयोग नहीं होइ है तबगुण जाईह कहेंगुणी नहीं रहेहै अरुसंकत्पा नहीं रहेंदे सोनर नेहैं ते निह्ना सुखके कारण शिश्न ( इन्द्रिय ) सुखकेकारण बहुत उपाय करतभंये जो मन ओऔ आत्माकों संयोग छोड़ावनको उपाय करतभंये ने मन आत्माकों संयोग छोड़योहै ते आपने स्वस्वरूप को प्राप्त भये हैं इति चाल्रीसवीं रमेनी समापा

अथ इकतालीसवीं रमेनी चोपाई

अंबुकिराशिससुद्रकिखो ह।रवि शशिकोटि तेतिसोभाई॥ १७ मेवरजालमें आसनमाड़ा।चाहतसुखदुखसंग छाड़ा॥२॥ दुखकामर्म काहुनहि पाया।वहुतभांतिके जग बोराया॥३॥ आपुहिवाउर आपुसयाना ।हृद्यावसत रामनहिजान|॥ ४॥

साखी तेई हरि तेइ ठाकरा, तेई हरिके दास जाम भया नयामिनी,भामिनिचलीनिरास॥«॥ अम्डुकिराशिसमुद्रकी खाई रविशशिको टितेंतिसी भाई भवरजालमें आसनमाड़ा। चाहतसुखदुखसड्रनछाड़ा॥२॥

. अंबुकदे बिंदु ताकीराशि शरीरहै समुद जो है संसारसागर ताकीखाई है अर्थात्‌ संसारहीमें सवशररपरेहँ जैसे जछूमीव समुदमे रहहे तेसे ताना जीवनकें

रमेनी (११७ )

शरीर परे रहे हें सूर्य चंद्रमा तेंतीस कोटि देवता यही संसारसाग* रके मँवरनाहमें परे कबहूं नरकको जायहैं कब्र स्वर्गकी जायहैं याहीभांति सब जीव सब देवता चाहत तो सुखकों हैं कि हमको सुखहोय पे दुःखरूप जो संसारहै ताको संग नहीं छोड़े हैं

दुखकाममंकाहुनहिपाया वहुतभांतिकेजगबोराया ३॥ आपुहिवाउरआपुसयाना/हद्यावसतरामनहिजाना

वह दुःखरूप जो संसारहै ताको मर्मकाई जानतभयो बहुत भांति करिके जंगमंतबनीव बौरायगये॥ ३॥सो जीवजेहें ते आपुद्दीती बाउर होतभेय अरु आप« हीते सयान होतभये हृदयमें बसत जे श्रीरामचन्धहैं तिनकी जानतभये अर्थोव्‌ जे संस रमें परे हैं ते तो बाउरई हैं ने आपनेको बहुत ज्ञानी माने हैं सयान मानें तेऊ बादरै हैं अर्थांव ने और> ईइपरनके दासभये जे आपहीकों अहम मानत भये कि हमहीं बह्नहें भो आपने आत्मेको मानत भये तिनकी साहब को ज्ञान नहीं होयहै यहितुते दुःसही को सुख मनेंहे

साखी तेई हरितेई ठाकुरा, तेई हारिके दास जामें भया यामिनी, भामिनिचंली निरास॥«॥

तेई ने जीवहें ते अपने को हारे मानत भय आपनेही को ठाकुर मानत भये कि हमहों जगतकतों हैं और आपनेहीं को हारेके दास मानतभये अर्थात सब आपहीको मानतभये यामिनी कहाँपे है छगनिया वह बस्तु कराइदेइ है सो पूरागुरु कहवै है सो यह जीवको उद्धार कराइदेई है स्रो नो जो जीव पूरागुरु रामोपासक ना पाया जो समुझाइदेइ कि यह धोखाहै तिन जीवनते भामिनि जो मुक्ति सो निराश ह्ैगई कि मुक्ति होयेंगे

इति इकतालौीसवीों रमेनी समाप्ता

(११८ ) वीजक कबी रदास अथ बयालीसवीं रमेनी क्‍ चोपाई जबहमरहल रहानहिकोई ] हमरेमाईरहलसवकोई है ११% कहहुसोरामकवनतोर धैवा। सोसमुझायकहामोहिंदेवा ॥२॥ फुरफरकहरँ मारुसबकोई। झूठे झूंठा संगति होई आंधर कहे सबे इमदेखा।तह दिवियारपैडिसुंहपेखा ॥४७॥ यहिविधिकहोमाजुजोकोई। जसमुखतसजोहूदयाहोई ॥५॥ कहाहि कवीरहंसस॒कुताई | हमरे कहले छुटिहोभाई 5६

जबहम रहलरहानहिंकोई हमेरेमाहँरहलसबकोई ॥१॥

केहहुसोरामकीनतोरसेवा।सोसमुझायकहो मोहिंदेवा २॥ ___ श्रीकबीरनी कहे हैं कि जबहम साहबके छोकमें रहे हैं तबतुम कोई नहीं रेहहीं तुमसव हमरे साहब लछोकप्रकाशंमें रहेहीं ॥१॥ अपनेको रामती कहौहो तुम्हारीसिवाकीतहै कहाँ वेद्पुराणमें लिखोहे कि इनकी सेवा किये मुक्तिहोइगी सो तुमदेवता वें आदी पर ओम ले परन्‍्त म्रोक़्ों समुझायके कहाती कौन मुनि तुम्हारी सेवा कियो है-काकी.म्ु्ति भई है २॥ कि किक विद $ विद फुरफुर कहरमारुसब कोई झूठेझूठासंगतिहोई जो कोई फुरफुर कहहै तो सब मारनधावैहै अथोत्‌ जो कोई कहैंहे कि तुम सतहों साहबकेहो तो मारन धांवे है शाखार्थ करि छरे है काहेते छोकमें रीतिहे कि झूंठेकी झेठेनसों संगतिहोयहै सो सांच जो जीव सो झूंठामन उत्प- त्तिकरिके झूंठा जो धोखातब्रह्म ताहीके संग होत भंये हे आंधरकद्देसबेहमदेखा तहँद्ठियारपेठिमृंहपेखा साहबके ज्ञानते बिहीन जे आंधर हैं ते याकहै हैं कि वेदशाख्र पुराणमें अथे सबहम ब्रह्मरूपई देखाहै जाके देखेते सबको ज्ञान हमको ह्वैगयों तामें

रेमी। (११९)

प्रमाण (येनाश्र॒तंश्र॒त॑भवत्यमतंमतमविज्ञातं विज्ञातं भवति)॥तहां ।दीठियार ने साहबके देखनवारे ते वबोई श्रुतिनमें साहबमुख अर्थ देंशेहँ केस जैसे येनाश्रुततें अत कहे जीने रामनामके सुने जो नहीं सुनाहै सोऊसुंने अलहोइजाईहै काहेते वेदशासत्र पुराणादि रामनामहीते निकसे हैं जोने रामनामके जनेते यह जो असत्य है सर्वत्र अह्ममानिबों घोखा सो मत होह जाईहे अर्थ|त्‌ परमपुरुष श्रोरामचन्द्रकों वितअवित बिग्रही सब को माने है मन बचनके परे जें अविज्ञात साहब ते रामनाम साहबमुख अर्थ में व्यंजित होयहै अथवा रामना* मकी जानिके साधन किहेते साहब हंसरूप दे तब जाने जाइहैे

>प ्पीि.. ३३ नि >>. ह5 यहिविधिकहामानुजोकोई जससुखतसजोहदयाहोई॥«॥

/+ + विश | हा अर ९5 कहहिंकवीरहंससुसकाई हमरे कहले छुटिहो भाई॥ ६॥ सो याभांतिते में सब जीवनको ममुझाऊंहों पैकोई बिरछा मनेंहे कौन

चर बज अर

मानेंहे जोन जस मुखते कहेंहे तेसे हृदयते होइहें ५॥ कबीरजी बह कि मुसकाईं मुसकेबंधी जीवोहमारेही कहेते तुम छूटोंगे ओरि भांति छूटींगे मुकुताई पाठहोय तो याअथ मुक्तिहोबेकीहैईच्छानिनके इति बयाहीसवीं स्मैनी समाप्ता | | क्‍ा _4 5 अरे अथ ततालासवा रप्नना। चोपाई जिनाजिवकीन्हआपुविद्ववासा! नरकग्येतेहिनरकहिवासा आवत गत लागहे वारा।कालअहेरी सांझ सकारार॥ चौदहिविद्यापाढ़े समुझातै।अपनेमरनाके खबरि पावि३॥ जाने जिवको परा अदेशा | झूंठ आनिके कहे संदेशा॥४॥ संगतिछोंड़ि करे असरारा। उबहे मोट नरककी घारा॥«॥

( १२५० ) बीजक कबी रदास

साखी गुरुहोही मनमुखी, नारी पुरुष विचार | तेनरचोरासीभमाहिं, जवलागे शशिदिनकार ॥६॥

जिनजिवकीन्हआपुविश्वासा।नरकगयेतेहिनरकाहिवासा

जें नर अपने में विश्वास कियों कि हमारो जीवात्मोहे सोई मालिफहे दूसर नहीं हैं। एकेंहै ते नरफी मुक्तिकी बाँतें कौनकहे वे स्वगेह नहीं जायहैं नरकमें जायके नरकहीमे वाप्त किये रहे हैं काहेते नरकही जाय॑हैं कि इहांतो तीय प्रत संयम जो स्वगेजावे को उपायेहे तेतीमिथ्यामानिछांड़िदियो जीवात्मैको- मालिकमान्यों दूसरा माढिक मानन्‍्यो जो यमतें रक्षाकरे वेद पुराण को मिथ्या मान्यों छूटनकों उपाय एकी कियो जब यमदूत मोगरालेके मारन- लगे बांधिके कांटामें कठ़िछावनछगे तबमृट्पुकारनलाग्यों गुरुवा छोगनकों ते रक्षा किये ओगुरुषाडोगनहूकी वही हवारू देखनरूग्यों सो साहबकी नाम तो सबछोड़ेंके लियानहीं नो यमंते रक्षाकरि वहांको दैनाय इहांस्वगनबिवारों- सुकमे कियो नहीं ये अहमक ऊंटके से पाद जन्म गँवाइ दिये इतके भय ना “डतके भये तामें प्रमाण “रामनाम जान्‍्योंनहीं कहाकियो तुमआय इतकेमय उतके राहियाननमर्गवाय” १॥

आवतजातनलागाहिवारा काल अहेरीसांझसकारा २॥ चोदहाविद्यापढ़िस हुझात अपने मरणकिखबरिनपावे॥ ३॥ आवत जात बारनहीं लंगेहै कहे पुनिपुनि जन्म लेइ है कार जो अहैरीहै सोसांझ सकार उनहींको खायहें वही बासना उनकी बनीरहैंहे फेरि वाही मनमें आरूठहे फेरि वही नरकही को जायहै॥२॥ओ चौदहौ विद्या पढ़िके भुरुवाछोग नहें ते ओरेकोतों समुझायें हैं परंतु अपने मरणकी खर्बारे नहीं पावर ॥३॥ जानोजियकोपराअंदेशा। झूठ आनिके कहे सँदेशा॥ संगति छोड़ि करे असरारा उबहे नकंमोटको भारा॥«॥

रमेनी ( १२१ )

जे जीवात्महींकी जाने हैं साहबकी नहीं जनेहैं तिनहीं को अंदेशपरहै काहेते कि सब झूंठहोंहे वही संदेश कहैह जबयमदूत म[रनछूंगे तब वा मारु- दोखे उनको अदेश परेहे कि हमारी रक्षा कोनकरे है सो या पापिनकी दशा गरुड़ पुराणमेंप्रसिद्धाहे साहबके जाननवारे जेसाधुह ।तिनकी संगति छोड़िके जेअसरारकहे कफरई करेहें अपने जीवात्मैकों मालिक मानें साहबको नहीं जोनेहें उकहे वे नेदुष्हें ते बहै मोटनरककों भारा कहे नरकको है भार नामें एसी जोमायाकी भोटरी ताहीको बहैं कहे ढेवेहें

साखी ग्रुरुद्रोही मनसुखी, नारीपुरुषविचार

तेनरचोरासीभ्रमहिं, जब लगिशशिदिनकार॥ ६॥

कवारजी कहेंहं कि शुकादिक मुनि वेद पुराण साधु जे ले साहबके बतावन वारेहें सो येई गुरु नो कोई इनकी बाणी को मिथ्या माने है सोई गुरुद्ोही है सो गुरुद्रोही मनमुखी कहे अपने मनैते नारिनर बिचारिके ने

जन

एक जीवात्महींओ माडिकमाने हैं ते चौरासी लक्ष योनिही में जवरागि सु्यंचन्त्र मा रहे हैं तबछूगि वाहीमें परे रहैहें |

इति तेंतालीसवीं रभनी समाप्ता।

ञअ थ्‌ 5 के मेनी अथ चोवालीसवीं रमेनी चोपाईे कवहु भये संग साथा। ऐसो जन्म गँवाये हाथा॥ १॥ बहुरि ऐसो पही थाना। साधुसंगतुमनाहि पहिंचाना २॥ अवता होइ नरक बासा। निशिदिनपरेलवारके पासा॥ ३॥

4

साखी जात सवन कहँ देखिया, कहै कबीर पुकार॥॥ चतव्रा होह तो चौते ले।दिवस परत है धार 8

(१२२ ) बीजक कबीरदास

[4] वीक कै विकार हि ्ड) लक कृवहुन भये संग साथा ऐसो जन्म गवाये हाथा॥ साहबके नाननवारे ने साधु तिनकों सत्संगकबहूं कियो उनके बताये साहबकों साथ कबहूं कियों जेहिते आवागमन रहित होय मनुष्य ऐसोनन्मः अपने हाथते गमायदियों के

वहुरि ऐसो पेहोथाना साधुसंगतुम नहिपहिचाना॥२॥ अवतोरहोइनरकमंवासा | निशिदिनप्रेलवारकेपासा ॥३॥

ऐसोस्थानक्दे मनुष्यदेह तुम फेरि पावोंगे साधुसंग तुम नहीं पहिचान्योंहै साधुसंगकरों नो पूरागुरु पाइजाडगे तो उबार है जाइगो॥२॥ पोखाने है बह्न माया तके उपदेश करनवारे जे हैं गुरुवाढोग छूवरा तिनके पाप्त में निशि- दिन परयो है सो बिना पारिख तेरों नरकही मो बासहोइगों हे

साखी जातसवनकर्ँदेखिया, कहेंकवीरपुकार चेतवाहोहुतो चेतिले, दिवृसपरतहे घार

दूनों बरह्ममायाके धोखा में लव को नर फेतदेखिकै कबीर जी पुकारिकैं कहेंहँ कि चेतिबे को होइ तो चेतो नहींती दिनेके तिहारे ऊपर थारपेरेहे कहे

गुरुवालोगनको डाकापरेंहे भाव यह है जो गुरुवा छोगन को डाका लुह्बारे ऊपर परेगो वह ब्रह्म को उपदेश करेगो तुझारे वह धोखा दृठपरिना- इगो तो तुम मारेपरोगे कहे नेसे मरा काहूको फेरो नहीं फिरे है तैसे तुमहू

वह धोखाते काहके फेरे फिरोंगे अर्थांदकाहकीं कहा ने मानोंगे तो संसार- हीमें परेरहोगे बहुत बड़ेबड़े वही धोखाते बह्ममेपरिके मस्गिये साहबकों ले.

नानत भये सो आगेकहेंद इति चोवालीसदीं रभदी समाता !

रमेनी ( १२१ )

अथ पेंतालीसवीं रमेनी

चापाइ

हिरणाकुश रावण गये कंसा।कृष्णगयेसुर नर घुनिर्ब॑सा॥ १॥ ब्रह्मा गये मम नहिं जाना | बड़ सबगयो जो रहेसयाना २॥ समुझिनपरीरामकीकहानी।निरवकद्थकिसरवकपानी ३॥ रहिगोप॑थ थकितमो पवना।इशोदिशाउजारिसो गवना॥ ४॥। मीनजाल भो संसारा।लोह कि नाव पषाणकी भारा॥५॥ खेवे संवे मरम नहिंजाना तहिवो कहे रहे उतराना॥ ६॥ साखी मछरी सुखजस केचुवा, सुसवन म॒हँ गिरदान ॥'

सपनमाहँ गहेजवा, जाति सबनकी जान

हिरणाकुशरावणगयेकंसा। कृष्णगयेसुरनरशुनिवंसा॥ ३॥ ब्रह्मागयेमरमन्ि जाना वड़सवगये जोरहेसयाना॥ २॥

श्रीकबीरजी कहे हैं कि हिरणाकुश रावण कंस मरिनात भये इनती- नोंके मरवैया काठस्वरूप जे कृष्ण तेऊ मरजातमये दक्नों अवतार निरंमन नारायण ते होइ है या हेतुत मरिजानवारे तीनिकह्यों मारनवारों एकहीकहों सुर नर मुनि इनके बदशवारे तेऊ मरिगये ब्रह्मा आदिक जे बड़ेबड़े

हक दिये ७.

सयानरहें वेऊ वेंदकी तात्पयें जान्यो मरिगये २॥ समुझिनपरीरामकीकहानी निरवकदथकिसरबकपानी डे॥ रहिगोपंथथकितभोपवना | दशोदिशाउजारिभोगवना॥४॥ रामकी कहानी कहे रामनामकी कहाने जो चारो बेदकहैहें सो काहको समुझिपरी थों निरबक दूषहीहै थों पानिहीपानी है अर्थात्‌ निनको परमपुदरुष श्रीरामचन्द्र को ज्ञानभयों वेदकों तालर्यबूझयों साहबमुख अर्थरुगायों सोदूधही

(१२७४ ) बीजक कवीरदास

| आधा

पियतभयों औनो जगवमुख अर्थमं छग्यों सोपानिदीपानी पियतभयों साहब मुख अर्थ जान्यो एते सबमरिगये॥३॥अपने अपने पन्‍थ चलावतभये जब पवन थकितभयों कहे इयासाराहितमई तब दकश्ोदिश्ञा कहे दशो इंन्द्रनद्वारके ले देवता ते जातप्हे तब दश दारकों जो शरीरगाई सो उजारे ह्वेगयो कहै-मरिगये यांते या आयो कि जे नानामत चलूवे हैं मतयहै रंहिनायहै जा शरीरंमें मरिके सये ताहीकी सुधि रहेहै '

मीनजालभोई संसारा कोहकिनावपषानकोभारा «५॥

याही रीतिते मरत जियत जे मीनरूप जीवहैं तिनकी यहि संसारसमैुद में बाणी जालफंदनको भंयों सो जे जारूमें फँदे ते तो अविद्याके जाहुमें फँदेही हैं जे उबरे चाहे हैं तेमड़वत्‌ नोमन पाषाण तांहीको है भार जामें ऐसी नोअविद्या- रूपी छोहेकी नाव तामें चढ़े सोवह बूड़िही जायंगी फिरवही संसारमें परे रहेहें खेंबे संबे मर्म नहि जाना | तहिवो कहे रहे उतराना ॥६॥ सब गुरुपानन सेव हैं कहे वहीं धोखात्रह्ममें लगवै हैं या कौेहैं कि हम मर्मनान्योंहै तुम यामें छगी पारहेनाउगे सोवह जो संसारसमुद्र में अविद्या- रूपी नाव मन पाषाण ते भरी बूड़िही जायगी तामें गुरुचेढा दोंउ बूड़िदी लायैंगे पार पावेंगे अथाव वेदान्त आदि नाना शासत्रनमें नाना तर्क उठाय डठाय बिचार करतऊ जायहैं संकल्प बिकल्प नहींछुटे ताल तो जाने नहीं ननन्‍्मभरिे चेढापूंछतई जाय है परंतु तबहूं यही कहे हैं कि तुम संसार समुदर्मे उतराने हो कहे उबरेहों यह नहीं विचौरेहैं क्ले संकल्प बिकत्प छूटबई नहीं कियो संसारते केसउबरेंगे

साखी मछरीमुखजसकेचुवा, सुसवनसुंहगिरदान

श्‌र 8) सपन माह गहेजवा, जाति सबनकी जान ७॥ जैसे मछर्रेके मुखमें केंचवा मुसवानके मुहँमें गिर्दान अथीत्‌ जब मूस गिदानकी रंगदेखयो तबछाछमास अथवा छाछू फछ जाति घरनधायों लब फक

रमेनी ( १२५ )

मारयों तव ऑपरहैगयो गिदीनेहीं मृसफोखायलियो सर्प जैस गहेजुवा कहे छछ्ृंदरकों धंरहे नो उरगलि तो आँधर द्वैनायहै सायतों मारेनाय ऐसे सक- जीवनकी जातिहे ने कर्मकांडीहैं ते जैसे मछरी केचुवाको मब खायहै तब मुहँमें बसी चुभिनायेहे वाहीमें फँिनायह तेसे स्वगोदिकफल की चाहकरि कैंमेफ्रहे जनन मरण नहीं छूटेंहे काल खायलेइ है ओऔ जे ज्ञानकांडीहें ते साहबको ज्ञान तो कार्चोहैं अपने शाखबर्ल या कहेहें कि हम समझायके पाखं- ढमतवोरे जे हैं तिनकी अपने मत विंगे या बिचारे तिनके यहांगये सो बे धोखा बह्मरूप डपदेश फेक ऐसा मारथों के आंधरे है गये साहब को जोन ज्ञानरहै सो भूलिगये तो उनके खाबेको पे वोई उछटिके खागये उपासना कांडी जे हैं ते अपने अपने इष्टकी उपासना धरयो सोती छोड़तहीनहीं बनेहै ढरेहै कि देवता खफा होइ आंधर करिदेइ जो छोड़े तो वाही देवताके छोंकगये फेरिआये जन्ममरण नहीं छूगेहै जैसेसांप छछूंदरकों धरयो परन्तु उगिल्त बने छीलतबने ताते कबीररी कहेंहें कि साहबको जानो मनन मरण उनहीं के छुंड़ाये छूटंगो

इति पता रमेनी समाप्ता

अथ छियालीसर्वी रमैनी चोपाई। विनसे नाग गरुड़ गलिजाई विनसे कपटी ओसतभाई विनसेपापपुण्यजिनकीन्हा।विनसे गुणनिगेणजिनची नहा बिनसेअग्निपववनअरुपानी बिनसे सृष्टिजहांलों गानी३ विष्णुलोक विनसे छनमाहीं हो देखा परलयकी छाहीं

साखी मच्छरूप माया भहई, यमश खेलहि अहेर

हरंहर ब्रह्म उबरे, सुरनर शनि केहिकेर «

(१२६ ) बीजक कवबीरदास |

भर बल्माण्डके भीतरहें ते सब नाशमानेहें संप्तार समुदमें ऐसो माया रूपेट्यो कि यह मत्स्य( नींव )माया है गई अथीतव्‌ मिलिगई है कहे जीवनको शर्गरमें डारिदियों है शरीरही देखपरेंहे जीवकों खोननहों मिले है भीतर बाहरमनमास आदिक वह नड़ मायहीदेखिपरेंहै यमरा जो दीमर कालहे सो शिकार खेंलेहे ताते कोर्नहींउबरेंहे कोईहालहीमरेंहे कोईमहापछयमें मरेंहे |

इति कियालीबीं रमैनी समाप्ता

अथ सतालासबा रबना चापादई।

जरासिंध शिशुपालंसँहारा सहस अजैने छल सों मारा१ वड़छल रावणसो गये वीती लरंकारह कंचनकी भीती२ दुर्योधनअभिमानहिंगयऊ। पंडवककर मरम नहिंपयऊ॥ ३॥ मायाके डिभगे सबराजा उत्तम मध्यम वाजनवाजा छांचक्वेविषषराणिसमाना यकौजीवपरतीति आना केहलों कहों अचेते गयऊ चेतअचेत झगर यकमभयऊ

साखी इमाया जग मोहिनी, मोहिसि सब जगधाइ हरिचन्द्र सतिके कारने, घर गये बिकाइ॥»॥ ये ने राना बढ़े * गनाय आये तेसब मारेपरे कोई उत्तम कोई मध्यम कोई निद्ृष्ठ कमेंकारके गये सो कहांलों में कहों चित अचितके झगरा ते कहे चिंते जीव अचित माया दूनौफे संयोंग ते सब जीव पृथ्वीमें मिलिगये अपन शुद्ध आत्माकों जानत भये यह माया जोंहे जगमोहनीं सोसब॒जगको सायक मोहिलेतभ३ हास्शन्द्र जेराजाहें तस्त्यक कारण ववद्यामाया मे बँधिके

घर [बिकाय नातभथ पुत्र बिकानो खी बिकानी १॥ इति संतालीसरबीरमैनी समाप्ता।

रमेनी (१२७ )

अथ अड़तालीसवीं रमेनी चोपाडे

झानिक पुरहिकवीर वसेरी | मदति सुनोशिष त॒किकेरी जजो सुनी जमनपुर धामा। झूसी सुनी पिरनके नामार इकइसपीर लिखेतेहिठामा खतमा पढ़ें पैगमर नामा सुनिवोलमोहिंरहा नजाई! देखि मकरवा रहे लोभाई हवीव ओर नवीके कामा जहँलां अमल सो संवेहरामा %

साखी शेखअकरदी शेख सकरदी, मानहु बचन हमार॥ आदि अंत उत्पति प्रछय, देखो दृष्टि पसार॥६॥ प्रकट कबीरनी तो यह कहेंहें कि मानिकपुरमें रह्मो तहासे खतकी मक्तति सुन्यों कि, मिन पीरनके स्थान जमनपुरमें सुन्यो ते झूसीपारमें आये तहां मैंहूंगयों इकेसों जे पीरहें तिनकेनामलिखे हैं कि ये सब पैगंब- रैकेर फातियां देइहें कलमा पह़ैँहैँ॥ सो उनके बोछसुनि मेपे नहीं रहानाय है मकरवा देखि ये सब भुछायररहे हैं यह जानिकै तहां , में जाइके कह्योकि हवीकहे देवतनकों खाना अथवा हवीब कहे फारसीमें दोस्तकोकहे हैं औनहां भर नाम॑है नबीके ने तुम लेतेहों औनवीके जहांभर कामहे जे पीरछोग तुमको उपदेश करतेहें सो सब हरामहै काहेते अल्छांह तो मनवचनके परहे हे शेख अकरदी हे शेखसकरदी हंमारा कहों नों बचनहे सो सब सांच मानों आदि अंतर्मे नो दृष्टि पसारेके देखो तो नहांभर मनबचनमें पदार्थ आवैदें सो सबमाया को यसारहे अल्लाह नहीं है सो कबीरंनी के चौबिसपरचैंस. खत केलिखे पौंछे जिष्य भये सो सब कथा निभय ज्ञानमें बिस्तारते हैं इति अद्भताद्मीसवीं स्मैनी समाप्ता।

( १२८ ) बीजक कवीरदास अथ उनचासवीं रमेनो

चोपाई।

दरकीवात कहो दुरवेशा। बादशाह है कोने भेशा॥ ३॥ कहा कूच कहकर सुकामा।कोनसुरतिकोकरोंसलामा ॥२॥ मंतोहि पूंछों मूसलमाना। लाल जदंकी नाना वाना ॥३॥ काजीकाज करो तुमकैसा। घर्‌ जबे करावो वेसा वकरीसुर्गीकिनफुरमाया किसकेहकुमततुमछरी चछाया* ददे जाने पीर कहावे बता पढ़ि जग समुझावे॥६॥ कहकवीरयकसय्यद्कहावे। आपुसरीका जगकबुलाव॥७॥

साखी दिन भर रोजा धरती, राति हततहों गाय यहत।खून वहवंदगी, क्योंकर खुशीखोदाय ॥८॥ .. औए पदों स्पष्ठही है॥ १॥ २.५ १६ ४॥ ददेतो तिहोंर दैलमें आण्ती नहीं हैं गरत्ऋत्कटवतमें अल्छाहको बागीचा खराब करतेही अर बैंतें पढ्ि के पीरकहावतेही औनगव को समुझावतेही आर्थाव्‌ हो बेपीर पीर- भर कहवावतेहों॥६॥ सोकबीरजी कहे हैंकि एक सय्यदजेहै वह पीर गुरुवा सों जैसा आप खुआरहै तेंस सबको ख़भारकरे है ॥७॥ दिनको ते रोजा घरतें हो बंदगी करतेहो रातिकों गाईहततेहौ कद्टे मारतेहो शो यह तों खूनकरतेही बहुतभारी वहबन्दगी बहुतथोरी करतेही दिनको खायो रातिं- हीकी खायो क्योंकर तिहारेऊपर खोदाय खशी होय ताते यह कि वह तौ साहबको है सो निनको गछा तुम काटतेही तिनहीं के हाथ तुम्हरऊ गछा

वह साहब कटावेंगे |

शते डनचासाईीं रमेदी समाप्ता |

23० भा भ७+>>+५७+.3५3.....५५.....>

रमेनी ( १२९ ) 23 4 अथ पचासवा रमनी चोपाई। कहतेमोहिंभयलूयथुगचारी | समुझतनाहिमोहसुतनारी ॥१॥ वंशआगिलागे वंशेजारिया।भ्रममुलाय नरघंघेपरिया ॥२॥ हस्तीके फंदे हस्ती रहई। मगी के फंदे मिरगा परह॥ ३॥

आन सी)

लोहे लोह काटजसआना।तियकेतत्त्व तियापहिंचाना॥४॥

साखी नारि रचंते पुरुष है, पुरुष रचंते नार पुरुषहिपूरुष जो रचे, तेहि विरलेसंसार «

चारिड युग मोको समुझावत भयो पै सुत नारीके मोहतेकोई समुझत नहीं है ॥१॥ जैसे बांसकी आगी वांसैको नारिदेश्है तैंसे सुतनाराके मोहरूप अ्रममें. भुलायके नरघंधेमें परे जाइ हैं कोई नाना ज्ञान उपासनामें परिंके जरेंहे कोई भुतनारीके पंधेमे परिके जरेहै ॥२॥ नैसे हथिनीके फंदेहाथी रहेंहे मगीके फुंदे मृगा परे है कहे फेदिनायहै ऐसे जीवके फंदर्म जीवपरेहे )-मैले छोहते छोंह कटिजाय है तैसे नीवहीते जीव यहमारों परैहै। तियकी तत्त्व ख्री पहिचानें ख्री जो ऊंदिनी ताकी तत्त्व वही ननिहै। अथीव नीवही ते जीद श्रेमिजायहे काहेते साहबको तो जानैनहीं जीव जीवही मो विश्वास माने मायामें मिलिके या जीव मायाही में रह्मो है ताते मायाकेही पदार्थमें बिश्वास मानेहै ॥३॥४॥ नारीते पुरुष रचिजाइहै कहे मायाते सब पुरुष भये हैं पुरुष जाँहे शुद्धसमष्टि नी ठाहीते मायाभईं है। पुरुष जो हैं शुद्धनीव सोपरमपुरुष जे श्रीरामचन्दरहैँ सबके बादशाह तिनमें रचे कहे प्रीतिकरे ऐसो कोई बिरलांहै

इते पचासवीं रमैनी समाप्ता |

धागा 4 पामआान -बक--ामकी,

'>न्‍्थमभादााहमपाक या

( १३० ) बीजक कबीरदास | अथ इक्यावनवीं रमेनी चोपाई जाकरनाम अकहवाभाई। ताकर कही रमेनी गाई १॥ कहको तात्पये है ऐसा जस पन्थी वोहित चढिविसा॥२॥

हेक्छुरहनिगहानिकीबाता। बैठारहत चला पुनिजाता ॥१॥ रहेवदननहिस्वागसुभाऊ|मनस्थिर नहिं बोले काऊ॥ ४७॥

साखी तनरहते मन जात॑ंहे, मनरहते तनजाय तनमन एके हेरद्यों, हंस कवीर कृहाय ५॥

जाकरनाम अकहुवाभाई ताकर कहीरमेनी गाई जाकी नाम अकह हैं ताका तो हिन्दू मन बचनकेपरे कहते हैं मसल- «““य-०- चेन बेविगून वेनिमून कहतेंहें सो हम पूछतेहैं “हिन्दक्है कि वह तो निरक्वार होतो तौकहेहँं कि, वेद मेरी शवासाहै शरीर होतो ती वेद इवासा कैसेहेति जोकहोविद तो मायकहै साकारहै तो? मिथ्याके बताये तुमहीं सांव पदार्थ केसे: जानिहो जो कहे साकार तो मध्यम परमान ठहरा तौ अनित्य होईहे अकहुवा होइगो अरु नो मुसलमान निराकार कहैह कि उसके आकार नहीं है तो मूसा पेंगंबरकों कोहनूरके पहाड़ में छुँगुनी देखायो सो वह पहाड़ छार द्वैगयो जो शरीर होतोती छगुनी कैसे देखावतों। कुरानमें लिखेहै कि जिंसतरफ अपनामुंह फेरे तिसी तरफ साहबका मुँहहै, सबके हाथके ऊपर अल्छाहको हाथहै, अल्छाह महम्मदसों कहतेंहें कि, “जिसका हाथप- कणतुने तिसका हाथपकरा में।तब सो इनडीलेंते यहआवताहै' के, उसके शक- छह पे जिस तरहकीशकछ सोकोईनहीं कहिसकैहे काहेते।कि जो उसके मिसारू दूसरा कोई होय तो उसकी उपमार्देके समुझाय सक्ते सों उसकी शकछ तो कोईनहीं समुझाय सक्ता है छेकिन जो कोई उसकी शकछ देखा है सोई जानताहै।

रमेनी (१३१ )

नेसी उसकी शकलहै लेकिन बयान नहीं कर सक्ताहै। कुरान खोदाकी कछाम कहैवात है नो बदन होता तो कलाम कैसे कहते। सो निराकार साकार के परे अकह जो साहब है ताकी रमैनी कहे विसके रूपादि बर्णवकी कथा जबानमें किस तरहसे कहौ, बचनमें तो भाव नहीं है। अथवा माकर नामेंअकहुवांहै ताकेरूप अकहुवा- बनेहै तिसकी कथाकहांक्है जोवाहअकहुवा होयगी जो ऐसाभमया तो जानि परेगो किसूको मिथ्या होयनाइगो तोनेकी कबीरजी कहै हैं कि सबको हमकों अकहुवा है कछू उसको साहबको कोह बात अकहुवा नहीं है हमताहीकी कही रमैनीगाइतंहे सोनोकछुरमेनीमेंलिख्याहे सों सांचही है कहे को तात्परयहे ऐसा जस पंथीवोहित चढ़िवैसा २॥

हेकछरहनिगह निकी वाता वेञरहाचलापुनिजाता॥ ३॥

जोनकहि आये तौनेकों तात्पय ऐसाहै कि पांचशरीरते साहब नहीं मिंलैहै काहेते मनबचनके परेहैसाहव है जोहमसों साहब कहा कि जीवनको रमैनी उपदेश करो ताकों हेतुयह है साहब बिचारयों कि मतवचकेपरे जो मैंहों सो विनामेरे बताये जीव मोको जानेंगे जोकही साहबको कापरी है जानेंगे जीवती साहबके द्याछुताकी हानिहोइहै याते उपदेशकरे कहे हैं सो नोने अकह रामनाम के जंपेते साहब मरुन्नहे हंसरूपदेइदे तौने रामनाम रमैनी ते जानिहे काहेते कि (इच्छाकरभवसागर वोहितरामअधार कहहिं कविरहारे शरणगहु गोबछख॒र बिस्तार)॥ ऐसी साखीर+नी में लिखी है तेहिते या अर्थ आया कि संसारसागर पारहोंवैकी एक रामनामही जहाजमानि नामार्थ में जोशरणकीबि- घिंहे ताको अनुसंधानकरत रामनामजपरे ॥२॥ यहरहनि गहनिंकैकै जैसे वछवा को ख़रलोग उतरिजायंहै ऐसो संसारसागरमें रामनामको अभ्यासकै तारिजाय हैं कैसे जैसे नावकोचढ़ैया नावमेंबेठहै पे पारहोत जायंहै ऐसे रामनामको ज॑पैया

29 ये ७... आर्किक,

संसारसागर में बैठे देखो परेंहे परन्तु पारको चलो जायहै

रहेवदननहिस्वागसुभाऊ। मनंस्थिरनहिंबोलेकाऊ इसतरहके जेहें जिनकेबदनकहे संभाषण करिब ते जीवनकों स्वागकोसुभाऊ कहे अह्द्नेजावो चतुर्भुगादिकनके छोकमें नाइचतुभुन द्वैनावो और नानादेवतन

( १३२ ) बीजक कवीरदास

के ठोंकनाय तिनके तिनके रूपथरिवों सो मिंटिजायहै।संसारता छूटि हौ जायेहे

क्र. जी, आप हैं कक बैक ] शी, जज ्छ च्ह हीं

सो वे बोले हैं मन स्थिरह्ेगयो है कहेमनको संकल्प बिकल्प तो, छूंटेन

है मनते भिन्न हैवो कहा है कि संकरप विकल्पही मनको स्वरूपहै जब संकल्प 8 8 पे

बिकल्य छूटिंगयों तब मनते भिन्न है गयो से केसे मनते मिन्नहाइगों सो साथ- आगे कहेंदें ॥४॥ |

साली तनरहते मनजातहे, मन रहते तन जाय तन मन एक हरहो, इंस कवीर कहाय ॥।

तनजहै वा शरीर स्थूछ सूृश्मकारण महाकारण सोअर्थअनुसंघान करत रामनाम जपत तनते जब रहित द्वेगयों तब मन जातरहे हैं मन जाय है तब चारिउशरीर जात रहैंहें सो जब॒ तनमन एकहैरहे कहे सिंगरें तन प्राणम बंधे हैं सो प्राण मनकी एकघर करिदइसोनाम जपिविधिजानि- तबपंकत्प विकल्प मनको छूटिनाय है। मनते संकल्प बिकत्पकरूपहे खो जब« संकल्प बिकत्पछस्यो तब मननाश ह्ैगयो तब चारिउशरीरको हेत नोहे ज्ञान सौंऊ जातरहेंहे तब चारिउ शरीर भिन्नहनायंदें एक शुद्धआत्मा में स्थिर हैरहें हैं मुक्ति हनाय हैं जैसे पूबंगुद्ध समश्रिष में रह्मोंहे तैसे सो हैगयो। नैसे समर प्ििंजीव जब रहयों है तब जगत को कारणरद्यो आयो है साहबकी जानिबों रूप ताते संसारही ह्वेगयो है तेसे यह नो शरीरनमें साहबकों भनन करिराख्यों सो जब मनादिक याकेछूटि गये जुद्ध हैगयों तब वाही भांति साहब को जानें को कारण रहिगयो। काहेते कि राम नामको अर्थ साहब मुख जानिराख्यो है सो मड्ल में साहब कहिआये हैं कि नो रामनाम जपिके मोको जाने तो में हंसरूपदे अपने पास बृठायलेऊं।याहीते साहब हंस रूप देइ है तब वह काया- को बीरजीय हंस कहांवेंहे। केस हंस कहावे है कि असारजेह-ं चारिउ शरीर मन माया रूप पानी ताको छोड़िदियो सारनोंहे साहबकों ज्ञानरूपदूथता- कोग्रहणकियों अकह रामनाम जो मोती है ताको चुनन छग्यो कहें लेन- रुग्यो सोकबीरनी छिसब कियो है शब्दमें (निर्मेठ नामचुनि चराने बोले) अरु- अकह रामनामई है अरु अकह निर्गुण सगुण के परेहे. श्रीरामचन्द्रई हैं तामें

रमैनी (१३३ )

प्रमाण ( रामकेनामतेपिंडब्रह्मांडसब रामकोनामसुनिभमंमानी निर्गुण- निरंकार के पार परत्रह्म है तासुको नामरड्डारजानी ! विष्णुपूजाकरे ध्यान- शड़रधरे भनहि सुबिरंचि बहुबिबिध बानी कंहैकब्बीर कोई पारपावैनहीं राम को नामहै अकह कहानी )

इति इक्यावनवीं रमेंनी समाता अथ बावनवीं रमेनी। चोपाई।

ज्याहिकारणशिवअजहुंबियोगी।अड्भगविभ्वातिकायभेयोगी शेषसहसमसुखपार पावें सोअवखसमसहितसमुझावेर॥ शेसीविषिजोमोकरँध्यावे छठयें मास दशे सो पावे॥ ३॥ कोनेहं भांति दिखाई देऊ। ग्रुपे रहि सुभाव:सब लेऊ॥४॥ साखी कहहिं कबीर पुकारिके, सबका उद्दे हवाल

कहाहमार माने नहीं, किमिछटे भ्रमजाल॥

ज्यहिकारणशिवअजहुंवियोगी।अंगविश्वतिछा यभेयोगी ३॥ शपसहससुखपारनपावा।सो अवखसमसाहितससुझावे॥

जाकिकारण शिवअंगमें विभूतिछगाइईके योगीमयेपरन्तुअजहूंलों वासों बियो- गी हैं काहेते कि जोबियोगी हो ते तो तमोगुणामिमानी काहे रहते॥१॥ओऔ शेष सहस मुखते कहिके पार पायो तेई दुलम खसम जे परमपुरुष श्रीराम- भर 9 की का रे के कर हज कहे, चन्दहें ते हिते सहित जीवनकोी समुझावहे काहेते जीवनको हित मानिके समु- झावे है कि मोको नानिके मेरे पासआंव संसार दुःख पावे * हेसीबि घेजो के आट बिक 5 निकिक विधिजों मोकहँध्यावे छठयें मास दशेसोपावे नेहं $ (५. ३७0 (्‌ः उुः [# कोनेहुंभांति दिखाईदेऊ। गुप्तैेरदि सुभाव सबलेऊ

(१६३२४ ) बीजक कबीरदास

साहब कहा समुझावैहै कि मैसो पूर्व कहिआये हैं ( नामार्थमें लिखि आये हैं झरनकी विधि ) तैसो अनुसंधान करत रामनाम जपिके निरंतर जो छठयें मास या होइतो नो या शररीरते करेंहे छामहीनामें दर्शन सो पारवेंदे याही भांतिसों जो मोकोध्यावै तो छठ्येमास मेरोदशन पांवै कहे छठो जो हँस स्वरूप तामें स्थिर दैनाय ३॥ ते कौनिउभांतिसों मैं देखाइ देउहोँ निशिद्न वाके साथ गुप्रहिके वाकों सब सुभावझंड जो हृढ्होइ ती राम नाम कासाधक ताक छठी शरीर दैके वाकों पत्यक्ष ह्वेनाउ पाछे रे रघुनाथंजी नित्य बनरहत- हैं तामें प्रमाण॥ ( रामरामेतिरामेतिरामरामेतिवादिनम्‌ वत्संगीरिवगोय्येच्यों- धावंतमनुधावति )

साखी कहाहिं कवीरपुकारिके, सवका उहे हवाल

कहा हमरमाने नहीं, किमिछ॒टे भ्रमजाल «

श्री कंबीरनी पुकारकै कहे हैं कि मिनकोी शेष शिवादिकने पारनहीं पायो यह भांतिके दुर्लेम ने प्रमपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं ते आजुकाल्हि ऐसे सुल्भद्ठै गयेहेँ कि आपई उपाय बतांवै हैं कि जो ऐसो उपायकरें तो छठें शरीर में मोकी पाइनाईं ते साहबको कह्मों में कतनों समुझावतहों पै सब बेवकूफ हैं जीवन को हयाछ उहैंहे कहे वही मायाके नानामतनमें छंगेहें वहीकों बिचार करें जोन धोखाते संसार पायोहै हमारों कहो यतनेहूपे नहीं मानेहे सो ऐसे

की अरे,

दुष्ठ जीवनको श्रमजालढ केसेछूंटे इतिबावनवीं रैमेनी समाता

+ का

अथ तिरपनवीरमेनी चोपाई। महादेव मुनि अंत पावा। उमासहित उन जन्म गैवावा उनते सिद्ध साधु नहिंकोई मन निश्वल कहु केसेहोई २॥ जो लग तन में आहे सोई | तीलूग चेत देखो कोई ३॥

रमेनी ( १३६ )

तबचेतिहो जबतजिहीप्राना भयाअन्ततवमनपछिताना रू 8.3] श् यतनासुनतनिकट्चलिआइई।मनकीविकार छूटभाई «॥ साखी तीनिलोकमों आयके, छूटि काहू कि आश॥! यकआंघर जग खाइया,सबजग भया निराश ॥६॥ उनते अधिक सिद्धिकौन साध्योहे जाको मन निश्चछ हो अथोत्‌ सिद्धिसा- थे मन निश्वर नहीं होयहै जबछग दरीरमें मनहें तबलग चेतन कार्रिके अथवा महादेव ने हैं बड़े बड़े मुनिजहें ते अंतनहीं पायो जो कोऊ जान्योंहै ते वोही साधन तेजान्योंहै कहे ज्ञान करिके वह परम पुरुषकों कोईनहीं देखे हैं कबीरनी कहैहें कि तुम तब चेतिहौ जब प्राण छोड़ोंगे! तब- कहां चेतीगे यह याकु भाव है जब अनतही जाईं झरीर पावोंगे तब मनकी पछि- तावई रहिनायगो जो भया अयान पाठ होइ तो यह अर्थहै कि तुम नो अया* नेमये साहबकोा जान्यो हमारकहा मानवई ने कियो तो अब पछिताना क्‍्याहै पछितातों काहेकाँहै संसार पीर सहो यह सब जगव शाख्नम सुनाहै कि मौत निकट चढीआंवे है हमहं मरिजायेंगे पे मरघट ज्ञान कयेंह्रै मनको बिकार नहीं छोड़ेंहे तीनि छोकमें आइके सब मरिगयों परन्तु काहूकी आशा छूटतभई एक आंपरनोंहे मत सोजगतको खाइलियो सब जग प्रमपुरुषके मिलिबवेको निराश है गयो | इहां आंधर कह्यों सो मन परमपुरुषकों कबहूनहीं देखैंहे काहेतेकि साहबमनबचनकेपरे है भापही शक्तिदेइ्हैजीवकों तबहँंदिखैंहे

8 का,

इति तिरपनवीं रमेनी समाप्ता अथचोवनवीं रमेनी चापाडइ। मारिगयेत्रह्माकाशिकेवासी शीव सहित मृये अविनासी+ मथुरा मरिगयेकृष्णगुवारा। मरि मारे गये दशो अवतारा२ मरिर्मारिगयेमक्तिजिनठानी। सग्रेणमें जिन निगुण आनी हे

( :३६ ) वबीजक कर्वीरदास

साखी नाथ मछदर ना छुट, गोरखदत्ता व्यास कहाई कबीर पुकारिके, परेकालकेफास 8॥ व्ह्मा जेहें काशीके वासी शंभूनेहे तिनते संहित अबिनाशी ने बिष्णु ते मरिणये सो अंविनाशी सबकोई कहतई है औमरिबोकहै हैं सो उनको तो नाश कबह होतही नहीं है महा म्रठयम तिरोषान है पुनि प्रकय्होईहैं यांते अबिनाशी कह्यों है मथुरा के कृष्ण गुवार दज्ौं अवतार तेऊ मरिकहे तिरोधान है गये कहांगये जहां श्रीरामचच्धके आगे हनारन बल्मा विष्णु महेश दृशीअवतार ठद़े हैं नाक नौने अल्माण्डको हकुमहोईहै सो तहां अवतासटै पुनि अपने अंशनमें छीनहोइहे तामें प्रमाण शिवसहिताकों अगस्त्यववचन हनुमा- आते ( आसीनेतमठुध्यायेसहस्रस्तंभमेडिते मंडपेरलपंगेचनानक्यासहराव- पम्‌ मत्स्यः कूनश्कृष्णइचनारसिंहाद्यवेकधा वैकुण्ठोपिहयग्रीबोहारे: केश ववामनी यज्ञोनारायणोधंर्मपुज्ोनरवरोपिच देवकौनेदूनः कृष्णो वासुदियों- वलापिय पृष्णिगमॉमधून्माथीगे।विंदोमाधवोपिच वासुदेवोपरोनन्तः संकर्षी णडरापति: एतेरन्यैड्चर्ससेव्योरामनाममहेश्वरः तेषामैश्वर्यदातृत्व तन्मूछत्य निरीइवर;॥ इन्द्रानामास इन्द्राणांपतिः साक्षीगतिः अभुः बिष्णुस्वयं सविणूनांप तिर्वेदांतकद्धिम :॥बल्मासत्रह्म णांकत्तपि नापातिप तिगीति : रुद्रा णांस्थपर्तारुद्वो रुदकों टिनियामक:॥ चन्द्रदित्यसह त्राणिर्द शो टिशता निच अवतारसहस्राणि शक्तिको टिशतानिचा अल्मकोय्सिहसाणिदुर्गकोटिशतानिच सभांयस्यनिषेवंतेस श्री - एमइतीरितः )॥ औनिनप्गुण भक्तिड्रों ठानी है तेऊमारिगये ले निगुणआन्यों है तेऊमरिगये याते यह आयो कि निगुण सगुणवारे भक्त दौ म- रिंगये रे मछंदर गोरख दत्ताजेय ओऔ व्यास सोईं योगऊ कियों छूटिबेको पै श्रीकवीरजी कहे हें कि सबकालके फँसमें परतभये कहे महामयमेनाशद्वेगये गहामरूय में जबब्नह्मा मरे हैं तब कोई हीं रहेहें !४॥

हद हा

इंति चोवन्ी रमैनी समाप्ता

रमेनी ( १३७ 3

अथ पचपनवीं रमेनी चोपाई।

गये राम अरुगये लक्ष्मना। संग नगे सीताअसघना जातकाखनलाग वारा गये भोज जिन साजल घारार गे पांडवकुन्तीसी रानी गिसहंदेव जिन मति बुधि ठानी३ सब सानके लुक उठाई चढुत बार कुछ संग लाइ७ कुरियाजासु अंतरिक्ष छाइ हरिचन्द्र देखिनाहिं जाई « मूरुख मानुष अधिक सजोवै।अपना झुवछ ओरलगिरोवे5 जाने अपनो मरि जैबे टका दश विडे और ले खेबै७ साखी अपनी अपनी करि गये, लागिन काहके प्षाथ॥

अपनी करिगयो रावणा,अपनी दशरथ नाथा८॥

गयेराम अरुगये लक्ष्मना। संगनगे सीता असिधना १॥

देवतन मुनिनकी कहिआये हैं अब राजनको कहै हैं काहेते कि, आंगे दश- अवतार कहिभाये हैं इहां पुनि राम कहे है तहां इहां जे जीव राम राजा भये ताकी लक्ष्मणको महाभारतसभापर्यमें नारद युधिष्ठिस्ते कह्मोहै रामनके गिनतीमें यमकीसभाम तिनको कहे हें कि, रामगंये छक्ष्मणगये संगम चीता असनारी नातभई जो यह आर्थ कोई माने तौयह कहै हैं कि, नारायणके अवतार रामचन्द्रहें तिनंहीको नाइबों कबीरकहै हैं तो कबीरणी तो सांचके कहवैया हैं झूठी केसे कहेंगे सब रामोयणम बर्णेन है कि मथम जानकी शरीर दे सहितगई हैं पुनि श्रारामचन्द शरीरते सहित जातभये जिनके संग श्रीशक्ति भूशक्ति' छीलाशक्ति शरीर सहित चलीजातीहैं सो जो कबीरजी राना ने भय हैं तिनको नाइबेकों कहते तो संगम सिया असि घना गई यह कैसे लिखते

( १३८ ) बीजक कबीरदास

जातकोखनलागिनवारा गयेभोजजिनसाजलघारा गेपांडव झुंतीसी रानी गेंसहदेवजिनमांते बुधिडानी ॥३॥ श्‌े 4 के र्‌ . श् सवंसोनेकी लंक वनाइ चलत बारकछुसंग लाई ॥४॥ कौरवनकों जातबार रूग्यो ओराजाभोनगे जिनधारानगराकों बसायोंहै कहे साम्यो है भोनके कहेते कछियगके राजा सब कै आयगये २॥ पांडवार्नेह कुन्ती ऐसी रानी नो हैं सहदेव जेहें ते सब जातभये जपण्डितहैं तिनहू में अपनीमति कहे ब्राद्धे अधिक ठानतभये कहे करतभये ॥३॥ ओऔ सब लंका सोनेके रावण बनायो पे चलतवार संगमें गईं ॥। कुरियाजासुअंतरिक्षछाई सोहरिचंद्रदेखिनहिजाई ५॥ जाकी कुरिया अंतरिक्षमें छाइहे कहे स्वगमें महलबनोंहै इन्द्रते अधिक सिंहासनमें वैठहें ऐसेजहें हरिश्चन्द्र राजा तेऊनहीं देखिपरे हैं अर्थोद्‌ तेड राहिगये मरिगये भावयह है कि महा प्रछय भये चैडोकमें कोई नहीं 'हिजाइहै ॥५॥॥ शो कर, बिक 8 के मूरुखसमानपआभचक सजाव अपनाइवलआरलागराव ।6॥ कप वि हा आर 3६ और अर जाने अपनो मरिजबै टका दशवढ़े ओरलेखेंबे॥०॥ मूरुख जो मनुष्यहे सो संजोवै कहे अधिक सम्यक्‌ प्रकारते जोंबै है अर्थोद्‌ और को मरिबों कहे आना मरिगयो बाप मरिगयों इत्यादिक सबको मरिबो देखतई जाय॑हें रोवे हैं अपने मरनकी चिस्तानहीं करेहैं॥६॥ या नहीं जनैहैं के जैतेदिन बीतिगये जेतने मारैगये और मरिही जायँंगेप है तिचारे हैं कि और दशटका बढ़ें जाते बहुतदिन बैठेखायेँ साखी अपनी२ कारिगये, छागिनकाहकेसाथ

अपनीकरिगयो रावणा, अपनीदशरथनाथ

जीतिजीते पृथ्वी सबे अपनी अपनी करिके गये यशी दशरथराना ते अधिक

कोई भयो जाकी सब प्रशंसा करेंहें उनके सुकृतकों यश जगतही में रहिगयो

डनके साथ गयो अयशीरावणते अधिक कोई भये जाकी सब निन्दाकरे जाके दुष्कृतको अयश जगतहीमें रहिगयों दंत पब्पनवीं रमेनी समाप्त

रमेनी ( १३९ ) अथ छप्पनवीं रमेनी चोपाई दिनदिन जरे जरलकेपाऊ। गाड़े जाइ उमगे काऊ॥ १॥ कंध देह मसखरी करंईं। कहुधोंकोनिभांतिनिस्तरई ॥२॥ अकरमकरे करमको थावे। पढिगुणिवेदजगतसमुझावै ३॥ छूछेपरे अकारथ जाई | कह कबीर चितचेतहु भाई॥ ३॥

दिन दिन जरेजरलकेपाऊ। गाड़िजाइ उबरे काऊ ॥१॥

कबीरजी कहेहँ कि जे रोजरोज ज्ञानाग्नि कारेंके कर्मकोजारे हैं अपने जीवत्वको जारेहँ कि हम अहम ह्ैनायँ सो भर के पाऊ कहे काहके कर्मही जरें कोई बलह्लही भयो अथवा जरढछके पाऊ कहे जारिगये हैं कर्म नाकों अर्थोत्‌ कमेही नहीं है ऐसो जोजह्य ताकोकी पायो है! अर्थाव कोई नहीं पाये है नो कहों जड़भरतादिक पायो है तौ वेनो ब्ह्मही है जाते तो दूसरो मानिकै रहगणको कैसे उपदेश करते। कपिलदेव सगरकेलरिकन काहे नारिदिेते सनकादिक जय बिजयको काहे शापदेते से तुम बह्म हैबेकी आशा करों जो संसारमें परे रहोगे तो कबहूं सत्संग पायकै उद्धारह होइजाइगों जो अह्मरुपी गाड़ में परोगे तो गड़िजाउगे कबहू उमगोगे अथीव तिहारों कतहूं उद्धार होइगो ९॥

कंधनदेइ मसखरी करइ कहुोंकोनभांतिनिस्तरई ॥२॥

कहो या कीनी भांति ते जीवको निस्तारहोय समीचीनसाधुनको सत्संग तों मिले नहीं है गुरुवा छोगको सत्संग मिलेहै ते मसखरी करे हैं। मसखरी कौन कहावें जो आपतो जाने औरेनको ठगै सो गुरुवाछोग आपतो जाने हैं कि. या झूठाबकह्लमें हम छांगे हमारे हाथ कछुबस्तु छागी ब्रह्म भये परन्तु मोसाहबमें लगेंहे जीवतिनकाकांधातानदिये अर्थाव्‌ उनको ज्ञान अधिक पष्ट तो

( १४० ) बीजक कबीरदास

न॑ किये कि भलेलगहें तुम मसखरी किये कि नो तुमंह अहंबह्यास्मि मानो तौ तुमको अनेक प्रकारकी ऋद्धिसिद्धि प्राप्त होइ है साहब को ज्ञान छॉड़िदेह या भांति समुझाय नरक में डारिदिये अकरमकरेकरमको थावे पढिगुणवेद जगतसमझावे ॥३ छूंछे परे अकारथ जाई। कह कवीर चितचेतहु भाई ॥४॥

केसेहं वे गुरुवा छोग करत तो अकरममतरहें कि हमको करमत्यागहै हम संन्या- सी हैं हम ज्ञानी हैं करम करिबेको धावै हैं वेदको पढ़ि गुनिकै जगवकों समुझाँवे हैं कि, निष्कमेहाड चाहईते सब बिकारहै चाह छोड़िदेड आप भायाके लिये बनारमें झगरे हैं सों उनके कहे जीवनका कैसे समझिपरे ॥३॥ उनको उपदेश अकारथई जायहे जो सुने है सो छूंछई परेंहे अर्थीव कछू- बस्तु हाथ नहीं छंगे है स्रों कबीरजी कहे हैं कि, हे भाई ! चित चेत करों जहिते कनककामिनी रुप मायाते धोखाबह्मते बचिजाउ

इति छृप्पनवीर मेनी समाप्ता

अर #8

अथ सत्तावनवा रमना चोपाइह कृतियासूत॒लोक यकअहई।छाख पचासके आगे कहई॥ १। विद्या वेद पंढे पुनि सोई | वचन कहत परतस्षे होई २॥ पहुंचि वात विद्या के वेता!वाह के भमे भये संकेता॥ ३॥ साखी खग खोजनको तुमपरे, पीछे अगम अपार विन परचे किमि जानिहो, झूठाहे हंकार

कृतियासूचलोकयकअहई। छाखपचासकेआगेकहई १॥ कृतिया कहे यह कृत्रिम जो है कर्म अहंब्रह्म मानिबों सों यहछोक में एक सुत्रके ब्रोबरहे कहेरसरीकेबरोबरहे जीवनके वांधिवेकी मंगरमें कहि

रमभेनी

आये हैं कि, ब्रह्ममें अणिमादिकसिद्धि होइ हैं सो वह हृत्यकरिके कहे बह्ममा-

श्र रा अं अ० भ्

निके पचास छाखवर्षके आगेकी कहे हैं सो पचास छाख यह उपलक्षण है अर्थाव्‌ भूत भविष्य वर्तमान सब कहे हैं

विद्या वेद पढ़े पुनि सोई। वचन कहत परतक्षे होई

$ वि रे

पहुंचि वात विद्या के वेता। वाहुके भर्मभये सद्भेता ॥३ विद्या नो है वेद्‌ नो है सो संपूर्ण पढ़िलइ अथीव्‌ आइ जाइ तब नौनबात

कहे हैं तौन परतक्ष होइहै कहे बाक्यसिद्धि है जाइ है वेविद्याके वेत्ता

कहे जनय्या जे छोंग हैं ते वह बातकी पहुँच कहे पहुंचतमये अणिमा-

दिक सिद्धि होत भई ब्ह्मको जानतभये परन्तु साहबको जो है साकेत छोक

पी पीली लि

ताके नानिबेकों उनहैको श्रममयों अथोत्‌ साहबकेो छोक जानत भये ॥३॥

साखी खगखोजन को तुम परे, पीछे अगमअपार धर ३०... कु. 5. जे ३) विन परचे किमिजानिही, झूठाह हड्ार ४॥ खग जो है हसतिहारों स्वरूप ताके खोनिबेकी तुमचल्यों कि, हम अपने आत्माकों स्वरुपजानें सो साहब अगम अपार जो थोखा ब्रह्म सों छग्यो है वाहीकीं अपनेस्वरुप मानिलियों है जब कुछ संसार तुमको छत्यो तब अगम अपार जो धोखा ब्रह्म है ताही को अहंत्रह्मास्मि मानिके बेठयों सो वह अगम है काहकी गम्य नहीं है अपार है अथीव्‌ झूठा है। भाव यह है कि, जब साकेत छोक की नानोंगे तब साकेतनिवासी जेपरमपुरुष श्रीरामचनद्र तिनकों जानेंगे तब वे हंसस्व॒रूपदे अपने धामको लेजायँगे तबही जन्म मरणते रहित होडगे तब हंसस्वरूपपावोंगे औरीमांति संसार ते ने छूटोमे ने सिद्धिमाप्त भये ब्रह्ममये तामें प्रमाण गोसाई तुठ्सीदासजी को दोहा “बारिमथे घृतहोई३- बरूु सिकताते बर तेछ। बिनहारिभजन भंवतरें यह सिद्धांत अंपेछ ) कवीरहनी को पमाण “रामबिनागर हैहोकेसा | बावमौस गोबर मेसा”

29

( १४१ )

इति सत्तार्यनदीं रमेंनी समाप्तों

8५

१४२ ) बीज कबीरदास

अथ अद्ठावनवा रमनी चौपाई।

तैंसुत मानु हमारी सेवा तो कहँ राज देहुं हो देवा १॥ गम दुगेम गढ़देहु छुड़ाई अवरो बात सुनो कछु आई॥२॥ उतपाति परले देउ देखाई। करहराज्यसुखविलसहुजाई एको वार जैहे बाँकों। वहरिजन्मर्नाहहोइहैताको॥४॥

जायपाप देहो सुखचाना। निश्चयवचनकबीरकी माना«॥

साखी॥ साधुसत तेई जना, जिन माना वचन हमार आदिअंत उत्पति प्रलय,सव देखा दृष्टिपसार

तैं सुत मालु हमारी सेवा तोको राजिदेहुं हो देवा गम दुगेम गढ़देहुँ छड़ाई। अवरो बात सुनोकछुआई ॥२॥ वही छोकके गये जन्म मरण छूटे है सो कबीरजी साहिंवेकी उक्ति कहे हैं। साहब कहे हैं हेसुत! हे जीव! तू हमारिही सेवा मानु जिन देवतनको तें चौहैंहै कि में इनको दासहों तिन देवतनकी राज्यमें तोको देहुँगो अर्थाद्‌ मेरोपार्षद जब होयगो तब सबके ऊपर है जायगोे ते देवता तुम्हारही सेवाकरेंगे २१॥ गम जो है नगव्‌ दुर्गम नोहे निर्गुण ब्रह्म ये दूनों धोखाने गढ़हैं ते तोको छोड़ाय देडेंगो अर्थात्‌ मायाते रहित तोकों करिंदेडेंगो वह धोखा ब्रह्म में लगन देंउेंगो जो जीवनको संसारी कार्रिद्हें तब सगुण निर्गुणके परे नो और कछुबात है सो मेरेपापैद कहे हैं सो तेंहू मेरे नगीच आइके सुनैगों उतरपतिपरलेदेडंदेखाई। करहुरान्यमुखविलसहुजाई ३॥ _.ह उतात्ति मछय जोनोभांति सो मेरे परकाशके भीतर समष्टिनीवते होइ है सोम उचेद तोकों देखाइदेउँगो औनगवर्मेभायकै नो मोको जानिके मेरसभाफे कहें सोसुखहे सोतेहूमेरीमक्तिकरेके संसाररूषी राज्यमें जाइके सुखतोंबिलसिगो

रमेनी ( १४३ )

तोकोसंसारबाधा करिसकैगो। जगत्रूपी राज्यके विषयानंद बह्मानंद आदिक सुखहें ते सुखनहीं हैं नो कहा साहबके छोक नाई फेरिकेस आवैगो उहां गये तो अथुनराबृत्ति कहिआये हैं तोकबीरजी बीरसिंह देवको साहबके छोक लेगये छोक देखाइकै पुनि लेआइके शिष्य करतभये आीकृष्णचन्द गोपनकों आपनो छोक देखाइ थुनि लैआये हैं उनको जगत्‌ बाधानहीं करिसकेहै वे साहब छोकही मेंहें काहेते कि साहब॒को छोकप्रकाश सर्वत्र व्यापक साहबकी सकछ सामग्री साहबके रूपई वर्णन करि आये हैं साहब लोकपकाश सर्वत्रपूर्ण है तोसाहबका छोक साहब सर्वत्रपूरण है ने साहबको जाने हैं जगतऊमें हैं तोसाहब के छोकई में बने हैं उनको संसार बाधा नहीं करिसके ल्‍ जन ९७ ४३३ एकोवार जहैवांकी बहुरे जन्म नह होइहे ताको॥४॥ जायपायदेहोसुखधाना निश्चयवचनकबीरकोमाना .५॥॥ एकोबार बॉकों जाइगो जन्म मरण तेरोछूटिही नायगो फेरि जन्म मरण होइगो॥ ४॥ भी संपूर्ण जे पापहें ते जात रहैंगैं औसुखकों घाना कहे समूह तोको देडँगोे

2 2 है «पलक

सोसाहब कहेंहें।कि हेनीव!कबीरजीकीं वचन तुम निश्चय मानिक्के मेरेपास आवो५ साखी साधुसंत तेईजना, जिन माना वचनहमार आदिअंतरत्पति प्रलय,सवदेखा दृष्टिपसार॥६॥ जे हमारों कह्मोबचन म्रमाणमान्योहै तेईसाथुहैं कहेसाधन करण बरे हें तेई संतहैं तिनहींके मनादिक शांत है गये हैं तेई आदिअंत उत्पात्ते पलंये सब बात दृष्टि पसारिके देख्यों है अर्थाद सब बातजानि लियोहे इति अट्ठावनवीं रमैनी समाप्ता थ्‌ आर ढर अथ उनसठवा रसनी चोौपाई। 'जाने >> दावत भड़हरफोरी | मननहिजाने को करिचोरी चौर्‌ एक सूसल संसारा। बिरलाजन कोई जाननहारा स्वग पताल भूमि ले वारी। एकेराम सकल रखवारी ३॥

( १४४ ) बीजक कबीरदास

साखी पाहन हैँ सवचले, अनमभितियन को चित्त जासा कियो मिताइया, सो घनभे अनहित्त॥8॥

चटतचठावतभडहरफोरी मननहिजानेंकीक रि चोरी॥ १॥ चोर एकमृूसऊूसंसारा बिश्ठा जनकोइजाननहारा ॥१५॥ स्‍्वगे पतालसूमिलेवारी एकेराम सकलरू रखवारी॥

गुरुवाछोग आप प्राण चढ़ाँवे हैं अर ओरको सिखेसिखे प्राण चंढ़वावे हैं सोयही प्राण चढत चढत भड़हर जो बह्म ताको फोरि के वही धोखा बह्ममें लीनभये मनते या नहीं जाने हैं कि साहब के ज्ञानकी चोरी को करेंहे वही धोखा ब्रह्महो तो करेंहे यही नहीं जाने हैं वाई!में छंगे हैं॥९॥सो चोर एक जो धोखाबह्कंह सोसंसारभरकी मूसिछियों अथोत्‌ बह्मही के ज्ञानकों खबदौरे हैं परमपुरुष को नहीं दौरे हैं तेहिते कोई बिरठानन परमपुरुष जे श्रीरामचन्द् हैं तिनको जनिहे॥२॥ जेश्रीरामचन्द्र एक स्त्र्ग पाताल भूमि को बार्रकेसम रख- वारी कहे रक्षा करे हैं इहां एकैराम रखवारहे यह जो कह्यो तांते बॉँधनवारें धोखा देनवारे बहुतहैं पै बंधतते छोड़ावन बारे एक श्रीरामचन्च्रई हैं दसरों नहीं हैं स्वर्ततेऊपरके भूमिते मध्यके पातालते नीचेके छोक सबआये

साखी पाहनहेद्दे सवचले, अनमभितियन को चित्त जासों कियो मिताइया, सो घनभे अनहित्त॥8॥

अनेभितियाको चित्तजो घोखाब्रह्मह तोनेमें छगिके संपूर्ण जे जीवहेँ ते पाहन हैगये कहेजड़वत्‌ द्वैगये वे धनते छोड़ावनवारे श्रीरामचन्द्रको जानत-

भये जीन बढते सबनीव मिताईं कियो सो अनहितभये कहे संसार में हारन- बारों घोखई ठहरयों

इति उनसठवीं रमेनी समाप्ता |

रमेनी ( १४५ )

अथ साठवीं रमेनी चापाइई छाड़हु पातेछाड़हु लवराई।मनअभिमानट्रटितवजाई॥ १॥ जनचोरी जो भिक्षाखाई।फिरिविरवा पलुहावन जाई ॥२॥ पुनिसंपति ओपतिको धावि।सो विरवा संसार ले आवे॥ ३॥ साखी॥ झठा झुंठेके डारहू, मिथ्या यह संसार तेहिकारण में कहतहों, जासों होय उबार

छअाड़हुपातिछाडहुलवराई।मनअभिमानटाटितवजाई जनचोरीजोभिक्षाखाई फिरिविरवापलुहावमजाई २॥ पुनिसंपति आपतिकोधावे।सोविरवासंसारलेआवे

कबीरजी कहे हैं कि नाना देवता जो पतिमानीही सो छवराई जो घोखा बह्महै ताको छोड़िदृउ छोड़ोगे तोपुनिके जब संसारआवोगे तबतोअभिमान रिहोजाय अथांद नानादवतनहीं की सुधिरहिजायगी धोखा बह्महीकी सचि- रहिनाइगी॥ १॥काहे ते कहे हैं कि अह्मकों छोड़िदेड! सोआागे कहै हैं जीव या सनातनको साहबको हैँ सो ने जन साहबते चोराइके और देवतनते भिक्षा मांगे खायहैं फिरे पिश्वारूप देवतनकों पलुहावैकहे प्रश्करे जायहैं पनि उनहीं सों हम्पति कह नाना ऐशवर्य होय सिद्धि हो एति कहे राजाहोय

इंवहोय याको थावे हैं सो वे बिरवारूप जे देवता हैं ते फिरि फिरि संसारमें है आवे हैं जन्म मरण होय है २॥ साखी झठाझुठेकेडारह, मिथ्यायहसंसार |) ताहकारणमकऊहतहा, जापाहाोयउवार | 9७ सी झूठा नो ब्ह्मह ताको झूठ समुझिलेड अरु देवता संसार ही में हैं सो

यह संसार जाहै त/की मिथ्या मानिलेड औसबकी कारण जीन सबंत्हे जाड़ी ५१०

१४६) बीजक कवी रदास पक रामरखवारी करे हैं सो मंहींहों तिहारो पति तुम मोमें

किए लगो नातेतुम्हारों उबार ह्वैनाइ तिनके तुमपति मानिराख्योंहै ते तुम्होरे पति-

नहीं हैं वे बांधने वारे हैं इति साठवीं श्मेनी समाप्ता।

| अंथ इकसंटवी रमन चापाइ।

घर्मकथा जो कहते रहई लवरी नित उठि प्राते कहई॥ १॥ लवरिविदानिलवरीसाँझा यकलावरिवसत्हदयार्माझा॥ २।। रामहुंकेरममेनहि जाना ले मति ठानी वेद पुराना ॥३े॥ वेदहकृर कहानहिकरई जरते रहे सुस्त नहिं परई ॥। साखी शुणातीतके गांवते, आएुहि गये गम्माय॑ ॥| माटीतन माटीमिल्यो, पवनहि पवन समाय «

धर्मकथाजों कहतैरहई लव॒रीनितउठि प्रातेकहई

धर्म की कथा नो कहतई रहे हैं कि ख्लरी आपने पतिही को जाने और दूसरेंकों पतिकारे जाने परन्तु धर्म कछूजने नहीं हैं धर्म कहां है कि जीब यह साहबकी शक्तिहे याके पाति साहव हैं तामें प्रमाण॥ “अपरेयमितस्त्वन्यांप्रद्धातिं- विद्विमेपरार। जीवभूतांमहाबाहो ययेदंधाय्येतिनगव्‌'”॥इतिगीतायाम्‌॥ “'वासुदे- बपमाणेक:स्ीमायमिदंनगठ''॥ दूसर कबीरजीका प्रमाण॥ दुरूहिनगाबोमंगल- चार हमेरेघरआयेराममतार तनरतिकारे भें मनररतिकरिहों पांचोतत्ववराती रामदेवमोहिब्याहनेएेहँ मेंगीवनमदमाती सरिरसरोवरवेदीकरिहोंब्ह्मावेदउचा- रा रामद्वतगर्भांवरिढेहों घनिधनिभागहमारा सुरतेंतीसीकीतुकभायेमुनिवर- सहसअठाशी कहेकत्री रहमब्याहिचलेह पुरुषएकअबिनाशी तेसाहबको या जीव नहीं लाने हैं ओरओरमें लंगे है बड़े पातःकाछ उठिकै लवरी कहे है कि इमहीं राम हैं दूसरो नहीं है अथवा नींव जन्म छेट्हे सो प्रातःकाल है नव

रमेनी ( १४७ )

गर्भ में रह्मो तब साहब ते क्मोहे कि तुम मोको गर्भवे छड़ायों में तिहारोभ

जन करागा जब गभते निकस्यों जन्मलियो तब व्‌ हबात लवरी के ढारथो में | कह्मा है साहब का भनन ने कियो कहा करन छग्यो १॥|

लवरिवेहानेलब्रीसाँझा। यकलावरिवसहदयामाँझा ॥२॥ रामहुकर मर्मनाहि जाना। ले मतिठानी वेद एराना ॥१॥

सो यहितरह ते छवरी बिहांन कहहे सॉझके लवरीकहेहै कहे आपन अरुके आओ देवताके ऐक्यता माने है काहेते तीनि कहें हैं के, एक छवर जो है मायातों हृदयमें बंसहे सोईं सब छवरी कहावे है॥२॥सों भला ब्रह्म को मर्य

जनि ता जाने काहँते कि वहतो धोखा है सो कछू वस्तु होह तो जाने परन्त लांच सत्र पूर्ण सबते श्रेष्ठ ऐसे जे श्रीारामचन्द हैं तिनको जो या मर्म

बन

है कि, जो कोई मेरे सन्‍्मुख होइ ताको मैं छुड़ाइ ले या जीव जानतमये हव छुड़ाइ छह तामें प्रमाण “अबही लेऊे छड़ाय काछते नो घट सुरति सम्हारो'”॥ याहहितु सुराति दिये है मतिलेकै कहेग्रहण करिके वेदपराणके अर्थ

ठाव है कह अपने [संद्धांतम लगायदेद हैँ

वेद्‌इ केर कहानहि करई | जरतैरहे सुत्त नहिं परई ॥७॥

चर,

शिद्धांतती एकहाईह साहबकोसिद्धांत जो तालयेवृत्तिकरिके यह कहैँहै सो भला जाने मुक्ति होइ परन्तु वेदमें नो सुकर्म छिखे हैं सो करिके नरकतें तीं वे सो वेदृह की कही जो विधि निषेषहे सोऊ नहीं करेंहे ऐसो मं यह नीव शोकरूपी अभ्िमें जरंते रहेहे सुस्त नहीं परे है सचित्त नहीं होय है अथीत इहां कुछ छोड़यो उहां पे।सानो्रह्महै तहांकुछ नसमझयो औईश्वर जे हैं तिनहूं को काह ने मान्‍्यो सबके रखवार दयाछु ने श्रीरामचन्द्रहैं तिनह छोड़ो तैहित मूर्ख उंटके पाद है गयो जमीनको आसमान को: वाको कीन बचावे। जो कहो आत्माको चीन्हिके बचिजाय तो जाआत्मामें एती शक्तिहोती तो वधनम ने परठा आपही बचिजातों ताते सबके रखबारजे साहबहें तिनहींके बचाये बंचेंहे .

(१४८ ) जैक कवीरदास !

के किक. के हि साखी गुणातीतके गावते, आपुदि गये गमाय ॥। [& आनकी 25. _ मार्टीतन माटीनिल्यों, पवनहि पवन समाय «५ गणातीत जो साहबकी लोक ताकेगावते कहे प्रकाशतजहांसमष्टि ओवरहै हैं तहां आपही रामनाम को साहबमुख अर्थ गमाय के संसारमुख अर्थ पी. आय के | मी 55 ०५ १० ०. 65 हक क[९ संसारी हेंगयों शरीर धारणकियों पुनि मार्णमें मादी मिलिंगयों ५2 2 6 रः 5 9 कम कक जञः पंवनमें पव॑ंने मिलिगयों अथोव्‌ ते पूनि जैसेके तेसे गये जो गुगा- तीतके गावते यह पाठ होइ तो यह अर्थ है गुणातात जो है घोखा बह्ल ताकी गावत- गावत साहब को गवांइ जातभये शति इकश्षठवी रमेनी समाप्ता

अथ बासठंवीं रमेनी चोपाई। जोतोहि कत्तावर्णविचारा जन्मत तीनिदण्ड अन॒सारा९ जन्मत शुद्रभये पुनि शुद्रा कृत्रिमजनेड घालिजगदुद्रार जोतुमब्राह्मणब्राह्मणीजाये ओर राह तुम काहेन आये है जो तू तुरुक तुरुकिनी जाया। पेंटेकाहेन सुनतिकराया 9 कारी पीरी दृहों गाई ताकर दूध देहु बिलगाई « छाडुकपटनलअधिकसयानी।कहकबीर भजुशारैंगपानी $

हाथक रथ 5 ७७.२ #का दंड जोतोहिकत्तावणविचारा जन्मततीनिदंडअनुसारा ॥१॥ जेतेको बह्मा बर्णफो बिचारकियों कि ये आह्मपहैं क्षतरीहें बेइ्य हैं शूदहैं मुसत्मनहें सो एतो शरीर के धर्महं तीनिदण्ड ने हैं संचित कियमान मारच्ध तिनके कमेके अनुसारते लन्मेतकेहे जन्‍्मलेइ हैं

रमेनी (१४९ )

जन्मतशूद्रभयेपुनिशुद्रा। कृत्रिमजनेउ्घालिजगढुद्ा ॥२॥ जोतुमब्राह्मणबाह्मणीजाय ओरराहतुमकाहिनआये ॥३॥ जब श्रधम तेरों जन्म होइहै तबतें शूद्धई रहे है काहेते कि संप्कार कुछ- नहीं रहे जब मरेंह तब अशुद्ध६ रहेंहे शिखा जनेऊ दूनो आगीमें जरिजाइहें तबहू शूद्दे द्ैनाईहे सो कृत्रिम जनेऊ पहिरिके तें जगतमें द्न्द मचाई दियेंहे कि हम ब्राह्मण हैं ये क्षत्री हैं ये वैश्यहैं ये शूद्॒हें जोकही हम जन्म करके ब्राह्मण हैं ब्राह्मणीते उतपन्न हैं और राह है काहे आये बह्लांड फोरिके आवते आंखी के राहहे आवते अशुद्ध राहहे काहेआये अर्थात्‌ ब्राह्मणी आपनी दक्तिते उत्पन्न करिसके तें आपनी शक्ति ते आइसके कर्महीते ब्राह्मणी उत्पन्न करे है कमही ते तें आवे है तेहिते नम ते तो शूद॒ही संस्कारते द्विनमये वेद अभ्यास कियो तब विपभये जब बह्मको जनिंगो तब ब्राह्मण कहांबैगो ताते कर्महोंते ब्राह्मणत्व तोमें आवि है अहं- ब्रह्म तो धोंखही है पर्रह्म जे श्रीरामचद्ध हैं तिनहूं को तें जान्‍्यो सो तें ब्राह्मणकेसे होइगो जबतें साहबको जनिगो तबहीं ब्राह्मणहोइगो

जोतूतुरुकतुरुकिनीजाया | पेंटेकाहेनसनतिकराया ॥४॥ कारी पीरी दृहों गाई | ताकर दूध देहु बिलगाई ॥५॥

जो तू कहेंहे कि हम तुरुकिनी ते उतन्नहें तो पेंटे काहे सुनति करायो तेहिते तुरुकिनी के पेटते भयेते मुसलमान नहीं है कारीपीरी गाइकों दूध मिलाइके कोई बिलगावे तो काबिलग होइहै ऐसे आत्मा तौ एक- ही नातिंहे हिन्द तुरुक नहीं है सके है

छांडुकपटनरअधिकसयानी ।कहकबीरभज॒शारँगपानी $॥

आपनी सयानी अधिककरिकैनोंकपट करिराख्यों है सोछोड़ि दे बिचारिकै देखु तेंतो आत्मा हिंदू है तुरुकहै तें नाको अंश है ऐसे शररंगपाणि ने साहबहें ताको भजु ताकी सेवा करु शॉरंगपाणी नो कह्यो ताको यह हेतुहै कि

अर कक अर ७७०

धनुषबाण छिये तेरी रक्षा करिबेको तैयार हैं ओर तू जैरे मैरैमें लगाहै। जो

( १५० ) बीजक कबीरदास

०»

साहबमें छागेहे सोईं सबते श्रेष्ठ होयहें तामें म्रमाण॥( विभाषिषड़गुणयुताद्रविंद नाभपादारविंदविमुखाआइवपचंवारेहप। मन्येतद्पितिमनावचनेहितायमाणंपु- नातिसकुलनतुभूरिमानः ) इतिभागवते

इति बासठवीं रमैनी समाप्ता।

अथ तिरसठवीं रमैनी चोपाई

नाना रूप वर्ण यककीन्हा। चारि वर्ण उनकाहु न॑ चीन्हा १॥ नश्गये करता नहीं चीन्हा। नष्टगये ओरहि मन दीन्हा॥२॥ नष्गये जिन वेद वखाना। वेद पढ़ा पे भद जाना ३॥ विमलषकरेनर न्नहिसूझा।मो अयानतवकछुवनवूझा॥४॥ साखी॥ नाना नाच नचाइके, नाचे नटके वेष

घट घट अविनाशी बसे, सुनहु तकी तम शेष ॥५॥

वर्ण धर्मेखंडन करे आये अब सब वर्णको एक मानि ने साहबको भूेंह तिनकों खंडनकरे हैं ! नानारूप जे जीवहें तिवको एक बर्ण कहे एक रंग करे देत भयो अहेवल्लास्मि कारेके सब मानत मयो कि हमहीं सब हैं दूसरे नहीं है चारिडवर्ण वहीकों वर्णन करतभये यह जानतभये कि यह धोखा बलह्मको खाई लइहै॥* फ़िरेफारे सव जीव नष्ट द्वैगये कहे मरि गये उद्धारकर्त्ता नो साहबहे ताके। चीन्हतभये जी औरहि जे घोखा बहहै तैनेमें मन दैंके नध्ठहैगये अथीव लीन हैगये साहबकोतो जाने नहीं फिर संसारी भये॥२॥ने बेदकों बखानिरके पाढ़िप- ढ़िके औरनकों अर्थ सुनावै हैं तेवेदपढ्यो परंतु भेद जान्यो कहे बेद को ताले ने साहब हैं तिनको जाम्ये तेहिते नष्ट ड्वैगये सब वेदको भेद साह- बह तामें पमाण (सर्वेवेदायत्पद्मामनम्ति) बिमरुष जो साहब मन वचनके परे ताको खंकहे आकाशवत्‌ गृन्य ज्ञान व्रे है कि, वह नहीं हैं आकाशवत अ्नही पूर्ण है सो उनके ज्ञान नेत्र तौ हुई नहीं हैं साहब कैसे तन

रमेनी (१५१ )

परे जब सूझि परयो तब अज्ञान हैगये नेतिनेति कहनछगे कि, अकथ है कबीरनीका प्रमाण “वेदबिचारे भेद जो जाने। सतगुरु ममंशब्द पहिचांने गरुवा छोग कहे हैं कि, वही जाहे अविनाशी सो सबके घटघट में सबकी नाच नचांवे है ओऔनटके वेष आपो नाचे है। सो कबीरजी शेखतकीसों कहे हैं कि, हे शेखतकी ! जो. सबको ताचनचविगों आपनटके वेष नाचैगों सो अविनाशीकैसेहोइगो काहेते [कि नटएक वेषलैआयेपनि वह वेष छोड़िके और बेष लैआयो याही भांति नानावेष नट घारणकरे हैं ते सब अनित्यहैं नाना वेष घरिबो तो मायाके गणहैं वह मायाके परे केसे होइगो जब मायाते परे होइगो तो अविनाशी केसे होइगों सो हे शेखतकी तुम सुनो वाहबिचार करत करत जो शेष रहिजायहै सो तुमही बातो तुम्हारहों अनुभवहे अथवा तुम शेषहो सो कार विराकार के परे जो साहब है ताको तुम शेष हो कड़े अंशही

इति तिरसठवीं रमेनी समात्ता

अथ चेंसठवीं रमेनी | चोपाई। काया कंचन यतन कराया। बहुत भमाँतिके मन पलटाया॥ १॥ जो सोवार कहो समुझाई। तहिबो घराछोड़ि नहिंजाई ॥२॥ जनकेकहे जो जन राहिजाईं। नवी निद्धि सिद्धी तिनपाई॥३॥ सदाधम तेहि हृदयावसई राम कसोटी कृसते रहई ॥७॥ जारि कसावे अंते जाई। तो वाउर आपुहि बौराई « साखी ताते परी कालकी फांसी, करहु आपनो शोच ॥|

जहां सत तह सत।सचाव,माल रह पाच पाच ॥६

कबी रजी कहैहें कि ईनीवनके कायाको हम बहुत यतनकरवाया बहुत भांति ते मन पछणाया कि तू धोखा को त्यागि केचन आपने स्वरूपकों जानो॥?

(१५६२ ) बीजक कबी रदाख।

यादात यद्यपि में सौबारसमुझाऊंहों ताहपै ऐसों धोंखाकों घरथों कि छोड़े नहींनाय सो ने जन गुरुवाननके कहेराहिनायहैं धोखाकोनहीं त्यांगे हैं तेनवोनिद्धि पावे हैं निर्गुण सगुणके परेमें जोबातकहीहों ताकोकहां बूझें॥ जमेरोकट्यो वूसदें कि हमसाहबकेहं याधरमेजिनके हृदयमें बसेहै तेसाहबके रूप- कसौटी में आपनो कंचन स्वस्वरूप कसतई रहे हैं जेसाहब नहींकसेहें गुरुवाले गनके कसावैनाईहें तेवेबाउरऊ निराकार ब्रह्म तोमें आपही बोरायनाय हैं नो ओरको और कहै सो बाउर है सो है जीवो ! तुम साहब के होशके धोखा में छगे ताहीते कालकी फांसीमें परेही सो आपने छूटिबे को शोच करो देखो तो नहां संत रामोपासकहें तहें संतनाईहँ आपनोस्वरूपजानि छूटिनाइहें ने गुरवालोगनको उपदेश लेइहें ते जीव पोचे पोच मिलिरिहे हैं॥ ६॥ इति चोसठवीं रमेनी समाप्ता थे के जा | मम आल अथपसटवा रमना चोपाइ अपने गुणके ओगुण कहहू।यहिअभाग जोतुम विचारहू१ तुमजियरा वहुतेदुखपाया। जलवनमीनकवनसचुपाया र्‌ चीहकजलहल भरजापाप्तामय वरस चलडउदासा। (३॥ स्वांग धरयोभवसागर आसा।चातृक$जलहलूआरीपासा& रामे नाम अहे निजसारू। सब झुठ सकल संसारू « किचित है सपनेनिधिपाई। हियनमाहँ कहँ घरे छिपाई ६॥ हरे उतंग तुमजातिपतड्भा यमघर कियो जीवको संगा७ हियनसमायछोड़नहिंपारा ।झूठलोभ तें कछु विचारा८ स्मृति कहाआपु नहिंमाना। तरिवर छलछागर द्वेजाना जियदुरमति डोले संसारा तेहि नहिं सूझेवारनपारा १०

रमेनी (१५३ )

साखी अंधभया सबडोलई, कोइनहिं करेबिचार || हरिकि भक्तिजानेबिना,भव बूड़िमुआ संसार ११

अपनेग्रुणकेओगणकहहू। यहै अभागजोतुननविचारह्‌ १॥ तुमजियरावहुतेद्खपायाजलबिनमीनक्‌वनसचुपाया श्॥। चातकजलहलभरे जोपासा। मेघनबरसेचलेउदासा ॥३॥ स्वांगधरयो भवसागरआसा।चातृकजलहलूआरैपासा9॥

स्वतःसिद्ध तुम साहबके दासहीं या नोआपनों गुणताकोअवगुण कहौहौ कि हम बल्लहें सो या नहीं बिचारौही कि हमबह्वहें कि दारहैं याही तुम्हारी अभा- गहे दासभूतमेतमान ॥(दासभूता:स्वृतःसर्वेह्यात्मान:पंरमात्मनः)॥ परमात्ममें बहुत दु:ख पायो है जो छाया पाठ होय तो बहुत दुखमें आयो सो जब बिनाकौनी सचुपायेही/नहीं पायो। ऐसे बिनासाहबके जाने सचुनपावोगे!॥ १|॥२॥ जैसे जब मेष स्वातीकोी जलनहीं बरपेहै तब चातृकउदसैरहैंहे कहे पियासैरहैंहे लो ननीक समुदी भरोहोय तौकहाहोई ऐसेस्थामी मेघसम रामोंपासक पूरागुरु तुमनहीं पायो जो साहबको बताइदेइ ताते तुम डदासइगये और और में छगावन बोरे गुरुवाछोंग जो उपदेशऊ कियो पे जनन मरण ने छूत्यो भवसागर ते पारहोबे की आशाकरि स्वांगनों धोखाबह्य तौनेकोतुमधरनों कि अहंब्रह्मास्मि मानिसंसारते छूटिनाईगे सो तुम्हारी आशा चातृककी भई कि स्वातीतौ पायो नहीं जो बहुतनलह पे बिना स्वाती चातृककी आशा फांसही हैगई अथवा स्वांग धोखा ब्रह्म को जो तुमधरथो है सो साहबकी आशाकहे दिशानहीं है भवसागर- हीकी आशाकहे दिद्याहै

कक धर + रामेनाम अहे निजसाहू। ओसवझूठ सकलसंसारू ५॥ किंचितहे सपनेनिधिपाई।हियनमाह कहँघरेछिपाई |

हरिडतंगतुमजानि पतंगा। यमघरक्रियोजीवकोसगा॥७॥ हियनसमायछोड़नहिपारा।झूठलो मर्तेकछुनविचारा॥

( १५४ ) बीजक कबीरदास

सस्‍्मृतिकहा आपुनाहमाना।तारवरछलछाभर हेजाना

जियदुरमतिडोलेसंसारा तेदिनसूझ वारनपारा ॥१०॥

है जीवों |! तम यह बिचारत जांड के निम कहे आपनो सार रामे नाम को साहब मुख अर्थ समुझेंके संसार ते छूटेगे अर्थीत्‌ साहब को स्वरूप ओऔ तुम्हारों स्वरूप राम नामही में है सब कहे ब्रह्मर है यह जो मानि राख्यो है सो धोखा है झठा है मायिक जो सकल संसार है सो झूठा है अथवा सकल संसार में ओर जे मत हैं ते सब. झठे हैं॥५॥भहंत्रह्मास्मि ज्ञान करे है

सो सपने केसी है अथीव्‌ झठी है तेंतो किंचित्‌ कहे अणुंहै वा बिभ है झठलों- भत कछु बिचार तुम्हारे हिये में ब्रह्म नहीं समाय है कहे तुम्हारों ब्रह्म होइबो नहीं संभवित होइ है याकी छोड़िदेव वाकों पार नहीं है कहें लवरी ओर होय है याते झूठ लोभकिये है कि, में बह्महो३ जाउँगो सो कछ विचारा काहेते अच्छा विचारनहीं किये है अथवा कछू विचारा कहे वा विचार कछू नहीं है मिथ्याहै॥६॥७॥ ८॥नौन स्मति बतावेंहै॥(स्पाल्लीव- नेच्छायदितेस्वसत्तायांस्पृहायदि आत्मदास्यंहरेःस्वाम्यंस्वंभावंचसदास्मर॥ १॥) सोतुम स्मातिकी कहा आप कहे आपनो स्वस्वरूप मान्‍्यो धोखात्रह्ममें छगिके अपने को बह्ममानिंके तरिवर जाहे संसार ताके छल जो है धोखा बह्मसोई है छागकह बकरा ताही हेंके कहे वह अह्द्के तुमजान्यों कि हम चरिलेई अथाव संसारते छूटिनाईं सो एतो बड़ों संसार रूपी वक्ष कहा धोखाबह्म बकरा चराचरिनाइ हैं जोन जीमें दुर्मति करिके संसारमें डोलोंही कहे

फिराहो सो अहंबह्म माने संसारका वारापार पावागे वहतो घोखाहै॥ १०॥

साखी अंधभयाप्रवडोलई, कोइनकरोबिचार हारोकिभक्तिजानेविना,भवबूड़ियु आसंसार॥ १४

श्रीकवीरनी कह हूँ कि में येतोसमुझाऊं हों परंतु सबसंसार की आंखि फैँटि- गई है अधभया सबडालह कहे फिरेंहे यह विचार कोई नहीं करे है भक्तनको संसार दुःखहरे सो हरि जेह सबकेरक्षक परमपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनकी अनु- राणा त्मिका भाक्ते बिना लाने भव जोहें धोखाबह्य तैनेंहे श्रमको समद ताहीमें संसार वूड़िमुआ कहे संसारी जीव बूडिमुये ११७

शंत पंसठवा रमना समात्ता |

रमेनी। ( १५५

अथ छद्यासठवीं रमना चोपाई सोई हितू बंधु मोहिं भंवे जात कुमारग मारग लावे ॥१॥ सो सयान मारग रहिजाईं।करे खोज कबहूं अलाइ॥२॥ सो झूठा जो सुतर्के तजई।गुरुकी दया रामकी भजर॥ किंचितहैयाहिजगतभुलाना।धनसुतदेखिभयाअभिमाना साखी जिय जो नेक पयान किये,मांदिर भया उजार मरे जे जियते म्रिगये, बाँचे वॉचन हार ५॥

सोईं हितु वा बंधु मोकों भाविहै नो कुमारगमें जात जे जीव हैं तिनको सुमा- रगमें छेआवे कहे साहबकी बतवे अथवा कुमागे में जात जो जीवरहें ताकी साह- बके सुमागेम लगाव॥ १॥अरुसे जीव सयानहै जो सुमारगमें आयके रहिजायहै कहे स्थिर हैनाय है अरु और और मतनको खोज करिके सबको सिद्धांत साहब हीमे छूगाइदेश सी कवहुं भुठाइ है ऐसों गुरुवा झठा हे जो सुतके कहे मूड़ मूड़िके अपना चेछा बनाइके तानिदेइ है साहब को नहीं बतावै है औरे ओरे देवतनको सौंपिंदेह है जाकीदया ते अर्थीत्‌ जाके डपदेशते यह जीव श्रीरामचन्द्र को भजन करे हूँ सोई सांचो गुरु है। भाव यह है कि बिना परमपुरुष श्रीरामचन्दनी के जाने यह जीव को शोक नहीं छूटे है जे गुरु साह बको बताइके संसारते नहीं छुड़ावै हैं औरे औरे मतन में लगाइके संसारमेंडा- रिदेहहैं ते अज्ञान दूरि करनवारे नहीं हैं वे नरक देन बारे हैं आप नरक जानवारे हैं तामें प्रमाण ( शिष घनहरै शोकनाहैं हरई सो गरु घोंए्नरक्में परई)॥ औकबीरहनी लिखि आये हैं ॥(छोड़िदे्‌हु नरझेलिकझेला बड़ें दोऊग॒- रुअरुचेछा ) हे जीवतू तो भणु हैं एकनों ब्रह्म औनगढ्प जो है माया तामें भुछाइरह्यो है याही ते तें जगवमें उत्पन्न भयो है आपने को मालिकमानिपन

घुतादिकों तोको अभिमान होइ है ३। हे जीव जो नेकहुपयान ते किये

(१८६ ) बीजक कबाोरदास

स्थूल शरीर मंदिर उनार होइनाइ है सो बिना परमपुरुष श्रीरामचन्द्रके भजन जे में जीवती मरिके चोरासीखलाख योनिर्मे भटकनेऊगे ओबाचे बाचनहार कहे मे पांचों शरीर ते बचिके पार्षद्रूप बाचन द्वार रहे ते बाचे

इति छचासटवों रमेनी समाप्ता

अथ सतसठवीं रमेनी गरूसुख चोपाई।

देहहलाये भक्ति होई। स्वांगधरेबहुते नर जाई घिगाविंगी भलो माना/जोकाहू मोंहिं हृदय जाना २॥ मुखकछुओरडद्यकछुआना।|सपन्यो कव॒हूं मोहि नजाना ते दुखपावें यहि संसारा जो चेतीो तो होंह निनारा॥ 8॥ जो नर गुरुकी निन्‍्क करई शुकर इवानजन्मसो घरई «५ साखी॥लछखचोरासीयोनिजीव; भटकि भटकि दुखपाव कह कवीर जो रामहि जाने,जो मोहिं नीके भाव६ देहहलाये भक्ति होई। स्वॉगघरे वहुते नर जोई १॥ पिगाधिगीभलो माना।जोकाइमोहिहदय जाना॥२॥ देह हलाये कहे पेट हछाय कुंडलनी उठावे है स्वांगधेरे कहे कोई खाख लगाव है कोईं जय नहीं बंढ़ावै है कोई टोपीदे अलफी पहिरे कुबरी लेइ है कोईकोई तिलके नहीं देय है कोईं बेंड़ा तिछक देइ है कोई नाकते तिछुक देइ है कोई काठफ़ल पाषाण अस्थि इत्यादि माछा पहिरे है ऐसे स्वॉगधर नरनको देखेंहे सोबिना साहबके जाने भक्तिहोई है ? नहीं होइ है ॥१॥ धिंगाँपिंगोकहे चड़ेबड़े मारूपुवा मोहनभोग खाय मोटायकै बडेबड़े पिंगा है रह हैं बडी बड़ी चिंगी हैरही हैं भठो नो साँच मत ताको नहीं माने हैं साहब कहे हजो कोई मोको हृदयते नहीं जाने है सो मोको पाव है ! नहा पावि है॥२॥

रमेनी | (१५७ )

घुखकछआरदहद्यकछुआनासपन्याकवहूमा नजा ना॥ तें दुखपावहिं यहिसंसार जोचेतीताहोहानिनारा 9 जानरग्ुरुकीनिन्दाकरई शकरइवानजन्मसोघरहे॥ मुखमें तो और है कि, हम संन्यासी हैं हमसाधु हैं हमबह्मचारी हैं हृदय में ओर है धनमिलेकों उपाय खोने हैं तेनर सपन्‍्यों कबहू मोकोनही जानिसके हैं सोएऐसे जे प्राणी हैं ते यहिसंसार में दुःख नानाप्रकारके पावे हैं सो हेनीवों ! तुम चेतकरों तो इनसे न्यारा ह्वैनाड ने तात्पर्य वृत्तिकारेके मोको बतावे हैं ऐसे ने गुरु हैं तिनकी जोकोई निन्दाकरैे हैं कि, जोई वर्णन करे हैं सो सव मिथ्या है ते मरिके शवान अरु शकरको जन्म धारण करे हैं ५॥ पाखा॥ लखचारासीयोनजाव, भमदकिभटाकेदुखपांव

कहकवारजोरामहिजाने, सोमोहिनीकेभावे ६॥

भर का

साहब कहे हैं कि मेरेभक्त कबीर कहैंहे कि चौरासी लाख योनिमें जीव यह भयकि भठके दुःख पावेहे सो तिनमें जोकोई श्रीरामचन्द्रको जाने सोई की भावे है। ऐसो म्कट कबीरबताव हैं ताहको और औरमें अर्थकारे और छगे हैं सो मोकी नहीं जने हैं इते सतसठसवीं रमेनी समाप्ता।

अथ अड़सठवीं रमेनी चोपाई। तेहिवियोगते भये अनाथा।परिनिकुंजबन पावनपाथा १॥ वेदों नकलकहे जे जाने। जो समझे सो भलो माने॥२॥ जटवर बन्द खेल जो जाने।ताकर गुण जो ठाकुर माने॥३॥ उहजो खेल सवघटमाहीं। दूसर को लेखा कछ नाहीं॥७॥ भला पोच जा अवृसरआंवे कैसहुकै जन पूरा पावे॥५॥

की

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( १५८ ) बीजक कवीरदास

अरे

साखी जेकरे शरलंगे हिये, तब सो जानेगा पीर

ध्न्र्‌

लागतो भांगे नहीं, सुर्खापधु निहारु कबीर॥%॥

[हक

तेहिवियोगतेभये अनाथा परिनिर्कुंजबनपावनपाथा॥ १॥

वेदी नकल कहे जोजाने जो समझेसोभलो माने ॥२॥ संपूर्ण जे जीव हैं ते परमपुरुष जे श्रीरामचन्दहैं तिनहीं के वियोगते अनाथ ह्ैगये। निकुंन बन जो बाणीको जालहै नाना मत जिनमें परिके एक सिद्धान्त मत परमपुरुष श्रीरामचन्द्रके मिलनके पाथ कहे पथ पावृत भये जिनको पूर्व कहिआये कि साहब को नहीं जाने स्वांगभर बनावै हैं तिनकों हैं जीवों! नो तें जाने ती वेदह वे मतवारेन को नकरूई कहै हैं तो नो साहब को समुझेंदे साऊ उनको नहीं माने है नकछई माने हैं नटवरवंद खेल जो जांने। ताकरगुण जो ठाकुरमाने॥३॥ उद्दुजों खेलेसबचटमाहीं दूसरकालेखा कछुनाहीं ॥४॥ भलोपोच जो अवसर आगे कैसे के जनपूरा पाये ॥५॥ अब योगिन को कहेहें नट कैसे बेटा जो कोई खेंडे जाने है कहै यहमीव आत्माकों अह्मांडमें चढ़ाइके फिरिउतारे जाने है ताको गुण यहहै कि, समाधि छगि जाइहे कहे बह्मरूपहैजाइहे सो वही बह्मकोी नो कोई ठाकुर मानेंहे ३॥ अथोव्‌ नोनब्रह्ममैं ह्वेगाउहों तैने घटमें है दूसरेकी कछुनहों लगे है अथीव दूसरों पदार्थ कछुनहीं है सो जे यहमत करें तिनको भछों पोचं- कहे नीकी नागा अवसर आवतहे अर्थात्‌ जब जीवमें ढीन है बह्मरूप हैना- इहे याती भछो अवहर। जो जब समावि उतरिनई जैसेके तैसे ह्ेगई या पौँच- अवसरहे सो कैसे के जन पूरो ज्ञान पावै कि हम पूर्णब्नहैं तो सर्वत्र पूर्ण : है जो या बढ़ह्न तातों ते समाधिउतंरेहमें वहों वृत्ति बवी रहती

साखी जेकरे शरलांगे हिये, तव सो जानेगा पीर

ते

छागेतो भांगे नहीं,सुखर्सिचु निहारु कवीर ॥६॥.

रमेनी . (१५९)

जेकरे शरढागेंहे सोई बाणछांगे की पीर जाने सो जो: कोईसमाधि छगांवे है सोई समाधि उतरेको दुःख जानैंहे सो समाधि तौ तोर छामेंहै ना भाग समाविहीलगाये रह सो तेरो भागिषों तौ बनतई नहीं है समाधि उतेरही आवेंहे याते यह धोखा छोड़िदे कबीरनी कहे हैं सुससिधु ने साहबहैं तिनकों निहारु जिनको एकबार निहारे समाधि छगी रहैंहै अथीत मो एकह॒बार साह- बके रुम्मुख भयेहै: सो फ़िरेनहों संसार में बच्योहै तामेंममाण ॥( एक्रोपि ऊंष्णस्यक्ृतः प्रणामो दशाइवमेधावभृथनतुल्य: दशाइवमें पी पुन तिनन्मकृष्ण- प्रणामीनपुनभवाय इति ) अथवा जाके बाण लगे है सोई पीर जाने है सो जो साहब में छगगे हैं तेई धोखाकी पीर जाने हैं कि हमयोंगमें यज्ञादिमें छगि के नाहक जन्म गँवाये।सो कबीर जी कहे हैं कि साहबक़े दुर्लमजानि तैं लागु तीभागु साहब सुखसिंधुहै तिनको तूनिहारु तौ ये सब थेखनकी पीर दूर करि देयँगे तब अपराध तेरो गगेंगे तामें प्रमाण॥' 'कथ्थचिदुपका रेणकृतेनेके नतष्याति नस्मेरत्यपकाराणांशतमप्यात्मवत्तया” इतिबाल्मीकीये

शति अडसठबीं रमनी समाप्ता

अथ उनहत्तवीं रमेनी क्‍ चोपाई। ऐसा योग देखा भाई। भूला फ्रि लिये गफिलाई ॥१॥ महादेवको पंथ _चलावे। ऐसो वड़ो महंत कहावे हॉट वाट में लाबे तारी बच्चे सिद्धन माया प्यारी कबद्त्ते मावासी तोरी कब शुकदेव तोपची जोरी ॥४॥ कव नारदवंदूक चलाया। ब्यासदेव कब बेच बजाया॥ <॥ करहि लड़ाई मतिकेमंदा।ईहें अतिथि कि तरकशव॑दा॥६॥ भयेविरक्त लोभममनठाना। सोना पहिरि लजावै वाना॥७॥ थोरा घोरी कीन्ह बटोरा गांवपाय यश चलो करोरा ८॥

६१६० ) बीजक कबीरदास।

साखी तियसुन्दरी सोहई, सनकादिक के साथ॥ कबहुँक दाग लगावई।, कारी हांडी हाथ

#- कर का

शैसाी योग देखाभाई घ्रछा फिरे लिये गफिलाई ॥१॥ महादेव को पथ चलावे।ऐसो बड़ो महंत कहावे २॥ हाटवाट भें लावे तारी कच्चे सिद्धन माया प्यारी कृव दत्ते मावासती तोरी। कब झुकदिव तोपचीजोरी

श्रीकबीर जी कहेंहेँ कि ऐसा योग हम नहीं देख्यो है कि साहबकों ते

से ही चेक के के आर करे किम कपल विवि.

जाने नहीं हैं गाफिछ हैके भूछे भूले फिरे हैं अरु महादेव को पंथजा |

तामस शाखहे सो चलावे हैं बड़े महंत कहावे हैं सबके देखावन को हाट में पहारन के बाट में तारी छगायके बेठे हैं सिद्धकहावै हैं सबके देखावन को यह कहै हैं कि संन्यासीकोी धर्मनहीं है कि द्ब्यछेय हाथछुवै परंतु जो कोई चढ़ाइके चली जाइहे ताको चिमयते लकेँ कमंडलुमें डारिलिइ हैं सो ऐसे कच्चे सिंद्धन को माया बहुत प्यारी रुगैहे दत्ताजेय कबै मवासिनकों शज्भुन को तौरयोहे झुकदेव कबे तोपखाना अपने साथ जोरेके चलायो है | हि ठूः सक बाप + कब नारद बद़क चलाया ब्यासद्वकवत्रवज्ञाया ॥«।। क्र [० शकण पल... चर आस छा कट. + हे हिंलराई मतिकेमंदा इहेअतिथिकितरकसबंदा ॥६॥ तह विश विकार आप ज्ञ क्र भये विरक्त लोभ मनठाना। सोनापहिरि लजविंबाना॥७9॥ ॥० पक कस कीन ५३७ >े धोराघोरी कीन्ह बटोरा गॉवपाययशचलो करोरा ॥८

नारद मुनि कबे बंदूक चछायो है ब्यासदेव कबे नग'रादैकै काहके ऊपर चेद्हँ संन्यासी बैरागी मतिके मंद छड़ाई करे हैं ईं मंतिथि हैं के, तरकस बन्द्सावंतहें!॥६॥ भये तो बिरक्त संन्‍्यासी परंतु छोभ

०० पी

रमेनी (१६१ )

पे

कारके रोजगार करे हैं सोना पाहारे के बानाको लजावे हैं ओऔ बोरा घोरी हाथी बहुत आपने संगछेत भये काह राजांते गांव पायो करेर- पती है या यश चलायो बड़े ज्ञार्नहैं बडे भक्त या यश चलायो [बा विद पीली ही पाप साखी तियउ॒न्द्री सोहई,सनकादिक के साथ कवहुंक दाग लगावई, कारी हांडी हाथ ९॥ लाव लश्कर में स्ली साथ रहतई है सनकादिक जटाधारे वैष्णवनको कहेंहैं अथवा सनकादिक कहे जिनकी पांच वर्षकी अवस्था बनीरहैहै ऐसेबह्माकेपुल तिनहकी या मनाहोयतोकबीर जी कहे हैं कि संन्‍्यासिनके साथमें सुन्दारीका सों-

हैहै ! नहीं सेहिह कबहूं दाग छगावतईहै जैसे कारी हांडी हाथमें ढेईं तो दाग

हे ठागिही जायहै ऐसे जिनके जिनके संगमें ख्ीरहैहे ते पा्ंडिनकों दाग ढगते है ख्रीनते नहीं बचेहेँ। नामके तोसंन्यासी बेरागीहैं अखाड़ा गृहस्थी बांधेंहँ तहां खी आवई चाहें सो दाग छुगावई चाहें अथवा ऐसे पाखंडीहैं ते माया रूपई हैरहेहैं तेई मायारुपी सुन्दरी कहे खीहें तिनकी संग नकरे जी नो संग करे तौ दाग छूगवई करे सो जीव ते पाखंडिनको संग करे तामेंप्रमाण ॥( पुसांनयधरणमोनवतां वृथेव मेधाविनामखिलशोचनिराकृतानाम्‌ तोयम्दानपितृपिण्डबहिःकृतानां सेमा« पणा[दापिनराःनरकंग्रयांति ) इतिविष्णुपुराण ९५ इते उनहत्तरवीं रमेनी समाप्ता 4 कर 8, अंथ सत्तरवा रसनी है चोपाई | बोलानाकार्सों वोलियेभाई। वोलतही सबतत्तनशाई॥१॥ बोलतबोलत वाह बिकारा। सोबोलिय जोपरेबिचारा ॥२॥ मिलेजोसंतवचनदुइकहिये मिलेअसंत मोनहे रहिये॥३॥ पंडितसों बोलियहितकारी मूरुखसों रहिये झखमारी॥७॥ ञ्‌ किक दी कह कबीर अधचट बोले। पूरा होय विचार लेवोले ॥५॥ ११

( १६२ ) बीजक कबीरदास |

७२ हा रे ७. ... रू बोलाना कासोंवीलियेभाई वोलतही सबृतत््वनशाई॥ १॥ बिक बिक विश फी आप वि वोलतबोलतवाढु विकारा सोबोलियजो परेविचारा २॥ बैरागिनकी संन्यासिनकी दशा जैसी हैरही है सो पूर्बकहिआये सो ऐसे पाखँंडी संसारमें है रहेहें बोलानाकार्सों बोलिय बोलतहीमें सब तत्त्व नशाइ जाइहै।तंत्वकह विहे यथार्थ सो साहब के जे वामरूप लीला घाम यथार्थ हैं ते नशाइ जाईहै कहे भूलिजाइंहें ॥१॥बोलत बोछत बिकारई बोढ़ेंहे ताते सो बात बोलि- ये जेहिते साहब के नामादिकन को बिचार ठीक परिजाइ कोंनी तरहते सांच बिचार ठीक परे सो कहे हैं हि कस आह कर रे + | ॥॥ आर मिलेजोसंतवचनदुइकहिये मिलेअसंतमोनहेरहिये ॥३॥

पण्डितसोंबोलियहितकारी मूरुखसोंरहियेझखमारी॥७॥ जो संत मिलेतों द्ैववन कहबऊ करिये दैबचन कह्मयोताकीं भाव यहहे कि थोरई आपने प्रयोजन मांत्र बोलिये सत्संग करिये कहिते कि उनके सत्संग किये बिचार बाढ़है असंत मिले तो मौन है रहिये बोलिये काहेते कि उनके संगते अज्ञान बाढ़ है तेहिति पंडितशों बोलिबे। हितकारीहै काहेते के पंडित नेहें ते सारासारकों विचार करिके सार पदार्थ जे साहबह तिनको ठीफ करिके असार जोहे धोखा बह्न माया ताको छोड़े दियोंहै वे साहबको बतावेंगे मृरुख सों बोडियो झकमारीहैं काहेते कि जो मूरुख सों बोले तो अपने स्मरणकी हानिहाइ है वह तो समुझायेते समुझैगों नहीं तबआपही झक- मारे के रहिनाइगों पीछे क्रोध होइगे अरु मूरुख नहीं समुझैंहै तामेंममाण गोसाई जीकोी॥ सोरठा “फलेनफूलेबेत, यद्पिसुधाबरपैजलूद्‌॥ मृरुखहदयन- चेत, नोगुरुमिलेंबिरोचिसम”” पानीकोपान भीनै तो बेचें नहीं। स्यों मृरु- खको ज्ञन बुझावे तो सूझैनहीं कहकबीरई अधवट डोले | पूराहोय विचार लेबोले॥ ५॥ भीकवीरनी कहेंहें कि जे सत्संगऊ करे हैं भो मुरुखह सों बोले हैं शाखा करे हैं और और मतको सिद्धांतकों जानो चाहैंहैं कि हमौरे मत ठोक कि 9 सर

ओरऊमतटीकहे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र सबते परे हैं यह सिद्धांतकों निरचय नहीं है

रमेनी ( १६३ )

ते अधवरनहें और और मतवारे इनकेसमुझाये नहीं समुझै हैं। असंत संगकरिके बिचारकी हानिहोइहै। कहाहानिहोइहै! कि औरऊकी बिचारमन पर न॑ लगे है अपने मतमें श्रमहोन लगहै आपनो ठोकनहीं वह ठीकहै मैस आधी गगरी जलूसे भरीहोइ तो वाकोजल डोलेंहै ऐसे साहबमें उनको ज्ञानतों पूरों नहीं ताते डोलिंहे जो पूरा सो वीचलके बालिहे औरे पहन सुनिके वाकोबिचार हैलियों कहे समझ्ि लियो कि यह वोलिबो अधिकारी है हमारो कट्मो समुझैगो तब बोलिहै नैसे भरी गगरी को जल नहीं डोंडे है और जल वामें नहीं अमाय है ऐसे वे तो साहबके ज्ञान पर हैं सो उनको ज्ञान डॉले नहीं है अरु और मतनको सिद्धांतके जे ज्ञान हैं ते उनके अंतःकरणमें नहीं समायहें « अरे 6

इतिस तरवीरमेनी समाप्ता | अथ इकहत्तरवीं रमेनी चोपाई। सोग वधावासम करिमाना | ताकी बातइ न्द्रनहिंजाना। ।१॥ जदातोरि पहिरावे सेली | योग युक्तिके गभे दुहेली २॥ आसनउड़ाये कोन वड़ाई। जैसे काग चील्ह मड़राई॥३॥ जैसी भिस्त तैसि है नारी। राजपाट सब ग॑ने उजारी ॥३॥ जैसे नरक तसचंदन माना जसबाउर तसरहेसयाना ॥«॥ लपसी लोंग गने यकसारा। खांड़े परिहरि फांके छारा॥ ६॥

साखी यह विचार ते वाहि गयो, गयो बुद्धि बल चित्त॥ दुइ मिलि एके ह्वे रहो, काहि बताऊ हित्त ७॥

सोगवधावा समकरिमाना। ताकीबात इंद्रनहिजाना १॥

शः कि

जटातोरि पहिरावे सेली योगयुक्तिके ग्भे दुंहेली २॥

( १६४ ) बीजक कबीरदास |

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आसन उड़ाये कोन बड़ाई जैसे कागचील्हमड़राई॥३॥ जेसीभिस्ति तैसि है नारी राजपाटसवगने उजारी ॥४॥

औरे पदको अर्थ स्पह्टे है १२।३ अब फिरि साहब के जनैयनकों कहेहें कि मिस्तिकहे स्वगैकों माँनहै तैसेनारीकहे दोजख को मानेहें अरबीकी कि ताबनमें मिस्तिकों निन्नत दोजखको नारी अर्थके सम्बन्धते बहुत जगह कहोँहे अथवा नारकहे आगि सोजामें होय ताको नारीकहैंदँ अर्थीद नरक और भेस्ति पाठहोय तोनैंसे भिस्तिकह देंवालकों मानें तेसे नारीकी मनिहें और रानपाट जेंहे जगत ताको उजारई गनेहें कि संसार हई नहींहे चित अचितरूपष साहबईके हैं नरक स्वर्गादिक तामें ममाण “नरक स्वगें अपबग समाना जहेँ तह देखि धरे धनु बाना” जेसे नरकतसचंदनमाना जसबाउर तसरहेसयाना ॥५॥

| 4० पल, 40.

लप्सीलोंगगन यकसारा खांड़े परिहरिफांकेछारा॥ जैसे नरककहे बिछ़ाकों तैसे चन्दनकों मनिहेंओ हेंती सयान कहे साहब को जॉनेंदं परन्तु रहतबहुत बाउरही के तरहहैं ॥५॥ जे साहबको नहीं जननिह आपहीको ब्रह्म मानेहें तिनकाक्हैहँ लपसी छोंगकों एकई मनिहें खांड़ छोड़िके छारकों फांकैहँ अथोव्‌ ताहकी एकही गनेहें सत्र एकही ब्रह्म मानेहें नो कहो समान दृष्टि करतईहें साहबके गेर जनेयन कहे जाननवारे हैं ये आपहीकों ब्रह्म मानिहें ओो खांड परिहरिके छार फांकेहें ताको भाव यहहे खांड साहबने मिठआाई ताके देनेवारे तिनकों छांड़ि के छारफांकै हैं जामें सारकछनहीं है "हंत्ह्यार्िमि ज्ञान करेहें साखी यहिविचारते ' बहिगयो, गयीबुद्धिवलचित्त दुइमिलि एके ढे रहो, में काहिबताऊंदहित्त 9॥ श्रीकषीरणी कहेह बिचारतवुद्धिकों बलजोंहै निश्वयकरिंके अहंब्रह्म मानि सो येह नातरहो चित्तजाँहै सोझ जातरहयों मनोनाश बासना क्षय हैगई कछु बासना गहगई दुइ जहैंब्ह्म जीव ते मिलिके एकही है रहे जैसे

रमेनी ( १६५ )

ल्‍्ण | श्भ

कहत्तरवा रमना समाप्ता।

बहत्तरवीं रमेनी चोपाई

नारि एक संसारे आई। माय वाके बाप जाई १॥ गोड़ मूड़ प्राणअधारा तामें भरामे रहा संसारा ॥२॥ दिना सातलों वाकी सही वुधअधबुधअचरजयकक्‌ही॥ ३॥ वाहिकिवन्दनकरसबकोई।बुचअधब॒धअचरजब ड़होई ४॥

एक नारि जो यह मायोहे सो संसार में आवतभई वांके महंतारी है आन

वह बापते उत्पन्नेहे अथोव्‌ अनादिहे अरु वाके गोड़हें मड़ है

प्राणहै आधार है अर्थात्‌ निराकारहै भर्मईहे ताहीमें संसार भरमिरद्यो है॥२॥ ओं सातो जे बारहें दिन तिनमें वही मायाकी सहींहे अथीव्‌ कालछमें वही अमि- सौंहे सातेबार बोई फिारे फिरे आँवेहें वही मायाकों चारोंभोर बिस्तारहै बुधनोंहे पण्डित निरगुणवारे ने सारासारकेबिचारकाश्कै आपहीको अज्वमोनेहें जधबुधनेहें आधिपण्डित सगुण डपासनाबारे सो ये दूनोंमें आश्य्ये जोंहै आया ताकी एक कहेह दूनोंमें यह माया बगशेबारे व्याप्तेहे श्रीकबीरणी कहह कि यह बड़ो आश्चय्य है तो कछुनहीं है वहीं मायाकी बन्दना निर्गुण- सगुणवारे दोऊकरेंद नो मन बचनमें अविंहै सोमायाहीहै

इति बहत्तरवीं रमेनी समाप्ता

( १६६ ) बीजक कबीरदास अथ विहत्तरवीं रमेनी गुरुसुखचोपाई चलीजातिदेखोयकनारी तरगागारिऊपरपनिहारी १॥ चलीजातिवहवादेवाटा सोवनहारकेऊपरखादा जाड़नमरेसुपेदीसोरी खसमनचीन्हैघरणिभेयोरी सांझसकारदियालेबारे। खसमछोंडिसुमिरेलगवारै 9 वाहिके सड़में निशिदिनरोची। पिय सो वात कदहेनाहिंसाँची सोवत छाड़िचली पिय अपना।ईदुखअवधोंकहोंक्यहिसना

साखी अपनीजाँच उधारिके, अपनी कही जाय | की जाने चित आपना,; की मेरोजन गाय है ७)

चलीजातिदेखीयकन। री। तरगागरिऊपरपनिहारी १॥ चलीजात वहवाटेबादा सोवनहार के ऊपर खादा॥

सुरतिरूपी जोनारी सोईहैं दूतीताकोहम चढीजातदेखाहैददयनोगगरी हें सो तेरेंहे ओसरति उठीसाऊपर सुधासरोवर में जहू भरनको गई शीझमें पहुंची १॥ बह सुराति जबचलेंहे तब पट्चक बेधिके राहराह जायहै काहेतेकि नाभीमें मणिपूरक चक्तहै तामें शीशादिये नागिनी बैठीहैं सोई पटकहे पढेंगहे सो ऊपरहे ताके नीचे सोवनहार जो है आत्मा सोरहैंहै तहांते सुरतिउठहै तहां ज्वाछा साथ नागिनी उठावे ताही साथ प्राणनायहै

* जि कप आस आर जाड़नमरेसपेदी सारी खसमनचीन्हेघरणिभेवोरी ॥३॥ जि कप 0 चर

सपझझिसकार दियालेवारे खसमछोड़िसुमिरे ूगवारै॥४॥

पुषेदी कहे रजाई जोहे यह शरीर सों जाड़नमरे है अथीव शीत उष्ण वहीको छगेंदे सौरोकहै सुपेदीकों सुमिरणकरिकेजाड़नमरेंहै अर्थात्‌ जबरूग देहा-

रमेनी ( १६७ )9

भिमानहे तबरूग शीतउष्णहैआत्माकों नहों लगहै साहब कहहें। कि वह जोंहे आत्मामेरी घराणे कहे ख्री अथीव जीवरूपा मेरीशक्ति सो में जो हों याकों खसमताको नहीं चीन्‍न्हैंहे त्यहिते बोरीकहे बौरायगर साँझ सकार दियांडैयारेहै कहे समाधिछगायके ज्योतिकों बारिके कुंडलिनी उठाइ आत्माकों लैनाइके वही ज्योतिमें मिलाये है याको में खसमहों सो मोको छोड़िके लगवार जोहे धोखा ब्रह्म ताको सुमिरे है वाहिकेसगर्मानिशिंदिनराँची पियसोंवातकह्देनदिसाँची « सोवतछांड़िचलीपियअपना इंद्खअवधोंकहबक्यहिसना सुरातिरूपी नारीनो है दूती ताहीके साथहैंके वहीधोंखा ब्रह्म में निशिदिन रचिरंही है कहे भीतिकारेरही है पियनोमैंहों तासों सांचीबात नहोंकहेंहे सांची बाते कहाहे कि में तिहारोहों यहनों कहै तो में जीवरूपा शाक्तिको छोड़ाइले् साहबकी यह प्रतिज्ञा है जो मोको जाने मोकोगोहरावे तीमेंसंसारते छुड़ाइलेई तामें प्रमाण। अबहूंलेड छुड़ाय काछ ते जोबट्सुरति सम्होर” ॥५॥ से नीवरू- पाशाक्त मोकों जान्‍्यों मोकों गोहरायों सोवबत रहि गई जागत ने भई सोवतमें मोकोछोड़े स्वप्त देसनबाली संपारीहिगई अर्थाव मोहरूपी निद्रा जब प्राप्तमई तब संसार में परि के नाता दुःखपावेंहै सो यहदुःख अपनों कासों कहे सांच जो में ताक तो जाने नहीं है अरु और सब स्वप्नते झूठे हैं ॥६॥

साखी अपनीजाॉघरचघारिके, अपनी कही जाइ

कीजाने चितआपना, कीमेरोजनगाइ ७॥ साहव कहै हैं कि यहिभांति मेरी जीवरूपाशक्ति मोकोछोड़ि कै संसारेह गईं सो अंपनीनंघा जो उधारिहोइ तो कोई कहां अपनोगिल्छा करे है नहीं करेंहे ऐसे मेरी शक्ति यह जीव सो नो और और छगवार जोहैं सो यह दुःख का भोसों कहिजाइहै नहीं काहिजाहहे कि ते मेरो दिछ जॉनेंहै याको उद्धार है जाइ याही चाहौहों कि मेरेनन जेहैं ते मेरो सौशील्य दया बात्सल्यादिक गुणगान करिके जाने हें कि साहबमें निर्देह सौशील्यादिक गुणहैं जीवकों उद्धार

( १६८ ) बीजक कबीरदास

चाहे हैं और तो बज्ञानी जीव अपने भूछ जानेंगे याहीजानैंगे कि जोसाहब

सबको मालिकहै सब करिवेको समयहै ताकी जो इच्छा होती तो बंध ते तामेंग्रमाण॥ 'सोपरंतु दुखपावत शिर धुनिधुनिपछिताय। कालहि कमहि ईश्वगहि मिथ्यादोष छगायः” |

इति तिहत्तरवीं रमैनी समाप्ता 0 | औीव०५ सी 0७ अथ चाहत्तरवी रमनी चोपाई। तहिया गुप्त थूलनाह काया।ताके सोग ताके माया॥१॥ कमठ पत्र तरंग यकमाही।सद्भहिरहे लिप्त पे नाहीं ॥२॥ आश ओस अंडन महँ रहइ।अगणित अंड कोईकहई॥ ३॥ निराघार आधार लेजानी रामनाम छेडचरी वानी॥३॥ चमकह सब पानी अहई जातीके मन वानी रहईं॥ « टर पतंग सरे घरिआरातिहि पानी सब करे अचारा॥६॥ फेद छोड़े जो वाहर होई। बहुरि पंथनहिं जोहे सोई ॥७॥ साखी भमंक वांघल इजगत, कोइ किया बिचार हरेकि भक्तिजानेबिना, भवबूड़ि सुवाससार॥८॥

तहीयाग॒त्त थूलनहिंकाया ताकेघ्तोगनताके माया ॥१॥ कैमलपत्र तरंगयक माही संगंहिरहे लिप्तपे नाहीं ॥२॥ आशओमअंडनमहँरहई अगणितअंडनकोईकहई 5] निराधारआधार लेजानी। रामनाम रकैडचरीबानी 9॥

रमेती ... (१६९ )

जबजीब भूल्यो है तहिया कहे तब स्थूछ शरीर नहीं रहो गुप्तकहे सूक्ष्म कारण महाकारण येशरीर नहीं रहेहें तेहिनीवके सोगरहो जौ मायारहीहै ॥१॥ जैसेकमल पत्रमेंनछ रहैंहे पे कमठपत्र लिप्त नहीं रहे है तैसेयह आत्मामें माया बह्म यद्यपि सब कारण रहे हैं परन्तु माया बह्ममें आत्माहिप्त रहो ब्रह्न॑विकी जो आशाहै ताईपैयासहै सो ओसचांटे कहूं पियास नाहहै ओोसके समनोहै ब्रह्मानंद सो जीवरुपजेहें अंड तिनमें रेंहे अर्थात्‌ कारणरूपते जीवमें बने रहैंहे जब समष्टिनीवरह्मोहे तब रहेतो अगणितहेँ अंड परंतु सब्‌ मिलि एकई कहावत रहोंहे अगणित कोई नहों कहत रो निराधार जो निराकार बल्नहै जामें सबनीव भरहें ताको आधा- रे जानिये कि साहबके छोक में है अथीव्‌ साहबक छोकको प्रकाश तबतो समष्टिरही याही रामनाम लेंकेबाणी उचरीकहे प्रकटभई इहां रामनाम हछैंके बाणीममटभई ताकोहेतु यह कि बाणीमें जगत प्रगग्करिबेकी शाक्ति नहीं रही रामनामकी नगत्‌ मुख अथ लैकैबाणी उचरीहै पांचोबह्न समत जगत्‌ उत्पत्ति- : कियेंहे सोई इहां सिद्धांत करे है

धरमंकहे सब पानी अहई जातीके मन वानी रहई ५॥

ढोरपतंगसरे घरिआरा | तेहिपानीसवकरे अचारा फन्दछोड़िजो वाहरहोई। वहुरिपन्थ नहिं जोदेसोई

वेदशास्तरम आत्माकों धर्म कहे हैं कि आत्माचितहे याते चित धम्म है जैसे जलमें जलमिंढे तो एकई होजाहहै ऐसेचिन्मात्र नो बह्मह तामें मिलिके चित्त- जेंहे जीव सोएकई द्वैनाय काहेते कि दृहुनको चितधर्म एकई है जातीकहे सब जाति जेनीवहें ते आपने स्वस्वरुपको चीन्हें हैं कि में साहबको अंशहों जाति करके वहींहों कछ स्वरूप करके नहींहों भेद बनोई है बह सबैज्ञहै में अत्पत्हों वह बिभुंहे में अणुहों वहस्वतंत्र है में परतंत्र हों यह नो कहैहेँ कि आत्मा : अक्षई है सोती बार्णाकों बिस्तारहें सामान्यधर्मडैके कहेँहें दोर पतंग घ्रिआर आदिक नामें ररे हैं ताही जलमें सब आचार करे हैं अर्थात जोनी-

( १७० ) वीजक कचीरदास

बाणी में सब मरि मरि समा३ है और पुनि वहीते- उत्पत्ति होईहै जोन सबजीवको फंदायरे ! बाणीमें कहे सब आचारकरेहें अथवा वही बाणीकों आचरणकरे है आपनेकों बह्ममानेहे काहको आचार ठीक नहीं है यह बाणीके फेदते बाहरहैंके परमपुरुष ने श्रीरामचन्द्रहें तिनमें जो रूगि तो पुनि जगवके पन्‍थको जोदहे अर्थीत्‌ फिरि जगतमें आबे

साखी मरमकवांचलह्ेजगत, कोइनाहिकियाबिचार

हरिकिभक्तिजानेविना, भवबूड़िसुवासंसार ॥८॥ यहैं भांति भर जोमाया सबलित ब्रह्म त्यंहिकारकैबप्यो जो यह संसारहै ताको कोई नहीं बिचार कियो हरि कहे सबके कलेश हरनहारे वेद तातप्यार्य जेश्रीरामचन्दहें तिनकी भक्ति के बिनाजाने भर्मके समुद्र्में संसार बूड़ि मुवा कहे संसारीनीव बूड़ि मुयो इति चोहत्तरवीं रमेनी समाप्ता

पचहत्तरवा रसना

चोपाई।

तेहिसाहवके लागोसाथा। दुइ दुखभेटिके हो हुसना था॥ १॥ दश्र्थकुलअंवर्तारनहिआया।नहिलेकाकेरायसताया॥२॥ नहिं देवकिक गभहिआया।नहींयशादा गोद खेलाया॥३॥ पृथ्वीरमनदमननहिंकारिया पेठिपतालनहींबलिछलिया नहिंवलिरायसोमांड़ीरारी नहिंहिरणाकुशवधलूपछारी« वराहरूपधरणीनहिधरिया। क्षत्रीमारि निश्षचरनकरिया॥६॥ नहिंगोवद्धंनकरतेधरिया नहींग्वालसगबनबनफिरिया गण्डकशालग्रामनशीला।मत्स्यकच्छहेनहिजलहीला॥८॥ द्वारावती शरीर छांड़ाले जगनाथ पिंड नाहिं गाड़ा॥९॥

श्मेनी ( १७१ )

साखी कहहि कबीर पुकारिके, वा पन्‍थे मतभूल जेहिराखे अनुमानकारि,सो थूलनहीं स्थूछ॥१०॥

8 जे

तेहिसाहवर्केलागोसाथा दुइइुखभेटिकेहोहुसनाथा जिनको पूर्व कहि आयेहें ते हरि कहे रक्षक मन वचनके परे परमपुरुष जे श्रीरामचन्द्र है तिनके साथमें छागो दुूनों जे दुःख हैं निुण और सगुण [तनका मेटिके सनाथ होडकहे नाथ जे साहबहैं तिनते सहित वह साहब के- सेहे कि धोखाबह्नहे नहीं है कीन्यो अवतारमें नहीं है अर्थोत्‌ निगुण सग- णके परे हित वह साहब कैसो है कि धोखाबह्महै नहों है कौन्यो अवतार में नहीं है अर्थात्‌ निगुण सगुणके परे है कबहू जब' कौन्योकल्प में बाणनके युद्धकी इच्छा होइहै तब आपही प्रकट हैके प्रतापी नामको रावणहेोइहै तासें बाणनको युद्ध करेंहे फिर शरीर सहित को चले जाइहे औओ बहुधा ने अवब- तार होइहें ते नारायणे अवतार लेइह १॥ दशरथकुलअवतारिनहिआया। नहिलड्डाकेरायसताया॥२॥ नहिंदेवाकिकेगरभहिआया। नहींयशोदागोदखेलाया

पृथ्वीरमनद्मननहिकारिया।पेठिपतालनहींबलिछलिया श्रीकबीर जी कहै हैं कि, वे श्रोर/मचन्द्र कौन्यो अवतार में नहीं हैं दश- रथ के इहां अवतार नहीं लियो दशरथ के इहां अवतारले नारायणे रावणकों मारे हैं अरु वे साहब देवकी के गर्भ में नहीं आयो अरु वाकों यशोदा गोंदमें नहीं खेलायो औ३ अरू वे साहब पृथ्वी रमण है के म्ले- व्छनकों दमन अर्थात्‌ बामन रूप नहीं घरयो नहिंवलिरायसोंमाड़ीरारी।नहिंहिरणाकुशवधलपछारी «॥ वराहरूपधरणीनहिधरिया क्षत्रीमारिनिश्षतनकरिया॥ ६॥ नहिंगोवरद्धनकरगहिधारिया।नहींग्वालसैंगबनबनफि रिया अरु वे साहब बलिरायसों रारि नहींमांव्यो कहे मोहनीअवतारले देवतनको अमृत पिभाय देत्यनकों बारुणीपिआय बहिसों युद्धकरि दैत्यनको विष्णुरूप है

(१७२ ) बीजक कबीरदास

नहीं मारयों हिरण्यकर॒यप को पछारिके नहीं बाध्यों कहेनहीं बध्यों अर्थात्‌ तृर्तिह रूप नहीं धरयो अरू वे साहब बाराहरूप धरिके डाढमें धरणी नहींधरयों श्षात्रिनकों मारिके निक्षत्र नहों कियो अर्थात परशुरामकों अवतार नहीं छियो अरूु वे साइब करते गोबर्द्धनकी नहीं घरनों अथाद गोविंदरूप नहीं धरयो ग्वालके सड़ग बन बनमें फिरयो है याति हलऊघर रूपनहीं धरयों ७9

गंडकशालआमनशीला ।मत्स्यकच्छह्ेनहिजलहीला। ।८॥ द्वारावतीशरीरनछाड़ा। लेजगन्नाथण्डिनहिंगाड़ा

अरु वे साहब गण्डक म्‌ शाहुग्राम का शिला नहीं भये मत्स्य कच्छ हैके जलमें परे हैं अरू वे साहब द्वारावतीं में शरीर नहींछो- डोहे अथीव कालस्वरूप नहीं धारण कियो जौननौन फिरि द्वारावताम छोब्यो है जगन्नाथ के उद्र ब्रह्म नो इधा में तेमराख्यो है सो वे साहब को तेन नहीं है यहि तरहते सगुण ने नारायण हैं सब अवतार हैं ते बे नहीं हैं

खी ४-८ 45० ।आ + भू साखी॥ कहँहिकवीर पुकारिके, वा पंथेमाति भ्रूल ता है. हि कक मा अभी थू #०+ थू ज्याहरास अनुमानकार,सा थूलनहाँं अस्थुलू ०॥ श्रीकबीरजी पुकारिके कहे हैं कि, वा पंथेमतिभूछकहे जाउ ज्यहि राखें अनुमानकारे कहे अनुमानकारे राख्यों है बह्मको सोऊ वे साहब नहीं हैं स्पूलनहीं स्थूछकहे थूछहोई सो स्थूछ कहाबै अर्थीव्‌ निराकार नहीं हैं ताते सगुण निगुण साकार निकारके परे श्रीरामचन्द्र हैं यह बतायों दशरथके इहां नारायण अवतारलेइ हैं तिनके रामनाम होइ है तिनहीं रामरूपते सगुग निर्ग णेक्े परे हैं १०

इति पचहत्तरवी रमेनी समाप्ता

रमेनी ( १७३४ ) # 5 जल अंथ [छह त्तरवी रम॑ना चोपाई मायामोह कठिनसंसारा। यहेबिचार काह विचारा॥१॥ मायामोह कठिनहे फंदा। होय विविकी सो जन बंदा ॥२॥ रामनाम ले वेराधारा सो तें छे संसाराहि पारा 3 साखी॥ रामनाम आते दुलभ अवरे से नहिंकाम आदि अंतं यगयुगे रामहिते संग्राम

मायामोह कठिनसंसारा। यहे बिचारनकाहुविचारा ॥१॥

मायामोह रुपते संसारकों देखे है कहे नानापदार्थ भिन्नदेखे है याहीति संसार कठिन है यामें व्यज्ञ यह है कि, जो संसारकोभगवतचिद्विद्‌ विग्रह- रूप करिके देखें तो ससार उतरिजायबे को सरले है सो यह बिचार

_ विचारय मायामोह कठिनहे फंदा। होय बिवेकी सोजनबंदा अरु कह संसारमें मायामोहरूप कठिन फन्‍्दा है जो संसारमें सब भिन्न मिन्न पदार्थ देखे है तौने संसार कोई भगववचिद्चिद्‌ विग्रहरूप देखे बिवेकी होइ सोई जन साहबको बन्दा है ेु राम नामले वेरा धारा सो तें ले संसारहि पारा भी रामनाम नो है बेरा ताको आधारलैके नो कोई साहबको जान्यों है ताको डबार द्वैगयो है सो तैंहू रामनामजोहै बेरा ताको आधास्ले कहे रामना- मर्म आरूढ्हो साहबको जानु ते तें संसार समुद्को पार हैनाय साखी रामनाम अति दुलेभे, अबरेसे नाहिं काम

आदि अंत युग युगे, रामहिते संग्राम ७॥ श्रीकबीरनी कहे हैं कि यह रामनाम अतिदुलभहै मोकेऔरे से काम नहीं

(१७४ ) बीजक केंबीरदास

है आदि अन्तर युगयुगम मोसों रामैते संग्राम कहाहै कि शाखा कारिक रामनाम में जों जगतमुख अथहै ताकोखण्डन करिके अतिदुद़भ जो साहब मुख अर्थ ताकोग्रहणकरोंहों अथीत्‌ जबजगवकी उत्पत्ति नहों भईहै तब सुगयुगन में कहे मध्यमें अन्तम कहे जब मुक्तह्नेगयो तबहू रामनामहीते संग्रा-

मकियो है अर्थात्‌ रामनामको बिचार करत रहोहों इति छिहत्तरबीं रमेनी समाप्ता भर 3 कि अथ सतहत्तरवा रमन चोपाई एकेकाल सकल संसारा एके नामहे जगत पियारा ॥१॥ तियापुरुषकछुकथो जाईं। स्वरूप जग रहा समा३ई॥२॥ रूपअरूपजाय नहिंवोली।हछुकागरुआजाय तोली॥३॥ भूखनतृषाधूप नहिछाहीं | दुखसुखरहित रहेत्यहिमाही॥8॥ साखी अपरम परम है पमझुरगी,नहित्वहि संख्या आाहि। कहहि कथीर एुकारिक॑, अद्भत कहिये ताहे ॥५॥

एके काल सकल संसारा।एके नामहे जगतपियारा एक जोहे लछोकप्रकाश बह्म ताको अनुभव करिके जोब्राह्मण मानिलेद्है सोई माया सबलित द्वेबोहे सोई काल सकछ संसारमें है सी जगव को पियार एक जेंहि रामनाम ताको बिनाजाने याही ते जन्ममरण होइहे तियावुरुषकछुकथी नजाइ संवेरूप जग रहा समाई ॥२॥ रूपअरूपंजायनहिवोली।_छकागरुआजायनतोली ॥३॥ भूखनतृषाधूपनहिंछाही | दुखसुखरहितरह॑त्यहिमाही ॥४४ बह माया सबित बह्मकी खी कहिसके पुरुषकहिसके स्वरूप हेंके संसार में समाइ रहो है॥२॥ वाको रूप कहिसके वह हहूका गरुआ

रमेनी ( १७५ )

भर

तोलि जाइहे कि हलुके गरुहे अर्थात्‌ अहंबह्म मानिबों तो धोखाहे नो कछ- होइ तोकहिनाइ औतोडि नाइ ॥३॥ नौनेछोकमें भूखह तृषाहै धूपहे छाहीं है दःखहे सुखहे तोने साहबके छोकमें प्रकाशरूप अह्वरेहे॥४॥

साखी अपरमप्रमहूपमझुरंगी, नहितेहिसंख्याआहि कहहिंकबीर पुक्ारिके, अद्भत कहिये ताहि॥५॥ वह साहबकी लोक परमरुपहै ताकी प्रकाश जो है वह ब्रह्म सो परमपुरुष

है कहे परम नहीं है तोनेकी आपनेहीकोीं मानिश्रो जो है कि वह बल्नहमहीं हैं

घ्े

सो धोखाह तेनिके मगमरगे जीव तिनकी संख्या नहों है अर्थात्‌ वही प्रका- शमें भरेरहे जे सर्माष्ठ जीवह ते व्याष्ट हगये हैं तितकी संख्या नहीं है सो

कबीर जी पुकारिके कहे हैं कि आपही कर्पना करिके वह प्रकाश रूप ब्रह्म

कोमान्यों कि वह बल्य॑नहों सो वह तो लोकप्काशहै है जीव! वहप्रकाशबल् नहीं हैसकेहे यही धोखाम जीव बड़ों जाइ है यह बड़ों आइचर्य है जोयह पाठहोह अपरमपारे परमगुरु ज्ञानहुप बहुआहि तो यह अर्थ है अपरम जोहे प्रकाशरूप ब्रह्म ताह के पारनोहै परमछोक जाकों प्रकाश वह अह्यहै ताको परमश्रेष्ठकहेमालिक ने परमपुरुष श्रारामचन्हहैं तिनको मान्यों वहजो है पकाशबह्न ताको जोज्ञान कियो कि ब्रह्ममहों वहे जो है धोंखा अह्म॒ तेहिति बहुआहि कहे नीब बहुत हैगये काहेते कि ज्ञानबहुतहै ज्ञानीज्ञान करिफे अल्न माने हैं भी योगी नेहें ते ज्योतिरुप में आत्माको मिलाइके ब्रह्म माने हैं

[॥प का जे को ३.

इत्यादिक नानारुप करिके ऐक्यमनि हैं और संगुण उपासनावोरे कोई चतुभुन कोई अष्टभुन कोई देबी कोई गणेश कोई सर्य इत्यादिकनमें ऐक्य- मति हैं ज्ञानकरिके तेहिते ज्ञाननाना हैं साहब तो मनबचनके परे वह छोक में एकही बनो है

इंते सतरत्तरवीं रमैनी समाप्ता

क््िः

"32

( १७६ ) बीजक कवीरदास | अथ अठहत्तर्वी रमेनी चोपाई।

मातुष मन्म चूकेजगमाझी। यहितनकेर बहुतहें साझी॥ १॥ तातजननिकहे हमरोबाला|स्वारथलागि कीन्हप्रतिपालार कामिनिकहे मोर पिय आही।वाधिनिरूप गरासे चाही॥३॥ पुत्र कलत्र रहें लवलाये। जंबुक नाई रह मुँहवाये ४॥ काकगीध दोउ मरण विचारें। शुकरइवान दोउ पंथनिहारें५ घरती कहे भोहिं मिलिजाई पवन कहे में लेव उड़ाई॥६॥ अग्नि कहे में $ तन जारों ।सो कहे जो जरत उबारों॥»॥ ज्यहि घर को घरकरे गवारे। सो बैरी है गले तुल्लारे॥ ८॥ सो तन तुम आपनकैजानी।विषयस्वरुप भले अज्ञानी॥९॥ साखी यतने तनके साझिया, जन्मोभरि दुखपाय

चेतत नाहीं वावरे, मोर मोर योहराय १०

मालुष जन्म चुकेजगमाझी | यहितनकेरवहुतहसाझी ॥१॥ तातजननिकहैहमरोवाला। स्वारथलामिकीन्हप्रतिपाला कामिनिकहैमोरपियआही। वाधिनिरूपगरासैचाही ३॥

है जीव ! तें मानुष जन्मजगवके बीच में पायक चूकिगयों साहब को भजन कियो या तनके साझिया बहुत हैं औमाता पिता कहै हैं हमारों पुत्नह आपने अथे में छगिके मतिपाढकरे है कामिनि जो परख्री

कं अर हे सो कह हैं हमारों बड़ो प्यारों पति है बाधिनिरुप रति समय में गरापि- बोई चाहे है अथवा वाके संगते मूड़ह काये जायहै

रमेनी (१७७ )

: पुत्र कलत्न रहें लवलाये। जम्बुकनाई रहसुहबाये : कागगीघदोउमरणविचारे। शकरइवानदोउपंथनिहारै ॥५॥ 'धरतीकहे मोहिमिलि जाईं। पवन कहै मेंलेव उड़ाई॥ 'अगिनिकहे में तन जारों। सोनकहे जोजरतउवारों ॥»॥

पुत्र कलञ्न जो घरकी स्त्री को लालच लगाये रहे हैं धनलेबे की वाको

» उनकी चिता मांससुखान जात है जैसे सियार मांस खबिकों मुंहफारे रहै है तेंसे बोऊहें ॥४॥ ओऔकाग जेहें गीपने हैं दाकर जेहें शवान नेहें ते मरनकों पंथ्‌

तेरो निहारे हैं या बिचारे हैं कि नो मरे तो हम मांसखायँ॥ ५॥औघरती

कि मोहीं लिजाइ पवन कहे है |के याकी खाक में उडाय लेजाईें॥ ६॥

_ अग्नि चाहे है कि याके तनको जारिडारों सो या बात कोई नहीं कहै है जाते

जरत में उबार होइ बचिजाय

जेहिघरको घरकहे गवारे। सो बेरी है गले तुझारे सोतनतुमआपन के जानी विषयस्वरूपश्चुलेअज्ञानी ॥६॥

साखी। यतने तनके साझिया, जन्मो भरिद्खपाय चेतत नाही वावरे मोर, मोर गोहराय १०

जेहि घरको शरीरको तू कहे है के मेरो है सोघरशरीर तेरेगढे की बेरीकहे

जे के और

फांसोहे अथवा बेरी है यमके यहां गछाकटावेंगें ॥८॥ हे अज्ञानी ! तोनेशरीरकों तू आपनो मानिके विषयनमें परिक्रालि गये। है ॥९५॥ सो यतने नेतने कहिआये ते यहि तनके साझी हैं तिन तेजन्म भरि तैं दुःखपायके हेबावरे ! कहे मूढ मोरमोर तें गोहरावे है कि यातनमेरों है अजहूं चेतनहीं करे है।के यातनेमोका

फांसेहि १०

इते अठदत्तवीं रमैंनी समाप्ता।

रे

(१७८ ) बीजक कबीरदास सह चक्र # अंथ उन्नांसवा रमना | चापाई | बढठवतवादि घटावत छोटी परखतखर परखावतखोदी केतिक कहों कहांली| कही। ओरो कहों परे जो सही॥२॥

8. अरे अर.

कहे विनामोद्दि रहो जाई। बेरंहि लेले कूकुर खाई ३॥ साखी खाते खाते यगगया, अजहं चेतो जाय कहाहि कबीर पुकारि के, जीव अचेते जाय॥ ४॥

बदवतवादिघटावतछोटी।परखतखरपरखावतखोटी १॥ केतिककहों कहांलों कही ओरो कहों परे जो सही ॥२५॥

कहे विना मोहिं रहो जाई बेरहिलेले कूकुरखाई ॥१॥

यह माया को प्रपंच जोहे सो बढ़ावत जाइतो बढ़तई जाय है रंकते इंब्रह ह्ैनय तऊ चाह बढ़तई जायहे जो बटाबवैलगे तो पटिही नाइहै नाना- मतमें छगि मनमुखी बिचारेंहे तव तो खर कहे सांचेहे जब काह साधते परखायों तब झूठहींड्वे नायंहै आऔरमें केतिको बातकद्यों परन्तु पाथरकै- सो पानी बहि जाइहे बेघे तो हईनहीं है में कहांछों कहों ओऔ औरऊ कहों जो पर कहे जो तोको सांच जानिपरे ॥२ है जीव[तिरे ये दःखदेखिके मोकों

पद. कक

दयहोईह ताते बिनाकहे मोसों नहीं रहिनाइहै जौने बेरा रामनाम संसार सागर- के उतरिबे को में बताइदेजहों तौने बेराको कूकर ने तामस शाखवारे गरुवाछोंग ते खाई जाइहे कहे मेरोकहों तामें नहीं लूगन देहहैं औरे औरे मतर्में छगाइ देहहें नो यहपाठ होई “बिरहिनि लेलेकुकुर खाइ” तो यह अथ है कि बिरिहिन जैलोगहें मिनकी साहबकी अप्राप्ति है तिनकों गरुवाठोग खाइ जाइहं अथवा बीर जे साहबहँ तिनते होने प्राणी हैं तिनको कूकुर खाइहें

साखी खाते खाते युगगया, अजहं चेतो जाय

कहहिंकवीर पुकारिके, जीव अचेते जाय॥ 8

ह,

2,

- रमेनी . (१७९ ) सो कर्ब रनी पुकारिके कहेंहें कि खातखात केतन्यों युग बीति गये याहीते जि का 0 का बे बिक ०. पु जन्‍म मरण याको नहीं छूटेहै अज्ञान नहों जाइ है सो अबहूं नहीं चेतकरेह सो यहजनीव अचेते कहे बिना साहब के चेतकिये अर्थीत्‌ बिना साहबके जाने नरक- की चलोनाइहे

[का

इति उन्नासिवीं रमेनी समाप्ता | अर थ॒ 5 2 आर 4 अथ आंसवा रसना | चौपाई क्‍ वहुतकसाहसकरिजियअपना। सोसाहेवर्सों मेटनसपना खराखोट जिननहिंपरखाया चहतलाभसंमूर गमावया समझिनपरे पातरी मोटी ।आछीगाढ़ी सव भो खोटी॥२॥ कहँहिकवीरकेहिदेहीखोरी जबचलिही झिनआशातोरी९

वहुतक्साहइसकरिजियअपना।सो सहिवर्सो भेटनसपना॥ १॥ खराखोटजिननहिपरखाया। चहतलाभसाम्रगमाया ॥२॥ हे जीव ! आपही ते तुम ज्ञानयोग वैराग्य तपस्यामें साहसकारिके बहुतक्लेश

सद्यो परन्तु इनते तेहि साहबरसों भेट सपनहू नहींहै नोन छड़ावन वारोहै॥१॥ जिननीव गुरुवा छोंगनकेसमुझाये नानामतमें छागि कहूं सांच साधूते खराखोट नहीं परखाये तेजीव चाहत ते मुक्तिको छाभहैं परन्तु निनसुकर्मनते अंतेंः:करण जुद्विदारा सांचे साथुको ज्ञान बतायों ठहरे सोऊ सो मूर गमाय दियो

समुझि परेपातरीमोटी आछीगाढ़ी सबभो खोटी॥३॥ कहकबीरकेहिदेहोंखोीरी जबचलिहॉसिनआशातोरी॥४॥

8 की

सोजिन मूरगमाय दियो तिनकी पातरी कहे अरु मोटीकहे बिभुनहीं समुझि थरे है काहेते ओछौ जामतिहै तामें निश्चयरूप गांठी नहीं परेहे कि यतनोई

( १८० ) बीजक कबीरदास विचारह नेति नेति कहैहे याते सब खोटही द्वैगयो श्रीकवीरनी कह हैं सांचों नो है साहब रक्षकताकी जान्यों झिनकहे झीत आशा जो है कि हमब्रह्म दे जाये तोनिको तोरे अल्ममें ठीनहोउंगे फिरि संसार परोगे तब काकों खोरी देहुगा तुमहीं त्रह्महौं इति असिवीं रमेनी समातता |

अथ इक्यासिवीं रमेनी चोपाई। देवचरित्र सुनो रे भाई। सो तो बल्मा घिया नशाई ॥१॥ ऊजेसनी मदोदारे तारा।ज्यहिचर जेठ सदा लगवारा॥२॥ सुरपतिजाइअहल्यहिछलिया। सुरगुरुघरणिचंद्रमाहरिया कह कवीर दरिके गुणगाया कुंतीकर्ण कुवारेहि जाया 8

देवचरित्र सुनोरे भाई सोतो ब्रह्माषिया नशाई॥ १॥ उजेसुनी मेंदोदारि तारा। ज्यहिघर जेठसदा लगवारा ॥२॥

बड़ेबड़े जीव मायामें परिंके भूलिगयेंहें छोटे नीवनकों कहा कहियेहे भाइउ! देवचारित्र सुनो अह्मा अपनी कन्यासंग भूलि गये ऊजे मन्दोदरी तारामहैं तिनके घरमेंनेठही छगवारहोंत आयेहै नो कहो सुग्रीव बिभीषणकों कहतेहीं तो तिनके घर कहते तिनके कहते हछहुरे हैं वेजेठकह हैं सो बह्माके हवाले क्यों तलह्माके पुत्र आपुसमें कान करतभये सो पुलस्त्य जेडे हैं ते छहुरे भाईकी कन्याकी बिवाहे या मन्दोदरीके घरकों हवा भयो ऋक्षरानसी भये तिन्हें सुये इन्द्रगहे तिनते सुग्रीव बालिभये सो प्रथम सुर्ये ग्रहण कीन्हों सो उनकी खत्री भई ओऔ सूर्यते जेठेइन्द्हैं तेऊपीछे ग्रहणकियों ताराके घरको हटाछ भयो से तारा मन्दोद्रीके घर जेठही लगवार होत आयों है जो छहुर पाठहोह तो सु््रीव विभीषण बने हैं सो यहां नहीं है

रमेनी | (१८१ )

सुरपतिजाइअहल्याछालिया। सुरणुरुघरणिरच॑द्रमाहरिया कहकवीरहरिके गुणगाया | कुंतीकरणेकुवारेहिजाया ॥४॥

सुरपतिअहल्याकी गमनकरतभयों सुरगुरु ने बहस्पति हैं तिनकी खीको चन्द्रमा गमन करतभयों कुन्ती जो हैं सो कुंबारेहिमां कर्णको उत्पन्न कियो है सो कर्म तो या डोछके हैं जो नीचह नहीं करे है परन्तु कबी- रजी कहे हैं कि हरिके गुण गावतभये ताते इनहूकी सज्नहीं में गिनती भई शेसहुमें हरिरक्षाकेलियों सो हे जीव ! तें केता अपराध कियो

# 2 5०. #.

इति इक्यासिवीं रमेनी समाप्तीं अथ बयासिवीं रमेनी चौपाइई

सुखकब्क्षयकजक्तर पाया समुझिनपरीविषयकछुमाया छोक्षत्री पत्री युग चारी। फल द्वे पापपुण्य अधिकारी स्वादअनंतकछवर्णिनजाहीं कर चरित्र सो तेही माहीं नट्वरसाजसाजिया सानी। सो खेले सो देखे बाजी मोहा बषुरा युक्ति देखा। शिवशक्तीपिरंचिनरहिपेखा साखी परदेपरदे चलिगया, समुझि परी नहि बानि

जो जाने सो वाचिहै, होत सकल की हानि ॥६॥

सुखकबृक्षयकजक्तरपाया समुझिनपरीबिषयकछमाया छोक्षत्रीपत्री युगचारी | फलद्रे पाप पुण्यअधिकारी

स्वादअनन्तकछुवर्णिनजाही करर्चारित्रसो तेहीमाही॥३॥ साहबके बिसरायके सूखा जो वृक्षह यह संसार माया कहे पावत भयो बिषय बिपरूप माया समुझिपरी संसारीहेगयों शरीर धारणंके छा उरामिनको

(१८२) बीजक कबीरदास

धारण करनेवाला नो जीव क्षत्री सो पत्नी कहे पक्षी है जीने वृक्षचारेड युगमें पश्षद्धि गयो अथवा क्षयमान ने नवगुण हैं तिनको धारणकीन्हें नो जीव सोई पत्नी कहे पक्षी है नवगुण कौन , हैं सुखदुःख इच्छा प्रयत्न राग देषधमीधर्म भावना यहितरहकी] जीव जे| है पक्षी सो पापपुण्य फल ताको खाइबेकी चा।रेउयुग अधिकारीह तिन फ़लनमें बहुतस्वादहे कछु कहो नहीं जायहै तेहीवक्ष में जीवरूप पक्षी चरित्रकरें है सो आंगे कहे हैं

नटवरसाजसाजिया साजी। सो खेलेसो देखे वाजी ॥४॥ मोहावपुरायक्तिन देखा शिवशक्ती बिरंचिनहिपेखा ॥५॥ नटके बटा कैसी साज सानि कहे नानारुप धारण करिके आवैजाय है जो

वाजीगर जोने खेलखेलै है तौने देख है अर्थाव्‌ ने ब्रह्ममें छगेते बल्लही देखे हैं ने जीवात्मामे लगहें ते जीवात्मैको देखें इत्यादि जो जौने मतमेंहें सो ताही में लगोहै सांच बताये लरैधांवे है काहे ते उनकी वासना अनेक जन्म ते वहीं है गुरुवाकारके मोहा जो बपुरानीव हैं सों साहबके जानिये की युक्ति देखत भयो शिवशक्तयात्मक जगत पूर्ब कहिआये हैं सो या शिवशक्ति बिराचे मायारुप या बात जानतभये

साखी परदे परदे चलिगया, समुझि परी नहिंबानि जो जाने सो बाचि हे, होत सकलकी हानि ६॥

परदे परदे कहे बिना साहबके जाने संसारमें जीव चलिगया कहे संसारमें

जातरहा बाणी जोहे वेद शाखर सो तात्पर्य करिकै साहबको बतावैंहे सो जीव-

की समुझिपरयों जो कोई वेद्शाख्रादि में तात्पर्य कारिंके परमपुरुष पर

औरामचन्द्को जाने सोई बाचेंहे अपरोक्ष अर्थ जगवमुख जानिके सबकी हानि होतही जाय है इति बयासिवीं रमेनी समाप्ता |

रमेनी ( १८३ ) आर अर. अथ विरासवा रमना चोपाई क्षत्री करे क्षत्रियाधर्मा वाके वढ़े सवाई कमी जिन अवधू गुरुज्ञान लखाया।ताकरमन तहँई लेघाया॥२॥ क्षत्री सो कुटुम्ब सों जूझे | पांचोमेंटि एककारि बूझे ॥३॥ जीवहिमारि जीव प्रतिपालेदिखतजन्म आपनो घाले॥8॥ हाल करे निशाने घाऊ। जूझिपरे तहँ मनमत राऊ ॥५॥ साखी मनमत मरे जीवई, जीवही मरण होइ शून्य सनेही रामबिन, चले अपनपों खोइ

क्षत्री करे क्षत्रिया धर्मा वाकेबढ़े सवाई कमी जिनअवधृगुरुज्ञानलखाया ताकरमनतहँईलेथाया ॥२५॥ क्षत्री सो कुटुम्बसों जूझे पांचों मेटिकल करिबृझे ॥३॥

जसे क्षत्रिय क्षत्रियाधमैकरेहें तो वाके सवाई कर्मबढेहें रणमें पैठिके शात्न को मारिक शरतारुप कमबढ़ेहें ऐसेजीव यह क्षत्रिय हैं क्षत्रिय जे साहबहैं तिनकी जातिहै सो संसाररणमें पेठिकैमन माया धोखाज्ञानई शज्रुमारे साहबके मिलनरूप शरताबढ़े है जे अबधूकहे बंध जो माया त्यहिते रहित रामोपासक जेसाधुते गुण जे साहबहें तिनको ज्ञान जाको छखायो है ताकों मनतहँई लय भयो मनोनाश बासना क्षयहैगई जब मनोनाश भयो तब थाया कहे हंसरूप में स्थितहे साहबके पास को धावत भयो * क्षत्रियसोंहै नो

8 ##+. कर,

कुटम्बसों जूझ कुटम्ब याकेकोहे पांचोशरीरतिनको मेटिकै एक जो है हंसस्वरूप त्यहिकरिके साहबकाबूझे

जीवहिमारिजीवप्रतिपाले देखतजन्मआपनोघाले ॥४॥

हाले करे निशाने घाऊ। जूझिपरे तहँ मनमतराऊ ५॥ जीवहि मारिके कहे जो औरे औरे को जीव है रहोहै आपने को बक्माने है

(१८४ ) वीजक कबीरदास

आपनको ओर ओरे देवताके दास माने है यहनामामिटाइदेइओ यह जीबका जीव नामामैटाइदेह हंसरूप में स्थितद्ेके जीवको नाम रामदास थरावै तबहीं यहनीवको प्तिपाछ होइहे आपने देखते जन्म मरणकों लेहे कहे छोड़िदेइ है ॥४॥ सो जो कोई या भांति साधन करे सो हाढे निशानेमें वाउकरे अथीव्‌ मनोनार बासक्षय हांले हे जाइहे जेमनमतराउह अपने मनमतमें अपनेको राजामाने हैं जूझिके संसारमें परे अरथात्‌ कोई आपनेनकी बह्ममाने है कोई आत्मंके मालिकमोनेह ते जैसे मिथ्या वासुदेव अपनेको कृष्णमानि जुझिपरयो

है पा

ऐसे येऊ मनमाया करिके मारे जाय हैं॥५॥ साखी॥ मनमतमरेनजीवई, जीवहिमरण होय शनन्‍्यसनेहीरामविन, चलेअपनपोीखोय

मनमती मरे है निये है काहेते जीवहि मरण होय जीवको जीवत्वनहीं जाइ है जिअब तो तब कहिये जब साहबको जानिंके साहबके लछोकहि में जन्म मरण छूटि जाय मरिबों तब कहिये जब बह्ममें छीनहोय जीवत्व छूटिनाइ जनन मरण होइ सो शून्य जे हैं वे धोखा तिनके सनेही ने मनमती हैं तेमरे हैं निये हैं जीवकों तत्त्व नहीं जाइ है जीव सनातनकों है तामें प्रमाण ममवांशोनीवछोकेनीवभूतः सनातनः ) ६॥

इति तिरापिवीं रमैनी समाप्त

अथ चोरासिवीं रमेनी .. न्च्‌ वाई | जोजिय अपनेदु्खे सेभारू ।सोदुःखव्यापिरहेसिसारू॥१॥ भाया मोह वध सव छोई। अल्प छाम मूलगो खोइ॥२॥ मोर तोर में सब विगृता जननीडद्र गर्भमहँसूता ३॥ वहुरूप खेले वहु बूता। जनमौरा असगये बहूता ॥४॥ उपजखप योनिफिरे आवेसुखक लेशसपनेहंनहिपाबै॥«॥

424

ठँ

रमेनी | ( १८५ )

किक

दुःख संताप कष्ट वहुपावे सो मिला जो जरत बुझावे% मार तोर मे जर जग सारा।धिग जीवन झूंणो संसारा ॥»॥ झूंठे मोह रहा जगलागी ।इनते भाँगि वहुरि पुनिआगी॥८॥ जहित राखे सवलोई।सो सो सयान वाचे नाहिं कोई॥९॥ साखी॥ आए आपु चेते नहीं, कहोतो रिसिहा होइ॥

कहकवीरसपनेजगे, निरस्ति अस्तिनाहं कोइ॥१०॥

जाजियअपनदुखेसभारू सोदुखब्यापिरहोसंसारः १॥ मायामोीह वंच सवलोई अल्पे लाभ म्लगो खोई २॥ मारतारम सब विगूता जननी झदर गरभभहँसूता बहुरूप खल बह बूता जनभोराअसगये वहता ७॥

हैं जाव ! जान दुःसयह संसारमें व्यापिरो है तोने अपने दःखकों सँभारु अथांव ताने दुःखसे निकसु मायामोहमें सब बँपेही सो अल्पतों छाभ है अर्थात्‌ विषय सुखतो थोरही है तिन सबकेमुछ संपूर्ण दःख के मेटनवारें ने परमपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं ते खोइनाइ हैं कहे बिसरि जाय हैं मोर तोर याही में सब जीव बिगूता कहे अरुझि रहै है याहीते जननींके उदस्में सदा सूतत है अथांव्‌ गर्भवात्त नहीं मिटे है जैसे भौंरा फूलनमैं रस लेनको जाई है संध्या है गई तब कमछ संपुटित द्वैगयों तब फँसिगयों ते जीव बहुरूपते बहुत पराक्रम करेंके खेलखेले हैं कह विषय रसलेनको जाय ही आयामें फैसिनाय हैं ४॥

5 का हब

उपजखपंयानाफारआवे।सुखकलेशसपनेहुंनहिपावे ॥०७॥ उ्खसतापकश बहुपावे। सो मिला जो जरतबुझावे॥ ६॥

उपने है सपंकह मरे है पुनि पुनि योनिमें फिरि आंवे है सुखरकां छश सपन्यो नहीं पांवे है दुःख सताप कष्ट बहुतपाँवे है गा आगीते जरत

( १८६ ) बीजक कबीरदास

बझावै सो गरुनहीं मिले है इहांद।खसंताप कष्ट तीनबार जो कह्मों तामें कुछ | 0०%: पी.

भेद है दःख वह कहावे है नो काहहमारे होइहे जो रोगादिकन करिकेहोइ है सो संकष्टकहवि है जो कोई हानिते होइदै सो संताप कहावे है

मोरतोरमें जरजग सारा घिगजीवन झूंठो संसारा ॥»॥ झंंठेमीहरहा जगलागी इनतेभागि वहुरि, पुनिआगी ॥८॥

जेहितके राखे सबलोई सो सयान बाचे नहिं कोई ॥९%॥

तोर मोर कारके सब संसार जर नाइ हैं यहसंसार साहब को चिदृष करिके नहीं देखे वे यह संसारको संसाररूप करिके देखे हैं यही झूठे है सो ऐसे झूठे संसारमें जीवनकों जीबेको घिक्ार है मायाको जो मोहहें सो सत्र संसारमें छगिरहो है सो झूंठों हैं इनंत जो कोई भागिबिकऊ कियो ते फेर वही झूठे अह्मापिमें मरे है॥ < जेने सबछोई कहें

लोगन को हितके राख हें ते सथान काछसे कोई नहीं बचे हैं त॒॒ केसे बचिगो "

साखी आपुआपु चेतेनहीं, कहाोतो रिसिहा होइ कहकवीरसपनेजगे, निरास्तअस्तिनाहिकोह ॥१ ०॥

आपु आपुकहे आपने स्वरूपकों नहीं चंते है कि में परमपुरुष श्रीरामचन्द्र- केहों सो में नो समुझाऊंहों तो रिसहा होइ है सो कबीरनी कहे हैं कि जो सपने जांगे सपन कहा हैं देहकों अभिमानी मनमुखी है जागे कहे अपने मनते यह बिचारिलेइ कि में जाग्यों में ब्रह्म है गयों अथवा आपनेको जान्‍येो मेंहीं सबको मालिकहों और कोई दूसरो छोड़ावनवारों नहीं है अपने का जान्यो सो छुटिगयो सो कोई साहबको मान्यो से निरस्तिकहे नास्तिक है | सो अस्तिकहे आस्तिक होइहे सो कहा जागहे नहीं जागै है अर्थात्‌ वह

ज्ञानतोी धोखहे संसार समुद्र ते तेरी रक्षाकहा करेगो ताते वहसाहबकी समु- झिनाते तेरोसंसार समृदते उवार करिदेह १०

इति चोरासिवीं रमेनी सम्पूर्णो।

इलि।

पहलाशब्द

संतों भक्ति सतोगुरु आनी नारीएक पुरुषदुइ जाये बूझोपंडितज्ञानी पाहनफोरिगंगयक निकरी चहंंदिशि पानीपानी तेहिपानी दु्परवेतबूड़े दश्यिालहरि समानी ।. उड़िमक्खी तरुवरके लागी वोले एकेवानी वहिमक्खीके मक्खानाहीं गर्भरहा विनपानी ३॥ नारीसकल पुरुषवादिखायी ताते रहेड अकेला कहे कवीर जो अबकी ससुझे सोईगुरु हमचेला

सन्तोभक्तिसतोगरुआनी

नारीएकपुरुषदुइजाये बुझोपण्डितज्ञानी

हे सन्‍्तो ! हे जीवी ! तुमतो शांतरूपही गुरुने हैं सबंते अष्ठ परम पुरुष श्रीरामचन्द्र तिनकी सतोकहे सातो ने भक्ति हैं ते आनी कहें आनई हैं अर्थीव सगुण निर्गुणके परे मनबचनके परे है कौन सातभाकते हैं ते कहै हैं शांत ' प्रथम ताकर द्वेमेद सूक्ष्मा * सामान्या सो शांतिके सक्ष्माके सामह : न्याके जुदे जुदे छक्षण हैं ताते तीनि भक्ती ये हैं दास्य सख्य वत्सल्य श्रृज्ञार चारि येमिलाय सातभाक्ते भई | सोई जे हैं सा तो ररहैं ते मन बचन में नहीं आंवै हैं जब भाप्तिहोंइहैं तबहों जानिपरेहे कि ऐसे हैं

( १८८ ) बीजक कबीरदास

से या भांति साहबकी जे सातीभक्तिहैं ते गुप््ठे गई काहेते कोऊ जानत- भयो सो कहे हैं नारी जेंहै कारणहूपा माया सोदपुरुषकों प्रकटकियों एकर्णाव दूसरो ईइवर सो पांच अह्मरदवर प्रकट भेयेहैं सो आदि मंगलमें काहिआयेहैं। जनीप्रादुभीवे घातुह या जायोको अथ प्रकटकरबोई है मायाते जीव ईइवर प्रकटमये हैं तामें प्रमाण ( मायाख्यायाःकामपेनोवैत्सोजीवेशवराबुभाविति जीवेशावामासेनकरोति मायाचाविद्याचेतिश्रुतेः ) सो हे पण्डित ज्ञानी ! तुम बूझीं तो सारासारके बिचार करनवोर सांचहों यहवाणी नो है सोई तुम को भरमाइ दियो है १॥

पाहनफोरिगंगयकनिकरी, चहुँदिशिपानी पानी

तेहि पाती डुइपवेत बूड़े, दरिया लहरि समानी ॥२॥

पाहन कहिये कठिनकी सो कठिन मनहें ताकी फोरिके गंगा निकसी नाना पदाथनमें नो राग हों॥ है सोई गंगाहै सो वही रागरूपा मायामें परिके जीव संसारमें रागकरि बूडिंगये। हँश्वर उत्पत्ति प्रढय करिके दोनों जीव ईदवर ने हैं तेई दुइभारी पर्वत हैं ते बूड़िगय। दरिया जो धोखा अह्महै तामें रागरूपी जो है गंगा ताकी जो लहरि है सो समाइ जातीभई अर्थात्‌ सब धोखहींमे राग करत भये, सांच बस्तुर्मे जिनजाना तेई बाचे अथवा वहीं रागगंगा छहरि संसा- रसागरमें समाइनाती भई सबजीव ईइवर संसारमें रागद्वषकरिके बूड़िगये। अथवा वहे जो बाणीगंगा सो पाहन जो मनहै तौनेको फोरिके तिकरी है सो चारिउ ओर पानीपानी है रही है तौने पानी दुइ पर्बत बूड़े एक जीव एक इंडवर गज्ञा! समुद्रमें समानी हैं इहां बाणीरूप गड्रकों पर्येवसान दरिया जो बह्महै ताही में होतमयों

उड़ि मक्खी तरुवर को लागी, बोले एके वानी

वहि मक्खी के मक्खा नाहीं, गभ रहा विनपानी

मक्खीने हैं नीव ते तरुवर जो है देह तामें उड़िके आपने आपने बासननते छागतभये अथीव्‌ मय जब॒भई तबभई तब वहीं अह्ममें छीनभये, पुनि नवसृष्टिमईं तब पुनि शरीर पावत भये अथवा मक़्खी नेहैं जीव ते संसार

आऋबद ( १८९ )

वृक्षमें छागतभयें ते सब एकबाणी ब्रोले हैं के, “* एक बह्मही है दूसरो नहीं है " साहबको नहीं जाने है सो वहीमक्खी जो जीवहैं तकिमक्खा नहीं है कहेपथम जीव जो हिरण्यगर्भ समष्टि जीवहै ताके पति नहीं है परन्तु बिना पानी गर्भर- हतईभयों जीवते संसारमकट यह आपहीते नामकों जगव्‌ मुख अर्थ करिके संसारी हगयों साहब तो याको उद्धार करिबो रमानाम दियो ताकि मेरेनाम

मेरो अर्थ जानिके मेरेपास आवे संसार होइ

नारीसकल पुरुषहि खायी, त॒ते रही अकेला।

कहे कवीर जो अवकी समुझे, सोइ गुरु हम॑ चेला ४॥

तोरी जो है वहै कारणरूपा माया, सो सबनीव ईश्वर जेपुरुषहैं तिनको साइ- ढियो, कहे आपने पेठमें डारिलियो; अथोत्‌ उन के काहके ज्ञान रहिगयों, आपनेचेरों बनाइ छियो तेहिते हे संतीौ ! हे:जीवो ! तुमतो श॒ुद्धहो, इनकों छोड़िदेउ, तब साहब जे हें तेई छोड़ाइ छेश्गे अकेलारहों अकेल कहे जे सबके साहब परमपुरुष श्रीरामचन्द्रहें तिनके हैकैरहो, जोजीव ईइवरकों सद्गः करींगे तो तुमहकी माया परिलेइगी ! श्रीकबीरजी कहै हैं कि जो अबकी समझे कहें यह मानृष शरीर पाइके समुझे सोई गुरु है तौने जीवकी हमचेला हैनाईँ अथांत्‌ ताके हम सेवक है जाईं | जो जो हमसों पूछै. सो सब वाको बताइ देईँ कछू गोप्य राखें अथवा सो हम पूछिलछेइं कि ऐसे भ्रमनाहमें परिके कौनीभांति ते छूटयो सो कबीरनी तो कबहूं बँषिकैछूटे नहीं हैं तातें कबीर जी कहे हैं कि जो अबकी या समुझि लेइ तो हम पूछि लेईँ बँपिंके छूंटे कैसे सुख होइ

इते पहिलादाब्द्समाप्ता

हम कहिये अहंकार अर्थात्‌ कबीर साहब कहते हैं जो अबकी समुझे अर्थात्‌ जो मानुष झरीर में समुझे वह गुरुहे और अभिमानी माया में बद्ध चेलहै

(१९० ) बीजक कर्बीरदास

अथ दूसरा शब्द

संतो जागत नींद कीजे काल खाय कल्प कया देहजरानाहँं छीजे उलटी गड्ढ सम॒द्ृहि सोखे शशि सूरगरासे। नवग्रह मारि रोगियाबैंडे जलूमें विव प्रकास विवुचरणन को दशदिरि धांबे विन लोचन जगसुझे ससा सो उलटि सिंह को आस अचरज कोऊ बूझे॥ ३॥ ओंपे घड़ा नहीं जल डूबे सूधेसों घट भरिया। जेहिकारण नर मित्न भिन्न करु गुरुप्रसादते त्रिया ४॥ पीठे गुफा सब जग दूसे बाहर कछुव न्‌ सुझे उलटावाण पारथिव लागे शूराहोय सो बूझे ५॥ गायन कहे कबहुं नहिंगावे अनवोला नितगावे मटवर वाजीपेखनी पेखे अनहद्हेतु बढ़ांवे कथनी वदनी निजके जोहें इंसब अकथकहानी घरती उलादे अकाशहि वेघे पुरुषहि. की बानी ७॥ विना पियाला अमृतअचंबे नदी नीरभरि राखे कृंद्दे कबीर सो थुग युगर्जीवे राम सुधारस चाखे

संतो जागत नींद कीजे | कृट | +मोआ हछीजे काड साथ कल्प नह व्यापे देह जरानहिछीजे॥ ३॥ हे संते ! हे जीवी ! तुमतों चेतन्यरूप ही तुम काहेको सोवौहो अथोद काहे जड़ श्रममें परेहो मायादिक ते नड़ हैं भौ तिहारो अनुभव नो अहाहै सोऊ नड़ है काहेते कि, तिहारे। मन तो नड़है ताहीकी कल्पना ब्रह्नंह

झाब्द ६१९१ ) जो कहो “मनकों ब्पय बह्म है”” यह तो कोई वेदांतमें नहीं है तो जहां भर मन बचनमें आंबै तहांभर अज्ञान कल्पितहै “'अहँबल्मास्मि) (मैं बह्महों) मानियो तो मूलाज्ञानमें है यह वेदांतको दिद्धांतहै नेसे, धूरि धूम बादर घटादिकके आकाशही रहिजायहैं कबीरनी कहेंहें कि, तेस तीनों अवस्थामें तुमहीं रहिनाउहो जहांभर बह्म कहैँदें विचारकरेहँँ सोमन बचनमें आइ- जाइहै ताते, मनही को कल्पितहै; ताते वोऊनड़हैं, सो तुम नहीोंहीं तुमतो औैतन्यहीं तिहारेरूपको कालनहीं खाय है। कीनो कल्पना नहीं व्याप है अथौत कोौनी तुम्हारे स्वरूप में कल्पना नहीं उठे है तेरो जोस्वरूपहै यांति परमपुरुष श्रीरामचन्द्रके समीष रहेंहें सो रूप जरा जो बुढ़ाई है तति नहीं छीने है अथीव कवहूं बुर्दाई नहीं होइहे सदा किशोर बनोरहें है हा कचरे शी हद अर,

उलटा गंग समुद्राह सोख शाश सूर गरास

_ नवग्रहमारि रोगिया वैंठे जलमें विम्ब प्रकासे

रागरूपी जाहै गड्रा सो संसारमुख बह्ममुख हेरहींह सो जो उलटे साह- बूमुख होइ साहबमें जीव अनुरागकरे तो समुद्र नेहे संसारसागर ओधोखा ब्रह्मसागर ये दुहुनकों सोखिलेइ | शशि जो है जीवात्मा मानिबो कि एक आत्मही है, दूसरो पदार्थ नहीं है यहशञान; सूर जो है नाना निरंजनादिक इंदवरनके दास मानिबिकों ज्ञान; तैनिकों गरांसिलि३हे यहसांचो साहब कोंहे जान याकी देहहें संसारवालो जो रोगहे सो पारखहीते जायहँ सो नव - गअह जब निबल होइहे तब रोगहोईहै सो नवग्रह नवद्॒व्यहैं नवद्गव्यके सलाम पृथ्वी * अप तेन वायु आकाश कार आत्मादिक < दिशा मन तिनकोमारिके कहे मिथ्या मानिके आपनी आत्माकों साहब को दास मानिकबैंठे, तब रागरूपी जलमें बिंब नो है शुद्ध साहब को अंश याको स्वरूप, जाको प्रतिबिंब धोखा बह्है संसारहै तौन॑ प्रंकारी कहे अपने स्वस्वरूपकों जाने

| आप

दिन चरणनको द्शदिशि धावे बिन लोचन जग सुझे॥ ससा सो उछादि सिहको गआसे अचरज कोऊ बूझे ॥३॥

( १९२) बीजक कबीरदास

तब बिना चरणनकों कहे संसारमुख चलिवो ब्रह्ममुखचलिबो याकी छूटिगयो अर्थाव्‌ येई चरणहैं तिनते होन हैं गयो तब नवधाभक्तिको छोड़िके दश कहे दक्शौं नो साहबकी “अनुरागात्मिका” भक्तिहँँ तोनेके दिशाकों धांवे है अथवा नवदारको छोड़िके दशों द्वारकों जो है मकरतार साहब के इहांकी डोरि लगी है तहांकों ध॑वे है शरीरनको जे ज्राकृत नयन हैं ते याके रहि- गये साहब को दियो जो याको हेसस्वरूप हैं तौने के नेत्र॒करिके साहब को चिददिद रूप यह संसार सो सूझि परन टग्यों कहे बूझिपरनलूग्यों तब अरेमूठ ! श्रमरूपजों है ससा खरहा अहंब्रह्म विचार सो, तें जो है समर्थ सिंह ताको ग्रांसि है सो वहतो धोखाहे वहीं भर्म भूलि गया सो हेनावो ! यह अचरन कोऊ बुझों जोनज्ञान में कहि आयों तोनकारे साहबरमें लगो जो कवहूं होइ नई बात होय सो यह आइचर्य है ससा सिंहकों कबहूं नहीं खाइहे जीव ब्रह्म कबहूं नहीं होयहै सो तुम कबहूं ब्रह्म होडगे वह बह्म तुम्हारई अनुभवहे ताहो में तुम भुछाने हो ओँधे घड़ा नहीं जल भरिया सूचे सों घट भरिया जेहि कारण नर भिन्नभिन्न करु ग्रुरुप्रसादते तरिया ४॥

औंधा घड़ा नो जल में डारे दीने तो नहीं डूबैंहै, जलनहीं भारे आवैंहे सो तें नो साहबकी पीठिदेके बल्ममें संसार में छंगे सो तो धोखाहै। जैसे सूचे घटमें जठभरि आवे है तैसे तेंहूं साहबकी ओर मुखकरु, जब साहब तेरेऊपर प्रसन्नहोहगो तबहीं तें ज्ञान भाक्ति करिकै पूरा होइगों जाकारण नर भिन्न भिन्न करे हे कहे भिन्न भिन्न पदार्थ माने है सबपदार्थ साहबकीो विद्चिद्र रूपक- रिंके नहीं देखे है। सो यह श्रम समुद्र गुरु सबते अष्ठ अंधकारको दूरिकरनवोरे परमपुरुष जे श्रीरामचन्दहें तिनके प्रसादते तरोगे अथवा साहबके बतावनवारे अंधकारके दूरे करनवारे जब गुरुमिलेंगे तब तिनके प्रसादते तरोंगे

पैठि गुफामों सब जग देखे वाहर कछुव सूझे उलटा बाण पारथिव लागे श्यरा होय सो बूझे «५ दुलेभ मनुष्य शरीररूपी जो गुफाहै तौनेमें पेठिके कहेशरीर पाइकै चिदर्चिव

शब्द ( १९३ )

साहवका रूप सब संसार याकों सपझिपरे औसाहबंके रूपते बाहिरे औकुछ वस्त सूझिपर सुरातेरूषी जो बाणहे सो जगतमुख ब्रह्मक्षत इंशवरमख जीवात्मामख है रहाहे सो उडठया कहे उलटिके पार्थिवकह राजा जे प्रम- परुंच श्रीरामचन्दर्हं तिनमें छगांवे यहबरात जो कोई श्र होइ कहे अह्मज्ञा-

नड्खधरज्ञान जीवात्मज्ञान की एक आत्मे सत्यंह तिनकों जीति लेइ सो बूझे तबहों जन्ममरण याको छूटे है

गायन कह कवंद्ु नाह गाव अनवाला नतगाव

नटवर वाजी पेखनी पेखे अनहद हेतु बढ़ावे॥ ६।

गायन जोहे वाणी वेदशासत्र पुराण सो तात्पये कारिके अनिर्वचनीय साहब

हे हैं तोनिकों ती कवहू नहीं गाँविहे और अनबोछा जो निराकार धोखा बह

जो कबहू बोलते नहों है, सो केसे पूरपरे कीनीतरहते अनबोलाकों गा

आगे कहे हैं वह जो धोखा ब्रह्मको देखनाहे सो नट्वत्‌ बा हे

ड्हां कंछु नहीं देखि परे है जो कहो अनहदकों हेतु तो बढ़वेहै कहे द्‌ अनहद की तो स॒नि परे है रू कस

कथनीवदनी निज॒के जोहे स॒व अकथ कहानी चरती उलटि अकाश्ञहि वेधे हे पुरुषहिकी वानी ७॥

सोईं तो सब कथनी बदनीहै नो बिचारिके देखा तौ अनहद आविदेके सब अकथ कहानी हैं। साहबके जाननवारे प्रेसंतनके कहिबे लायक नहीं है शू5हैं कछु इनमें है नहीं। सबमनके अनुभवहें पुरुषनेहें तिनकी यह बानीकहे स्व॒भावह धरती जो जड़मायाहै ताको उलब्दिइहै, वाक्ों मुख मुरकाई देहहे वासा आप फिरि जावहे। आकाश जोब्रहदहे ताकीो बेधेकहे बह्मके पार जाय है ताम श्रमाण “सिद्धात्ह्मसुखेमग्रा देत्याश्रहरिणाहता: तज्जोतिमेंदनेश- क्ारसिकाहरिविंदिन * ओकुपुरुषन हैं ते संसारमें लगे हैं कि, पोखाबह्म्मै- लंगेहँ उनकी बानीकहे यहै स्वभावहै

विना पियाला अम्नत अचवे नदी नीर भारे राखे ॥|

कहे कवीर सो यगय॒ग जीवे राम सुधा रस चाखे १३

9 20 अाड

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427

( १९४ ) बीजक कंबीरदास

स्थल सूक्ष्मादिक जे पांचों शरीरहें तईपियाछाहें स्थूलसूक्ष्म कारण करिके विषयानंद पिये हैं। महांकारण केवल्य ते ब्रह्मानंद्पियहैं | पांचों शरीर पियाछा ते निकसिके जे पुरुष साहबकों दियों जो हंसस्वरूपहै तामें स्थित हैके साहब॒को भ्रेमरूपी जो अमतहे ताको अँचवे हैं जाते जन्म मरण ने होईं। तिन को जगतके रागरूपी नीरकारेके भरी जो नदी है जाको आगे वर्णेनकरिआयेहें “नंदियानीर नरकभरि आईं” सो तिनको राखे कहे छारई हैं भर्थोंव झूरहीहैं अथवा संसारमें जो रागकियेह-ं सो नरक भरीहैं ताको निकारिके रसरूपी भक्ति जो साहबकी नीर ताक भरिराख सो कबीरनी कहै हैं कि, सोई युगयुग जैवेंदे, कहे वहीकों जनन मरण नहीं होय, नो या भांति परमपुरुष जेश्रीराम- चंद्हें तिनके भेमरूपी सुधारसकों चांखिहे

इति दूसराहनब्द समाप्त

अथ तीसरा शब्द संतो घरमें झगराभारी रातिदिवप्त मिली उठिउठि लागें पांचहोटायकनारी १॥ न्यारोन्यारो भोजन चाहें पांचों अधिक सवादी कोइकाहकी हटा नमाने आपुहिआपुसुरादी २॥ दुमति केरदोहागानि मेंटे ढोटेचाप चंपेरे कहकवीरसोई जन मेरा घर की रारि निवेरे॥ ३॥ सन्तोघरमें झगराभारी।

रातिदिवसामालि उठिडठिलागें पांचडोटायकनारी १॥ . आगे या कहिआयेहें कि बिता पियाढा अमृत अचवहैं ने नहीं अचवेहें तिरको कहे हैं हेपंतो ! हे जीवी ! या घर जो दरीरहै तामें भारी झगरा मच्ये है पांची दोट जे पांचो तत्त्वहें नारी जो मायाहै सोडठि उठिलांगैहें फहे झगराकेहें यह उपाधिराति दिन जीवकी छर्गारहेंहे

झाब्द ( १९५ )

न्यारो न्‍्यारो भोजन चाहें पांचो अधिक सवादी कोउ काहूको हटा माने आपुहि आप सुरादी २॥

अपने अपने न्यार न्यार भोजन चाहे हैं पांचों बड़े सवादी हैं आकाश ओत्रइन्द्रियपधानह साशब्द चाहे है वायु त्वचा इन्द्रिय प्रधान सो स्परशेको चाहे हैं तेज चश्लइंड्रिय प्रधानहै सो रूपको चौहेंहै | जरू रसनेंद्रिय पधानहै सो रसकी चाह है धरती घाणेंदिय प्रधानहे सो गंधकी चहेहे माया जीवहीका ग्रसन चहंह कोईकाहको हटको नहीं मानेंहे आपही आप मालिक डैग्हेहेँ | आपुद्दी आपु आपनी मुरादिकहे वांछापूरकरेहें दुमेतिकेर दोहागिनिमेटे ढोटे चापचपेरे। कहकवीरसोई जनमेरा घरकीरारिनिवरे ॥३॥ दुर्मति जेहें गुरुवालोग ( जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रको छोंड़ि आत्मही को सत्य माने हैं या कंहेहेँ कि, सबसुख करिलेडं वहां कछु नहीं है ऐसे जनास्तिकहैं ) तिनकी दाहागिनिकहे नहींग्रहणछायक वाणी तिनको मेटिकि कहे छोड़िके; दोटनेहें पांचों तत्व तिनकी जोहे चाप कहे दबाउब ताको आप : चपरे कहे दबाइलेइ अथीव्‌ वे दबावन पार्वेँ | आपने आपने विषयनमें मनको खँच लेजाइह तहां मन जानपाव सो कबीरजी कहे हैं कि,जोपारि- करिऊक शरीर जो घर है तोनेमें नो पांचों इन्द्रिकों झगड़ा है ताको निबरे कहे सब॒तत्त्व जे पृथ्वी आदिक हैं तिनमें छीन जे पांचों इंद्विय हैं तिनकी जे बिषय हैं तिनको निबेराकरे कि, भगवतकी अचिद्‌ विग्रहहै। पृथ्वी है; इन्द्रियरूप करिके जो देर |

जे

आदिक तत्त्वरूप करिके जो देखे वे विषयरूप 5 आर आर जम मक कक कर 3 के

करिके जो देखेंह सो देख यह मान कि, मे जोहों जीवात्मा तोनेकी

625 0 अप हों हम # हहैं ढ... ऑहएक

एकी नहींहैं; काहेते कि, में चिद्चित्‌ विग्रहहों, ये जड़ विग्रहहैं, इनते मभिन्नहों 8. २... 3 आफ आन छा च् च् ०५४ रच कल रे बिक

सो ये जहें नह ते आत्मेकी चेतन्यता पाइफे आपुसमें लड़ेहें | सो इनते जब

244

दुमेंत अथोत्‌ दुष्ट बुद्धिवाले पुरुपजिनको परमार्थेका तो ज्ञान है ही नहीं परन्तु आर

देखादेंखी वेष धारनकर अथवा कुलाभेमान्ते गुरु बने बैठे हैं ऐसे ले झूठे गुरुछोग हैं डनके गुरुवाकहते हैं डन्हींकों दुर्मत कहते हैं

( १९६ ) बीजक कबीर दास

आत्मा भिन्न्रेनाइगों तब सब शरीरे एको काये करनको समर्थ होंइगो केस, नैसे जीव॑ इनते अपनेको जुदों मानेगो हंसस्वरूपमें स्थित होइगो सो इनहींके चपाइ लेइगों घरकी रारिनिबारे जायगी सो इसतरहते जो कोई अपने स्वरूपकों जाने घरकी रारिनिबेरे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रमे छगे सोई जन भेरो है

इति तीसराह्व्द समाप्त अथ चोथाशब्द संती देखत जग वोराना

पाँच कहों तो मारन थावे झूठे जग पृतियाना॥ |

नेमी देखे चर्मी देखे प्राव कराहि असनाना

आतम मारि पषाणाहे पूछे उनमें कछू ज्ञाना

बहतक देखे पीर ओलिया पढें किताव कुराना।

के झुरीद तदवीर वतावें उनमें उह जो ज्ञाना

पुन मारि डिंभे चरिवेंठे मनमें बहत शुमाना

पीतर पाथर पूजन लागे तीरथ गब॑ शुलाना ४७॥

माला पहिरे टोपी दीन्हे छाप तिलक अवुमाना

साखी शब्द गावत भूले आतम खबरि जाना «॥

हिंदू कह मोहिं राम पियारा तुरुक कहे रहिमाना

आएसमें दोउ लरिलरि घूये मम काह जाना॥

चरघर मंत्रेजे देत फिरतहें महिमाके अभिमाना।

गुश्वा साहिताशष्य सब बूड़े अतकाल पाछताना ॥७

डिन दुम्भक्ता अ। श्रेशंह

दाब्द्‌। (१९७ )

कहे कबीर सुनो होसंतो हे सव भर्म भुलानो कैतिक कहों कह नहिं माने आपहि आप समाना ॥८॥

सन्तो देखत जग वोराना।

सांच कहों तो मारन धावे झूठे जग पतियाना॥ १॥ है संतो ! यह जगत्‌ देखत देखत बौराई गयो | यह जाने है कि, यह कत्पता मनहींकी हैं। एकनको दुःखपावत देखे है, एकनको भूतहोतदेखे है, एकनको रोगग्रसित देखे है, एकनको थोड़े हाथी चढ़े देखे है, एकनको राजा होतदेख है एकनको मरतदेख है। आपहू मरघट ज्ञान के है कि, ऐसे ही हमहे मरिनाईंगे। सो यह देखत देखतहू भुछाइ जाईहें। परम परपुरुष _ श्रीरामचन्द्र हैं तिवको भजन नहीं करे है, जाते संसारते छूटे नो सांचब- ताऊं हों कि, सांच ने परम परपुरुष श्रीराम चन्द्हैं, नो वित्‌ अचितमें व्यापक हैं, सब ठौर बने हैं, तिनमें लगे जाते डबार है तो मारन धंवे है। झूठे जे माया बल्म हैं तिनके विस्तारके ने नाना मत हैं तिनमें नो कोई लगाव है तो तिनकों सांच मानिके पतियात जाय . नमी देखे धर्म्मी देखे प्रात कराहें असनाना आतम मारे पषाणहि पूर्जे उनमें कछ ज्ञाना २॥ बहुत नेमी धर्मीं देखे हैं, बहुत प्रातःस्तान करनवालेनको देखे हैं, स्वर को जाय हैं आत्माको मारिके कहे भगवानको मंदिर शरीरमें साक्षाव सबके हृदयमें भगवान अंतर्योमी रुपते बसे हैं, तोने शरीरकों फोरिकै, मेंढ़ा महिषादिकनको मूड़छेके, पीतरपाथर आदिक जे देवीकी मूर्ति हैं तिनमें चढ़ा- वैहं। सबके उद्धार हैबेकी बतावै हैं, तौ इनमें कौन ज्ञान है? कह ज्ञान नहीं हैं काहेते कि साहबको सर्वन्न नहीं जाने हैं बहुतक देखे पीर औलिया पढ़ें किताब कराना

: कर मुरीद तदवीर बतावें उनमें यहे जो ज्ञाना

( १९८ ) बीजक कबीरदास

आओ बहुते पीर औलियनको देखे किताब कुरानके पढनवाले ते जीवनकों मुरीद कहे शिष्य करिके मुरगी बकरीके हछालकरे कि तदबीर बताबे हैं आपी हछाछ करे हैं

आसनमारि डिभ धारि बेठे उनमें वहुत गमाना पीतर पाथर पूजन लागे तीरथ गये घुलाना

कोई चौरासी आसन कैके भाण चढ़ायकै डिंभधारे बैठे हँ कि, हमारे बरोबारे कोई सिद्ध नहीं है यही मनमें गुमान करे हैं यह योगिनको कटह्मों। कोई पीतरकी मुर्ति कोई पाथरकी मुत्तिपूने हैं सर्वे भूतमें व्यापक जों भगवान्‌ विन भूतनको द्रोहफरे हैं ते अज्ञानी हैं साहबको नहीं जाने हैं तामें प्रमाण अहमुच्ा वचेदवेग्ये: क्रिययोत्पन्नयानपे नेवतुष्येडचिंवोश्चोयां भूतग्रामावमानिनः: १॥ यस्यात्मबुद्धि: कुणपेजिधातुके स्वधी: कलत्नादिषु- भौम इज्यथीः यत्तीर्थबुद्धिः सलिलेनर्काहेंचिज्जनेष्वभिज्ञेप्सएव्गो खरइतिभा- गवते कोई तीथ्थनमें छांगे है सो इनहीके गये में सब भुलाने हैं कि, हम मुक्त द्वै जायेंगे

माला पहिंरे टोपी दीन्हे छाप तिलक अनुमाना

साखी शब्दे गावत भले आतम खबारे जाना ५॥॥

अब कवीरपंथेनको नानापंथिनकों कहै हैं कि, माला पहिरे हैं टोपी दोन्‍्हे हैं नाकतेडेके अछिद ऊध्व तिछक दीन्हे हैं ताहीके अनुसार छाप पाये हैं या कहे हैं हमको गद्दीकी छाप भई है हम महन्त हैं पान पायोंहे साखीं शब्द गावतहें पै वाको अर्थ मूले हैं साखी शब्दमें जो साहबको रूप बतावैहँ जीवात्माके सो नहीं जाने

हिंदू कहे मोहें राम पियारा तुरुक कहे रहिमाना। आपसमे दोउ ढररे लारे मृये मर्म कोइ नहिं जानाध॥। : सो हिन्दूतो कहैंहें कि, वेद शाखमें रामही पियारा है मुसलमान कहैहैं कि, रहिमानही पियाराहै यहद्विविधा छगायराख्यो है या जानतमये कि,

शब्द | (२०१) एकही हैं आपसमें छड़िछ॒ड़िंके मरिगये मर्म कोई जावतभयरे की जो है डे >> ने राम है, वही रहिमान है। साहब एकई है, दूसरो नहीं है सब नाम -कारको

हैं तामें म्रमाण “सर्वोणिनामानियमाविशतिइतिश्रति:” सो सब त्‌- वाहीमें घटित होयहैं +

| कल [कक हे ३20 बिक हक ध्रधर मंत्र जे देत फिरतहें माहिमाके अभिमाना। | आर वि है: 0 गुरुवा सहित शिष्य सव बूड़े अन्त काल पछिताना ७॥ घरघर जे मंत्र देतफिरतहें अपनी महिमाके अभिमानते कि, हम सिद्ध हैं योगी हैं पीरहें औलिया हैं ऐसेने गुरुवा हैं | ते यही अभिमानते सबकी रक्षा करनवारे ने परमपुरुष श्रीरामचन््ध हैं तिनको भुछाइके, सब॑जीवनकी और औरं में लगाइ देइहैं कहे हैं कि, हम उद्धारकै देइहें | गुरुवा सहित सब शिष्य बूड़िनाईंगे जब यमकेर मोंगरा छगैगो तब पछितायगों कि, हमपरम पुरुष श्रीरामचन्द्रको भतन किये जे सबके रक्षक हैं

कहहि कवीर सुनोहो संतो सवभम अलाना केतिक कहों कहा नाहिं माने आपहि आप समाना॥८॥

सो कबीरजी कहै हैं कि, हे संतो तुम सुनो ये सब भर्मईमें भुलान रहै हैं में चारो युगमें केतनों समुझाऊंहों पै माने नहीं हैं। यद्यपि माया ब्रह्मकी एती सामथ्ये नहीं है कि, यह जीवकों धरिलेजाय काहेते कि, वह जीवहीकों अनु- मानहे सो यह आपनेनते आप यही भर्मेमें समाइगयो है कि, में ब्रह्महों | आप आपहीते यह माया बह्मसे आपस मानलियो है अर्थात्‌ संगति कैलियों है तेहिते संतारी हैं गयो

इति चोथाशब्द समाप्ता

इस चरणका पाठ दाना पुरकी पंक्तिमें ऐसा है “केतिक कहौं कहा नहें माने सहजे सहज समाना”?

( १९८ ) बीजक कबीरदास

(वर अथ पांचवां शब्द ५॥ आगे... तो अचरज यक भो भाई।

यह कहों तोकी पतिआई एके पुरुष एक है नारी ताकर करहु बिचारा एके अंड सकल चोरासी भम अुला संसारा २॥ एके नारी जाल पसारा जग में भया अंदिेशा खीजत काहू अंत पाया ब्रह्मा विष्णु महेशा नागफांस लीन्हे घट भीतर मात सकल जगखाई। ज्ञान खड़ विन सब जगजूझे पकारि काहु नहि पाई॥४॥ आपुहि यूल फूल फुलवारी आपुहि चुनिचुनि खाई कहें कबीर तेहे जन उब्बरेजेहि गुरु लियो जगाई «५ संतो अचरज यक भो भाई यह कहों तो को पतिआई॥१ एके पुरुष एकहै नारी ताकर करहु विचारा एक अण्ड सकल चोरासी भर्म भुला संसारा एके नारी जाल पसारा जगमें भया अदेशा

खोजत काहू अंत पाया ब्रह्मा विष्णु महेशा है संतों ! शुद्धनीवो ! भाई एक बड़ो आइचर्य भयो जो मैं वाको कहां तो को पतिआय एके पुरुषहे एके नारीहै कहे वही जीवात्मा पुरुषौ हे नारे है ताको विचारकरों वा कौनहैं ! एके अंडमा कहे एक ही प्रणवमें उत्पन्न चौरासीछाख योनि तामे पारेके यह जीव संसारके भर्ममें भुछायरह्यो है अथवा एकही अंढ कहे ब्रह्मांडहिमें कौन !

ऋब्द (२५०१ )

यह जीव शरीर घरयो तब एके नारी जो बाणी सो नानाप्रकार की नो है : कत्पना सोईं है जारू ताका पसारे देत भई तब जगमें नाना मकारकों अंदेशा होत भयो कहे नानाप्रकारके मतन करिके जगवके कारणकी खोंजत- भये परन्तु ब्रह्मा विष्ण महेश है भी अन्त ने पावतभये: थकिके नेतिनेतित कहि

दियो आत्माकी विचार कियो कि कौनकोंहे

ना|गफाँस लीन्हे घट भीतर सूसि सकरू जग खाई 5 जज कर डक 5 ज्ञान सड॒ग विन सबजग जूझे पकरि काहु नहिंपाई७॥ सो ये केस अन्त पाँवे नागफांस कहे त्रिगणकी फांसी लिये घटके मीतर

माया बनीरहैं है से!ई सब संसारको मूसिके खाई लेइहै मसिके खाइ जो क्यों सो बेती नाना मतनमें परे यहजाने हैं कि, यही सत्यहै परन्तु माया जो है सो परमपुरुषको जानिबो मंसि छियो कहे चोराइलियो परमपुरुष जे आऔरामचन्द्हें तिनको ओऔ अपने आत्माकों जानिबो कि, साहबकोहोँ में मायादिकने को मिथ्या मानिबो यह जो ज्ञानखड़ है ताके बिता सब जग जझी

जाईहे वह मायाको कोई पकरि पायो अथोव्‌ यथार्थ मायाही कोई जान्यों, तव साहबकों अपनों स्वरूप को जनि

आपुहि मूल फूल फुलवारी आपुहि चुनि चुनि खाई। . कहहि कबीर तेई जन उदरे ज्यहि गुरु लियो जगाई॥५॥

आपहि वह मायामूल अविद्याद्ने जगतके नानापदाथ करत मई कहे कारण अविद्याभई। आपहीफुलवारी कहे कार्य अविद्या हक जगतके नानापदा्थ भई आपही कालरुपंहैके चनि चुनि खाइहे सो कबीरजीकहे हैं स्वृप्त जा

25 आर,

माया तोनेते जगाय साहब को बताइदियों है जाको सद॒गरु तेई जन उदबरे हैं।

“नाग फांस कहिये वाणीको क्‍यें कि जैस नागकी दे जिहा होती है वेसे हा वाणी के दो अर्थ होते हैं संसार मुख अर्थ से नरक में पड़ता हे और गुरुमख अर्थसे मोक्ष पद को प्राप्त होताहे ६२ क्‍्या।

च्ज््

(२०२ ) बीजक कबीरदास अर्थात जो साहबको जाने हैं अपने स्वरूपकों जाने हैं कि, में साहबकोहों ताको माया स्वप्रवर्तहें अथवा गुरुने सबते ओेष्ठ श्रीरामचन्द्हें तेई जिनकों मोह निशामें सोवत जगाहदियो है अर्थीत्‌ हंसरूप देंके भपने पास बोलाइलियों है तेई जन उबर हैं कहें बचे हैं इति पांचवांचाब्द समाप्त

अथ छठाशब्द

संतो अचरज यक भारी पुत्र घरल महातारी १॥ पिताके संग हि भई वावरी कन्या रह कुमारी। खसमहिं छोंड़ि ससुर सँग गवनी सो किनलेहु विचारी॥२॥ भाई संग सासरी गवनी साय सोतिया दीन्‍्हा। ननद भाज परपंच रंच्योहे मोर नाम कहिलीन्हा समधीके सँग नाहीं आईं सहज भई घरवारी। कहहि कबीर सुनो हो संतो पुरुष जन्म भो नारी संतो अचरज यक भो भारी पुत्र चघरल महतारी पिताके संगाहे भई बावरी कन्या रहल कुमारी। खसमाहें छोंड़िससुरसंग गवनी सो किन लेहु विचारी ॥२॥

है सन्‍तो | एकबड़ो आइचये भयो पुत्र जो यह जीवहै ताकी महतारी जों मायाहै सो धरतभई १॥ अरु पिता जो ब्रह्म है ताके संग बावरी है जात- भई, कहे जारपुरुष बनावतभई अर्थात्‌ माया सबलित ब्रह्म भयो कन्या नो बुद्धि है सो पतिकों निश्चय कहू करतभई बिचारै करत रहिगईं कुवारिही रहतभई अथीत्‌ सब मतनमें खोजतभई परन्तु निश्वय होतभई पहिले पिता जो बह्मह ठाको खसम बनायो, पुनि तौने खसमकों छोड़िकै ससुर जो है मन, कहे मंनेकी अनुभव बह्नह ताके सैग गवनत भई। सो. हें

झाब्ड ( २०३ )

जीवों ! अपनेते काहे नहीं बिचारिलेउ हो कि माया हमारे मन में पौठिके ओर औरमें बुद्धि निव्चय करावें है

भाई के संग सासुर आईं सास सोतिया दीन्‍्हा। ननेंद भोज प्रपंच रच्योहे मोरनाम कहि लीन्हा॥

| आकाक

प्रथभ याक्ती भयभई तब या बिचार कियो कि “दद्वितीयादे भर्य॑ भवाति” तबहीं माया छूगी याते भाई भयो। मायाकों भय सोई भाई के साथ नाना मतवारे जे गुरुवाछोग तिनकों जो मन है सोई सासुर है तहां आईं. तिन गुरुवषककी बाणी नोंहै सोई सासुहै काहेत बह्मकी उत्पत्ति बाणीहीसे होतीहे सो गुरुवनकी वाणी रूप जो मायाकी सासु ताकी सवति जो दीक्षारूप सो मायाको देतभई। सो मायाते देवयोग छूटि उजाय परन्तु दीक्षास- वतित , नहीं छूटे है सो मायाकी सवतिदीक्षा काहेतेभमई,माया तो बत्रह्मडी खत्री है सो ताही ब्रह्म को दुक्षाह लगावे है सो ज्ञान विद्यारूप हे सो ब्रह्मके साथही भई, ब्रह्मकी बहिनिभई, मायाकी ननंद कहाई तोन अविद्या ब्रह्मकी पति बनायो सो भौजी आप भई सो ये दोऊ भौजी नैनद मिलिके परपंच रच्येंहेः

हा चेक

अरू जीव कहे है मेरो नाम कह दियो है कि, जीवही सब करे हे

हा 4 | €्ः समधीके संग नाहा आईं सहज भई घरवारी हर हक

कहे कबीर सुनो हो सन्‍्तो पुरुष जन्मभोनारी 8॥

मायाकी कन्या बाद्धे कहि आये सो बुद्धि कुँवारहीमें नानाजीवनकोी जारप- ति बनायों सब जीव साहबके अंश ताते सब जीवनके बाप साहब ठहरे सो मायाके समधी भये | तिनके घरवारी कहें आपही सब जीवनके बिवाहलेत भईं अथौव्‌ बशकर लेत भई सो कबीरजी कहे हैं के, हे संतों जीव ! जो पुरुष है सो माया के साथनारी हैगयो

इति छठागब्द समाप्त

(२०४ ) बीजक कबीरदास

अथ सातवां शब्द ७॥

संतो कहो तो को पतिआई। झूठा कहत सांच बनिआई% लोके रतन अवेध अमोलिक नहीं गाहक नहीं सांई। चिमिंकि चिमिकि चमके हग दुह दिशि अरव रहा छरिआई आपहि गुरू कृपा कछु कीन्हो निग्रेण अलख लखाई सहज समावि उनखुनी जागे सहज मिले रघुराई हे जहेँ जहँ देखो तहँ तहँ सोई मन माणिक वेध्यो हीरा परम तत्त्व यह गुरुते पायो कह उपदेश कवीरा #।

सन्‍तो कहो तो की पतिआई।झूठा कहत सांच बानि आई हे संतो ! झुठा नो बअरह्हे ताका कहत कहत जीवन सांचबनि आई वही

अक्यको सांच मानलियेंहे अब नो में सांच साहबको बताऊंहों तो को पतिभाय अथीव्‌ कोई नहीं पतिआय है बंह्महींमें लगे हैं के कक | चर 2. [मी ७७९५ लोके रतन अविषध अमोलिक नहि गाहक नहि साई है हा छत कक + 6 हक चिमिकिं चिमिकि चमके हग दुहुं दिशि अरब रहा छरिआई छो लगनको कहे हें सो वा ब्रह्म माही हों या नो को कहेरगन ताही ज्ञानकों रतनके अबंधित अमोलिक मानि जामें गाहक साईं नहीं है ( अर्थात्‌ दूसरा तो हंई नहीं है गाहक सांइ कहांते होय ) सो वहीं ज्ञानकों ब्रह्म मानि लियो तौने ब्रह्म उनके हगन में चमकि चुमकि चमकैहै, सर्वत्र देखो परे है जोकहो!! छोक मकाश बह्मही देखो परे है सोनहीं अरु जो या हठ है कि, सर्वेत्न ब्रह्मी है सोईनो बरहा हैं सो छरिआाई रहोहि सवेत्र ब्रह्मही देखायेहे मेंस बरहामें मछबढ़े सर्वत्र फेलिनाय है ऐसे अहंब्रह्मास्मि जो या ज्ञान सो जब 'बठये तब याको हठहीरूप ब्रह्मंद्खों परेहे

शब्द ( २०५ )

आपुहि गुरू कृपा कछु कीन्हों, निुण अलख लखाई सहज समाघिं उनमुनी जागे,सहज मिले रघुराई

सो गुरुनहें सदगुर्ते जब आपही रृपाकरैहें तब निर्गंण जो बह्महै ताके अलछ्ख लखावे हैं कि वे कछुकस्तुही नहीं हैं अर्थीत्‌ अल्ख हैं धोखाहै साहब कब मिले जब सहन समाधि उनसुनी मुद्ा करि जो सर्वत्र अह्म देखेहै तौन उनमुनी रूप निदाते जोंग अथीव सहजही समाधिके |चित्‌ अखितरूप विग्रह या जगत साहवकों है यादेखे तो सहजहीम॑ परम परपुरुष मे श्रीरामचन्द हैं तेंमिल जहजहदेखोतहँतहँसोई, मन माणिक वेध्यो हीरा

विदक विष ५2

परम तत्त्व यह गुरुते पायो, कह उपदेश कवीरा ॥४॥

के 8 का 0 ही.

अबापित अमाडिक आगे कहिभाये ताको तो नेतिनेति कहे हैं वामें काहकों मनहा नहीं वेध्यो अथात्‌ घोखही है अब साधुनकों मन नो माणिक है अन- राग पृथक छागे सो साहब जे हीरा हैं तिनमें बेध्यों है ऐसे जेसाहव चितृ-

8 है को. [ किक

आचदरुप जहाजहां दखाहा तहांतहाँ सोई है यह कबीरणी कहे हैं कि यह परम दत््वका उपदश में गुरुत पायाहें

इति सातवां शब्द समाप्त

अंथ आठवां शब्द ॥| अबतारादवंबार संता आंब जायसो माया है श्रातपाल काल नहीं वाके ना कहूँ गया आया ॥१॥ क्या मकसूद मच्छ कच्छ होना शंखासुर संहारा अहे दयालु द्ोह नाहें वाके कह्ह कोनको मारा वे कत्ती ने वराह कहावें चराणि धरे नाहिं भासा।

( २०६ ) बीजक कबीरदास

सब काम साहबके नाई झुंठ कहे संतारा॥ ३॥ खंभ फारि जो वाहर होई ताहि पतिज सबकोई। हिरणाकुश नख उदर विदारे सो नहिं ऊता होई॥ वावन रूप बलिको यांचि जो यांचे सो माया विना विवेक सकल जग जहड़े माया जग भरमाया ॥५॥ परशुराम क्षत्री नाहैं मारा छल माया कीन्हा सतगुरु भक्ति भेद नहैं जाने जीव अमिथ्या दीन्हा ६॥ सिरजनहार व्याही सीता जल पषाण नहिं बंधा वे रघुनाथ एकके सुमिरे जो सुमिरे सो अंचा॥ ७॥ गोपी व्वाल गोकुल नहिं आये करते कंस मारा है मिहरबान सबनको साहव नाई जीता नाहिं हारा ॥८॥ वे कत्ता नहिं बोद्धकहावें नहीं असुरको मारा। ज्ञान हीन कत्ता के भरमें माया जग संहारा ९॥ वे कर्ता नि भये कलंकी नहीं कालिंगहि मारा। . है छल बल माये कीन्हा यातिन सतिन सब टारा १० दश अवतार _इंज्वरी माया कत्तोके जिन पूजा कहे कवीर सुनो हो संतों उपजे खपे सो दजा ११ अवतार विचार

अबतक सबके गुरुअेष्ठ परम प्रपुरुष श्रीरामचन्द्रको वर्णन करिआये ति- नके द्वारमें नारायणादिक मत्स्यादिक रहेआविह-ं ते अमायिकहैं कांहेते कि आंवै जायनहीं हैं तिनहीको परालर बह्म करिके वर्णतहैं तामें मरमाण ( पूर्णमदः पणैमिदं पूर्णातृणमुदुच्यते पूंणैस्पपूर्णमादायपूर्णमेव[वशिष्यते इतिश्रुतेः) माया ते परे हैं बहुधा निरंभनादिक ने नारायणहैं जिनके पांच

शब्द (२०७ ) बह्ममें कहिआायेहै ते, उनकी उपासना करिके उनको आपनेते अभेद मानि के उनकी शक्तिकों पाप्ति देके जगतके कार्य सब करेहँ जब मत्स्यादिक

जप 4. आर,

अवनारलेइ हूँ तब ने साकेत मत्स्यादिक हैं तिनकी अभेद भावना करिके उतने अवतारकी शाक्ति पाईके आपही मत्स्यादिक होइहेँ ये सब साकेतमें ने नारायणादिक सब तिनके उपासक हैं उपासनामें देवकी अपनों अभेद मानित्रों लिख्यों है॥ देवोभल्वादेवेयजेत्‌ ”” तेहिते उनकी झाक्तिति ये

के

सबअवतार लेइहें नोकहों यामें कहा प्रमाणहै कि, येसव उनहींक्े उपास- कहें तो रामनामके साहब मुखअर्थ्मं मकार स्वतःसिद्ध सानुनासिक है ताको जो मात्रा तैनेमें साहबके मे सब्र पार्षद हैँ तिनकों वर्णन कारिआये

| ये सब नारायणादिक गामनामहीकी उपासनाकरे हैं सो जाकी जाकी उपासना कीन चाहे हैं ताकी ताकी उपासना रामनामहींमें है नायहै रामना- मकी ये सब उपासनाकरे हैं तामे प्रमाण * नारायणःस्वयंभ्रचशिवरचेन्द्रा- दुयस्तथा सनकायाश्र योगीस्दानारदाद्यामहर्षयः सिद्धा: शेषादयइ्चैवलोम- शाद्यामुवीगवरा: लक्ष्म्यादिशक्तय:सवो:नित्यमुक्ताश्ृसवंद्र मुमक्षवश्र मुक्ताथऋषयश्चशुकादयः तत्मभाव॑परंमत्वामंत्ररानमुपौंसिते इतिवसिएुसंहि- तायाम्‌ जो कहे ये सब रामनाममें साहबमुख अर्थ तो जान्‍ये मायिक काहेभयो ! तो बिना माया सर्बाहूत भये जगवरके कार्य नहीं है सके हैं तेहिते ये सब माया सबलित हैंके कार्यकरे हैं। परन्तु जैसे इतर जीवनके नन्म मरण होईई तैसे इन के नहीं होहहें जब मह।मलयभई तब| सबर्नाव साहब के लोक अ्रकाशमें समष्टिरुप रहे हैं जब उत्पत्तिमई तबफिरि! कर्मकरिके उत्प- गीहहै ये सब नारायणादिकनकी उत्तत्ति प्रछुय नहीं होंइ है काहेते

ख़रहें, जब महाप्रढयभई तब ने साकेत छोकमें नारायणादिकहें ते, नके अंशीहें उपास्पहें तहां छीन हैंके रहेनाइहें उत्पत्ति समयमें समष्ठि जीव पष्टि होने चोहेह तब राम नाममें जगत्‌ मुख अर्थकी भावना करे है, तब साकेतनिवासी ने नारायण हैं तिन्हें तिनके अंशई सब पांच ब्रह्मरूपते प्रकट होइहे साकेतमें ने नारायणादिकहें ते अमायेकहैं, तिनके अंश नारायणा- द्वि

के मत्स्यादिक अवतार लेके भव नाय हैं ते माया सबलित हैं | सो ये सब

हट

ईं के

_ | ल्‍्ण

4

( २०८ ) बीजक कवीरदास

$<्‌

मत्स्यादि अवतारनकों मायिक कहिंके कबीरजी साहब की परत्वदेखँविह कि साहब सबते भिन्नहें

संतों आवे जाय सो माया प्रतिपाल काल नहिवाके नाहिं कह गया आया ॥१॥

चन्द्र

शी

करे हैँ उनके कालनहीं है अर्थात्‌ मय आदिक नहीं होईहे अथवा जो _ई वे साहब को जाने है ताकी काठकों भय छूटिजायहै वे परमपुरुष श्रीरा- न्र ना कहीं गये हैं आये हैं

८007

हु अं

संतो! आवैनायहै सो तो मायाको धर्म है।ने साहब परम परपुरुष श्रीराम हैं ते सबको प्रतिपाल्ही भर करे हैं कहे उद्धार भर करेहें काम

|

/ँ

हा हि

क्या मकछूद सच्छ कृच्छ हाना शखासुर सहारा अहैदयालु दोह नहिं वाके कहो कौनको मारा २॥ ' कत्ता वराह कहाव दरा|ण पर नाह सारा | + चर # 3 झूः $ संत काम साहब नाहं झूठ कह संसारां हे || 'अरु वे उद्धारकत्तों परमपरपुरुष श्रीरामचन्द्रको क्या मकसद कहे क्‍या मकसद हैं अर्थात्‌ क्या प्रयोननहै, मच्छ कच्छ होनेका वे शंखासुरको नहीं दारयाहे शेखाधुर उपछक्षण याते जिनकी जिनको मारयों है अवतारते सब आइगये अरु सो दयालु हैं सबकी रक्षाकरे हैं उनके द्रोह नहीं है कही कौनकों मारयो है अरू वे उद्धारकत्तों साहब वाराह नहीं भये प्रथ्वीकों भारा धरयो सो जोन सबकोरई कहे हैं कि, सब काम साहबहीके हैं सो ये काम साहब के नहीं हैं यह संसार झठई कहैँहे सो साहबको बिना नाने कहे हैं ३॥

खम्भ फारि जो बाहरहोई ताहि पतिज सब कोई हिरणकशिवु नख उद्र बिदारे सो नहिं कत्ता होई॥४॥

शब्द ( २०९ )

बावनरूप वलिको ये जो यांचे सो माया

निना विवेक सकल जग जहड़े साया जग भरमाया<

खम्भ फारिक बाहर हैं के नरसिंह रूप है नखते हिरणकशिपके उदरकों विदारयों है तोनेन व्यापक अह्म को सबकाई पतियायहै सों वे उद्धारकत्तो प्रमपुरुत श्रीरामचन्द नहीं हैँ यह सब माया कियो है बावन- रुप हे वे साहव वढिकों नहीं यांच्यो हे मांगेबों पाइत्रों तो सब माया है सब जगत्‌ के जीव बिना बिवेक नहड़े कहे भुलाय गये हैं। सब जीवनकों

8 आर

नाया भरमाइ लियो है

परशुराम क्षत्री नहि मारा छछ मायहि कीन्हा

संतजुरु भाक भंद नाह जाने जीव अमिध्या दीन्‍हा॥६॥

अह वे उद्घारकत्तां परमपरपुरुष श्रीरामचन्द्र परशुराम है क्षत्रिव को नहीं मारदया हैं यह सब मायाही कियोहै। सतगुरु कहे सैकरन जे गरुवा हैं ते साहबके भाफके भेदकी जाने नहीं हैं जीव को ये ने नारायण हैं सब जे अवतारह तिनही को अमिथ्या कहे मिथ्या नहीं सांच कह्िके कि, वे सांच साहब यई हैं तिनहीं की जीवन को दांक्षा देइ है | सो मिथ्या है

(सरजनहार ब्याही सीता जल पषाण नह बंधा

वे रघुनाथ एकके सुमिरे जो सुमिरे सो अधथा ७॥

भी वे सिरजनहार कहे जाके सुरतिदियों ते, बह्मा विष्ण महेश आदिक अवतार ढू३ह भी जगवकी उत्पत्ति होइहै सो सीता को नहीं बिवाह्यों, सेत नहीं वंध्यो सो वे निविकार उद्धारकत्ती रघुनाथको ये सब अवतारनको एक करके सबकोई सुपिरे हैं सो नो एक करके सुमिरे हैं ते अंधे हैं काहेते कि, वे तौ रघुनाथ हैं रघ॒ कहिये सत्र जीव को तिनके नाथ हैं वे काहेको काहू के मारनकी अपतार छेईँगे। वे निर्बेंशर ये माया सबलित हैंके सब अवतार छेइ हैं नो कोई आवेनाय है सो मायिकहे

सो वे निर्विकर साहब सविकार ये सब अवतार एक केसे होईंगे। ५8

(२१०) बीजक कवी रदास

बे नो

रघु जीवको कहे हैं ते रघुशऋ कै ( ब्युलत्तीरंबतेलो काले कांतरं गच्छाति रघवों- /_ % कप शाप 5 2 कप जीवास्तेषांगाथः ) अर्थ छोकते और लोक जाय ते नीवरघु हैं तिनके नाथने हैं तेई रघुताथ हैं

किक किक २५ किक कं

गोपी ग्वाल गोझकुल नाहें आये करते कंस मारा।

ध् जा #९&

है मेहरवान सबवनको साहव नहिं जीता नाहें हारा ८॥ गोपी ग्वाढ गोकुछ में कबहूं नहीं आये हैं वे उद्धारकत्तों साहब कंसको

फरते नहीं मारो मथुरागये काद्देते कि ब्रह्म वैवरत्तमें लिखाहै। ( वृन्दावनं-

परित्यज्यताइभेकंनगच्छति ) थे साहब तो सबके ऊपर मेहरबानी करनवारे

हैं वे काहूतों जीते हैं हरे हैं काहुको मरे हैं अर्थ,व्‌ युद्धई नहीं कियो

बेती रासई करत रहे हैं

वे कर्ता नाई बौद्ध कहवें नहीं असुरको मारा। ज्ञानही कर्ता भरमे माया जग संहारा ९॥ वेक॒त्ता नहिं मये कलकी नहीं कलिगाहि मारा छल वल सब माये कीन्हा यतिन सतिन सब दारा १० अरु बेद्धहूप हक देत्यतकों नास्तिक मतसिखे देत्यनकों संहार कराई

डारयों है सो सबमाया कियो है वे मुक्तिकर्ता साहब नहों कियो काहेते कि वे मुक्तिकर्ता साहब देवकों निन्‍्दा करिके इनकों अज्ञानी कैसे करेंगे सो ज्ञानहीन जे हैं मम, ते यह कहे हैं कि, यह सब उद्धार कत्तों जो है सोई सब करे है सो कर्ता नहीं करे है यहमाया सब जगवको संहारकरे है अरु

वे उद्धारकत्तों परम परपुरुष श्रीरामचन्द्र कछकी अवत'र नदींलियो कह़िंग देशी ने म्हेक्ष हैं तिनकी मारये| है यह छठबल सबमायै कियो है। यतिनकों जे। है सत्य सब्रताको टारिद्ियों है अर्थात्‌ यती ने रहे संन्यासी गोरखादिक तिनकर सत्य जो है साहबको ज[|ननवारों मत तौनेको दारिदियों योगादेकनमें लगाइदिको १०

छाब्द (२११)

दशा अवतार ईइवरी माया कर्ता कैजिनपूजा

कहहि कवीर सुनो हो सन्‍्तो उपज खपे सो दूजा॥११॥

नारायणे माया करिके अबतार छेइ है ते सब ईइवरीमाया है कहे ईश्वर रूपहीमाया है !(तेनकों निन पूमाकहे रामचन्द माने के पूनो वैशेपुों तो पुंनो इंबवरमानिके पन्तो। सो कबीरजी कहे हैं के हेत॑तो! जो उपने हैं औ- ख१ हैं सो साहबते दूजो पुरुष हैं; वे उद्धारकत्तों परम परपुरुष श्रीरामचन्द्र साकेत ते कबहू नहीं आंवे जाय हैं तामें प्रमाण ( पूर्ण: पूर्णतमः श्रीमानूस- खिदानन्दविग्रह: अधोध्यांकापिसंत्यज्यसकाविन्नेवगच्छति इतिवशिषप्ठ सेहिता याम्‌ साकेतेनित्वमाधुस्येधाम्रिस्वेतानतेसदा शिवसंहितायाम्‌ ) जो कहा इनहूकोी तो कौन्यो कल्प में अवतारलिख्यों है सोई कबहूं आंवै जाय नहीं है साकेतही में बनरहे हैं जब कबहू बाणयुद्धकी इच्छा चले है तब यह अयोध्या साकेतई प्रकय्हो३ हैं अरु उहांके सब परिकार जमके तस प्रकटहोइ हैं। यह ज्राह्मण्डमें तहां नेते साकेतमें विहारकरे हैं तेसे विहार करे हैं याहहित॒ते ज्ञानी अज्ञानी जड़ चतनकीटपतंगादिको मुक्ति करिंदियों सोश्रतिमेलिखहे॥ (ऋतेज्ञानान्न- मुक्ति; ) बिनाज्ञानमुक्ति नहोंहोंइ है सो नोवह साकेतकेशव होते तो म॒क्ति केसे होती जो कहो यह ब्रह्माण्ड वह साकेतई है गयो तो साकेतको आइबो तो आयी

तो सुनो वह साकेत यह अयोध्या एकई है, इहां साकेत आबे जाय नहीं है जेसे साहब सर्वेत्ररृण हैं, तेसे साकेत तो साहबके रूपई है सो वहों स-

वेत्रपूर्ण है ( अयोध्याचपरंत्रह्म ) इत्यादिक प्रमाणते जब परमपर पुरुष ओरामचन्द्र को म्रकट बिहार करनकों होइहे तब परकर्हे जाहहें जब गुप्बिहार करनको होइहे तब गुत हैनाइ हैं। तब साकेत जोपकट ओऔ गप्त डैनाईहे केसे ! नेसे श्रीकब्ीरमीकी जब प्रकट उपदेश करनकी इच्छाहोइहै तब प्रकटहोइ उपदेशकरे हैं, सब कोई देखेहें जब गुप्त उपदेश करन होररहै तब गुप्त उपदेशररे हैं जाको उपदेशकरे हैं सोई जानेंहे। वे संकेत निवासी ओरामचंद् गे स्वेत्रृर्ण हैं तैसे उनकी छोकऊ सर्वत्रपर्ण है। नोकहों उनके नामादिक तो अनिर्बचनीय हैं वे केस मकट बचन में आँवेंगे तो, नारायण जे रामावतार छेद हैं तेई हैं तिनके नामादिक तिनते उनके नामाद्िक ब्येजित-

(२९२ ) बीजक कबीरदास

होइहहें, सो पीछेलिखिआये हैं जबउद्धारकत्तो साहब मकटहोइ हैं तब जे देखन वारे सननवोरे हंसरूप में स्थितंहें तेई बहीरूपते देखहें सुने हैं सच्चिदा« नन्दात्मको ( भगवान सद्चिदानन्दात्मिका अस्यव्यक्तिः ) यह श्रुति कारिके एकरूपताकहि आये हैं याहीते छोकहकों ब्यापक कह्मो नारायण जो रामावतारडे अशोकबा्िकामें ठीलाकियों सो बर्णतकरि मन वचनके परे जे साहबहें तिनके ढीडाको ब्यंजितकेर हैं सो ब्यज्षित तो कर हैं परन्तु मनब« चनके परे जसाहबहें तिनके नामरूप ढीडाधाम मनबचनके पर साकल्य करि* कैब्येजितऊ नहीं करिसके हैं सो यह बतजों काई साहब करिके हेसरूपपायें हैँसोसाइबके मनकारेके साहबकी नामादिक जाने हं।ओ जंपे है साहबके दिये रूपकी आंखीते साहबको देखे है ताममे वेद्सारोपनिषत्‌ को प्रमाण ३े७॥ ( जनकोहवैदेहों याज्ञवस्क्यमुपसत्यप्नच्छकोहवैमहानपुरुषेयंज्ञात्वहविमुक्तो- भवतीति ९१ सहोवाचर्चशस्योंरघुनाथएव्महापुरुष: तस्यनामरूपथाम-» लीला मनो वचनाद्यविषया: सपुनरुवांचेहर्श कथमह शक्रयांकिश्ञातुज्ञापकाज्ञा- नादितिसपुनः मतिवक्ति अयैते छोकामवंति विरजायाः परेपरेलोंकोवैकुण्ठस- ज्ञितः तन्म्ध्यराजतेयोध्या सच्िदानन्दरूपिणी ३॥ तत्नलोकेचतुबोंह रामेनारायण: अभु: अयोध्यायांयदाचास्य अवतारोभवेद्हि तदा* स्ति रामनामेदमव-रविधेविभो: तन्नाम्नोनामरहितस्थाम्ना ते नाम तस्यहि दशकंअबधायादिलीलाविष्णो: भकीत्तिताः सकदाचिच्वच कल्पेस्मिं+ छोकेसाकेतसंजिते पृष्पयुद्धरपुत्तंत्र: करोति सखिमि; सह॥ ७॥कस्मि« नकल्पतुरामोसों बाणनन्येच्छया वेभुः तैरेवससिभेः साद्वेमाविभेय रघूदहः राबणादिवधेडीला यथाविष्णः करोतिसः तथायमपितत्रैवकरोंति- विविधाः क्रिया: क्रियाइच वणणयित्वाथ विष्णुढीलाविधानतः दीला-* निवेचनीयत्वंततेमवतिसचितम्‌ १९० किंचायोध्यापरानामसाकेतइतिसो- च्यते इमामयोच्यामाख्याय सायोध्यावण्पतेपुन५5 १९ अनिर्वाच्यत्व- मेतस्यान्यक्तमेदानुभूयते रामावतारमाधत्तेविष्णः साकेतसंज्ञित १२ तदपंदर्णयित्वानिरवेचनीयप्रभो: पुनः रूपमाख्यायतेविद्धिमहतः पुरुषस्य हि १३ इत्यथवैणवेदेवेद्सारोपनिषदिपिथमखण्डे ) आऔकबीरनीका यहीमतहै उके, साकेतछोड़िकहूं नहींनायंहै नित्यविद्दारी हैं ११ इति आठवांशब्द समाप्त

झाब्द। (२९३ )

अंथ नवृमशब्द संती वोले ते जग मारे। अन बोलते केसे वनिहे शब्दे कोइ विचारे पृहिले जन्म पूतकी भयऊ वाप जनमियां पाछे बाप पृतकी एके माया अचरज को काछे ॥२॥ उंदुर राजा टीका बेठे विषहर करें खवासी। अवान वापुरा घरनि ठाकुरो विछ्ली घरमें दासी * कागज कार कारकड़ आगे बेल करे पटवारी। कहहि कवीर सुनो हो संतो भं्तें न्‍्याउ निवारी ॥४॥

संतो बोले ते जग मारे अनबोलेते केसे बनिदे शब्द कोइ विचारे

पहिले जन्म पूतकी भयऊ बाप जनमिया पाछे। बाप पूतकी एके गाया अचरज को काछे

कमी पक

हे संतो! जो बोलोही कहे नोमें बताऊंहों सोतो माने नहीं है बेलिते जगमा- हैहे कहे शाखायररेहे जो बोलो तो बनेकैसे शब्दकों कोई नहीं बिचौरे अरु पहिले पतनों जीव है ताकीो जन्म हेलेइहे तब पिता जोहे जीव को अनमान ब्रह्म ताकी जन्म होइहे पिताजीवकी कोॉहेंते कह्यों कि, जब झुद्ध नीव एकते अनेक बह्मही द्वारभयेहै वह माया सबलित बह्मपूर्ते! जीव मायाहींमें परचेहे दोनों माया सबलितहें सो बापजोंहे जीव पूतजोंहै ब्रह्म तिनकी महतारी एक मायाही है अर्थीव यहीते अनादिकाछते दोनों प्रक्हें यहाँमें परेहेँं सो तें बिचारु तो यह अचरनको काछहै अर्थात्‌ तैंहों अपने अज्ञानते यह अचरन काछे है नानारूप धरेहे

(२१४ ) बीजक कबीरदास

उंदुर राजा टीकाबैंठे बिषहर करे खबासी

इवान बापुरा धरनिठाकुरा बिदली घरमें दासी॥ उंदुर जोहे मृस सो तौ राजा भयो टीकामें बैव्यों बिपहर सप सो खवा- सी करेंहे श्वान बापुरा जो हैं सोधराने ठाकुरा कहे बस्तु लैके ढांकिके धरे है कहे भंडारोहै बिल्ली घरमे दासी है सो खानवालिनि है। अर्थाव्‌ उंदरकडें वह साहबको ज्ञान जाको दूरके दियों है उंदुरमूसको संस्कृतमें कहे हैं सों उंदर कहे मूसतो जीवहै सो उंदुर शरीरको आपने मानिदियों सोई रानाभ- यो अरु वाकों खानबालों नोहै सर्पसो काछहे सो खवाप भयो कहे क्षण पल घरी पहर वाकों खात बीती तो होतनायहैँ सो खवास ह्वेके यहकाल वाकी आयुर्दायकोीं खातई जायहै | नाना मार की जो बिषयहैं तेई बौराहै ताको खवावत जाय॑है। अरू इवानकहे वह स्वानुमवानन्द जहै सो बापुरा जो जीव ताकाधारिके ठांकि लियो है कहे साहबको ज्ञान नहीं हान देह्हे विछ्ली जो है पट दशैुनकी बाणी सोघरमें दासी ह्ेरही है कहे नाना मतन में लगांवेहै स।हबकी भक्ति रस जो है सोई है गोरस ताकी खाइ लेइ है कागज कार कारकुड आगे बेल करे पटवारी कहहि कबीर सुनो हो सनन्‍तो भैसे न्याउ निवारी॥४॥

कागज कार कहे लिखों कागज कार कुड जो बैछहै ताको आगे थरो है सोई बैल पटवारी करेहै | सो कारो कागज कहे लिखो काजग जो गुरुवा लोगनकी बनाई पोथी तिनका आगगेधरिके बैलजे गुरुवा छोगन के चेलाहैं ते पटवारी करे हैं अर्थात्‌ कायानगरी के बंसैया जे मन बुद्धि चित्त अहंकार पृथ्वी अपू तेज वायु आकाश दश्ो इन्द्रिय तिनकी बिचारिके कि, कौन काके- आधीनहे ज्ञानरूपी दब्य तहसील करेहे वा पय्वारीकैके दृब्य राजाके इहां ढेनाइहे या ज्ञानरुपी द्रव्य आत्मा में राख्योा आइ अर्थात्‌ काया नगरीके बंसैया सब जीवात्मेते चेतन्यहैं याते आत्मे मालिक्हि | यह निरचयकियो सों कबीरनी कहै हैं हे संतो ! तुम सुनो दहां भेंसा जो है सोई नन्‍्याउ निबा- रहे, इहां मेंसाकहे गुरुवाडोग जो हैं सोआपचहरमें परे चहछामें परोनों'

शब्द | (२१५ )

जीव ताहीकी मालिक बतावै हैं। और चेढा जे हैं तिनहूं को मायाके चहलामें डोरहें ऐसो न्याउ निवारेहैं भाव यहहे कि, भेंसा यमकी असवारी है सो यमही पुर को ढैनाइगो | तहँ जब यमके छट्ठा लगेंगे तब गुरुवाईं निकसि आविगी

इते नवमछब्द समाप्त

अथ दशवां शब्द १० ( मजहब ) सन्‍तो राह दुनों हम डीठा हिन्दू तुरुक हटा नहिं मानें स्वाद सवनकोी मीठा॥ हिन्दू ब्रत एकादाशे साथें दूध सिंघाड़ा सेती। अनको त्यागें मन नाहें हटकें पारन करे सगोती॥ तुरुक रोजा नमाज गुजारें विसमिल वाँग पुकारें। उनकी भिन्त कहांते होह है सांझे घुगी मारे॥ हिन्दूकिं दया मेहर तुरुकनकी दूनों घटसों त्यागी वे हलाल वे झटका मारे आगि दुनों घर लागी॥ हिन्द तुरुक कि एक राहहे सदगुरु इहे बताई। कृहहि कबीर सुनो हो संतो राम कहेउ खोदाई «५

संतो राह दुनों हम डीठा

हू तुरुक हटा नाहिं मारते स्वाद सबन को मीठा ॥१॥ है संतो! हम दनोंकी राह डीठा कहे देखी दनोंकी एकई राह हैं सो हमारो टको कोई नहीं माने है। हम सबको सम्नझावते हैं कि विषयनकोी छोंड़िके खो तो दूर्नोंकी राह एकई है से दूनों दीनकों विषयनकों स्वाद मीठों लग्ये| यहीके मिलनकी उपाय करे हैं साहबको नहीं खोने हैं १॥

दे है

( २१६ ) बीजक कचीरदास

हिन्दू ब्रत एकादशि साथें दूध सिचाड़ा सेती अनको त्याग मन नहिं हटके पार करें सगोती २॥ तुरुक रोजा नमाज गुजार विसमिल बॉग पुकारें।

उनकी भिशत कहांते होइहे सांझे झुर्गीमारें॥

हिन्दू जे हैँ ते अन्नकों त्यागिके एकादशी ब्रत साथे हैं कहे उपासे रहे हैं ओऔ फलाहार करे हैं बिहान भये नानाप्रकारके ब्येनन बनाइके सगे जे हैं गोतीभाई तिनकी लैके पारण करे हैं मनको नहीं हत्कै हैं कहेदशों इच्दिय ग्यारहों मनको नहीं हटके हैं अथीत्‌ यह एकादशी नहीं करे हैं अथवा जैसे सगोतीमें कहे सगाई में अथोत जैसे बिवाहमें जाफतमें खाय हैं तेसे पारण करे हैं ॥९॥ मुसस्मान रोजा रहै हैं नमान गजरेंदें बिसमिल्लाको बांग देके पुकार हैं सांझको मुर्गी मारिके पोछाव बनाइ खाय हैं सो कहोतो डनकी भिद्त केसे होइगी

दू कि दया मेहर तुरशकनकी दूनों घट सों त्यांगी

बहलाल झदका मार आग दना घर छांगी हिन्दूकी दया तुरुककी मिहर हैं नो हिन्दू दया करत तो यम ते छूटत अरु जो मुसलमान मिहर करत तो यमते छूटत सो ये दोऊ दया मिहर- की आपने घटते त्यानि दिया है मुसल्माव कहें कि गछेकी रगंसभी अल्लाह नगीचहे औओ घट घट में मौजूदहे गला काव्तई हैं सो गो सेइके गला काटते हैं हिन्दू कहेँ हैं कि अह्मपवैत्र पूर्ण है झटका मरे हैं कहें मड़ का्िडारे हैं सोऊ ब्रह्म की ही गलाकाटे हैं या भकार ते कबीर जी कहे हैं कि दू्नों घरमेँं आमिलगी है यह अज्ञानरूपी आगि दूनों को बुद्धिकों दाहे डरे है॥ हि ' हिंदू तुझक कि एक राह है सतगुरू इहे बताई कहहि कबीर सुनो हो संतो राम कहो खोदाई « हिन्दू मुसल्मानकी एके राहह राम कह्यो खोदाइ कह्यो खदा कहो

का

राम कह्ों। नाम सब वही बादशाहके हैं सो वह बादशाहको हिन्दू तुरुककी

कै

झाब्द (२१७ )

शतीबड़ी गुस्ताखी कव नीक लगेगी | अथवा हिन्दू तुरुक की एक राहृहे कहे एक रामनाम 'लियेते उद्धार होईहे सो कमते निवृत्त हेके हिंदू राम कहँ

गे हैं ताहि

मुसलमान खोदा कहें आपने आपने कमे में सब छगे हैं तेहिते माया कैसे छूटे अथवा नारायणराम क्द्मो कि तम झटका मांस खोदा इकह्यो कि तुम हलाल करों ये दोऊ अपने अज्ञानते बनाइ छियो है

इते ददावां शब्द समाप्त

अथ ग्यारह शब्द ११ ( ब्राह्मण ) संतोी पांडे निषपुण कसाई बकरा मारि भेंताकों थावे दिलमें द्दे आईं करि स्नान तिलक करि बेठे विधिसों देवि पुजाई। आतम राम पलकम। विनशें रपिरकी नदी वहाई २॥ अविषुनीत ऊंचेकुल कहिये सभा माहि अधिकाई। इनते दीक्षा सबकोह मांगे हँसि आवे मोहि भाई पाप कटनकी कथा खुनांवें कर्म करोवें नीचा ! बूड़त दोउ परस्पर देखा गहे हाथ यम घींचा गाय वर्च तेहि तुरुका कहिये उनते वेका छोटे कहहि कबीर स॒नोहीं संतो कलिके ब्राह्मण खोटे ५॥

संतो पांड़े निषण कसाई। बकरा मारे भेसाको थांवे दिलमें ददे आई

का आस कल हक

कार स्ान तिलक कार बेद वापसा दांव पुजाई

श््च

आतमराम पलकमों विनशे रुपिरकी नदी बहाई

(२१८ ) बीजक कबी रदास

हेसंतो ! पांड़े निपुण कसाई हैं काहेते कि, कसाईं अबिधित मारे है वह विधिते मरे है याते निषुण है बकराको मारिके भेंसाकेः बलिदान दीबेकों धांवै है ॥| स्‍्तान करिके रक्तचंदनके बड़ेबड़े तिछक देक॑ बेठे है बिधिसों देवाकों पुजाँवे है अरु यह कहे है अंतयोमी सर्वेत्र है, बकरा में साकों मूड़काटि डारे है, रुपिरकी नदी बहनलंगे है तबवह आतमरामजो है जीव ( कहे आत्माजों है दर्रारतेहि बिषे है आरामनाकों ) सो बितशि जायहे

कहे शरीरते जुदा ह्ेनाय हैं *

७. 4७ [2० पदक ५-4 [इक रे अति पुनीत ऊंचे कुल कुहिये सभा माह अधिकाई इनते दीक्षा सब कोउ मांगे हँसि आवे मोहि भाई॥३॥ सो ऐसे ऐसे दुष्ट कसाइनको अति पुभात ऊंचे कुलके कहे हैं अरुसभार्मे

उनहींकी अधिकाई है कहे शासत्रार्थ करिके सभामें आपनिन अधिकाई राखे

है। तेहिते सबकेई दीक्षामांगे हैं कि, हमको दीक्षादै संसारते उबारिलेड

सो यह देखिके मोको हँसी आंबे है कि, आपई नरकमें जाइ है तो और

को नरकते कैसे उबारे है अर्थीद्‌ तोहेकों वहीं नरकमें डारिदेई है

पाप कटन को कथा सुनावै कमे करावे नीचा

किया

बूड़त दोउ परस्पर देखा गहे हाथ यम घींचा

बोई गुरुताछोग पापकाटनक्कीं तो कथा सुनावे हैं रामायणादिक वहीं कथामें वर्णन है कि, रघुताथनी शिकार खेले हैं सो गुरुवालोग कहै हैं कि तुमहूंशिकारखेली यहनहीं जाने हें कि रघुनाथनी तिय्यग्योंनि वालेन परदया करी कि, ज्ञानभक्ति बैराग्यकैसे करेंगे यातें मारिके मुक्तिकरिद्‌३ हैं और हम इनको मरेंगें तो पाप ते हमईं दोऊ नरके जायेंगे याहीते दोऊगरू चेलाकों प्रस्परनरकमें बूड़त देख्यो है तिनको नरकमें ढारिबिको यमधींचही धरे हैं नरकमें डार्दिहिंगे तव नरकमें गुहमृत्र खाइगो मारो जाइगो जो जीवनको मारेके मांस खायो है तेईं वाके मांसकोी खार्यगे। अपने सींगन ते खुरनते मरेंगे याते मांस खायो है वे जीवतही मांस खारयगे इहांते जो जीवन को वह मारयो तिनकों क्षणइमात्रकों केश है उहां वे जीव

यँ

ठाब्द (२१५९ )

वाको वारंबार मरेंगे | मरणको केश क्षणमें होइगो यातना शरीर छाख- नवष छुटैगो या कथा गरुड़ पुराणादिक में प्रसिद्ध है

गाय वे तेहि तुरुका कहिये उनते वेका छोटा कहहि कवीर सुनो हो संतो कलिके ब्राह्मण खोटा॥५॥ जे गायको मरे हैं ते मुसलमान कहांवै हैं सो इनते वे का छोटे हैं | तुरुक गायमारै हैं अरु वै भेड़ा मैंसा मरे हैं आत्मातो सब एक हीहै। सो कबी- कहे हैं कि, हेसंतो ! कलिके ब्राह्मण बहुत खोट हैं काहे ते कि, जे शासत्र | नहीं समझें तेतों मूद्ही हैं, वे खोटकर्म करोई चाहें परन्तु ने शाखको समुझे हैं तिनहूँको समुझाइके खोटकर्ममें छगाइ देह हैं अपनी पाण्डित्यके बलते ब्राह्मण जो कह्मो ताको या अर्थ है सबको यही समुझावे है को काको मरे है सर्वत्रती एकई ब्रह्म है कोई या समुझावै है कि बलिदानदे देवीको प्रसन्नकरों तुमको बह्मज्ञान दे बह्मबनाइ देइगी इति ग्यारहवां शब्द समाप्त

अथ बारहवाँ शब्द १९॥ संतों मतेमात जनरंगी

पीवृत प्याला प्रेमसुधारस मतवाले सतसंगी अधेऊध्बले भागे रोपी ब्रह्म अगिनि उदगारी मूँदे मदन कर्म काटे कसमल संतत चवे अगारी २॥ गोरख दत्त वरिष्ठ व्यासकवि नारद शुक मुनि जोरी समा वैठि शंत्र सनकादिक तह फिरि अथर कटोरी ३॥ अंबरीषओं याग जनक जड़ शैष सहस सुख पाना। कदलों गनों अनंत कीटि ले अमहल महल दिवाना॥ ४॥

3, <। ब्ज्य)

(२२० ) बीजक कभीरदासं !

भ्रुव प्रढ्द विभीषण माते माती शिवको नारी।

सगुण ब्रह्म माते वन्दावन अजहुं छूटी खुमारी «५॥ सुर नर मुनि जेते पीर औलिया जिन रे पिया तिनजाना। कहे कवीर गूंगेकी शकर क्यों कर करे बखाना

संतो मंते मात जन रंगी।

पीवत प्याला प्रेम सुधारस मतवाले सतसंगी

संते मतेक़हे संतनके जेमतहैं निनमें रंगेने ननहें तेईमात कहे मातिरहे हैं “रंगच्छतीतिरंगः रंगोस्पास्तिगुरुलेनेतिरंगी”” रकार बीमको जो कोई प्राप्त होइ है सो रंग कहाँवेसो रकार बीज रामोपासकनके होइहै।ते रामोपासक जाके गुरुहोंइ सोकह॒वैरंगी अथवा सुराति कमल बेठे जे परम गुरुहँ ते रकार बीनको उच्चार करे हें,सो रकार बीनक्नों जो कोई वहां जाइके सुने सो रंगहि।सोई रंगी संतनके मतमें मांति हे | कीरऊ रकारई बीनको जपत रहें सोबंशावर्छीमें लिख्ये है।श्रीरानारामर्तिह बायाकबीरनीते पूछयो |के आपका कौन सिद्धांतहे तव कबी- रती क्यों रा अक्षर घट रम्यो कबीरा।निन घर मगेरों साधु शरररा सो पीछे लिखिआये हैं अरू सुधाकों माइकथम है सो श्रीरामचन्द्र के भेम- रुपी प्याछामें भरथो जो है सुधारसरूपा भक्ति ताको मे पातकरे हैं तिनके सत्संगी जे हैं तेऊ मतवाले द्वैनायहैं कहेपरम सिद्धांतवाढो जो मत है तेहि तें युक्त द्वेजाईह अथवा रसरूपा भक्तिकों नशा चढ़ोरहै दिनराति अर्थात्‌ रस आनन्दको कह हैं खो आनन्दमें निमग्रहे हैं तामें पमाण “' रसोवेसःरसं- हवायलछब्ध्वानन्दीमवाति इतिश्र॒तेः इहां सुधारस को कह्मो ताकीा हेतु यह है कि ने सुधारतको पीते हैं तेई जनन मरण छोड़िंक्लै अमर होयहैं औरनको जननन मरण नहीं छूटे है अरु वह रसरूपा भक्ति मधि उतात्ति भयों है ताको रूपक करिके समुझवे हैं

अधे ऊध्वे ले भाठी रोपी ब्रह्मअगिनि उदगारी |

मूंदे मन कमे काटे कसमलरू सतत चुवे अगारी २॥

झाव्द | (२२१ )

| समेटिकै कहिआयेहें अब॒इहां रररूुपा भाक्तिकों मदकों रूपककारिके कहें हैं अथ कहे नीचेके छोक ऊरध्वेकहे ऊंचेके लोक पय्येत जो सारासारको. बिचार ( सारकहे चित्‌ अवितरूप साहबकी या जगत्‌ मानिबरों असार कहें नानात्व जगत्‌ मानिबों या जो विचार ) सोई भाठी रोपतमये तेहिते* भयो जो यथार्थज्ञान कि, सब सचिदाननद स्वरूतहै काहेते चिती अधित साह- बकी रुूपहे यहिहेतु ते सोई बह्च अम्रि उदगाराकहे वारत सये महुवा सरमें घरेहे इहंमदन जोमनोन तोनेनोहे शंरीरनर अथीत्‌ वीरय्यते शरीर होहहै सो अंतःकरण में मूृंदे साहबकी अनंक प्रकारकी जो छाठा तिनके जे ज्ञान ध्यान तई महुवादिक द्व्यहैं, दिन्‍्हें नोकर्मनकी बरोबरि मानिबों जो या भ्रम सोई जो कररूप कसमल ताकों काटिडारयों, तब निश्चयात्मक बुद्धेजि पात्र तामें रसहुपाभाक्ति रूपनो अगारी सो निरंतर चुबनढागी

गोरख दत्त वाशेष्ठ ब्यास कवि नारद शुकसुनि जोरी।

सभा वेठि शंभ्र सनकादिक तेह फिरि अथर कटोरी ॥श॥। गोरख दत्तात्रय बशिष्ठ ब्यास कबि कहेशुक्र नारद शुकमुनि कहे शुकाचार्य तेई सब जोरि जोरि इकट्ठाकरि धरतभये सभाके बैंठेया जे हैं शंभ सन- कादिक तहां रसरूपा भाक्ते जो सुधा रस तेहे करिके भरी जो है प्रेम रूपी कटोरी सो तिनके >धर्हें कहे मनकरिके कोई धरिसकेहे अर्थात्‌ मरने आवे बचने अंवै वाके पानकरतमें छकि सब जायईहैं | रसवाच्यमें नहीं अविंहे यहसर्वत्र ग्ंथनमें प्रमिद्धहे ने अंबरीष याज्ञ जनक जड़ शेष सहस घझुख पाना कहँलों गनों अनंत कोटिले अमहल महल देवाना ४॥ अंबरीष औओ याज्ञवतक्य जड़भरत आओ शेषकहे संकर्षण सहसमुख कहे शेषनाग ते पान करतभये सो कहांडों मैं गनों परम परपुरुष श्रीरामचन्द के जे अमहरू महल अनंत कोटि हैं ताहीमें ठीनमये औदिवाना होंतमये कहे मत्तदहोतमये इहाँ अमहढ्महरू जोकह्यों सोऊ जे अयोध्यानीके महलहें अमहलहदें कहे महरू नहीं हैं अथथीत प्राकृत पांचमोतिक नहीं हैं अरु महद्क

(२१२२) बीजक कबीरशदास

जो कह्यो ताते आनन्दरूप वे महक वरत्तम्रान बने हैं अमहझू के ह्यों यांति निर्गुणघर्म आयो महलकद्यों याते सगुणधर्म आयो सगुणनिग्गुण में नहीं होयहे। निर्मुण सगुणम नहीं होयहे उन में दोनों धर्म बने हैं ताते वे निर्गुण संगुणके परे विछक्षण महरूमें हैं। तिनमें जायके दिवाने भये माया ब्रह्ममें जो द्वानरहें सो छाड़े दिये | अमहरूमें दिवाना है गये महछन में साहबकी अनेक प्रकारकी लीडनकों ध्यान केफे हेसरूप म॑ स्थित हेके रसरूपाभक्ति पानरैंके

रहे रपरूपार्भाक्त शांशशतक के तीसरे खंड में रामायणादिकमें हमलिखेन है सा देखिलेहु

ध्रुव प्रहाद विभीषण माते माती शिवकी नारी सगुण ब्रह्म मात वृन्दावन अजहुं छूटि खुमारी॥५«॥

श्र महछाद विभीषण पा्वेती मतिगई सगुण बह्म ने साक्षाव नारायण श्रक्ृष्ण है तेऊ वृन्दाबन में मतिगये | अबू भरखमारी नहीं छटी की भाव यहँह कि, जिनके दरीर छूटे तेते साकेतहीमें जाय दिवानेभये कहे भेम में छके। [नेक शरोर बंनेहँ तिनहूंकी ख़मारी नहीं छुटी कहे अबहू भर श्रीरामचन्दहीकी उपासना करेहेँ तामे प्रमाण ( पुजितोनंदगोप,णे:श्री-

कृष्णेना।पंपू, नेतः भद्रयामहिषीभिश्रपूनितोरघपड़्य ) यह ब्ह्मवैषर््त को प्रमाण है जॉने को प्रमाण सब आधचाय॑ दियो है

सुर नर सुनि जेते पीर आलिया जिनेरे पिया तिन जाना। कहे कबीर गूंगे को शक्कर क्‍यों करि करे बखाना

आ। सुर नर मुनि जेते पीर आहिया हैं तिन भ॑ जे श्रैरामकत्द्र की उपासना कियाह तेई रसभरी भेमकटोरी पियो है ते३ई मत बचनके परेहें। जे साहब- के नामरूप छोटाबाम तिनको जान्यो है। सो जिननान्यों है तिनको वर्णन करिबेकी वह गूंगे को शक्कर है काहेंत वह मन बचनकेपरे है, नब वहीभांति डहोह़ जाय _ तब वाका स्वाद पांवे। काह सों वाकी कोई बखान नहीं करि संकेंहे। सो कवीरज कहेंहें नो कोई कहै यहभर्थ नहीं है वह अमकों पियाहा

जो कबीरनी ब्रह्मडो कह्दिआयेहें वहीको पीपीफे सब मतवार हंगये हैं,सांचपदाये

शब्द (२२३ )

नहींनानयों, तो हम यहकहे हैं कि, मिनको कंबौरंनी आगे वर्णन करिओयेहैं तेईं नहीं जान्यो तो तुमहीं कैसेनान्यों ? जो कहोहम अपने गुरुवनके बताये जान्यो तो गुरुवनको कह्मों बाणीकों क्यो तो तुमही झंठकहौहों जो कहो पारिख करिकेजान्यों तो पारिखकिये तो मन बचनके परे निर्गुण सगुणके परे जे शुद्ध जीवात्मा सदा रघुनाथनीके निकटब्ताते औरशीरामचन्द्र येई आहें बेह शास्त्र प्रमाण मिले हैं तुमपारिखकहिके मनवचनके परेकौन पदार्थ - राख्यों है। लोकहों हमनीवात्माको माने हैं कोई ब्रह्मको मानें तौ आत्मा

बह्म येह नामहे वचनमें आयगयो तुम जो बिचारकरौहो सो मन में आयगयो जो कहो तुमंहीं कैसे श्रीरामचन्द्रको मनबचनके परे कहौहो वोऊता मन बचनमें आय जायहैं; तौ हम पूर्व लिखिआये हैं कि, नारायण राम अवतार लेइह तिनके नामरूप छौछा धामके वर्णन कारिके, वे ने परमप- रपुरुषश्रोरामचन्द्रह तिनकों सपारेकर लक्षितकरें हैं। वे मम बचनके परेहैं जो यहूआगे छिखिआये हैं कि (ऐसी भांति जो मोकरहेँ ध्योवे। छठयें मास दर- शे सो पावे ) सो अपनी इन्द्रियहै आपैदेखेपरे हैं नो कोई उनके प्रसन्नकरिबेको उपायकरे है सो साहिबेके जनाये जनिहै | तामें प्रमाण कबीरनी की साखी सागरकी चोपाई ( जॉनेसो जोमहीं जनाऊं | बांह पकरिछोकै हैआऊं )॥ बीजकोमेंलिखी है साधा ( बहुबंधनतेबांधिया एकबिचाराजीव काबलछेटे आपने जो छुड़ावैपीव ) उनको वर्णन कोई जीवनहीं करिसके है, ते- हिते जो पारिख हम कियो सोई सांचहै नो तुम पारिखकरोही सो झूंठहे तुम अकवीरजीको अर्थनानते नहोंहो श्रममें छगेहों अनामा उनहीं को नामहे अरू वोई हैं तामे म्रमाण ( अनामासोपंसिद्धत्वादरूपो भूतवजनाव इति वायुपुराणे )

इते ते बारहबांशब्द समाए समाप्त | अथ तेरहवांशब्द॥ १३॥ राम तेरी माया दुन्दि मचावै। गाते मति वकी सप्ुझिपरे नहें सुर नर सुनिह्हि नचावै॥ १॥

(२२४ ) वबीजक कबीरदास |

का सेमरके शाखा बढ़ाये फूल अनूपम वानी

केतिक चान्रिक लागि रहेहें चाखत रुवा उड़ानी ॥॥

कहा खजूर वड़ाइ तेरी फल कोई नाहि पांव

ग्रीपम ऋतु जब आय तलानी छाया काम आवबे

अपना चत॒र ओर को सिखतये कामिन कनके सयानी

कहे कवीर सुनो हो संतो ! रामचरण राति मानी ॥|

राम तेरी माया दुंदि मचांवें

गाते मति वाकी समुझि पर नहिं सुर नर शुनिहिं नचावे॥ १॥ श्रीकर्ब री कहे हैं कि, हे जीवों ! राममें जो तिहायी माया जो कृपट सो

दुन्दिमचाते है | केंसीशयाहै कि, जाकी गति मति नहीं समझिपरै, सरनर

माने ने हूँ तिनहूं की नचावे अथीत्‌ उनहेँकी छाग्हिं सो साहब कोन जानिबों रूपफःरण जगवकी आदि मंगलमें कहि आये हैं

का समरक शाखा वढ़य फूल अनूपम वाना कातक चातजक लाग रहह चबादत रुवा उड़ाना

।+ पल . मल

सो हेनीतोी ! तुम इबन्द्रमाया को त्यागा साहबको जानो या संसाररूप सेम- रको वृक्ष तामें नाना बासना नाना देवतनकी उपासनारूप शाखा बढ़ाये कहाँहै नेनिवृक्षमें अनुपम कहे साहब के जाननेवारे विशेषकर ज्ञानवारे नो नहीं कहो ऐसी गुरुवनकी वाणीसोई फूलह ताहीते भयो जो घोखा बह्मको ज्ञान सोई- फछह | तामे केतकी चाजिकरूप जोवलागि रहेंहें इहां चातिके क्यो और पक्षी कह्मो, सो चाजिक पियात्तो रहे है और इनहूंफ़े मुक्तिकी चाह रहैंहै पक्षी रस नहीं पांव है इत मुक्ति नहीं पावे है चाखतमें रुवा डड़े है पक्षीके जीभमें छपटिनाय है, जीमहु | रससूखि नायंहे इहां ज्ञानों जब अन-

है क्या

झआब्द ( २२५ )

भव कियो तब गुरुवाछोंग बताये कि तुमहीं बह्महों,तुम्हारई नीवात्मा मालिकह सबकी राम सवको खाय छेयहै रामको का भजों रामतो मायिकहे जो कुछ उनकी श्रीरामचन्द्र्मे बासनारही सोऊ छूटिगई यही गरुवाहै पक्षी वा रस

नहीं पावे है तबखेद होइ है या वहीं ज्ञानर्में दठता करिके उड़त उडत नरकही में गिरे है नरकम दुःख पाविहे

कहा खजूर वढ़ाई तेरी फल कोई नहिंप वि। आपम ऋतु जव आय तलानी छाया काम आंवि॥३॥

अब धोखा ज्ञानवालेनको खज्रकों दृष्टांतदैंके कहे हैं। खजरकी बड़ाई ले कहा करे फछ तो कोई पावते नहीं है श्रीष्मकऋतु में छायाकाहके काम नहीं आवहे। वाके तरेही रहेहे, आतप तपते रहै है। ऐसे हे गुरुवा छोगो ! तम्हारी बड़ी बड़ाईं कि, मही अह्महों, मोते बड़ों कोई नहीं है,भात्म मालिक है। सो कोई ब्रह्मै भयो ना आत्म मालिक भयो या फल कोई नहीं पाये जो कोई तुम्हारे मत में आंबै है उनको जनन मरणरूप ग्रीष्म तापतहीं छूटे है या तुम्हारो

किक

उपदेश रूप छाया काहके काम नहीं आबे है

हक

अपना चतुर औरको सिखवे कामिनि कनक सयानी। कहे कबीर सुनो हो सन्‍्तों रामचरण रतिमानी

&.. 9 अर

गुरुवाछोग कनक कामिनीके मिलिबेकों आप चतुर हैरहे हैं। कनक सबर्ण कहावे है सो आत्मा को सुवर्ण जाहे स्वस्वरूप सो मायारूपी कामिनीसें छूप- ट्यूहि तेहिते शुद्धनहीं है अथवा कनक जोंहै सुवर्ण स्रो झुद्धहै स्र्णके जहँ भेद कुण्डलादिक भूषण तिनके भेद मिथ्याहें ऐसे और सबको मिथ्या< मानेके एकत्रह्म होकी मानित्रो कामिनीमें सयानी कहे ज्ञान कर्कि विचारें हैं कि, कामिनी माया हईं नहीं है, मिथ्या है। यही सयानी कहे ज्ञान आपऊ सिखे है अररहूको सिखावे है परन्तु नननमरण होतई जायहै माया

नहा छूट हैं सो कबीरजी कहे हैं कि, हेसंतो ! याहीते में ये बखेडनको छोडि-

के परमपरपुरुष जे श्रीरामचद्र हैं तिनके चरणनमें रतिमान्यो है। इहां संतनकों श्ष

( २२६ ) बीजक कबीरदास

साखी देके जो कह्यों ताकोहदेतु यहहे कि, संत समुज्ञगे कि, सांच कहे हैं कि झठ कहें हैं। अथवा हे जीवों ! मेरों सिखावन सुनो-श्रीरामचन्द्रके चरणमें रतिमानिके मेंस, सब भयो है, नानामत कियो हैं, तेसे, एकबार मेरो वचन

किम की | अिका

सनि रामचरणमें रतिमानिके संत होड ब्वंग्य यहंदे कि, जो संतहोडगे तो सतनम्रणते रहित हेनाउगे ओरी भांति छूटोंगे। अथवा अपना चतुर और को सिखवे कहे अउतो चनुर नहीं है मायाही में परे हैं और और को क्तक कामिनीमें सयथानी कहे विचारकरावै है कि, कनक कामिनीरूप मायाकों

के... रे

बिच सके देख्यो या मिथ्या है। सो नो आप चतुर नहीं भंये कनककामिनी नहीं त्यांगे तो उनके उपदेशते कनक्कामिनी माया कब त्यागेंगे

इति तेरहवां शब्द समाप्त

अथ चोदहवांशब्द १४॥

रामरा संशय गांठि छूटे। तते पकरि पकरि यमलूटे॥ १॥ हैँ मसकीन कुलीन कहावो तुम योगी संन्यासी

[नी गुणी शूर कवि दाता मति काहु नासी २॥ स्प्रति वेद पुराण पढे सव अनुभवभाव दरशे लोह हिरण्य होय थो केसे जो नाहि पारस परशे जियत तरे सुये का तरिहो जियते जो तरे। गहि परतीति कीन जिन जासों सोई तहें मरे जो कछु कियो ज्ञान अज्ञाना सोई समुझु सयाना। कहे कबीर तासों का कहिये देखत दृष्टि शुलाना

राम रा संशय गांठि छूटे। ताते पकरि पकरि यमलूटे

झाब्द ( २२७ )

हे मसकीन कुलीन कहावों तुम योगी संनन्‍्यासी ज्ञानी गुणी शर कवि दाता मति काहु नासी॥२॥

रामराकहे रकार जिनको मराहै अथीत्‌ रकार बीमको जिन को अभावष॑है, रामोपासक नहीं हैँ, तिनकी संशयकी गांठिनहींछूटे है, तेहितिपकरिपकरिके यम टेलइहैं अर्थात्‌ याकामारिके नरकमें डारिदेईं हैं फिरिफिरि शरीर पावे है फिरिलूटि जायहे मारो जायहै॥ १॥ मसकीन कहे गरीब फकीर हेके कुछीन कहावे है कहें भये तो फकीर परन्तु कुछाभिमान नहीं छूटे है कहे हैं कि, हम- फलाने मद्दीके मुरीदहैं सो तुम योगी हो संनयासी हो ज्ञानी हौ गुणी हो शर हो कबिहो दाताही इत्यादिक जो भेंदकी मति हैं सो कोई नाशकियो काहेते कि, हे संतों ! ये पश्मपरपुरुष श्वारामचन्द्रके अंश हैं सो यह कोई नहीं जान है यह जगव्‌ चित्‌ अचिद्‌ बिग्रहकरिके साहबको रूपहै भेदकी बुद्धि लगाइ राख्यों है * आर ठे ञज्‌ु स्व्ाते वेद पुराण पढे सब अल॒भव भाव द्ररी। हर कर विधि #०२+ लोह दहिरिण्य होय थो केसे जो नहिं पारस परशे ३॥ स्मृति वेद पुराण संबे पढ़े हैं परंतु परमपरपुरुष नेश्रीरामचन्दहैं सबके तातपये तिनकोी अनुभव काहूको नहीं दरशै है जो पारसको स्पर्श होय तो छोह हिरण्य कहे सोन कैसेहोंय होय तेसे स्मृति वेदप्राणनकोीं तात्पर्य श्रीराम- चन्द्रहँ तिनके चरणकों जोडों परशे तौहों मुक्ति नहीं होयहै पा५षद रुपता : वाको प्राप्ति नहीं होयहे 4 का है भा या कह. 6 जियत तरें मुयेका तरिहों जियते जो तरे # है 6... ७७ >> रे अं गहि परतीति कीन जिनजासों सेई तहें मरे॥ 8 जाकद्डाकयां ज्ञन अज्ञाना सोई सछाझ सयाना कहे कवीर तासों का कहिये देखत राशि धुलाना «५ सो जियतमें जो तुम तरोगे तो मुययेकेसे तरोंगे। सो है जीवों जियते

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का्ईनहीं तरिनाउही नासों कहे जौने स्ाहबसों जाके स्परशीकिये जीव शुद्ध

( २२८ ) बीजक कबीरदास है जायहे तीने साहबसों जो को$ ( जहें साहबको मत गहिके ) परतीति कहे बिश्वासकीनहै सो जानतहै कहे संसारहीमें अमर है गयो है सो कबी- री कहें हैं कि, ये नीव ज्ञान करें हैं कि अज्ञान करे हैं ताहीकी सब कुछ मानिके आपने को सयान मौनेहै तिनंसों कहा कहिये जो अपनी दृष्टिते देखत देखत भुलायदियों स्मतिवेद पुराण चक्रवर्ती परमपुरुष श्रीरामवन्द्हीकों कहें हैं, उनहींके भक्त हनुमान बिभीषणादिक अमर भयेहें, सो देखतेंहें यह नहीं समुझहैं कि, सबके मालिक बादशाह श्रीरामचद हैं, इनहींके छोडाये छूटेंगे औरके छोडाये छूटेंगे « इति चोदहवां शब्द समाप्त

अथ पन्द्रहवां शब्द १०॥

रामरा चली बिनावन माहो घर छोड़ेजात जोलाहो। ।१॥ गज नो गज दश गज उनइसकी पुरिया एक तनाई। सात सत नो गाड़ बहत्तारे पाट लागर अधिकाई २॥ तापट तूल गजन अमाई पेसन सेर अढ़ाईं। तामें चटे बढ़े रातिओं नहि कर कच कर घरहाई नित उठि वेठ खसम सों वरवस तापर लाग तिहाई। भीनी पुरिया काम आवे जोलहा चला रिसाई॥ कहे कवीर सुनोहों संतो जिन्ह यह सृष्टि उपाई। छाड़े पसार रामभजु बोरे भवसागर कठिनाई «५

रामरा चली बिनावन माहो। घर छोड़ जात जोलाहो॥ १॥

रामरा कहे रा नितको मराहै अर्थात्‌ रकार बीजकों निनके अभावहै साह- बको नहीं नानें ऐसेजे समष्टिजीव तिनके इहा माजो है कारणरूपा माया सोबिनावनकी कहे बिनवावनकों चछी अथीत्‌ जगतव्‌ बनवाइबेका चली इहां

शाब्द २२९ )

बिनबो क्यों बिनवाइबों कह्यों सोबिता चेतन्य ब्रह्म ओजीवके छपेटे याको बनायो नहीं बने है काहेते कि, यह नड़हे अथीत ब्रह्म नीवको संयोग करिके बनवानकीो चली ब्रह्मनीवके पाससों जोछाहा नो यह जीवहे सो चरकों छो« ड्रेदेयहै अर्थीत्‌ यहञ्ुद्ध जीवात्मा आपनो जो घरहै साहबके छोकको प्रकाश जहांगुद रहै हे तोने घरको छांड़िकै, माया के लपेटमें परिके, आपने बंधनकों आपने मन करिके संसाररूपी पटको बनविहे

गज नो गज दश गज उनइसकी पुरिया एक तनाई

सात सृत नो गाड़ वहत्तर पाठ लाग्रु अधिकाई

प्रथम एकजकी कट्पनारूप पुरिया तनावत भई प्रथम जीव बाणी प्रणव- रूप एक गनकी पुरिया अनुमान ब्रह्म बनायो अथोत्‌ मन भयों। पुनि नो गनकी पुरिया तनावत भई सो नवों व्याकरण बनावत भई। अथोव नवी व्याकरणमें शब्द ब्रह्मकी वर्णन सो शब्द बनावत भई पुनि दश गन की पुरिया तनावत भई, सो चारवेद छः शाख दरशगजकी प्रिया तनावत- भेयी सो अठारहों पुराण उनीसों महाभारत ये उनइस्गजकी परिया बनावत भयोीं पुनि सात सूत कहे सप्तावरण * पृथ्वी * अपू तेज बायु आकाश अहंकार महत्तत्त अथवा सात सृत जाग्रत्‌ महानाग्रत्‌ ३े बीजनाग्रत्‌ स्वप्रजाग्रव्‌ स्वप्न सुषुप्ति औ७ महासुषुप्ति ये सात अज्ञान भूमिका बनावतभयों पुनि नवगाड़ कहे नवद्धार बनावत भयो बहत्तर पअकहे बहत्तर कोठा अथवा बहत्तर हजारनस बनावत भयों २॥

ता पट तूल गजन अमाईं पसन सर अठाई

तामें घंटे बढ़े रतियो नाहिं कर कच कर घरहाई॥ तापग कहे तीन जो है शरीर संसाररूपी पढ तामें जब अहंब्रह्म भ्रमरूप तूल- रहो तबता गजमें नहीं अमातरह्यो कहे अपमेय रहो है सेरकहे सिंहरूप रह्योहे संसारकों नाशंके देनवारों रह्महै | सो संसारी हैके जैसे सतपैसा को अढ्ाई्सिर बिकाय है तैसे यह जीवात्मा बिप्रयरूप पेसाको चाहिके अढ़ाई सेरहेगयों। एके प्रथ्वीकी विषय सुख चाहेंहें एके यज्ञादिक करिकेस्वगै-

( २३० ) बीजक कबीरदास

को विषय सुख चाहै हैं, आधेमुमुक्षू दैके ईश्वरन के छोककों सुख चाहै हैं, ब्रह्ममें लीनहैंवों चाहे हैं, इनमें प्रीविषय भोगनहीं है, याते आधाकह्यों अहंत्रह्म तलते नाना शरीर श्रमरूप सत निकस्पों एकते बहुत हेगयो जोपट संसारमें विनिंगयो सो पट जो है संसार सो रत्तीमर घटेहे वह़ेंहे घरहाई जोहै जीवैकीनारीमायासों यही नींवकी कच आपने करमें करिलियोहे अथीत्‌ यहजीवकी चँदीगहि लियोहै मायाको भोक्तानीवहै यातेजीवहीकी ख्री माया है

नित उठि वेठ खसमसों वरवस तापर लागु तिहाई।

भीनी पुरिया काम आवे जोलहा चला रिसाई ॥४॥

खसम जो जीवहै तासो नित उठिडठिके वरबस कहे जबरदस्ती बेठ कहें बेगारे छेयहै सोरकतों संसारमें माया वेगारिडेयहै दूसरो जोमागनते यह संसारउठों तो आत्मा को तिहाईछगी कहे त्रिकुटीमें धोखा ब्रह्मको ध्यान छगा- यो जोनेमें विनिनायहै तौन पुरिया कहवेंहे सों जब भीजिजनायहै तब नहीं काम आवेहे ऐसे यह संसार पुरिया है नाना पदार्थ ते जो है राग तेहिकारेके जब शरिर भीज्यो तब यह संसारकी असार जानिके कहे संसार कुछ कामको नानिके जोछाहा जोहे जीव सो रिसाय चल्यों, धोखाबह्ममेँ रूगतभयों;

सोऊ तह्नतो ताहीकी अनुभव है वहअनुभव बह्ममें कछु पावतभयों

वा मी पे के 8 का. 42 .. रे

कहे कबीर सुनो हो संतों जिन यह साहि उपाई

अप कैम छाड पसार राम भज्ञ वार भवसागर काठनाई | ५०॥४ सो कबीरजी कहै हैं कि, जामें तुम छूग्यों है सोतो तिहारोई मन को अनु- भवहे अरु यह संप्तारऊकों तम्हारों मनही रच्यों है. सो जिन सृष्टिवाढी उपाय कियोहै तेहि माया बह्मंत छोड़ि पसार परम परपुरुष श्रारामचन्द्र को भजन करु, काहेते कि, यह भवसानर परमकठिनहै उनहींके भजन किये छडटैगों,

औरीमांति छूटेगो, और तो सव याही मे परहें अथवा यहकाठिन भव्‌« सागरंमें आयके श्रीरामचलख्दही को भजन कारे मनते छूटैगो

शत पद्धहवा शब्द समात।

झब्द ( २३१

अथ सोलहवाँ शब्द १६ रामरा झीझी जंतर वाजे कर चरण विहूना राजे १॥ कर बिन वाजे श्रवण सुने विन श्रवण श्रोता सोई पाटन स्ववश सभाविनु अवसर वूझो माने जन लोई॥२॥ इन्द्रिय विनु भोग स्वाद जिह्या विनु अक्षय पिण्ड बिहना। जागत चोर मँदिर तहँ मूसे खसम अछत घर सूना बीज विन अंकुर पेड़ विन तरुवर विनु फूले फल फलिया।

| इक

वांझ की कोखि पुत्र अवत्रिया बिन पग तरुव॒र चढ़िया३॥ मसि विज॒ द्वाइत कलम विन कागज विनु अक्षर सुचि होई! सुचि विनु सहज ज्ञान विन ज्ञाता कहे कबीर जन सोई ॥५॥। पूर्व मायाको ब्णनकरिआये तोनी मायाते छूटिके जोने उपाय ते साहब को पावै है सो उपाय कहे हें रामरा झीझी जंतर वाजे कर चरण विहूना राजे है जीव! राम कहे रकार तोको मराहे अर्थात्‌ रकार बीन को तोकी अभाव है याहीते तें अपने को ब्रह्म मानिके संसारी है गयोहे झीशझीकहाँवे सिंसिया जे कुवार शुकचतुर्दशीको अनेक छिद्रके जो मटुकी होयहै ताके मध्यमें दीप बारिके धरेंदे सो झिसियानांव ठेठियाकों कबि संप्रदायहमेंहै ( रंध जाल मग है कड़े तिय तन दीपति पुंज | झिशियाके सो घट भयो दिनंहमें बनकुंन ) (सारीमृठामछसी फलछकांति झरोखन की झझझरी झिश्लियास्री ) सोपझिशिया रूप« नव दुवारकों अथवा रोम रोम में छिद्र है जामें वाई छिदन है पसीना निक- सेहे यहिपकारकों झीँशी नोंहे शरीर तेनेजन्तरबानै है कहे ताहीको यह सोहं शब्दहे काहेते कि, रवासा कहेहँँ सोवहीशवासके कहेते करचरण बिहन नो निराकार ब्रह्मह सो तेरे आंगेराने कहे शोभितं होन छग्यों | अथवा आंखिन के

को 8 का

आगे नाचन ढग्यो, सववेत्र ब्रह्महीं देखि परनरूग्यों अथवा तेंहीं करचरण

(२३२ ) बीजक कभीरदास

८र* शा

हन कहे निराकार बह्म द्ेके नाचन लग्यों अथवा राजे कहे शोभित भयों

| तुम तो शरीरते भिन्नहों जैसे ठेटिया ते दीप भिन्न रहै हैं वह सोहं शब्द शरी

हि ट् 2)

तो शरीरको है वाफी कहे तुम काहे धोखा में परेहों | तुम निगुण सगुणके जो है साहब ताके हे! तिनमें छगो निर्गुण सगुणके परे केसे साहबरहें

किक

सो कहे हैं १॥ कर बिनु वाजे श्रवण सुने बिन ञञर बे ओतासोइ पाटन स्ववश सभा विनु अवसर बूझो मुनिजन लोई॥२॥

हब के लोकके जेबानाहैं ते बिन कर बाजें हैं काहेते कि वहां के ने बाजा हैं ते पांचभोतिक नहीं हैं, उहांके जे बासी हैं तिनके शरीर पांचभौ- तिक नहींह अथांत्‌ मनवचन के परेही प्राकृतजे हैं प्रकृति संबंधी पदाथे साकार अप्ाकृत जो हैं निराकार ब्रह्म छोक प्रकाश ताहते बिलक्षण है। कर बिना कट्मों याते साकारों नहीं है सो बाने है याते निराकारों नहीं ह। सोई श्रोता जे हैं लोकवासी ते श्रवनते सने हैं श्रवण नहीं हैं याते साकारों नहीं है श्रवणते सुने है याते निराकारों नहीं है मायात्रह्म जीव को जो अरुझा छाग्योंहे सो जीव साहबको स्मरण करे ताके पाठन कहे पटाइ- छीवे को साहब स्ववञशहें अथप्ा नौकर जाको राखेहें ताको पट्टा लिखि देइहैं सो पाटा कहवे है सो इ्वां पाटन बहु बचन है सो जीव उनके शरण जायहें तिनको पायन के लिलि दीबे में अपनायडीबे में स्ववश हैं तामें प्रमाण॥ ( सकृदेवप्रपन्नायतवास्मीतिचयाचते अभयंसर्वभूतेम्योद्दाम्येतद्वतम्मम ) बिना अवसर कहें बिना काछ उनकी सभा छागी रहेंहे वहां काहकी गते नहीं है बानन सदाबानैहें अर्थात्‌ सदा रास उहां होता रहैंहै सो हे

मंनन शील मुनिदोगो! तुम उनहीं को समझो उनहींको मनन करो वहथो- सा ब्रह्म के मनन कीन्हेंते तुम्हारो जननन मरण छूटेगो

इन्द्रि विनु भोग स्वाद जिह्ा विनु अक्षय पिण्ड बिहना जागत चोर मंदोर तहँ मसे खसम अछत घरसना

»

राब्द। ( २२३३ )

तुम वह साहब को कैसे समुझेों इंद्िय बिना हैके साहब के लोक को जोहै भोग सुख हैं ताको लेऊ बिना निष्ठा हैके अनिर्बंचनीय जो राम नामहें ताको स्वादछेऊ पिंड बिंहनाकह पांचों शरीरते बिहोन हैंके कहे पांचों शरीरनको छोड़िकेहंसस्परूपभ स्थित हेके अक्षय कहे अक्षय ह्वै जाऊ। तुम्हारे

[लि

अंतःकरण रुपीषरको चोरनोंहै धोखा ब्रह्म सो मूसि छेय है अर्थात्‌ साहब को ज्ञान चोराये लेयह तुमहीं अहं ब्रह्म बुद्धि कराये देयहें। काहे ते कि खसम जे हैं साहब ते अछत बने हैं तुम अपनों हृदय घरसून करे राख्यो है साहब को नहीं राख्यों अथोद्‌ साहब को नहीं जान्‍्यो बीज विनु अंकुर पेड़ बिनु तरुवर बिन फूले फल फलिया। + >> मलिक पे आप | 4 4. [का बाझको को खे पुत्र अवतारेया बिन पग तरुवर चांढिया॥४+४ इहां याकु अर्थ हैं बीन बिना कहूँ अंकुर होय हैं ? पेड़ाबेना कहे बिना जर कहूँ तरुवरहे।य हैं ! बिना फूछकहफछ होय हैं ! अरु बांझके कोख़िमें कहूंपुत्रहो३हे ! ओबिनापगकोईतरूवरमें चंढ़हे ? सो बीन तो वह बह्मकों कहीं - ही सोतो शन्य है, कोईपदार्थनहीं है अंकुर कैसे भयो कहे कैसमाया सबलित ब्रह्म भयो पेड़ जह मायाकों कहों सो तो मिथ्या है संसार तरुवर केसे भयो औज्ञानरूप जो फूछ है ताहको तो मूलाज्ञान कहीं हो, सोऊ मिथ्या है, कहों तो मुक्तिरुपी फल केसे फरयों मनको तो जड़ कही हो, ताके अनुभव प्रवोधरूपी पुत्र केसे भयों | आत्मा को तौ अकर्त्ती. कहीं हो मन बुद्धि चित्तते भिन्न है सो बिना पांव संसार वृक्षको चाढ़िके कैंस चैतन्याकाशकों पहुच्यों

मसि वितु द्वाइव कलम विज कागद्‌ विनु अक्षर रुचि होई सुधि विनु सहज ज्ञान विन ज्ञाता कहें कवीर जन सोई॥५॥

बिना दुआइति मसि केसे रहैगी अर्थोव्‌ मनको ते। मिथ्या कहा हो मनको

भ्‌ + ०0 पी किक कक श्‌ दे की [०

अनुभव कैसे रहैगो। वह मिथ्याई होयगो। बिना कागन कलम कहा करैगी

अथाव्‌ देहोन्यादि अंतः करण ते मिथ्ये कहौ हो ज्ञान केहिके आधारहोयगो अरे अरे... आह, कक

जहां बुद्धिर्पी कलमते लिखौंगे निशम्वय करोंगे जो यहपाठ होय ““बिनअ-

4

( २३२४ ) बीजक कबीर दास

क्षर सुधिहोय”” तो यह अर्थ है कि, जो एक आंत्माही को सत्य मानोगे तो साहब को बिना अक्षर कहें बिना अनादि माने सुधि कहे सुरतिं तुम को कैसे हायगीा कौनसुरति देयगो सुधिबिन कहे जो सुधि भई ते सहज कहें सो हंसो कैसे होयगो तेहिते बिनाज्ञाता को ज्ञानकरु कहे अबैते अपने को ज्ञाता मानि रहे हैं कि, में अपनो विचारकरत करत सबको निषेध करत करत जो पदार्थ रहि जाय है ताहीको मारनिलेडंगो कि, यहीतत्व है सो यह श्रमछांड़ो, तेरेनानेते साहब जानिपरेंगें साहब मनबचन पेरे हैं सो जोन विना ज्ञाताकों ज्ञान है जो साहब देय हैं काहेते कि, वह ज्ञान काहकों नहीं जाने। है जब साहब आपनो रुूपदेय हैं, तब वह रूपते जानि परे, साहब होके रूपकों जानोपरे है वाकों ज्ञाता कोई नहीं है सो ज्ञानकरु अथीव रकार ध्वनि श्रवण रूप साधनकरू तब साहबई तोको हसस्वरूपः देके आपने नामरूप छीलाधामको स्फुरित करायदेयग तोने हंसस्वरूप की आँखीते श्रवण ते साहब को देख साहबके गुणसुनु सो कबीरजी कहै हैं कि, यहि तरह ते जाके विता ज्ञाताको ज्ञान है सोई मेरोजन है अथीव जोनेलोक में हमारी स्थिति है ताीनहीं छोकको वहन है बिनाज्ञाताकोज्ञान कौन कहांवै हैं जो साहब देय हैं तामेंगरमाण “तिषांसततयुक्तानां भजतां मीतिपूबकम्‌ ददामि बुद्धियोंग त॑ं येनमामुपयांतित ”” इतिगीतायाम्‌

इति सेलहवां झ्ब्द समाप्त |

अथ सत्रहवां शब्द १७

राम गाइ ओरन सम्नझावे हारे जाने बिन विकल फिरे १॥ जा सुख वेद गायत्री उचरे ता सु वचन संसार तरे।

जाक पाँव जगत उठि लागे:सो ब्राह्मण जिउ वद्ध करे २॥ अपना ऊँच नीच घर भोजन त्रीण कमे कारि उदर भरे अहण अमावस ढुकि ढुकि मेंगि कर दीपकलिये कृपपरे॥ ३॥

टठावद | ( २३५ )

एकादशी बतो नहिं जाने भूत प्रेत हठि हृदय घरे।

तजि कपूर गांठी विष बांधे ज्ञान गमाये सुग्रध फिरे छीजे शाह चोर प्रतिपाले संत जननकी कूटकरे कहे कवीर जिह्नाके लंपट यहि विधि प्राणी नरक परे

राम गाइ औरन समुझावे हरि जाने विन विक रू फिरे॥३॥ जा मुख वेद गायत्री उचरे तासु वचन संसार तरे।

जाके पाँव जगत डडि लागे सो ब्राह्मण जिउ वद्ध करे॥२॥

श्रीरामचन्द्रकों गावै हैं औरनको संमुंझावे हैं सबके कछेश हरन- वरे जे साहब हैं तिनको नहीं जाने कि, येई छेश हारे हैं हरि येई हैं| सो या नाना देवता ताता उपासना खोनत बिकछ फिरे हैं॥ १॥अरु जाके मुखते वेंद गायत्री जो वचनहें सो उचरे हैं वहीको तालयाथ ने श्रीराम बन्द तिन्हें मानि- सेसार तरेंहै. ताकी अर्थ जानते कि वेद्गायत्री तालयोथे ते श्रीरामचन्द- होको कहे हैं तामे प्रमाण “सर्वेवेदाः सघोषाश्च सर्वेवर्गी: स्व॒तर अवि समात्रास्तुविष्तर्गाश्वसानुस्वारा! पद्मानेच गुणसांदिमहाविष्णो महातातस्ये- गौरवाद” इतिमहाभारते जेबल्मादिकमें विष्णु हैं विष्णुहैं महा विष्णु श्रीरामचन्द्रही कहावै हैं तिनकी तो नहीं जाने हैं वेद गायत्री पड़े हैं वही मुखते हिंसा शिष्यतते प्रतिपादन करे हैं समुझवै हैं। आपह हिसा करे हैं ! दिनहीं के पांय सब जगत्‌ डठिलांगै हैं अरु वाहीकों कहा सब सुने हैं

अपना ऊंचनीचघर भोजन घीण कर्म कारे उदर भरे।

| हर 5३5२ हल कप अहण अमावस डुकिडुकिमाँगें करदीपक लियेकूपपरे॥३॥ आपतो जातिमें ऊचे हैं परंतु नीचके घर भोजन करे है जौन कर्म अपने को डचितनहीं है तौन घिनहा कम कैंकै पेट भरे है। ग्रहणमें अमा- वसमें ठुकिदुकिमोंगे है कि, यहकुदान आन छैजाय, हमें रे

35 औओ राम- नाममुंहते कहै हैं सो नाम रूपी दीपक छीन्‍्हें श्रम कूपमें

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(६ २३६ ) वबीजक कबवीरदास

एकादशीत्रतों नहिं जान भ्रृत प्रेत हाठे हूदय घेरे

तजि कपूर गाँठी विष बांवै ज्ञान गमाये मगघ फिरे॥४॥

एकादशीबत उपकछक्षग है अथोतव साढ़े अद्वाईस जे ब्त हैं चोबीस एकादशी रामनवमी, कृष्णाष्टरमी, बामनदादशी, नरसिंहचतुरदेशी और आधाअनन्त येजने वैष्णबीब्रतहैं तिनकों नहीं भानि हैं अथोत वेष्णवी उपासना नहींकरें मुंहते रामरामकहै हैं। भूत भेत यक्षिणी आदि जे उपासनाहैं तिनको करे हैं तामें प्रभाण॥ “अंतः शैवाबहि इशाक्ता; सभामध्येच 'बैणवाः नानारुपपधराः कीछा विचरन्तिमहीतले”” सो रामनाम नो कपूर

है ताको छोड़िके नाना पाखंड मत जो विषयहें ताकी धारण कीन्हे ज्ञान गमा- यके मर्खचारों ओर फिरे हैं

छीजे शाह चोर प्रतिपाले सन्त जननकी कूटकरे

| 40 4 4

कहे कबीर जिह्वाके लंपट यहि विधि प्राणी नरकपरं॥०% तेहिते शाहु नो आत्मा परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्रको अंश सदाकों दास या जीवको स्वरुपहें से जेहें ते छनिहें अथीत्‌ वह ज्ञान वाको भूलिजायहै ! गुरुवनके बताये जेनाना पाखंडमत तेई चोरहें तिनके प्रतिपाल कियो कहेंसेग कियो तेईज्ञानको चोरायलेयहैं जे साहबके ज्ञानके बतैया जे संतहें तिन- कूठ करे हैं कि, ये मुड़ियनकी मत वेंदशाखके बहिरे हैं सो कबीरजी

है हैं ऐसे निहवके रूपट प्राणी हैं ते नरकहीमें परे हैं

इति सत्रहवां शब्द समाप्त

अथ अठारहवां शब्द १८॥ राम गुण न्यारो न्‍्यारो न्यारो। अबुझा लोग कहांलों बूझ बूझनहार विचारों १॥ केते रामचन्द्र तपस्तीसों जिन यह जग विट्माया केते कान्ह भय मुरलीचर तिनभी अंत पाया

झाब्द। ( २३३ )

पत्स्य कच्छ वाराह स्वरूपी वामन नाम चराया। केते बोद्ध भये निकरँकी तिनभी अंत पाया ह३ केतक सिद्ध साथक संन्यासी जिन बनवास बसाया केते मुनि जन गोरख कहिये तिनभी अंत पाया॥ जाकी गति ब्रह्ने नहिं पाई शिवसनकादिक हारे ताके गण नर केसेंपैहों कहे कबीर पुकारे «

विज किन राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो। अबुझा लोग कहांलों बूझें वृझ्डनहार बिचारो ॥१॥ प्रमपुरुष पर जे श्रीरामचन्द्र हैं तिनके गुण न्यारे न्यारे हैं इहां तीन बार जे क्यों ताते या आयो कि साहबके गुण, मायाके गुणते नीवात्माके गुणते अह्नके गुण न्यारे हैं | कौती रीतिसे न्‍्यारे हैंकि, मायाके गुण नाशवान हैं बिचार किये मिथ्या हैं औसाहबके गुण नित्यहैं साचहैं, जीवात्माके गुण अणु हैं साहब गुण विमुहेँ बह्मनिगुणलगुणबह्ममें है साहब निर्गुण सगुणके परे है सो या प्रमाणपीछे लिखिआये हैं अपाणि- पादोनवनों गृहीता” इत्यादि औजह्मसंबंधी अनुभवानंद्नीवकोीं होइ है साहब अनुभवातीत है याते साहबक गुण सबते न्‍्यारे हैं सो वा बात अबुझा छोग कहांलों बूझें, कोई बूझनहार तो बिचारते जाउ केते रामचन्द्र तपसी सा जिन यह जग विटमाया। कृत कानह भये सुरलीचर तिनभी अंत पाया॥ २॥ केतन्यों रामचन्द्र हैं कौन रामचन्द्र तपस्वी ब्रह्म हैं तिनसों जगव बिट- माया कहे बनायोंहै अर्थात्‌ जे नारायण रामावतार लेइहें सो बह्माते केसे जग बनवायो | सो कथा पुराणन में प्रापिद्धहै [कि, कमछमें ब्रह्मा भये, तब काशबाणी भई, तप तप तब तपस्या कियो, तब नारायण प्रकटभये,

(२१३८ ) बीजक कबीरदास

ते बह्माते कह्मो कि,लगव्‌ बनावो,तब बनावतभये।नारायण जे रामावतार छेइ हैं तामें प्रमाण यदास्वपाषदौजातोराक्षणप्रवरौपिये तदानारायणः साक्षादा- मरूपेणनायते प्रतापीराघवसखा श्रात्रावे सहरावणः राषवेणतदासाक्षात्साके तादवतीयते ”” नारायण अंत पायो ते नारायण रामचन्द्र क्षीरशायी बवेत द्वीप निवासी बहुतहें मिनकेगुण को अंतकोई नहीं पावेदं अरु बिनके गुण सबके गुणते न्यारे हैं ते श्रीरामचन्द्र एकई हैं। ओऔ केतेकान्ह मुरलठीधर भये तिन भी अंत नहीं पायो काहेते कि उनके अनंत गुणहँ

मत्स्य कच्छ बाराह स्वृरूपी वामन नाम चराया।

बस. सा म्

केते बोद्ध भये निकलड़ी तिनभी अंत पाया

कप कप सेद्ध + कक.

केतिक सिद्ध साधक संन्‍्यासी जिन वन वास वसाया

केते घ्निजन गोरख काहिये तिनभी अंत पाया 8॥ केतन्यो मत्स्य कच्छ बाराह बामन बोद्ध कलछकीरूप भये तिनभी अंतनहीं पायों सोईं अवतार जो काहिआये तिनमें बामन नरसिंह आदिक अब- तार आइगये तेऊ अंतनहीं पायो है॥ ३॥ओ केतन्यो सिद्ध साधक संन्यासी भये ने बनमें बासकरतभये केतन्यों मुनि गोरख इंदिन के रखवार भये तेझऊ- ताको अंत नहीं पायों जाकीगति ब्रह्ननहिं पाई शिव सनकादिक होरे।

ताके गुण नरकेसे पेहो कहे कवीर पुकारे «

जाकी गति ब्रह्मा शिव सनकादिक नहीं पायो काहेते कि, तिनके अनंत गुय हैं सो हे नर! तुमकैसे पावोगे! ने गुरुवनके कहे कहोही कि महीं राम हों सो मिथ्या है बे रामके गुण तुम्हारे गुरुवा पायो है तुम पावोंगे ब्यंग यहहे कि, ते वे पाखंडी गुरुवनकों संगछाँड़ेंके रामोपासकनकों संगकरो तब जैसी भजन क्रिया वे करेहें सो करिके निगुण सगुणकेपरे साहबके छोकजाड, तब तिहारो जनन मरण छूटैगो ये गुरुवालोग जौनेमें सिद्धांतकरि राख हैं ते सब यादहीकैतहै निर्गुण सगुणमें है परमपुरुष पर साहबको छोक सबके परहे तामें ममाण कवीरजीको रेखता झूलनाछंद पिंगढमेंकहै हैं “' चढा

ऋाब्द। ( २३२९, )

जबलोककी शोकसब त्यागिया हंसको रूपसतगुरु बनाईं। भंगज्योंकीटको पठटिमृड्रैकिया आपसमरड्रदे लेउड़ाई छोड़ि नासतमलकूतकों पहुंचिया विष्णुकी ठाकुरीदीखजाई इंदकुब्बेरजह रंभकों तृत्यहै देवतेंतीस कोटिक र- हाई॥ १॥छोड़िवैकुंठकी हेसआगे चला शून्यमें ज्योतिनगमग जगाईं। ज्योति परका- शमें निरखि निस्तत््वकी आपनिरभेयहुआ भयमिटाई | अछूखनिर्गुण जेहिविद स्तुति करें तीनहूँ देवकोहे पिताई।भगवान तिनकेपरें रवेत मूरतिर्धरे भागकी आन तिनकोरहाई चारमुक्कामपरखंडसोरहकहैं अंडको छोर ह्यांतिरहाई।अंडके- पुरे स्थान आचिंत को निरखिया हेसनब उहांनाई सहस औदादरी रूहहें सड़में करतकछ्ठोंड अनहद बनाई तासुके बदनकी कौनमहिमाकहों भासती देह अति नृरछाई महछ कंचनबने माणिकतामेंनड़े बैठतहँ कलशआखेंड छाने आवितर्रेपरे स्थान सोंहंगका हँस छत्तीसतहँवां बिराने | नूरकामहरू नूरकाभुम्य है तहांआनंद सो दन्द्रभाने करतकछ्ोल बहुभांतिसे संगयक हंसलोहगके जो समान हेसनब जात पदचक्रकोबोधिके सातमुका- ममें ननरफेरा सोहंगके परे सुरति इच्छाकही सहसबामत जहँहसहेरा रूपकी राशितेरुप उनको बना नहीं डपमा इंन्दुजीनिदेरा सुरातिसे भेटिके शब्दकी टेकिचढ़ि देखि मुक्ामअंकूरकेरा शृन्यकेबीचमें बिमठ बैठक जहाँ सहज स्थान है गेब केरा। नवो मुक|मयहहंसनब पहुँचिया पछकबिलंबह्दं कियोडेरा तहँसे डोरिमकतारज्यों छागिया ताहिचढढ़िहँसगों दें दरेरा भयेआननदसे फंदसब छोड़िया पहुंचिया जहाँ सतछोकमेरा हसिनीहंस सब- गायबजायके सानिके करूुश विलेन आये युगनयुगबीछुरोमेलेतुम आइकै प्रेमकरि अंगसों अगरूगाये पुरुषनेदर्शनबदौन्हियाहंसकोी तपनिबहु जन- मकी तबनशाये पलटिकैरप जबवएकसेकीन्हियामनहुं तबभानु षोडशउगाये पुहुपकेदीप पीयूष भोजन करे शब्दकी देहनबहंसपाई पुहुपके से- हरा हंसओऔहंसिनीसचिदानन्द शिरछत्नछाई दिपेंबहुदामिनी दमकबहुभांति की जहाँ पनशब्दकों घुमड़छाई लगेनहँवरपने गरनघनघरिके उठततहूँ शब्द थुनिअति सोहाई सुनैसोइ हंसतहूँ यूथकेयथब्ै एकहीनूरयकरड्डरागै करतबीहार मनभामिनी मुक्तिमे कम भमसवदूरिभांगे रड्औभूप कोइपर-

( २४० ) बीजक कबीरदास

944

खि आवैनहीं करत कह्लोलबहु भातिपाग कामजकाघ मदलोभ अभिमान सब छॉड़िपाखंड सतशब्दछागे ॥९॥ पुरुषके बदनकी कीनमहिमाकहों जगतमें ऊपमांयकडुनाहिंपाई चन्द्रओसूरगणज्योतिरागैनधं एकहीनक्खयपरकाशमाई पातपरवाननिनबंशका पाइया पहुंचियापुरुषकेछीकजाई कहैंकब्बीर यहिभांति सो पाइहों सत्यकीराह सोमकट गाई” १० वहछोंककी बर्णेन वेदसा- एर्थ जो सदाशिव्ंहिता है ताहमें है। श्रीसोमीविरुवाच महलोंक; क्षितेरू- ध्वमेककीटिपमाणतः कोटिदयनविख्याताननलोकोव्यवस्थितः चतु- धघ्कोटि प्रमाणंतु तपोलोकोविरानितः उपरिष्ठात्ततःसत्यमष्ठकोटिपमाणतः ॥२॥ आयुःप्रमाणंकोमारंकोटिपोडशर्सभवम्‌ तदूध्वेपरिसंख्यातमुमाछोक॑सुनिष्ठ तम्‌ ३२॥ शिवलोकंतदुध्यतु परक्ृत्याच समागतम्‌ विश्वस्यपुरतोबत्तिः शिव- स्पपुरतोबहिः एतस्मादहिरावृत्तिःसप्तावरणसंज्का तदूध्वसवेत» स्वानांकार्यकारणमानिनाम निल्येपरमंदिव्यंमहावैष्णवर्सज्ञकम्‌ शुद्ध- स्फटिकरसंकाशंनित्यस्वच्छमहोंद्यम्‌ निरामयेनिरॉपारंनिरंबुधिसमा- कुछम्‌ भा[समानंस्ववपुषावयस्थेदनविज्वेनितम्‌ू मणिस्तंभसहसैस्तु निर्मितंभवनोत्तमम्‌ वज्ञवेद्य्यैमाणिक्यग्रथितंरत्दीपकम्‌ हेमग्रासांद्‌ मावृत्यतरवःकामनातयः रत्रकुंडेरसंख्यातनरेमछयवासि+: स्रीरतेःपर- माह्वादेः तंगीतध्वनिमोदितेः स्तुतंचसेवितंरम्यरत्रतीरणमंडितम्‌ १० कारुण्यरुपंतन्नीरंगगायस्मादिनिःसता अनेतयोजनोच्छायमनंतयोंजनायतम्‌ १९ यत्रशेतेमहाविष्णुमेगवानजगदीशवरः सहस्रमृद्धोविदवात्मा सहस्ाक्षः सहस्नपात्‌ १२ यत्निमेषाजगत्सवेलयीभूतेव्यवास्पितम्‌ इन्द्रकोटिसहस्रार्णा ब्रह्मणांचसहस्रश। १३॥ उद्धवंतिविनश्यंति कालज्ञानविडंबने: यदंशन- समुद्धता बह्मविष्णुप्रहेरवरा: १४ कास्येकारणसंपन्ना गुणत्याविभावका: यत्रभावततेविद्वं यत्रचैवम्ठायत १५ तद्वेदपरमंधाममदीयंपूर्वसावितम एतइगुह्मसमाख्यानं ददातु वांडितंहिनः १६॥ तदूथध्वेन्तुपरंदिव्यं सत्यमन्यदू- व्यवस्थितम्‌ न्यासिनांयेगिनांस्थानंभगवद्धावितात्मनाम॥ १७॥ महाशंभुमोंदते5 जसवेशक्तिसमन्वित: तदूध्वतुस्वयभात॑ गोलोकेप्रकृतें: परम १८ अरुसहल्तशीफपुरुष जो लिख्या है तहें शद्धनीव समिटे रहे हैं। वे सम-

शब्द (२४१ )

औकप

होई ताके रोमऐेममें अतंवकोटि अह्माण्ड हैं। तहँते अनेक अल्लाण्डकी उत्पत्ति होइ हैं तहेँ महामऊुयमें लीन होइ हैं जो दूसरे सत्यछोकमें जो महा- शम्भुकों वर्णनकियों सो परमगुरुको रुपहै | तामें प्रमाण वेदेश॑भुनगदुगुर' गुरुसों साहबसों अभेदतामें म्रमाणहै आवचायमांविनानीयान्नाव- न्येतकर्हिचित इतिमागवत '” महाशंभु्सों महाविष्णु्तों अमेदहे तामें- प्रमाण शिवस्पश्रीविष्णोयदह गुणनामादिसिकर्ल थिया भिन्नंपश्येत्‌ ख- लुहरिनामाहितकरः इति स्केंदपुराण नारायण नें वर्गन करिआये तेऊ श्रीरामचन्दईके रुपहें तामे प्रमाण सदाशिवसंहितायाम वासुदेवों घनीभूत॑ तनुतेनों महाशिव; गोछोकमें श्रीकृष्णरपते रघुनाथजी विह्रकरे हैं गोलोकके मध्यसाकेतमें रामरूपते रघुनाथनी विहारकरे हैं तामेंममाण सदाशिवसंहिताके बिस्तारते बर्णन करिआाये ककि,पश्चिमदार बृन्दाबन है, उत्तरद्वार जनकपुर है, पूर्वदार आनंदबन है, दक्षिणदवार वित्रकूट है तकि- आगे यहलोक है तेहिते इहां म्रयोजनमात्र छिख्यों है तेषांमध्ये पुरंदिव्य साक्रेतमितिसंज्ञकम इति सांकेत ऊपर कछु नहीं है संकेत अयोध्या सत्यास्रत्य छोक इत्यादिक नाम सब वहीं छोकके पय्यीयहें तामेंप्रमाण॥ “सकेतानपरंकिवित्तदेवहिपरालरम्‌ गोछोकने श्रीकृष्णचन्द्र हें तेईश्ी रामचन्दईके महत॥ सीतारामात्मर्क युग्मंग्ाविशन्नतिपूर्वकम॥ १? श्रीनानकीजी श्रीरतुनाथनीसों कहो कि, बृन्दाबनकी बिहार करिये, तब रघुनाथजी कह्मे जब तुम कह्मो तें एक दूसरा बिहारस्थठ बनाइये तब हम वृन्दावन बनायों, राधि- का तुमभई कृष्णहमर्ये। सो बिहार करते भये सो हमारईं, तुम्हाररूप राधाड- घ्जहें। या कहिके आकर्षण करिके बन्दाबन बोछाइडियों राधाकृष्ण आइगेये तब राषिकाजी जानकीनीमें छीनभई श्रीक्ृषष्णचंद रामचेदमें छीनभयें अर पुनि बिहारकियों जब बिहार करियुके तब जानकी रघुनाथ ते निकसिके बन्द बन समेत राधाकृष्ण चढेगये गेलिककों सो यह कथा शुकसंहितामें है ताकें एक इलछोक लिख्यो है विस्तारसे देखिडीनियों तेईं श्रोकृष्णफे नखके प्रकाश ब्रह्म है वहीमकाशाकों मुसलमान छामकान कहें हैं ने दशमुकाम _. रेख़तामें कहिआये दश थोई मुकाम...सद्ाश्निवसंहितामें बर्णव करिओर्थे «हे १६

(२४२ ) बीजक कवीरदास।

विका डिदिहहैं

तिनमें पांच मुकाम मुसल्म|ननके कहे हैं पांचमुकाम छोड़िदेहैं तिनकों उनहींमें गतायथे मार्निलिदहं मुसल्माननमें वोई पांच मुकामके दुइनामहें “* नासू- तक आलम अजसामकहे शरीरधारी योते यहलोकके सब आइगये मलकूत को *' आलम मिस्रार किरिस्तवके दुनिया देवछोक जो जबहूतको आहम अर्थात्‌ कहे पृथ्वी अप तेन बायु तत्त्वरुपह * लाहतको आलम कर्व कहे नूर अथोत्‌ श्रीकृष्णके मुख्यप्रकाशनोहै ब्रह्म वहीकी कही छोकप्काश लिख्येहि हाहूतकी मुकाम महम्मदीकहे जहांभर महम्मद पहुंचे है श्रीकृष्णे छोक अब इनेके मंत्रऊ लिखे हैं॥ जिकर नासूत “लाईछा हइलाहू” निकिर महकुत “इल्चिलाह” भिकिरनवरूत “अछाः अछाः” जिकिरलाहत अलाह निकिरहाहुत “हूंहँ”॥ सोइनको रातिदिन पांचहजारबार जपकरे। जब पांचहजारहोय तबध्यानकरे ओध्यानमें गड़े आपको भूछ फिरैजहानकों भूडे पुनि निकिरि कहे मंत्रकों भू़े तब क्रमंत मनक्रको पहुंचे अर्थात्‌ अछा- हीने श्रीकृष्णचंद हंसस्वरूप देईं ताम स्थित हैक नितकों जकाश निराकार जो हैं ऐसेने श्रीकृष्ण तिनकेपास होत उनके बताये मन बचने परे ने खुद खाबिंद सबके बादशाह ने श्रीरामचंद है तिनके पास जाताहै ! सो यह मत महम्म दुने साहवके बदे हैं तिवका साहब भेना। तब जे साहवके पास पहुंचनवोरे रहे तिनको महम्मद भेद वताइदियो। सो बिरछे कोई कोई यह भेद जाने हैं ने जाने हैं ते साहबके पासपहुंचे हैं। अब याको क्रम बतावें हैं नोनी भांति साहबंके पास पहुंचे तामें प्रभाण॥पीरानपीरसाहबके पासपहुँचे ऐसेनेहें सछोलके मालिक पनाह अंता तिनकी कबित्त “देह नामूत सुरे महकूत जीव जबरूतकी रूह बखने असबीमें निराकार कहै नेहि छाहुते मानिके मंजिछ ठनि॥आंगे हाहत छाहत है जाहत खुद खाविंद जाहृतमें जाने सोईं श्री रामपनाह सब जग- नाह पनाह अता यह गाने॥ १॥दोहा॥ तने कमेनासूतरूहि, निरखै तब मछकूत पुनि जबरूतो छोड़िके, दृष्टि परे छाहुत इन चारोंताने आंगेही, पता- हअता हाहूत। तहां मरे बीछुरै,नात न«तहँ यमदूत २॥ “'जुढूनढा- उजव्यक” एकराम मुसठमानोंके कहे हैं किताबनमे प्सिद्दे साहब बुजुर्गोका साहब बखशीश का अथाव्‌ वह सबते बुजुर्गों कहे बढ़ाहै उससे बढ़ा कोई नहीं

शब्द (२४३ )

है। वही गुनाहका बख्शनेवाला है औरे के छुडाये छूटेगो जब श्रीरा- मचन्द्र जीवको छोड़ावेंगे तबहीं छूटेगो खोदाके सौ नाम हैं निन्नातब सगुणनाम हैं, मुक्तिक्रे देनवारों निगुण अछाह नामही है वहीं खुद खामि- दका नाम है तौने बात वेद शाखनमें भी सिद्धान्त कियो है | कोई कोई जे साहबके पहुंचे हैं ते वेयथ जाने हैं सो लिख्यो है कि, और देवतनके नामते अधिक और सब नाम भगवानके हैं भगवानके सब नामते अधिक रामनाम है। सो महादेवनी पावेतीनी ते कह्यो है सहसख्ननामतत्तुस्यंरामना्म वरा- नने सप्रकोटिमहामंत्राइिचत्तविश्वमफकारका: एकएवं परोमंत्रोरामदहत्यक्षरद्धू- यम्‌ विष्णारेकेकनामापि सर्ववेदाधिकंमतम्‌ ताहड्रगमसहलेणरामनामसमंस्म- तम! इतिपाप्े॥ गोसाइनीहू लिख्यो है। 'रामसकहू नामनते अधिका'?॥ सों यही रामनाम ते अल्लाहनाम निकस्यों “राम नामके मकारकों रकार भये आगेका पीछे आया तब अरभया सो अर राके पीछे आया तब अर राम भयो रलके अभेदसे अल्छाभयो” व्याकरण बर्णेबिकार बर्णकार बर्णेबिपयय प्रषोदरादि पाठसे सिद्ध राब्दकी साधनके वास्ते प्रसिद्ध जो सदाशिव संहितामें दशमुकाम लिखि आये हैं पहिले रेखतामें लिखि* आये हैं सो कबीरजी पुनि खुद खाविंदकों दूसरे रेखतामें वहीबात लिख्योहै “जुढूमत नासृत मलकूतमें फिरिस्ते नूर जल्छाल जबरूतमें जी लाहूतमें नूर जम्माल पहिंचानिये हक मकान हाहूतमें जी बका बाहत साहत मुसिद वारहै जोरब्ब राहुतमें जी कहत कब्बीर अबिगति आहूतमें खुद खाविन्द जाहूत में जी ॥” सो वे जे परम परपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं तिनके गुण खबते न्यारे हैं उनको धाम सबंते परेहे वाकोकाई अंतनहीं पायो सो तिनेके गुण है जीवों ! तुम कैसे पावोंगे | इति अठारहवां दाब्द समाप्त

अथ उच्नासवां शब्द १९

एतत्‌ राम जपो हो प्राणी तुम बूझो अकथ कहानी जाको भाव होत हरि ऊपर जागत रोनि विहानी १॥

(२४४ ) बीजक कबीरदास |

डाइनि डारे सोनहा डोरे सिंह रहे बन घेरे

पांच कुटृंब मिलि जूझन लागे बाजन वाज पघनेरे २४ रोह मगा संशय वन हॉके पारथ वाना मेले

सायर जरे सकल बन डाहे मशक्ष अंहेरा खेले ३॥

कहे कबीर सुनो हो संतो जो यह पद निरधारे।

जो यहि पदको गाय विचारे आप तरे अरुतारे॥

एतत राम जपोहो प्राणी तुम वझ्लो अकथ कहानी

जाको भाव होत हरि ऊपर जागत रेनि बिहानी

एतत कहे जे निर्गुण सगुणके परे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रहें तिनको जपे। कैसे जपों कि, अकथ कहानी कहे मनबचनके परे जाह रामनाम सो वल्ल अर्थात्‌ रामनाममें साहबमुख अर्थ बृझिके जपो श्रीरघुनाथ जीके ऊपर जाकों भाव होय है ताको यहसंसाररूपी जो है निशा बिहानई है जायहै. सोवत्तें जागिउठेंहे ताते यह ध्वनित होय है जाकों रघुनाथनी के ऊपर भाव नहीं है ताका यह संसार रूपी निशा बनी रहेंहे बिहान नहीं होयहै. जांगे नहीं है कहे ज्ञाननहों होयहै; श्रमरूपी निशामें सोवत रहें है। यहीसंसारमें जीव कैसे चेरे रहते हैं सो कहे हैं

डाइन डारे सोनहा डोरे सिंह रहे बन पेरे

पांच कुटुँव मिलि जूझन लागे वाजन बाज घनेरे ॥२॥

डाइनि जेहें गुरुवाडोंग छालाके डारनेवाले ने वाके कानमें अपनी विद्या- डारिदियों इहां गुरुवाछोग डाईंनि हैं ने सिंहको मंत्रते बॉँधि देयहैं वा बनत्यागि ओर बननहीं जायेहे। सोनहा जाहे सो हंहेसमंत्र तौनेमों डरा बांध्यो अथीव्‌ यह कह्मो ।कि; तुहींब्रह्नह ओर कहां खो नहै, तेंवा है। यह- मंत्रकों अंबतायो सो सिंह जो है जीव या सामथ है सो उनहीं बाणीरूप बन* में वरे रहो कहे बँघिरहोो तबपांचो ने ज्ञानेन्द्रियहैं पांची ने कर्मोदियहैं अथवा

शब्द... (२४५ )

याचो जे म्राणहँ प्राण अपान समान उदान व्यान तेई कुटठुम्ब हैं तिनमें मिलिके जझैलांग पांच कुठुम्ब सिहके पंचआनन जब सिंहकों मारन जाय है तब झुनका वाना वजावे हे तेसे यहां गुरुवालोग अनहृद सुननकी युक्ति बतावनछगे सो दशों अनहदकी धुनि सुननछग्यो तेई बाना हैं * *

रोह मगा संशय बन हांके पारथ वाना मेले सायरजरे सकल वन डाहे मच्छ अहेराखेले

रोह कौनकहावे कि, जो कमरीमें आगीबारत जायहै झुनेकी बनावत जायहै तामें मृगा मोहि जायहैं सो वाहीकी छाया में पीछे धनुष बाणकी बांसकी बंदूकादि आयुध लिये खड़ो रहे है शिकारी सोई मरेंहे यही रोहहै सो मृगरान जोहै जीव ताका गुरुवालोग जब योगाभ्यास केंके घोखा ब्रह्मयकी प्रकाश बतायों तार्में- रहिगयो कहे मोहिगयो नो कहीं हॉकि कौन छायो! तो संशय रूप हँकवबैया है लेस आगी बरत देखिके वा बाजा सुनिके टेममें मोहिके म॒ग मगरान जायहै या कैसो बाजा बाने है या कैसी टेमहे या संशयने है ज्ञानमिठनकी चाह सो याको हॉकिले आयो ऐसे गुरुवा छोगनकी नोबताई बाणीबनहै नोनभनहद सुनिबेकी युक्ति बतायो तोन अनहदकी घुनिसुनिके जोन ज्योति बतायो सोंऊ योगाभ्यास करिके ज्योतिरुप ब्रह्म देखिके जीव या संशय कैकैे निकट जायहै याविचा- चारे है कि, याः ज्योतिरूप ब्रह्ममैहीं हों कि, मोते भिन्न तब शिकारी जैसे ढुको रहेंहे ऐसो मूछाज्ञान रूप शिकारी अहं अल्लास्मि वृत्तिर्प बाण मारै बा जीवको अनुभव कराय देय कि, महीं ब्ह्महों वाके नीवत्वकी नाश कै देयहै यहीमारिबोहै जेसे बाण छागे मृग राजकों अंत।करण जर उठे है भवि- कोपे है बनमें जोई आगे वृक्ष परेहै तौने पर चोट करेँहे, जो मारनवाछेकों देखे है तो वाहकों धीर खायहै ऐसे जब आपनेको ब्रह्ममान्यों तबसायर नों संसारहे सो जरेंहै अर्थाव संसार याको मिथ्या जानि परेंहे बन डहैंदे कहें वा दशामें बाणीरूप बन सोऊ भूलिनायंहै ऐसे बधिक मारयों बधिककों बाघ मारयों वधिककों जबमारिके दोऊ गलिके नदी में मिल्यों तब मछरी खायो अथवा मारेंके दोऊ बहैरहे कीड़ापरे जब बादको जरढू भायों तबमछरी खायों

( २४६ ) बीजक कबीरदास |

ऐसे बह्मह में छीन अठई अवस्थाकों भाप्भये तब जीवल्वरद्मो मूलछाज्ञान रहो ऐसेहमये तथापि साहबको बिना जाने मच्छ जो काछ है सो खायलेइहै,

७8

फिर संसारमें परे है तामें प्रमाण॥ 'येउन्येरविदाक्षविमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावाद्‌ विशुद्धुद्धयः। आरुह्मकृच्छेणपरंपदंततःपतत्यन्त्यधोनाइतयुष्मदंघय :॥इतिभा- गवंते कबीरजीकोप्माण “कोटि करम कट्परमें, जोराँचि यक नाम अने- जन्‍म जो पुण्य करे, नहीं नाम बिनु धाम | रच | कहे कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद निरधारे कु

जो यह पदको गाइ बिचारे आपु तरे अरु तारे॥

सो कबीरजी कहेहें कि, हेतंतो ! जो यह पदको निराधारे कहे सारासार बिचारकरे जोन बह्मपद कहिआये तोनेकों गाइ बिचारे कहे माया बिचरें

सो आपु तरेहै ओर आनहकी तारे है अथीव्‌ साहबका बा जाने औरहकों जनाइ देइ

इति डउतन्नीसवां शब्द समाप्त

अथ बीसवां शब्द २० कोइ राम रसिक रस पियहुगे। पियहुगे सुख जिय हुगे १॥ फल अमृते वीज नह वोकला शुकपक्षी रस खाई चुवे बुन्द अंग नहिं भीजे दास मभँवर सँगलाई २॥ निगमरसाल चारि फल लागे तामें तीनि समाई एक है दूरि चहे सव कोई यतन यतन कोइ पाई॥ गयउ वसंत ग्रीष्म ऋतु आई बहुरि तरुवर आवे। कहे कबीर स्वामी सुख सागर राम मगन है पावे ॥४॥

शाब्द (२४७ )

कोइ राम रसिक रसपियहुगे सुख जियहुगे॥ फल अमृते बीज नहिं वोकला शुक पक्षी रस खाई चुवे बुंद अंग नहिं भीजे दास भँवर सग छाई॥ २॥

जीवों ! कोई तुम रामरसिकनते रामरस पिश्ोंगे अथवा रामरसिक्हैकै रामरस पिभोगे | जो रामरसिकनते रामरस पिऔगे तबहीं सुखत जि्ींगे कहे जन्म मरणते छूटोंगे अरुभानंदरूप होंडंगे वह रामरस केसो अमृतको फलहे कहे वाके खायेते नन्‍्म मरण नहीं होइहै तैने फरमें बीन बोकला नहींहँँ अथोत्‌ सगुण निर्गपरूप बान बोकलछा नहींह मीठों फल होइहे ताही फडमें सुवा चोंच चलढूविहै यह छोकमें प्रसिद्धहे यहां शकाचार्य रामरसको मुक्त हँ आस्वादन कियांहे ताते यह व्यंजित भयो कि. रामरसते त्रह्मानंद कमही है अथांव्‌ श्रीमद्भधागवतमे है॥ ' वदेमहापुरुषतेचरणारावेंदम!? ऐसो कहि शुकाचार्य परम परमपुरुष श्रीरामचन्दहीके चरणनको वंदना कियो है श्रीरघुनेदनहीके शरण गये हैं। यह वणन श्रीमद्भागवतहीमें है॥ तन्नाक- पालवसुपालकिरीटजुट्ट पादांबुनरबुपते:शरणंप्रपय्ये!॥ इतिभागवते अराम- चन्दहीकों परतत्त्व तातयंते वर्णन कियोहै सो कोई बिरछा संतनन याकोभर्थ जनेंहे। नो यह पाठहोईइ “फछ अंकृते बीननहिं बोकछा”” तौयह अभहे कि फलकी अंक्ृति कहे आकृति तोहे परन्तु बीमबोकछा नें निर्गुण सगुणहैं ते इनमें नहीं आवेह इनते भिन्न है सो रामरसरूपी फल है तो रस रूपई है परन्तु वाक[ रखबुन्दह नहोच्ु॑वहे अथोत्‌ अंतकबहूं नहींहोइ है अनादि अनंतहै। काहूके पांची शरीरके अंगनहीं भीजहें अथोत्‌ कोह पांच शरीरते भिन्न [ होरहे जब पार्षेदरूप रामेषासक तेई मँवरहें ते वाके संग छगे रहैं हैं अथाव्‌ रामरस पान करतई रहे हैं २॥

निगम रसाल चारि फल लागे तामें तीनि समाई

यक है दूरि चहे सब कोई यतन यतन कोइ पाई ३॥ सा कवारजी कह हैं कि, निगम जोहे रखारू कहे आमकों वृक्ष तामें चारि- फल छागे हैं अर्थ पं काम मोक्ष तिनमें तीनिफछ तहैं समातहैं कहे नहंहै

(२४८ ) बीजक कवीरदास

जाइहैं अथीत्‌ तीनिऊं अनित्यहैं एक जो है मोक्ष सोतो बहुत दूरि है यत्नही यत्र करत कोई बिरछा पाँवै है अथोव निगमतो रसालहै रसमय है तात्पय॑- वृत्तिकरिके साहबईकी बताबैंहै सो वह तो कोई जानि नहोंहे यह कहेंहै कि चारिफक्त छांगे हैं

गयउ बसंत ग्रीष्म ऋतु आई बहुरि तरुवर अंब। कहे कबीर स्वामी सुखसागर राम मगन हे पावे अरु जो कोई निगमरूपी वृक्षको मोक्षरूपी फछ पायोंहे वाकों पायो है ताको बसंत ऋतु जाइ रहहै ग्रीष्म ऋतु है जाइहे कहे आत्माकों स्वस्वरूप भूलि गयो सुखकोी आस्वादन रहिगंयों कहनछग्यों कि मेंहीं बअल्महों।ग्रीष्म- ऋतुमे पकाश बढ़े है सोयही प्रकाशमें समाइगयों सो फेरि जोचहै कि, रामोपा, सनारूप ब्रह्मकी भक्तिरुप छायामेंले तो नहीं मिले श्रीकबीरजीकहे हैं कि- सुखसागर स्वामी में परमपरपुरुष श्रीरामचल्धहैं तिनके रामराम रसमें जब मग्नहोय है तबहों पावै है जीवको स्वरुप आत्मदास्यंहरेस्स्वाम्यंस्वभार्य चसदास्मर शुकाचार्य या फलको चाखिनहे तामे प्रमाण निग* मकत्पतरोगलितंकलंशुकमुखा[दमृतदव पेयुतम पिवतभागवतंरसमालयंपरुहुरहोर- सिकाभुविभावुकाः ”” इतिभागवते

दाते बीसवां डझाब्द समाप्त

अथ इक्कीसवां शब्द॥२१॥ राम रमसि कोन दँड छागा।भरि जेंहे कौ करिहे अभागा कोइ तीरथ कोई मुण्डित केशा।पार्खैड भमे मंत्र उपदेशा२ विद्या वेद पढ़ि करहंकारा अंतकाल मुख फांके क्षारा

१वया |

शब्द ( २४५९ )

दुखित सुखितसवकुदुब जेंबइवे ।मरणबेर यकसरदुखप्इवे४ कह कवीर यहकलिहे खोटी।जो रहकररवा निकसल लो टी <*

राम रमसि कोन दँड लागा मरि जेहे का करिहे अभागा सबको देद छोड़ाय देनवारे जे सबते परे परमपुरुष श्रीरामचंद्र हैं तिनमें जोतेनहीं रमेंहै सो तोकों गुरुवा छोगनकों कोन देड छगोहे यहतों सबयहींके साथी हैं साहवके भुलायदेनवारे हैं जेउपदेश करनवारेगुरुवनके कहे माया बह्म आत्माको ज्ञानरुपी दृंडचवावमें जोते परे हैं सो हे अभागा!जवतेंमरिनेहे तबदे गुरुतवा तोकों बचासकेंगे तब क्याकरोंगे कोइ तीरथ कोई झुंंडितकेशा | पार्खड भमे मंत्र उपंदेशार तीथनमें जाइके कोई चहौंहों कि, विना ज्ञानहीं मक्तिद्ठे जाईहे औकोई मड़- मुड़ायके वेषयनाइकै संन्यासीहैके अपने आत्माहीकों मालिक मानिके चाहोही कि मुक्तहैजायेँ औकोई नाश्तिकादिकनके जनानापाखंड मतहैं तिनमें लाभिके जानोक़ि मुक्त द्वैगये कोई भ्रमनों धोखाब्ह्नहै तामें छागिके आपने- काब्नह्म मानिके जानोहों कि हममुक्तहैगये औकोई और और देवतनके मंत्रउप- देश पायके जानोही कि हममुक्तह्वैगये विद्या वेद पढ़ि कर हड्डारा।अंतकाल सुखफांके क्षारा॥३॥ अरुकाईं वेदबाह्य जे नाना विद्या अपने अपने गुरुवनकी भाषा तिनको पढ़िंकै कोर वेद पढ़िके बेदमें शाख्र चौंसठ कछादिक सब आइगये अहड़ुनरकरोहों कि हम मुक्तगये सोमुक्ति तों निनको वेदतात्पर्य करिके बतावेहै ऐसेने परमपरप्रुष आरामबंदह तिनके बिनाजाने होयगी। होयगो कहां ? |कि जबरंतकाल तेरो होइगो तब यही मुखमें क्षार फांकैगो पुनिजब पृण्यक्षीणहोइगो तब छोक आवोगे तबहू मरब करोगे क्षारई फांकोगें

दाखतसुखतसबकुटवजवहइवे मरणवेरयकसरद्खपइवे७ इससुखरम सबकुटुम्बनको जेंवाबेंहे तेमरणसमय कोईकाम नहीं आहिह हें अकेलही दुःखपावेंहें परन्तु सहायतेरी कोई नहीं करिसकैं है

(२८० ) बीजक कषपीरदास

कह कवीर यह कलि है खोटी ।जोह करवा निकसल टोटी५ कलिनाम झगड़ाकों है सो कबीरजी करहेंदें यह माया बरह्यफी झगड़ा बहुत-

आर,

खोट्हे अथवा यह कलिकाल अतिखोय्हे जोवस्तु करवःमरहेंहे सोइंटोटीतेनि क्सेहे तेसेनोकम यहजीवकरे है सोई दुःखसुख वह जन्मभोगकरे है रु नाना देवतनकी उपासनाअब करैहे ताहीकी वासना बनीरहै है तेहिते पुनिवोई देवतन में छांगै है अरु जो ब्रह्म॑बिचार अबकरेंह्ै सोई ब्रह्मविचार पुनिनन्मरेंके करेंहे अर्थात्‌ बिना परमपरपुरुष श्रीरामचस्द्धके जानें नन्‍्ममरण नहीं छूटेहे मोबासना अंतःकरणमें बनी रहेंहे सोइ पनि होयहे

इंति इक्कासवा शब्द समाप्त

अथ बाईसवां शब्द २२॥ अबघू छोड़ो मन बिस्तारा।

सो पद गहहु जाहिते सद्ठाति परब्रह्मते न्‍्यारा १॥ नहीं महादिव नहीं महम्मद्‌ हरि हजरत तब नाहीं। आदम ब्रह्म नहीं तव होते नहीं धूप नाहिं छाहीं असी सहस पेगंवर नाहीं सहस अठासी मूनी चन्द्र सुये तारागण नाहीं मच्छ कच्छ नाह दूनी वेद किताब स्मृति नाहिं संयम नहीं यम पारसाही वांगनेवाज कलिमा नहि होते रामो नहीं खोदाही आदि अंत मन मध्य होते आतश पवन पानी लखचोरासी जीवजन्तु नहीं साखी शब्द वानी ५॥ कहे कबीर सुनो हो अवधू आगे करहु विचारा पूरणत्रह्म कहांते प्रकटे किरतमकिनउपचारा 5

शब्द ( २५१ )

पु ते हे अबधू जीबी ! तुम्होर ते बधू कहें खरी नहीं है अथोव तुमती माय मिन्नहो जेतनों तुम देखोहो सुनोहों ताक़ो मायामें मिलिके तुम्हारे मनही विस्तार कियो हैं सो यह मनको बिस्तार छोड़ि देउ अरू निनते सद्गति कहे समीचीन गति है मन बचनके परे थोखा बह्मके पार ऐसो जो छोक पकाश ताहते न्‍्यारे ऐसे साकेतनिवासी परमपरपुरुष श्रीरामचर तिनके पदगहो कबत्रीरजी कहे हैं कि, हेनीवी ! बिचार तो करो ( जोजे बात यहि पदमें स्पष्ट वर्गन करिगये ते ) ये कोऊ तब नहीं रहे अरु वासों भिन्न जो तुम कहो हो कि, पूर्णवह्म है कहे स्ेत्र बह्नही है वासों भिन्नद्सरों नहीं है सो यह धोखा कहांते पक्रट भयो है। किरितम जोमाया है ताको किन उपचार कहे किन आरोपण किलो अर्थात्‌ यह शुद्ध समष्टि जीवको मनहीं किरितम जो माया है ताका आरोपण कियोहे मनहों वह अह्यको अनुमान कियोंहै, ताहीको कियो राम खोदाय आइरिने मन बचनमें आवै हैं ने वर्णन करे आये हैं तेई बिस्तार हैं से पूर्व मंगलमें प्रथम रमैनीमें बर्णन कारे आयेहें औए यहां रामको हरिको जो कहे हैं से नारायण जे रामावतार छेइ हैं तिनको कहै हैं नहीं यमन परसाही कहे चौदहों यमनके परेने निरंजन हैं तिनहंंकी साही नहीं रही परम परपुरुष श्रीरामचन्द्रकों नहीं कहे हैं काहेते कि, वेती मन बचनके परे हैं सो पूर्वेलिखि आये हैं सोबांबि लेहगे सोजब मनको त्यागों तब परमपरपुरुष औरामचन्दर तिहारो स्वरुपदेईं तामेंममाण-“ मुक्तस्यविय्होलाभ:' यह श्रुति तोने स्वरूपते साहबकों अनिर्वैचनीय रामनामनामादिक तुमको स्फुरित होईंगे तामें प्रमाण- वाहुमनोगोचरातीत* सत्यलोकेश इंदवर।; तस्पना- मादिक सर्व रामनाम्ना प्रकाइयते ”” इंतिमहारामायण इते बाईसवां शब्द समाप्त |

अथ तेइसवां शब्द २३॥ . अबू कुदरतिकी गतिन्यारी रह निवाज करें वह राजा भ्रूपति करे भिखारी

२५२ ) बीजक कवीरदास |

येते लवैंगहि फल नहिं लागे चंदन फूल फूले

मच्छ शिकारी रमेजँँगलमें सिंह समुद्रहिफूले॥२॥

रेड़ा रूख भया मलयागिरि चहुँदिशि फूटी बासा।

तीनि लोक ब्रह्मांड खण्डम देखे अंध तमासा

पंगुल भेरु सुमेरु उलंचे त्रिभवन मुक्ता डोले

गृंगा ज्ञान विज्ञान प्रकाश अनहद वाणी बोले 8४॥

बांधि अकाश पाताल पढावे शेष स्व॒गंपर राजे

कहे कवीर राम हैं राजा जो कछु करें सो छाजे «॥

जोपूर्व यह कहि आये कि रामीनहीं खोदाइड नहीं हैं मिनते समीची गतिहोइ है तिनके पदगही त॑ कौन पुरुप हैं तिनकी सामथ्य कहिके खोलिकै या शब्दर्मों बतायो है। अब याकी टीका छिखते हैं अबघू कुद्रतिकी गति न्यारी

रंक निवाज करे वह राजा भ्रूपति करे भिखारी १॥

येते लवँगाहि फल नही लागे चंदन फूल फूल |

मच्छ शिकारी रमे जंगलमें सिंह ससुद्गहि झूले २॥ है अवधू जीवों ! परम परपुरुष जे श्रीरामचन्द्रहें तितकी कृद्रति कहे सामर्थ्ये की गति न्यारी है सुग्रीव जे पुत्रकलूचते होन, भिखारीकी नाई बन बने . पहाड़ पहाड़ बागत रहे तिवको निवाजिके राजा बनाइ दियो। सबराज- नके जीतनवोरे ने क्षत्रिय तिनको मारि कै प्रथ्वी भूसरन देडारेड नारायण के अवतार ऐसे परझराम तिनकों मिखारी करिदियो लछवंगमें फल नहीं छांगे सोऊ छागै, चंदनमें फूछ नहीं फूले सोऊ फूडे है जाकी सामथ्ये ते। से बाल्मीकीयमें छिख्यों है जवश्रीरचुनाथनी अयोध्याजी आये हैं तब जे वृक्षफले फूलेवाले नहीं रहे सूखेरहे तेऊफाडे फूलिआये हैं

शब्द ( २५.३ )

मच्छ नो मत्स्थोद्री सो शिकारी जो शंतनु ताकेसाथ भय ते रमन लगी सिंहसमर्थ को कहे हैं सो समर्थ जे बंड़े बड़े दानव थलके रहेया ते समुद्रमें बसजाय रे *+_ ८३.४५ रेड़ा रूख भया मलयागिरि चहु दिशि फूटी वासा

तीनि लोक ब्रह्मांड खंडमें देखे अध तमासा हे

रेड़ा रूस नहें,सवरी, वारार,निषादादिक मिनकी वेदकाअधिकार नहीं रहो, तेऊ चंहन॑द्वैगय उनकी बास चारिडंदिशा फूटी कहे उनकी यश सबकोई गावे है। चंदन ओरो वक्षनको चंदन करे है ऐसे औरहकों साधु बनावनवारे ये सब भये तामें प्रमाण 'नजन्मनूनंमहतोनसोभर्ग नवाड-नबु द्धिन क्तिस्तो पहेतु: तेये- द्विसष्टानपिनोवनौकसइचकारसख्येबतलुक्ष्मणाग्रज: ”” इतिभागवते आँध- रेजे हैं धृतराष्ट्र तिनकी कृष्णचन्द बल्माण्ड भरेकी तमाशा जिनकी सामथ्बते शर्रारहीमं देखायद्ियों। नारायण कृष्णचंन्द्र साहबकी सामथ्येते करे हैं तामेंपरमाण यस्यपसाददिवेशममसामर्थ्यमीद्शम्‌ संहराभिक्षणादेवत्रैलों- क्यंसचराचरम्‌ धातासनतिभूतानि विष्णुद्धोस्यतेजगत”” इतिसारस्वततंत्रे कृष्णचंदकों अवतार विष्णुह्ीते होइहै सो पुराणनमें पंसिद्धहें

पंगुल मेरु सुमेरु उलंघे त्रियुवन मुक्ताडोले गुंगा ज्ञान विज्ञान प्रकाशे अनहद बाणी बोले 8

जिनके अघटित घटना सामथ्येते पंगु ने हैं अरुण ते प्रथ्वीकी कीलछा जे हैं सुमेह तिसको रोज उलंवै हैं नांप्पे हैं। अथवा पंगुनो हैं राइ नाके रिरे भरहे गोड़ हाथ नहीं है सोसुमेढ का नाघत रहै है म॒क्तजे हैं नारद ञुक कबीर आदिक जे संसार ते मुक्त द्वैके मनादिकन को छोड़िके साहब के पास गये हैं यह शाखत्रमें लिखे है कि, उहांके गयेपुनि नहों आवै है परन्तु तंऊ साहबकी सामर्थ्थते त्रिभुवनमें डोढे हैं संसारबाधा नहीं करिसके है। जब शुकाचार्य निकसे हैं तब व्यास पछुआन जात रहे हैं तब गंगे नें वृक्ष हैं तेऊ व्यासकोी समुझायों है मध्वाचार्य जब भिक्षाटन को निकसे

(२५४ ) बीजक कची रदास

तब शिष्पनके पढ़ाहबेकी बरदाकी कहो तबबरदा शिष्यतकों पढ़ाया है . जे साहबकी सामर्थ्यते ऐसी सामथ्ये उनके दासनेके ह्वैगई कि, वोई अनहद्‌

वाणीको बोले हैं नाकी हद नहीं है बाँचि अकाश पताल पठांवे शेषस्वग परराजे

कहें कवीर रामहे राजा जोकुछ करे सो छाजे «॥

आकाश नो है आकाशवत्‌ ब्रह्म तैनेकी जोमने है के वह बह्न मैं! हों ताको साहब अपनो ज्ञान कराइके धोखा ज्ञानको धाधि के पताहमें पँठे दैइहै अथीव्‌ तेहि नीवको मूछज्ञान निर्मुछ३ करि देंयहै जैसे लोकमें याबात कहे हैं कि, या खनिके गाड़देव ऐसे गाड़दियों फिरि वा अज्ञानको अंकुर नहीं होयहै शेष कहे भगवत्‌ शेषनो है जीव सो जे साहबकी सामर्थ्य॑ते स्वर्गोदिकन के परे जेंहै साहबकी लोक तहाँ राम हैं “स्वगैपदको: अथे जो दुखते मिन्न स्थान होयहै सो कहावे स्वगे”” जो छोक प्रकाश बह्म ताहते परे जो साहब तहँरामिदे दुःखरहितस्थानको स्वग कहे हैं तामें परमाण। यन्नदु :खेनसंभिन्ने नचग्रस्तमनंतरम्‌ अभिछाषोपनीतंच तत्पदं स्वःपदास्पदम*” इति॥ सो कबीरजी कहे हैं कि यह अधटित घटना सामर्थ्य परम परपुरुष श्रीरामचन्दही हैं वे रा- जाहैं वे नोकुछकरें सो सव छनेहे चाहे रंकको राजा करें चाहे राजाको रंक करें चाहे छोंगमें फल लगायें चाहे चंदनमें फूछ फुलाय देये चाहे मछरीके बनमें रमावै चाहे सिंहकी समुद्र में रमावें चाहे रेंडारुखको चंदनकरें. चाहे अंधाको तीनउ लोक देखाय देयें चाहे पंगुको सुमेह नंघायदेयँ चाहे गृंगाकी ज्ञान कहवायदेई .चहि भाकाशकों बँधिके पाताऊपेठावें चोहे पातालवासी ने शेष तिनको स्वर्ग परराखें, या सामथ्ये उनमेंहै श्रीरामचंद्र तोराजाहैं तामेंग्रमाण राजाधि- रानस्सर्वेषां रामएवनसंशयः ॥”जओ उनहींकी भयते सूर्य चन्द्रमा अवसरमेंउये हैं औसमृत्यु नवसमय आवैहे तबखायहै तामें म्रमाण॥ यद्भयादाति वातोयं सूर्यस्त- पतियद्धयात्‌ वर्षतींदों दहत्यमिर्मृत्युडचराति पंचमः इतिश्रीमद्धांगवते ॥५॥

इति तदईसर्वां शब्द समाप्त

ऋाब्द। (२५५ ) अथ चोबीसवां शब्द २४

अवधू सो योगी गुरु मेरा जो हे पदको करे निवेरा ॥१॥ तरुवर एक मूल विन ठाढो विन फूले फल लागा। शाखा पत्र कछ नहिं वाके अए गगन झुख जागा २॥ पो विन पत्र करह विन तुम्वा विनु जिहा गुण गावे गावनहारके रूप रेखा सतगुरु होइ लखावे॥ हे पक्षी खोज मीनकी मारग कहे कबीर दोउ भारी अपरम पार पार पुरुषोत्तम मूरतिकी वलिहारी

अवधू सो योगी ग्ुरुमेरा। जो पढ्को करे निवेरा ॥१॥ तरुवर एक मूल विन ठाढ़ी विन फूले फल लागा। शाखा पत्र कछ नहिं वाके अह गगन सुख जागा २॥

बधू जाके होइ सो अबधू कहाँबै सो हे अबधु जीवो!नो यह पदके अर्थकी निबेरा कारेके जाने सों योगी गुरुकहे अष्है ओऔमेरा है कहे में वाको आपकनों मानौहों एकजे तरुवरहै सो बिन मूल ठाढ़ो है अरु वामें बिनाफूछ फल छागो हैं सो यहां तरुवर मनहै सो नड़है अरु आत्मा चैतन्य है शुद्ध है जो कहिये आत्माते उत्तत्तिहे सो जो आत्माते उतन्नहोतो तो आत्मा चतन्य है याते यहू चैतन्य हो तो ताते आत्माते नहीं उत्पन्नमयी यह आपई आत्माते प्रकाशभयों जो बिचारैतों वाकोमूछ भगवत्‌ अज्ञान सत नहीं है बिनामूछ ठाद्ले भयोहे भरु बिना फूड़े फछ छागेंहे कहे जगत्‌ उत्पादक क्रिया मननहीं कियो मिथ्या संकल्पमात्रते जगड्प फछलागवई भयो अर वाके झाखापत्र कछू नहीं है अर्थाव अंगनहीं है चित्त बुद्धि अहंकार येऊमिथ्यांह निराकारहैं अरु यह मनेके मुखते आठी गगन नागतभये। सात सप्तावरणके आकाश अथवा चैतन्याकाश॥ २॥

(२५६ ) बीजक कबीरदास

पोविनुपत्रकरहविन॒त॒म्बा विजुजिहागुणगाव गावनहारकेरूप रेखा सतगुरुहोइलखावे

अब श्रीकबीरजी जीवात्मा को वृक्षरूप हैंके बन करें है पौबिनु कहे आत्माको जगतको अंकुर नहीं है मनके संयोगते दुःख सुखरूप पत्रदुइ छागबेई कियो करहनो कर्म है सो नहीं रह्मो आत्मामें जगवरूप तुम्बा छागबेईं कियो यह जीवात्माकी दशाकाहेतेमई कि, बिनु जिह्ा जाहे निराकार ब्रह्म ताके जे गुणहैं देश काल बस्तु पारेच्छेद ते शून्यत्व सो आपने में छगावन छग्यों | ये गुण मोहों में हैं मेरोस्वरूप यही है सो नो या आपनेको ब्रह्ममान्यों तो आत्माके ब्रह्मकेरपको रेखनहीं है काहेते याकी देश बनो है समष्टि जीवछोक प्रकाशर्मे रहहैं, काछबन्यों है जौंनेकालमें समष्टित व्यष्टि होयहै, या देश का बस्तु परेच्छेदते संहितहै काहेते अणुहै भगवदासहै तामें प्रमाण॥ “बालायशत- भागस्यशतधाकल्पितस्थच॥ भागोजीवःसविश्ञैयं: सचानंत्यायकत्पते”' इतिश्रुतिः अंशोनानाव्यपदेशात्ते

अप ३5 कप कक का पक्षी खोज मीनको मारग कहे कवीर दोड भारी |

- आप मूः [ अपंरम पार पार पुरुषोत्तम मूराति की वलिहारी ॥8॥ ताते मीनकी नाई संसारते उछटठी गति चलिके पक्षी जो हंस स्वरूप आपनो ताक खोन कबीरजी कहे हैं ये दोऊ भारी हैं संसारते उल॒टी गति होंइबो:यह भारी है, आपनो हंसरूप पाइबो यह भारी है। सोसंसारते उल्ठी गति करि हंसरूप पाइके परमपर जो आत्मारूप पा्षद्रूप ताहते उत्तम ने परमपुरुष

पर श्रीरामवन्द्र तिनकी बलिहारी जाय भाव यह है तब तेरों ननन मरण छूटैगो

[कप

इते चोवीसवां शब्द समाप्त

शब्द ( २५७ ) अथ पचीरुवां शब्द २५ अवधू बोत ठराबल राता। नाचे वाजन वाज वराता ॥१॥ मोरके माथे दूलह दीन्हो अकथा जोरि कहाता। मड़येके चारन समधी दीन्‍्हो पुत्र विवाहल माता २॥ दुलाहिनि ली।पि चोक वेठाये निरभय पद परभाता। भातहि उलाटे वरातहि खायो भली वनी कुशलाता ॥३॥ पाणि ग्रहण भये मव मंडो सुषुमाने सुराति समाता। कहे कवीर सुनो हो संतों बूझो पण्डित ज्ञाता॥ ७॥

अबू बोत तुरावल राता। नाचे वाजन वाज वराता॥१॥

हे जीवी ! आपतो अबू रहेहो कहे आपके बबू जो है मायासो नहीं रही है परंतु रोरे अब वह तत्त्वमें राते हैं अथवा हे अबधू ! यह शरीरको राजा हैं जीव सो अब वह तत्त्वमें राता है। कौन तत्त्वमें राता है ? सोकहै हैं, जहां बाजन नाचे है, बंरातंबानै है सो इहां शरीर बाजनहै सो नावे है कहे जाग्रत्‌ अवस्थामें स्थूठ, स्वप्रअवस्थामें सूक्ष्म, सुषृप्ति में कारण, तुरि- यामें महाकारण, येई नाचे हैं तिनकों जब इकट्ठा कियो अर्थीव्‌ एकाय मन कियों उन्‍्मनी मुद्राआदिक साधन करिके तब पचीसो जे तत्त्व हैं तेई बरात हैं तेई बाने हैं कहे तिनको जो संघ द्ैबो है इंदियनमें तिनते जो ध्वनि निकसे हे तेई दशों अनहदकी ध्यनि सुनि परती हैं तामेंगमाण कबीरहीजीको . उठतशब्द घनघोर शंखध्वाने अतिथना तत्त्वोंकी झनकार बजतझी- नीझना?

मोरके माथे दूलह दीन्हो अकथा जोर कहाता।

मड़येके चारन समधी दीन्हो पुत्र विवाहल माता॥२॥

नाभीमें चक्र है तामें नागिनीकों बास है सो चक्रके द्वारमें मुड़दिये परी

है। आत्मानीचे है सो वह. आत्मा दूलह है ताहीकी नागिनी मोर है रही १७

(२५८ ) बीजक कबीरदास

है सो जब पांचहजार कुंभक कियों तब नागिनी जागी से ऊपर को चढ़ी तब चक्रके द्वार खुलिगयो तब आत्मातों दूलहहै सो चढ़िंके मौर जो नागिनीहै ताके माथेपर गैब गुझ्ामें बैठयो जाइ। बरातनमें मो नहीं कहिबेलायक इाठीबात से गारीमें कहेंहें इहां शरीरंमें बह्म ह्नैबो अकथहै कहिंबे छायक नहीं है।सो कहे हैं कि, हम बह्नहैगेय मड़ेय के चारनके नेग समधी देड्है: इहां मड़येके चारनके तेगनमें समधीही दीन्‍्होंहे मायाफी पिता जो मनहे सो एक समधीहे मनके समधी साहब काहेते कि, यहजीव मगवदवात्सल्यको पात्रहै लबयह आत्मा विषयनमें रहो है तब बेजाने कब॒हूं कहतहू सुनतरों जबते ब्रह्माड मड़वामें गयो तबते कबीरनी यहकूट करे हैं कि,मड़येके चारन में ' समधीको दैराख्यो है कहे समधी नो साहब ताकी कहिबो सुनिबों मिटिगयो। | से जनितो यह कि, हम मायाते छूटिगय पै नागिनीको नै बुन्दसुधा देहहे है वर्ष वहां समाधि छांगै है सो नागिनी ही वहां गोहरीख है सो पृत्र जो जीक़े सो माता नो मायाहै ज्योतिरुप आदिशृक्तिःताकी बिवाहि छेयेहे कहे वाहीर

“5. २७.६ [के 7

संग ज्योतिमें छीनहे के बहा रहे है ॥२॥ ढुल॒हिनि लीपि चोक वैठाये निर्भय पद परमाता भातहिं उलदटि बरातहिं खायो भली बनी कुशलाता॥श

चौक लीपिके दुलिहिन को बैठावै हैं। यहां दुलहिन जो है माया नो जगह! रूप करिंके नानारूपहै ताको छीपिके एक करिडास्थो कहे एक बह्मही माना भयो ताकें ऊपर चौकबैठायों कहें चोक देत भयो अर्थीव्‌ कर जो चैतन्य सो प्रमातृचैतन्‍्य कहावे है वृत्त्यवच्छिन्न जो चैतन्य प्रमाणचेतन्य कहावै है बिषयावच्छिन्न चैतन्य प्रमेय चैतन्य कहावे है। स्फूत्यवच्छिन्ननेतन्य स्फूत चैतन्य कहावै है ।सोये चारों वे चौकबैठायों कहे चोक प्रयो अथोव्‌ चारो चैतन्यकों एक करिंके स्थितक़िये। बिवाह होत होत मिनसार होइ जायहै तब यह मन भयों कि, हम निर्मए पदको पहुंचिगये प्रभात ह्वेगयो, मोहरात्री ब्यतीत ह्वैगई नागिनीकों ने अमृत सरोवर में अमृत पियावे है सोई भातहै सो नागिनी जब अम्रतपियों त| चहे भात बरात जो आगेबर्णनकरि आये पांचतत्त्व पचीसपकृति ताकोसईं

हे

शब्द (२५५९ )

लिया अर्थीत्‌ कुछ सुधि रहगई सो कबीरनी कहे हैं कि भी कुशलात बनींहे कि तब तो कुछसुषिह रही अब कछू सुधिनहीं रहिगईं पाणि ग्रहण भये भव मंव्यो सुषुमनि सुरति समाता। कहे कवीर सुनो हो संतो बूझो पंडित ज्ञाता वहां मंडप परे पर पाणिग्रहणहोयहै यहां पाणिग्रहणमयेपर भव मंब्यो अर्थात्‌ जब पाणि ग्रहण मायाको हे डुक्यो कहें नागिनी को जब सुधा पिआइ चुक्यों तब ने मुद्दे नागिनीकों पानी दियो तेसेहि फछ मिलल्‍यों एक मुंह दियो तो महीना मरेकी समाधि छगी दुइमुंहदियों तो तीन महीनाकी समाधि लगी चारे मंहदियों ती छः महीनाकी समाधि छगी. पांचमुंहदियों ते बर्षदिनकी, औछ:मुंहदियों तो तीन वर्षकी, औसातमुंहदियों तौ बारहवर्षकी, समाधिलगी और जो हनारनवर्ष समा छगावाचाहै ती और मुंहदेय सो जब नागिनीको सुधा पिजायो तब जे मुँह दियो तेतनेतदिन भर सुषुमाने सुराति समाता अर्थाव्‌ सुषुम्णामें नीवकी सुराति समाइहै | पुनि जब समाषि उतरी तब फिर भव मंव्यों कहे संसारी भयों अर्थाव पुनि ब्रह्मांड मंत्यो कि

हम

शर्रारकी सुधि भई से कबीरनी कहै हैं कि, हे संतों ! हे ज्ञाता पंडिती ! ५,

तुम सुनो तो बूझी तो वे कहां मुक्तमये ! नहीं भये फ़रेरि तो संसारही में डउलटि आवे हैं इति पर्चासवां इंब्द समाप्त |

अथ उदब्बीसवां शब्द २६ कोई विरला दोस्त हमारा भाई रे बहुतका कहिये गाठन भजन सवारे सेए ज्यों राम रखे त्यों रहिये॥ १॥ आसन पवन योग अति संयम ज्योतिष पढ़िं बेलाना छो दर्शन पाखंड छानवे येकल काहु जाना २॥

(६ २८० ) बीजक कबीरदास

आलम दुनी सकल फिरि आये कलि जीवहि नाहिं आना। ताही करिके जगत उठावे मनमें मन समाना॥ ३॥ कहे कर योग जंगम फीकी उनकी आसा।

रामे राम रटे ज्यों चातक निश्चय भगति निवासा ४॥

कोइ बिरला दोस्त हमारा भाईरे वहुत का कहिये

गाठन भजन सवारे सोह ज्यों राम रखे त्यों रहिये ॥१॥ कबीरजी कहे हैं कि, हें भाइड जीवी ! और और बहुत मतवारे तो बहुत जीव हैं तिनका कहा कहिये रामोपासक हमारों दोस्त नैसे हम गाढ़ भनन करिंके रामचन्द्र को देख रहे हैं ऐसे वह गाढ़ भजन करिके रामचन्दर की देख रहे जैसे हम को राम रास है तैसही रहे हैं ऐसे वह रहै हैं क्षणभरि भूले ऐसा कोई बिरला है आसन पवन योग श्रुति संयम ज्योतिष पढ़ि वैलाना छोद्शेन पाखंड छानवे येकल काहु जाना २॥

अब बहुत मतवारे जे बहुतहैँ तिनकों कहे हैं कोई आसन हृढ़ करैंहै कोई पवन साथेहे कोई योग करेंहै कोई वेद पह़ैँहे। कोई संयम करेंहे कोई ब्रत करेंहे कोई ज्योतिष पढ़े है सो ये सब बैकलाइ गये नो बैकल होडहै सो झूंठको सॉँच जानेहै साँच को झूंठ मनिह सो छःदर्शद छानबे पाखण्ड- बारे ने ये सबहें एकठ कहे एक स्वामी सबके परमपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं तिनकी जान्यो अथवा एकछकहे जौने करते मैं उपासना करौहों सो कोई नहीं जाने है आलम दुनी सकल फिरि आये कलि जीवहि नहिं आना। ताही करिके जगत उठावे मनमें मन समाना

आलम कहे दुनियां संसार सो सब जीव दुनियांमें फिरे आये गरुवां लोगनके यहाँपर या कल जोनेकरते में उपासना श्रीरामचन्दकी करों हों शो आपने जियमें . आनत भये जातेसंसार छूटिनाय साहब मिदं ने नानामत आंगेकहिआये ताही

झाब्द ।. (२६१ )

कारके जगवकी उठविंहै कि, जगत्‌ उठिजाय मरिहि जाइ। सो यह जगव्‌ वो मन रूपही हैं सो उनके मनमें मनरूप जगत समान्यो अर्थाव उनको मिथ्या कियो करिगयो अथवा धोखात्रह्म ताको मन कहे बिचार उनके मनमें समाई रह्ोहे ताही करिके जगव को उठाँवै है कि, जगव्‌ रहिजाई सोऊ उठयो कहेकवीर योगी जड़म फीकी उनकी आसा। रामे नाम रटे ज्यों चातक निश्चय भक्ति निवासा 8

सो कर्ब री कहैहें कि योगी जंगमन की सबकी आशा फीकी है काहेतें धोखात्रह्मके ज्ञानते संसार मिथ्यानहीं होइहै। जीवनके अह्महोबेकी आशा फीकी है सो नो रामनाम निशिवासर छेबहै जैसे चांतक एक स्वातीही की आशा करे है तेसे परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्फी आशा करेह ताहीके हृदयमें उनकी भक्तिको निश्चय के निवासहोइहै भक्तिरसरूपहे याते इनकी आशासरिसहै अथौव सफ्लेहे सोई संसार सागर ते उबरे है सो आगे रमेनामें कहिआये हैं “कहे कबीरते ऊबरे जोनिशिबासर नामहिलेव”

इति छब्बीसवां शब्द समाप्त

अथ सत्ताइसवां शब्द २७

भाई अद्भुत रूप अनूप कथा है कहो तो को पतिआई। जहँजहँ देखों तहँतहँ सोई सब घट रहो समाई १॥ लछि बिनु सुख दरिद्र विनु दुख है नींद बिना सुख सोवे जस विन ज्योति रूप बिनु आशिक रतन बिहना रोवे॥२॥ अ्रम विन ज्ञान मने विनु निरखे रूप बिना वहु रूपा। थितिविनु सरति रहस विन आनंद ऐसो चरित अनूपा॥३१॥ कंहे कबीर जगत बिन माणिक देखो चित अनुमानी परिहारे लाभे लोभ कुटब सब भजहु शारैंगपानी॥8॥

(२६२ ) बीजक कबीरदास

भाई अद्भुत रूप अनूप कथा है कहों तोकी पतिआई जहँजहँ देखों तहँ तहँ सोई सबधट रहो समाई जाति करिके सबजीव एकहीं हैं तातेनीवनकों भाई .कह्यो कि, हे भाई जीवो ! वे जे हैं प्रमपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनको अद्धुतरूपहै, अरू बहि रूपकी अनूपकथाहै सो में जो वाको दृष्टांत दैके समुझाऊंहों कि,बाको रंग दूबों दरूकी नाई है, अरसी कुसुमकी नाई, नी कमलकी नाई, तो येई सबमें भेदपर एक एककी तरह नहीं है बहतो मनबचनके परे है। ऐसेनाम रूप छीछा धाम सबहै बाकी तो कैसे समुझाऊं।काहेते जोमें वाकी समुझाइके कहों तो केसे कहो जो कहबऊकरीं तो कोई पंतिआय कैसे सो येहितरहकों जो याको रूपहै सो जहां जहां देखोहों तहां तहां वहैं रूप देखायहे काहेते कि, सबघटमें समायरद्यों है यहां सबधटमें समान्यों जोकह्यो ताते चितह अचितहू में समाइरहों यह- आयो जो ब्यंग्य पदा्थहे जीव ब्रह्म माया काल कम स्वभाव ताहीको सब देंखहै जो व्यापक पदार्थ है ताको कोई नहीं देखेंहै नो चितह अचितमें जो कहों वही धोखा ब्रह्मको तुमहं कहतेहो जो सर्वत्र फैलि रह्मो है तो वाकी कोई- नहीं कहतेंहें; काहेते कि, अद्वेतबादी कहे हैं कि, सब पदार्थ वही तह्मही हैं बाते भिन्न दूसरों पदार्थ नहोंहे हम कहैंहें कि, सबपदार्थ चिव्‌ अचिव्‌ रुपते व्याप्य है हमारों साहब सव्वञ्र ब्यापक है सो जाको विश्वास होइ ताकी वे साहब साकेत निवासी परम पुरुष श्रीरामचन्द्र सहजही प्रकट द्वै जायहैं। सो जो में कहोहों ताको नहीं प्रतीत करे हैं। चित जो है नीव बह्म ताहमें श्रीरामचन्द्र ब्यापक हैं तामेंपरमाण ओंयोवैश्ररिमचन्द्रोभगवान : द्वैतपरमानन्दात्मा यः परंत्रह्मेतिरामतापिन्याम!” जीवहूमें ब्यापकहैं तामें प्रमाण “यआत्मनितिष्ठन्‌ यआत्मानं वेदयस्यात्माशरारमिति”” मायादिक: सबमें ब्यापक हैं तामेंगममाण ॥. “यस्यभासासबंमिदंविभातीतिश्राति”

लऊछि बिनु सुख द्रिद्व बिनु दुख है नींद विना सुख सोवै॥ जस विनु ज्योति रूप विन आशिक रतन बिहुना रोवे॥२॥

शब्द ( २६३ )

कैसे साहब सत्र पूणहे सो बतावैहें छाछिेबिनु सुखकहे जो पदाथे प्रत्यक्ष नहों होइ है तामें सुखनहीं होइहे देखो तो नहीं परै है साहब पे जो कोई स्मरण करे है सेत्र ताको सखहोयहै | साहबकी कीनों बातकों दृरिद नहीं है जो चाहे सो करिडारे समर्थहै परन्तु नानाजीवनकों अज्ञानमेंपरेदेखिंके साहिबोको यही दुःख है कि, मेरे अंश जीव माया में परिके नरक स्वगे जाय हैं काहेते यहदुःखह कि, साहब अतिदयाहुह तार्मेपमाण ताव- त्तिउ्ठतिदु:खीवयावद:सं नाशयेव्‌ सुखीकृत्यपरानभक्तानस्वयम्पदचात्सुखीभवेव इति'” ध्वनि यह है कि.साहब दयालु हैं ते स्वेत्न पूरणैं यह बिचारिके कि जीव मोको जहैं स्मरणकरे में तहैं उबारिलिड फिरिकेसो साहब है कि; मोहनिदा नहीं है सदानगै है अपने भक्तनकी रक्षाकीरेबकी ऐसेह साहबके सम्मुख नो जीव नहीं होइहें तिनकी और सदा सुखमय साहब सोवे है अथीव्‌ कबहूनहीं देखैंहे फिरकैसो साहबहै जाकी ज्ये।ति जो ब्रह्म हे अर्थात्‌ जाको छोकप्रकाश जो है ब्रह्म सो बिना कौनो कये है वा कौनो छीडेकियो अकथहै ऐसे साहबके बिना रूपमें आशिकभये साहबको ज्ञानरत्र विहीना जीवसस्र में

को, ओर

जनन मरण पाइपाइई रावहू

अ्रम बिनु ज्ञान मने विनु निरखे रूप विना वहुरूपा थिति बिनु सुराति रहस बिनु आनंद ऐसो चरित अनूपा॥श॥। कहे कबीर जगत बिन माणिक देखो चित अनुमानी

परे हरे लामें लोभ कुटुब सब भजहु शारंग पानी॥४॥

फिर कैसोहै साहब श्रर्माबनाहै अर्थात्‌ कबह मायासबलित हैंके जगवमेंही उत्पत्तिकेयों सदा ज्ञान गुण सदा ज्ञान स्परूप है तोनि साहबको मांने बिना निरखै कहे बिता हैके हेस स्वरूप पाइकै तें देखे कैसे हैं साहब कि, चित आचित जेरुपहें तेहि बिनाहें अर्थात्‌ ये स्पश नहों करिसके हैं औचिव अविवंके शरीरी है बहुत रुपी हैं सब उन्हींके रूप फिरि कैसेहैं जब साहब सुराति दीन

है तब जीवन की स्थिति भई है। सुरति नहीं है साहबकी स्थिति वा छोक शा$ जे किन कि &2५० + में बनी है। आनंदजो मनबचनमें आवे है सो नहीं है वहां आनंद बनों

(२६४ ) बीजक कबीरदास है। ऐसे साहबके अनूप चरित हैं | अर्थात जो रहस कहिआये सोऊ मत बचनके परे है सो कबीरनी कहै हैं कि, नोबित्तमें अनुमानकरि देखो तो यावव्‌ उपासना ज्ञान तुम करो हो, जगत्‌ मुक्तिर्प माणिक काहते मिलेगी | ऐसी मुक्तिके छाभ को छोमत्यागिकै सब कुटुंब जे गुरुवालोग

हु को

तिनकों त्यागेके शारंगपानी कहे धनुषफों “नहें साहब तिनको काहे नहीं भजीही भर्थाव भनी ३॥

इंति सत्ताइसवां जब्द समाप्त

अथ अद्गवाईसवां शब्द २८॥

भाई रे गेया एक विरंचि दियोहे भार अभर भो भाई नो नारीको पानि पियतिहे तृषा तऊ बुताई॥ कोठा बहत्तारे लोलाये बच्च केवॉर लगाई। खूंटा गांड़ि डोरी हृढ़वांधो तेहिवो तोरि पराई॥ २॥ चारि वृक्ष छो शाखा वाके पत्र अठारह भाई। एतिक ले गेया गम कीन्हों गेया आति हरहाई सातो अबरण हैं साती नो चोदह भाई एतिक गेये खाइ वढायों गेया तो अघाई खुटामें राती है गेया रवेत सींग हैं भाई। अवरण वरण कछ नहीं वाके मक्ष अभक्षे खाई «५ ब्रह्मा विष्णु खोज के आये शिवसनकादिक भाई सिद्ध अनंत वहि खोज परेहें गेया किनहुं पाई

कहे कबीर सुनो हो संतो जो या पद अरथाॉइ |

जो या पद्‌ को गाइ विचरे हे आगे है तरिजाई॥ ७॥

झाब्द ( २६५ )

रे + हर बा र्‌

भाई रे गेया एक विरंचि द्योहे भार अभर भो भाई

नो नारीको पानि पियति है तृषा तऊ बुताई॥

हे भाई जीवों! एक बाणीरूप गैया तुमहीं सबको बिरंचि जे बल्ाहें ते दियों हैं।सो गेयाको जो तातपये दूधहै ताको तुम पायो गैयाकी भारा अभर ड्वैगयो तुम्हगें सैभारों सँमारिगयों अथोत्‌ जोनों बाणीमें विधि निषेध लिखे हैं सो तुम्हारो कियो एको नहीं है संकेंहै सो ये मायिक विधि निषेध तो तुम्हारे किये है नहोंसकेहे वाणी जो तात्पर्य बृत्तिते बतावैंहै सो तो अमायिकहैँ कैक जानोंगे! वह गेया कैसी है सो बतौवहें नो कहे नवो ने व्याक- रण हैं तिनकी नो नारी कहे राहहै तिनकर नो शब्दरूपी जलहै ताको पियें है अर्थात्‌ वोहीके पेट्ते वेदशाखत्र सब निकसे हैं वहीके पेटमें हैं ते शाख वेद वोही नवो व्याकरणके शब्दरूपी जरूते शेधे जायह अथीव वहीं बाणीमें जछ समाहहै परन्तु तृषा तबहं नहीं बुझाईहै कहे वोही नवों व्याकरण कारिके शोपेंहे शाखार्थ करतही जायहै बोध नहीं होइहे कि, शुद्ध्वेंययों पुनि मरणीतन

# 5 आर,

में आषे कहिदेयहै

: कोठा बहत्तरि लोलाये वच्र केवॉर लगाई खूटा गाड़ि डोरी दृढ़ बांधो तेहिवो तोरि पराई॥ २॥ पातंजछ शाखत्रवाले वही गायत्री गेयाकी बांधन चद्मों बहत्तरिड कोंठाते छोलगाइके कहे श्वास खैंचिके खेचरी मुद्राकारे पेटीके ऊपर बचत कपाट जो लग्यो है ताकों नीमते टारये। तब वहां अमृत श्रवों तब नागिनी उठी श्वासाके साथ ऊपरको चढ़ी ताके साथ आत्मी खूंटा नो बह्मांडहै ब्रह्मज्योति तहां पहुच्योनाई सो ज्योतिरूप बह्मखूटोहे तामें प्रणागिनी जो गैयाहै ताको बांध्यो तेहिवो तोरे पराई कहे जब समाधि उतरी तबफिरि जसकोतस संसारी है गयो नागिनीशक्ति उतांरभाइ पुनि जीवनको संसारमें डारिदियों *

चारि वृक्ष छो शाखा वाके पत्र अठारह भाई। एतिक ले गेया गमकीन्हो गेया तउ अचाई॥

( २६६ ) . बीजक कबीरदास

पातंजल शाख्त्रमें योंगक्रियाहै सो कायाते होयंहे ताते अछग कह्यो अब सब मेटिके कहे हैं चारि वेदनेहें तेई वृक्षेद छट्टड शाखने हैं तेई शाखहें अठा- रहौपुराण पत्रहेँ सो एकलेक्ह यहां छगे। गैयागमनंके जातभई कहे प्रवेश कैनातभई सो गैया बड़ी हरहाद है अथीत जहां जहां आरोपकियो तोन तौन वह खाय छियो भर्थाव्‌ नौन जोन आरोप कियोंहे तोन वाके पेटत बाहर नहीं है भीतरहीहै

सातो अवरणहें सातो नो चोदह भाई।

एतिक गेया खाय बढ़ायो गैया तउ अधाई ४॥

सातों जे कहिआये छःचक्र सातो सहसख्तार जहां ब्रह्मज्योतिम जीव- को मिलवैहे अरु साती आवरणनेहैं पृथ्वी अप तेंन वायु आकाश अहंकार महत्तत्व अथवा साती बार काल अरु नो खंड जे हैं अरु चोद्हो भुवन ने हैं सोई सबनकी गेया खाइके बढ़ाई डारयो तऊ अघातभई अर्थात्‌ सब बाणीमय ठहरे

खूंटा में राती है गैया रेत सींग हैं भाई। अवरण वरणकछू नहिं वाके भक्ष अभक्षो खाई «५ ब्रह्मा विष्णु खोजक आये शिव सनतकादिक माई।

सिद्ध अनंत वहिखोज परे हैं गेया किनहुं पाई ६॥

सो वह गैया खूंटा जो धोखाबल्नहै तामें राती है अथीव्‌ ब्रह्म माया सबालि- तहै अरु वहि गैयाके सींग इंवेत हैं कहे सतोगुणी हैं सोई ब्रह्म बांविबों है अबरण कहे असत्‌ बरण कहें सव्‌ वाके कोई नहीं है अथीव्‌ सत्‌ असदते विछक्षणहै अथवा अबरणकहे नहीं है बरण जाके निरक्षर अन्न नाम रुपादिक नहीं है जाके जो वरणकहे अक्षर बलह्ल जीव ईंदोनों नहीं है वाके अधोद्‌ ईंदोनेतिं विछक्षणह मश्ष अभक्षो खाइहै कहे कर्म करावन छाय- कहे सो करावेहें जोकम करावन छायक नहीं है सोऊ करावैहै अथीव विद्यारुपते शुभकर्म करावेहे सो वाकी शिव सनकादिक ब्रह्मा विष्णु महेंश

शब्द ( २६७ )

कल

अनन्त सिद्ध खोन मरे पै गैयो कोऊ खोजे पायो कि, सद्‌ है ।कि, असद्‌ है तातयेऊ जाने ६॥

कहे कवीर सुनो हो संतो जो या पद अरथाई

जो या पदको गाइ विचरि है आगे हें तरिजाइ श्री कबीरनी कहै हैं कि, हें संतो ! सुनो जो यह पदको अर्थ है कहे अथे

बिचारे है जोन पद हम बर्णन करिआये सब ब्रह्माण्ड सप्ताबरण आद्दिदेके

इक

ज्ञेपदर्द कहे स्थान तिनकी जोकफोई गाइ कहे मायाकों रूपही बिचारेंगो कि

कक को जे ऐप बिक जैके 8. को कर का लि यहां भरतों मायाही है सो मायाके आगे हैँके साहबकी छोक बिचरेगों सो तरैगो 3

इति अटद्ठाइसवां दाब्द समाप्त

अथ उन्तीसवां शब्द २९॥ भाई रे नयन रसिक जो जागे। परतह्म अविगत अविनाशी केसेहु के मन लागे॥ १॥ अमलीलोग खुमारी तृष्णा कतहुं संतोष पावे काम कोध दोनों मतवाले माया भरिभरे प्यावै॥२ ब्रह्म कलारचढ़ाईन भाठी ले इन्द्री रस चाखे। सँगहि पोच है ज्ञान पुकारे चतुर होइ सो नाखे संकट शोच पोच या कलियों वहुतक व्यापि शरीरा। जहँवांधीरगभीर अतिनिर्मल तहँरठि मिलहु कवीरा॥४॥ यहां अब मायाकिेपरे जे साहबहें तिनको बतावै हैं भाई रे नयन रसिक जो जांगे। परबह्म अविगत अविनाशी केसेके मन लछागे

( २१६८ ) बीजक कबीरदास

सी है भाइड ! नयन रसिकजोंहे संसारी चर्म चक्लुते भिन्नभिन्नदेखि विषयरस रें सो जो जाने कहे मुम्नक्षदों_ तो बह्मके पार अबिगत कहे बिगत नहीं सत्र पूर्ण अबिनादशी कहे जाको नाश कब॒हूं नहीं होईहे ऐसे नें प्रम परपुरुष श्राशमचन्द्र हैं तिनमें कैंसैके मन छांगे जो केसेहुके पाठहोय तो यहँ अर्थ है जो कैसेहुकै मन छगबो करे तो बीचमें बहुत अवरोधहेँ २१ वि अमली लोग खुमारी तृष्णा कतह संतोष पावे। किलर बिक (४ $ण [

काम क्रोध दोनो मतवाले माया भरिमभरि प्यावे २॥ सबलकोंग अमली हैं विषय छांड़ये पेतृष्णाकी ख़मारी छगी है अरु कहूँ संतोषको नहीं पावै है। फिरि काम मत नो कोकशाखादिक कोधमत जो

मुद्राराक्षसादि ग्रन्थनमें प्रतिपाद्य ने मरतहै तेई प्यालाहं तिनकी काम कोध रूप जो मद सो माया भारिभारे उन को पिभावे है

ब्रह्मकलार चढ़ाइने भाठी लेइन्द्री रसचाखे। संगहि पोच होइ ज्ञान पुकारे चतुर होइ सो नाखे॥३॥

प्रथम तो काम कोधादिकनते जागन नहीं पावैहै जो कदाचित जाग्यो तो ब्रह्म जो कछारहै ने अहंब्रह्म बुद्धि करे है गुरुवालोग ने भाटी चढ़ाइन ज्ञान सिखवे लगे कि तुहीं अह्नहै ताहीं में इन्द्रिकको डैकरिके अहंब्रह्मास्मिकों रसचाखन रूग्यो अथीव ब्ह्ानंदकों अनुभव करनरूम्यों नो मदपिये है ताको ज्ञान भूछि जायहै यहै कहेँहै कि मैहीं मालिकहों सो नो गुरुबाकोगन को संगकियों ब्रह्मानंद -पानकिये सो में साहवकोहों यहअक्क भूलिगई वहीं गुरुषवा छोंगनको ज्ञानदियों

का आर कीच

पुकारन रुग्यो के मैहीं अह्नहों।पर नो चतुराहाइ सो बिष्ननकों नाकि जाइहै॥ ३॥

संकट शोच पोच या कलिमों बहुतक व्याथि शरीरा। जहँवां घीर गंभीर अति निर्मल तहँ उठि मिलहु कवीरा॥४॥ पोचकहे अज्ञानी जे जीवहें तिनकी यहि कह़िमें कहे माया ब्रह्मके झग- ड़ामें बहुतसंकट शोचे व्याधिशरीर को है सोजहां अति धीर है कहे चला- यमान नहीं है निरचछपद है गेभमीर कहे गहिरहे निर्मेठ कहें माया

शब्द | ( २६९ )

ब्रह्मकों छेश नहीं है सो हे कबीर ! कायाके बीर मायाव्ह्मके तुम परे हों ठहांते उठिके कहे मायात्रह्मके विन्ननते निकासेके साहबकी मिली तबहीं तिहारों जनन मरण छूटेगो

इतिडर्न्तसवां शब्द समाप्त

अथ तीसवां शब्द ३०

भाई रे!दुड जगदीश कहांते आये कह कोने भरमाया अछ्ाः राम करीम केशव हारे हजरत नाम घराया॥ गहना एक कनक ते गहना तामें भाव दूजा। कृहन सुननको दुइ कारे थापे यक निमाज यक पूजा॥२॥

वही महादेव वही महम्मद ब्रह्मा आदम कहिये। कोइ हिंदू कोइ तुरुक कहांवे एक जिमीं पर रहिये वद्‌ किताब पढ़ें वे खुतबा वे मोलना वे पांड़े बिगत विगतके नाम घरायो यक माटी के भांडे कह कबीर वे दूनों भूले रामाहिं किनहं पाया। वे खसिया वे गाय कटावें वादे जन्म गैवाया «५

अब यहां यह बर्णन करे हैं कि दूसरों जगदीश नहीं है परमपरपुरुष जे श्रीरामचन्द्हें तेई जगदीशहें

भाई रे ! दुइ जगदीश कहांते आये कहु कोने भरमाया अछाः राम करीम केशव हरि हजरत नाम चघराया गहना एक कनक़ते गहना तामें भाव दृजा।

कहन सुननको दुहकरि थापे यकनेवाज यकपूजा २॥

श्रीकबीरनी कहे हैं कि, हे भाइउ ! दइजगदीश कहते आये तोकों कौनें भरमायो है अल्छा राम करीम केशव हरि हजरत ये तो सब नाम॑भेद हैं

(२७० ) बीजक कबीरदास

कि

कहत तो एकही को हैं ॥१॥ जैसे एक गहना को सुवर्ण तें गहना कहे गहिलिई कहे सुवर्ण बिचारिलि तामें भाव दूजा नहीं है वह सुवर्ण है जैसे कोई चूड़ा कोई बिन्तायठ इत्यादिक नाम कह हैं परन्तु है सुवर्णही तैसे कहिबे सुनिबेकी दुइ करि थाप्यों यक निमाज्ञ यक पूजा परन्तु है सब साहबकी बंदगीही परम परपुरुष श्रीरामचन्द्रही को सेवे हैं क्‍

वही महादेव वही महम्म॒द ब्रह्मा आदम कहिये। शी 4० पी... कोइ हिंदू कोइ तुरुक कहावे एक जिमीं प्र रहिये ३॥

वोहीं परम परपरुष श्रीरामचन्द्रकों महादेव महम्मद्‌ ब्रह्मा ओऔ आदम सब कहिये कहे कहतभये कोई राम कहिके कोई अल्छाह कहिके कुरानमें लिखे है कि सब नामनमें अल्छाहनाम ऊपर है यहां वेद्पुराण में लिखे है कि सबनामनमें रामनाम ऊपरहै तामें प्रमाण सर्वेषामपिमंञ्राणांरा- भमंत्रेफडायिकम्‌ ?” इति सहस्तनामतत्तुस्यंरामनमावरानने ”' यातें सबके मालिक परम पुरुष श्रीरामचन्द्रही जगदीशहैं दूसरो जगदीश नहीं है उन हींके अल्छाहनामकी सब नामनते परे महम्मद कुरानमें लिख्योह उनहीं नाम को महादेवने तंत्र लिख्योहं ब्रह्मा वेद्मे कहतभये आदम किताबमें कहत- भये भरु इहांतो एक जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्हें तिनहीं के जिमीमें कहे जगवमें रहत भंये नामके भेदते कोई हिन्दू कोई मुसलमान कहावै है

ही कक पाप $ बेद किताब पढ़ें वे खुतुबा वे मोलना वे पांड़े। क्र | वि या 5३७.

विगत विगतके नाम्‌ घरायो यक माटी के भड़ि

निनके पोथी जमा होयहें ते कहावें ख़तुबा वे बेदपुराण जमा कैके पढ़ेंहें वे किताब जमाकैंकै पढ़े हैं वे पंड़ितकहावे हैं वे मोलना कहावै हैं वेद पढ़िंके पंडित किताब पढ़िंके मोलना कहावें बिगत बिगत कहे जुदा जुदा नाम धराय छेते भये हैं एकई मार्टकेंभांड़े कहे हैं सब पांचमोतिकही हैं

हा दूः नों महिं #0.. $. कह क॒वीर वे इनों भूले रामहिं किनहूँ पाया। वे खसिया वे गाय क॒टावें वादे जन्म गवाया

झाब्द ( २७१ )

श्रीकवारणी कहेहें कि हिंदूतो बोकरा मारिके मुसलमान गायमारिके नानाम- कारके बाद विवाद करिके अथवा बादेकहे वृथाही दोऊ भूछिके जन्म गँवाइ दियो परमपुरुष पर ने श्रीरामचन्द्र तिनको पावत भये हिन्दू तुरुकके खुद- खाविंद एकई है कोई विरले जॉनेंहं ते वहां पहुँचे तामें प्रमाण झूलना “छोड़े नासूतमछकूत जबरूत छाहत हाहूत बानी और साहूतराहुत इहांडो- रिंदेकाद आहत जाहूत जाजी जायजाहूतमें ख़ुदखाविंद जहँ वही मकान साकेत साना। कहे कव्वीरह्ां भिस्‍त दोनख थके वेदकीताबकाहुतकाजी”?॥ ५॥

इति तींसवां हाव्दसमाप्त

अथ इकतीसवां शब्द ॥३१॥ हँसा संशय छूरी कुहिया। गेया पिये वछरुवे दुहिया१ ध्रघर सावज खेले अहदेरा पारथ वोट लेई पानी माहिं तठफिंग भूथारे घूरि हिलोरा देई २॥ घरती वरसे वादल भींगे मीटभया पेराऊ हँस उड़ाने ताल झुखाने चहले बीचा पाऊ॥ जो लगि कर डोले पग्नु चलई तो लागे आश कीजै कह कवीर जेहि चलत दीखे ताम्ुुवचन का लीजै॥४॥

हंसा संशय छूरी कुहिया। गेया पिये वछरुवे दुहिया१ घरचर सावज खेले अहेरा पारथ वोट लेंई

पानी माह तऊूफिगे भूथुरि थूरि हिलोरा देई २॥ कबीरजी कहे हैं कि हें हंसा! संशयरूप छूरित मारिगयो तोको उलटें ज्ञान'

8 कट 8

है गया बछरुवा जो है तेरोस्वरूप और ज्ञानरुप जो है दूध ताको गैया जो, माया सो दुहिके पीछियों सावन जो या मनहै सो घरघरमें कहे शरीर

( २७२ ) बीजक कबीरदास

शरीरमें शिकारखेलेहे पारथ कहे शिकारी जो तें सो उपासना नानाज्ञान करत फिरे है पे मन तोको नहीं छोड़े है साउज ते नहीं बचैहै। वाणी रूप जो है पानी नानाशाखत्र तोनेमें( भूभुरि जोसूर्यनके तापते तपित भूमि होयहै सोभूभरि कहावे है; ऐसे संसार तापते तपितनो)तेरा अंतःकरण सो तछूफिगयों अर्थात्‌ अधिकअधिक श्रम होतभई तिनते आधिकतप्त भयो शीतछू भयो काहेते कि, धूरि जो सूखा बह्मज्ञान सो हिछोरा देनलग्यों कशाखनमें वही

धोखा ब्रह्मही देखपरन ठग्यो। शाख्वनकी तातपये साहब तिनकी जान्यो॥२॥ धरती बरषें बादल भीजे भीट भया पेराऊ

हंस उड़ाने ताल सुखाने चहले वीचा पाऊ॥

बुद्धिनोंहे सो धरती है कहिते सब मतनकों आधारयहींहे बाणारूप पानी बरसे है कहे नानामतनकों निश्चय कैंकै प्रकट करे है अरु यह बाणी जीवेंही ते प्रथम निकसी है सो जीव बादल है सो भीने कहें वोई मतनकों ग्रहणाकियों यह छोकोत्तिहे कि, फछाने फलानेमें भीजिरहे हैं कहे आसक्त हैरहे हैं भीट चारो वेदहैं मयोदाते पैराउद्बैगये कहे उनकी थाह कोई पावतभयों अर्थांव्‌ तात्पय कारके जोपरमपुरुष श्रीरामचन्द्रकों वर्णनकरेहै सोकोई पावतभयों ताल सूसे हंस उड़ैंहे यहां हंसउड़े तालसूखे हैं जब हंस डड़ो कहे यहजीव निकसिगयों तबतालछ जनोशरीरहें सोसखि गयो तब बासना नेहैं तेई चहला हैं तिनमें पँउ बँपिरहों जैसे तठाड जबसखेड पुनिचौमासेमें जब जल बरस्यो तब जप को तस॒ द्वैगयो, तैसे बासनामें पँउफँँसिरहोहै दूसर शरीर जब पायो तब फिर वहीं शरीरमें तलाउमें हंसदटीव बड़न उतरान रूग्यो है। सो भाव यह कि, उड़नको तो करे है पर शरीर तालते अंते नहीं

कु आस #- आज ७.6

जाइ सकैंहै कोई योनियैमें रहे है

जोलगे करडोले पगचलई तोलगि आश कीजे |

कह कवीर जेहि चछत दीखे तास वचन का लीजे॥४॥ जबलग पाँड चलहे करडडे है कहे शरीर बनोहै तबछगि गुरुवालोगनकी

आप के

आश करिये जो आश करेंगो तो याहीभांति बँधि रहेगो सो कबीरजी कहें

यलिइहे अर्थाव नाना

22 >> कर,

शब्द | रे७डईे )

हैं जे गरया हू नाना परदाथनमें आश छगाइ देइह तिनहिंति नहों चलढत वन है ता तिनकों कंद्मयों वचन केसे कीजिये कहे केस मानिये !? अर्थात्‌ उनके यहां ज्ाइये काहते कि, थे साहबकी भलाइके आओरे में छगाइ देईगे संसार

8 छा. पी प्रशोषिी

हा फसा रहगा याम वाच यहह कि. जे ससारत है रामांपासकह तनह! का वचन गमानय तनहा के यहा जाइय | || इति इकतीसयां राबद समात

बत्तीसवां शब्द ३२

हंसाही ! चित चेतु सवेरा।इन्ह परपच करल वहुतेरा ॥१॥ पाखंड हूप रच्यो इन्ह तिरग्गुण यहि पार्खेड भ्रूछ संसारा वरकीखसम वधिक भो राजा परजा कार्ी करे विचरा॥२॥ भक्ति जान भक्त कहावे तजि अछ्त विष केलिय सारा!

गे बड़े ऐसही भूले तिनहं मानल कहा हमारा ॥३॥ कहल हमार गांठी बांधो निशि वातर हि होह हशियारा थे कृलिके गुरु वड़ परपंची डारे ठगोरी सब जग मारा॥8॥ वेद किताव दोय फंद पसारा ते फंदे पर आप बिचारा कह कवार ते हंस [विछुड़े जाहेमे मिटियी छोड़ावनहारशू<

हसाहा चतचंतु सबरा | इन्ह परपंच कूरल बहतेरा ॥१॥ पाखडरूप रच्या इन्हे तिरशुण ताह पाखंड भूल संसारा | वरका खसम वाचक भी राजा परजा का वी कर, विचार

हे हसा जीवों | सबरेते कहे तबहींते चित्तमं चेतकरों | सबेरेते कह्मों ताको भाव यहहे कि, जब काछ नियराइ आवेगो तब ककछू करत बनेंगे!

तिहारे फांसिबिके यह माया बहुत परपंच कियो है पहिले पासंड

(२७४ ) बैजक कवी रदास

रूप जो वह धोखात्रह्म है ताकी रच्यों तामें मिलिके तिरगण जे सत रत्न तम

हैं तिनका तिहारे फांसिबकों प्रकट कियो सो तीनों गुणामिमानी जे तीनों देवता हैं अरू पाखंडरुूप जो धोखा ब्रह्म है तामें सब भूलिगये घरको खत्म जब खीको बधिक कहे दुःख देन लाग्यों मारन लाग्यों तब खो कहा करे तेते नो राजा प्रभाकी बधिक कहे मारन छाग्यों दुःख देन लाग्यो तब बिचारे प्रजा कहा करें | सो यह मनते सबको मालिक है रोहै सो यही जे| सबको दुःख देन लाग्यो ते। जीव कहाकरे

भक्ति जाने भक्त कहावे तजि अमृत बिष केलिय सारा।

8 0 हल $ आगे बढ़े ऐसही भूले तिनहुँ मानक कहा हमारा॥ २॥ भक्तिको ते जाने नहीं हैं भक्त कहे हैं अम्त जो है परमपर पुरुष श्रीरामचन्द्रको भाक्ते ताको छोड़िके विष जो है और और की भक्ति ताको सारमानि- छियेंहै सो आगे मे बड़ेबड़े द्वेगये हैं तेऊ ऐसेही भलिगये हमारों 8 हा चर,

कहा नहीं मान्यों साहबकी भाक्ते छोड़िके ओर की भाक्ते करिंके संसारही में परतमये

कृहल हमारा गांठी वँधो निशि वासरहि होहु हशियारा।

ये कलिके गरु वह परपंची डारि ठगोरी सब जग मारा९

सा हमारा कहा गाठबादा जा अबह हमारा कह्मा ने मानाग साहबकों

भाक्ते करेगे तो संघारही भें परोंगे | कलियुगके ने गरुवा हैं ते बड़े पर-

पचा 6 सब जगका ठगारा कह ठगिके प्रमपुरुष प्र जे आरामचद्धह तनकां का. अप हा हा.

भाक्तका छाड़ाइक जार आर मतनस डारदंहहे | सा नोशबासर हाशयार रहा

अथात्‌ वाशबासर रामतामका स्मरण करतरहा साहबका जानतरहां गुरुवा छागनका कहां मानों

वेद किताब दोय फंद पसाराते फंदे पर आप विचारा।

कह कवीर ते हंस विछुरे जेहि में मिलो छोड़ावन हारा«॥ वोई जे गुरुवाछोगह तेये बेद्‌ किताबकों फंदा पसारि के नाना मत में गुरु आई फरतभय सा वहीफंदमें आप परतभये आरह को वहीफंदमें डारैके नानाम-

7

244

छाब्द (२७९५ )

लनमें छगाय देते भये वेद किताबों तात्वय्य ने जानतभयें से कबीरजी

कहेंह कि, जोते जीवरी मे फंदेत छोड़ावनहार मिल्योहों परमपुरुषमें छगाइ

दियो ते आनलों नहीं विछरे विछरंग।सा तमहं पारिखकरिके मेरोंकहों मानिके

हे हसनीवो! तुमह फंद छोडि परमपुरुष परनेश्रीरमचन्द्र हैं तिवमें छगो ॥५॥ इति वत्तीसवां शब्द समाप्त

अथ तेंतीसवां शब्द ३३ हंसा प्यारे सघर तेजे जाय जाहे सरवर विच मोतिया चुनते वहु विध काले कराय सूख दाल पुरहन जल छांड़े कमल गयो कुभमिलाइ।

कह कवार जा अवका वछुर वहार मिल कव आइ॥

है प्यारे हंत ! सरवर जो शरीरहेँ ता तेने जाय कहे जिनके शरीर छूटि- जायेहें जीने सरवर शरीौरकों पाग्रहोइके मोतिया चुने हैं कहे ज्ञान योगादिक साधन करिंके मुक्तिकी चाहकरे हैं बहु बिधिकी केलि करे है। जो त्याने पा|ठहोय तो या अर्थ है। हे हंसानीव ! प्यारों नो सरवर शरीर ताको त्यागे जायहे जोन सरवर शरौोरमें नाना देवतनकी उपासनारूप मोती चने नाना विषयनकों भोग कीन्हे सो छोड़ेनायहँँ सोशरीररूपी ताल जब सख्यो

+

कहे रोग करिके ग्रस्तमयों सब पुरइनि जरू छोड़ि दियो अर्थात्‌ वह ज्ञान बुद्धि तुम्हारे रहिगयो अरु अनुमव ते तुमकरतहे सोई कमलहै सोकुं- मिलाइगयों अर्थीत्‌ भूलिगयों सो कबीरजी कहै हैं कि, यहि तरहते नो अबकी

बिछरे कहे शरीर छूटिनाय तब पुनि कब ऐसो शरीर पविगों। चौरासीछाख शी आओ

योनि भटकेंगो तब फेरि कबहू जैसे तैसे मिलेगो शरीर छूटे ज्ञान योगादिफ साधन

[4

भूलिनाय हैं तेहिते मानुष शरीर पायके साहबकों जनि वह शरीरह छूटे

| आओ

नहीं भूले है काहेते कि साहबही अपनो ज्ञान देहहै हंसस्वरूप देइहे | इत ततासवां रब्द्समाप्त |

3

( २७४६ ) न्‍ीजक कबीरदास ।॥

अथ चोतीसवां शब्द ३७

हरिजन हंस दशा लिये डोलें।निर्मल नाम चुनी चुनि बोलें मुक्ताहल लिये चोंच लोभावे।मोन रहे की हरि गुण गावे॥२॥ मान सरोवर तटके वासी।राम चरण चित अंत उदासी ॥३॥ काग कुबुद्धि निकट नाहें आवीप्रति दिन हंसा दशेन पावे8॥ नीर क्षीरकोी करे निवेरा!कह कबीर सोई जन मेरा «

जे साहबको नहीं जाने हैं तिनकों कहिआये अब ने साहबकों जाने तिनकी दशा बहे हैं वश है हारे जन हंस दशा लिये डोलें।निर्म नाम चुनीचनी वोलें

हरिजे.परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्रहें तिनके जे जन हैं ते हंस दशा जो शुद्धनीव पाषेद रूपता तोनी दशाको लिये सर्वेत्र डोहे हैं कहे फिरे हैं | यहां जो क्यों ताका हेतु यह है कि, अपने भक्तनकी सिगरी बाधाहरे सोहरि हवे है सो परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र उनकी सिगरी बाधा हस्लिइहें तब तेनके जन सुख पूर्वक संसारमें फिरे हैं, उनको संसार स्पर्श नहीं करे है ! अरू जो नाम माया सवाछित है तिनको छोडिदरहे निरमेठ जो नाम राम नामहे मत बचनके परे अमायिक ताको चुनिचुनि कह साहव मुख अर्थ ग्रहण करिके संसारमुख अर्थ छोडिके बोले है कहे रामनाम उच्चारण करे हैं। यहां मनबचनके परे जो नाम है ताको कैसे बोले हे

20) रु 5) 2 थ्त

-4!

है ऐसो जो कहो तो ये हंस दशा- लिये डोले है कहे जब शुद्ध जीव रहिजाय है तब साहब अपनी इन्द्रिय देह्है तिनते तोने नामको बोले है। जैसे समा नरिजायहै तब वाकी ऐँठनभर रहिजा-

इईंहे तेसे यहशरारकी आकृतिमात्र रहि जाइहै वह पाषेदही शरीरमें स्थितररेंहै जब शुद्ध शरीर है जाइहै तब आपनो पार्षदरूप पविहे यह आगे छिखि आये हैं॥ २॥ आप बिक विश कर कु नर श्र कि रे मुक्ताइलालय चाचलाभाव। गमानरह का हारशुणगाव॥२॥। हंस मुक्ताहल चोंच में लिये बच्चनकों छोभावे है जोन मांगे है ताके मंहमें डारिदइह ऐसे साधुनके मुखम पांचमाक्तेहे सामीप्य * सारूप्य

सायुस्य सोछेक्य झाप्ट्य तिनते जीवकों छोमाते हैं कहे संबर यह जाने है कि इनहींकी दई देनातहे। जो नोनम॒क्तिकी चाहकरिके उनके समीप जाईहे ताको श्रीरामनामके उपदेश कारिके तोन भाव बताइके मुक्ति देहह आप मौनही रहै हैं कि, स्ाहवके गुणगाइके छके रहेंहँ |

कप है #

हंस नेंहें ते मानमरोवरके तथ्केवासी हूं अरु वे के पर भेन्न हे

/ ९)

बकी दोन ऐसाना चितमात्रआापनो: स्वरूपहे ताकोी परमपुरुष श्रीरामचन्डरहें तिनहींके चरणनमें लगाई राख अरुअंत उदासी कहें जो वह धोखा बह्ममें अंहं ब्रह्मास्मि मानिके आत्माकों अंत है जाइहै आपे ब्रह्म मानिलेइहे वहनो है आत्मा के अंत दैबेको मत घोखा तेहितें उदासी कहे उदास है रहेहें अथवा अंतनों है रुंसार तांते उदास रहहें काग झुबुद्धि निकट नाहिं आवे। प्रतिदिन हंसा दर्शन पावि७ नीर क्षीरकों करे निवरा | कहं कवीर सोई जन मेरा ॥५॥ तिनके निकट कागरुपी नो कुब्राद्धे यह अश्ञान सों निकट नहीं आंबै है ती और मत केसे आवै सो कबीरजी कहै हैं कि यहि भांतिनो चले है सो हंसशुद्धनीव प्रति दिन श्रीरामचन्द्र को दश्शन पावतर रहे है सर्वत्र साहबको देखत रहेंहे ॥४॥ जैसे हंस नीर क्षीरकी निबेरा करे हैं तैसे हेस जे साधु हैं ते असार जो है नाना उपासना नानाज्ञान तासें अमीसीं जो वेद शास्त्र पुराणादेकनमें साहबकी उपासना ताको ग्रहण करे हैं सब असारको छोड़िदेयहै सो कंबीरजी कहे कि, सोईं जन मेरो है अर्थात्‌ जे रामोपासक हैं तेई कबीरपंथी हैं और सब खंडी हैं नोने स्वरूपमें हंसदशाहै तौने स्वरूपमें साहबके स्फूर्ति कराय नाम हैं तामेंप्रमाण “माानपों कर नपों जिहा जपी राम मेरासाई हित में पावों विश्वाम!? इति चोंतीसवां शब्द मात्त |

गत:

“पं?

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न्यँं # !

( २७८ ) बीजक कबीरदास

अथ पेंतीसवां शब्द्‌॥ ३०॥ हरि मोरपीवमेंरामकीवहुरिया।राममोरवड़मैंतनकीलहुरिया हरिमोररहँटामेंरतनपिउरिया।हरिकानामलेकातल्बहुरिया छःमासतागवर्भदिनकुकुरी।लोगवेले मलकातलबपुरी ३॥ कहे कबीर सूत भल कातारहँटा होय मुक्तिकी दाता॥8॥

हरि मोरपीवर्मेरा मकीवहुरिया।राममोरबड़ामैंतनकी लहुरिया मार पीव हरि है पीव कहे वे मोकों पियारहैं में उनकोऊ पियार हों। अरुमें परमपुरुषपर श्रीरामचन्द्र की बहुरिया कहे नारी हों यहां नारी कट्मों सो यह जीव साहबकी चितंशाक्ते है तामें प्रमाण कबीरएजाके आदि टकसार ग्रन्थ को “आतम शक्ति सुबश है नारी अमर पुरुष जेहि रची धमारी दूसरो प्रमाणससायरबीजकको ' दुरहिनि गाऊ मंगलचार हमरे घर आये राम भतार तनरति करि में मनरति कारिहों पांचों तत्व बराती राम देव मोरे व्याहन ऐहें में योबव मद माती सरिर सरोवर बेदी करिहों बह्मा वेद उचारा।राम देव संग भांवरि लेहों धन भाग हमारा सुर तेंतीसों कीतुक आये मुनिवर सहस अठाशी कह कबीर हम व्याह चले है पुरुष एक अबिनाशी अरु श्रीरघुनाथनी मोरबहहें अरु. में तनकी लंहरियाहों, कहे उनके शरीर स्वेत्र व्यापक बिभुहें में अणहों ताम प्रमाण अणुमात्रोप्येयंजीवःस्वदेंहव्याप्यतिष्ठति | इतिस्मृतिः हरिमोररहँटामेंरतनपिउरिया।हरिकोनामलैकातलबहुरिया अरु हरिने परमपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं ते मोर रहँग कहे, चित्‌ अचित्रुपतें जगतवोई हैं अरुमं रतनपिडरियाहों यह जगत्‌ जीवंही के वास्ते बन्योंहै॥ “जीव सूत हैक लपटि रहे हैं में रतनकी पिडरियाहों तामे में नहीं छपयैहों! हरिनि श्रीरामचन्द्रहं तिनको नाम लैके बहुरिया कहे उलटिके में कांत्यों अर्थात्‌ जगवकी जगद्ूप करिकेनहीं देख्यो जगवकी चित्‌ अचित्रूप करिके देख्यो है रामनाममम बहुरिके साहब मुखअर्थ देख्यो जगत्‌ मुखजर्थ नहीं ग्रहण/कियों॥२॥

झाव्द (२७९ )

छः मासतागवर्षदिनकुकुरी लोग कहलभलकातलवपुरी

छः महीनामें एक ताग कात्यों, छःमहीनामें एक ताग और कात्यो तब बर्षंदिनमा एक कुकरीम दोनों ताग मिलायके अर्थात्‌ छ: महीनामें अपनों स्वरूप समझयो कि, में साहबकी नारीहों छः महीनामें में साहबकों स्वरूप समुझ्यों वर्षदिनमें साहबको मिल्यों सो मेँतों इतनीदेर करिके मिल्‍्यो साहब ठो हज्तरहरि हें ताहमें छोग कहे है कि, वबपुरी भलकात्यों मो अनंत«

चल

कीटि जन्मत नहींनानहें सोसाहबकों वषु आपनो बपु बर्षे दिनामें समझयें ॥३॥

4 कहकवारसूतभलकाता | रहदा। हींय साक्तेकी दृता॥।४॥ श्रीकवीरजी कहै हैं कि, जौने रहँटा जगवते सत भछ कात्यो है कतंवैया कबीरनीको विवेकहे सो रहँटा होय यह मक्तिको दातहै, काहेते कि, जब

शुद्ध आत्मा रयाहे याका परमपरुष श्रीरामचन्दहें तिनको ज्ञानरह्मा संसारकों ज्ञानरह्मों यह गशुद्धरुप भरो रह्मयों है तामें प्रमाण नित्य:

स्वेगतस्स्थाणुरचलायसनातनः”” इतिगीतायाम्‌ जब यह याके मन भयों तब संसारको कात्योंहै संसारमें परिके दुःख सुख भोग कियो है ओऔं जब पूरागुरु मिल्योहे तब परमपुरुष जे श्रीरामचन्दहें तिनको पाइकै संसारते छूटिगयोंहै पुनि संसारमें नहोंआये सो कबीरनी कहे हैं कि यह रहँटा कहे संसार होंय मुक्तिको दाताहे जो ससार बुद्धि करिके देंखेंहे सो संसारमें रकम दे, अर, वि

रहे है ओजो संसारकों साहबकोी चित अचितरूप करिके देखेंहे ताकी मुक्तिही देइहूँ या संसारेमें आये मुक्त भयोहें

इति पेतीसवां शब्द समाप्त

अथ छत्तीसवां शब्द ३६ हार ठग जगत ठगारों लाई। हारावयाग कसा जयहु भाई

कीकाकोपुरुषकोनकाकीनारी।अकथकृथा यमजा रूपसारी को काको पुत्र कौन काको वापा। कोरे मरे को सहे संतापा[३

( २८० ) बीजक कवीरदास।

हर

गिठमि सूल सवनको लीन्हा। रास ठगोरी विरले चीन्हा४ कहकवीर ठगसो मनमाना। गई ठगोरी ठग पहिचाना॥५॥

हरिठ्गजगतठगोरीलाई इरिवियोगकृरसजियहु रेभाइ॥ १॥ हंरिठग कहे हरिरूप वब्यके चोराववहरे गुरुवाछोगते जगत्‌ में ठगौरी छेगाइके कहे उपदेश करिके जीवकी ठगि लछेइहें और और में लगाइहके सो हेनीवो | हारिके बियोगते तुम कैसे नमिओहो केाकाकापुरुषकानकाकानारा। अकथकथाय मजा दपसा रा पे

आम भी शशि

कोकाकोएत्रकोनकाकोीवापा। कोरेमरे को सहें संताप[॥३॥

यहसंसारम जबसांवे साहवको भूल्यों! तबकों काकों पुरुषहैकों किसकी नारी हे अकथक्था कहे कहिबेलायक नहीं है काहेते कि जिनकी उपासना करे हैं आपन स्वामीमनिदें तिनके स्वामी कबहूंंहोयहे वेई याकी नारीहोयहै दासहोइहै कबहं स्वी पुरुष होयहे पुरुष खीहोयह सोयायमकहे दोऊविद्याइविद्याके जारूपसारयो हैं कोकाकोपुन्रह कोंकाकोबापहे कोमरेहे कोर्मतापसहह तम को तो

सुखेसुखह तुमहीं साहबहो तुमहीं भोगीहीं बिक

ठ5ग्रिठगि मूल सवनको लीन्‍हा।राम ठगोरी बविरले चीन्हा कह कबीर ठगसो मन माना। गई ठगोरी ठग पहिचाना॥%॥

सो यह समुझाइ समुझाइ सब गुरुवाठोग मलछनो है साहबको ज्ञानसों ठगि- लेतभये औनो यहपाठहोई “ठगिठगि मूँड़े सब॒नको छीन्हा' तो यह अर्थ है कि, सबजगकी ठगिठगि सूंड छियों कहे चेलाकरे लियो है सो यहठगोरी जो रामकैपरीहै कि रामको ज्ञान सब जीवनकों गुरुवाछोग ठगे लेयहें नैदे कोई रुपया को कपड़ाको घोंड़ाको ठगे है तेसे गुरुवाठोग रामको ठगैहें तामेंप- माण-“शाखसुब॒द्धातत्वेत केचिद्ादबछाजना; कामदेषामिभतत्वादहकारव- शंगताः याथातथ्यंचविज्ञय शाखाणांशाखदस्पव: ब्रह्मस्तेनानिरारंभादभमो- हवशानुगा: सोकवीरजी कहे हैँ कि, तुम्हारों मन ठग है जे गरुवा- छोग तिनहीं सो मान्योंदै ते तुमको ठगिलीन्हे हैं सोजब तठम ठगको पहिचा- नि छेउंग कि, ये ठगहें तब तम्हारी ठगौरी जातरहैगी हदात छत्तासवा राब्द समाप्त |

खदद ३८१ )

अथ सर्तीसर्ता शब्द ३७॥ हरिठगठगत वकलजगडोला।|गवनकरतमोसोसुखहनवोला वालापनके मीत हमारे | हमें छोड़ि कहँ चले सकारे॥२॥ तुम अप पुरुष हो नारि तुम्हारी|तुम्हरिचाल पाहनहंते भारी माटिक देह पवनको शरीराहरि ठय ठगतसोडरल कवीरा७

हरिउ्गडबतसकलजगड़ालागवनक्रतमासासुखहुनबाल जीव कहे हैं कि, हारेकी ठग जो गुरुवाहे सो ठगहारी कारेके सब जीवन

को ठगतकह हारिते बिमख करत जगड़ोंढाकहे संसारमें फ्रि है अरु जब गमनकरनछभमे यम चरिेडियों तब मोर्सों मुखहते बोले कि, एतेद्न जोने जौनमें लगेरहे त्रह्ममें अथवा नीवात्मामें ते बचायो | यह खबारिकहि समु- झाय दियो कि, हम को धोखा हैगयों तमहं घोखामें ने मरी 2 बिके, घी जे कक 0 हि वि विद

बालापनके मीत हमारे हमें छोड़ि कहँ चले सकारे॥२॥

प्रअप्तपुशुष हों नारितुम्हारी।तुम्हारी चालपाहनहंतेभारी

सो तुम बालापनके हमारे मीतहों जबभर रह्यो जियो तबभर हमको धोखाही- में छगायेरंह अब हमें छोडिके सकारे कहे हमहीते आगे कहांनाइंग काहिते कि, तुमतों काहू को रक्षक मान्यो नहीं वहीं धोखामें लगरहे, आपही को मालिक मानेरहे, अब तुम्हारी रक्षा कौन करे ? सो जब तुम्हारी कोई कियों यम लेहीगये तो जोन ज्ञान हमको दियो है तोनेते हमारी रक्षाकीन करेंगो॥२॥ तुम ऐसो हमारे पुरुषहे तुम्हारा हम नारी हैं काहेते कि, बीनमंत्र हम को उपदेश दियो है सो तुम्हारी चाल पाहनोते भारी है कहे पाहनो ते जड़ है तेहिते साहवको भुठाइदियों

मादिकि देह पवनकोशरीरा (हरिठग ठगतसोडरलकवी रा टीकी यह देह है सो स्थल शरीर नाशवानहै पवनकोी शरीर सक्ष्म शरीर है सो मनोमय चंचलहे ज्ञानमये वहीं नाशमानहै तामें स्थित जे कंबीर कहे

( २८२) बीजक कबीरदास

कायाके बीर जीवहैं ते हारे ने परम पुरुष श्रीरामचन्द्हें सबके कलेश हरनवारे

तिनकी ठग जे गुरुवालोग हैं तिनके ठगतमें कहे रक्षकको छपायेदतमें जीबडरे

है कि, हमारी रक्षा अब कीन करेगो, वह ब्रह्म तो धोखई है वा तो गुरुबनहीं- [4० किक लेप हक और

का रक्षा नहा किया तइ मालक हाता ता मायाऊके बश केंस हांत जा यम

केसे धरि लेजाते हि इति संतीसदां ज्ञब्द समाप्त !

अथ अड़्तासवा शब्द ३८ हरि विन भम बिगुर बिन गन्दा

जहेँ जहँ गये अपन पो खोये तेहि फन्‍्दे वहु फेंदा॥१॥ योगी कहे योग है नीको द्वितिया ओर भाई चुण्डित मुण्डत मोन जटा धारि तिनहुं कहां सिधिपाई ज्ञानी गुणी श्र कवि दाता ये जो कहहि बड़ हमहीं जहँसे उपजे तहाँहि समाने छूटिगये सब तवहीं वायें दहिने तजो विकारे निज्ञके हरि पद गहिया

कह कवीर गूंगे गुर खाया पूछे सों का कहिया या पदमें जें जीवनकी गरुवा लोगनकों उपदेश छग्यों हे विन को कहे हैं गुरुवा छोगनको कहें है

हारे विनु भममं विगर बि गंद जहँ जहँ गये अपन पो खोये तेहि फंदे बह फंदा॥ १॥

मछिन बुद्धि जाकी होइ है ताकी गंदा कहे हैं सो गंदा जो यह जीवहे सो बिता जाने भर्मते बिगरि जात भयो तांते बिन्मात्र हारे को अंशनो यहनीव

ताकी नीच बुद्धि होइगई जहांगयो तहां तहां है में संचे साह- बकी हो यहज्ञान खोयके तोने फनन्‍्दार्म पारेके तीने मतमें रगिके बहुत फन्‍द

8 का कर कया

जे चोरासी लाख योवि हैं तिनमें भटकत भये

खव्३्‌ ( २१८३

योगी कहे योग है नीको द्वितिया और भाई

चुंडित संडित मोन जटा धारि तिनहूं कहां सिधि पाई२॥ ज्ञानी गरुणी ज्वर कवि दाता थे जो बड़ हमहीं जहँसे उपजे तहँहि समाने छटिगये सब तबहीं

जिनको जिनको यह पदमें कहि आये तेते आपने मतको सिद्धांत करतभयें कि, हमारही मत सिद्धांतद परन्तु रक्षकके विनाजाने जहां ते उपने तहैं पुनि समाइ जातमये अर्थाव्‌ जा गर्भते आये तौनेही गर्भमें पुनि गये, जन- मरण नहीं छटे है जब देसरा अवता! लियो तब जीने जोने मतमें आगे सिद्धांत करिराख्यों तेते मत सब छूटिगये ! अथवा जहांते डपजे कहे जोने छोक प्रकाशते उय्ने हैं तहें समाने महाप्ररूयमें तब सब बिसारिगयों रे के कस 8. 250. बी हा] 4 आप

वराय दहिन तजावकार नज्ुक॑ हार पद गाहेय। कह कवीर गंगे गुरखाया पंछेसों का कहिया सो मंत्र शासत्रमें ने बाममार्ग दक्षिण मार्ग हैं ते दोऊ बिकारई हैं तिनको दुहुनको छोड़िदिउ हरिने परमपुरुष आीरामचन्द्र हैं तिहारे रक्षा करनवोर

कर

तिनके पदको निञ्ञके कहे आपने मातनिंके गहीँ अथवा निज्ञकै कहे बविशेषिकि

विद हि

ञँ के

4

तिनके पदकों गहें जो कहों उनको बताइदेड वे कैसे हैं ती वे तो मत बचनके परे हैं उनको कोई कैसे बताइसके जो उनको जान्यों है ताको गुंगे केसो गुर भयो है कछू कहि नहिं सके है इशारहिते बतावे है वेदशाखको तालये के जो सलनलोंग साहबको समझते हैं सोतात्पर्य वृत्तिही करिके बतावे हैं ऐसे पे

तुमहू जो भजन करोगे तो तुमहूँ उनको जानि लेडगे कि ऐसे हैं इते अड़तीसवां शब्द समाप्त

अथ उनतालीसवां शब्द ३९ ऐसे हरिसों जगत लरतुहे। पंडुर कतहूं गरुड़ घरतुहे॥१॥ मूस विलारी केसे हेतू। जम्बुकूकर केहरिसों खेतू

शैँ

(२८४ ) बीजक कबीरदाख

के बिक $ | अचरज यक देखा संसारा।सोनहा खेद $जर असवारा॥३॥ के कस | 3 श् कह कबीर सुनो संतों भाइ। यह सोचे कोइ विरले पाई ॥४॥ मी $ $ रु ऐसे हरिसों जगत लरतुद्दे पंडुर कतई गरुड़ घरतुदे ॥१॥ जैसे पर्बे काहिनाये ऐसे रक्षक हरिसों जगत लरतुहे कहें बिरोंध करतुहे; जे उनके भक्त उनको बतावे हैं तिनके मतकी खंडन करे है। सो है मूठ | है पनिहां पियरसप कह गरुड़कों धरतुदँ ? जो “डुंहुम” पाठहोय ते पतिहां सपृका नामहे सो रामोपासना गरुड़ है सो ओर मत ले सर्प को कहां खेइनकीन होइहे वहीं सबको खंडन करनवारों है। जो वाकों रामोपासना को ) मत अच्छी तरहते जानो होइ है

मू केसे हेतू। जंबुक कर केहरि सों खेत्‌

है| 7-५

भ्‌ ति

ज्ञान होइ है तब अज्ञान नाश डे जाईहै

कं

अचरज यक देखा संसारा। सोनहा खेद कुंजर असवारा॥३॥ कह कृवीर सुनो संतो भाई। यह संचि कोई बिरले पाई ॥9॥

वि

सो हम यह बड़ी आइचर्य देख्योंदे सोनहा जो कूकुर सो कुंजर के अख- वारको खेंदे है। सो नानामतवारे जे हैं तेई क॒ते हैं ते कांड कांड कहें शाखाथ करिके कुंनरके असवार जे हैं रामोपासनाके साधक तिनकों खेदेहें कहे उनसों वे कहनहीं पावेहें यहां कुंनर मन है ताकी परम परुष श्रीराम-

चन्द्र लगाइदियेहें आप असवार हैं सो श्रीकबीरजी क्है हैं कि

दाब्दु २८५ ) दाका काई वबरला पायह अथात्‌ जबभर रन बनारह है तबभर वाका भालव- की हंथि बनीही रहे है, मनते भिन्न ह्के वाके भजन करियेकों उपायकोई बिरडा जानेहें इति डनतालीसवां इब्द समाप्त अथ चारलीसर्वा शब्द ४० पंडित बाद बढ़ी सो झूठा

गमके कहे जगत गति पांव खांड़ कहे सुख मीठा॥ १॥

युवक कहे पाव जो दांहे जल कहे तृषा बुझाई

पोजन कहे भ्रूख जा भाजे तो दुनियाँ तरिजाई ॥२॥

नरके संग सुवा हरि वोले हरि प्रताप नाहें जाने

जो कबहूं उड़िजाय जंगलको तो हरि सुराते आनेडे

विनु देखे विजु अरस परस बिठु नाम लिये का होई

पनके कहे धनिक जो होतो निधन रहत कोई

सांची प्रीति विषय मायासों हारे भगतनकी हांसी

कह कवीर यक राम भजे बिन वांघें यमणुर जासी॥५॥

पाडइत बाद वर्दी सा झूठा कहे जगत गति पांव खांड़ कहे घुख मीठा॥ १॥ ती जो बाद बदोहों सो झठाहै काहेते ।कि, पंडिततो वह के

#“0७. च्क, 8.

से | है जाके सारासार बिचारिणी बुद्धि होइईहै सो सारासार बिचारिणी बुद्धि तों | पंडित भर कहावोही काहेते कि, सारशब्दकोा झठा कहोंहों

यह बाद बादक रामक कहते जा गाते पावता तो खांड़ाकेह मुखमीठ हनाता॥ १॥

का

६२८६ ) बीजक कचीरदास

बिक नो | कैबकर पावक कहे पाव जो दाह जल कहे तषा ुझाई | रे का रे ज्ञे ती कर के [का भोजने कहे भ्रूख जा भाज दादानया तारजाइ॥ २॥ सिख + 8. और ह्‌ #०५+ ि् नरके संग सुवा हरि वोले हरि प्रताप नाहिं जानि। आर + पे + कर का. # जा कबहू उाड़जाय जगलका दा हाश सुरात आन३॥। जो पावकके कहे दाह पावतो तो जीभ नरिनाती, जछूके कहे तृषा बुझाइ जाती, भोजनेके कहेते भूख भानिनाती तो, रामके कहेते दुनियें तरिनाती २॥ नरके पढ़ाय सुवा राम राम कहेँहे श्रीरामचन्द्रको प्रताप नहीं जाने है, काहेते कि, जब कवहूं जंगरूमें उड़िनाय है तब रामकी सुरति नहींकरे है। ऐसे जोतुम रामताम कहि हरिकों शताप जाना चाहीगे तो कैसे जानोंगे ३२ आओ 8 | | 4० पका पे 8 हूँ बिन दखाबवनु अरस परस बनु नामलिय का हाँइ ! बिका विकार [कप किक 8 कर ञ्ः >>... ₹६ घनके कहे चनिक जो होती निषेन रहत कोई 8॥ बिना देखे बिता स्पशें किये नाम लिये कहा होहहै अर्थात्‌ जो कोई दूर- हो देखे स्पी होइ जो वाक़ी नामलेइ तो का जानि लेइहै! नहीं जाने है धनके कहेते कोई पर्निक हैेनातो ते निर्धनी कोई होतो ऐसे नाम लिये नो मुक्ति क्षेतरती सब मुकै होइनात सो हे पंडिती तुम

््ड् आओ

शेसे असंगत दृष्टांतदैंके यहवाद बदौहों यो झूठाहै। काहेते कि, रामनाम तो

मन बचनके परे है ये सब बचन में आंवे हैं वह राम नाम साहबके

दियेते स्फुरित होइहैं। यहे रामनाम जपेते ये सब अनित्य हैनाइहें सांची प्रीति विषय मायासो हरिभक्तनकी हासी कह कबीर यक राम भजे विनु वांधे यमपुर जासी॥ «५

से कबीरजी कहें हें कि, हे नास्तिक पण्डितो ! विषय मायासों सांचीभी- ति करोहो ऐसे ऐसे कुबाद बदिक्कै हरिभक्ततकी हासी करौहों; नाम रूप छीछा घामको खण्डन करिके से एक जे परम पुरुष श्रीरामचन्द्र हैं तिनके नामके बिना भजन किये वांघे मोगरन की मार सहत यमपुरहीको नाहुगे।

*

छाब्द | (२८७ )

जे प्रमपरुष पर जे श्रीरामचन्द्र तिनते विमख है ते सब छोकनमों नान्‍दत बाप

हैं तामें प्रमाण-' यदचरामंनपरयत्तुयंचरामोनपश्याते निर्दितस्सवेद्धाक३

स्वात्माप्यनाविगहते ' || इते चालासवा शब्द समात्त

थे इकतालासवां शब्द ४१ पण्डित देखो मनमो जानी

कहवों छाति कहाते उपजी तबाह छाति तुम मानी नादे विन्दु रुधिर यक सेंगे चटहीमें घट सज्ज अए्ट कमलकी पुहुमी आइ यह छति कहाँ उपज्ज लखचोरासी बहुत वासना सो सब सरिभो माटी एके पाट सकल वर्ठरे सींचि लेत थो काटी ३॥ छतिहि जेवन छतिहि अचबन छूतिहि जग उपजाया ! कह कबीर ते छति विव्जित जाके संग माया 8

पंडित देखो मनमो जानी।

दिल

कहुधों छृति कहाँते उपजी तवहिं छृति तुम मानी है पण्डित] तुम मनभ जानिके कहे बिचारिके देखोंतों औकहो तो यह छूति

हांते उपजी हैं नो छति तम अपने मनमें मान्यों है

नादे विदु रुधिर यक संगे घटहीमें घट सज्जे।

अष्ट कमल की पुहुमी आई यह छुाति कहां उपज्ज २॥ नादते पवन बिंदुते बीर्य रुषिरके संगते घटहीमें घट स्मेहे, ब॒द्भुदा होहहै सो

अषप्टद्लकी कमलूहे तामें अदकिके लरिका होंइ है। सो पष्टपर है सो लरिकोके

वाही भांतिकों अष्टद्छ कमछहोइहै ठोने अष्टद्ठ कमछ कमलके दलदलमें वाको

मन फिरत रहे हैं ताते तैसे नाना कर्म में छगिके नाना स्वभाव वाके होई हैं

करा:

२८८ ) बीज़क कबीरदास

और नहां नहांकी बासना करिंके मेरे है तोनी तौनी योनियमें प्राप्त होइ है जीव बासनन करिके सब्र होइह यह छूति कहांते उपने है

लख चोरासी वहत वासना सो सब सरिभो माटी

एके पाट सकल वेठारे सींचिलेत थी काटी

यह जीव बहुत बासननमें परिके चोरारी लाख योतिवम भग्कैहे शरीर स- रिक मादा हैं जायहें एक पाठमें कह जगठम नाता वासना कारक माया सबके बेठावतभई कहे शरीरधारी सबकी करतभई अहू ये शरीर सब- मायिही आईं माीमें मिलि जाईंगे जीव सबके एकही हैं एकही पाठमें बैठ हैँ सो वे जलको सींचिकै छूति काटि छेत हैं का नल सींचे छृति मांट जातहू | नहीं मिंट ३॥

छावतिहि जवन छर्तिहि अचवन छतिहि जग उपजाया कृह कबीर ते छति विवर्जित जाके संग माया॥ ॥|

सो वही छृति नो है बासना सो जब उठी तब जेंगन |क्ियों वहीं बासना उठी तब अँचयो | ओर कहालों कहें वही बातता ते जगत उपम्यों है। सो श्रीकबीरनी कहे हैं कि, जाके संग माया नहीं है सोई वाप्तनाझुपी छूतिके शिबजितंह | तो है पंडित ! माया को जो तम छोड़यों नहीं छति तिहारे

तर घ॒सी है ऊपर के छूति माने कहा होई वड़ी छृतिकियों है बासनेते चित्तकी वृत्ति उठे है दब यह माने है कि, हम ब्राह्मणहैं क्षत्री हैं वेइय हैं शूद॒हें

इति इकतालीसवां शब्द समाप्त |

ऋाब्द २८९ )

अथ बयालीसवां शब्द ४२ पंडित शोधि कहड्डु समुझाई जाते आवागमन नशाई अथ चर्म काम मोश्न फल कोनदिश्ञा बसभाई ॥। उत्तर दाक्षण परद पाश्रम स्वगे पालक माह बिन गोपाल ठोर नहि कतहूं नरक जात थों काहे अन जानकी नरक स्वगं है हार जानका नाहा जाहि डरका सब लाग डरतह सा डर हमार नाहा| ॥| पाप पुण्य का शका नाहीं स्वर्ग नरक नाह जाहीं कह कत्रीर सुना हा सतो जह पद तहां समाहा वासना मायाके योगते होइहे सो माया जोनी परकारते छूटे है सो उपाय कहे ह॑ अरू आचारको वहां संडन करिआंगे सो अब जौनी दकस्चामें अचार नहीं है सो कहे हैं पाण्डत शांध कहह सझुझाई। जाते आवा गन नताई॥ अथ घर्म काम मोक्ष फल कोन दिशा वस भाई ॥१॥ उत्तर दाक्षण प्रव पाश्वस रस्वग पतालक माह | बिन गोपाल ठोर नहिं कतडूं नरक जात थों कांहे हे पडेत! तुम तो सारासारको बिचार करौही सो तुम शोधिक मोसों समझाय कहाँ जाते यह जीवात्माकों आवागमन नशाइ अर्थ धरम काम मोक्ष ये फछ कोनी दिशामें रहे हैं! उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम स्वर्ग पाताल यहां सर्वत्र में इंढ़ि डारचों परन्तु विना गोपाछ कहे ठौर देख्यों गोपाल हे गो जो इन्दिय जड़ मनादिक तिनके चैतन्य करनवारे जे परमपरुष श्रीरामचन्ड्हे

विनहाक।! सवन्र देखत भयों विषय इन्द्रनर्त देवता मनते मन जीवते जीव

परमउरुष श्रारामचन्द्रत चेतन्यहे सो जीव उनको चित्त शरार अरु मायाकाकछ ५१९

(२५९० ) वीजक कबीरदास

कर्म स्वभाव उनको अवित शर्रीरहै तेहिते बिना गोपाछ कहूं ठीर नहींहै। जीव नरक स्वग जाय॑दहे सों अब बतांबेह अन जानका नरक स्वग हैं हारजानंकी नाही जेहि डरकी सब लोग डरत हैं सो डर हमरे नाहीं॥३॥ श्रीकबीरजी कहे हैं कि अनजानेकी नरक स्वगे है कहेनो कोई हारेकों नहीं जॉनेंदे ताको स्वगहै नरकहे जो कोई हरिेको सर्वत्र जानेहै ताको नरकहै स्वगे है नौन डरकों सब छोग डरायहें माया बह्म नरक स्वर्गादि कनको तोन डर उनको नहीं है काहेते वे तो सर्वेत्र साहबैकों देखंहँ + (थक ्‌ः आओ 2५७ पाप पुण्यकी शंका नाहीं स्वर्ग नरक नहिं जाहीं रे का हि... . #>५+ कहे कबीर सुनो हो संतो जहँ पद्‌ तहां समाहीं उनको पापपुण्य की शंका है काहेते कि, जो कोई बद्ध होइ सो मुक्त होइ, तेहिते वे बद्धही हें मुक्तही हैं तामें म्रमाण श्रीमागवते॥*बद्धो- मुक्तइतिव्याख्या गुणतोमेनवस्तुतः गुणस्यमायामूछत्वान्नमेमोक्षोनबंधनम”” हम तो सर्वत्र साहबहीको देखें वे नरक स्वगेकी नहीं जाइहैं सो कबीरं जी कहेहें कि हे संतो! सुनो ऐसी भावना जे नर करे हैं ते नर जहां पद तहां समाह कहे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रके अंश हैं सो तिनहीं के स्थानमें जाइ हैं इति बयालीसवां शब्द समाप्त

अथ वेतालीसवाँ शब्द ४७३॥

पंडित मिथ्या करो विचारा। ना हां सृष्टि सिरजनहारा थूल स्थल पवन नहिं पावक रवि शशि चरणि नीरा ज्योति स्वरूपी काल उहँवां वचन आहि शरीश॥२॥ कर्म धरम कछुवो नांद उहवां ना कछु मंत्र पूजा

संयम सहित भाव नहिं एको सोतो एक दूजा

ऋाब्द। (२९१ )

गोरख राम एको नहिं उहँवां ना हां भेद विचारा हरे हर ब्रह्म नहीं शिव शक्ती. तिरथों नहीं अचारा 8 माय ताप रारू जाके नाहीं हि दजा कि अकंला कह कवीर जो अबकी सझुझे सोई गुरू हम चेला «॥ पढ़ित ! तमतो वहि ब्रह्मको मिथ्ये बिचार करोहो। नो यहिपदमें बर्णेन करिआये सो वबहमें एकड नहीं है वह तो घोखाही है सो कबीरनी कहै हैं कि जो सो वह आत्माते दूसर है कि अकेल वह ब्रह्मेह! नो अबकी समझे कहे यह ज्ञान भये पर समुझे कि, में परमपुरुष श्रीरामचन्द्रकी हों वह ब्रह्म धोखा हे सोई गरुहे चेलाहों काहेते कि, मोहिं तो धोखई नहीं भयो है जो आए- नेको अह्मवानिके साहवको समझे है वाको धोखा मानिलेंश सो मेरो गुरूहे ओमें वाको चेछाहों अथोव्‌ सोईं मोसों अधिक है काहेते कि, वह धोखा!

कक की

में परिके निकस्यों है यह प्रशंसा कियो इति ततालीसवां ग़ब्द समाप्त |

अथ चंज छोसवां शब्द ४७४

बूझहु पंडित करहु विचारी पुरुष अहे की नारी १॥ ब्राह्मणके घर ब्रह्मणी होती योगीके घर चेली कलिमा पढ़ि पढ़ि भई तुरुकिनी कलिमें रहे अकेली ॥२॥ वर नि बरे व्याह नहि करई पुत्रजन्म होनिहारी कारे मूड़े यक नहिं छांड़े अवहूं आदिकुवांरी ३॥ मायिक रहे जाइ सझुरे साई संग सोवे

कवीर वे युगयुग जीवें जाति पांति कुल खोवें 9 !

ये

यह मायाही सब जगवके जीवनको भरमायों है सोईं कहै हैं

( २९४२ ) बीजक कबीरदास |

हु पंडित करह विचारी पुरुष अंहे की नारी १॥ ब्राह्मण केरे ब्रह्मणी होती योगीके बर चेली कलिम्ा पढ़ि पढ़ि भई तुरुकिनी कलि भें रहे अकेली॥२॥

मो हे पंडित! तुम बुझो विचारिके काम करो यहमाया पुरुषरूपहे कि नारीरुपहै! यहमाया सबको छपेटि लियो है विद्या माया ब्राह्मणके तो बाह्मणी हैंके बैठी है ब्राह्मगकहे हैं कि, हम बह्मकों जाने हें “बह्नना- नाति ब्राह्मण:” अरु घरमें ब्राह्मणों बेठायेरहे हैं, वाकी खत्रीकों भाव करे हैं बेंटीसों बेटीकीं भाव, बहिनीसें भगिनीकों भाव माने हैं सो कहों तो बह्ममाव कबभयो मो कहों मिनके झ्ली नहीं है तिनकोी तो बअह्मयमाव ठीकहै तो उनके ब्रह्म जानपनीरुप बाह्मणीकी गरूरी बनी हैँ | संयोगिनके ते चेछी है बेटी है ओऔ योगिनके योगीरूप है बेठी है। योगी महामुद्रा साधन करिके बीयेकी उछटी गवि केदेद्ह सो जब वृद्ध भये तब पोड़शी कन्या एक घरमे रातिभरे राखिके संभोग कारेके उनको वीर्य छिंग दारते खेंचिके कपारमें चढाइ लेइहें, तब आप तरुणंहे जाइहें वह पोड़शीकन्या मरिजाइहै।एतो बड़ो अनर्थकरे हैं। मे माणायाम कारिके प्राणचटाइ के नाइहें तिनके कुंडलिनी है वेठी हैं। मसत्माननके जब विवाह होइहे तब निगाह सों निकाह के कलिम्रापटिके तुझक्िनी होइईहे औं मुसलमान होइहै सो ये उपलक्षणहें अथीत्‌ ब्राह्मणमें ख्रीोके साथ कर्मरूप हैंके योगिनके दशमुद्रा रुपहेके मुसलमाननमें निकाह कलम आदिदेक शरा अहय हैके अकेली मायाही रहतभई साहबके काम ये एको नहीं हैं॥२॥

बर नहिं वरे ब्याह नाहिं करई पुत्र जन्म होने हारी।

कारे मूड़े यक नहिं छांड़े अवह आदि कुवारी वर कहे श्रेष्ठ जे हैं साहबके जाननवारे भक्त तिनको नहीं बरथों अर्थाव्‌ उनको स्पशे विद्या अविद्ा ये देनेंका नहीं है। अरु खसम बह्म है सो ब्याह

नहीं करेह काहेते कि, धोखाकी भँवरी नहीं परे मायाकों पुथ् जगव्‌ है जाको गर्भ धारण करेंहे सो कारे कहे जिन के शिखाहै हिंदू ठोग ओऔ

झाब्द ( २९३ )

मूँड कह विनके शिखा नहीं है मुसत्मात छोग तिनको एकऊ नहीं छोड़ंचों अबहूं भर वह आदिकहे आंद्या जो मायाहे सो केँवारीही बनी है अर्थात्‌ हिंद मुसल्मानकी आपही बशके छियो है इनके वश नहीं भई

मायिक रहे जाइ ससुरे साई संग सो

कह कवीर वे युग युग जीवें जाति पांति कुल खोवें॥8

अरू मायिक जो है शुद्ध आत्मा जाके उत्पत्ति भईहे माया तहां तो रहतही नहीं है वहां तो नीवके साहबको अज्ञान रूप कारण मात्र रह्ोहे | सासुर जो है छोक पकाश ब्रह्म जहां जीव मान्यो हैं कि, ब्रह्म मेंही हों, सो धोखाहि तहां नहीं जाईहे वही साईं कहे पतिहं काहेते कि, वही मायासबलित होइ है तब नगव्‌ होइ है ताके संग नहीं सोवेहे काहेते कि, वहतो धोखई हैं बह माया धोखा है जो कछु वस्तु होइ तब वाके संग सोबे | श्रीकबीरणी कहे हैं कि, सब नगवको माया लपेटि लियो है। जे जीव साहब साहबकी जाति आपको माने हैं अपनी जाति पांति कुछ खो हैं सोई मायाते बचे हैं युग युग जिये हैं और तो सबको माया खाइही लियो है अर्थात्‌ उनहीं को जनन मरण नहीं होयहें

झते चवालीसवां शब्द समाप्त

अथ पेंतालीसवां शब्द ४५ कोन झु॒वा कहु पंडित जना।सो समुझाय कहो मोहिसना १॥ मृये ब्रह्मा विष्णु महेशा। पावती सुत झुंये गणेशा २॥ मृये चन्द्र मुय रवि केता।मुये हनुमत जिन्ह बांची सेताश॥ मृये कृष्ण छुये करतारा। यक सुवा जो सिरजन हारा॥४॥ कहे कवीर मुवा नाहिं सोई जाकी आवा गमन होई॥५॥

( २९४ ) बीजक कबीरदास

निनको जिनको यापदमें वर्णन करिआये तेते सब महाप्ररयमें छीन होइहैं एक कहे सम अधिकते रहित जो साहव नहीं मुवा सिरननहार जों समष्ठि जीव सो नहीं मुर्वाहै अथात्‌ सो रहिजायहै और कौन नहीं मुवा दिनकी कत्रीरनी बतावै हैं। जीवते। मरे नहीं है शरीरहीमेरहे सो जे जे देवते- नकी मुवा कहिआये ते जौन रूपते साहबके समीप रहै हैं सो स्वरूप इनको नहीं

हु उस अऔ

मुंबे है पार्षद शरीरते बने रहे यहां अपने अंशनते जगत कारयकरे है सो पूवे लिखिआये हैं इति पेतालीसवां झब्द समाप्त |

अथ छियालीसवां शब्द॥ ४६ पंडित अचरज यक बड़ होई। यक भर सुये अन्न नहैं कं यक मर सीझ रसोई १॥ करिके स्नान तिलक करि बेठे नो गुण कांच जनेऊ हांडी हाड़ हूड थारी मुख अब पट कम बनेऊ॥ २॥ घरम कथे जहँ जीव वधे तहँ अकरम करे मेरे भाई जो तोहरे को ब्राह्मण कहिये तो केहि कहिये कूसाई ॥३॥ कहे कबीर सुनो हो संतो मरम भ्रूलि दुनिआई। अपरम पार पार पुरुषोत्तम यह गति विरले पाई अब जे पटुकर्मी पंडित छोग बलिदान करिके मांस खाइ हैं तिनको कहै हैं॥ पंडित अचरज यक बड़ होई यक मर सुये अन्न नहिं खाई यक मर सीझ रसोई कारिके स्नान तिछक करे वेठे नो ग्रण कांध्‌ जनेऊ हांडी हाड़ हाड़ थारी मुख अब पट कमे बनेऊ २॥ हे पंडित ! एक बड़ो आइचये होइ है एक मरे है ताके मेरेधे कोई अन्न नहीं खायहै अरु वाके छुयेते अशुद्ध है जाईहै, अरू एक जीवकों मारि

खाब्द | ( २९५ )

ले आव हैं तौने मुदीको रसोईमें सिझवे हैं जो नो गुणकों जनेऊ थे में डारिकै स्नान कारक बड़ो बेदना ऐसो तिछक दैके बेंठे हैं सो कबीरजी कटकरे हैं कि, अब पटकर्म वनि परचो कि, हॉंडीमें हाड़ है थारीमें हाड़ंहै खमें हाड़ है घट कर्म ब्राह्मणके ये हैं। पढ़े पढ़ावे दान देंइ लेइ यज्ञ करे यज्ञ करावे इहां ये पटकर्म करे हैं एक हँड़िया दूने हाड़ तीजे थारी चौथ हाड़ पांचों मुख छठों हाड़ अब ये अब पटकर्म बने परयों * कप कि श्् कि पक कक धरम कथे जहेँ जीव बचे तहँ अकरम कर मेरे भाई। जो तोहरेको ब्राह्मण कहिये तो केहि कहिय कसाई कह कवर सुनो हो संतों भरम भूछि दानआइ

अपरम पार पार पुरुषीत्तम यह गति विरल पाई ॥!

हां घर्मका कथेंहे कि, या यज्ञहे, देवपुनन वितर श्राद्धहै याधमम है तह नीवनकों मारे है। सो हे माइड ! नो करिबेलायक कम नहीं है सोऊ केरे ऐसे ने तुम्हारे कर्म हैं तिनको, तों ब्राह्मण कहेंगे ब्रह्मके जनेैया कहेंगे तो कसाई काकों कहेंगे ३े श्रीकबीरजी कहे हैं कि, ऐसे श्रमम दुनियाँ भूलि रहो है। अपरमकहे परम नहीं ऐसी जो माया है ताते परतब्रह्म है ताहते पार पुरुष समष्टि जीव हैं जाके अनुभवते ब्रह्म भयो है ताहते उत्तम श्रीरामचन्द्र हैं कहेते कि, वे विभु सर्वेज्ञ हैं जीव अणु अल्पक्षहे ते श्रीरामचन्द्रकी जो यहगति है ज्ञान सो कोई बिरले पाई है अर्थोव्‌ कोई बिरला जान्यीं है कि, सबते पर साहबई है उनते सम अधिक कोई नहीं है। तामेंप्रमाण “सकारणकारणकारणाधिपोनचास्यकरि्चिजनितानचाधिप३ नतस्यथ कार्यकर- णंचवि्दयतेनतत्समश्चाभ्यधिकरचदश्यते इतिश्वेताशवतरोपनिषदि समोद- विद्यतेतस्थविशैष्ट:ः कुतरवतु इते वाल्मीकीये ”” ओकबीरोजीकोप्माण “साहब कहिये एककों दूना कहो जाइ दूजा साहब लो कहें, बाद बिडंबन आइ जनन मरणते रहितहै, मेरा साहब सोय। में बलिहारी पीडकी, जिन सि्रिजा सब कोय #॥ |

इति छियालीसवां शब्द समाप्त

थक इक"

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9

श्र

( २९६ ) बीजक कबीरदास

अथ सेंतालीसभा शब्द ४७ पैडित बूझि पियो तुम पानी

जा मादीके घरमें वेठे तामें सृष्टि समानी छपन कोटि यादव जहँ बिनशे मुनि जन सहस अठासी परग परग पेगम्बर गाड़े ते सरि माटी मासी मत्स्य कच्छ घरियार वियाने रुषिर नीर जल भरिया नदिया नीर नरक वहि आववे पशु माउष सव सरिया॥ ३॥ हाड़ झरी झरि गूद गली गलि दूध कहांते आवे | यो तुम पोड़े जेंबन वेठे मटिअहि छृति लगावे बैद किताब छोड़ि दिहु पांड़ि सब मनके कमा कहे कबीर सुनोहो पांड़े सब तुम्हरे चर्मा

जे देभ करेके बड़ो आचार करेहें निनंकी चिदअविद्र साहब को रूप है यहबुद्धि नहीं है ताको कहे हैं

पृण्डित वूझि पियो तुम पानी

जा मार्दीके घरमें बेंढे तामें सृष्टि समानी॥ छप्‌न कोटि यादव जहँ विनशे छुनि जन सहस अठासी। परग परग पेगम्वर गाड़े ते सरिमाटी मासी

सो हैं पंडित! ज्ञानतो तिहारे है नहीं आचारकरो हो सो तुम कहांकों पानी पियो हौ।भछा वृझिके कहे बिचारिके तो पानी पियो। जाने माटीके घरमें अथीव पृथ्वीमें तुम बेठही तोनेमें सब सृष्टि समाइरहीहै जोदनी प्रथ्दीमें छप्पन कोटे यादव अठासी हजार मुनि ये उपलक्षण हैं अथीव सबनीवन*-

| /७० हक ०5

के झरीर वही माटी में मिले मिलिंकै सारेगये अरु परग परणर्मे पैगम्बर गाड़ेंहं

झाब्द | २९७ ) ते सब्र सरिकै माटी है रहेहें तेहित माटी मासी है कहे मांसमें मिलिरही है अं माटी मासी कहें मधकेटभके मांसकी आई

मत्स्य कृच्छ घरियार वियाने रूपिर नौर जल मरिया ! नदिया नीर नरक वहि अवे पशु माउुष सब सरिया॥३॥ हाड झरी झारे गद गली गलि दूध कहाँते आंवे

चर सा तुम पड जंवन वृठ मीट्जाहे छात लगावे॥।

अर नठेयाऊे नलमें मत्स्य कच्छ परियार बियूनि कहे होयहें रुधिर हर कप के नीर मड इत्यादिक वही तदियाके लहछमें मिलिनाइ हे पशु मानुष सारिना-

जो

यहें; ते वही पादी वियोहों आचार करोहो दूधों हाड़ते झरि झरि

जेंवन बेठीही माटी नो मांसहे ताक छति लगावोही कि,मांसबड़ो अपविश्र

हा जें खाइह दे बड़ी निषिद्धकम कर हूं हो ता वह दूध मांसत से भिन्नह

वेद किताव छोडि दिह पांडे सब मनके कमो है कवीर सुनोही पांडे सब तुम्हे धर्मों «

सो पड़े! शुद्ध अशुद्ध तो वेद किताबते जानेजाइह ते वेद किताबकों तुम डि दियों ये जे सब कहिजाये जे तुम धर्म करोही ते तो सब तुम्हारे मनके

हा

कर्म हैं आपने मनहींते ये सब तुम बनाइ लियोंहे इनते तुम निबहीगे। श्री कबी-

रजी काकु करेंहें कि हेयांडि! बिचारिके देखो ये सब तुम्हारे धर्म हैं! अथीद नहींहि तुमतो साहबकेहों अथवा कबीरजी कहे है एते सब कमे करोहो अपने मनके बनाये वेद किताबोके कहेते ये सब तुम्हारे धर्मकहे तम्होर शरीरमा हैं !

तेहिते शरीरते भिन्न हके आपने स्वृरूपकोी जानोंगे तब आपने सांचे कर्मनको जानोंगे यह व्यंग्यंह

झते सतःलूीसवां ज़ब्द समाप्त

कहीं कहीं सद्टी मांसकी भी कहेंहें परन्तु यहाँ तो मिट्टीसे आशय है मनुष्य

शरीरते क्योंकि, दम्भ करके आपजी चढहे कर्म करतहे तोरे दूसेर पवित्र मनुष्यनते छूत मानतिहे

/गए 2

38» हि, ! है

( २१९८ ) बीजक कचीरदास

अथ अड़तालीसवां शब्द ॥४८॥ पंडित देखो हृदय विचारी कोन पुरुष की नारी १॥ सहज समाना घट घट वोले वाको चारित अनूपा वाकी नाम कहा कहि लीजे ना वहि वरण रूपा ॥२॥ तें में काह करे नर बोरे क्‍या तेरा क्या मेश राम खोदाय शक्ति शिव एके कहु थों काहि निवेरा ॥३॥ वेद पुराण कुरान कितेवा नाना भांति बखानी हिंदू तुरुक जेनि योगी एकल काहु जानी छः द्रशनमें जो परवाना तासु नाम मन माना कह कवीर हमहीं हैं बोरे सब खलक सयाना «

७७७४७४७४८४८एए्रशशशणणणशशाभाभआ

पौडेत देखो हृदय विचारी कौन पुरुष को नारी सहज समाना घट घट वोल वाको चारित अनूपा वाका नाम्त कहा कहि लीज ना वह वरणनरूपा २॥

किक आय 8 3,

हे पंडित! तुमती साशसारको बिचार करो ही हृदयमें बिचा।र के देखो तो कोने पुरुषहे कौन नारीहे वह आत्मा ते पुरुष नारी है १॥ जो कहें वटबटमें सहन जीव ब्रह्म समाइ रहोहैे वाको चारेज् अनूपहे सोई हमारों स्वरूप है तो वाको नाम कहां कहि लीने बाकी तो बर्ण है रूपहै वह तो धोखाहै तैं हक कक पे कप तें में काह करे नर बोरे क्या तेरा क्या मेरा रु | अकम 0 5३ कक एा [4 पक राम खादाय शाक्ता शव एक कह था काहे ।निबेरा नोतें में कहोही कि, तें में आद्यो, में तें आह्यो एकही बह्मतो है तें

कर अत के.

में कहा करेंहे | ब्िचारिदेख तो क्‍या तेराहै क्या मेराहै सब साहबका तौ *

शब्द ( २९९ )

जोतें साहब होह तब तेरा होइ। राम खोदाय शक्ति शिव जहैं तिनमें कहीं तें

काको निेरा कियोहे [के,एक यह जगवकों मालिकहैं वहीं में हों। अथीव्‌ इनकी सामर्थ्य तोमें एकऊ नहीं देखिपरेंहे ताते इनमें तें कोई नहीं है है

वेद पुराण कुरान कितेवा नाना भांति बखानी।

हिंदू तुकक जानि योगी एकल काहु जानी ॥७॥

वही साहबको नाना नाम लेके कहेहें सो बेंद्र पुराव कुरान किताबें वही साहबकी सबते परे नाना भांतिते नाना नामलैंकै बर्णन किये है यही हेतुते हिन्दू तुहक जती योगी एकल कहें एक नामकरिके कोई नहीं जान्यो कि, एक यही सिद्धांतहि यही सबको मालिकहै अथवा एक कहे जोने करते जोने उपायते में मत वचनके परे साहबको जान्यो हे सो कोई नहीं जानये

छः द्रशनमें जे परवाना तासु नाम मन माना

3 चर आर के

कह कबीर हमहीं हैं बारे सव खलक सयाना॥

छड्उ दर्शनमें अरू जेते सब हिन्द तुझक आदि वर्णन करे आये तित सबमें जौन धोखा ब्रह्म को ममाण परेहे तैनिही को नाम सबके मनमें माने है कह- ते तो मन बचनके परे हैं परंतु कोईं ब्रह्म कहिके कोई अरु्झाह कहिंके कोई जीवात्मा कहिकै वाहीफों सब माने हैं सो कबीरनी कहैँहें कि, सब खढक सयाना है काहेते कि, कहते ते यह बात हैं कि, वहतों मत वचनमें आवते नहीं है जे मन बचनमें आवै हैं तिनहीं भें किरे लांगे है तते हमहीं बोरहाहें जो ऐसे कहेहें कि, साहब आपही ते रूपा कारेंके अनिवेचनीय रामनाम स्फुरि- करे देइहें ताहीके मिलनको उपाय बतावे हैं यह काकु करे हैं

इति अड॒तालीसवां शब्द समात

अथ उनचासवां शब्द ४९ बुझ बुझ पण्डित पद निबोना। सांझ परे कहेँवां बस भाना नीच ऊँच पवेतठेला भीत। बिन गायन तहँवा उठ गीत

( ३०० ) वीजक कवीरदास

ओस प्यास मंदिर नहैं जहँवां। सह खो चेलु दुह्वे तहँवां

निते अमावस नित संक्रांति। नित नित नवग्रह बेटे पांति

मं तोहि पूंछों पण्डित जना।हदया ग्रहण लागु केहि खना

कृह कबीर यतनो नहिं जान। कोन शब्द गुरु लागा कान$ अब योगेनको कहै हैं।

बुझ बुझ पंडित पद निरवाना!सांझ पेर कहँवां वस भाना

नीच ऊँच पवेत ठेला भीत।बिन गायन तहँवां उठ गीतर

है पंडित! तुम वह निर्वोणपदकों बूझोतों जो निकु्टीमें ध्यान रूगाइकै भानु कहे सूर्य देखोहों स्लो सूर्य सांझपरे कहे जब शरीर छूटिगयों तबकहां बसहै! नीचते ऊंचेकोी कहे कुंडलिनीते गैबगुफामें जब आत्मा जाईहै तौने प्ब॑तमें ठेलाहै भीतिहे। बिना गायन तहंवां गाते उठे है कहे अनहदकी ध्वनि सुनिपरे है २॥

१७) #2. ( 9०... पलक 82 0 $

ओस प्यास मँद्र नहीं जहँवा।|सहखो चेन दुह्ावे तहँवां

ओस जो वहां परे है कहे अमृत जो वहां झरे है ताके पान करिकैन प्याप्त है जाइहे कहे पियास नहीं छगेंहै अर्थीत्‌ ओसन पियास नहीं जाइहै नो मानि- राखे हैं कि, अमृत पीके हम अमर द्वेनाईंगे सो अमर होउंग | जो गैब गुफा पर्वतमें घरमानि राखेंहें सो वहँतिरों मंदिर कहें घर नहीं है अभाव वहां तो शन्यह तहां सहल्ल दलमें धेनु दुहावे है कहे घेनु जोहै गायत्री ताकों अर्थ नेहि वहदूध ज्ञान स्वरुप बन्न ताके बिचार करेंहै आपने को बह्म माने हैं जब शरीर सरिजाई तब गेंबगुफी जरिणाईहे फिर शरीर घारणकरे है

के हुआ पु

निते अमावस नित संकांति।नित नित नव ग्रह बेठे पांति 8॥

तहां नित अमावस रहेंहें चन्द्रमा सूर्यनके ओट हैनाइ सोः अमावस कहा- बेहे।सो यहांति आला जाइईके अह्मज्यातिमें छीन हेनाइहै तते- नित अमावस रहे है फिर जब सभाधि उतरी तब शोकामें परिगयों वही वाकों

शब्द ( ३०१ )

दुवार जामें ऐसो जो है यह तऊ शरीर पघारण करिबों

पूछों पंडित जना। डदया ग्रहण लागु क्यहि खना इतनों नहि जानाकीन शब्द गुरु छागा कान ६॥

के “2४5

माया तमकी ग्रहण करिलेइ हैं निवोण पद कहतहींहीं सो निर्बाण पृद्‌

आय 8 8 को आर

जो जाते ते केसे उठटि आबते केते नाना शरीर पावते सो देखतेही बुझते नहोंही यह अज्ञानरूपी राहुते ठुम्होर ज्ञानहपी चन्द्रमाकीं कब ग्रहरणणकयों॥ ५॥ अ्रीकबीर नी कहे हैं कि, इतनों नहीं जानतेहीं कि शरीरके साधन यह ज्ञान कियते इरीर मिडैगो कि छटेगो अर्थात्‌ शरीरके साधन कियिते शरीरही मिलेगों तेरे कानमें हागिंके गहझबाढोग कौनसों शाठदकी उपदेशकियों है जाते परमपरुष औ्रोरामचन्दकों भद्ठि गये

इति डनचासवां शब्द समाप्त

अथ पचासवां शब्द ५० बुझबुझ पंडित॒विरवा होई। अब पुरुष अथा बस जो बेरवा एक सकल संसाला।स्वर्ग शीश जर गयल पृताला२ बारह पखुरी चोविस पाता। घन बरोह छांगी चहूँ घाता३ फले फुल वाकिददे बानी। रेनिदिवस विकार चुव पानी॥8॥ कहकवीरकछुअछलो नजहिया।हरि विरवाप्रतिपछततहिया <

झवुझपंडितविरवानहोई। अधवसपुरुषअधावसजोई॥ १॥ रवा एक सकल संसाला।स्वगे शीश जर गयलपताला

|

( ३०२ ) बीजक कवीरदास

है पंडित | यह संसाररूपी वृक्षको जो तें बूझि राख है कहे मानि राखे है

तें बूझती जितने बिचार होइहं तिनकी यह मिथ्याही है। हरिकेचिद्रअचिद रुपसे सत्यहै। यह संसार वृक्ष आधा पुरुष है आधा प्रकृति है अर्थीव्‌ चित्‌ पृरुष जीव अचित्‌ मायादिक इनहीते संपूर्ण जगठहै पुनि कैसोंहे संसार रूपी विरवा याको स्वगेशीश कहे ब्रह्मांडी नो खपरा है सो शीश है अरू याकी जर पातालमें गई है

वारह पखुरी चोविस पाताघन बरोह लागी चहँ घाता श॥ फले फुले वाकि है वानी।रेनि दिवस विकार चुव पानी॥४॥

बारह महीना जे हैं ते बारे पंखरी हैं अथांव काठ चौबिप्त तत्त्व वाके चौबिश्व पातहैं घन कहे नाना कर्मनकी वासना तेईं घन बरोह चारों ओर ढछगीहें या संसाररुषी वृक्ष साहबको ज्ञान रूप फछ नहीं फूड साहबकों भक्तिरुप फछ नहीं लगे हैं या संसारके बाहर भयेते होयहै राति दिन बिकाररूप पानी चुवे है

कहकवीरकछुअछलोनजहिया।हरिविरवाप्रतिपाठ्ततहिया सो कबीरनी कहे हैं कि, जहां हरे परम पुरुष श्रीरामचन्द्र जाऊे अंतःकर- णमें भागवत धर्म रूपी बिस्‍्वनकी बाग प्रतिपाड़े हैं तिनको यह संसाररूपी बिरवा अच्छो नहीं है। व्येग यह है ककि,माली जो होइहै सो कांटा वाला पेड़ निष्काम अछग के देहहे इहां हारे संसार रूपी बिरवा अलग के देइ है भागवत धर्मरूप बिरवा श्रीकबीरजी रेखता में कह्यों “धर्मकी बाग फुलवारे फली रही शील संतोष बहुतक सोहाई भक्तिका फूछ कोड संत माथे धरे ज्ञान मत भेद सतगुरु छखाई विवेक बिच्चार सोइ बाग देखन चंढे प्रेम फल पाह टोरे चखाई पराहे स्वाद जब ओर भावे नहीं तनैगा प्राणकी बहवाई

इंत पचासवा शब्द समात।

पु

कि थे ह्‌

झाब्द (१०३ )

अथ इक्यावनवा शब्द ५१ बुझवझपण्डितमनवितलाय।कवहहिंभरलवहेकवहिंसुखाय खन उबे खन ड्वेखन अवगाहा।र तन नमिले पावनहि थाह२ नदिया नाहिं सरस वे नीर। मच्छ मरे केवट रहे तीर कह कवीर यह मनका चोका।वेठा रहे चला चह चोखा४*

बुझवझपाडतमनाचतलाय। कवाहभरलबहंकवाहखुखाय

हें पंडित ! सारासारके बिचार करनवाले ते तो बिवेकी कहावे हैं चित्त छगाइके यह मनको दक्मे, तो कबहूं भरलकहे कबहूं तो तें आपनेको मानिले- इहै कि, मेंही बह्महों आनंदते भरिजायहै कबहूे वहज्ञन बहिजाय॑ंहे तब सुखाइ जाइहे अर्थाव्‌ वह आनंद नहीं रहिनाईहे

खन उव खन डइुंव खन अवगाहारतननामरुपाव नाहथाह२

नदिया नाहि सरस वहें नीर। मच्छ मरे केवट रहे तीर

तब क्षणमें संपार्त मन ऊबिउंठे है कहे बैराग्य हआवै है क्षणमें वही मनरूयी नदी हिले है बृड़िनाय है अथोंव संसारके विषयमें बड़िनाय है क्षणमें अवगाहहे कहे नानामतमें जिचार करे है कि, संसार छटिनाय सो

275 के, करे,

मनरूवी नदीकी थाह नहीं पांवे हे तेहिते रत्न जो है स्वस्वरूप सो नहीं मिल है विचारद्दी करत रहिनायहै॥२॥सो मनरूपी नदियांहै नहीं जो ते बिचारकरै त्‌ तो मनके बाहर हे परंतु सरस नीर सट्ढल्पौबरने है। अब मच्छको मारनवालो केवट

ज्ञान तीर में बने है परंतु काम क्रोधादिक मच्छ तेरे मारे नहीं मरे हैं॥

सा ञर बिक कृह कृवीर यह मनकोी चोखा। बेठा रहे चला चह चोखा सो कबीरजी करहेंह्ें |के, नाना मतमें परि७ संसार छूटिबेको नहीं उपाय करो हो चोजे कहे तीके चला चाहोही परंतु हो बेठे कहे साहबके मिलिबेकों उपाय ये एकउ, नहीं हैं काहैते कि, पश्चिमको ग्राम नगीचऊ होइ तहांजाइबो चाहे जसजप पूवेकी मेहनत करिके मंजिलकरे तो. तस तस दूरिही परतु जाइहै यह संसा

मनको धोखा मिथ्याहै सो मनते मिन्न हैंके साहबमें लगे तबहीं साहब मिलेंगे४ इझइत इक््यावनवा शब्द समाप्त

(६०४ ) बीजक कबीर दास !

अथ बावनरवां शब्द ५२॥ बूझि लीजे ब्रह्मज्ञानी।

: चोरि थोरि वो वरपांवे परिया बुंद ने पानी १॥ चींटीके पग हस्ती बांधे छेरी वीगे खायो उद्वि माहिते निकासि छांछरी चौड़े गेह कशायो २॥ मेडुक सपे रहे इक संगे विलली इवान विवाही

नित उठि सिह सियार्सों जूझ अदभुत कथो जाही॥३॥ संशय मिरगा तन वन घेरे पारथ वाना मेले

सायर जरे सकल वन डाहे मच्छ अहेरा खेले 8॥

कह कवीर यह अड्भत ज्ञाना को यहि ज्ञानईँ बूझे

वेनु पंखे उड़िजाहि अकाश जीवहि मरण सूुझे ॥|

वूझ्ि लीजे ब्ह्नज्ञानी पोरि घोरि वयों वरवाव परिया बुढ पानी ॥|

की, हा.

हे ब्रह्मज्ञानी | आप वूझिये तो घोरिषोरि कहे नये नये गन्थन को बनाइकै कहे माया बह्ानीव एकैमें मिठाइडारये कि, एक हीं बह्म है वहीं वाणी शिष्यनके श्रवण में बर्ष; ऐसो बषोयोही परन्तु तुम्हारे बानीरूप पानी को बंदह उनके परयो जथोीत्‌ तनकऊं ज्ञान भयो वे वह्म कबहू ने भयो से तम्हारों यह हवाल हरही है

चींटीके पग हस्ती बांधे छेरी बींगे खायो

38३७३ ७.

उदाच माहते नकास छांछरोीं चांडे गह कराया॥ २॥ चोटी कहिये बद्धिकी काहेत कि, सूक्ष्म होर है कुश|गत्त्ती शासत्रमें कहे हें ताके

पाइमें मतड़ररूप नोमनहै ताको वांधिदियो मनबड़है।ओऔ दुर्वोरमतहै याते हाथीकद्यो

च्छ

छब्द ( ३०५ )

बढेरी नो है माया से बीगा नो है जीव ताको खाइ ढियो जीवकों बीगा काहेंते कद्मो कि, नो जीद आपने स्वरूप को जाने तौ छेरी नो है माया ताको नाशके देह से ४यी मायही दीए। शोदक़ों आपने पेटमें डाशिलियो अरु छेरी मायाको कहे हैं तामें प्रमाण अजामेकांजोहितशुक्ककृष्णां इत्यादि | सो छोक प्रकाश जो उदधि तहांते निकरिके चौंडी छांछरी नो संसार तामें मच्छरूप जीव घर मायाते बनवायों अर्थाव्‌ संसारी हैं गयो

मेढुक सपे रहे इक संगे बिछी इवान वियाही

नित उठि सिंह सियारसों जूझे अद्युत कथो जाही३॥

वह कैसो संसारहै नहां मेटुक ( जीव ) सपे ( कार ) एकैसंगरहे हैं नाना शरीरंनकों कार खात जाइहै पुनि पुनि शरीर होत जाइहे अरु बिल्ली जो है मानसी बृत्ति सो इवान स्वानुभवानन्द ताको बिवाहीगई अर्थाद वाही में ठगिगई वृत्तिकोबिल्ली कहिते कह्मो कि, बिल्ली जहां गोरस देखे है तहें जाइहै यह वृत्ति जो है सोऊ जहै रस जो है सुख सो देखेहे तहैं नाइहै। से स्वानुभवानन्दर्मं बहुत सुख देख्यो याते वाहाका बिवाहींगई तब नित- उठिके सिंह नो ज्ञान सो सियार अज्ञानंत मारो जाईहे जो कहो ज्ञान तो अज्ञानकी नाश करनवारो है अज्ञानत ज्ञान कैसे नाश होंशहै ! सो वह जो ब्रह्मश्ान कियो कि, हम ब्रह्म हैं सो अद्भत है कहिबेलायक नहीं दे नेति कहैह अर्थात्‌ कोई जीव बह्म नहीं भयो यह कोनेहू शास्त्र पुराणमें नहीं कह्यो कि, फलानों जीव बह्म हे गयो याही ते मढाज्ञानमं ठहराये हैं

+ १. 8 संशय मिरगा तन बन घेरे पारथ वाना मेले

सायर जरे सकल बन डाहे मच्छ अहेरा खेले येई दृइतुक अधिकसे नानेपरें परन्तु पोथीमें लिखों छख्यो अथे करिदियो सो शरीरबनकी संशय जो मिरणगा है सो घेरे है पारथ ने हैं गुरुवा छोग ते संशयरूपी म़गाके मारिबेकीं बाण जो है नानाभकारको उपदेशरूप बाणी ताको मेंलैहें सो उनको बाणीन ते संशय तो नहीं दूरि होइहैं। संशय कहा है सो कहे हैं सायर जो है बिविकसागर सो जरिनाइ है नाना शरीर ने

*्ञ् जे के

कक

३०६ ) बीजक कबीरदास

बन हैं ते छाय देइ हैं अर्थाव्‌ गुरुवनकी बाणी सुनि सुनिके शिष्यकोग जब और और जीवनकी उपदेश कियो तब उनके सबको साहबकों बिवेकजारिनरि- गयो औरेओरे में छागेगये विवेक करिके साहबको ज्ञानजो हैबेको रे सो भयो तब संसार समुद्र मच्छ जोहे काछ सो अहेर खेले है अर्थाव नीवनको खाइ है

कह कबीर यह अद्भत ज्ञाना को यहि ज्ञानहि बूझे | अप आन अक के

बिन पंखे राड़ि जाहि अकाशे जीवहि मरण सूझे ५॥

श्रीकबीरजी कहे हैं कि, यह संसार अछुतहै ब्रह्म अद्भुत है इन दूनोंको ज्ञान जिनको है कि, ये थोंखा है ऐसी को है ! अर्थात्‌ कोई नहींहै परन्तु नों- कोई बिरछा बूझनवारों होइ मन माया है दोनों थोखा हैं येई तहैं डड़े हैं नाना पदायनको स्मरण होंहहै नाना योनि पविहै संसारमें तिनकी छोड़ि एक परमपुरुष श्रीरामचन्द्रही को हैरहे तो ब्रह्म नो है आकाश ताते उड़े कहें निकसिके साहबके यहां पहुँचे जाइ जो कहो बिना पखना कैसे उड़ि- जाय सो यहां उपासना दुइप्रकारकी हैं एक बांदर केसो बच्चा भजन करेहे कि, बांदरकों बच्चा अपनी माताकों आपही धरे रहै है सो यहजीव नाना पका रकें शाखादिकनते बिचार करिके असांच मत खंडन करिके आपही अपने साहबको धरे रहे है भ्रम में नहों परै है।औ दूसरी उपासना बिछारीकें बच्चाकीसीहै बिछारीकों बच्चा और सबकी भाशा तोरे माताकी आशा किये रहैहै से वह विछारी अपने बक्षाकों जहां सुपास देखे है तहां आपही उठाइ हैजाइहै। तैसे यह जीव वेद शासत्रको छोड़िके काहके मतंके खंडन करिबेकी सामथ्य है अपने मतके मंडन करिबेकी सामथ्येहै साहबकों जाने है कि, में साहब का हों दूंसरो मत सुनतहीं नहीं है सो जब सब पक्ष को छोड़िंकै साहब कों ट्ैरहो, तब याफो साहबहीं हंसस्वरूप दैंकै अपने छोककों उठाइ डैजाइहे ॥५॥

इति बावनवां शब्द समाप्त

शाब्द्‌। (२३२०७ ) अथ विर₹हल शब्द ५३॥

गुरुसख वह विरवा चीन्हे जो कोई।जरा मरण रहिते तन होई॥१॥ विरवा एक सकल संसारा।पेड़ एक फूट तिनडारा ॥२॥ मध्यकेडार चारि फल लागाशशाखा पत्र गनतको वागा॥ ३॥ वेलि एक त्रिभशुवन लपटानी।वाँधेते छूटिहि नहिं प्रानी॥४॥ कह कबीर हम जात पुकारा।पण्डित होय सो करे विचारा «

वह विरवा चीन्दहे जो कोई।जरा मरण रहिते तन होई॥ १॥

जो बिरवाको आंगे बणेनकरे हैं ताको जो कोई चीन्हे असार मानि लेइ सार जो साहब तिनकों माने सोपाषेद स्वरूप हैनाइ जन्‍म मर- णंत रहित द्वैनाइ

बिरवा एक सकल संसारा। पेड़ एक फूटल तिन डारा ॥२॥

मध्यके डार चारि फल लागा।शाखा पत्र गनत कोबागा॥ ३॥

सो एक बिरवा सब संसार है तौने बिरवाको पेड़ कहे मूल विराट पुरुष है तैनेमें त्ह्मा विष्णु महेश तीनिडार फूट्यों है सो मध्यकी ढार नें विष्णुहेँ तिनमें अर्थ धर्म काम मोक्ष येचारि फल छागत भये चारि फलके देवै- या विष्णुह सो नो कोई विष्णुका उपासक होइ सो चारों फलके पांव है ढारन जो दरेया कहे हैं ते शाखा कहावे हैं। सो बल्ला विष्णु महेश ने तीनि डरे हैं तिनते नाना देव नाना मत भये। तेई शाखा हैं। तिनको को गनत बा- गहे अथीत्‌ उनको अन्त कोई नहीं पायो सतोगुणी रजोगुणी तमोगुणी जे नाना वासना होतभई तेई पत्र हैं

| पी

वैलि एक जिभुवन लपटानी।वाँधे ते छूटिहि नहें प्रानी॥३॥ कह कवीर हम जात पुकारा।पंडित हो सो करे बिचारा ५॥

[2०]

( २१०८ ) बीजक कबी रदास

वृक्षमें बेलि छपे है सो यह संसाररूंपी वृक्षमं आशारुपी बेलि रूपटि गई है तामें वेंधिके प्राणी छटे नहीं है साहब कहे हें कि. हे कबीर !

चने

ऊंट जीव तोकों संसार जातमें हम पुकाराहे राइवामकः दे भा ह्हे बिचार करिलेइ अर्थात्‌ अध्वार जो रामनाममें जगव्‌ मुख अर्थ ताकी छांड़ि राममें साग् नो में ताको जानिके रामनाम जपिके मेरे पास आवै

इति तिरपनवां शब्द समाप्त

अथ चौवनवां शब्द ५४ सोईके सैग सासुर आंई। संग घूती स्वाद मानी गयो योवन सपनेकी नाई॥ १॥ जना चारि मिलि रूगन शोचाई जना पांचमिलि मंडपछाई। सखी सहेली मंगल गावे दुख सुख माथे हरदि चढ़ाई॥ नाना रूप परी मन भांवारे गांठि जोरि भई पति आईं। अरे देंदे चली सुवासिनि चोकहि रांड़ मई संग साई ॥१॥ भयो विवाह चली बिन दूलह वाद जान समधी समुझारे।

कह कबीर हम गोने जेबे तरव कंतले तूर बजाई यह जीव परमप्रुष श्रीरामचन्द्की शक्ति है सो जौनी भांतिते याकोी आपने स्वरूपको ज्ञान रह्यो है फिरि भयो है सो लिखे हैँ

सांईके संग सासुर आईं। सड़ सूती स्वाद मानी गयो योवन सपने की नाई

प्रमपुरुष श्रारामचन्द्रके छोकको प्रकाश जो ब्रह्म है ताको साई मानिकै ताही सद्ग सासुर जो यह संसार है तहां आई सासुर संसार कंहेते ठहरचों कि, अहंबह्बुद्धि संसारहीमें होईहे जब संसारकेबहिरे रहै है तबतो याकों सुधिही नहीं रहेंहे जब महापलय है जाइहै तब सत्‌ नो है साहबके छोककों

ठाब्दु | ( ३०९ )

प्रकाश ब्रह्म ताहीमें सब रहे हैं नब डत्पत्तिकों समय भयो सुराति पायों तब आपनेको छोकप्रकाश ब्रह्म मान्यो तब मनभयों मनते इच्छाभई तब यह ब्रह्मकहै हैं कि, में जीवात्मामें प्रवेश करिके नामरूप कार हों।सो जीवात्मामें मवेश कारेके नाम रूप जीवात्माके करतभयो याहीते याको साई मानिके चित शक्ति जीव सासुर जो संसार तहां आवत भयो सो वह ब्रह्मकों खसम मामि छलेबो धोखा- है काहेते कि, वह तौ निराकारहै सो वाके संग सोवत भई,न स्वाद पावत भई नानारूप धरत भई तेई यौवन है जे सपने की नाई जातभये सो जोनी भांति चिवशक्ति जीब सांइके संग ससुरेमें आई सो लिखेंहे अपनेको तरह्म मान्यो तब संसार की उत्पत्ति भई तामें प्रमाण कबीरजीके शब्दमंगलछकों ( सो उत्पत्ति

अं

बीनह, शून्य प्रठढय कर ठा्ड | तन छूटे कह जाइहौ, अकह बसायो गार्े ॥१॥)

जना चार मिलि लगनशोचाई जना पांच मिलि मंडप छाहे। सखी सहेली मंगल गांवे।दुख सुख माथे हरादि चढ़ाई॥२॥

जना चार कहे मन बुद्धि चित्त अहंकार ये जे अंतःकरण चतुष्टय हैं तेई मिलिके छग्म शोचावतभे अथीत्‌ जीवको शरीरकी छम्म लगावतभे। ननापांचें कहे पृथ्वी जल आम वायु आकाश येपांचों तत्त्व मिलिके मेडप छावत भये अर्थात्‌ शरीर बनावतःभये सखी सहेली जे हैं पांच कर्मेन्द्रिय ते मंगल गावेहें गाइबों कहांहे कि, रूप रस गंध स्पर्श शब्द ये विषयकों लेनढंगे और नाना पकारकी जे पुण्य पापकी बृत्तिहें तई कुवांरी कन्याहें सो तानाप्रकारके पृण्य पाप कराइ- के दुःख सुख की हरदी जीवरूप दुलूहिनिके माये चढ़ाबै हैं

नाना रूप परी मन भांवरि गांठी जोरि भई पति आई। च््‌ हा. अर + कि कं प्र्श् अरे देंदे चली सुवासिानि चौकहि रांड़ भई संग साई॥३॥

नानारूप कहे नाना भांति की जे वासनाहें तिनहीकी याके मनमें भांवरि परिगई है चिव्‌ अचखिवकी गांठी पारिगई ताहीते बह्मको पति आई कहे पति आइ गई है अर्थांद ब्रह्मको पंति मानिलियो है कि, वह ब्रह्म मैहों हों हेतु यहहै

#

(३१० ) बीजक कबीरदास

कस 8

कि,जब विवाहदठै नाइहै तब ख्री अर्दधागी हैनाईहे सुवासिनि वे कहावैहें ने या कुछकी कन्या अनत बिवाही रहै हैं सो जब संसारमें नीव ब्रह्म फांसमें फँसिगयो तब सुवासिनि जे हैं साहबके जनेया तिनको बह्मसें विवाह नहों भयो ते अरघ ईैके कहे उपदेश करिके वाको हैचले सो यद्यपि याकी चौका बनोहींहै मड़ये के तर बैठीही है अर्थाव यद्यपि संसारमें शरीर धारण किये है परंतु तहें रॉड़ डैगई बरह्यकी पतिमानि राख्योहै | सो बिचारा मरिगयों अर्थात्‌ वाको धोंखा-

समुझि लियो इहां रांड़ हैबो कॉहैआये सांच साईंकों संग बंनेंहे यह जो

. कहो सो साहब स्वेत्न बनेहे वह अहंश्हझंको बिचार मिटेगयों हे

भयो बिवाह चलीविनु दूलह वाट जात समधी समझुझाई डे कह कबीर हम गोने जेबे तरब कंतले तूर बजाई

सोइ सत रहते विवाह भयो कहे इस तरहते संसारी भयेो पुनि बिन दृल्ह चलछतभई कहे अहंब्रह्म बुद्धि रंहिगई मुक्ति हेंके चितशक्ति जीव साह- बके पास जाइबेकी गैल लियो सो वह बाट नातमें समधी जो है शुद्ध स्मष्टि जाव सो याको समुझावत भयो कि, जैसे हम डुद्ध हैं तैसे तुमहे शुद्ध हो अर्थाव जबनीव साहबके छोक प्रकाशकों बेधिंके साहबके छोककों चल्‍्यों तब यह समुझत भयो कि, जैसे ये शुद्ध रहे हैं तेसे हमहूं शुद्ध रहेहें, यह बीचहीमें धोखा भयो है।उनको देखिक यह ज्ञान मयो यही उनको समुझाइबो है सो कबीर नो है कायाकों बीर जीव सो कहैँहें कि, मन बचनके परे जो साहब के ऊपर दूसरों साहब नहीं है जासें हमारो बिवाह हैबेको नहीं है वह हमारो सदा कों कंत है। तहां हम गवनजाइहै अथौतव्‌ तहांको हम गवन करेंगे अरु वाही कंतकों लेके कहे पाइके तरिजाब | औरे कंतको लैंके नतरेंगे तहैं परम मुक्ति रूपी तूर वजावेंगे | अर्थाव्‌ ओर ईइवरनमें छागे आपनेकों बह्ल माने मुक्तिह्पी तूर बानैगो अथात्‌ संसार सब उपासना ब्रह्म द्वेनाइबो ये सब तूरिके साहबके पास जाइकै अर्थात्‌ डंकादैकै जाइगो

इते चौवनवां शब्द समाप्त

झाब्द | (३११ )

अथ पचपनवां शब्द ५०५।॥। नलको ढाढ़स देखो आई। कछु अकथ कथा है भाई ॥१॥ सिंह शादुल यक हर जोतिनि सीकस बोइने थाना बनकी भलुश्या चाखुर फेरे छागर भये किसाना २॥ कागा कपरा धोवन छांगे बकुला किररे दांता माछी मृड़ मुड़ावन लागी हमहूं जाव वराता छेरी वाघहि ब्याह होतहे मंगल गावे गाई बनके रोझ थे दाइज दीन्हो गोह लोकंदे जाई कहे कवीर सुनोहों संतों जो यह पद अथोंवे सोई पंडित सोई ज्ञाता सोई भक्त कहावे «

(० पि#- ये 4,

जिनको सद्गुरु मिले तिनकों या भांतिडद्धार है गयो जिनकी सदगुरु नहीं मिले जे सदगुरुको नहीं मान्यों तिनकों गुरुवा छोग और और मभतर्मे लगाइंदेइ हैं वे साहब को नहीं जाने हैं सो कवीरजी कहे हें

नलको ढाढ़स देखो आई कछु अकथ कथाहे भाई॥१॥

साहब कहते हैं कि, हे भाई! हेसंतो! टाढ़सदेखो यहजीव मेरों अंशहै सो मोंकी नहीं जाने हे ओर औरमें छागिके खराब होइ है नाना दःखसहै है मोकों जानिके दुःख नहीं त्यागकरै है बड़ो ढाढ़सी है सो हे भाइड ! ढादुस करिके जीनेके लिये नाभ॑ यह छांगे है सो ब्रह्म अकथ कथा है कहिबे लायक नहीं है वह अह्म बिचार झूंठा है वहां कछु माप्ति नहीं है सो अकथ कथा कहे हैं

सिहशाहुल यकहरजानान सीकस वाहन चाना

वनकी भलुश्या चाखुरफेरे छागरभयेकिसाना॥ यहां सिंद जो है जीव शादईछ जो है मत येई दोऊ बैक हैं ; कर्म जो हैं सोई हर संसार सीकस भूमि है कहे ऊषर भूमि है अजा कहावे है माया से

(३१२ ) वीजक वाबीरदास |

छेरी ताके पति बोकरा है सो छागर कहाँवे तेईं माया में रूपटे किसान गुरू वा छोग सो जोतिके उपदेश रूप धान बोवत भय तौने नवानावके ने भलुइया कहे भुलावनहारि पण्डित तेई चाखुर फरें कहे निरावै हैं अथोीव तातें बात्ति करिके वेद जो साहब को बतावै है ताकी अर्थ फेरिडारे हैं

कागा कपरा धोवन लागे बकुला किररे दांता माछी मृड़ सुड़ावन छागी हमह जाब वराता

कम

नाना पाखंड मतमें परे ऐसे जे हैं: मलिन पाखंडी जीव तेई काम हैं ते कपरा धोवनछगे कहे सबको उपदेश करे हैं कि, हमारेमत में आवो तो हम तुम्हारो अंतःकरण शुद्ध करिदेई ! रूपकपक्षमें नब बरात जाइहै तब सबुनी करिके छोंग जाईहें ताते यहां सबुनी करिबो लिख्यों अरु जिनके अंतःकरण- रूपी धोवनकों वें उपदेशकियों तई बकुछाभये कहे ऊपरते तो वेष बनाये चन्दन टोपी दिये हैं अंतःकरण माेनहै :बिषयमें चित्तलगाये रहें हैं जहां कोई संत मत कहन छंगे है ताको खण्डन करिडारे हैं दांत किररे हैं कहे कोप करे हैं जैसे बकुला ऊपरते तोस्वच्छ है नदी के तौर मछरी खाइबेको बैठे है| भीतर बासना मलीन भरी है; हंस आंवै हे तिनकों डेरवाय कै बैठन नहीं देइहे दांतकिररे है! तैसे बरात जब चंडे है तब कारिंदा कामकानी सफेद कपरा पहिरि दांत किररे हैं कि.यह कामकरो वह कामकरो कहा बैठे हों यह रिस करे माछी कहे जो माया ते क्षीण हैबेको बिचारकरे हैं, ते माछी-कहवव हैं अथीौव्‌ मुमक्षू ते नाना मतके जे गुरुवा छोग हैं तिनके यहां मृड़ मुड़ांवै हैं कि, हमहू बरात जाब कहे हमहूं मुक्त होब सो वहां मुक्तितो पायो नहि पर गुरु वनकी मीठी बाणी में परिके आपने को ब्रह्म मानत भये तेहिते स्वस्बरुपको ज्ञान रहिगयो मायामें फैसिगये रूपक पक्षम दुरूहा के संगती ने हैं ते बार बनवावे हैं

छेरी बाघहि ब्याह होत है मंगल गावे गाई वनके रोझ थे दाइज दीन्हो गोह लोकंदे जाई ४॥

छाच्द ( ३१३ )

कप रोहि

अव ब्याहकों रूपक कंहे हैं गुरुवा छोग ने हैं तेई पुरोहित हैं उपदेश करन बारे ते छेरी नो है माया ताको बाव नो है जीव ताको ध्याह होतहै अथीव्‌ मीवशो मायामें ढारिदेइ हैं छेत नो है माया ताको बाघ जो है नींव सो खाइलेनवारों है अर्थीव्‌ नो जीव आपने स्वरुपको जाने तो मायाकी नाश करिदें अरु तहांगायरुपी नो गायत्री है सो मंगल गावे है अर्थात्‌ सब जीवको कर्तव्य गायत्री गावे है वेद गायत्री ते कह्मो है बन कहे वाणीकों रोझ जो है प्रणव ताकी दाइन दीन्हों यहां रोझको प्रणव काहेते कद्मों कि, रोझ गये कहाँत हैं काहेते कि, गोकी सदश होइ है सो गेया जो है गायत्री ताकें सहश प्रणवही है अर्थात्‌ वह गायत्री म्णवहीं ते निकसी हैं। प्रणव ब्रह्म है ताको दाइन दीन्‍्हों कहे ब्ह्न मेंहीं हों यही प्रणवको अर्थ समुझाइ दीन्‍्हों कन्पाकेसाथ नो डोछहाई जाइ हैं तेलोकंदी कहावे हैं सो यह लछोकोंक्ति है मिथिढाकैती कहे हैं सो गोह जो है सो लोकदे जाइ है कहे डोलके साथ जाइ है वहां गोह कहे गो जो इंद्विय हैं जब जीव मायामें टपे तब और चंचलर हेनाइ है नाना शरीरूप डोछाममें चढ़ा नीव ताहीके साथ साथ नाइ है

क्हे कवीर सुनो हो संतो ! जो यह पद्‌ अथोवे

साह पाडत सर ज्ञाता साई भक्त कहावे॥

सो कबीरजी कहे हैं कि, यह साहबकी कह्मो नो यह पद है ताको हे संतों ! तुम सुनो इस पदमें ने श्रम वर्णन कियो तिनको छोड़िके यह पद॒को अर्थ सांच नो साहब ताको जाने असांच को छोड़े सोई पंडित है सोई ज्ञाता है सोई भक्त है

इति पचपनवां द्ाब्द समाप्त

(३१४ ) बीजक कबीरदास

श्रीकवीरजी साहब की उक्तिमें कहेंहें गुरुमुख अथ छप्पनवां शब्द ५६ , नरको नहिं परतीति हमारी | झूठे वनिज कियो झूठे सन पूजी सवे मिलि हारी १॥ पट द्शैन मिलि पंथ चलायो तिर देवा अधिकारी राजा देश बड़ो परपंची रइअत रहत उजारी २॥ इतते उत उतते इत रह यमकी सांट सवारी ज्यों कपि डोर बांधि वाजीगर अपने खुशी परारी ३॥ यहे पेठ उत्पत्ति प्रलय को विषया संबे विकारी जैसे इवान अपावन राजी त्यों लागी संसारी कह कवीर यह जद्भुत ज्ञाना मानो वचन हमारों। अजहूं लेहूं छोड़ाय कालसों जो घट सुरति सभारो ॥५॥ है नरको नाहं परतीति हमारी झूठे बनिज कियो झूठे तन पूजी सबे मिलि हारी ॥१॥ सबते गुरु परम परपुरुष पर श्रीरामचन्द्र कहे हैं कि, नरको हमारी पर तीति नहीं हैं सब छोग झूठेसों झूठी बानिन करत भये कहे झूठे बह्ममें नें ढगावै हैं ऐसे ने गुरुवा छोगहें सोंदागर तिनसा झूंठी बनिन करतभये कहे झूठे ब्रह्मम लगावे हैं अर्थाव्‌ जो वे उपदेश कियो कि,“तुमहीं बह्महौ'' सो झूठा है तासों बनिन करिके पूजी सब हारिगयी कहे आपनी आत्माको ज्ञान भूलि गयो कौन ज्ञान भूलिगये कि, यह आत्मा तो मेणे सदाकों दास है बद्धहमें मुक्तहमें हैं ताम प्रमाण॥ दासभूताः स्वतः सर्वे ह्यात्मानः परमात्मनः नान्‍्यथा छक्ष-

णन्तेषां इंच मोक्षे तयैव च” इति पद्मपुराण जो कही भुरवाइ कौन : दियों ! सो आंगे इसका समाधान करते हैं

ऋाब्द (३१५ )

षट दर्शन मिले पंथ चलायों तिर देवा अधिकारी

राजा देश बड़ो परपंची रहइअत रहत उजारी २॥ पट दर्शन ने हैं ते मिलिके नानापंथ चछावत भये कोई योर्गहिके योग धारण करन छग्यो, कोई अनुभव कथिक शृन्य ज्ञान पंथ चलायो,अरु कौई नाना पकार के कम करने छगे, कोई नाना उपासना करने रुग्यो, कई में ब्रह्महों यह कहने छग्यों, कोई करत्ती न्‍्यारा है यह कहने छूग्यों कोई मतछोड़िके आत्मामें स्थित भयो या ब्रह्मांडमे ब्रह्मा विष्णु महेश अधिकारी हैं ते सब मतनके अधिष्ठाता हैं या हेतुते सत रत तमते कोई नहीं छटयो ओई राजाहे जे हैं ब्रह्मा विष्णु महेश उनको देंश जोंहे खत रन तम सो बड़ो परपश्वी है याहीते रइअत ने और सब जीवहैं तिनके अंन्तः- करण उनारे रहे हैं जो है भक्ति मोर, जो है ज्ञान मोर, सो उनको अन्तःकरण में नहीं होन पांवै हे ३२ इत॑ते उत रहु उतते इत रहु यमकी सांट सवारी ज्यों कपि डोर वांचि वाजीगर अपने खुशी परारी॥३॥ तैहिंते इत उत कहे कहूं स्व नाइहै, कहूं नरक जाई है, कहूँ आपने उपास्य देवतनके छोक जाइ फिरि इहां आयके उनहींकी उपासना करेहे औं पुनि जब उपासना भूछे तब पुनि पापकरिके नरक जाईहें निनके वास्ते यमकी सांठ सवारी कहे यमके देडते नहों बचेहे | जोने कपि कहे वौदर को बाजीगर आपनी डोर ते बांघेंहे वह बांदर बाजीगरके बश हैगयों तब आएपनी खुशी तें बाके बेधनमे परो रहै है नाना नाच नाचे है प्रथम चित्‌ शक्ति में जगवको कारण रूप वनों रहो याही भांति सब जीव माया बराक बश द्वैगयों, तब वहीं बंधन में अपनीखुशी ते परे रहे हैं; वही ब्ह्मको ज्ञान करे हैं मोको नहीं नानेहें॥ | आप यहे पेठ उत्पात्ति प्रढयकों विषया सूबे विकारी। जेसे शान अपावन राजी त्यों लागे संसारी 8 यहे माया ब्रह्म उत्पत्ति प्रठढयको पेठहै अरु संसतारमें जे संपूर्ण बिषय हैं तेईं विकार हैं यांते मोहिंते व्यतिरिक्त जे पदार्थ संसार में ज्ञान योग वैराग्य

(३१६ ) बीजक कबीरदार

भक्ति आदिक जेहें ते सब विषय हैं या हेतुते कि, जामें जामें मन छगहे ते सब मनके विषय हैं ते सब बिकारई हैं जो ““यहै पेठ उत्पात्ति मछयको सौदा संबे विकारी”ऐसो पाठ होइ तो यह अथे पेठ नाऊं हाठको यह देश भाषहै सों अनन्त कोटि ब्रह्माण्डनके उत्पात्ति प्रछय को माया ब्रह्म दोनों तरफकी पेठ कहे बजारहैं सो यह जगत शहरहे विषयरूषी सौदा जो है ताके संसारी जीव छग- बारे हैं सो जैसे इवान ( कुत्ता ) सो अपावन जो हाड़है ताको चार्टेहै तब वोंही- के दांतते छोह निकसे हे सो हाड में लगेहै सोऊ चाटते जायहै, वही में राजी रहेंहै; तेसे यह आत्मा अपने श्रममें पराहे वहीकों श्रम नाना विषयर्में सुखरूप देखो परेहे सो बिषयतो जड़हे बिषय में सुख नहीं है याहोकी सुख बिपयन में जाइरैंहे आपनोई सख विषयमें पांवै है अरु माने है कि, में बिषयको सुख- प्रारऊं हों अरुपर वह बह्मकों अनुभव कियो तहां वाके आत्मेकी सुख मिले है; जाने यह है कि, मोकों ब्रह्मानन्द भयोहै काहेते कि, जब भर अहं बह्म बुद्धि रहेहे तबभर तो मूलाज्ञान ठहराइ है जबसबको निराकरण है गयो एक आत्मा ही को ज्ञान रहिगंयो सो ब्ह्मानंद रूप होइहे तेहिते वहत्ह्मानन्द आत्माहीकों आनन्दहें सो जैसे इवान आपनेही लोहके स्वादते हाड़को चार्टहे तेसे यही आप« नो सुख विषय बह्ममें पाइके भूलि रह्मो संसारी ज्ञान याके छगी रहो है ॥४

कह कबीर यह अद्भुत ज्ञाना मानो वचन हमारो

अजहूं लेइं छोड़ाय कालसों जो घट सुरति सभारो «

सों हे कबीर कायाके बीर जीवों ! हम तुमर्सें यह अद्भुत ज्ञान कहेंहैं हमारो बचन मानो जो अपने घठमें सुरति सँमारों वह सुरति मोर्में छुगावों तो अबहूं कहे माया बह्ममें तुम परेहो ताहपर तुमको में काछते छोड़ायलेडे

अथवा अनहूं को भाव यह है कि, कालकी दाढ़ में तुम परिचुके ही सो कालते तुमकों छोड़ाइ लेडैंगो

इति छप्पनवां जब्द समाप्त

छाब्द (३१७ ) अथ सत्तावनवां शब्द ५७॥

कब या पा फल चित कण आए प्रश्न हि हि ध्झ हु ध््य् च& 5

शन्द संखुकश् सुपरित नाहां अंबर नंय॑ हियांकी फूट[॥१॥ पानी माह पषानकी रेखा ठोंकत उठे भभृका

सहस घड़ा नितही जल ढारे फिरि सूखेका सखा॥ २॥ सेते सेते सेत अंग भो शयन बढ़ी अधिकाई।

जो सनिपात रोगि अहि मारे सो साधुन सिघि पाई ॥३॥ अनहद कहत कहत जग बिनशे अनहद सृष्टि समानी | निकट पयाना यमपुर थावे वोलहि एकहि वानी सतर रु मिले बहुत सुख लहिया सतगुरु शब्द सुधारे कह कवीर सो सदा सुखारी जो यहि पद॒हि बिचारे ॥५॥

ना हरि भजे आदत छूटी शब्दे समझि सुधारत नाहीं अँधरे भये हियो की फूटी॥१॥

ना तें हरि भजै है अरु ना तेरी आवागमनकी आदत कहे स्वभाव छूत्यो सो काहे नहीं सुधारेहे काहेते कि, साहब कहतई जाहहे कि. जो मो कों अबहूं जीव नांने तो काछते छोड़ाय छेडें ताते आंधर भये हियोकी तिहारी फूटिगई कहे यहे आदत करत करत वृद्धावस्था पहुँची इन्द्रियन. जवाब दियों तामें प्रमाण नेह गये नेना गये, गये दांत कान घाण छरीदा रहिगये, तेऊ कहत हैं जान ”” अबहूं तो जानो भजन करिके छूटिजाड॥ २॥

पानीमाहँ पषानकी रेखा ढोंकत उठे भभ्वका सहस घड़ा नितही जल ढारे फिरि सूखेंका सूखा २॥

( ३१८ ) .._ बीजक कबीरदास |

हे जीबी | तुम बढ़ें जड़ हो मैसे पानीमें पाषाणकी रेखा कहे छोटी शर्बती पथरी डारि राखै तो और भभूका आगीकों उठनलंगे है चकमक में ठोंकेते तैसे नस जस साधुछोग उपदेश करत जाइहें तस तस साहब को भजन तो नहीं करोहो और काम कोध आदिक ने आगी हैं ते तुमकी जोर करत जाइ हैं। अथीव्‌ नब उपदेश करन छंगे है तब अधिक रिस करन लगोही, लैस

पाषाणमें नित हजारन घड़ा जल डॉरे पे पाषाण भीतर सूखे रहै है तेसे केतऊ ज्ञान उपदेश करे परन्तु हें जीवी तुम जड़के जढ़ही बने रहोही ॥२॥

सेते सेते सेत अंगभो शयन्‌ बढ़ी अधिकाई जो सनिपात रोगिअहि मारे सो साथुन सिधि पाई ॥३॥

सेत सेत नो ब्ह्नह तामें छंगे लगे तुम भीतर बाहर सपेद ह्ैगये आर्थाव बुढ़ाय गये ऊपरो के रोमा बुढ़ाय गये बह्ममें सोवत सोबत तोको आपनो स्वरूप भूलिगयों तब शयनमें कहे सो वत अधिकाई बढ़ी कहे आधिक सोव- नंगे अर्थात्‌ समाधिकरवछगे अपनीआत्माको ज्ञान साहबको ज्ञानओ जगव भूलिगयो पिशाचवत्‌ मूकवव जड़वत्‌ डन्मत्तवत्‌ बालवद तेरीदशाब्विगई सरोई लक्षण सन्निपातमें होइहे सो तोको सन्निषात भयो है। सन्निपातरोंग याको मारेहै डनको आत्माको ज्ञान भूलि जाईहै। ब्रह्म हैबो साध्ुछोग सिद्धि पाईहें कि, हम सिद्धहें यह मानि ले ही आत्माकों ब्रह्म हैबो असिद्धहै सो आंगे कहे हैं सीते धीते पाठहोंइ तो ज्ञान करत करत कि, संसार ताप हँमारों छूटि जाइ शीत अंग हैगये कहे सन्निपातकी अधिकाई तुम्हारे अड़में बढ़िआई अर्थाव सन्निषात में खबरि देह की भूलि जाईहै। ओऔ रोगिे- यनका मारे है सोई साधुलोग सिद्धिपाई है कि, हमको देहकी खबरि भूलिगई हम सिद्ध ह्ैगये

अनहद कहत कहत जग विनर अनहद्‌ सृष्टि समानी निकट पयाना यमपुर थावे बोलहि एके बानी॥

वह जो बह्म है ताकी हद नहीं है ताको अनहद्‌ कहत कहत कहे नेति नेति कहत संसार विनशि गयो अनहद नो अक्म है तामें साष्टिके सब

शब्द (३१९ )

छोंग समाइगये सृष्टिमें वह अनहृदतह्म समाइ गयो सो मानत तो यहहै कि, सब अह्महीमें समाईहै कहे ब्ह्मे हे जाइहै परन्तु निकट पयाना यमपुर- हीको थाइबो है अर्थांव्‌ आपनेको अह्ममानिके ब्रह्मनहों होइहै यमपुरही को चलेजायहें तेऊ एकही वाणी बोहैहँ कि, एक ब्ह्मही है दूसरा नहीं है। तामें धुनि यहहै कि, अरे मृट एकतो ब्रह्म है नरके कौन जायहे हि सतगुरु मिले वहुत सुख लहिया सतगुरु शब्द सुधारे। कह कबीर सो सदा सुखारी जो यहि पद॒हि विचारे ॥५«॥

हे जवो! तुमके सतगुरु मिले तो वे राम नाम रूपी पदमें साहब मुख अर्थ बताइ देह तौनेको जोतुम बिचारौ तो बहुत सुख पावो श्रीकबीरजी कहैहें ने शब्दनको अनर्थ अर्थ बताइके गुरुवाछोगन बिगारै डारयो है ते जब्द सतगुरु सुधारेहें काहेते अनर्थ अर्थ खंडन करिके वे वेद शासत्रादिकन के शब्दके तात्प- याँथ छोड़ाईके साहब मुख अर्थ बताइदेइहैं सो जो वा शब्द जो रामनाम ताकों जगत्‌ मुख, अर्थ बताइ देइहे सो जो कोई राम नामरूपी पद में साहब मुख अर्थ विचार सो सदा सुखी रहेंहे

इति सत्तावनवां ज्ब्द समाप्त

अथ अट्ठटावनवां शब्द ५८

नर हर लागी दव विकार विन इधन मिले बुझावन हारा। में जानों तोहींते व्यापे जरत सकल संसारा॥ १॥ पानी माहँ अगिनिको अंकुर मिल बुझावन पानी एक जर॑ जरे नो नारी युक्ति काह जानी शहर जरे पहरू सुख सोवे कहे कुशल घर मेरा

कुरिया जरे वस्तु नेत्र उबेरे बिकल राम रँग तेरा कुबिजा पुरुष गले यक लागी प्रूजि मनकी साथा करत विचार जन्म गो खीसा $ तन रहल असाथा ॥४॥

( ३२१० ) बीजक कबीरदास

जानि वि जो कपट करते तेहि अस मंद कोई कह कृदीर हव :* राबड़ी को और छोई

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कै हक है 0 ०,

नर हर लागी दव विकार बिन ईंधन मिले बुझावन हारा

में जानों तोहीं ते ब्यापे जरत सकल संसारा १॥

है नरहर दवछागी कहे तेरे स्वरूप की हरनवारी मायारुपी दवारि लगी है 'ें कैसाहै ! विकार बिन तो माया मोकों काहेकों छर्गहि ! तो बिना ईंधन को बुझावनवारो तोको नहीं मिल्यो, नो तोकों समुझाइ देई कि, तें बिन विकारको है जो मिलाहै सो नाना उपासना नाना मत रूप इंधन डानर वारों मिलाहै साहबकों ज्ञान रूप जल डारे माया रूप दवारि कैसे बुझाइ सो में जाने हों या मायारुपी दबारि व्रोहीते उत्न्न मै अर्थात मायादिक तोहीं ते भये ताहीमें सब संसार जरों जाईहे

पानी माह अगिनिको अंकुर मिलन बुझावन पानी एक जर जर नो नारी युक्ति काह जानी ॥२॥

सो वह मायारुपी अग्रिको अंकुर पानीमें है कहे नाना वेद शाख्रादिक बाणणीमें हैं ते वेद शाखादिकनके अर्थकों बदलिके साहबको छिपाइके मायारूपी अमिको प्रकट कियो तोकोओरे औरेमें छूगाइ दियो | अथीत्‌ वे सब मतनकों फल ब्रह्म्न जाइबों बताइ दियो वह अम्निक्रो वुझावन को वेद शाखांदिकन को जो सांच अथहें जछू सो नहीं मिलें है अथवा जे वेद शाल्रादिकन के सांच अर्थ मुनि जन छोग बताइ गये हैं, बशिष्ठ संहिता, शुक संहिता हनुमत्संहिता, अग- स्यसंहिता, सदाशिवसाहिता, सुन्दरीतंत्रादिक ग्रन्थ वेदशिरोपनिषद . विश्वम्भरोपनिषदादिक सांचे मतके कहनवोरत नहीं मिलैहै सो जब वह आगि छगी तब अंद्ैत करिके बहुत समुझावैहे परन्तु एक वह आत्मा नहीं जरै जौ साहबमें ने नवधा भक्तिहँ ते नव नारी हैं ते जरेहें सोयह युक्ति कोई नहीं

नान्‍यो कि आत्मा ब्रह्म नहीं होईहे साहब को जाने तो वे नवथा भक्ति नजरें ६२

शब्द ( ३२२१ )

शहर जरे पहरू: सुख सोवे कहे कुशल घर मेरा कुरिया जरे वस्तु निज उबरे विकल राम रँगतेरा॥३॥

शहर कह साहबके मिलिबे के नेते ज्ञानहें जीवात्मा के ते जरे जाहहें पहरू जो आत्मा सो सखरों सोवे 'हवके बतावनवार संतनहीं दरेंहें गी बुतावे सोव॑ते रहेंहे

अदानन्द सो कुशलहे यह 7 मरजा्ईगोी।ए्क माया बहारुपी जाहे स्वस्वरूप ज्ञानकी सोऊ

होयगी तब भ॑ सच्विदानन्द है सा यह करु जाते तरी आरे रंगमें लगिबो तेरो रंग

| पर “है| /थ ! छा थ् -!! /0:|। व्य पं: ब| ५-४ रा है |

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यह कंडे कि, में सच्चिदानन्द हा.सो नहीं जाने है कि. ये सब तो जररेही गंये आगिही राहिजायगी वहीं आगमिमें तर जरिजाइगी अर्थात जब बलह्लास्मि रूपहा यहू ज्ञान रहिनाइगो | याह। बस्तुज हैं साहब में नवधा भक्ति सो उबरे

| है औरामचन्द्रके रंगमें रंग यहा तरो रंग

कुविजा पुरुष गले यक लागी पूजि मनकी साथा करत विचार जन्मगों खीसा तन रहइल असाचा

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कुबिजा पुरुष कहे अंगभंग पुरुष जो वह बह्म हैं नपुंसक ताकों एकमानिके के, एक बह्मही है ताकेगले में, हे साहवकी जीवरूपाशक्ति ! ते छागी से जेंसे नपुसक पुरुषफेसंग स्रीकी साधनहीं पूजे है तेंस वह ब्रह्म में लग तुम्हारी साथ नहीं पूज हैं कहें वार्मं आनंद नहीं मिलहै ब्रह्मकी विचार करत जन्म खीस कहे बृदधा जाइ है। तन कहे यह मनुष्य शरीर पाइके

असाध रहे हे कहे साहबके मिझुनकों सुख नहीं पावे हैं हि ते अस मंद कोई

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कह कबीर सब नारि रामकी मोजें ओर सो जानि बूझिके जे छोग कपय करें है कहे वह धोखा बह्ममें छंगे हैं तिन ऐसो मंद कहे मृद कोई नहीं है सो कबीरणी कहे हैं कि, जहांमर चित्‌ शक्ति जीव हैं ते सब श्रीरामचन्द्रकी नारी हैं पो में जानो हों याते मोते और २१

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( ३२२ ) बीजक कबी रदास के

रुप साहबे है सो ने परम पुरुष श्रीरामचन्द्र को छोड़ि और पुरुष करे हैं ते छिनारि हैं सो जो छिनारि हैं तिनके ऊपर संसार रूपी मार परोई चाहै तमें व्यंग्य यहहै कि, ले परमपुरुष श्रीरामचन्दकों पति मानें हैं तेई माया ब्रह्मामिते बचे हैं

इते अहवनवां शब्द समाप्त

अथ उनसठवां शब्द ५० माया महा ठगिनि हम जानी तिरुण फांस लिये कर डोले वोले मधुरी वानी ॥१॥ केशवके कमला हे बेदी शिवके भवन भवानी

हु,

पेडाके मूरति बैढी तीरथर्म भइ पानी ॥२॥ योगीके योगिनि है बेठी राजाके घर रानी !

हर

काहुके हीरा है बेठी काहके कोड़ी कानी मक्तनके भक्तिनि है वेठी बह्माके बलह्मानी

कु

कदर कबीर सुनो हो संतो यह सब अकथ कहानी ॥४॥ माया महा ठगिनि है हम जानी | यह माया माधुरी बानी बोढिके निगुण फांघते सब नीवनको बांधिलियों सबके घरमें नानारूप करिके बैठीहै; केशवकें कमरा हैंके बेठी है, शिवके भवनभवानी हक बेठो है, पंडाके मरति है बैठी है, तीरथम पानी है रही है, योगीके घरमें योगिनि है बैठी है, राजाके रानी है बेठीहै, काहूके हीरा है बैठी है, काहके कानी कोड़ी हैंके बैठी है, अह्माके ब्ह्मानी है बैठी है। सो कबीरजी कहे हैं कि, हे संतों ! सुनो यह सब मायाकों चरित्र अकथ कहानी कहाँढों वर्णन करें यह माया सत्‌ असतते विलक्षण है कहिबे लायक नहीं है अरु याको अंतनहीं है २-४

इति उनसठवां शब्द समाप्त

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झाब्द | ३२३ )

अथ साठवां शब्द ६०

मायामोहहिमोहितकीन्हा तातेज्ञानरतनहरिलीन्हा १॥ जीवन ऐसी सपना जेसो जीवन सपन समाना शब्द गुरु उपदेश दियो तें छांड़यो परम निधाना॥ २॥ ज्योतिहि देखि पतंग हुलसे पश्ु नहिं पेख आगी ! काम क्रोध नर सुग्रध परे हैं कनक कामिनी छागी ॥३॥ सय्यद शेख किताबें निरखे पंडित शात्र विचारे सद्रुके उपदेश बिना तुम जानिके जीवहि मार करो विचार विकार परिहरो तरन तारने सोई कहकवीर भगवंत भजन करू द्वितिया ओर कोई॥५॥ मायामोहहिमोहितकीन्हा तातेज्ञानरतन हारिलीन्हा॥ १॥

पूवें जो वर्णन करिआये सो माया जीवकों मोहित करत भई सांचमें असांचकी बाद्धे होय है या मोहको लक्षण है। सो यह आत्मा तो शरीरनते भिन्न सांच है ताके शरीरकी बुद्धि भई कि, शरीर में हों, मनादिक मेरे हैं।

यह असांच बुद्धि भई याहीते मायामें परिगयो। तब याको माया मोहते मोहित करिके परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र हैं तिन को ज्ञान रतन जो रहै कि, में

उनको अंशहों, वे बड़े रतन हैं, में कनीहों अल्पज्ञ हों परन्त जाति उन हींकी हों, वे बिभु आनन्द हैं जैसे उनमें मनादिक नहीं हैं तैसे में जो उनको जानें दो महँ मनादिक नहीं हों यह जीवको ज्ञान रत माया हारैलीन्हो

[० 9 पीशििक जैसे |

जीवन ऐसो सपना जेसो जीवन सपन समाना

शब्द गुरु उपदेश दियो तें छांडयो परम निधाना॥२॥ यह जावन ऐसो है स्वप्त है यहि शरीरते दूसरे शार्रर्में गयो तब यह शरीर स्वप्त हैं गयो वह जीव स्वप्त ने संपूर्ण शरीर हैं तिनमें नहीं समान्ये

( ३२४ ) बीजक कंबीरदास

वहि शरीर ते मिन्न है काहेते मारेबों जीबो दरीरकों धम है, सो अपने स्वृरूपकों नहीं जाने हैं स्वप्त समान जे शरीर हैं तिनको सांच मानिलियो है। गुरु कहे सबते गुरुपरमपुरुष पर जे श्रीरामचन्छहैं ते शब्द जो रामनाम ताको उपदेंश दियो कि, तें मेरों है सो मेरे पास आउ सो तौने शब्दमें परमनि- पान कहें तिनके रहिबेकी पात्र नों साहब मुख अर्थ है ताको शब्द छोड़ि दियो संसार मुख अर्थ करिके संसारी हैगयों

ज्योतिहिं देखि पतंग हलसे पञ् नाहिं पेखे आगी। कामक्रोच नर सुगुथ परेह कनक कामिनीलागी ॥३॥

जैसे दीपककी ज्योतिकोी देखिके पतंग हुलसे कहे ज्योतिमें मिलिबेकों जाय है परंतु वह पशु नो है भज्ञानी पतंग सो नहीं देखे है कि, या आगी यामें जरि ने हैं सो वहीं धसिके जरि जाय है | तेसे काम क्रोधादिकनमें

जीव मुगुथ परे हूं या नहीं जाने हैं कि, यामें जरि जायेंगे हे कर आप कस के ही बे

सय्यद शेख किताब नीरख पाडत शामत्रावचार

सहरुके उपदेश बिना तुम जानिके जीवहि मारे

सो हैं सय्यद शेखीं ! तुम किताव देखिके नाना कर्म करोहो हैं पृण्डितो | तुम नाता शाखर पुराण पढ़िके सुनिक्के नाता कर्म करो हो सह्द- रुफ़ो उपदेश तो तुम लियो नहीं असतंगुरुन के पास जाइ जाई उनहीं को उपदक्न पाइकै जानि जानिके तुम अपने जीव को मारोही कहे जनन मरण रुप दुःख देउही साहब के जाननवारे जे हैँ तिनके पास नहीं जाउहौ जे साहबकी वताइदेर, जन्म मरण तुम्हारों छूटि नाइ या प्रकारते जानिके आपनी आत्माको मारो हो तामें मरमाण॥ “नृदेहमायं सुलभ सुदुलेभ छवे सुकल्पं गुरुकणेधारम मयानुकूलन नभस्वतेरितं पुमान्भवानब्धि तरेत्स आत्महा” इति ओभागवते

करो विचार विकार परि हरो तरन तारने सोई

किक

कह कबीर भगवन्त भजन करु ट्वितिया ओर कोई॥५

शाब्द ( १२५ )

सो विचार करो सम्पूर्ण ने विकार तिनकों परिहरो कहे छोड़ो) तरण तारण एक पुरुष पर श्रीरामचन्दही हैँ श्री कबीरनी कहे हैं कि, तिन- होंको भनन करू, उनते और दूसरों तेरों छोड़ाबन वारों नहीं है। हइहां तरण तारण दुइ कह्यो, सो तरण जो है मुक्ति हवेकी इच्छा तांत तारणवारों कोई नहीं है वोई हैं वही मुक्तिकी इच्छा करिके कोई ब्ह्मज्ञान कोई आत्मज्ञान कोई दहरो पासनादैक ताना उपासना करिके तरनको चाह हैं परन्तु कोई तरे नहीं हैं, जब तरनकी चाह छूटिनाइहे तब मुक्ति होइहै सो यह तरनकी इच्छाते एक परम पुरुष श्रीरामचन्द्रही तारिदेइहैं ! अर्थात उनहींकी दीन मुक्ति देंजाइहे ओरकी दीन मुक्ति नहीं देनाइहै! मवभर तरनकी इच्छा होइह तबभर मुक्ति नहीं होइहे तामें प्रमाण॥ 'भुक्तिमुक्तिस्पृह्ययावत्पिशाची-

हृदिवतते। तावद्धक्तिसुखस्पर्शःकथमम्युदयों भवेव”?॥इति भक्तिरसामृतसिन्धी इति साठवां शब्द समाप्त |

अथ इकसठवां शब्द ६१ मरिहो रे तन काले करिहों। प्राण छुटे बाहर ले घरिहों॥१॥ काय बिमुरचन अनवनि बाटी। कोइ जारै कोइ गाड़े मादी२ हिंदू ले जारे तुरुक ले गाड़े। परपंच दुनो घर छाड़े॥ ३॥ कम फांस यम जाल पसारा।ज्यों धीमर मछरी गदहि मारा8॥ राम विना नर हेंहो केसा वाट मांझ गोवरोरा जैसा॥ «॥ कह कबीर पाछे पछितेहो। या घरसों जब वा घर जैहो॥९॥

मरिहोरे तन काले करिहो प्राण छुटे बाहर ले घरिहो॥१॥ काय विगुरचन अनवनि बादी।कोइ जारै कोइ गाड़े माटी२

हे जीवो ! तुम मरिहीं तो फिर तन लेहों तैनेको हैके का करिही का था तनते कियोंहै का वा तनते करिहीं जबप्राण छूटेगो तब वाहू शरीरकों

( ३२६ ) बीजक कवीरदास

बे का कप 8 हट ऐप हक छा छूटेमे न्‍ हेके बाहरे धरोगे सो या काया जो है: ताकों बिगुरवचन कहे छूटे आनि आने बाटि है काहेते कोई तो या कायाको जारेंहे, कोई माटीमें गाड़ेहे, सो जो गारडेहे जारे है तिनकी अब कहे हैं

हिंदू ले जारे तुरुक ले गाड़े। परपंच दुनो घर छाड़े॥ ३॥ कम फाँस यम जाल पसारा।ज्यों चीमर मछरी गहि मारा ७॥

राम बिना नर हेहो केसा। वाट मांझ गोवरोरा जेसा

स्रोहिंदू नहें ते तो जारेें तुरक नेहें ते गड़िहें तो दूनो घरमे जों परपश्च हे ताको तू छाड़े संसारमें यमरान कम फांस रूपी जार पसा- रिराख्योहे जाही शरीरमें जीव जायहै तहें मारि डारेंहें जैसे धीमर नोने डाव- रमें मछरी जायहै तौनेही डावरते खैंचिंके मारिडॉरे है। तब शरीरकी नाना बाटि होइहै भस्म होयहै कीरा होयेहै विष्ठा होय नायहै सो हे जीवों ! बिना साहबके जाने तुम कैसे होउगे बाटमें, जैसे गोबरोौरा जोई आवे जाय साई कचरि देइहे मरिनायहै कह कबीर पाछे पछितेहो। या घरसों जब वा घर जेहो॥६॥

सो कबवीरजी कहे हैं [कि, जब या घरसों वा घर जाडगे अर्थात्‌ जब यह शरर ते दूसरों शरीर धघरौगे, गरभवास होइगो तब पछिताडगे | गर्मवासमें साहब की सुधि होइहे सो जब गर्भवासकों कछेश होइगो तब कहोंगे कि, हें धाहब अबकी बार जो छुड़ावों तो फिर ऐसे काम करेंगे सो गर्भ स्तुति श्रीमद्भागवतादिकनमें प्रसिद्ध है तेहिते यह व्यंग हैं कि, परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्रको जानो

इंति इकसठवां शब्द समाप्त |

अथ बासठवां शब्द ६२ माई में दनों कुल उजियारी बारह खसम नेहरे खाये सोरह खायो ससुरारी सासु ननेदि मिलि पटिया वांचल भसुरा परलो गारी।

झाब्द ( ३२७ )

जारों मांग में ता नारिकी सरिवर रचल हमारी २॥ जना पांच कोखियामें राखों राखों दुइ चारी पार परोसिनि करों कलेवा संगहि बुधि महतारी सहज बपुरी सेज विछायो सूतल पार पसारी आई जाई मरों ना जीवों साहब मेट्यो गारी॥ ४४ एक नाम में निजके गहिल्‍यो तो छटल संसारी एक नाम में वदिके लेखो कहे कबीर पुकारी

माई में दूनो कुल उजियारी वारह खसम नेहरे खायो सोरदइ खायो सझुरारी॥

[कक

नित्‌ शक्ति कहे है कि, हे माई! कहे हे माया! में दूनों कुछ उनियार कर- नवारी हों कहे मोहीते नीव कुल उनियार हैं।जीवछः अकारके है मुक्त मुनक्ष शविषयी थबद्ध ५नित्यबद्ध दनित्यमुक्तऔ बह्म कुछ उजियारहै सब ईश्वर ब्रह्म कुलहीमें हैं याते बरह्मकुछ कह्मो ।. मेहीं अनुभव करोहों तब बन्न होइहें मैही सब जीवकी चैतन्यता हों सो बारह खसमको नेहरमें खायो। ते बारह खसम कौनहेँं तिनकों कहे हं-अष्टमथान ने हैं काली, कौशिकी, विष्ण, शिव ब्रह्मा, सूये, गणेश, भैरव, नत्रों परमयुझुष जिनके आठो प्रधान कहें मंत्री हैं इनको महातंत्रमें वर्णन है पांच वक्ष आदि मंगलमें बंणन करिआये हैं तित में रफहया जो है से मंत्ररूप हे पण शक्ति है ताक झक्तिमान में अंतेभाव है. हशाब्रत्ह्म म्णवरूप है सो उपास्य देवता नहीं है, विचार करिवेलायकैही तेहिते पांचब्रह्ममें तीने तह्ल उपासना करियें छायक हैं सो अष्टनधान नवों परमपुरुष तीनिब्रह्म मिझाइके बारह उपास्य भये तेई खसम भये तिनकों गुद्ध समष्टि जो है सोई मेहर है जहाँतें व्यष्टि होइंहे सो जहां समष्टे व्यष्टि भयो है तहां में इनकों खाइलियों है कहें पेटमें ढडारिलियो है मोहिते मिन्ननहीं है जब में अहबह्म बुद्धि करिके अह्ममें

( ३३० ) बीजक कबीरदास

८. बब्द अथ तिरसठवां शब्द ६३॥ मैं कक कि ॥3.

में कारों कहों को सुने को पतिआय फुलवाके छुव॒त भर्वर मारैजाय

गगन मंडल बिच फुछ यक फूला।

तर भी डार उपर | ला बह जोतिये वोहये सिचिये न्‌ सोइ |

विन डार बिना पात फूल यक होइ ॥३॥।

फुल भल फुलल मालिानि भल य्रेथल फुलवा विनाश गयल भर निरास्नल ॥७

कह कबीर सुनो संतों भाई

पंडित जन फुल रहे लुभाई « मेंकासों कहोंकी _ सुने को पतिआय।

. फुलवांक छुवत भवर मारंजाय ॥। कबीरजी कहे हैं कि, में जासों कहीं हों सो तो सुनतई नहीं है नो स॒म्बों

तो शंका कियो ताक समाधान करिदियों असांच निकारिंडारथो स्चिको स्थापित कियो सो यद्यपि वाको जवाब नहीं चड़े हे तो यह कहे है कि, यह जोछूहाको कहो वेद शाख को सार अर्थ विचार केसे होइगो ताते कोई मोको पतिआय नहीं है येतो सब धोखामें अटठके हैं में कासों कहों को सुने कौन बात कहा हों कि, वह धोखा त्रह्म आकाशको फूछ है ताके छुबतमें भर्वर जोहै तिहारों जीवात्मा सो मारैनाय हैं कहे तुम नहीं रहिनाउही, वही धोखा बह्मई रहि- जाइहे वाके आगेकी बात तुमकैसे जानोंगे याते तुम परमपुरुष प्रश्वारामच- दको जानो | वे जब अपनी इंड्री देहँगे तब वह बअह्यके ऊपरकी बात नानि प्रेगी जौन हेसशरीर देइहे सो याके नित्य स्वरुपहै सो नित्य स्वरूपत

शब्द ( १३१ )

पाइकै ब्ग्म मायाके परे मन बचन के परे परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र हैं तिनको भ्े 5 कप चू पर आओ, आप में क्र आप कर जाने है। सो भेरों कह्यो कोई नहीं माने है वही धोखामें लगे है नो धोखाति 8 सो और

जगत होइह केसे होइ है कि कप के भोमूल गगनसडल।बच फुल यक फूला।तरभा डार उपर ब्‌ गगन मंडल कहे छोक प्रकाश चैतन्याकाशमें एक फूंछ फूलत भयों कहे वह बह्च माया सबलित होत भयो अर्थीत्‌ आकाश फछ को मिथ्या कहे हैं सो वह मिथ्याही फूल श्रमते फूलत भयो | जीवको श्रम भयो ताके अनुमानते मकट हे जात भया | सो मूछ तो वह त्रह्म हैँ सो ऊपर भयो तरे वाकी ट्ते भई चौदहीं लोक संसाररूप वक्ष तयार भयो 8 हक 8 0 कु हु आम रु जांतय बाह्य साचिय साई हु. की जप बिन डार विना पात फूल यक होइ | 40०: यूं थ्‌ फुछ भल कुछल गस्राल्ांव भर गूथल आप ३४ वि ही आकर फुलवा वबनारा गया भदवर वनरासल ४७ ॥| वह जोति गयो बोय गंयो ने सींचे गयो बिना डार पातेहे ऐसो बिरवा चेतन्याकाश जो छोक प्रकाश है तामें धोखा ब्रह्मरूप फूड फूल्यों, ताहीते संसाररूप बिरवा तैयार भयों ३२ तब माहिनि जो मायाहै सो भल गुंथत भड्टे कह फूल बह्मकों विशुणात्मिका नाना वा्णीसों ख़ब वर्णन कार्रिके वहीको आरोप करत भई तब यहजीव सब छोड़िके वही बह्ममें नाना वाणी सुनिकै रूग्यों सो जब वहां कुछ पायो वह धोखही ह्ैगयों तब भर्ेर नो जीव सो निराश हैगयो

कह कवीर सुनो संतो भाई।पंडित जन फुल रहे लोभाई « श्रीकबीर जी कहै हैं कि, हे संतो ! भाइड सुनो वहीं ब्रह्मफूछम पंडितजन जे हैं ते छोभाय रहे हैं यह विचार नहीं करेंहें कि, जगवको तो हम मिथ्यई कहह वही बह्मते नगतकौं उल्मात्ते कहे हैं सांचते सांच झूंठेते झूंठा होइहै सो वह बह्मरूप फुल जो सांचो होतो तो वासों झूठा नगव कैसे उत्पन्न होतों

३११२ ) बीजक कबीरदास ओऔ वही ब्रह्म को निराकार अकत्तों निर्धमिक कही हों कहो तो वह बल्म को जान्यों कौन ? अरु वाको निर्वेस्तु कही हौ कि, वह कुछ वस्तुनहों है! देशकाल वस्तु परिच्छेदते शून्यहैं कहो तो वह धोखई रहिगयो कि, कुछ वस्तु रहिगयो! सो तिहारेही बातमें वह धोखा जान्यों परे हैं कि, कुछ नहीं है दान्यहै तेहितें प्रमपुरुषपर श्रीरामचन्द्में छागो जाते माया बह्मके पार है उनहींके पास पहुंचोनाइ आवागमनते रंहित हैैनाउ

इति तिरसठ जाब्द समाप्त

अथ चोंसठवाँ शब्द ६४

जोलहा वीनेहु हो हरिनामा जाकेसुर नरसुनि परें ध्याना। ताना तनेकी अड्ठा लीन्हे चर्खी चारिहु वेदा सर खूटी यक राम नरायण पूरण कामहि माना भवसागर यक कठवृत कीन्हों तामें माड़ी सानी माड़ीकों तन माड़ि रहो हे माड़ी विरला जाना त्रिशवुवन नाथ जो मंजन लागे इयाम सुररिया दीना चांद सूर्य दुई गोड़ा कीन्हो मांझ दीप किय ताना पाई करिके भरना लीन्‍्हो बे बांधे को रामा वे ये भरि तिंहुं लोके बांधे कोइ रहे उबाना तीन छोक एक करिगह कीन्हो दिगमग कीन्‍न्हों ताने आदि पुरुष बेठावन बेंठे कृविरसा ज्योति समाना हे

श्रीकबीरजी रामानंदके शिष्य हैं सो अपनी संप्रदाय बतावहें

कबीर साहब रामाजनदके केसे शिध्यहें पलोज्ानतेक हेतु-कबीरभानुष्रकाज्, कबोर मन्शूर, राम|ननन्‍्द मुष्ठी और आत्मदासजीर्कृत कबीर सागर देखना चाहिये

शब्द ( ३१४३ )

जोलहा वीनेहु हो हारे नामा।जाके सुर नर सुनि धरे ध्याना ताना तनेकी अड्ठा लीन्हे चर्खी चारिह वेदा सरखूटी यक राम नरायण पूरण कामहि माना

ओआकबीरजी कहेह कि. जोलहा जो में हो सो हारेके नामको विनों हाँ ! दर कैसहें कि, जिनको सुर नर मुनि ध्यान धरे है कीनी तरहंद

उपाय कहौंहोँ। कोरिनके यहां ताना तनिव्रेकों अडठाने नापिरे

अउठाजा गशरीरह ताकी साढ़े तीनिदहाथकी नापिलियों अथवा अंगुष्ठमात्र लिंगश रिरह सो मनोमय हे ताको में हरिताम विनिवेकी घारणकियों है नहीं ते में मनके पर रहो हों भी कोरिनके इहां चर्सीति सत खोँचेके केंड़ा कारे छेइहूं, ओऔ इह' च'रा बेद ज॑ हैं तेई चर्खी हैं तिनके तात्यते आत्माकी स्वरूप कि

चर

तें प्रमपरुषपर श्रीरामचन्दकों है यहींसत जीवात्माकों निकास्यों भो कोारे- नके इहां सर खटीते तानाकों परेहें अरू इहां श्री इहां बैष्णवह रूपके मंत्र पावहै रुनाथनीको पटुक्षर और नारायणको दचनश्षर अष्ठाक्षर सो सर खूटी- राम नारायण नामहेँ एकनामक्ों सरबनायों एक नामकी ख़टी बनायो

इनहाका नामालेय हारनामंरुपी कपरा |बानब का भे आपकारा भनया। यह

मान्या कि, मे पूरद्हा रामनाम हुइ खूदा है नारायण नामसर ९२ ॥|

भव खागर यक कठ्वत _कीन्हो तामें माड़ी सानी

माड़ीकी तन माड़ि रहोहे माड़ी विरला जाना

त्रिशुवन नाथ जो मजन लागे इयाम सुररिया दीना

डक शः वि जूक &. + प्‌

चाँद सय्ये दुइ गोड़ाकीन्ही मांझदीप किय ताना कारिनके इहां माड़ी सानी जाइहे तब एक कठांतामें धर हूँ सो इहां भवसा-

ग्र कठोता अं चारा शरार माड़ा हे ताम जाव सतसना हू इहां साधन अव-

स्‍्थामें चारों शरीरमें वह नामकों भावनाकरिके जो जपिबों है मुमुश्ुद्दामें

साई सानियो है सो नाम उच्चारणकां बांध काइबरला जात हू सा रामानजा-

5 वाह

चाय आपने राममंत्रार्थमें लिख्यों है यह नाम स्मरणकोा शरीर धारण कियो सों

48 44%, 2 «0॥.

है।

3 का! द्नैाः पर बम £

अर, अकण्मरन्‍।

किम यम

किया

( शरे३४ ) बीजक कचीरदास

जब नामस्मरण कियों साईं शरीर रूपी माड़ी याके माड़ि रह्योहे कहे रूपटि रही है कोरिनके जब वाको मांजे हैं तब मांडी सम हैनाइहै मेल छूटि जाइहै। इहां त्रिभुवननाथ जो मनहे सो रेचक कुंभक पूरक जे कूचाहैं तिममें मांजनछग्यों कहे नामकी जपनलग्यों जीवको माड़ी जोंहे चारों शशर विनकी सम के दियो कहे एक करिदियो कोरिनके मांजत में जब तागा टूटि नाइहै तौंनेको मुरेरिके लोरे देहहे सो मुररिया कहवैहै इहां नामके स्मरण में जब बीचप्रे है तब कहीं इयाम कहीं गोपाल कहीं कृष्ण इत्यादिक नाम हैके - धागा नोरिदेइहै। कोरिनके दुइगोडा कहे दुइ घोरियाके बीचमें ताना तनेहें इहां चांद से ने इड़ा पिंगला तिनके बीचमें दीप जो सुघुम्णा नाड़ी है ताको ताना किया। ताना वाकी काहेते कह्यों कि, वह साहबके छोकते ले मूलाधारचक्र छो रश्मिरूप तनीं हैं जीवही सपृष्णा नाड़ी है भक्तन को जी उतरे चढ़े है ॥२॥ ९5 > अीक रे + पाई करिके भरना हलीन्हो वे बांचे को रामा वे ये भरितिदु लोके बांधे कोइ रहे उवाना। तीन छोक यक करिगह कीन्हो दिगमग कीन्हो ताने

आदि पुरुष वेठावन वेठे कविरा ज्योति समाना ३॥ कोरिनके इहां पाई साफ करिबेकों कहे हैं कर्माठनके बीचते सूत निकासी छेइहै सों भरना कहाँवि है सो इहां चारों शरीर माडी मांनिके कहे चारयो शरीर छोड़ायके जीवकी साफ कारे के कहे सूक्ष्म बिचारते जीव को स्वरूप निकस्यों करे, रामहीको हे औरेकों नहीं। है कोररीनके राक्षकी जो कमठी ताके छिद्ध है सब सूतको निकासीछेई है दुइ सृत बांघिंदइह से वे कहाबैंदें तीनि फेरी कार्रेके सूतकों गांसि देई है सो (तिछोक कहांवे है। उबान वह कहवबेहै जो बाहर सूत राहिनाइहै सो उबान रहिगयो सो इहां दोनों कुंभक्में राम जे दुइबण हैं रकार मकार तिनकों बांधि दियो बहिरे जव श्वास जाइहे तब जहांते थमिंक्े छोटे है सो कुंभक कहांवै है तहाँ रकार जपे है तब सूर्यके मक्राशकों भावगाकरे है जब॑ भीतर रवास नाहईहै जे यैमिके लौटे है तहां मकार जपे है तब चन्द्रमाको प्रकाशकों भावना करे है

शब्द ( ३२५ )

सो जोन साधारण इवास चलेंहै नातिकाते बारह आंगुर भीतर जायहै बारह आंगुर बाहर जायहे जहां जहांते थैमि थैंभिके छोटे है तहां रकार मकार को जपिकी वे आंगुरनकी घटाइ इसे दनों कुंभकनकी घटावनलगे इसतरहते वे नो हैं आवास ताके बांधतमें जब श्वासके क्रमते घटाइकै तिहँलोंके बांधे कहें जिक॒टीमें बांघिदि३ अथीत्‌ एक आंगुर भीतर जानपाव एक आंगुर बाहर जानपांवै एक आंगुर बीचमें राखै सो यहि तरहते नो कोई करे है सोई उबान नहीं रहे है कहे संकल्प विकल्प मिटि जाइहे जपकरतमें काहेकी उबेगो ताको रामनामही तीनों छोक देख परे हैं वोते बाहर नहीं देखपरे है। जहां कोरी बीननको बेठे हे सो कारेगह कहांवे है जब कपरा बीनि चुके तब तहां तीनि घरी करिके कपरा धरि देइहे तानाकी दिगमग कहे जहां तहां डारिदेइहै इहां तीनि छोकमें 'कैडी नो जीवकी वृत्ति है ताको जहां अपने स्व॒रूपमें आत्माकी स्थिति है तहां कैवल्यम राख्यो तानि आंगुर इवासा कारक जो स्मरण करतरद्यो सो मन पव- नको एक घर के दियो तब संकरप बिकत्प सब मिटिगयो यह ताना शरीरमें तन्‍्यो रह्यो ताकी दिगमग कियो कहे एथ्वीको अंश प्ृथ्वीमें जलको अंश जलमे तेनको अंश तेजमें वायुकी अंश वायुमें आकाशकी अंश आकाश्मे मिलाइदियो ये पंच भये मनकों बुद्धिमें बुद्धिकों चित्तमें चित्तको अहंकारमें अहंकार को जीवात्मामें मिछाइदियो ये पांचभये ये सबताना दशों दिशा में फैछाइ दियो तब याको सुधि भालिगई एक जीवात्माभर रहिगयो जब कपरा तैय्यार द्वैनाइह तब कोरीके यहां मालिक को पयादा आवै है तब पयादाके साथ मालिकके यहां कपरा कोरी हैनाइहै यहां आदिपुरुष जे परमपुरुष पर श्रीरामचन्डहैं ते बैठावन देइ हैं कहे याको हंसस्वरूप देहहें सोई पयादाहै ताके साथ हैके कहे तामें स्थितहैंके कबीर नो मेंहों सो वह लोहे कैवल्यरूप तांते छूटि कै पार्षद्रूप पाईके परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्रके छोकको प्रकाशरूप जोहै ब्रह्म तौने ज्योतिर्मे समाईकै कहे वाकों भेद परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्रके धामकों गयों भाव यह है जैसे कोरी थान मालिक के नभर केदेइहै तेसे अपने आत्माको शुद्ध करिंके परम पुरुष पर श्री रामच-

( ३३६ ) बीजक कबीरदास

न्द्रकी अरपि दीन्‍्ह्योनाइ ज्योति भेदिके साहबमें समाइगयो तामें प्रमाण “तज्न्योतिर्मेदृत सक्ता रसिका हरिवेदिनः॥””इति॥ओऔ श्रीकबीरहनीको प्रमाण॥ चर

'औैसे माया मन सम तैसे राम रमाय तारामंडरू भेदिके तबे अमरपुर नाय”?॥ ३॥ इति चोंसठवां शब्द समाप्त

अथ पेंसठव्वां शब्द ६०॥ योगिया फिरिगयोनगरमेझारी।जाय समान पां चजहँना री गयेदेशांतर कोइ बतावे।योगिया गुफा बहुरि नहिं आविर जरि गो कंथ ध्वजागो टूटी।भजिगों दंड खपरगो फूटी॥३॥ कह कवीर यह कालिदे खोटी।जोरह करवा निकसल टोंटी७

4 कप आर किक कि. + ड) योगियाफिरिगयों नगरमंझारी।जाय समानपांचजहईनारी

जौने ब्रह्मांडमें पांचनारी ने बयारि हैं नाग कूमं कृकछ देवदत्त धनंजय मिनमें समाइहं ऐसे प्राण अपान व्यान डदान समानते जामें समाइगयेंहैं तौन जोहे नगर ब्रह्मांड ताके मांझते योगिया जो है योगी सो फिरिनाइहै कहे फिरिफिरि ब्ह्मांडकों प्राण चढ़ाइ हैनाइहे

डर भा 6 [4 चर गये देशांतर कोइ नव॒ताव। यागया वहुर गुफानाह आवब जरिगो कंथ घ्वजागों टूटी।भजिगां दंड खपरगी फूटी॥३॥

जब वह योगी शरीर छोव्यो तब कोई नहीं बतावे है कि कोन देशांतर कं गयो कौने छोकको गयों काहेते कि कौन्यो लोक को तो मानते नहीं है तेहिते यही शरीर पुनि पविहे तब वह योगकी सुधि बिसरि जाईइहै पुनि नहीं गुफामें आवैहे कहे पुनि नहों माण चढ़ावत बने है॥२॥ कंथनोहै शरीररुपी गुद्री सो जरिगयों तब ध्वज्ा जो है पवन तौनेकी धारा टुटिगई तब मेरुदंड भेनित हैगयो कहे टूटिगयों खप्परजो है ब्ह्मांडकी खपरी सो फूदिंगई ॥३॥ कह कबीर यह कलिहे खोटी।जोरह करवा निकसलटोंटी 8

श्रीकबीरनी कहे हैं कि यह कि बड़ो खेंयोहै अथवा यह काछि जो है

कण | + मी

झगड़ा सो बड़ो खोत्हे यह कोई नहीं बिचारे है कि जब रारीरही नहीं गयो

झाब्द (३३७ )

तब त्ह्मांड कहां रहिगया जहां बह्मांडमें लीनहके बना रहयो सो यह बात

ऐसी है के, ने ब्ह्मांदमें प्राण चट्वै हें तिनके जब शरीर छूटिनायहें तब उनक

गेवगुफा सब नरिनाथहं तब गेवगुफा रूपी करवाम जो त्राण चंद रहै है सो

मब दूसर शरीर धरयो तब नासिका जो है टोटी तहांते वहै पवन निकसैहै

बही बासना लगी रहदें तहिते फिरि गुरुसे प्राछिके अभ्यास करनलने है इति पेसठवां शब्द समाप्त

अथ छाछठवाँ शब्द ६६ योगिया कि नगरी बसे मतिकोइ।जोरेवसे सो योगिया होइ वह योगियाको उलटाज्ञाना। काराचोला नाहीं म्याना२॥ प्रकट सी कंथा गर॒प्ताधारी तामें मूल सजीवनि भारी॥३॥ वा योगियाकी युगुति जो बूझे।रामरमे सो तिभुवन सुझे॥8॥ अप्नत वेली क्षण क्षण पीवे। कहकवीर सो युग युग जीवे॥५॥

योगिया कि नगरी बसे माति कोइ।जोरे वे सो योगिया होइ योगिया जो है योगी ताकी नगरी जो है अह्मांड गैवग॒फा तहां कोई बसी अर्थांव्‌ हठयाग कोई करो काहेंते कि, जो कोई वह नगरीमें बे है अर्थात हठयोग करें है स्रों योगिये होइहै कहे फिरे फिरे वही बासना करिके योगिया होइहे योग सांचे हं जन्म मरण नहीं छूटे है १॥ वह योगिया को उलटा ज्ञाना।कारा चोला नाहीं म्याना सो वह योगी को उलट ज्ञान है कहे उलटे पवन चढ़ावै है अर्थात्‌ या शरीर को वेदांत शाख्रमें निषेध करे है कि, यही शर्रर ते आत्मा भिन्नहै तोनेही शरीरकों योगी प्रथान नॉने. हैं कि यही शरीर ते मुक्त ब्वैनायेंगे सो इनको चोढा जो है मन जौनेते शरीर पावै है मने गेवगुफामें समाइ जाइ है नाना प्रकारके ने छुत्सित कर्म हैं तिमते मलीन द्वै रह्मो है याते २२

३3४३८ ) वीजक कबीरदास

ताका काराकद्यों म्याना छोथ को फारसी में कहे हैं सो वह मन छोय नहीं है वढ़ो है सब संसार अरु चारों शरीर मनमें भराहै 8 पी. में [के | कान [का

प्रकट सो कंथा ग॒त्ताचारी। तामें मूल सजीतनि मारी ३॥

अरु नो बहुत योग करिके बलह्मांडमें प्राण चद्ाइकै प्राणकों गुप्तकेयों है सो प्रकट है ते वे योगी कंथानों है शरीर ताके धारण 'फैये रहै हैं बहुत दिन जिये हैं ताकी हेतु यहहे कि, मूठ सजीवानि अमृतहै सो भारी कहे बहुतहै सो चुवत रहे है मेंस संजीवनी ओषधि महामलय भये नहीं रहे जाइहे सो याके वह नियत है सोऊ नहीं रहिनायहे तेसे नो कोई मूढ़ काटि डारचों अथवा कोई शरीर को खाइडियो तब ने वह अमृत रहिनाह वे रहिजाईं वा योगिया की घुग्र॒ति जो बूझे। राम रमे सो निश्ुवन सुझे8 अमृत वेली क्षण क्षण पीवे। कह कबीर सो युग युग जीवे*

से ये जो हैं योगी ते युगुति करिके जिये हैं आखिरमें इनकी जन्म मरण नहीं छूटे सो या जोगियाकोी हठयोग छोड़िंके नो कोई वा योगी की युगुति बूझे जे रानयोग करनवारे हैं सो रामरमे तब वाकों त्रिभुवनमें रामई सूझिपरे॥ ४७-॥ अरु श्री कबीरनी कहे हैं कि, अमृतंबेलि नो है रामनाम ताको क्षणक्षण में पिये कहे इवास दवास में राम नाम स्मरण करे है सोर हनुमान विभीषणा- दिक के तरह युगयुग जिये है जनन मरणते रहित हैनाइहै

दति छाछठवां ज्ब्द समाप्त |

अथ सरसठरवां शब्द ६७॥ जोपे वीजरूप भगवाना तो पंडित का बूझो आना॥ १॥ कुहँमन कहां बुद्धिओंकारा।रज सत तम गुण तीनि प्रकारार बिष अबृत फल फले अनेिका।बहुथा वेद कहे तरवेका ॥३॥ कद कवीर ते में का जानो। की थों छूटल को अरुझनो॥४8॥

. जो आगे कहिजये कि जो कोई रामनाम छेहहे सोई ननन मरणते रहित होईहे सो कहे हैं

आब्द। (२३३९ )

जोपे वीज रूप भगवाना। तो पण्डित का बच्चो आना॥१॥ कहँमन कहां बुद्धि ऑकारा।रज सत तमशुण तीनि प्रकारार

बीन जो है रामनाम सो भगवान जनन मरण छोड़ाइ देबेको तो हे पंडि- तुम आनभआन जगत्‌ कारण बह्न ईइवर प्रकृति पुरुष कार शब्द परमाणु इत्यादिक काहे खोनत फिरों हो यह नामही जगतमुख अर्थ करे जगवकोी कार- णहे सो रामतामे नो सबको बीन डहरचों तो मनको बुद्धिकों प्रण- बंका कारण कहां रहो एते सत रम तम ने गुण हैं तिनके तीति२ भकार हके जगव्‌ कियों है अथम मन बुद्धि ओंकार कहां रहें कोई नहीं रहे भाव यहेहै कि प्रथम साहबको सुरति पायके रामनाम को मगवमुख अर्थ करिके मीव सम्‌- थ्लि ते व्यष्टि हैँके संसारी भयो है तबहीं ये सब भये हैं विष अठ्ृत फल फूल अनेका बहुथा वेंद कहे तरवेका

वोई सतोगुगी रनोगुणी तमोगुणी उपासनातें दिप अमृत अनेक फल फछत भयें कहें नावा दुःख सुख जीव पावत भरदें कोई वे देदतन की डपासना करिके उनके छोक जाईंके सुख पायो कें।३ विषय आदिक करिके दुःख पायो येई वे गणन में फल फरेहें सो सबके फ़छ स्तुति बहुा वेद तारिबे, को लिख्योहे “शीतले त्वे मगन्‍माता शीतले ते नगन्कता। शीतले त्वे नगद्धानी शीतछाये नमो नमः” इत्यादिक सब

कह कवीरते में का जानो की थो छटक को अदझानो 8

सो कवीरनी कहेहँ कि वेद तो फलस्तुतिमें तारेबं को कहे हैं कछू सांच नहीं कहेहें ये सब नीव आपनी आपनी उपासन! में छगे कहे हूँ क्लि हम मक्त

मायाके भीतर है कि साया के बहिरे है अथीत देद में यह दिखायो कि सबकों

(३४० ) बीजक कबीश्दास मुठ रकार बीजहै जो सबका परम कारण है सबते पर है सो याही राम नामको जो कोई साहबमुख अर्थ करिके जपेगो सोई परम पुरुष पर श्रीरामच- न्द्र के पास नाइगो और नहीं तरेंहें इते सरस्तठवां शब्द समाप्त

अथ अड़्सठवां शब्द ६८

जो चरखा जरिजाय वढ़ेया ना मरे में कातों सृत हजार चरुखला ना जरे बावा ब्याह कराय॑दे अच्छा वर हित॑ काह अच्छा वर जो ना मिले तुमहीं मोहि बिवाह २॥ प्रथमे नगर पहुंचते परिगो शोक सँताप। एक अचंभो हों देखा बेटी ब्याहे वाप समधी के घर लमची आया आये बहके भाइ गोड़ चुट्हाने देरहे चरखा दियो डढाइ देवलोक मारे जाहिंगे एक मरे बढ़ाय यह मन रंजन कारने चरखा दियो हृढाय कह कबीर संतों सुनो चरखा लखे कोइ जाकों चरखा लखिपरो आवा गमन होइ ६॥ नाना उपासना में रंग जीव संसारते नहीं छूंटेंहं सो काहेते नहीं छूटे हैं सोकहेहें जो चरखा जरिजाय वंढ़ैया ना मरे। में कातों सुत हजार चरुखला ना जेरे॥ १॥

ऋख्द ३४१ )

वाया ब्याह करायदे अच्छा वर हित काह अच्छा वर जो ना मिले तुमहीं मोहिं विवाह २॥

यह स्थृ शरीर चरखाह सो मारेनायहै कहे छूटे जायहै जी बदैया जो

सो नहीं मेरे है वह चरखा शरीर गठ़ि छेइ है कहे बनाइ लेइहे सो जीव कहेहें के, में हजार सूत कातोहों कहें कम छूटनेके छिये बहुत उपाय करौहों

प्‌ कट

बहुत उपासना बहुत ज्ञान इनहीं शरीरनते करोहों परन्तु चरूखछा ने चारो शरीर हैं ते नहीं जरे हैं * जीव गुरूवन के इहां जाइके कहेंह्रे कि हे बाबा गुरुनी! अच्छा बर हित करनवारो तो है तासें ब्याह कराय देड अर्थीद हित करन बारो जो अच्छी देवताकी उपासना कराइदेइ अरु आछो देवता जो तुम्हें मिले कहे मुक्ति करे दनवारों देवता नो तुम्हें मिले तो तुमहीं मोको बिवाहो कहे- ज्ञान उपदेश कारेके अपनों मेरों जो भेद है ताका मेटवाइदेड 3] 3 आओ. का को ५३३

अंथम नगर पह्चत प्रगां शांक सताप |

एक अचंभो हों देखा वेटी ब्याहे वाप ३॥

प्रथम साधन वतायो गुरुवालोग कि, ईश्वरकी उपासना करो जामें अभेद

ज्ञान होय सो प्रथम नगर पहुंचते कहे नयब गुरुवा देवताकी उपासना बताइ-

दियो ताही प्रथमहीं शोक संताप परिगंयों कहे तोने देवताकों ब्रिह भयों सो मरन ठलग्यो अरू दूसरो ज्ञान उपदेश जो मांग्यो तामें बड़ो भाइचये भयो कि, बेटी बापकों बिवाह्यों जब उन उपदेश कियों कि तुमहीं बह्महों तुमहीं सर्वत्र पूर्ण हौ सो जीवतो कबहूं ब्रह्म होतई नहीं है सो अह्मतो भयो वामे ब्रह्मके लक्षण आय भयो कहा कि आपने को ब्रह्म मानि कर्म धर्म सब छोड़ि- दियो सो ज्ञान अज्ञान जीवही को होइ है सो माया जीवद्दीते रई है सोई बेटी है सो बाप जीवकों बिवाहि लियों कहे बांधि लियो हे

समधी के घर लमधीआयो आयो बहू को माइ

री

गोड़ चुल्हाने दे रहे चरखा दियो डढाह 9

बे

श्र

( ३४२ ) बीजक कवीरदास |

जीवकों ब्याही माया ने होइहे सो मनते होईहे सो मन ससुर भयो अर जुद्धते अशुद्धभयों सो अशुद्ध नीचको बाप शुद्ध जीव ठहरयों सोई समधी ठहरथो तौने जीवके घरमें लमधी लो है मन की भाईवित्त सो आये नाना स्मरण देवायो तबहं जो माया है ताको भाई काछ जायो चृल्हा जो है तामें दुईं पछ्ा होइहैं सो पुण्य पाप हें ते दूनों पछाहें तोने चूढ्डमें गोड़ देके वरखा जो शरीर है तिनकों डठाइदीन्हो कहें छाइदियों काहको पुण्य क्रायके काहू को पाप करायके शरीर खाइलीन्हों

देवलोक मरि जाहिंगे एक मरे वढ़ाय।

यह मन रंजन कारने चरखा दियो हृढ़ाय॥ «॥

कह कवीर संतो छुनो चरखा लखे कोइ

जाको चरखा रूखि परी आवा गवन होइ ६॥

देवलोक के नरछोक को सबको काछझ खाइलेइहै यह बंढ़ेया जो मनहे सोंतहीं मारो मरे है भौ जब वह चरख! टुटहे तद बढ़ेही बनाइ देइहे ऐसे वह बढ़ई मो मन सो काछके रंजन करिबे को शरीर रूपी चरखा को इृढ़ क्रत जाईह नाना शरीर काठको खबाबत जाय है श्रीकबीरजी कै हैं कि, चरखा ने चारो शरीरहें तिनको कोई नहीं छल्ले है जाकी चारो सरीर उखिपरे अरु पांचीशरीर केंवल्य में ग्राप्त भयों कहें केवछ वितमान्न रहिंगयो तब वह चरखाको गहैया मो मनहें तेहिते जीव भिन्न हेगयो तब छठवो अंश स्वरूप साहब देश्है तामें स्थित हेके साहबके छोककों जाईहै भावा गमन नहीं होइ है

झले |रुसठवां शब्द समाप्त

अथ उनहत्तरवां शब्द ६९ यंत्री यंत्र अवूपम वाजे वाके अष्ट गगन सुख गाजे ॥३॥ तूंही माजे तूही वाजै तुही लिये कर डोले

शाब्द ( ३४३ )

एक शब्द में राग छत्तिम्तों अनहद वाणी बोले २॥ मुखको नाल श्रवणके तुम्बा सतगुरु साज बनाया

जिह्ा तार नासिका चरही माया मोम रूगाया॥ ॥| गगन मंडल मा भा उजियारा उलटा फेर लगाया कह कवीर जन भय विवेकी जिन यंत्री मच छाया 8

येत्री यंत्र अनुपम वाजे | वाके अह्ट गगन घुख गाजे ॥१४ यंत्री नो है जीव ताको यंत्र जो शरीर है सो अनपम बौन वाने है बोनमें सात स्वर बाजेहें अरू आठवों जीवके तारमें टीपको स्वर बाने है हहां यह शरीरमें सात चक्रहेँ सहस्तारडों तिनके बीच बीचको जो है भाकाह ये सात गगन मये अरु आठवों सहस्तार के ऊपर को नो आकाश तामें सरपति कम छमें बैठो जो गुरुनाम बतावै है सो वह आठवों गगनमें जाइके गःज्यों कहें रामदाम सुनिके लेन लग्यों सो इहां सुषुम्णा नो नाड़ी सोई तार है मृलाघार चक्रसुरति कमल येई तुम्बा हैं : तूही गाजे तही वाजे तुद्दी लिये करडोले ०७ चर हर एक शब्द में राग छत्तिसी अनहृद बाणी वोले॥२॥ सो या बीणाकों तुही गाने कहे सुरति कमछमें तुहों दाम छे३ है तुहों बाने कहे तुद्दी सुरति बोले है तुहीं सुरतिको: हैके डॉडे है कहे तु सुपम्णा है चढ़िनाइदे अर्थात्‌ शरीरका मालिक तुही है बीणामें छत्तित्त राग बोले है। इहां एक शब्द जो है राम नाम तामें चोंतिस बे पेंतीरोनाद छत्तिसौविंदु सब हैं बिंदुते आकारादिक स्वर आंदगये वही अनहद है कहे वहीं- को हद नहीं है तौने रामनाम रूपी बाणी सुराति कमहुमें गुरु बोंडे है मों तहीं जँपेहे या अंतर बीणा बतायो सो जानु अब बाहर को दीणा बतावे हैं

(६४४ ) घीजक कबीरदास

मुखको नाल अश्रवणके तुम्वा सतगुरु साज बनाया। जिह्ा तार नासिका चरही माया मोम लगाया

बीणाके बीचमें डांडीहे यहां मुखै नाछ डांदी है वीणामें दुइतुम्बा लगेंहं यहां दूनों ने श्रवणहें तेई तुम्बाहें बीणाके स्वर मिले हैं यहां सतगुरु जेहें तेसाज बनाइ जीवनको उपदेश करे हैं वहा बीणामें तार छांगे है अरु यहां जीभ जो है सोई तार है बीणामें चरही कहे सार छाँगहै यहां नासिका चरही कहें सारहै सारमें मोम जमाया जाइ है यहां माया जो है गुरूकी कृपा माया “दम्मे कृपायं च॥” सोईं मोम जमायो जैसे बीणा में जोन स्वर बनावे तोन बाने है तैसे सुराति कमछते गुरू मो राम नामको उपदेश कियो श्रोई जीमते जप हे ॥१॥

गगन मंडल मा भा उजियारा उलट फेर लूगाया। कह कबीर जन भय बिवेकी जिन यंत्री मन लाया॥४॥

बीणा जब सुरते बानै है तब सब रागनको उनियारा हे नाहहे जाछो छगेंहे सबरग जानि जाई और दूसरे पक्षमें जीवकी उलयों ज्ञान जगवमुख हैगयो तें ब्ह्ममुख द्वैगये तें आत्मामुख ह्ैगयों तें कि महों अह्महों ताकों नाना शब्दमें समुझाइकै अठयें गगनमें मौोवकी साहब मुख करतभये तब जीव- को ज्ञान हैगयो सब धोखा छोड़िके साहव में रूग्यों नगदमुख रहो सो उल्य रह ताको सीधेमें गुरुवाछोग फेरि हेआये लगायो पाठ होइतो साहबेमें छगावत भये श्रीकबीरजी कहेंहें कि, यंत्री नो है बीणाकार उस्ताद तोनेते जो बीन बनावे मन छगाय सीखैंदे तो वाकी सुगनको रागनको वे ब्योरा आइ जाइहें ऐसे सुराति कमलमें बेठे जे हैँ परमगुरु जे राम नामकों उपदेश करे हैं तिनसोंनो कोई यंत्री जीवात्मा मन लगाव है सो बिबेकी होइहै कहे जगत्‌ को असांच जानिंके सांच साहब में छगि जाइहै

इति डनहत्तरवां शब्द समाप्त |

डाब्दु ( ४५ )

अथ सत्तरवां शब्द ७०

जसमास नरकी तसमास पशुकी रुधिररुघिर यकसाराजी ५३ ६4 मास भखे सवकीई नरहि भखे सियाराजी ॥१॥ ब्रह्न-+लाल मेदिनी भरिया उपाजि विनशि कित गश्याजी मास मछरिया जोपे खेया जो खेतानि में बोइयाजी २॥ माटीको करि देई देवा जीव कादि कटि देश्याजी

जो तेरा है सांचा देवा खेत चरत किन लेइयाजी-॥ कह कवीर सुनोहो संतों रामनाम नित लेयाजी ;।

जो कछुकियो जिद्दाके स्वारथ बदल परारा देयाजी ॥४॥

जसमासनरकी: पण्छ्क्शुकी रुषिररुधिरयकसाराजी पश्ुकों मास भखे सबकोई नरहे भखे सियाराजी॥१॥

जम नरकी मास होइ है तस पशुकी मास होइ है अरू रूधिर भी एक तरह होइ है परंतु पशुके मासको जे भक्षण करे हैं ते सियारई हैं सो वे मनुष्यते सियारते यतने भेद है कि, सियार मनुष्यकों मांस खाइ है अरु नरपशु की मांस खाइ है मनुष्यको मांस पशञ्चु नहीं खाइ है सो कहे हैं कि, रुपिर मांस तो सब एकई तरह है नर की मांस काहे नहीं खाय हैं

ब्र्ह्म कुलाल भेदिनी भ्रिया उपजि बिनशि कित गइयाजी मास मछरिया जोपे खेया जो खेतनि में वोइयाजी २॥

3 को 3 3 सर.

जौनेते सब पृथ्वी जगत्‌ भयो है ऐसी जो है बह्मा कुछाल जो कुम्हार सर्वत्र जगत में भरे रहा अर्थात्‌ सब वस्तु ब्रह्मईं रह्यो तो यह सब पृथ्वी डउपजी बिनशिंकरे कहांगई सो एक बह्मही सब मानिके जो मास मछरी खाउ कि सब तो एकई है जो मन चड़ेगो सो करेंगे नरक स्वगे कम सब

( ३४६ ) वीजक कबीरदास |

मिथ्या हैं ऐसो नो मानोंगे तो जो खेतमें बोवनको होइ है. सो तुम मुंदें पशु की मासकी मास खाड हो जरु वे तुम्हारे नीतहीं यमपुरमें मांस खाईंगे जो कहें हम देवताकी बलि चटाइके खाइ हैं तौनेपर कहे हैं

मादीको करे देई देवा जीव कांटि कंटि देइश्याजी

जो तेराहे सांचा देवा खेत चरत किन लेइयाजी

माटीको तो देवता बनाओभोहीं उसके आगे जीव काटि काटि के राखौहों यह कैसी गाफिली तुमको थेरी है नो माठीकों देवता सांच है तो मब बोकरीं खेतमें चरती है तब लुम्दारा देवता काहे नहीं खाता क्या देवताकोी किसीका डर है भाव यह है कि, तुम कहेको हत्यारी लेतेहों अंगुरिआायदेंड जो सांचा होयगो तो खाइगों तेदिते तुम्हारी देवता मिथ्या है खेतमें चरत बोकरीको खाइ सकैगो

कहे कबीर सुनोहो संतो रामनाम नित लेयाजी

जो कछु कियो जिद्ठाके स्वारथ बदल परारा देयाजी 8॥

सो कबीरजी कहे हैं कि, जिनके जिनके गलाको तुम का्टतेही ते सब तुम्हारों नरकरमें गला कार्टेंगे तेहिते रामनामको नितछेड भाव यह है जब नामा- प्राध छोड़ि रामनाम लेठगे और फ्ारे पातक करोगे तबहीं तुम्हारे पातक जञाइंगे तामें प्रमाण हारेईरति पापानि दुष्टचित्तेरपि स्पत: यहच्छयापि संस्पृष्ट। दहत्येव हि पावक: रामेति रामभंद्रेति रामचन्देति वा स्मरन्‌। नरो ने छिप्यते पापै्ुक्ति मुक्ति विंदति ! दशनामापराधमें प्रमाण “संतां निंद न|म्रः परममपराधघ वितनुते यतः ख्यातें जात॑ कथमिह सहेद्धेलनमद्‌ः शिवस्य श्रीविष्णाय इह गुणनामादिसकर्ल घिया भिन्न पश्येत्स खलु हारैनामा हितकरः॥ मुरोखज्ञा श्रुतिशाखनिंदन तथाथेदादी हरिनाम कलपने | नाम्नो बढायरस्प हि पापबुद्धित विद्यत तस्य यमेहिं विच्युतिः श्रुत्वापि नाममाहात्यं यः प्रोतिरहिताधमः अह ममारिपरमों नाम्नि सोप्यपराधकृत्‌,

इसे सन्षरवां शब्द समाप्त

'अ्याथका+कलाक

ऋाब्द | (३४७ )

अथ इकहत्तरवा शब्द ७१॥

गुरु सुख

चातक कहा पुकारे दूरी सो जल जगत रहा भरपूरी ॥१॥ जेहि जल नाद विन्दुका भेदा।षटकर्मसहितउपान्योवेद् जेहि जलजीव सीवकावाशा!सो जलधराणिअमरप्रकासा जेहि जलउपजेसक्लशरीरासो जलभेदनजानकवीरा॥७॥

चात॒क कहा पुकार दूरी। सो जल जगत रहा भरपूरी १॥ जेहि जल नादविन्दुकाभेदा।पटकर्म सहितउपान्यावेदा

. सबत गुरु परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र कहर्ह कि. हे चातक दारे दूरि त॑ कहा पुकार है कि पियासो् पियासादों जौन स्वातीकी जल तें चहैंहे नाते पियास बंद हैनाइहे सो राम नाम रुपी जछ स्वातीकों सुख्य म॒क्तिकों साधन जगवर्मे पूरे रहो है ते कहां ओर और म॒क्तिकों साचनका खोजत फिर जोने रामनामरूपी जलमें नादबिंद को भेद है अपने पट माचनते बेदकों उपान्यों कहे उत्पत्ति कियो है

जेहिजलनीवसीवकाबासा!सोजलूधर्रणिअमरपरकासा ह॥।

जेहिजलउपजेसकलशरीरा।सो जलभेदनजानकवीरा ॥४॥

जोने रामनामरूपी जलमें जीव जेहँ सीव ने नानाईश्वर तिनफो बासंहे सोई रामनामरुपी जब धरज़ि में नो कोई ज॑पै ताको अमर करे है या प्रकाश कहे जांहिरहे अथवा वा अवनीमें नाशमान नहीं होयहै या जाहिरहै ते पियासों काहे मरे है जेहि राम नामरूपी लरूते सकल शरीर उप- जै है अर्थात्‌ संसारमुख अर्थते अनन्त ब्रह्मा उपने हैं रामनामरूपी मलको भेद्‌ कबीरा कहे कायाके बीर जे जीव हैं ते नहीं जाने हैं अर्थीव्‌ नो रामनाम मोको बतावे है सो जो बिचार करे तो चिदविग्रह करिके सर्वन्न महीं देखों परों तो भेरी भक्ति जछृपान कारेके मुक्ति ह्वैनाइ है। संसारताप बुताइ

है॥ ४॥ हति इकफहठत्तरवां ज़ब्द समाप्त

"राशन कम,

(३४८ ) दीजक कवीरदास ;

अथ बह्कल। शब्द बज |

चल काटेढ़ोटेढ़ो टेढ़ी। दशों द्वार नरके हर बूड़े तू गंधीकों बेढो ३॥ फूटे नेन हृदय नाहिं सूझे मति एको नाई जानी। काम क्रोध तष्णाके मारे बाड़े स॒ुये विन पानी २॥ जारे देह भसम्‌ हछुजाई गाड़े माटी खाई। शुकर इवान कागके भोजन तनकी यहे बड़ाई॥३॥ _चेति देख सुगुध नर वोरे तूते कारू दूरी कीटिन यतन करे बहु तेरे तनकी अवस्था घूरी॥2॥ वाढूके घरवार्म बेडे 'चेतत नाहि अयाना। कह कबीर यक राम भजे बिन बूड़े बहुत सयाना चलहुका टेढ़ोटेढोटेढ़ी।दशो द्वार नरकेमें बूड़ेतू गंधीकोबेढ़ो

तीन बार टेद़ों ठढ़ो थेढ़ों नो कह्मों सो ज्ञानकांड कमकांड उपासना कांड ये तीनों मांगे अथवा सतोंगुणी रजोगुणी तमोंगुणी ये तीनों कमते ठेढ़े हैं सो ये मार्ग में कहा चलछाहो दे द्वार जे दशशौ इच्धी हैं ते नरकही में छगी हैं कहे विषयन ही में छगीहें सो तेरे बिषयकी गन्धि छगी है तते तें गन्धी हे सो तोहीं ऐसे गन्धी को माया बेदिलियो कहे तेरो ज्ञान छोड़ाइ लियो ! अर जो बड़ो पाठ होइ तो यह अथहै कि तोहों ऐसे गंधीकी जाके दरशौद्धार तरक होमें बड़ेहें ताको बेड़ो नहीं है जाते संसार सागर: उतारे जाइ अथवा गन्ध जगव जे; हे गन्धी शरीर ताको तें बेड़ो कहे आधार कहा द्ेरेहे टेदों ठेढ़ो चाल चालक यहां कहां तेरों पारकियें होइगो संसार सागरते होइगों बूढ़िही नाइगो

फूटे नेन हृदय नहिं सूझे मति एको नाहिं जानी। * काम क्रोध रष्णाके मारे बूड़ि मुये विन पानी

द्व्ब्द्‌। ( ३४९ )

जारे देह भसम द्वेजाई गाड़े माटी खाई ज्ञुकर इवान कागके भोजन तनकी यहे वड़ाई ३॥ चोति देखु मुमुध नर बारे तूते काल दूरी

काॉटिन यतन कर वहतर तनकी अवस्था चूरा

अरू ये पदनको अर्थ स्पष्ट है इनमें यही बर्णन करें कि मायाकी फोने कामादिक तोको बोरि दिया काल दूरि नहींह आखिर मरही जाहुगे तनकी अवस्था दरिही हैं आखिर परिही में मिलिनाइगो रे

बालके घरवामें बेठे चेतन नाहि अयाना।

कह कबीर यक राम भज विन बड़े बहुत सयाना॥५॥

श्री कबीर जी कंहे हूँ कि यही शरीररूप बालूके परमें बंठिके अरे मठ चेतत नहीं है परम पुरुषपर श्री रामचन्द्रकों भजन नहीं करे हूं जाने यह शरीर कब गिरिजाइ कहे छूटिजनाइ सो बिपय छोडि बेगिही भननकरु वे समर्थ तोकी छोड़ाइ छेरंगे साइबके भजन बिना बहुत सयान मतनमें छूगिंके बूड़िग गहें अर्थात मायाते छोड़ाय छीब में समर्थ साहबही हैं और कोई छोड़ाय सकैसो ठेहिते १रम पुरुषपर श्रीरामचन्द्रकों भनन करु वे तोको संसारते छोड़ायही देइंगे

हाश उद्चत्तरवा शाब्द समाप्त |

अथ तिदत्तरवां शब्द ७३ फिरह का फूले फूले फूले क्‍ जो दश मास अधथो मुख झूले सो दिन काहिक भूले १॥

ज्यों माखी स्‍्वादे लहि बिहरे शोचि शोचि चन कीन्हां। त्योहीं पीछे लेहु लेहु कर भ्रूत रहनि कछुद्दीन्हा २॥

(६8५० ) बीजक कवीरदास।॥

देहरीलों बरनारि संगहे आगे संग संहेला

घृतुकथान सँगदियो खटोला फिरि पुनि हंस अकेला॥ १॥ जारे देह भसम ह्वैजाई गाड़े माटी खाई

काचे कुंभ उदक जो भरिया तन के इहे बड़ाई राम रमसि मोहमें माते परयों कालवश कूवा

कह कबीर नर आपु वँवायो ज्यों नलिनीतभ्रम खूब « |

फिरह का फूले फूले फूले। जो दश मास अथों सुख झूले सोदिन काहिक भूछे॥ १॥ औरे औरे मतनमें रूगिके कहा फूडे फूले फिरीही कि हमहों माछिक हैं

हमहीं मुक्तहें दश महीना अधोमुख गर्भ में झूछतरहे तहां क्यो कि हे साहब | मैं तिहारो भज्नन करेंगो मोकोी छोड़ावो सो दिन काहेको भूछिगयें अब काहे भजन नहों करोहो निकसतही कहां कहां करनछग्यो नो कहो जब हम गर्भमें रहे तब हमको साहबे दयाछुता करिकेसुराति गायों अब काहे दयाछुता करिके सुशवे नहीं छगांवे हैं सो हम कहाकरें, हमको साहबई भुछाइ दियो। भरेमृद साहबतो गोहरावत जाइहे सब शाख वेदके तात्पय करिके बीन- कमें कि नो मोको नानि भजनकरु तो में तेरो उद्धार करोंगो सो गर्भबासमें जो तैं भजन कर्रिबको कौ कियो सो भजन कियो भुलायदियों तामें प्रमाण फवीसनीके मुक्तिडीछा ग्रन्थ को गमबासमें रहे में भनिहों तोहों निशि* दिन सुमिरों नाम कष्ट काढ़ी मोहों यतना कियो करार काढ़ि गुरु बाहर कीना भूलिगयो निन नाम भयो माया आधीना ”?॥ सो साहबके कौन दोष- है तुद्दीं कौछते चकि गयो साहबकी भजन कियो १९

ज्यों माखी स्वांदे छ्ठि विहरे शोचि शोंचि घनकीन्हा त्योदी पीछे लेहु लेहुकर भूत रदनि कछु दीन्हा॥ २॥

झाब्द (२३५०१ )

जैसे माख्री फूछनके रसके स्वाइको पाइके विहार करे है ताईक सहतको धन जोरि नोरिके धरे है तैसे तमटू बिषय भोग करिके घन नोरि जोरि परोहों सो नैले कोठ आाइके मछेहनका छाइके सहतको ठैनाइके आपुसमें बांटि लेइहे तैसे तोहीं पीछे कहे जब तुम रहिनाउगे तव तिहारे घनकों स्त्री पुञजादिक लेडु छेहु करिंके बांदि लेईंगे अर नुमकी मृत की रहनि कह दशदिन भूत कहेंगे मरघटाम बेंठावेंगे रु 4५ जे + बे 2 * दे दृहराला। वरनारि समह आंग सग सहला भ्छ रा 4 पक किक मय मिल मिशन अब केला मुतुकथान समाददयों खदाडाफार छान हस अकेला जारे आल. >> ह्ढे ग्‌ डे टी रू जार दृह भसन्त द्वजाई गाड़ मादा खाई

काचे कुंभ उदक जो भरिया तनके इह्े बढ़ाई ये चारो तुकनको अर्थ रंपष्टे है गज पक किक राम रमसि मोहमें माते परयो काल वश कूवा। कह कवीर नर आपु बैधायो ज्यों नलिनी भ्रम सुवा॥५॥ श्री कबीरनी कहे हैं कि हेनीव) मोहमें माते राममें नहीं रमे है काछके वश हैके संसार कूपमें परयो है वाते बारबार तेरो जन्म मरण होइहे सो तो अप- नेही भ्रमते नानादुःख सहै है मैंसे नलिनी को सुवा अपनेही चंगुलते घरि छियो छोड़े नहीं है मारो नाहहै तेसे तेह दाना मतनमें उगिके अरु विषयनमें लगिके आपहीते यह संसारमें परिके बँबिगयो संसारकों घरहें भाव यहेहै संसार तोको बांधे नहीं है तें छोड़े कांहे नहीं देह अरु मेहि साहबको तें है जहां एकऊ दुःख नहीं हैं तिनमें काहे नहीं लगे है ॥| इति तिहत्तरपां शब्द समाप्त |

.. अथ चौहत्तरवां शुब्द ७४ योगिया ऐसोहि बद करणी। जाके गगन अकाश घरणी

हाथ वाके पाऊँ वाके रूपनवाके रेखा बिना हाट हटवाई लावे करे ब्याई लेखा ॥|

(३५९२ ) बीजक कबीरदास

कर्म वाके धमम वाके योग वाके युग॒ती !

सींगी पत्र कछुव नहिं वाके काहिक मांगे भ्रुगुती॥ ३॥ तें मोहिं जाना में तोहि जाना में तोहि मार समाना उतर्पीतिप्रलय एक नह होती तब कहु कोनको ध्याना ॥४॥ योगिया एक आनि किय उठाढो राम रहा भरिषपूरी ओष॑धि मृल कछुव नहिं वाके राम सजीवनि मरी ॥५ नटवत बाजी पेखनी पेखे वाजीगरकी वाजी।

कहे कवीर सुनोहो सन्‍्तों भई सो राज विराजी॥६॥

योगिया ऐसो है वद करणी-+ जाके गगन अकाश घरणी हाथ वाके पा वाके रूप वाके रेखा

विना हांट हय्वाई लछाव कर बयाईं रेखा

योगिया कहे संयोंगी याके! ब्रह्मसंयाग करिके जगत्‌ करेंहे याते योगिया माया सबलित ब्रह्मैह सा वह योगिया की बद करणी है कहे निषिद्ध करणी हे जौने चैतन्याकाशम अहंश्रह्मास्मि बुद्धि करे है तोन चतन्याकाश मेरे छोकको प्रकाशंहै तहां आकाश धरणी एकी नहीं हैं ॥१॥ वह चेतन्याकाशको जो मानि लियो है ।के सो महीं है| ऐसा नो समष्टि जीव चैतन्य ब्रह्मरूप सो बाके हाथ है पाउँ हें वके रूप रेखा है जहां जीव नानाकम करे है जंगंत्‌ अरु बही जगत कर्मनकी फेर पांवहै जहां यही लेनदेन है रहो है सो जो है हाट वाके नहीं हैं कहे देश काछ वस्तु परिच्छेदतें शून्य हटवाई लगोंते है माया कहे सबलित डैंके जगत्‌ करते है अरु बया और को अनान ओर और को नापि देइहे अरु ब्रह्म जो है बया सो माया सबलित हेंके ईश्वर रूपते जीवनके किये जे कमेके फछहें ते जीवन को देइहे

कमे वाके चम् वाके योग न॒वाके यंग्ुती सींगीपन्र कछुव नहि वाके काहेको मांगे भुगती ॥३॥

ब्द्‌्। ( २८३ )

थे

अर वह बह्मकों नकमंहै नथधमे है और वाके योग युगुती है औसींगी जो योगी लोंगे बजवैहँ सो वाके नहीं है योगी तुम्बा लिये रहेहँ अरु वाके पात्र नहीं है सो कबीरनी कहे हैं कि, वह त्रह्म तो योग करे

कप, बम

सेद्धांत मं तो कछ हई नहीं है सो हु योगिउ ज्ञानिउ वेष बनाइके जो कहीही ये

हों

रा

जिक कतध् के

कि हमहीं ब्रह्मह ते। मक्ति कहे ऐशवये काहे मांगों हो कि हमईी जगत के मालिक ब्रह्म हनाई; हे गुरु! है यगति बताइ देड जो मुक्ति पाठ होइ तो तुम पहिलेद्वी ते मुक्त बनरह गुरुवा छोगनते काहे मुक्ति मांगोंही- कि जाम हम मुक्त हैं नाईं सो युगति बताइ देड | जो कहो हम आपने श्रम निवृत्ति . करिबे को मुक्ति को ज्ञान मांगे हैं तौ अरे मृढ़ो वह बरह्मके तो कुछ हई नहीं है वह निलेपहे वह बह्म जो तुम होते तो अज्ञानई तुम्हारे केसे होती

तें मोहि जाना में तोहि जाना में तोहि माह समाना

उतपति प्रलय +* नहि होती तव कह कोनको ध्याना श्री कबीरजी कहँहँ कि, है जीव ! ज्ञाननों तें मानि लियो है अर्थाव्‌ ते उपासना करे हैं कि में ईश्वरहों ईश्वर में समानहों ईश्वर मोहीं में समानहे तो उत्पत्ति पछय जब कुछ नहीं है तबतो बताडउ कौनकों ध्यानहै अर्थीत्‌ काहको ध्यान नहीं करत रहाों भाव यह है कि तब जो बलह्नहोते तो संसारी कादे हा ते 0 कु विद योगिया एक आ।ि किय ठाढ़ों राम रहो भारिप्री ओर्षाष | ॥0आ वि ही न, का थे मूल कछुव नहिं वाके राम सजीवनि मरी ॥«॥ सों तेंहीं योगिया मायासब॒लित ब्रह्मको अनुमव करिके धोखा बह्हीकों साहब मानि ठाडके लीन्हो है फारे कैसो है ना कुछ ओषधिंदे ना बाके मुलहे ताको माने है परमपुरुष पर श्रीरामचन्दहं सनीवतनि मूरि सर्वत्र पूर्ण है रहे हैं ताको नहीं जानेंहें सनीवाने मूरि याते कह्मो नाना ईश्वर जीवत्व मिट देन- बारे हैं साहब जीवनको नियाय देनवोरे हैं अर्थात्‌ रुप देनवारे हैं ऊर रे अर नटवत वाजी पेखनी पेखे वाजीगर को वाजी

कहे कवीर सुनोहो संतो भई सो राजबिराजी॥ ने

(३५४ ) बीजक कबीरदास |

जौन तू धोखातह्म सत्र पूर्ण मातै है सो तेरी यह पेखनी नय्वत बाजी बेखनी है अर्थीद झूठहैं बागीगरकी बानी है अर्थात्‌ सांच अपांच देखावे असांच सांच देखावेंदें सो कबीरनी कहे हैं कि हे संती ! सुनो उनको राजबिराजी है गई कहें सत्र पूर्ण सत्य ने साहबहें ते उनको नहीं जानिपरेहँ वही भाखाबह् में लोग हैं असत्यही सवैत्रदेखे हैं मनमाया को रान हैरहो है साहबको राज्य नहीं है

कक

इति चोहत्तरवां शब्द समाप्त

अथ पचहत्तरवां शब्द ७५॥ ऐसो भर्म विश्ुरचिन भारी वेद किताव दीन दोजख को पुरुषाका नारी॥ माटीको घट साज वनाया नाई बिंदु समाना घद बिनरे क्या नाम घरहुगे अहमक खोज शुलाना॥२॥ एके हाड़ त्वचा मल घुत्रा रुधिर गूद्‌ यक उुद्रा | एक विंदुते सृद्टि रच्योहे को त्राह्मणको शुद्रा रे रजगण ब्रह्म तमोग्रुण शंकर सतोगुणी हरि सो कहे कबीर राम रमि रहिया हिन्दू तुरुक कोई॥ . छेसों ममें विशुरचिन भारी चेद किताव दीन दोजख को पुरुषा को नारी रखो कहे यहितरहत जैसो आगे कहे हैं तैसो चिन्मात्र जीव को बिगारिबों भरते बहुत भारी है काहेंते कि भम ते दुबिधा कहिके वह सार पद र्थ को न्‌ जान्‍्यों हिन्दू मुसलमान दोऊ बिगरिगये हिन्दू वेद की राहते नाना मत बनाय लेतमंये मुसलमान किताबनकी शरा छैंके नाना मत दूसरो दौनकों खड़ा करत भये हिन्दू नरक स्वर्ग मुसलमान बिहिइत दोजुख़ कहतभेये जो

शब्द | २५५ )

लगते देखो तो न्‌ कोई परुष नानिपरे नारी ज्ञानिपरे सों भद नहीं है तो हिन्द मसत्मान केसे भेद भयों

वद साज बनाया नांद घदु समाना वअदावनरा क्या नाम चघरहुम अहमक खाज झुलाना एके हाड़ लचा मसल मुत्रा रुधिर गूद यक सुद्रा

एक बिदुत जाएं रच्यीं है का ब्राह्मण का शु॒द्रा ॥|

कि

«042 कक न्‍्रॉँ

नाभीके तरे जो दश आंगरकी ज्योतिह तानेमें जद श्राण बायुको संयोग होइहे तब नाद उठे है तामें बिंदु समाइगयो तब मार्टीकी बट यह प्ंडभयों ताहीको नाम घरावेहँ जब याका घट बिनशिगयों कहे शरीर छटि- गये तब याको क्या नाम घरांगे अर्थात नामरूप याके सब मिथ्या हैं अहमक जो है जीव सो नाम हुपके खोनमें न॒ठाह गयो ये सब जीदात्मा के ताम रूप नहीं हैं ॥॥ सो एके हाड़ादिकनते एके डिंदते कहे दीय ते सकलछ

4 हनी

सष्टि भई है काको हिन्दू कहें काको मुसत्मानक्दे काकों बाह्मण कहें काकों

237

रः

आूदकहें शरीरमें यही साम सर्बके हैं अरू वेदमें कर्म किताब में शरायही ते

के कक. मिल ्. कप हा ०. आस,

नाताभेद लगे हैं जो विदारिके देखों तो नाम खहूपहीको भर लगि रो है हा अर कक

आत्मा तो सबको चितही है मांस चाम सबके पांचमोतिकही हैं अब जें

गुणाभिमानी हैं तिनको कहे हैं हः

रजबुण ब्रह्म तमोीशुण शंकर सतोग॒णा हारे सोह कहे कबीर राम रत रहिया हिंदू तुरक ने कोई ॥४॥

वहीं नाम रूप के भेदते ब्रह्मा रज्ोगणी शंकर तमो गणी ेष्ण सतोंगणी भये वहीं नामके भेदते मुसस्मानमें इनहों को अनाजीछ मैकाईछ इनराईलर कबीरती कहे हैं कि येतों सवनाम रूपके भेदहें इतको सबको आत्मा एकई है

बिक

तिनमें अंतय्योगी रूपते मतवचनके परे परमपुरुष पर शरीरामचन्द्रई रमि रहे

हैं। जो कहों राम नामो तो नामभें अवै है तो रामको नाम मन बचमनमें

|

नहीं आंबे है आपही स्फुरित होइड तहिते तामत्व नहीं है अरु श्रीरामचन्द्र्‌

(३५६) बीजक कवचीरदास निगुण सगुणके परे हैं तिनको जाने जो आत्मा नाम रुपते भिन्नहै हिन्दू है तुरुक है तामें येई राम रमि रहे हैं या हेतुते सबकी आत्मा इन्हींको दासहैं तेहिते इनहींकी नो जाने सोईं मुक्त होइहे परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र निरगुण सगुणके परे हैं तिनहींको राम नाम जाने मुक्ति होइ है तामें प्रमाण “समके नामते पिंड ब्रह्मांड सब रामका नाम सुति भर्म मानी। निगुण निरा- कार के पार पख॒ह्नहै तासका नाम रंकार जानी विष्णु पूजाकरें ध्यान शंकर धरें भनें सुबिरंचि बहु बिबिध बानी कहे कब्बीर कोइ पार पावे नहीं रामका नाम अकह कहानी” हाते पचहत्तरवां शब्द समाप्त

अथ छिहत्तरवां शब्द ७६ अपन पो आपुही विसरो। जेसे शोनहा कांच मदिरमें भमेत भ्रोके मरो॥ १॥| ज्यों केहरि वषु निरखि कूप जल प्रतिमा देखिपरो। ऐसेहि मद गज फटिकशिलापर दशनानि अनिअरो॥२॥। मर्कंट मुठी स्वाद ना विहुरे घर घर नटठत फिरो॥ कह कबीर ललनीके सुवना तोहिं कवने पकरो ३॥ अपन पो आपुही विसरो। : जैसे शोनहा कांच मादिरिमें भर्मत भ्रंकि मरो ज्यों केहरि वषु निराखि कूप जल प्रतिमा देखिपरो शेसेहि मद गज फाटिक शिलापर द्शनानि आनि अरो२

अपनपोी कहे आपने जे परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र हैं तिनको आपही तें यह जीव विर्सार गयो नैसे कूकुर कांचके मंद्रिमिं आपनो रूप दोखे देखि भमते मूँकि मूँंकि मरहै अरु जैसे केहरि कूपके जरूमें अपनी प्रतिमा

शब्द ( ३५७ )

देखिके कूदि परैहें अर ऐसेही प्रतिविंव देखि स्फटिक शिलार्म हाथी दांत टोरि ढारेहै

मर्कंट मुठी स्वाद बिहुरे घर घर नटत फिरो कह कबीर ललनीके सुवना तोहि कबने पकरो॥

अरू नेसे मर्कट मठीमें नोहे दाना ताके स्वादके लिये फैसि गये बाजी- गरके साथ नाचत बगेह सो कबीरजी कह हें कि नेसे इनके सबके श्रम होइहे तेसे हे नीव तेंहों सव कल्पना करिलियों है अपनी कल्पनाते तोहोंकों श्रम होइहे नाना उपासना न'ना ठाकुर खोंजत फिरेह। विचारिके देख तो जब तेरे कल्पना नहींरही तबते शुद्ध रहेंहे जैसे सुवा ललनीकों पकरि हछेइहें तैसे तैंही| ये सब कठपना करिकै कस्पनामे वैंधोह नेसे सुवा छलनी को जो छे.ड्रि- ढेइ तो वृक्षमें पहुंचे जाइ तेसे तेंह जा कत्पनाकों छोड़िंदइ ते। तोकों कौन पकरये[है।परमपरूष पर श्रीरामचन्द्र के पास पहुँचे जाइ जब सब करपना छोड़ि शुद्ध है जाइ है तब साहब अपनों विग्वह दंइहे तामें स्थितहै साहबके छोकको जाहहे तामे प्रभाण॥ '“आदत्ते हरिहस्तेन हरिपादेन गच्छति” इतिस्मृतिः॥ अरु श्रीकबीरझ जी को मंगल प्रमाण चले सखी वैकुण्ठ विष्णु माया जहां वारिउ मुक्ति निदान परम पद लेतहां आगे द्वन्य स्वरुप अछख नहीं हाथ परे तत्त्व निरंनन नान भरम जाने जनि चितधरे आंगे है भगवंत तो अक्षर नाईहै | तौन मिटवे कोटि बनावै ठाउहे जाग सिंधु बढेद महा गहिरो नहां कोनैया डैनाय उतोरे को तहां कर अनपाकी नाव तो सुरति उतारिददे लेदहों अन्नरनाऊँ तो हंस डबारिह पार उतर पुरुषोत्तम परख्यों जानहें तहँवाँ धाम अखंड त। पद निवोन हैँ तहँ नाहें चाहत मुक्ति तो पद ढारे फिरि | सुरत सनेहीं हँस निरंतर उच्चरे बारह मास बसंत अमर छीछा जहां | कहें कबीर बिचारिे अठल है रहुतहां ?

इति छिहत्तरवां शब्द समाप्त

(३५८ ) यी ज़क कबीरदास

अथ सतहत्तरवां शब्द॥ 99॥ आपन आश कियेवहु तेरा। कांहु मर्म पाव हरि केरा ३॥ इन्द्री कहां करे विश्राम सो कहे गये जो कहते राम ॥२॥ सो कहँ गये होत अज्ञानाहोय मृतक वहि पद॒हि समानश। रामानंद राम रस छाके। कह कबीर हम कहि कहि थाके४॥

७. आपन झाश किये वहुतेरा। काहु मम पाव हारे केरा १४ आपने स्वरुपके चीन्हिबे की बहुतेरा कहे बहुत आशेकिये कि हमारों आत्म सबके मालिकह यहीके जानेते हम मुक्त है जाईंगे परन्तु मुक्त भये अरु हरे जे परभपुरप पर ओऔरामचन्द्र सबके कलेश हरनवारे हैं तिनकों मर्म पायो अथाद उनको कोई ते चीन्हो

इंद्री कहांकरे विश्राम | सो कहँगये जो कहते राम॥२॥

अरु यह कोई नहीं विचार करे है कि इन्द्री कहा बिश्वाम करे है काहेतें कि इन्द्रीके ने देवताहैं,तिनते समेत इन्द्रीतो मनते चेतन्य हैं मन जीवात्मा ते चैतन्यहै जो जीवात्मा परमप्रुषपर श्रीरामचंद्र के प्रकाशते चैतन्य है सो जे आपने स्वरूपको बिचार करे हैं कि महीं रामहों ते वे रामभर कहांगये अथीत्‌ नहीं गये बद्में समान रहे अरु एक एकते चैतन्यहै तामें श्रीगोसाई तुलसीदास को प्रमाण बिषय करन सुर जीव समेता सकछ एकते एक सचेता सबकर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवधपति सोई जगत प्रकाश प्रकाशक रामू मायाधीश ज्ञान गुणघाम्‌ ! *

सो कहँगये होत अज्ञान होय मृतक यहि पद॒हि समान॥३॥ रामानंद राम रसछाके। कह कबीर हम कहि कहि थाके॥७॥

जीव ब्क्षमें समान रहो शुद्ध रहमों नब मनकी उत्पत्ति भई अज्ञान भयो सों कहांगयो अर्थीत्‌ तब मृतक हैंके आपने स्वरुपकों भुछायकै यहि पदृहि कहे यहि - सेसारमें समान॥ ३॥श्रीकबीरजी कहैहैं कि हम चारों युगमे कहि कहि थकिगयें

छ़ब्द ( ३५९ )

के रामानंद नेहें तेई राम के रसमें छके हैं अरु तेईं परमपुरुषपर श्रीरामचंद्रके धामको गये हैं और कोई नहीं परम मुक्ति पाई है तुमहू रामानंद होतनाड अथीव तुमह रामहीते आनंद मानतनाउ यह हम चारोंयुग म॑ सबको समुझा- यो परंतु कोई हमारों क्यों मान्यों राममें आनंद कोई मान्य सब वहीं माया ब्रक्षमें रूगिके संसारी होतमयों

इति सतदहत्तरवां जझब्द समाह।

अथ अठहत्तरवा शब्द ७८ |

अब हम जाना हो हरि वाजीकों खेल डंक वजाय देखाय तमाशा बहुरि सो लेत सकेल हरि वाजी सुर नर झुनि जहडे माया चेटक लाया घरमें डारि सवन भरमाया हृदय ज्ञान आया वाजी झँठ वाजीगर सांचा साधुनकी मंति ऐसी कह कवीर जिन जेसी समुझी ताकी गाति मई तेसी

: अब हम जाना हो हरि बाजी की खेल

डंक बजाय देखाय तमाशा बहुरि सो लेत सकेल॥ १४ हेहरि ! हे साहब ! संसाररूप बाजीके खेलकों हेतु अब हम जान्या अब जो कह्यो तामें धुनि यहहें कि, तब यह विचारत रहे कि साहब तो दयालुई शुद्धी- वको संसार राचि अशुद्ध काहे करिदिये यह शेका रही सो अब जब छूटी तब साहबकों हेतु जान्यो साहब जो सुरति दियो सो आपनेपास लिवाय सुखलिये डड्डेग बनाय कहे रामनाम शब्द सुनायंके तमाशा देखाय कह्टे जगत्‌ मुख अर्थ द्वार संसार तमाशा देखायके बहुरि सो लेत सके कहे जे; कोई जीव साहब के सम्मुख भयो ताको साहब मुख अर्थ बताइके चित अचितरूप विग्रह जगव खायके संसार सकेलि छेय है अथी व्‌ संसार देखि नहीं, परै॥

( ३२६० ) बीजक कबीरदास

हा 5७७. वि हरिवाजी सुर नर मुनि जहेँडे माया चेटक लाया। दिकरा घरमें डारि सबन भरमाया हृदया ज्ञान आया २॥ झूः हि कि _५, कस वाजी झूंड वाजीगर साँचा साधुनकी मति ऐसी 6 री के 6 8 के कह कबीर जिन जेसी समझी ताकी गति भइ तेसी॥ ३॥ हरि ने साहब तिनकी बाजी जोसंसार तामें साहबको हेतु णानिके सुर- नर सुनि ने हैं ते रामनामको संसार मुख अर्थ करिके मायाके चेटकमें जहँड़ि- गये अर्थात्‌ भ्रूछिगयें सो माया इनको घर नो संसार तामें डारिके भरमाय दियो हृदपमें ज्ञान होतमयों तौन हम जान्‍्यो साहब सुरति दियो तें अपने पास बोला- जैकी से या नीव आपहीते संसार वानीरवि भूछिगयों॥ २॥ बाजी नो संसार सो झूठ बाजीगर नो जीव सो सांचहै सो साधनकी मति तो ऐसी है और ने सबहें बद्धनीव ते जैसे समुझिनि है तकी तेसी ही गति भई है सो गतिहू सब अनित्य है ॥३१॥ इति अठद्ृत्तरवां शब्द समाप्त

अथ उच्नासीवां शब्द ७९

कहो हो अम्बर कासों लागा। चेतनहारे चेतु सुभागा १॥ अम्बर मध्ये दीसे तारा यक चेते इुजे चेतवनहारा॥ २॥ जेहि खोजे सो उहवां नाही।सोतो आंहि अमर पद माही ३॥ कह कवीर पद बूझे सोई। मुख हृदया जाके यक होई ४॥ कहो हो अम्बर कासों लागा। चेतन हारे चेतुं सुभागा॥ १॥ अम्बर मध्ये दीसे तारा। यक चेते दुजे चेतवनहारा॥२॥

तैंतों सुभागोहै साहब कोहै तें काहे मन माया बह्ममें लगिके अभागा हैरहैहै

चेत करनवोरे तें चेत तोकरु अंबर जो है लोक प्रकाश रूप ब्रह्म सो कहां लागाहै अथीव वह काको प्काशहै वह साहब साहबंके छोककों प्रकाशहे चेततों करु १९ वह अम्बर जोंहे छोक प्रकाश ब्रह्म तामें तारा देखाइहे कहें

शब्द ( ३६१ )

जवंर्तें डहां अहं ब्रह्म बुद्धि करे है, तवहीं जगवरूप तारा उत्पात्ते होइहैं तोनिही जगवमें एक गुरु होइहे सो चेतावहै अरू एक शिष्य होइहे सो चेतकरेंहे ॥२॥ जेहि खोजे सो उहवां नाहीं। सोतों आहि अमर पद माही 8 करे एे वा कह कवीर पद वृझे सोई। झुख हृदया जाके यक होई सो ज्याहि आपने स्वरूपकों ते खेनि है कि में आपने स्वरूपका नानिके मुक्त द्ैैजाई् सो उहां वागुरुवनका ज्ञानमें नहीं है वह लोक प्रकाशमें है काहते कि जे जे देवतनमें वे लगावेहें तेई अमर नहीं हैँ ता तोको कहां मुक्ति करेंगे अरू महा मलयमें जब छोक प्रकाशमें छीन होंइहे तब डहोंते उत्पत्ति होइहैं तेहिते उहों गये अमर नहीं होइहैं तेहिते यह आयो कि तेंतो अमर नहीं होइहै तेहिते यह आयो कि तैंतों अमर पदमें है साहबकों अंशोहै साहबकी जानिले तो अमर हेनाइ श्रीकबी रजी कहे हैं कि यह अमरपद अपनों स्वरूप कोई बिरला बूझँदे कीन नाके सम अधिक नहींहै ऐसो मो है एक रामनाम सो जाके 8 आई, छः अर, आए,

मखद्ददय में होइहे सोई बसेंहे इति उन्नासीवां शब्द समाप्त।

अथ अस्सीवां शब्द ८०

बन्दे करिले आप निषेरा आपु जियत रूखु आप ठवर करू सुये कहां घर तेरा॥ १॥ यहि अवसर नहिं चेतो प्राणी अन्त कोई नहीं तेरा

कहे कबीर सुनो हो संतो कठिन काल को घेरा

बन्दे करिले आप निबेरा। आपु जियत लखु आप ठवर करु मुये कहां घर तेरा १॥ यहि अवसर नहीं चेतो प्राणी अंत कोई नहीं तेरा कहे कबीर सुनो हो संतो कठिन काल को घेरा २॥

( ३१६२ ) बीजक कबीरदास

हे बंदे अपनेमें तो निबेरां करिड अपने नियत अपना ठोरं तो करू मुयेते तेरा घर कहाहै अथीव्‌ जो सत्‌ असद कर्म करेगो सो सब नरक स्वर्गीदिकनमें भोग करैगो तेतों कर्मेके घरहें तेरे घर नहींहे जो ज्ञान कारेके आपने को ब्रह्म मानिके बहा प्रकाशमें हेंके शुद्ध जीवन कहेगो सो बह्ल होनाती धोखाहि जब फेरि उत्पत्ति समय होइगों तब माया परिडे अविगी पुनि संसारी हैनाइगो अरु और और देवतनकी उपासना करिके उनके छोक जाइ जो तेऊ तेरे घर नहींहँ जब माया परिडे आंवैगी तब संसारी हैनाइगो जब मरेगो ये परनमें जाइगो तब बिचार करनेकी सुधि रहि जाइगी तेहिते जीतही आपने घर बिचारु तेरों घर वहहे जहांके गये फिरि आंबे सो तें साहबको अंशहे सो साहब« के पास घर करु कहें झोर करु जाते फिरि संसारमें आवे ॥१॥ सो कबीरजी कहैंह कि हे भाणिड यहि अवसर कहे मनुथ्य शरीर में जी साहबके नहीं जानोहो तो हे संतो ! सुनो तुमको अंतकाछमें यह कठिन नो कालकी थेराहे ताते कौन बचावैगो अर्थात्‌ जहां जहां नाहंगे तहां तहांते का तोको खा छेइंगो। साहब बचावनवारे खड़े हैं ताको प्रमाण आगे छिखिही आये हैं “अजहूं छेहुं छुड़ाइ काछसों नो घट सुरति सँभारे”' सो साहबको जानिके साह*« बके पास जाय जनन मरण छूटि जाय

इति अंस्सीवां शब्द समाप्त

अथ इक्यासीवाँ शब्द ८१ तूतो ररा ममा की भाँति हो संत उचारन चूनरी ३॥ बालमीकि बन वोश्या चनिलिया शुकदेव कम बेनोरा हेरहयो सुत कांते जयदेव २॥

तीन लोक ताना तनो ब्रह्मा विष्णु महेश। . नाम छेते मुनि दारिया सुरपति सकल नरेश

शब्द ( ३2६४ )

जिन जिद्दा गण गाइया बिन वस्तीका गेह सुने घरका पाहुना तासों लांवे नेह चारि वेद केंड़ा कियो निराकार कियरास ! विने कबीरा चूनरी पहिरें हरिके दास

तूतो रण ममा की भांति हो संत उधारन चनरी

जो तुम मनमाया बह्ममें छागे रह्ोंहे सो तुम इनके नहीं ही तुमतों रा ममा की भांतिहीं अर्थीत्र राम जो महों तिनकी भांतिहों नैसे में विष्ण चैतन्य हों तेसे नम अगु चेतन्यहों मरे अंशह। सो मेरों जो रामनामहे ताको डबार- नामकी चुनरी कवीरसेत मेरो बनायों है। यही रकार बीन मों मकारह है यहि हेतुते लाइइ रकारशकों कहें हैं अथीत लब राम नाममें जपैगे तब यह जाने जाहुगे कि मकार नरों स्वरुपहै रकार खाहबर्की स्वरूप है कबीर संत अपार जो है नगवमुख अर्थ ताके त्यागिके सार जो है साहबमुख अर्थ ताको ग्रहण कारिके चूनरी बनाई है सो कहेंहें *

वालमीकि वन वोइया चूनि लिया शुक

कम वेनोरा ह्वे रह्मो सुत कांते जयदेव

मार्ीकों है बहुत छिद्नहें याते शरीर बस्मीक कहे बेमौरि है तामें जो रहें सो वाल्मीकि कहावै सो वाल्मीकि आत्मा है सो बाणी रूपी जो बन कहे कपा सह ताके बोवत भयोअथीव्‌ वहींकी इच्छा शक्ति भई हैं। शच शोके पात है तेहिते शक्त शब्द होइहै-ताको जो देव होइ सो शुकदेव कहांवे है। सो शोंच मनके होइ है अथोत सड्डल्प बिकत्प मनके होइ है सो शुकदेव मन हैं सो आत्माते जो बाणीरूपी कपासके ठेढ़ाकों अनुसार

भयो ताको चनि लियों अथीव बाणी मंने ते निकसी हैं अरु जय करिके क्रीड़ाकरे अथवा जय बिषय क्रीड़ाकरे सो जयदव कहांवे सो सबकी जीति लियों है अज्ञान सो मृलाज्ञान जयदेव है तौनेमें कम बेनोरा है रह्यो है। विद्या

आवद्या माया सोई सुत है जाको मूलाज्ञान जो अहंबह्न बुद्धितौनहै। जाके ऐसों

( ३१६४ ) बीजक कबीरदास

नो जीव जयदेंव सो कांते है अथीत्‌ अहंत्रह्म बद्धि जब समष्ठटि जीव कियोंहे तबहीं मनकी उत्पत्ति भई कम भयो है संसार प्रकट भयो है तीन लोक ताना तनो ब्रह्मा विष्णु महेश नाम लेत मुनि हारिया सुरपति सकल नरेश

तीनलोक नोंहे सोई ताना तन्‍्यो है ताको तीनि खूंठाहें रजोगुण हह्मा मृत्युकाक के सतोगुण विष्णु आकाशके तमोंगुण महेश पातालके। अरू अनेक ने नामृहें अनेक जे मतहें अनेक जे ज्ञान हैं वेदमें सोई कपरा तयार भयो तिनकी नाम छेत मुनि इंद्र औओ सबराजा हारि गये। वहीं बह्मरूपी कपराकें गठियामें

4 #7+

कसे रहिगये वार्सो निकसिके मुक्ति पावत भये अथीत्‌ मोकी जानत भय ३॥ [आओ [दा का [०] दिया बिन जिला गुण गाइया विन बस्ती का गेह कप कब वि पे सु पर का पाइना तासा लावे नेह॥ ॥!| कहत का भये कि बिन निद्ठा जो गुण गवे है कहे अजपा जो है सह तोने अजपाकों साथ गाइकै कहे जपि जपिंके बिन बस्तीकों: गेह जो है ब्रह्म झूठा तौने कपराके गठिया के भीतर बँघि जातमये कहे यह मानत भये कि हमहीं ब्ह्महैं | सो वह घरतो देशकाल बस्तु परिच्छेदते शून्य है सो नैसे सुने घरमें पाहुना नाय कुछ पवि तेसे जीव उहां कुछु पावतभयों येती रामनाककफाी जगवमुख अथ करि सब यह कपरा बिनो अरु श्रीकबीरनी साहबमुख अथकरि कौन कपरा बिने हैं सो कहे हैं ञ३३ 8. $# चारि वेद कैड़ा कियो निराकार किय रास 2 चूः |] श् कि विने कवीरा चूनरी पहिरे हरिके दास « चारिवेद को केंड़ा करिके निरड्डगरकों राशि वनाइकै वही निरड्डगरके भौतरते निकासि लैनाइके अथीत्‌ प्रकाशरूप बह्ल कौनको प्रकाशहै ? तब यह बिचारेड साहबके छोकको प्रकाशहै | लोक कौनकों है। यही बिचार करिबो है भ्रह्म॑त बेदको तात्पय निकसिबो है सो चारिड वेदको कैंड़ा करिके ब्रह्म नो है राशि तौनेते बेदकी तात्पये निकासि रामनामकी चूनरी श्रीकबीरनी कहै हैं कि

छब्द ( ३६५ )

में बिनोहों। ताकी हरिके जानिबेमें दाक्ष कहें दक्ष जेकोई बिरले दासहें ते पहि- रहे हैं अथीव रामनाम नपिकै साहबको जाने हैं। यंहि पदमें बाल्मीकि को शुकदे- बको जयदेवको जो अर्थ हम कियो हूँ सोई अर्थ है काहे ते कि जेई बास्मीकि शजुकदेवकों अर्थ करे है तिनको यह ज्ञान नहीं रद्मा कि तीन हांक जब ताना तनिगये हैं ब्रह्मा विष्णु महेश खूटा मय हैँ तब वाल्मीकि शुकदेव जयदेव नहीं रहे दे

इति इक्यासीवां शब्द समात्त |

अथ बयासीवाँ शब्द <२॥ तुम यहि विधि समझो छोई गोरी सुख मंदिर बजोई ॥१॥ एक सगृण पट चक्रहि वेध विलु वृष कोलुडू मांजे ब्रह्मे पकरि अग्निमें होगे मक्षगगन चढ़ि गाजे २॥ निते अमावस निते अहण होइ राहु आस नित दीज। सुरभी मक्षण करे वेदसुख घन वरसे तन छीजे पुहुमिक पानी अंबर भरिया यह अचरज का कीजे ! विकाटे कुंडल मधि मंदिरवाजे ओचट अंबर भीजे ॥४॥ कंहे कवीर सुनोहो संतो योगिन सिद्धि पियारी सदा रहे सुख संयम अपने बस॒था आदि कुँवारी॥ «५

5 5. 6... 0 पल. अशिलिकिक- थी

तुम याहावांच समझी लाइं।गारां सुख मॉंद्र वजाई॥ एक सगुण षट चक्रहि बेचे विनु वृष कोल्हू मांज

ब्रह्म पकार अआंम्मर्म हीसे सक्ष गगन चाढ़े गाज २॥ वह लोई जो है छपट कहे ज्योति सो बह्मांडमें है ताकी यहि बिघिते तुम समझो। अथवा लोईकहे हे छोंगी! तुम यहि बिधिते समुझो गोरी जो है कुंडडिनी शक्ति नागिनी ताहीके मुख शरीररूपी मेंदिर कहे मृदड़ अथवा मंद्रि कहे घर

( २६६ ) बीजक कंबीरदास

बानै है अथोत्‌ पराबाणी उहें ते निकसे है सोई पहयंती ते मध्यमा आइ वैख॑- सैमें प्रक होइ है। पटचक्रको बेघिके कुण्डलिनी शक्ति नागिनी जायहै ताके साथ त्रिगुण ते युक्त जो एक सगुणनीव है सो जायहै सो वाकी विधि आगे लिखिं आये हैं। सो वृषभ तो उहां नहीं चंढे हैं कोर्ह जो कुंडलिनीशक्ति सो मन कहे देह मांजिके उठे है सो पांच हनार कुंभक कियो तब इवासनते तपित होइहे अथवा खेचरीते सुधाबिंदु वाकें ऊपर परयो ताकी शीतलछता पाइकै डंठे हैं सो ब्रह्मांड में नाइके अथीत्‌ नेतने रोज समाषि लगायो तेतने दिन रही ताके साथ जीवहू गयो।सो कहै हैं कि,बल्मांड नोरजोगुणहै ताको योगाग्निमें होमि दियो सो रनाोगुण जरयो तो तमोगुण जरै है। अरु भश्न जो जीवहै सो नाभीके जलमें रह्मो तहांते चलिके गगन जो ब्रह्मांडहै तहां गाने है कहे यह कहे है कि महीं मालिक हों २॥

निते अमावस निते ग्रहण होय राहु आस नित दीजे।

सुरभी भक्षण करे बेद्‌ सुख घनवरसे तन छीजे

पुहुमिक पानी अंबर भरिया यह अचरज को कीजे

त्रिकुटि कुंडल मघि मंदिर वाजे ओचट अंबर भीजे 8 खेचरी की दृष्टे तीनहै तामें एक पूर्णिमाहैकहे सर्वे पूर्ण देखे है। ऊध्वेदष्टि प्रतिषदा है जग अंतरहृष्टि अमावस है | सो जब अंतर खचरी चढ़ीं काहपूतरी आकाश वेधी कहे ऊर्घ्वदष्टि पतिवदा में बेधी तब अंधकार अविद्या ग्रहण हैंके चेतन्यकों छाइ लियो अर्थात्‌ प्रथम अंधकार देखोपरों और कछु देखि परयों | पुनि बितकी ऐसी चमकी तब तारागण वीर्य है ताकी गति माछूम भईं।तब प्रथम सये मण्डल पुनि चंद्र मण्डल देखोपरयो |सो वही ज्योतिर्मे छीन रेंहें समाधि लगी रहेहे जब समाधि उतरी तब नीवको भमावस भई तममें परयो आइ। तब सूर्य प्रकाश देखत रहो ताको मायारूपी राहु ग्रसि लियो अथवा जब नागिनिकों सुधा पिभविंदे तब बहुत दिनकी समाधि छगेंहै।अब जोन पुरुष रोन समाधि लगावेहै उतरे है सो कहै हैं नब समाधि चढ़ाय लैगयो तब याको अमावस ह्ेगयो पूनि तममें परथो नित्य ग्रहण होइहै वे चंद्रमा भी सूर्य दुडड

शब्द . (४६७ )

नाड़ीहैं तिबको सुषुम्णारूपी राहु ग्रास देइहे अथीव्‌ गसन करावै है वही सुषु मग्णामें छीन के देइहै। जब समाधिं छगी तब सुरभी नोहे गायत्री माया कुंडलि- नी शाक्ति सों वेदमुख बाणी भक्षण केलियो अर्थात बाणी रहित हैगयों। तन छीने है कहे दूबर हैं नाइहे सो पन बरसे हे कह सुधा बरसे है याते बनो रहे है। पुहमी का पानी नब अंबरमें भरन लंगेंहे कहे नीचे को वीयें बल्लांडमें चढ़ा- वन छूुगेंहे तब शाशे की सराई बनाइके लिंगद्वार में डारे है पानी खैंचहे जब राह साफहै जाइहे तब पवनके साथ वीये चढहेंद्े तब पवन वीयेके साथ जीवात्मा चढ़िं जाइहे जिकुटी में जिबेणीकों स्नान करिके दशो अनहद सुनन छाग्यो तामें मंद्रि कहे मृदंगो हैं सो बज हैं घटते कहे बड़नालकी राहते जब जीवात्मा जाइहे तव अम्बर जो है गेबगुफाकों आकाश सो भीने है अरथीव उहां वार्य पहुँचि जाहहै सो यह आश्चर्य का कीने

कहे कवीर सुनो हो संतो योगिन सिद्धि पियारी

सदा रहे सुख संयम अपने वसुचा आदि कुंवारी

सो कर्बारेजी कहै हैं कि हे संतों! यहि तरहकी जो सिद्धिहि सो योगिनकों पियारितदे सो प्रथमता सिद्धिही नहीं होइहे जो घुनाक्षर न्याय ते सदा सुख संयम में रहें सिद्धि भईं समाधि लगी तते फेरे वैसेही योगी भये अथवा पुहुमीपति भये योग करिकै हम यह शरीश्के मालिक हँगये मनादिक हमारे बश हैगये परंतु जब यह शरीर छूटि जाइंह और शरीर होइंहै तब वह- सुधि सब भूलछि जाएहे अरु जब पुहुमीपति भयो आपनेको राजा मानि लियो सो जब मरिगयो तब पुहु|मी आनही की ड्लै जाइहै पृथ्वी कुमारिही रहि जाइहे

हत बयासाबा शब्द समाप्त

अथ तिरासावां शब्द ८2३ भूला वे अहमक नादाना तुम हरदम रामाहें ना जाना ब्रबस आनिके गाय पछारा गला काटि जिउ आप लिया। जीता जिव मुरदा करि डारे तिसको कहत हलाल किया

(३६८ ) बीजक कवी रदास

जाहि मासुको पाक कहतह ताकी उतर्पति सुनु भाई रज वी रजसों मासु उपानी मासु नपाक जो तुम खाई ॥३॥ अपनो दोष कहत नहिं अहमक कहत हारे वड़ेन किया उसकी खून तुम्हारी गदन जिन तुमको उपदेश दिया॥४॥ स्याही गई सफेदी आई दिल सफेद अजहूं हुआ रोजा निमाज वांग क्‍या कीजे हुजरे भीतर बेठ मुआ॥५॥ पंडित वेद पुराण पढ़े मोलनापढ़े सो कुराना। कह कवीर वे नरकगये जिन हरदम रामहि ना जाना॥ ६॥ १-५ तक के पदकों अर्थ स्पष्टई हैं अंतके छठे तुकको अथ करेहें। सब समे- ट्कि ने हरमद कहे हर साइत श्वास इवाहमें रामको नहीं जानते हैं ते नादान कहें बेवकूफ भूछे अथवा हरदम कहे हरएकके दम कहे प्राणमें अंतयोमी रुपते ब्यापक परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र को जे बेवकूफ नहीं जानते हैं ते मोढना पाइडत भलिगये जी वे आपने हुजराम बठेके रांजा निरमान किया कुरान

बिक ०.

किताब पढ़ा जो पंडित अपने घरकी कोठरीमें एकांझलैरर वहुत वेद

शास्त्र को पढ़ा ते का किया आखिर नरकही में गये .. यह देखे * हिकी सुन्यो कि बिना रामको जाने मुक्त द्वेगये .... .«- -

इत तिरासीवां शब्द समाप्त

अथ चोरासीवाँ शब्द ८४

काजी तुम कोन किताव बखाना झंखत बकत रहो निशि बासर मति एको नहिं जाना॥१॥ शक्ति माने सुनति करतहो में बढ़ोंगा भाई। जो खोदाय तुव सुनते करतहे आपुह्ि काटि किन आईश॥

ऋब्द ( ३६९ )

सुनाते कराय तुरुक जो होना ओरत की का कहिये। अद्वंशरीरी नारि बखाने ताते हिंदू रहिये घालि जनेऊ ब्राह्णण होना मेहरीकों क्या पहिराया। वो तो जन्म के शूद्विनि परुसा सो तुम पांड़े क्यों खाया४॥ हिंदू तुरुक कहांते आया किन यह राह चलाई : दिलमें खोज खोज दिलहीमें मिइत कहां किन पाई ॥५॥

कवीर सुनोहों संतो जोर करतुहो भारी कबिरन ओट रामकी पकरी अंत चला पचिहारी ६॥

काजी तुम कोन किताब बखाना झंखत वकत रहो निशिवासर माति एको नहिं जाना॥ १॥ हे काजी ! तुम कौन किताबकों बखानत रहौंहो निशिबासर वहीं किताबकों बकत रहोहो अरु बाहीमें झंखत कहे शंका करत रहौहौ सो कुरान किताब तालयेते जो एक साहबको बर्णन करे है ताको नो तुम्हारी मति जानत भई तो तुम कुरान किताबकी एकऊ बस्तु जानत भये १॥

शक्ति माने सुनति करतहो में बढ़ोंगा भाई | जा खादाय तुबव सुनात ््रति ता आपु कांटे किन आइंर॥ वालि जनेऊ ब्राह्मण होना मेहरी को क्या पहिराया। वोतो जन्म की शूद्विनि परुसा सो तुम पांड़े क्यों खाया ३॥ सुनति किये नो मानतेही कि,हम मुसछुमान हैं या नहीं मानते ही कि, शाक्ते जो माया सोई करेहे सो हे भाई ! मैं बदौंगा नो खोदाय तेरी सुनति करतो तो पेटही ते कटी आडती * सो हे पंडित ! आपनी आत्माकों साहबकी शाक्ते मान्यो। अरु बह्मसाहबकों जान्यो जनेऊ पाहिरकै तुमतों

आह्मणभये अपनी मेहरीको कहा पहिरायैहै जाते वह ब्राह्मणी भई सी २४

(४७० ) बीजक कच्रीरदास |

तिहारी ख्री तो जन्मकी शूद्विनिंददे सो परुसेहे हे पाड़े ! तुम खाउद्दौं ताते तुम कैसे ब्राह्मण भये ब्राह्मण तो ब्रह्म जानेते कहवैंहे |

हिन्दू तुरूक कहांते आया किन यह राह चलाई दिलमें खोज खोज दिलहीमें भिश्त कहाँ किन पाई॥४॥

आत्मातें एकईहै हिंदू तुरुक ये शरीरके भेदहें यह शरीर कहां ते आयेहे यह राह कौन चछायो है अथौत बींचैते आये हैं बीचैते जायँगे सो दिलिमें तुम खोजो उसका खोन दिलही में है कौत मिश्त पायोहे अथीद खोदा- यका बंदा जो तिद्ारो जीवात्मा है जो हिंदू तुरुकमें एकई है सो तिहारे दिल“ हैहै उसको जानों तो जानि परै उसके मिछनको खोज कहे राह वही

आत्माहै नब आपने स्वरूपकों जानोंगे तब बाकों पावोंगे #

कहे कबीर सुनो हो संतो जोर करतु हे भारी : कविरन ओट रामकी पकरी अंत चला परचिहारी ॥५॥

कवीरजी कहेहँ ।कि हे संतो! सुनो यह जीव आपने छूटि जाइबे:कों बड़ानों- करेहे कहे बहुत उपाय करे है नाना मतन करिके ते कबीर काया के बीर नें नीवहैं ते औरे औरे मतनमें छगिके राम अछाहके ओट के और पकरत भयें कहे और जे मतहैं ते राम अल्छाहके ओट कै देनबारे हैं तितकों पक- रिके अथवा कबीर जे जीवहें ते रामकी ओट ने पकरत भये अरथोव्‌ आपने जीवात्माकों साहबके बंदा नानत भय राम अल्छाहकों बिसरि गये ताते अंतमें प्चिके कहे मारिके अरु वे मतनते हारिके चडेगये। नो यह मानि राख्यो तैं कि हमको स्वर्ग बिहिइत होइ हम ब्रह्म होईंगे सो एकऊ भये जोन कमे कारें राख्यो तैसोई कम नरक स्वगैनमें भोग करन रूग्यों

इति चौरासीवां शब्द समात्त

शझब्द (३७१ )

अथ पचासीवाँ शब्द <५ भूला लोग कहे घर मेरा

जा घर वामें फूला डोले सो घर नाहीं तेरा हाथी घोडा बेल वाहनो संग्रह कियो घनेरा वस्तीमें से दियो खदेरी जंगल कियो बसेरा २॥ गांठी वांधी खरच पठये वहरि कियो नहीं फेरा बीवी वाहर दरम महलमें बीच मियांकी डेरा॥ ३॥ नो मन सूत अरुक्षि नहिं सुरझे जन्म अरुझेरा कहे कबीर सुनो हो संतो यहि पद करो निवेरा॥७॥

भ्रूला छोग कहे घर मेरा। जा घरवा में फूला डोले सो घर नाहीं तेरा ॥१॥ साहबके पाषेदरूप जो है हंसस्वरूप आपनो सांच शरीर ताको भरे छोग कहें कि यह मिथ्या नो स्थुलशरीर सो हमाराहै सोना घर स्थरू शरीरमें तें फूलाडोंडे है मेरो शरारहै सो तेरा घर कहे शरीर नहीं है हाथी घोडा बेल बाहनो संग्रह कियो घनेरा बस्ती मेंसे दियो खदेरी जंगल कियो बसेरा २॥ गांठी बांधी खरच पठयो बहारे कियो नाहिं फेरा बी बाहर हरम महल में वीच मियां को डेरा॥ बहुत हाथी घोड़े बैछ इत्यादिक बाहनको संग्रह कियो परंतु जब तें शरीर रूपी बस्तीते खदेरि जाइगो कहे शरीर छूटि जाइगों तब जंगलमें कहीं पीपर के तर भूत हैके बसेर कहे बास करेगो अरु वह शरीरहकों बाहर खद्रिले इमशा- नमें जारे देईँंगे तब वह हाथी घोड़े औरदीके है जाईँगे गांठी बांबि- धरयो अरु खचे पठयो कहे पुण्य कियो नो वह छोकमें मिलिकै बहुरिके

(६३७२ ) वबीजक कबीरदास |

फेरा कियो कहें यह शरीरमें नहीं पांवैहै सो बीबी जो है साहबकी दई सुराति सो बाहरहै कहे संसार मुख हैं रही है हरम कहे लोंडी जो है माया सो महलमें है कहै सब शरीरन में हे ताके बीचमें मियां नो है जीव ताको डेराहि

से छा

ताको वह माया पेरे है

नोमन सूत अरुभझ्ि नर्हिं सुरझे जन्म जन्म अरु झेरा कहे कवीर सुनो हो संतोी यहि पद करो निबेरा ॥४ सो नौमन कहे नित्यही नवीन जो मनहै अथोव मनके दिये नाना शरीर होयहें सो नाना कर्म नाना मत जे सूतहै तिनमें अरुझिके सुरक्ष नहीं है सो कबीरनी कहेंहें कि हे संतो!यह पद को निबरा करो कहे पांचों शरीरमें अरुझें ने है मन तांते भिन्नहोउ तो तुम शरीरनते भिन्न द्वेनाड इति पचासीवां शब्द समाप्त

अथ छियासीवां शब्द ८६

कबिरा तेरों घर कदलामें या जग रहत आुलाना।

गुरुकी कही करत नाहिैं कोई अमहरू महल देवाना १॥ सकल ब्रह्ममें हंस कवीरा कागन चोंच पसारा।

मन मत कम धरे सब देही नाद बिंदु बिस्तारा॥ २॥ सकल कबीरा बोले बानी पानीमों घर छाया।

छूट अनंत होत चट भीतर घटका मम ने पाया ३॥ कामिनि रूपी सकल कवीरा मगा चरिंदा होई। बड़ वड़ ज्ञानी सुनिवर थाके पकरि सके नाहिं कोई॥ ब्रह्मा वरुण कुबेर पुरंदर पीपा प्रहलकद चाखा। हिरणांकुश नख उदर विदारा तिनहैक कार राखा॥५॥

राजद ( ३७३ )

गोरख ऐसो दत्त दिगम्बर नामदेव जयदेव दासा। उनकी खबरि कहत नहिं कोई कहां कियेदें वासा चौपर खेल होत घट भीतर जनन्‍्मके पांसा ढारा। दमदमकी कोइ खबरि जाने करि सके निरवारा॥७॥ - चारे दिशा महिमंड रचोंहे रूम साम बिच दिल्ली। ता ऊपर कछ अजब तमाशा मारेहें यम किछी सब अवतार जासु महिमंडल अनत खड़ी कर जोरे अद्भुत अगम अथाह रचोहे सबशोभा तोरे सकल कबीरा वोले वीरा अजहूं हो इशियारा | कह कबीर गुरु सिकिली दर्पण हरदम करो पुकारा॥१०॥

कूबिरा तेरो घर कंदलामें या जग रहत भुलाना मुरुकी कही करत नहिं कोई अमहल महल देवाना॥ १॥

कबीरजी कहेहें कि हे कबिरा! कायाके बीर जीव तेरो घर तो कँदलामें है कहे आनंदंकों कंद कहे सारांस नो है साहबकों धाम तहां है तेरो घर या जगवमें नहीं है तें नाहक भुछान रहे है यहां गुरु कहे सबते अष्ठ ने परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र कहे हैं कि अबहूं जो मोको जानों तो में कालते छोड़ाइ छेडें तिनकोा कट्मों कोई मानिके अरु आनंदकों कंद उनको धाम छोड़िके अमहहू महरू कहे नो कछु वस्तु नहीं हे ऐसे जो है धोखा ब्रह्म तामें अरु कोई माया के भपंचर्म देवाना हैं रहो है

सकल ब्रह्ममें इस कवीरा कागन चोंच पसारा। मन मत कर्म धरे सबदेही नाद विन्दु विस्तारा॥ २॥ हैं हंस! कबीर कायाके बौंर जीवते साहबकों अह्मही कहे हैं तिनकी कहियों के|गन कैसी चोंचकों पसारियों है मैसे कागनके आंगे जो दूध भात

( ३७४ ) बीजक कबीरदास

आमिष धरिदेड तो दूध भात खायेँ आमिपही सयेँ तैंसे साहब पुकारतई जायहैं कि तुम मेरे पास आके में तुमको हेसरूप देडेँ ताकों छोड़िके जीव माया ब्रह्ञके धोखाम लग्यो कागईं होइहै नाना कमेके बासनन ते शरीर छूटतमें जहां * मन को मंत होइहे कहे जहां मन जाइहैे तहां * सब देह धरे है वाद बिंदके बिस्तारते सों वाद बिंदुको बिस्तार लिखि आये हैं % सकल कबीरा बोले वानी पानी मों घर छाया। लूट अनंत होत चट भीतर घटका मम पाया हे अरु ज्ञानी जे सब जीवहें ते यह बाणी बोले हैं कि यह शरीर पानी कों घर छायाहै कहे पानीकों बुद्धा है जानो कब बिनंशि जाय कहे छूटि जाय सो मुखते तो यह कहे है अरु घट कहें शरीरके भीतर अनंत कहें बिना अंतको मोहे साहब ताकी छूटि होइनाइहै ताके नहीं देखँहै यह आत्मा साह* बको है तोकों भुठाइके ओरे मतनरम लगाई देइहे वाको मर्म नहीं पविहे॥ ३॥ कामिने रूपी सकल कवीरा मृगा चरिंदा होई। बड़ बड़ ज्ञानी सुनिवर थाके पकरि सके नहिं कोई8॥ सब कबीर जीवनके शरीर कामिनि रूपीहै कहे मगीरूपी है तामें जो चढ़े सो चरिंदा कहावेहे सो चरिंदा कहे चलनवारों जोहे मन सो मगाहै जब यह मीवात्माको यमदूत एकपुतरा देखावे हैं तब वह पुतरामें मनोमय जो ढिंग झरीरहे सो नात रहे है अरू वही के साथ जीव प्रवेश करिजाइहै तब यमरान नाना कर्म भोग करावे हैं जोनें शररेरमें मत छोभ्यो मरतमें वाकों स्मरण भयों सोई शरीर कर्म भोग करिके घारण कियो से मारितों यह भांतिते जायहे वह मंत्रको आत्मा के स्वरूपका कोई पकरिपायो अथीव कोई जान्‍्यो ॥४॥ ब्रह्मा वरुण कुबेर पुरंदर पीपा प्रहलद चाखा | हिरणाकुश नख उद्र विदारा तिनहँक काल राखा& गोरख ऐसो दत्त दिंगम्बर नामदेव जयदेव दासा। '. उनकी खबार कंहत नहिं कोई कहां किये हेंबासा॥६॥

ऋब्द ( ३७५ )

ये चारि तुकनमें मिनकों कहि आयें हैं तिनको का जब खाइ लियों है कहें इनके शरोर जब छूटि गये हैं तब ये कहां बास कियो है यह कोई खबारि जानतभयो सो जहां गये है अरु जहांके गये नहीं आवैहैं तोने छोककों मूढ़नीव जानतभये इहां नरसिंही जीकी लिख्यों तामें:घुनि यहहै कि उपासक आपने आपने डपास्यनके साथ साहबही के छोक जाई हैं उपास्य उपासक दोऊ जहां परम मुक्तावस्था में जाये सो वह साहब के छोकको ये बद्धविषयी जीव कैसे जानें चोपर खेल होत घट भीतर जन्मके पांसा ढारा दम दमकी कोई खबारि जाने कारे सके निरुवारा॥9»॥

मन बद्धि चित्त अंहकार ये अंतःकरण चतुष्टय हैं सोई चौपारे है ताको खेल घटके भीतर है रहोंहै इनहींके योगते नाना जन्म होंइहैं सोईं पांसा ढारिबो है सो दम दम कहे आपने दवास दवांसकी खबरि ती कोई जाने नहीं है कि आवत जातमें रकार मकार बिना जपे कब अंतःकरण शुद्ध हैसकेंह्दे अरु को निख्वार कारेसके है अर्थीत्‌ कोई निरुवार नहीं करिसके है अर्थात्‌ या नहीं जनेंहे कि हमारों नीवात्मा कहां जपैंहे रकार मकार जीवात्मा सदा जपहै तामें “प्रमाण रकोरेण बहियाँति मकोरेण विशेत्पुनः | राम रामेति बे मंत्र लपति सवेदा” ७॥ चारे दिशा महि मंड रचो है रूम साम बिच दिल्ली

ता ऊपर कुछ अजब तमाशा मारे हे यम किछी महिमंडल जोहे शरीर तामम नामि हृदय कंठ त्िकुटी ये चारि दिशा रचत भये अरु रूमकहे सहखदछ कमछहहै अरु साम सुरति कमल है तो ने सुराति कसलके बीचमें दिल्ली है परंतु गुरुको स्थान तास्थानके ऊपर अनब तमाशाहै सो कौन योगी प्राण चढ़ाइके सहस्न दल कमरों जाइहे कोई परम योगी भराण चढ़ाइकै सुराति कमललों जाइहै परमपुरुष स्थानके ऊपर जहां अजब तमाशाहै तहां कोई नहीं जाइ सकेहै काहेते कि यमकिल्धी मारेहे कहे दशवां दुवार बंद कियेहै अजब तसाशा वह केसे देखे सो कहेंहें कि यह ब्रह्म रंघते साकेत छोक जाको कहे हैं परमपुरुषपर श्रीरामचन्द्धको धाम वहीं साकेत छोंककों दशवां स्थान फकीर

( ३७६ ) ... बीजक कबीरदास

छोंग जाहत कहे हैं तहांलों ब्रह्म ज्योतिकी डोरि छगी है वही डोरीकों मक्र- तार कहेहें सो वह मक्रतार सुषुम्णामें छगोंहे जब परमगुरु रामनाम बताई है तब बही सृषुम्णा हैके मक्रतारकी डोरी ड्रैके साहब के छोक जाय है तहां- अनब तमाशा कौनहै कि उहांके त्रिगुण गुल्म छता देखे तो पांचमौतिऊ से परेहपै पांचभोतिक नहीं है आनंद्रूप है

सब अवतार जासु महि मंडल अनंत खड़ो कर जोरे

अद्भव अगम अथाह रचो है ईं सब शोभा तोरे ६॥

सकछ अवतार ईइवर अनंत जिनके आगे कर जोड़े खड़े हैं वह साहब लोक कैसो है अद्भतहै कहे आश्चर्य है बचनमें नहीं आवै है अगमहै कहे उहां काहूकी गम नहीं है अथाह है कोई बणेन करिके थाह नहीं पायो कि यतनेहे सो हे जीव! यह सब शोभा तोरे साहबकी है तेरे देखिबे योग्यहै काहेते के साहबो दिभुनहे तैंहू द्विभुनहे और तो सब ईश्वर अवतार कोई अष्टभुन कोई चतुमुन मत्स्य कूम इत्यादिक हैं अथवा साहबके छोकमें जे ईश्वर अव- तार आदिक हैं ते सब अपनी शोभाको मंडल तोरे हैं अर्थीव्‌ उनकी शोभा साहबकी शोभांते मंद्‌ देखि परेंहे

सकल कबीरा बोले बीरा अजहूं हो हशियारा। कह कबीर गुरु सिकिली दर्पण हरदम करो पुकारा ॥१०॥

हे सब कबीरो! कायाके बीर जीवों वही बीरा छेऊ अर्थात्‌ परम पुरुष पर जे श्रीरामचन्द्रहं तिनको बीरालेड अजहूं हुशियार होऊ ने मतनमें गुरुवा छोंग समुझाइ समुझाइ लगाई दिये है तिन मतनमें जब भर तुम रहौगे तब भर तुम्हारों जन्‍म मरण छूटेगो ताते मतनको छोड़िदे सुराति कमछमें जेपरम गुरुहें ते सिकिलीगरहें तुम्हारे अंतःकरण साफ़ करिबेफों ते राम बतांवै हैंसो वा राम नाम सुनिके हरदम पुकार करो तब साहबके इहां पहुंची अरु सब अवतार ईइवर उनके दारे हाथ जोरे खड़े हैं तामें प्रमाण शिवसंहिं- तामें हनुमान॒नी प्रति अगस्त्यनी कहे हैं “आसीनं तमयोध्यायां सहख्र- स्तम्भमंदिते मंडपे रलसंज्षे जानक्या सह राघवम्‌ मत्स्यःकुमेःकिरि-

शब्द (३७७ )

नेंको नारसिंहो5प्यनेकधा। बैकुंठोडपि हयग्रीवो हरि: केशववामनौ यज्ञों नारा> यणो धर्मपुत्तो नरवरोषपिच देवकीनेदनःकृष्णो वासुदेवों बछेइपिच पृष्णि- गर्भो मधून्माथी गोविंदों माधवोडपि वासुदयो मरों5नंतःसंकषण इरापतिः॥ मस्ती उप्यनुरुद्धवच व्यूहास्सर्वेडपि सवैदा राम॑ सदोपतिष्ठन्ते रामदेहा व्यव स्थिता: एतरन्यैद्य संसेव्यों रामो नाम महेश्वरः तेषामैद्वर्यदातृत्वात्तन्म- लत्वान्निरश्वर: इंद्रनामा इन्द्राणां पतिस्साक्षी गतिः प्रभुः विष्णुस्स्वयं स॒ विष्णुनां पर्तिवेदांतकृद्धिभु: अल्या सत्रह्मणां कर््तों प्रभापतिपतिगतिः। रुद्ा- णा सपती रुदःकोटिरुद् नियामकः चंद्रादित्यसहस्राणि रूकोटिशितानि अवतारसहस्राणि शक्तिकाटिशतानि ब्रह्मकोटिसहखाणि दुर्गोकोशतानि महामैरवकाछादिकोट्यबंंदशतानि गंधंवोणां सहखाणि देवकोटिशतानि सभां यस्य निषेवंते श्रीराम इतीरितः ”” इति॥ ओऔ कबीरह जी को प्रमा- ण॥ “'जहँ सतगुरु खेलें ऋतुबसंत तहूँ परम पुरुष सब साधु संत वह तीन लोकते भिन्नरान। तहूँ अनहद धुनि चहुँ पास बाम॥ दीपक बरै नहें निराधार बिरठाजन कोई पाव पार जहँ कोटिकृष्ण जोरे दुह्यथ जहूँ कोटिविष्ण नारे सुमाथ जहँ कोटिन बह्मा पढ़ पुरान नहें कोटि मंहादेव धरें ध्यान जहेँ कोटि सरस्वाति करें राग जहूँ कोटि इन्द्र गावने छाग नहूँ गण गंघर्व मुनि गनि जाहिं सो तहँवां परकट आपु आहिं॥तहँ चोवा चन्दन अरु अबीर। तहूँ पृहुपबास भरि अतिगभीर नहीँ सुरति सुर सुगन्ध छीन सब वहीं छोकमें बास कीन में अनरदीप पहुँच्यो सुनाइ तहँ अनर पुरुषके दरश पाइ सो कह कबीर हृदया छगाइ यह नरक उघारण नाम जाइ १०॥ इति छियासीयां द्ाब्द समाप्त

अथ सत्तासीवां शब्द ८७॥ कबिरा तेरो घर कंदलमें मने अहेरा खेले बषुवारी आनंद मीगो रुची रुची शरमेलै चेतत रावल पावन षंडा सहजहि मूले बांधे ध्यान धनुष धरि ज्ञान वान बन योग सार शर साथे॥ २॥

( ३७८ ) बीजक कबीरदास

पट चक्र वेधि कमल वेध्यो जब जाइ उन्यारी कीन्हा। काम क्रोध अरु लोभ मोह ये हांकि साउजन दीन्हा ३॥ गगन मध्य रोंक्यो सो द्वारा जहां दिवस नहीं राती

दास कबीर जाय सो पहुंच्यो सब बिछुरे संग संघाती॥ ४॥

कविरा तेरो घर कंदलमें मने अहेरा खेले बधुवारी आनंद मीग्गां रुची रुची शरमेले

कबीरनी कहे हैं कि हे कबीर ! कहे कायांके बीरजीव तेरोघर कंदलामें है कहे आनंदको केद कहे सार जो साहबको धाम है तहां है। जो कहो संसार कैसे भयो तो तेरोबपु शिकारी बपुरी जो है नाना शरीर तेई वारी हैं। शिकारी जहां हांके है सो वारी कहांवे हे।तहां जाइके बिषयानंद ब्रह्मानंद ने हैं मगाको शिकार खडे हैं कोई विषयानंदरूप म॒गामें वृत्ति शर मारि भोग करे हैं कोई शिकारी मन ब्रह्मानंद्रूप मगाको वृत्ति श्र मारि भोग करे हैं

चेतत रावल पावन पंढा सहजहि गले वांचे ध्यान धनुष घरि ज्ञान॒वान बन योग सार शर साथे २॥ पट चक्र वेघि कमल बेध्यो जब जाइ उज्यारी कीन्हा।

काम क्रोध अरु लोभ मोह ये हांकि साउजन दीन्हा

जो शिकार खेलबो कैसे छूटे या मनको तौ रावछ कहे सबके राजा ताकों पावन कहें पायनकों चेत करत कहे स्मरण करंत अथवा पावन कहे पविदन्र हैके पठ कहे नपुंसक ब्रह्म तद्प जो जीव सो सहज समाधि लगाइके मलबंध करे यहै ध्यान नोहे धनुष्‌ तौनेको धरिके साहब में आत्मा को छगाय दीबो जो बाण यही योगसार रूप शर साध * सोईं योग बताब हैं जें हठ योग करे हैं ते कुंडलिनी उठायकै छद्उ चक्क बेपै हैं इहां कुछ कुंडलि नी उठाइबेकों प्रयोनन नहीं है वह जो ब्रह्म स्योतिकारकी मूछाधार चकते है ब्रह्वांड है साकेतमें लगीहै सो छट्टठ चक्र को बेषिकै छगी है सुषुम्णा नाड़ी

शाब्द्‌ ( ३७९ )

हैक ता ज्योतिरुषी डोरीमें गुरुनो यूगुति बताबै है तोनी युगुति ते सुरतिके साथ जब जीवको साजि दियो तब छइड चक्र को आपही वह ज्योति बेचे है सो वह ज्योतिके भीतर ड्रैँके पटचक्र वेधिके सहल्नदक कमछको बेध्यों तब उहां उजियारी देख्यों जाइ ब्रह्म प्रकाशकी तब काम क्रोध छोभ मोह मद मत्सर जे सावज हैं तिनकों हांकि दीन्‍्द्यो कहे दूरिके दीन्‍्हो॥ |

गमन मध्य रोंक्यो सो द्वारा जहां दिवस नाहें राती।

दास कवीर जाय सो पहुंच्यो सब बिछुरे संग सैचाती७

जहां सुरति कमछमें परमगुरु रकार मकार कहै हैं दशो द्वार बंदहेँ तहां दिवसहै रातिंहे वह मकाशरूप बह्मई है। सो उहां परम गुरुते राम- नाम सुनिके वही नामते दशवों द्वार खोडिके वंही डोरी ह्ँके दासनो कबीर जीव है सो परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र के छोककों पहुंचे नाइहेँ तब संगके संवाती जे हैं चारेड शरीर अरू प्रकाशरूप ब्रह्म जो है केवल्यथ शरीर ताहको बिछोह द्वैनाई हे।अथवा कबीरजी कहे हें कि, में जो हों साहबकों दास सो अनि- बैचनीय पार्षद शरीर जो है हसशरीर ताकों पाइके वोही डोरी ब्रह्मज्योति है के अनिर्वेचनीय नो है साहबकों धाम तहाँ पहुँव्योजाईं। तहां हे जीवो ! तुमह पहुँचो यह भ्रममें काहे परेही तुम तो साहबके आनंदकन्द धामके हों साहबके दास तांते रहित औओ नौन तुम मानों हो सो तुम नहों हौ

इति सत्तासीवां शब्द समाप्त

अथ अद्वासोवां शब्द <८

शुरुसुख सावज होइ भाई सावज होइ-। वाकी मांसु भखे सब कोई सावज एक सकल संसारा अविगति वाकी बाता पेट फारि जो देखिये रे भाई आहि करेज आता

( ३८० ) बीजक कबीरदास |

ऐसी वाकी मांछुरे भाई पल पल मांसु बिकाई। हाड़ गोड़ ले घूर पँवारे आगि धुवां नहिं खाई शिर सींग कछू नहीं वाके पूंछ कहां वह पाई सब पाण्डित मिलि धन्धे परिया कविर वनोरी गाई ॥१॥

सावज होइभाई सावज होइ।वाकी मांस भखेसब कोई

साहब कहें हैं कि, नेहि शब्द बह्ममें तुम छगे हौ तुमकों वही भुछाय दियो सो सावन होइ तोने शब्दकों तालस्यें तुम नहीं बूझे वहीके मांसकों तुम सब भक्षोही कहे बाणी सब कहौहों वही मांस सब जगवहै ताहीकों भक्षीही कहे भोग करोंही अरु वाको तात्पय्ये रुत्य पदार्थ जो मैंहों ताको नहीं नानोहो संपूण बाणीकों बिस्‍्तार असत्यहे मेंहीं सत्यहों

सावज एक सकल संसारा अबिगति बाको बाता पेट फारि जो देखिये रे भाई आहि करेज आता

सो वाको पेट फारिके जो देखिये अथीद्‌ नो वाको बिचारिके देखिये तात्प- य्यते तो जो तुम बिचार कारिराख्यो हे कि शब्द ब्रह्मके अर्थ को सारांश करेज निगुण ब्रह्म है सो नहीं है वेदतों तालय्य ते मोको बर्णेन करे है अरु त्रिगुण माया आंतहे सो वाकी बात अबिगति हैं कहे अव्यक्त हे काहके जानिये योग्य नहीं है नो मोको जाने है सोई वह सावन को जाने है

ऐसी वाकी मांसुरे भाई पल पल मांस बिकाई।

हाड़ गोड़ ले घूर पँवारे आगि घ॒वां नहिं खाई

पल का कहांवै है सो वह शब्द ब्रह्मकी मांसु नो हैबाणी सोहे भाइउ/! ऐसी है कि, पछ पछ कहे टका टका को बिकोइहै अथीव्‌ को विकाहहै तामें प्रमाण॥ “कर्बारजीकों चौरासी अंगकी साखी॥ “गढी गछी गुरुत फिरें दिक्षा हमरी छेड्' की बूड़ो की ऊबरी टका परदनी देह” थोरे थोरें अक्षरके मंत्र गुरुवा छोग देइहें शिष्यनसों घन छेइहें अरु केवल शब्द बल्यैते मुक्ति नहीं होइहै तामें

ऋाब्द ( ३८१ )

प्रमाण “शब्दे ब्रह्मणि निष्णातों निष्णायात्परे यदि श्रमस्तस्य श्रमफर्ं- हघेनुमिव रक्षत' इतिभागवते सो जब वे गुरुवा मंत्र दियों तब बाणी को जो हाड़ गोड़ रहै ज्ञानकांड कमेंकांड ताको घूर पँवारे दियो कहे ज्ञानकांड कर्मकांड घूर हैं तहां फेंकि दियो उपासनाकांडी वह मंत्र देके उपासनामें छगाइ दियो तहां मंत्र दियो सो उन जप्यो जाते ज्ञागाग्रि उत्पन्न होइ भरु श्रम जरे धुवां जे हैं कल्मष ते निकसि नायें सो बाणीरूपी वह मांस ज्ञानाम्रिति पकाइ नहीं गई अर्थोव्‌ बह मंत्रको अर्थ जान्यो अभ्यास कियो वह अज्ञानरुपी धृवां गुँगुआते रह्मो निषूम भई

शिर सींग कछ नहीं वाके पूछ कहां वह पाई

सब पीडित मिलि धन्वे परिया कबिर बनोरी गाई॥४॥

शिर जेहें नित्य शब्द कायैशब्द ते वाके नहीं हैं चारे जे सींग

हैं नाम धातु उपसर्ग निषात ते वाके नहीं हैं काहेते कि,वाकी अनिर्वचनीय कहहैं। तौ पूछ जोहे ब्रह्म द्वेनैबों मोक्ष ताक़ो कहां पावैगों अथोत्‌ जहांभर बचनमें आंबैंहै सो सव मिथ्याहै जो कहो मोक्षऊकी रहि जाइबों कह्यो तो रहि का गयो। तों शब्द तो तात्य करिके वर्णन करेहें कक, निुण सगुणके परे परम पुरुष जो में ताको सदाकों अंश यह जीव है यह जो बिचार करे कि, मैं उनको हो तों बद्धही नहीं है मुक्त काहेते होइ मुक्तही बनोहों बद्ध मुक्ततों कथन मात्रहै तामें प्रमाण “भजज्ञानसंज्ञोभवबंधमोक्षौ दो नामनान्यों स्‍त ऋतज्ञभावाव।अजस्नचि- न्त्यात्माने केवरक्ेपरे विचाय्यमाणे तरणाविवाहनी'”'इति भागवते॥ अरू तात्पय्ये कारेके शब्द यह मोहींको वर्णन करेहै सो भागवतादिकनमें पसिद्ध सुनेंहे तऊ मृढ़ नहीं माने है “शब्दबह्मपरबह्मममोभे शाशवतीतनू”” अपने अपने अर्थ बनाइके गाई रहेहें मोकों नहीं जाने हैं सब पांढेत धंधेमें परि रहे हैं नानामत बनाइ रहेहें तिनकी बनौरीको कबीर जे हैं जीव उनके सब शिष्य ते गाव हैं अर्थीव्‌ अपने अपने आचायेन के मंतमें आरूड़ द्वेके जो और कोई कहेहै तो छड़े हैं अंछ पारिख करिके सब वेद्नकों तातर्य जो मैं हों ताका नहीं जाने हैं शब्द ब्रह्म तात्पर्य करिके परम पुरुष पर जो में हों ताहीको वर्णन करे हैं॥४॥

शते अद्गासीवाँ शब्द समाप्त

(३८२ ) बीजक कवीरदास |

की अथ नवासीवाँ शब्द <९

सुभागे केहि कारण लोभ छागे रतन जन्म खोये पूरव जन्म भूमिके कारण 0९९७४ बोये पानीस जिन पिडि साजे अगिनिहि कुंड रहाया द्शे मास माताके गर्भ कढ़ि बहारे लागिली माया २॥ बालकसे पुनि वृद्ध हुआहे होनी रही सो होये। जब यम ऐहें बांचि लेजेंद्ें नयन भरी भरि रोये जीवनंके जिन आशा राख्यो काल गहे है धासा वाजीहे संपार कबीरा चित चेति ढारो पासा

हे सुभागे ! जीव तेंतो मेरी है यह संसारमें नो तें छोभाकियों सो कौंने कारण कियो काहेते कि आपने दुःख पाइबे को कोई उपाइ नहीं करेंहे जैसे मनादिक कारक संसारमें परिगयो तेंस जो मेरो स्मरणकरत तो में हंसस्व- रुपदेत्यों तामें स्थितहेके मेरे धामको पहुँचते सो तें रत्न जोंहे यह मानु- पनन्म ताको धोइडारथयों पूवैजन्मकी भृमिकाके कारण कहे पूर्वजन्ममे नैसे कर्म करिराखे हैं तेसे सुख दुःख यह जन्म पांवै है अरु नो यह जन्म करे है सो वह जन्ममें दुःख सुख पाविगो सो आंखिन तो देखि छिये कोई सुखदुःखसके कारण रूप बीन तें काहेकी बोये और सब पदनको अर्थ स्पष्ठई है १। ४॥

इति नवासीयां शब्द समाप्त

अथ नब्बे शब्द ९०

शुरुशख संत महन्तो सुमिरो सोई जो ऋऋछ-हुंडसों वाचा होई१ दत्तात्रेय मम नाहि जाना मिथ्यास्वाद झ्ुुलाना शब्णमथिके घ्तको काढ्यो ताहि समाधि समान॥२॥

शब्द | €( डे८२ )

गोरख पवन रखे नहिं जाना योगयुक्ति अनुमाना ऋद्धि सिद्धि संयम बहुतेरा पारत्ह्न नहिं जाना

वशिष्ठ शिष्ट विद्या संपूरण राम ऐस शिष शाखा। जाहि रामको करता कहिये तिनहुँक काल राखा[ ॥४॥ दूकहै हमें ले जरबे तुरुककहे मोर पीर दूनों आय दीनमों झगरें देखें हंसकवीर « आगेके पदमें कहि आये कार इवासा गंहे है सो चेति पांसा दारो कहें बिचारे विचारे कामकरो सोई बिचार बताते है संत महंतो सुमिरो सोई जो कालफांससों वाचा होई॥ १४ साहब कहै हैं कि, है संतमहंती | ताको सुमिरण करो जो काछुफांसतें बचो होइ १९ दत्तात्रेय मर्म नाहें जाना सिथ्या स्वाद अलाना। सलिला मथिक घृतको काढ्यो ताहि समाधि समाना॥२॥ जो कहो दत्तात्रिय आपने को ब्रह्म मानिंके ब्ह्मही द्वैगयें तेतों वाके ममकों कहें ज्ञानको जान्यो है सो प्रथम दत्तत्रियक नहीं जान्यों काहेते कि वहतों धोखा मिथ्या हैं सो तेऊ मिथ्यास्वादमें भुठाइ गये यह बिचारथचो कि, जीन बिचार करत करत रहिजाय है सो मेरो स्वरूप परम पुरुष पर श्रीराम-« चन्द्रको दास है जब वे बिद्यह देइ हैं आपनो तब उनके पास जाई है सो यह तो जान्यो पानी को मथिके घृत कढ़यो वही घोखा ब्ह्मयकी समाधिमें समाइ रहो सो कहूं पानिहते घृत निकसे है उनके हाथ धोखई लग्यो गोरख पवन रखे नहिं जाना योगयुक्ति अडमाना। ऋद्धि सिद्धि संयम बहुतेरा पारत्रह्म नहिं जाना

( ३८४ ) बीजक कवबीरदास

बाशैष्ठ शिष्ठ विद्या संपूरण राम ऐसे शिष शाखा जाहि रामको करता कहिये तिनहंंक काल राखा॥ ४॥ अरु योग युक्तिको अनुमान करिके गोरख पवनराखे नहीं जान्यो कहें माण चढ़ावै नहीं जान्यो काहेते कि ऋद्धि सिद्धि संयममें छागिंगये बलह्मके पार जे साहब हैं | तिनको जान्यो वरिष्ठ ने हैं संपूर्ण विद्यामें श्रषठ तिनके राम ऐसे कहे श्रीरामचन्द्रहेकि बरोबर रघुवंशी जिनमें शिष्य शाखा- भये तिनहूंको काछू नहीं राख्यो अथोत्‌ यह शरीर डनहंको रहद्यो राजन में जिनको राम को करत्तों कहे हैं कि श्रीरामचन्द्रको जे उत्पन्न कियो है ऐसे दशरथोकी काल राख्यों इहां गोरख आदिक योगी दत्तात्रियादिक ज्ञानी वशिष्ठ आदिक ब्रह्मषिं सबते अ्रेष्ट हैं याते संयोगी ज्ञानी ब्रह्मर्षि पृथ्वीके आइगये दशरथ महारानको श्रीरामचन्द्रके बिछोह होत प्राण छूटिगयो सो ये सब रानपिते अष्ठ हैं ताते दशरथ महारान के कहे सब राजार्ष पृथ्वीभरके आयगये तिनहूंको काठ नः राखत भयो अर्थाव्‌ शरीरधारी कोई नहीं रहि जाइ है कोई योगकारे नो जियो तो ब्ह्माके दिन भर जियों महामलयमें जब ब्रह्माकों नाश है जाइ है तब ब्रह्मांडई नहीं रहे है और कोई कैसे रहै सो हेस समाधि लेके मिलत है

हिन्दूकहे हमें ले जरवे तुरुक कहे मोर पीर दूनों आइ दीनमों झगरें देखे हंस कबीर «५॥

जाकी हंसस्वरूप साहब देइहै सो हेस स्वरूपमें स्थित ह्“ेके साहबके पास जाइहै। सो साहब कहे है कि नो मोको जाने तोंमें हंसस्वरूप देऊँ तामें स्थित हैंके भेरे पास आवैं। सो मोको ते जाने नहींहे हिंदू कहेहें कि हम वह ज्ञानाग्नि कैंके सबकमं जारि देईँगे बह्म होइ जाईंगे मुसलमान कहे हैं कि पिरान जाहिर जो मका है तहां हमारो पीरहे हमारे खा्बिद्हें ते हमारे कम सब जारि देईँगे। फिरि दोनों आइ दीनमें झगरे हैं वे कहै हैं कि तुम्हारा खोदाय झूठाहै वे कहे हैं |कि तुम्हा- रा ईइवर झूठा है सो जीवात्मा तौ मेरों बंदाहै सो आपने स्वरूपकों जानिके मोंको जाने नहीं है आपने आपने अनुमानकरि आपने खाबिंद्‌ बनाइ छिये हैं

आब्द्‌ २८४)

तिनकों झगरा देखता कौन है जो सबके ऊपर होइहे सो साहब कहे है कि जि

नको में हंसस्वरूप दियो है मेरे पास पहुंचे हैं ते सबके ऊँचेह्रेके उनको झगरा देखते हैं हँसते हैं कि सांच साहबतो एकई हैं ताको जाने नहीं हैं में झगरते हैं दांत नव्य शब्द समाप्त

अथ इक्यानबे शव्द ९१ जो देखा सो दुखिया देखा तनु धरि सुखी देखा उदय अस्तकी वात कहतहों ताकर करहु बिबेका बांटे वादे सवकोह दुखिया क्या गिरही बेरागी। शुकाचाये दुखहीके कारण गभ माया त्यागी योगी दुखिया जंगम दुखिया तापसको दुखदूना आशा तृष्णा सबघट ब्यापै कोई महल नाहें सूना सांच कहीं तो सब जगरदीशझे झूठ कहो नहिं जाई कह कवीर तेई भे दुखिया जिन यह राह चलाई

जो देखा सो दुखिया देखा तनुधरि सुखी देखा उदय अस्तकी बात कहतहीं ताकर करहु विवेका

जाको संसारमें देखे हैं ताको सबको दुखिये हेखें तनुधरिके सुखिया काहकों नहीं देखा काहेते कि गभते जो जीव निकस्यों तो माया रूपटि जाती है सों उदय अस्त कहे सब संसारकी बात कहोंहों अरु ताकर तम विवेक कर- तजाउ ९१

बादे वादे सबकोह दुखिया क्या गिरही वेरागी

शुकाचाये दुखहीके कारण गर्म माया त्यागी २॥ आपने आपने वाटमें कहे आपने आपने मतमें सबको दुखिया देखते हैं क्या गिरही क्‍या बैरागी अथोत त्रिगुणके मतमें सब परे हैं मायाको दुःख कोई नहीं प्‌

(३८६) वीजक कंबीरदास

छोड़े है नो नेतो पायो है रो वहीको सांच मानिके सांचपदार्थ को नहीं जाने :खहीके कारण शुकाचार्ये गंभमें मायाको त्यागिदियों। शुकाचार्य गर्ममें

निकसें कहें कि नो हम निकसेंगे तो हमको

माया छंगि जायगी तब ब्रह्मादिक देवता सब जुरे आय निकसे तब भगवान्‌ आइ कह्मों कि बरदाके सींगमें सरसों थारे देह जब भर सरसीो सींगमें रहे है यतने काल भरमाया हम खैंचेले हैं निकसिआा सो शुकाचार्य निकसे नारासहित

॥0 4०

बनकी चलेगये साहबकी मिले जाइ योगी दखिया जंगम दुखिया तापसको दुख दूना। आशा तष्णा सबचट व्याप काइ महल नाई सूता॥ ३॥ सांच कहों तो सवजग खीझे झठकही नहिं जाई कह कबीर तेई भे दुखिया जिन यह राह चलाई ४॥ योगीनंगव सबदुखियाहैं अरु तापप्के। तो दूनदुःखहै काहेते कि आशा तृष्णा सबके घटमें व्यापे है कोई महू सूननहीं है काहफी हृदय आशातृष्णाति सन नहीं सबके हृदयमें आशा तृष्णा ब्यापि रही है हे श्रीकवी- रजी कहै हैं कि अपने अपने मतमें जीव छगे हैं. सांच मानिक जो सांचको हम कहे हैं के सांच में परमपुरुष परश्रीराम चन्दहें तिनमें छगा जिनको तुम जानि राख्यो है ते असांचहें तो खीसे हैं मोर्सों झंठ कह्यो नहीं जाइह सो

जे जे गर॒वा छोंग आपनी आपनी मतड़ी राह चछाईं हैं ते दुखिया दे गये हैं तो निनको वे शिष्य बनायो है ते दुखिया काहे हाई

इंत इक्पानब द्ाब्द समात। अथ बानबे शब्द ९२॥ शुरूसुख। ता मनको चीन्‍न्हो रे भाई तनु छूटे मन कहाँ समाई॥१॥ सनक सनंदन जयदिव नामा। अंबरीष प्रहलाद सुदामा ॥२॥ भक्त सही मन उनहुं जाना।भक्तिहेतु मन उनहुं ज्ञाना३

शब्द ( ३८७ )

भरथरिगोरखगोपी चंदा [ तामनमिलिमिलिकियोअनंदा 2, जा मनको कोई जान भेवाता मन सगन भये शुकदेवा* एकल निरंजन सकलशरीरातामें श्रमि श्रमि रहल कवीरा<द

जो कहि आये कि नाना उपासना करे सांच साहबकों जान्यो सो इह्ां कहे हैं

ता मनको चीन्हों रे भाई तनुछूटे मन कहां समाई ॥१॥

सनक सनंदन जयदेव नामा।अम्बरीष प्रहलाद सुदामा॥२॥ भक्त सही मन उनहुं जाना।भक्तिदेतुमनउनहं ज्ञाना हे

जा मनते नाना उपासना भई ता मनको हे भाई ! चीन्हीं यह मनके को भयो है अथीव नौने मनते नाना उपासना ठाढ़ीके लियो हैं सो मनतो तुम- #ते भयो है सो यह विचारतों करों जब सब शरीर छूटे जाइ है तब मन समाइहै अथीत्‌ तुमहीं में समाइ जाइ है सो मनके मालिकतो तुमही मनैते जो नाना उपासना ठाढ़ कै छियो है ते तुम्हारी उपासना सांच केसे होइगी सनक सनंदन सनत्कुमार नामदेव जयदेव अंबरीष पहलाद दमा ये सब भक्त सही हैं संघारते छूटे हैं परन्तु मनकों बोऊ जान्यों | मनकी जानते तो मनते भिन्नहें के मनबचनके परे मो मेरों रामनाम है ताहीकी जपते ओरे ओरेकी भक्तिको कारणजों हैं मद तेहि करिके उनहूंको भेरों प्रथमज्ञान होतमयों फेरि जब औरे सपासननर्में कुछ देख्यों तब साहब कहे हैं कि मोमें लगे काहेते कि वह मन आपैंते होईहै अरू वह जीवा- त्माके परे में हों काहेते कि यह मन आत्मैते होईहे अरु वह जीवात्माके परें मैंहों काहेते कि मेरों अशहै अरु ध्यानादि ज्ञानादिक सब मनते अनुमान करे हैं ताते ज्ञानको अनुभव ब्रह्म ध्यान को अनुभव उपास्य देवता ये मनके भीतर होवई चाहें मन आत्माकों है ताते मनमें आत्माकों स्वरुप केसे आइ सके वहतो मनते परे है सो जब मनको छोड़े हे तब चिन्मात्र राह नाइ

2 4॥0१

सा

*ः

(३८८ ) बीजक कबी रदास

है यातें मन बचनके परे आत्मा होवई चहै अरु जब में हंसस्वरूप देउहों तामें स्थितह्रैक॑ मेरे पास आवते कल्पनाकारके नानारूप में छगते ॥२॥३॥

भरथारेगोरखगोपी चंदा। तामनमिलिमिलिकियोअनन्दा जामनकोकीइजाननभेवा। तामनमगन भये शुकदेवा ॥%॥

भरथरी गोरख गोपीचंद जे हैं ते वही मनहों में मिलिके आनंद कियों अर्थीव नौने बह्ममें मिलिके आनन्द कियों सो ब्रह्ममनहींको अनुभव है ॥४ सो जोने मनकी अनुभव ब्रह्म होइ है अरू वह ब्रह्म उपास्यकनमे अर्थ आपनी नाना ईइवर स्वरूप कल्पना करेंहे तोने मनको भेद कोई नहीं जान्यों तोने मनके मगनमें कहे: राह में शुकदेव ना भये गर्भहीते मायाको त्यांगे दियो सनक सनकादिक प्रहछादादिक बहुत श्रमकरिके फेरि फेरि

समुझयो है सो साहब कहे है कि मोकों जानिके मेरे पास आये। हइहां रामोपासक शुकदेव को छूटिगये जो कहो तो रामोपासक सब आइ गये॥५॥

एकलनिरंजनसकलशरीरा।तामेंश्रमिश्रमिरहलकवी रा॥ ६॥

एक जो है निरंजन ब्रह्म सर्वव्यापी तिनहीं को नानाशरीर नारायणादिक महेशादि रुपहै तिनहीं में सिगरे कबीर कायाके बीर श्रमि श्रमि रहतभये कहे उनहोंकी उपासना करतभये अपनो रूप मेरों रूप जानत भये अरु ब्रह्म नानारूप कल्पनाकरि लियो है तामें ममाण “उपासकानां कार्याथ बह्मणो रूपकल्पना'!॥ याको अधथे मेरे सर्व सिद्धांतमें है रामोपासक शुकदेवकाी कहि भाये हैं सो शुकाचायई मुक्त ह्वेगयेंहै तामें प्रमाण “शुकों मुक्ते वामदेवों वा इति श्रुत:”” रामेपासक रहै हैं तामे प्रमाण “पादांबु् रघुपतेः शरण ' प्रपये'” इति भागवते कवीरऊजीकों प्रमाण “आदिनाम शुकदेवनो पावा। पूर्वेजन्मके कमेमिटावा”

इति बानबे हाब्द समाप्त |

शब्द २८५९ )

. _ अथ तिरानबे शब्द ॥९३ वाबू ऐसो है संसार तिहारो येकलि है ब्यवहारा को अब अनख सहे प्रतिदिनको नाहि रहनि हमारा॥ १॥ सुमृति सुभाव सबे कोई जाने हृदया तत्त्व बूझे निरजिव आगे सर जिव थापे छोचन कछुव सूझे ॥२॥ तजि अम्नत विष काहेको अंचवे गांठी वांचों खोदा चोरनको दिय पाट सिहासन शाहकी कीन्हो ओटा ॥३॥ कह कबीर झूठो मिलि झूठा ठगहीठग व्यवहारा तीनिकोक भरि पूरि रहो है नाहीं है पतियारा

वाबू ऐसो है संसार तिहारो येकलि है व्यवहारा।

को अब अनख सहे प्रतिदिनकों नाहिन रहाने हमारा॥१॥

बाबू कहे हे जीवो! तिहारो यह संसार ऐसाहैकि एक नो है मन ताहीके लिये यह संसारको व्यवहारहै अरु वहीके छोड़ेते सेत्रार छूटि जाइहे तामें परमाण॥'मन एव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयो:' तामें कबीरजीकों प्रमाण “मुक्ति नहीं आकाशमें मुक्ति नहों। पाताड। जब मनकी मनस्ा मिटे तबहीं माक्ते विशाल''॥ सो यह मनकी मपर्तिदिनकी अनृख कोन सहे अर्थात्‌ अणुनों जीवहै ताको प्रतिदिन खाइ लेइहै कहे अपनेमें मिलाइ छेईहे सो रोमरोनकों याके स्वरूपको भुलाइबो कोन सहै यह मन हमारे रहनि माफिक नहीं है यह भड हम चैतन्य

कक (७ कह

यात हम केस मलेंग सुम्ृति सुभाव सबे कोई जाने हृदया तत्त्व बूझे।

निरजिव आगे सरजिव थापे लोचन कछुव सूझे ॥२॥ सो यहि तरहते मनको स्वभाव सुर्मात जें स्मृति है तामें बर्णेन है सौं सब कोई जाने है परन्तु हृदयमें जो मनकों तत्त्वकहदे स्वरूपहै ताकों कोई नहीं

( ३९० ) बीजक कबीरदास |

बुझैँहे कि हम यहि मनते भिन्नहैं ।निर्मोव नो मन है ताके आंगे सजीव नो है आत्मा ताको राखि देइहे कहे मिलाइ देइहे आंधरनको यह नहीं सृजि परे है कि, चित जीवकों नड़नमें मिलाइ जड़ काहे करेंहे औआत्मा देहकी एकही माने है॥

ताजे अमृत विष काहेको अँचवे गांठी बांधो खोट चोरनकी दिय पाट सिहासन शाहुको कीन्ही ओटा॥३॥

अमृत जो है आपने आत्माको स्वरूप ताको छोड़िके बिष जो है मन तामें छूगिके नाना पर्दाथनम लागिबों तो है ताको काहेते अँचवे हैं कि गांठीमें खोट जो मनहै ताफ़ी बांधे हैं सो कहें सो काहे बचे हैं मनते मिन्ननहीं है जाइहै आत्मा के स्वरूपकों भुछाइकै मन में लगाइ देनवारे साहब को भुछाइ देंनवारे संसारमें डारे देनवारे ऐसे जे गुरुवा छोगहँ तिनकों पाट सिंहा सन देइ है कहे उनको गुरू करेहे शाहु जे साधु जनहैं मनते छोड़ाय देन- बारे जे साहबको बताइ देईं आत्माकों स्वरूप जनाइकै तिनको ओट कीन्‍्हे है कहे उनको दरौनई नहीं लेइ है दे

झूठे मिल्ि झुूः अाबाक,

कह कवीर झूठे मिलि झूठा ठगही ठग व्यवहारा

0. जे अध्ष ६2 तीनलोकं भरि पार रहोंहे नाही हे पतियारा सों कबीए्नी कहेंहें कि ऐसे जे छोगहैं ते झठा नों मनको अनुभव बह्म॑है तामें मिलिके झूंटे है रहे हैं ठग ठउगको व्यवहार है रहो है से तीन छोक में वही भरिपूरिे रहो है सो पतिआइबे छायक नहीं है नो ठगमें लगेंहे सो उगही है नाईहे जो कहो तीनछोकमें तो साधुहहें पतिजाइबे छायक कोई रहो यह कैसे तो कबीर जी कहे हैं कि साधुजन तीनलोकके बाहरई हैं बे तीनलोकके भीतर नहीं हैं काहेते कि तीनि छोक मनको पसाराहे अरु वे मनते मिन्न हैं

इंते तिरानब दाब्द समाप्त

शब्द (३९१ )

अथ चोरानबे शब्द ९४

जज कक कहों निरंजन कवनी बानी * | आक जि हाथ पांव सुख अवण जिह्ना का कहि जपहु हो प्रानी॥ १॥ ज्यो सा > कप ज्योा ने हक ज्योतिहि ज्योतिज्यीति जो कहिये ज्योति कोनसहिदानी ज्योतिहि 3 6 8 . ज्योतिहि ज्योति ज्योति देमार तब कहे ज्योति समानी २॥ ६4७. #7. $ आप 4 चारिविद ब्रह्मा निज कहिया तिनहुं यार्गति जानी विद दा के जे पंडि कहे कवीर सुनो हो संतो बूझहु पंडित ज्ञानी | जो कही मनहीं ते यह संसार है जब मनते छूंटेगो तब बह्नही हेनाद गो ताने श्री कबीरजी कहे हैं जे का कहां निरंजन कवनी बानी + #22 [अ वि | हाथ पांय झुख श्रवण जिह्ठा काकहि जपहु हो प्रानी॥ १॥ ग्ग्ग्प पक 3 2० पे 0 पल 5 [ आक 5 ज्योतिहि ज्योति ज्योति जो काहिये ज्योति की सहिदानी। 8 8 सह ज्योति देम रे के ज्योतिहि ज्योति ज्योति देमारे तब वह ज्योति समानी॥२॥ _ कहौती निरंजन बह्मको कोनी बाणीते कहोहौ वाको तो मन बचनके कहोहो तामें प्रमाण॥ यतो वाचो निवरतेते अप्राप्य मनस्ता सह!!॥इते श्रुतें: अरू वाको तो बिना ताम रूप को कही हो वाकों कैसे जपोहों कैसे च्यान करोहो॥ १॥ जो कहो वह प्रकाशरूप बह्ल है से मकाशको ध्यान करें हैं प्रकाशमें अपने आत्माकों मिलाइ देह्हें ब्रह्म हमहीं है जाइहें सो ज्योतिस्वरुप जो अहाहै तामें आपने आत्माकी ज्योति ज्योतिके कहे मिलाइके जो काहिये वह ज्योति कौन साहिदानी रहिजाइहे अथीत्‌ जब सब पदाथे मिथ्या मानत मानत एक प्रकाशरूप ब्रह्ममान्यों ताको मान्यो कि वहि ब्रह्म हमहों बह्म हैं सो जब :भर यह माने रहो कि वह ब्रह्म हमहीं हें तबभर तो तिहारो अनुभव रहैहै जब अनुभवऊ मिटिगयो तब तुमही रहिनाउही तब वाहि बज्लकी कौन सहिदानी रहिनाइ है अर्थाव कछ नहीं रहिनाय है तुमहीं रहे नाउ हो यही प्रकार मब बह्नज्योति

( ३९२ ) बीजक कवीरदास |

आत्माकी ज्योति मिलायकै वहि ज्योति को देमारयो कहे छोव्यो अर्थीत सबको निराकरण के कैवल्य दरीरमें प्राप्त भयो अरु वहूको छोड़बो तब आ- त्माकी ज्योति कहां समाइहे सो कहे हैं जीवके मुक्त भये पर परम परपुरुष श्रीरामचन्द्र हंसस्वरुप नेहहेँ तामें टिकिंके साहबकी सेवा जीव करेंहे यह ज्ञानतों जीवजाने नहीं है वही ब्रह्म भ्रकाश को जानिराख्यो है कि हमैंहीं ब्रह्नहैं सो जब मनको निराकरण है गयो तब बह्मह को ह्वेनाय है' तब आत्म रहिनाय हैं याते मने को अनुभव ब्रह्मह सो जोने हँस स्वरूपमें बा ज्योति समाईहे ताको बिचारकरों *%

चारिवेद ब्रह्मा निजकहिया तिनहुंन या गाते जानी कबीर सुनो हो संतो बूझ॒ह पंडित ज्ञानी

ब्रह्मा चारिवेदकद्मो| तिनंमें यहकह्यों कि मुक्तभये पर विग्रहकी छाभ होयहै॥ “ुक्तस्य विग्रहों छाभः”॥६इत्यादिक श्रुति आंखही कह्मों तऊ जान्यो काहेते जो जानते तो जगत्‌ की उत्पत्ति करते हंसस्वरूपमें टिकिके साहबके छोक को चले जाते सो कबीरजी कहे हैं कि हे संतो ! सुनो जाके सारासार बिचा- रिणी बुद्धिहोंय सो पंडित कहाँवे सोईं पंडितहै सो हे ज्ञानिउ ! जिन संपूर्ण असारको छोड़ि के सार जे साहबहैं तिनकों ग्रहण कैलिया ऐसे जे पंडितहें तिनसे बूझो वहगति वोई बूंझहें तबहीं तिहारो धोखा ब्रह्म छूटेगो

इति चोरानबे शब्द समाप्त |

अथ पंचानबे शब्द ९०"॥

कोअसकरेनगरकीतवलिया। मासुफेलाय गीधरखवारिया मूस भो नाव मजारि केंड़हरिया। सोवे दादुर सपे पहरिया बेल वियाय गायमे वाँझा बछवे दुहिया तिनतिन साँझा

नेतउ॒ठि सिंहस्यारसों जूझे कबिरक पद जन बिरला बूझे

शब्द ( ३९३ )

साहब कहैंहें या संसाररूपी नगरकी फोंतवाली को करे जोने नगरमें शरीर- रूपी मांस फैलाहै। गीध जो निर्मेन काछ सो रखवारहै जहां जीवको स्वरूप ज्ञान जो मुसरूप नाव ताके बिछार कड़हारयाँहै कह गुरुवाोग दादुर नो जीवहै सो सोवैह प्राण नो सपे सो पहरी हैं पे नानाशरीरमें हेनाइई गाय जो गायत्री सो आपने तात्पर्य छपाय राख्यो सो बांझ भई बैल नो शब्द ब्रह्म सो बियाय है कहे नाना ग्रन्थरूप बछवा भये तेईं वछवाके तीनि तीनि सांझ डुहै हैं अर्थीव्‌ रनोंगुणी तमोगुणी सतोगुणी सब वाही को दूहै हैं कहे पढ़े सुनेहैं सिंह नो विवेक है सो तियार जो कुमति तार्सों रोजही जूझैह सो कबीर जोहै जीव ताकों पद जो है मेरों धाम ताको कोई विरजा बूझे है ने मेरे धाम को बूझे हैं ते संसारत छूटि जायहैं

इते पंचानब दाब्द समाप्त

अथ छानबे शब्द ९६ काकहि रोवहुगे वहुतेरा ।बहुतक गये फिरे नाहि फेरा॥१॥ हमरी वात वतें सभारा। बात गरभेकी तें बिचारा॥२॥ अब तें रोया क्या तें पाया। केहि कारण तें मोंहि रोवाया

कहे कबीर सुनो नर लोई ।कालके बशहि परो मति कोई 9 का कहिके रोबोहो बहुत तरहते कि, ये हमारे भारहें, बाप हैं, ईपुत्न हैं बहुत यही तरहते गयेहें फोर नहीं फेरेफिरे हैं सो नब जब हमको तेरो दुःखदेखिके करुणाभई हमारों वा तोकों उपदेश दियो सो सँभारे जो करार किये तें कि, में भवन करोंगों | सो बिचारे साहबकी भजन कियो अबतें गर्भमें जाय जाय संसारमें आंय आयके रोवे है कहे दुःखपांवेंहे सो कया तें पाये अब हमको तें काहे रोबावैहै तेरो दःख देखिके मोकों होय है सो कर्बारजी कहेहेँ कि, हें तर लोगो! साहबको जानोंगे तबहीं कालते बचोगे सो साहबको भुलठायकै काहे काछके बशपरौंहों संसार दुःखपावौहों॥४॥ शत छानबवब जाब्द समाप्त

( ३९४ ) चीजक कबी रदास

अथ सत्तानबे शब्द ९७ अछह राम जीव तेरी नाई जन पर मेहर होहु तुम साई क्या मृड़ी भूमिहिशिरनाये क्या जल देह नहाये। खून करे मसकीन कहांवे गुणको रहे छिपाये २॥ क्या भो वजू मज्जन कीन्हे क्‍या मसजिद शिरनाये हृदया कपट निमाज गुजारे कह भो मक्का जाये ३॥ हिंदू एकादशि चाोबिस, रोजा छुसलम तीस बनाये। ग्यारह मास कहो किन टारो ये केहि माह समाये 8॥ पूरब दिशि में हरिको बासा पश्चिम अलूह झुकामा दिलमें खोज दिलेमें देखो यहे-करीमा रामा «५ जो खोदाय मसजिदमें बसतुद्दे ओर मुलुक केहि केरा। तीरथ मूरति राम निवासी दुइ महँ किनहु हेरा॥%६॥ बेद किताब कीन किन झूठा झुठा जो बिचारे सब घट माह एक कारे लेखे भे इजा करि मारे ॥७॥ जेते ओरत मद उपाने सो सब रूप तुम्हारा कविर पोंगड़ा अलह रामका सो शुरु पीर हमारा ८॥ अछहद्द राम जीव तेरी नाई जन पर मेहर होह तुम साई श्रीक्वीरणी कंहे हैं कि, हे श्रीरामचन्द्र ! कोई तुमको अछ्वाह कहेंहे कोई रामकहैहै हिंदू मुसलमान दोउनमें शरीरभेद है जीव तो एकईहै सब बिभु चेतन्य तुमहौ। भरु चेतन्यजीव है सो ज्योति तु री है हिंदू मुसल्मानको है हिंदू

आत्मा तुम्दारी है तुमदूनोंके साइईही ताते तुम्हारे जन तुरुक दोऊ हैं तिनके ऊपर मेहरवानी कस अर्थात्‌ दयाकरों

? का

शब्द ( २३९५ )

क्या मूड़ी भामिहि शिर नाये क्या जल देह नहाये खून करे मसकीन कहावे गरुणको रहे छिपाये २॥ कबीरणी कहे हैं कि, हिंदू तूरुक तुमको बिसराश्के और और बिचार करे है था चित्तमें दीने मिहर करिये काहेते कि, तुरुक मड़ी भूमि जो गोर तामें शिर नांवै है हिन्दू वहुत जलसें नहायहै याते काहमयो आपको तो जनबे कियो जीावनके गरकोंदे है ऐसो खूनकरे तोन खून तो छिपावे है आपते में सर्वत्रपर्ण हें तिनकों नहीं जाने है मसकीन जो फकीरसो कहांने हे याति कहाभया क्या भो वजू मजन कीन्हे का मसंजिद शिर नाये। हृदया कृपट नमाज गुजार कहाभो मक्का जाये हिंदू एकादशि चोबिस रोजा झुसलम तीस बनाये। ग्यारह मास कहो किन टारो ये केहि माह समाये 8 | हिन्दू बहुत प्रकारके मज्जनकरे हैं तुरुक वजनो कछा मखारी करिके हृद्यम कपट सहित निमान गुजनारयों, मसकिदं में माथ नवायों, मक्का गयो याते काह भयो ! आपको तो जन कियो हिन्द तो चोविस एकादशी रहे तुरुक तीसरोजा रहे याते काहमयों ? काहेते यातो जनबै कियो कि ओर दिन ये काहेमें समायसँंगे सब दिन साहिब के हैं ग्यारह मास काके हैं

पुरुष दिशिम हरि को वासा पडिचम अलह मकामा दिलम खोज दिलम देखो यहे करीमा रामा

जो खोदाय मसजिदर्म बसतुहे ओर घुलुक केहि केरा तीरथ सूराते राम निवासी दुइमें किनहूँ हेरा

आए,

हिंदू कहेहँ कि,पूरुष उत्तरके कोनेमें सुमेरुहे ताहीमें बैकुंठ है वहैंते सर्य उदय होइह तह हरिकों बासहै ताही ओर पूजा ध्यान करे हैं। पशिचमरे-ति

( ३९६ ) बीजक कबीरदास

मकाहै तहां अछ्वाहकों बास है ताही ओर मुसलमान निमाज्‌ गुजर हैं। सो यांते काह भयो ? आपने दिलमें खोन कैंके तो देखबे कियों कि, करीम जे खुदा राम जें रामचंद ते दिलहदीमें हैं हिंदू तुरुक दोउनमें बोई हैं ये तो शरीर आय साहब एकई है या जाने तो काहमयो ॥५॥ मुसलमान छोग या मने हैं खोदाय मसनिद में वसतु है हिन्दू माने हैं कि रामचन्द्र मुर्त्ति जै तीथ में बस हैं याते काह भयो ? काहेते दुइ में या बात कोई बिचारे कि, और मुल्कम को बस है सो सर्वत्र साहिबही पूर्ण है यहै जानने ते सब आपने आपने पक्षमें लगे हैं वेद किताब कीन्ह किन झूठा झूठा जो विचारे सब घट एक एक करि लेखे भय दूजा करि मारे ७॥ वेद वाले किताब॒कों झूठाकहै हैं, किताब वाले वेदकों झूठाकहै हैं सो या कहा झूठाहै इनको को झूठा करिसके है। झूठा वही है जो इनको नहीं बिचोरे है किं, वेदकिताबकी यही सिद्धांत है साहब सर्वत्रपूर्ण है हिंदूके याहै कि, सब- नाम साहिबहींके हैं सर्वाणि ना मानि यमाविशतिइति श्रुतिः औमुस- ल्मानके जामेनमीसिफात जामै जमीअसमात ”' यह कलछामुद्छाके किताब॑में लिखे है सो घट घटमें वित्त स्वरूप जीव एकही है सबके साहब रामचन्द्ही हैं; तिनको एक करि लेबै भय दूसरेते होय है तारे मारे सो यातों बिचारबे कियो तो काह भयो

जेंते औरत मद उपाने सो सब रूप तुम्हारा

कब्र पोंगड़ा अलह रामको सो घुरु पीर हमारा॥ ८॥

सो कबीरजी कहे हैं कि, जेते औरत मर्द उपाने कहे उपजे हैं ते सब तुम्हारे रूप हैं काहेते कि, चित्‌ जो तुम्हारों विग्रहहै ताही ते लगव्‌ है ओऔ 'कबिर कहे कायाके बीर जे जीचबहें ते हे अल्छाह राम तिहारे मीवनके पॉगड़ा ' हैं अथीव्‌ तुमहीं घट घट में बोछत हो, तुमको जानिबेको इनके कुद्रति नहीं है चाहो तुम उपदेशकरि आपनेमें छगावो. चाहो गुरुपीर दारा उपदेश

चाब्द्‌। ( ३९७ ) करि आपनेमें रुगावो इनकों वश नहीं है तामें प्रमाण “यथादारुमयी- योषिन्नृत्यते कुहकेच्छया एवमीश्वरतत्रोयमीहते सुखदुःखयो;” चौपाई उमा दारुयोपषितकी नाई संबेनचावत रामगोसाई” इ।त सत्तानव ज्ृब्द समाप्त

अथ अट्ठानबे शब्द ९८॥

आवो वे आवो सुझे हरिकी नाम। ओरसकल तजुकोनेकाम कहेँ तव आदम कह तव हवा। कहँ तव पीर पेगम्बर हुवा२॥ कहँ तव जिमीकहां असमाना।कहँ तब वेद किताव कुरानाईे जिन दुनियामें रची मसीद झूठों रोजा झूठ इंद सांच एक अछाःको नामा।ताकी नय नय करो सलाम ॥५॥

थों भिहत कहांते आई।किसके कहे तुम छुरी चला ई5॥ करता किरतिम बाजी लाई। हिंदु तुरुक दुइ राह चलाई9॥ कह तबदिवस कहांतव राती।कह तबकिरतिम कीउतपाती८ नहिंवाकेजातिनहीवाकेपांती।कहकवीरवाकेदिवसनराती

आवो बेआवोसझे हरिकी नामी ओरसकल तजु कोनेकाम कह तब आदम कह तव हवा। कह तव पीर पेगम्बर हुवाश॥ कहे तव जिमी कहाँ असमाना।कहँ तव वेदकिताब कुराना

श्रीकबारनी कहेंहें कि, जोने नाममें सब नामेहें तौने जो मन बचनके परे हरिको नाम है सो हे जीव ताको तें बिचारकरू कि, मोकी आवे। और सब बस्तु झूठे छोड़िदे, कीने कामके हैं जब वह नाम रहोंहे आदियमें तब कुछ नहीं रह्मो पदका अर्थ स्पष्ट है भाव यह है कि, ये ने कहिजआये ते कहां रहेंें अथीव्‌ कोईं नहीं रहे २॥

( ३९८ ) बीजक कबीरदास |

जिन ढुनियामें रची मसीद झूठी रोजा झूठी ईद ४॥ सांच एक अर्लाःको नाम। ताको नय नय करो सलाम॥6॥ कहुथों मिश्त कहाँते आई।किसके कहे तुम छुरी चलाई ६॥

अरु जीव निन संसार में मसरीद जो मसजिद्‌ शरीर रच्योंहे ते कतोरी नहीं रहे ॥४ सांच एक मन बचनके परे अछ्लाःको नामहैं ताको नय नयकै सलाम करो और सब झंठा है जिसके बनाये मिश्त भईदहे तेझ वहीं नामते प्रकट भये हैं तुम किसके कहे जीव मांरते हो सब झूठे हैं ॥५॥

करता किरातिम बाजी लाई। हिंदु तुरुक ढुइ राह चलाइ७ कह तब॒ंदिवस कहाँ तव राती।कहतवकिरतिमकीउत पाती < नहिंवकिजातिनहींवाकेपांती।कह्दैकबी रवाके दिवसनराती

सो कता के कृत्रिम जो माया है सो बानी छगायके दुइ राह चर्लाइहै॥७॥ जब प्रथम साहब सुराति दियेहै तब कहां दिन रह्मेहि कहां राति रही कहां कृत्रिम जो माया ताकी डलपत्ति रही है ? वाके कछु जाति है नो कहिये, वा बह्म में है, मायामें है, सतचित है तो वा एकऊरमें नहीं है जाति है वाके एकई साहब हैं दुइ चारि साहब नहीं हैं न॒वाके दिवस है राति है कहे ज्ञान हे अज्ञान है ताते साहबको सांच नाम जपी

ते अंटुनेब शब्द समाप्त |

अथ निन्नानबे शब्द ९९ अब कहूँ चहयो अकेले मित|उठिकिनकरह चर हकी चिता खीर खांड़ घृत पिंड समारा ।सो तन ले बाहर के डारा॥२॥ जेहि शिरराचिरचिवांध्योपागा ।घोशिररतनविदाराहिकागा रे हाड़ जरें जूस लकड़ीचरीफिश जरें जस तृणके कूरी

शब्द (४९९)

आवत संग जातको साथी। काह भयो द्ल साजे हाथी «५ मायाको रस लेइ पाया। अंतर यम विलार है धायाद

कहकबीरनरअजहंनजागा|यमकोमोंगरामघिशिरलागा कवीरनी कहे हैं [के, हे जीवों ! जेसो या पदमें कहि आये हैं तेसो दरों हवाल हू रहमय हैं | भा तुम परम प्रुष पर श्रीरामचन्द्रका ने जानागे

चर

तो तिहारे शिरमें यमको मोगदरलगैगो ॥१५॥ ७॥ इत नन्नानव शब्द समाप्त |

अथ सो शब्द १००

देखो लोगो हरिकी सगाई माय परे एत घिय संग जाई१ सासु ननदि मिलि अदुल चलाई।मादारिया गृह बेटी जाई२ हम वहनाइ राम मोर सारा। हमाह वाप हार पुत्र हमारा दे कहे कबीर हरीके बूता राम रमेतें कुकुरि के पूता 8 है जीवों ! सब संसारकी सगाई देखे। दुःखंके हरैया जे हे हैं तिनकी सगाई देखो अर्थात्‌ साहबमें छागा तो वे संसार दुःख दारे करे देइंगे जो संसारम छागोगे तो माई जो माया सो तुमको धरेगी तुम जीवों वा मायाको पुत्र है रह्मों है समष्ठि ते व्यट्टि जीय सायाही करेंहे यांति. सायाको माय कट्मो है अब जीवके बुद्धि उत्पन्न होयहै याते जीवकी थी कहे कन्या है। से तें बुद्धिके संग बिगारे गयो और और में बुद्धि निश्चय कराइ नरकमें डारि दियो बुद्धि कर्म की बासना ते उत्पत्ति होय है नोने प्रकारकी बासना होय है तेसी वाद्ध होइ है सो बासना जीवकी सासु है जीवकी सुराति बहिनी है काहेते कि, वही सुराति पाइके जीव चैतन्य भयो है संसारी भयो है वह सुराति जब साहब मुख होइगी तब साहब को पाँवैगो सो ये? जे हैं बुद्धिकी सासु ननँँदि हैं तेरे अदल जो हैं हुकुमसों चछाइके शुद्ध स्मष्टि

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( ४०० ) बीजक कबीरदास

8 को के. का

जीबको संसारमें डारि देइ हैं सो केसे डारे देइहे सो कहे हें नोन बादरकों नट नचावै हे सो मादारैया कद्दवे सो मनहे ताकी बेटी जो है इच्छा सो उत्पन्न भई तब जीव संसारमें परयो ॥२॥ हे जीव! तें यह बिचारु कि, यामें परिके हम बहनोय हैं अथीत बहन वारे हैं सो यही जायेंगे अरु हमारे सार कहे सारांश रमे हैं हमारे बाप रामें हैं पुत्र राम हैं तामें प्रमाण रामा माता मत्पिता राम- चन्द्रः स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्ः सर्वस्व॑ मेरामचन्दो दयालुनोन्य जाने नैव जाने जाने” तामेंकबीरनीहुकोममाण “राम हमारे बाप हैं राम हमोरे श्रात। राम हमारी जाति हैं, राम हमारी पांत''॥ सो यह बिचारिके ओऔरीक- बीरजी कहे हैं कै, हारेके बृता कहे हरिनके बूतते अर्थात्‌ अपने बलते नहीं। कुकुरी जो माया है ताके पति है जीवो! स्व नात रामे सों मानिंके रामेंमें रमे अर्थात जब तुम साहबके होंगे तब साहब हंस स्वरूप दैके तुमको अपने धामको बोलाइ लेईंगे ३॥

इति सवां शब्द समाप्त |

अथ एकसे एक शब्द १०१ देखि देखि जिय अचरज होई। यह पद बूझे बिरला कोई धरती उलटि अकाशहि जाईं। चींटीके सुख हर्ति समाईं बिन पवने जहेँ पर्वत उड़े। जीव जंतु सब बिरछा बुड़े॥ ३॥ सूखे सरवर उठे हिलोलाबिनु जल चकवा करे कलोल॥४॥ बैठा पण्डित पढ़े पुरान | बिन देखे का करे बखान॥ कह कबीर जो पद को जान। सोई संत सदा परमान॥5॥

देखि देखि जिय अचरज होईं।यह पद वझे बिरला कोई॥१॥ घरती उलटि अकाशहि जाई। चींदीके मुख हस्ति समाई

शब्द | :( ४०१)

कक ढ9

ओ्रीकर्व रजी कहे हैं कि में तो स्पष्टर कहीहों पे यह पद्‌ जो साकेत ठोक ताका काई बिरछा बचे है सो यह देखि देखि मोको बड़ो आइचर्य होइ है जब महामछूय होय है तब परती उछटठिके आकाशकों जात रहेंह कहे प्रथ्वी नलम जल तेजमें तेन वायमें वायु आकाशमें समाइ काइहे अरू

के को

वहीं जो है आकाश सो अहड्डगरमं समाइ है अरू अहड्डगर महत्तत्त्व में समाइडै सो महत्त्व मनेहे काहेते कि यह सब बिस्तार मनहीं को है सो महत्तत्त्व जो है आदि कारण मन हाथी सो भगवत्‌ आपना रूप जो है जगतकी मख- शक्ति सक्ष्म चींठी ताके मुख में समाइ है

बिन पवने जहूँ पवेत उड़े जीव जंतु सव विरछा बुड़े

सो वह साहब॑के अज्ञान रूपा मूल प्रकृति लोक प्रकाश) जो समाष्टि जीवहे तहां समानी रह है प्थ्वी आदिक तो समाइ गये हूँ उहां पवन नहीं है परन्तु चेतन्याकाश कहे बद्यरूपपी आकाश में अनन्त कोदि अह्माण्ड जे परत हैं ते उड़तई रहे हैं अर वही सरबरमें जीव नन्‍्तु ते सहित में संसार रूपी वक्षहें हें

बड़े हैं अथीत वही ब्रह्ममें सब संसारकी छूय होय है मूखे सरवर उठे हिलोल विन्ु जलू चकवा करे कलोल७

बैठा पण्डित पंड़े ुधशन विन देखे का करें बखान <

वह बहातो सूखा सरोवरह अथोव सो ब्रह्म महींहों यंह मानिबों मिथ्या है छोक मकाश बह्न सत्य है तोने के प्रकाश की हिछ्योर उठे है तहां बाणीरूपी ज्छु

कक . बी छः |

है नहीं चकवा जे जीवहें ते कछोह करे हैं कहे वहेंते पनि बाणीकी उत्पत्ति ञ्र डा

पति करिके संसारी है जाइहँ पण्डित जे हैं ते बैठे युराण पढ़े हुं भर उलत्ति मुठढयकों सब बखान करें हैं यह तो नहीं समुझे हैं कि वह तो बिन देखे का है कहे शून्य है जो हम ज्ञान उपदेश करिके वहि ब्रह्ममें लगावेंगे तो भगवत्‌ अज्ञान रुसी कारणशक्ति ती उहां बनिही है माया है आविगी

फेरि धार पदकी जान। साईं संत सदा परमान

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(४०५) बवाजक कबवी रदास

जो कोई यह पदको कहे है जोते को प्रकाश यह तौने पदको कहे स्थान को जो जाने तो शमाणिक श॒या ब्रह्म है तोने धाममें जायकै पुनि नहीं होटि मे प्रमाण “न तद्भावयते सूर्यों शशांकों पावक्तः यहुत्वा वेवतते तद्घाम परम मम! ॥तामें कबीरऊ जीकी प्रमाण 'काछहि नीति हों। अबिचल देश पुरुष जहूँ आहीं तहां जाय सुख होह अपूरा | हु।र ने जावे याहे ससारा”” इत एक्स एड शब्द सनमापत |

थे एकंसदा शब्द १०२४ होदारी! की छेदेई़ तोहिं गारी।तुम सम्ुझु छुपंथ विचारी १॥ बरहको नाह जो अपना तिनहूँ सो भेट सपना ॥२॥ ब्राह्मण क्षत्री वानी | सो तिनहूं कल माना योगी जड़ जेते वे आप गये हैं तेते ॥|

गो |

कहे कदीर यक योगी तुम अमी अ्रमी भो भोगी !!

[का ४» + [4 को +. 8 & होदारी!की ले देउं तोहिगारी।तुम समुझु सुपंथ बिचारी॥ १॥ शिविनिशि | कर * गो रे पल घरहकी नाह जो अपना। तिनहूँ सों भेद सपना ॥२॥ बरक- हक ल्कप [क चर + हल हर आह्ण क्षत्री बानी। सो तिनहूं कहल मानी ॥३॥ हो दारी कहे बांदी की बंच्ची जीवशक्ति तोको गारी देइहों। तें यह मायाकी बच्ची हेंफे मायाही में छगि रही है स्रो यह माया दारी है। जो सबको दारे डारे सो दाश कहाँवै है सो तोको दरे ढारे है यही के ये पेटते निकसे यही में रंगे यह कुपेथ है सो तें सुपंध बिचारु ॥९॥ घरके नाह जे परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्‌ अपना है तासों सपनेह नहीं भेट करे है तों योग ज्ञान उपासनादिकन में जो

हा ही

नाह बणैत किये हैं तेतो जारहें नो तोकी मिलियों करेंगे दुश द्नकों तो फेरि

दाब्द | ( ४०३ )

डढि देईँगे जो हमारों कहो ब्राह्मण क्षत्री बेश्य मान्यों निनकों वेदकी अधिकारदहे ते बेंदकी तात्ययें परम परुष पर श्रीरामचन्द्र को जान्‍्यों तो शद अत्यननकी कहवईं कहा करें

लक

अ्

योगी जंगम जैते वे आप गये हैं हे ते ॥४॥ कह कवीर यक योगी तम अमी अम्मी भो भोगी॥९॥

योगी जनेगम जेंतहें ते वही धोखा बह्ममें छगिके आपने आपने पं खोद दियो श्रीकबीरनी कहेंहें कि तम एकके योगी भयो कि हम आत्माकोी

ब्रह्मह तामें संयोग कारे देहहें कहें मिछाइ देहहें सो यह नहों दिचार रतेहीं |कि एक वही ब्रह्म जो जीव होतो तो वासों भिन्न काहे होतों

कप

तुमको मिलाइबेको कह परतो जो कहीं यह ब्रह्महीक

तब नानारूप देखन रुग्यों है तो तमहीं ब्रह्मकों ज्ञानममय कहोहो॥ *' सत्य ज्ञान भनंत॑ ॥३स्यादि तो वाको श्रमहीं केसे भयों अरू जो मायामें एती सामथ्यहे कि

का औ.

लुमकी फोरिके नाना रूप कारे दियो है तो जब तुम मिलिह जाउगे तब तुमको फेरे फोरिके संसारमें डारि देइगो का! जनन मरण छूंटेगो ताते तुम फरेरि

रे यह भवमश्नममें श्रमि श्रमिके भोगी होउंगे अथोंत्‌ जब वह बअह्ममें छगेगे फेरि फेरि संसारही में परोंगे हत एकसे दां दाब्द समाप्त

अथ एकसे तीन शब्द १०३ लोगो तुमही मतिके भीरा। ज्यों पानी पानीमे मिलिगो त्यों हुरिमिस्यह कंबीरा ॥१॥ ज्यों मेथिलको सच्चा बासात्योहिं मरण होइ मगहर पास२ मगहर मरे मरन नहिं पांव अंते मरे तो राम लजाबि॥३॥ मगहर मेरे सो गदहा होई। भल परतीति रामसों खोई॥४॥

(४०४) बीजक कबीरदास

क्या काशी क्या ऊपर मगहर हृदय राम बस मोरा | जो काशी तन तजे कवीरा रामे कौन निहोरा «

किओद /8२+ 5 [कक लोगो तुमही मतिके भीरा ॥! मे हक की की इक आस वी ॥॥| ज्यों पानी पानीमें मिलिगी त्यों डुरि मिश्यहु कवीरा॥१॥ हेलोगो! तुम बड़े मतिके भीरहों कहे डराकुलुहों काहे ते जोंमें एतों उपदेश पशुकों करत्यों तो पशुह को ज्ञान हैनातो तुम पशुह कहीं जेसे पानींमें पानी मिल्ि जाइईहे ऐसे कबीरनी करहेहें कि तुमहे टुरिकरे मिलनी कहे हेसस्वरूपमें तर होड साहबके पास जाउ जो कहो पानीमें पानी मिले एकही है नाइहे;तब एक नहीं ड्ै जाइहे काहेते कि छोथ भरे जछूम॑ चुरुवा भरि जल नाइ देईं तो आओ बादि आंबे है नो वही जछू होतो ते! बढ़ता केस जो कहे समद में तो नहीं बढ़ तो समुद्रोमि गंगादिक नदी जुदीही रहती हैं देखबेको मिली हैं परन्तु बर०

# ५.

उनको पारिस मेष जाने हैं वहांते मीठे जल छैके वर्षें हैं पुनि नव श्रीरामचन्द्र लीन्हे जदी जदी आः हैं अबहूं जहाजवारे जे जाने हैं ते मीठा जल समुद्रको पाइ जाईहें सो द्ेकबीरोी ! कायाके बीर जीवो तुमहे हंसस्वरूपमें स्थित है साहब के छोकमें प्रवेश करि साहबकोी मिछोनाइ ०क अर शि चर बजणक 3 7, है यू ज्यों मेथिलकों सच वासत्योंहि म्रण होय मगहर पासर को * जहा वे मगहर मरे म्रण नहि पावे। अंत मरे तो राम छजावे॥३॥ ध् विश वि | आओ 4 वि मगहर मरे सो गदहा होई। मल परतीति रामसों खोई॥७॥ जो श्रीरामचन्द्र को जाने तो जैसे मैथिल्ल कहे भियिलापुर में मरे मुक्ति होइहै तेसे मगहरमें मरे मुक्ति होई है जो मगहरमें मरे तो मरणनहों पावै है यह सबकोई कहेहें कि मगहरमें मरे मुक्ति नहों होहहे अरुनो अंते मरे

वि कि सो जाकी

तो श्रीरघनाथनीकी लजांवै हैँ सो मगहरमें परे गदहै होइहेँ ॥॥

| श्रीरामचद्रमें परतीति नहीं होय॑

झाब्द ! ( ४०५ )

क्या काशी क्या ऊंपर मगहर्‌ हृदय राम वस मोरा जो काशी तन तजे कवीरा राम कोन निहोरा « ॥।

जो हृदयमें श्रीरामचन्द्र बास कियेह-ं तो क्या श्रीकाशीहै क्या ऊषरहै क्‍या मगहरहै जहें मरे तहें मुक्ति हैनाइ तो श्रीकबीरणी कहेहें कि श्रीरामचन्द्रको कान निहारा तेहिते भें श्रीरामचनद्धको निहोरा कारेके मगहर मही शरीर छोड़यो मोकी मगहर बाधा नकियो तेहिते हैं नीवों ! तुमहू परम पुरुष पर श्री रामचन्दको हृदयमें परोंगे रामनाम जपोगे तो तुमहू को कुछ बाधा रहेगी जहें मरोगे तहें म॒क्त द्ैनाउगे तते और सब धोखा छोड़िंके परम पुरुष पर श्री शमचन्दकों स्मरण करे में अनमाइके कहौोंहों नो कहो अपने शरीर छोड़िबे-

कब

की कथा श्रीकबीरणी अपने ग्रन्थमें लिखे हैं यह असम्मव बातहै तो मगहरमें लो श्रीकबीरनी शरीर छोडये तो आपनी रामोपासकता देखाइबेकों में कियह- रमें शरीर छोडोंहों कैसे यम मोकों गद॒हा करेंगे केसे मक्त होडँंगो सो मगहरनें में शरीर छोड़यों यमकों कियो कछ भयो मगहरमें शरीर छोड़ि अधुरामें जाय रतनाकंदु इनिकों उपदेश कियो है पुनि बहुतद्नि प्रकट रहै हैं याते यह देखायो कि नित्य वन्दावनके रासमें देख्यो जाइ है जहां सब मुक्त हैंके नाइहें परम मुक्त है नित्य उन्देवनके रासमें जायहैं तामें प्रमाण शुकाचार्य मुक्त दे गये तिनसों श्री कृष्णचंद्र की उक्ति॥ 'सचोवाच प्रियारुप लब्धवंत शक हरि: | त्व॑ में पियतमा भदें सदा तिष्ठ ममांतिके इति पद्म प॒राणेः,,॥ सो सब कथा आपही धर्मदासते निर्भय ज्ञानमें मुख कमलते कह्मों है सो ग्पष्टर है इति एकसे तीन ज्ञब्द समाप्त |

जे

अथएकस चार शब्द १०४ केसे के तरो नाथ केसे के तरो अब बहु छाटेल भरों +#॥ केसी तेरी सेवा पूजा केसो तेरो ध्यान ऊपर उज़र देखो बक्‌ अनुमान

४०६ ) बीजक कबीरदास भाव तो अ॒वंग देखो अति विविचारी। सुरति सचान देखो मति तो मँजारी अति तो विरोधी देखो अतिरे दिवाना। छो द्रशन देखो भेष लपटाना ॥। कहे कबीर सुनो नरबन्दा। डाइने डिभ परे सब फंदा॥ « ॥|

अब गोरखनाथ के मतके जें नाथ कहावे हैं में आपने इष्ट देवता को नाथ कहे हैं तिनको कहै हैं केसे हें वे कि आप कालते नथिगये अरु औरऊ कों काछते नथावे हैं जिनकी अपने अपने मतमें ले आंवे हैं तेक कालते नाथे नायेँगें अर्थात्‌ नाथे सोनाथ कहावे अथवा नाथोजाइ सो नाथ कहाबे

कैसे के तरो नाथ कैसे के तरो, अब बहु कुटिल भरो

श्री कवीरनी कहे हैं कि हेनाथ ! तुम केसे मुक्त होउगे गोरखनाथ रहे तेतो योगऊ करतरहे अबतो योगको नामई रहिगयो मुदा पहिरिलियों वेष बनाई छियो कपरा रागेके अरु नाना प्रकारके मंत्रते भेरव भूतकों बशि केके सिद्धि देखावन छंगे छोगनकोीं ठगन लगे कोईं महन्त बनि बैठे कोई रान काज करन

सा

लगे कोई राजाके गरु हेबेठे सो अब तम बहुत कणिछता ते भरेहों

केसीतेरीसिवापूजाकेसोतेरोध्यानऊपरडजरदेखी बक अनुमान

तिहारी सेवा पूजा ध्यान करिबो कैसो है कि ऊपरते तो यह जानि पं है बड़े पुजेरी हैं बड़े ध्यानी हैं बड़ेयोगी हैं भीतर कपट ते भेरे हैं जैसे बक ऊप* रते उनल रहै है भीतर कुटिलईते भरे मछरी धरनकी ताके रहै है तेसे भीतर बासना भरी है काहको धनपाव तो लेछेइ काहके छरिकाकों देखे तो मडि लेइ काह राजा को ठगि जागः पांव ती छैलेइ जांते हमारी भहंती चछे |

भाव तो स॒वंग देखों अति विविचारी

सुराति सचान देखो माति ती मंजारी ३॥

शब्द (६ ४०७ )

भाव करिके तो भुयंगहै जाको सांप धरे है ताकी बिष चढ़े है मरि जायहै तैसे नो इनको संग करें हैं ताहके इनके मतको बिष चढ़ि जाइहै इनके मतनर्मे चस्यों सो मारो परयो अरु वे बढ़े बिविचारी होंत हैं शाख्रके मतते जो कर्म हैं ताकी छोडाइही दइहें अरु परम पुरुष पर श्री रामचन्द्र को जानतेई नहीं है जाते उद्धार हेनाइ सो कर्मकांडी तो भछा कछ स्वगको सुख पाइके संसारमें परे हूँ ये सीधे नरकही को चढ़े जाईहे सो इनकी सुराति सचान है रही है जैसे सचान सोजत फिरे है कि जो कौन्यो जीवको पांऊं तो धरिछेडें अरू उनकी मति जो है दुर्मे ति सो मंजारी है रही है नैसे मंनारी खोजत फिरि है किनो काह मसको पाऊं ती परिलेई तेसे येऊ खोजत बागे हैं कि काहकी पांवे तो चेछा करिलेईं घन है लेईं जैसे आप नरकमें जाय हैं तेसे चेलोकों नरकमें डरेहें विदा

आविताविरोधीदेखीभतिरेदेवानाछ[दशेनदेखोमेषलवृट ना 8

का. करे

कह कवार सुत्रा नरबंदा | डाइन डिस पर सब फदा ॥५०॥

यागी जड्भम सेवरा संनन्‍्यासी दरवेश ब्राह्मण तिनसों अति विरोध करेहें अरु अपने मर्तमे अति दिवाने है रहे हें अथीत्‌ वही पाखेड मतको सबते अधिक माने हैं सो याही भांति छइठउ दरॉनमें देखे हें कि भेष सबमें छूपटान्यों हे कुछ सार पदा<द नहीं जाने हैं भेष॒ बनाइ छियो योगी जद्गम सेवरादिक कहावन छगे ॥४॥ श्री कबीरजी कहे हैं कि हे नर ! तेंतों परम पुरुष पर श्री रामचन्द्रकों बंदाह सो उनको तो ये पट दर्शनवोरे जाने नहीं हैं आपने आपने मतमें हि किये हें कि, हमारई मत ठीक है और मत झटठेंहें

हइते एकस चार शब्द समात्त |

अथ कस पांच शब्द १०७० यह अ्रम भूत सकल जग खाया।जिनजिनपूजातिनजहड़ाया अड पिंड प्राण नाहें देहा। काटि काटि जियकेतिकयेहा बकरी घी कीन्हो छेहू अगिल जन्म उन्‍ह अवसरलेहा

कप

कहे कबीर सुनो नर लोइ। धुतवा के पूजे भुतवे होई ७॥

9

४थ्८ट ) बीजक कचीरदास

दुल्हादेव भेरव भवानी ग्रामदेवता सब श्रमहें सब जगत्‌ को खाये छेइहें जिन जिन इनको पूर्जाहै तिनको तिनकों जहड़ाइबों कहे वह काल देहहे ।९॥ येई देव तिनके नाअंड है ना पिंडह इनकी अनेक जीव काटि काटि दियो सा काह जानेके दिया तुमका बकलाइ डारेंगे फछ ना देइगं बकरी मुर्गी देके जो तुम इनको पूजा कीन्‍्हों सोई आगिके जन्म तुम्हारों गर काहैंगे | सो श्री कबीरजी कहह है लोगो! तुम सुनो ये भतनका जो तुम पुजोगे लो तुमहूं भूत होउगेमूतके पूनेते भूत होइहे तामें ममाण 8 “' यांति देवबता दवान्‌ पितृन यांति पिवृत्र॒ताः मूतानि यांति भृतेज्या याँति मद्माजिनापि मम 7 इतिगीतायाम्‌ | इति एकसे पांच जझ्ब्द समाप्त |

अथ एकसे छः शब्द १०६ भर उड़े बक्‌ बैठे आय। रोनि गई दिवसो चलि जाय ॥१॥

की ९5

हल इल कांपे बाला जीव | ना जाने का करिहे पीव २॥ फूच्चे वासन टिके पानी। उड़िगे हंस काय कुम्हिलानी काम उड़ावत शुजा पिरानी।कह कवीर यह कथा सिरानी

भर उड़े वक्‌ वेठे आय। रेनि गई दिवसों चाहि जाय॥१॥ इल हल कांपे बालाजीव ना जाने का करिहे पीव॥ २॥

यह जगतम यह दशा द्वेगई कि भर जेंहें रापिक संत जे परम पुरुष प्र श्री रामचन्द्रके प्रेममें छके रहे हैं ते उड़िगये कहे उठिगये अरू बक जेहें गुशवा छोग ते बेठे आय जैसे बकुछा मछरी खायहै तेसे ठगि ठगिके जीवकों स्वृस्वरूप खाइलेइहे कहे भुछाइ देइहे वहीं ब्रह्ममें लगाइके * सोयह जीव तो बाढा खीकहे परम पुरुष श्री रामचनंद की चिंतशक्ति है सो बह्म धोखामें छागेंके हलहल कांपेहे अथीद में आपने स्वामीकों भुछायेके धोखा ब्ह्ममें ढग्यों सो हाथ लग्पो सो ना जानों खफा ढ्वैके मेरे पीड कहे स्वामी अब कहा करेंगे *

आब्द (४०९ )

कच्चे बासन टिके पानी उड़िगो हंस काय काम्हिलानी

काग उड़ावत श्ुजा पिरानी।कह कबीर यह कथा सिरानी से उमिरि तो वह ब्रह्ममें ब्यवीत के दियो हाथ कुछ लग्यो तब यह बिचारथों कि में अपने स्वामी जे परम पुरुष श्रीरामचंद्र हैं दिनमें लगों सो जैसे कच्चे बासनमें पानी थारे देह तो बासन कच्चा दिगासे जाय है तेसें यह शररीरतों रहें वहीं है जब हंस उड़िगये शरीर कुम्हिलाइ गये कहे छुटिगयों भाव यहहै तब पंछितावई हाथ रहिं जायहै श्री कबीरणी कहै हैं कि नैसे नारी अपने पतिके आइबेकों भनाते काग उड़ाबे हैं जब पति नहीं आवे है तब भुनाको पिरावई रहि जाइ है तैसे ब्रह्म हैबे के लिये उमिरि बिताइ दियो अहं ब्रह्म अह बह्म करत करत वह सब कथा सिराइ यईं के जिन जिन बह्म भय उनको बह्म मिल्यों तब मेहनतई हाथ रहे जाइहे नैसे

: असीके खांड़ कुछ हाथ नहीं छगे है मेहनतई हाथ रहिजाइ है तेसे बिता प्रम पुरुष श्रीरामचन्द्के नाते व््म है जाइबों भूतई केसो खांड़िबो है

डहां कुछ हाथ नहीं लगे है तामें मरमाण “& तने जि

2

स्तुतिक्तिमुदस्प ते विभों क्िदयन्ति थे केवलबोध॒छूब्धये तेष!मसों केश एवं शिष्यते दान्यद्था स्थलत॒पावबातिनाब/ १९ इतिभागवते

हत एकसंछ, शब्द समाप्त

अथ एकसे सात शब्द १०७॥ क्‍ खसम विन तेली के वेलभयो | बेठत नाहि साधुकी संगति नाथे जन्म गयो बृहि वहि मरे पचे निज स्वार्थ यमके दण्ड सद्यों घन दारा छुत राज काज हित माथे भार गह्यों खसभहिं छोड़ि विषयरँग मात पापएके बीज वयो झुंठ घुक्ति नर आश जिंवनकी प्रेतको जृठ खयो

(४९० ) बीजक कबीरदास

लख चारासी जीव योनिमें सायर जात ब्ह्मों कहे कबीर सुनोहो संतो इवान कि पूंछ गद्यो

है खसम बिन तेलीके बैलभयो है बठत नाहि साथुकी संगति नाथे जन्म गयो॥ ३॥ बहि वहि मरे पचे निज स्वार्थ यमके देड सद्यो

| #-प रु किक घन दारा सुत राज काज हित मांथ भार गह्यो २॥ श्री कबीरनी जीवकों उपदेश करे हैं हें जीव! तेरें मालिक जे रामचन्द्र हैं तिनहीं बिना तें तेडीकी बैल भयो जे साधु तेरों स्वरूप बताइदेईं ऐसे साधु- नकी सड्गति में कबों नहों बेठे तेहीके बेछकी नाई नाथे नाथे जन्म व्यतीत भयों जन्मते मरत रह्मों जब कांधे जुवाँ नाथि जायहे तब निज तेलीके निमित्त ठोई ठोइ मरे है जो ना रेंगें ती तेली डंडा मारे है तेसे यह जीव धन दारा सुत राजन काजके हित नाना कर्म करे है इंद्रियसुख छिये बहि बहि कहे नाना कमेनको भारा ठोइ ठोइके पंचे है अरू अंतमें यमदंड मरे हैं सो सहो हो याही रीति जन्म जन्म यंमदंड सहो ही खसमहि छोड़ि विषय रँग माते पापके वीजवयो

डांढ मुक्ति नर आश जिवनकी प्रेतकों जूंड खयो ॥३॥

खसम जे साहब तिनकों त्यागि विषय रंगमें मात्यों पापको बीज बोवत भयो अथोत्‌ जो नारी आपने खसमको छोड़े ओर पुरुषमें लगे है तो वाको बड़ी पाप होयहै सोतें खसमको छोड़िके नाना देवतनकी उपाष्तनामें छागे जात भयो मातिगयों सो तें महापाप के बीनबोयो नरन को ज्यावनवारी जों मुक्तिकी जो हमको उपास्य देवता प्राप्त होयंगे तो हम जीते रहेंगे हमारों जनन मरण होयगो सो वह मुक्ति झूंठी है जीने शरीरते उनके छोककों जायगो से तन नाश है जाइगो जब फोरे सृष्टि समय होइगो त4 वाई देवनकें साथ फिरे आविगो जनन मरण छूटेगो सो ऐसी झूंठी मुक्तिके वास्तें

शब्द (४११ )

तें भेंदनकी जूठ खाय है कहे भैरव भूत आदिकन के बलिदान खाय हैं उनके दिये तपीना शराब पिये है चर सी शि + उीमशियिल सी. लीक 3 कि लख चौरासी जाव यानम सायर जात वचट्मा [क सुनो 3 अर ३१ +

कहे कवीर सुनोहो संतो इवान कि पूंछ गद्यो

श्री कवीरजी कहे हैं कि हे संतो! नीवों सुतो तुम १रम पुरुष पर जे श्रीरामचन्द्र्‌ ते तुम्हारे रक्षक संसार सागरते पार के देनवारे जहान तिनकी छोडि श्वान

््

हैं सब श्ुद्ददेवता तिनकी पूंछ गहे चोरासी लक्ष योनि लमुद संसारमें |

67 ४0%:

क।्ष

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8 8 आर है.

जाय है सो इवान की पूंछ गहेते कैसे संसार समुद्गति पार जाउगे ४॥ इति एकसे सात शब्द समाप्त

अथ एकसे आठ शब्द १०८॥

अबू हमभयलवहिरजलमीनापुरुवजन्मतपकामदकी ना * तवम अछलो मनबेरागी।तजलो ढकुठुम्ब राम रटलागी॥२॥ तजलो काशी भे मतिभोरी।प्राणनाथ कहु का गति मोरी हम चलिगेल तुम्हारे शरणा।कतहुं देखो हरिकी चरणा हमाह कु सके तुर्माद अयानाहुइ महेद॒पिकाहिनगवाना< हम चालिगल तुम्हारे पासा।दास कबिर मल केलनिरासा

श्री कबीरणी कंहे हें कि, जब मैं साहबके पास गयो तब यह बिनतीं कियो कि तबते संसार के जलहूके मीनरदहे अब जब॑ते हम संसारके बहिंरे तिहारे प्रेमनछके मीनभये प्रथम हम पूर्व जन्ममें पंचांगोपासना तपस्या बहुत करी पुनि जब जन्मछियों तब हम को पूर्वनन्म की साधि बनीरही वह तप* स्याकों मद कहे अहंकार हमको बहुत रहे सो वही तपस्याके प्रभावते तब हमको अच्छो मनमें वेराग्य रहे रवनाथजीमें भक्ति भई तब कुंटुम्बकों छोड़िके राम राम रट रूमगावत भयो तब प्राणनाथ में काशी छोड़ि+ दियो मेरी मति भोरी भई कहे पूर्वनन्म के तपके मदते निगुणरस

त्थ

४१२ ) बीजक कबीश्दास

रूपा मक्ति मोकों होत भई केवल ज्ञानि कार्रके रामनामर्की रटनि छंगाइकै बिचरत भयों कि, मिलिही जायेंगे तब हे पाणनाथ! भेरी कहा यति होत भई सों कहौदहों ३२ हम तुम्हारे शरण तो चडिगये कहे तुम्हारे नाममें रट छठगावत भयो पे तुम्हारे चरणन को देखत भयो अर्थात्‌ दशेव पायों सो है भगवन! बट ऐडश्व्य संपन्न थों हमहीं कुसेवक रहे जो तिहारों इरशन पायो थों तुमहों अयान रहे हमकी तने जानत रहे नो हमसक्के नहीं मिले दुइमें काको दोष है अब दाप कबीर जो मेंहों ताकोी भी भांतिते नब निराश करिदियों कि, कीनिड भांतिकी जब आश ने रहिंगई ज्ञान करिके योग करिके भक्ति करिके केवर सुधारसरूपा निगणा भक्ति जब मोकों दियों तब हम तुम्हारे पास चालि आये याते कबीरनी या देखापो कि, जब सब बातते निराश द्वे नाय हैं तब साहबके पास जाइहेँ॥६॥ इति एकसे आठ दाब्द समाप्त |

अथ एकस नव शब्द १०:

लोग बोले दुरिगये कवीराया मत कोइ कोइ जाने चीर॥ ३॥

श्रथ सुत तिहुं छोकहि जाना। राम नामझी मर्मे आना जेहि जिय जानि परा जस ले खा।रजु को कहे उरगजोपेखा३ यद्यपिफल उत्तमगुणजाना।हरीहित्यागिमनसुक्तिनमाना९ हरि अथार जस मीनहि नीरा।औरयतनकछुकद हिक बी रा

लोग बोले दुरि गये कबीरा। या मत कोइ कोइ जानें चीरा१

श्री कबीरनी कहे हैं कि, सब छोंग बोले हैं कि, कबीर बहुत दूर गयें बहुत पहुंचे हें सो या मत कोई जे धीरे धीरे साववर्भ क्रियनमें समुझनमें अभ्यास करे हैं सो जाने हैं कौन मत सो भागे कहे हैं |

दशरथ सुत तिहुँ लोकहि जाना।राम नामको मम आनार॥।

खाब्द | ४१३ )

भजन अरे

सो दशरथसुतकों तो तीनोंलोक जानेंहें पे रामनामको मर्म कौऊ कोऊ नानेंहें अथीव कबहू दशरथ सुत कबहू तारायण कबहूं ब्यापक बह्मही अवतार छेइ हैं नित्य साकेत विहारी परम पुरुष पर जे श्रीरामचन्डरहें जिनके नामते ब्रह्म ईदवर बेद शाख सब निकसे हैं तौने रामनामको तो मम आनहै हि 4 ६8. बिक वन 8 जेहि जिय जानि परा जस लेखा।'रज॒को कहे उरगको पेखा हज जप हेत् 6 आप यद्यापफलउत्तमंग्रृुणजाना।ह।राहत्यागमनसाक्त ने माना जाकी यह रामनाम जैसो जानि परयो है सो तेसे लेख्यों है कोई रघनाथ* की को दशरथके पत्र माने है कोई नारायण को अवतार मांने है कोई बह्मको अवतार मने तिनहीं की नाम रामनाम मानेहे सो जैसे रसरीको उरग

कह हैं बिना समुझे ऐसे रामनाम जो साहबको है सो श्रम छोड़िके बिचारे तौ ती साहिवेको वाध करेहे सो यद्यपि उत्तम गुण जनेके फछ होयहै कि विष्णु ढोक प्राप्रभये परन्तु परम पुरुंषपर जे श्रीरामचन्द्र तिनके पार भये बिता हम मुक्ति नहीं माने हैं

| 4]

हरिअवारजसमीनदिनीर।ओरयतनकछुकहेकबवीरा ॥«ो

को नेसे मीनकों आधार अंबृहे बिना लू मीन नहीं रहि सके है तेसेः श्रीरामचन्द्र सबके आधारहें सो तिनहीं को जो आधार माने तो जैसे मीन सर्वत्र जलही देखे है द्विमुनरूप श्रीरामचन्द्रको सर्वत्र देखे उनहींमें रहे तो श्री कबीरजी कि और यतन सब थोरई है तामें ममाण श्री गोसाईनी को दोहा सो अनन्य अस जाहिके, मति टरे हनुमन्त में सेवक सचरा- चर, रुप राशि भगवंत ”” १॥ तामें प्रमाण कबीरजीक्तों नैनन आगे ख्याल घनेरा अरध उरध बिच लगन लगी है क्या संध्या क्या रैनि सबेरा जेहि कारण जग भरमत डोले सो साहब घट छिया बसेरा पारे रह्मो अस- झान घरणमिमें जितदेखों तित-साइब मेरा तप्नबी एक दियो मेरे साहब कह

कबीर दिलही बिच फेरा डर कृर्ख नव हृब्द समाप्त |

(४१४ ) बीजक कवीरदास अथ एकसे दश शब्द ॥११० अपनो कमे मेटोी जाई

कम लिखा मिटे थों केसे जो बुग कोटि सिराई॥ १॥ गुर बशिएठ भिलि लगन शोधाई सूय मंत्र यक दीन्हा। जो सीता रइुनाथ विआही पल यूक सच कीन्हा नारद सुनिको बदन ्पायो कीन्ही कपिस। ह््पा। शिशुपालहुके आजा उपारे आपुन वोध स्तृहपा ॥३ तीने लोकके करता कहिये वालि वध्यों बरियाई। एक संभंद एंसा वाद आई उनंधदू अवसर पाईइ॥४७॥ पावेती की बांझ कहिये इश न्‌ कहिय भिखारी कह कबीर करता को बांतें कप्रके बात निनारी ॥५॥ श्रीमन्नारायण वेकुण्ठते केतन्यों अवतार लियो तेऊ कमकी मयोदा राखिबोई कियो सो ने साहब उत्पत्ति पालन संहार करे हैं तेतो कमेकी मयोदा राखि- कियो और की कहा गतिहे सो बिना परमपुरुषपर ओऔररामचन्दके नामलि- ये कर्मकीगतिक्राहुकी मेटी नहीं मेटि जाईहे श्री रामनामते कर्मकी गति मिटि मेटत कठिन कुअंक भालके” ॥२॥ “सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेक शरणं बज अहं त्वा स्वेपपिस्यो मोक्षयिष्यामि माशुच'इतिगीतायां॥ “सकृदेवमपन्नायतवास्मी- तिच याचते।अभर्य सवेभूतेम्यों दृदाम्येतद्धतं मम'!॥इति रामायणे॥ओ कबीरजी ऊके प्रमाण “पाहिले बुरा कमाइकै, बांधी विषके मोट कोटि कर्म मिट पुलकमें, आवे हरेकी ओट और और पदको अर्थ सपट्टे है १-५ इति एकसे दर शब्द समाप्त

छाब्द (४९५ )

अथ एकंस ब्यारह शब्द १३१

है कोई पंडित गुरुज्ञानी उलटि वेदकी बूझे पानीमें पावक जरे अंधे आंखी यूझे ॥!

गयावो नाइरकों खायो हरिना खायो चीता। कागा छूगरे फादिक बंटेरन बाज जीता॥ २॥ झूसा तू खायो श्यारे खायो थाना आदिके उपदेश जाने ताछु बेसे बाना हे एके तो दादुर सो खायो पाँचो जे भ्रवेगा।

कचरे अर

कहे कबीर पकारिके हें दोड यक संगा 9 |

हैं कोई गुरु ज्ञानी पंडित उलटि बेढ्को बृझे पानीमें पावक जरे अंधे आंखी सूझे ऐँसो गुरुज्ञानी पोडित कोई नहीं है जो उलटिके देदको अर्थ बचे अथीत

गायत्रीते वेद भयो है प्रणवते गायत्री भ३ई है प्रणव राम तासते उत्पन्न भयों है पो-कहैंहें पानी नो है बानी तामें पावक बरहे कहे बह्मामि बीन रामनामहे सो सर्वत्र पणण है सो अधेके आंखीमें कैसे सझे उलंटिके वेदकों बूझ्े तो जाने कि सबकी मूल रामनामई है

गेया तो नाहर को खायो हरिना खायी चीता

कागा लगरे फ्ा|इक वव्रन बाज जाता ॥!

जैया जो गायत्री तेनेके नाना अर करे कहीं सूर्यमें छगावैंहें कहीं बह्ममें छूगवै हैं सोई अर्थ जो गैया से सांच गायत्नीकों तालयीर्थ साहब तिनको ज्ञान जो नाहर ताको खायडियों हरिनाजों अंदैत ज्ञान कि हरिनहीं है भणवको

हे हों

अभथैकियो कि जीव नहीं है एक बल्नही है सो में हों या जो हारेगा सो साहबकों

( ४१९६ ) बीजक कबीरदास !

ज्ञान ना चीता ताको खाय लियो चीता साहबके ज्ञानको कहेते कह्मो कि जब साहबको ज्ञान होइहै तब अदेत ज्ञान नहीं रहिनाइ है काग जो जज्ञान सो खाहबको ज्ञान जो छगर शिकारी पक्षों कांगा को खानवारों ताकी कागाः खायलियों असत्‌ शाखके अनेक प्रकारके जे अर्थ तेई हैं बंटेर ते सद शासत्र जे साहबके बतावनवारे तेई हैं बान ताकी जीतिढियो अथौव तामसीजे हैं ते तामस शाखको प्रचार कारे सत्‌ शाखको छोप कारेदियों

मूसातो मंजार खायो स्यवांरे खायो श्ाना

आदिको उपदिश जाने तासु वेसे बाना

एके तो दादुर सो खायो पांची जे श्वृवंगा

कहे कवीर पुकारिके हैं दोऊ यक संगा

मूसा जो है बितंडाबाद सो साहबकों उपदेश नो मंजार ताको खायलियोए स्यार जो माया सो जीवके स्वरूप ज्ञानंत जो होइहे स्वानुभवानंद सोई द्ै ख़ान ताको खाइ छियो सो कबीरणी कहे हैं जो कोई आदिको उपदेश जो है समनाम जाने ताहीकी वेष बानाँह और सब पाखंडई है एकही दादुर जो मन्‌ सो दाठुरके खाय लेनवारा पांचभुवंग ने राति नेष्ठा भात्र प्रेम रस ते ताकी खाइलियो सोई एक एकके विरोधी रहे तिनकी खाई नह सो कबीरनी कहेँहें नीव साहब एके संगके हैं आपने स्वरूपकी समु> झये या विचारयो कि में साहबको हैं। ताते संसारी हैं गयो है जो साहब मुख अर्थ विचारतों तो एकही संग को है इति एक्स ग्यारह शब्द समाप्त |

अथ एकसे बारह शब्द ११२ झगरा एक वढ़ी जियजानाजो निरुवारे सो निरवान $|| ब्रह्म बड़ा की जहँते आया।बेद बड़ा की जिन उपजाया॥२॥ इहमनबड़ाकीजेहिमनमाना।रामबड़ाकी राम[हि जाना॥ हे॥ अमिभ्रमिकबिरा फिरेडदास | तीथवड़ाकीतीर्थंक दास ॥४७॥

. झाब्दु ( ४१७ )

हैं जीवो ! यह झगड़ा बढ़ो है ताको बिचार करो जो कोई यह झगड़ा निरुवारे सोई निवोण कहे मुक्त है। सो कहे हें भला जोन ब्रह्म जीव आपने मनतें अनुभव कारे लियो है सो बड़ा है कि नहांते जीव आयो है छोक प्रकाशते सो है। सो ब्रह्म बड़ा नहीं है। वा छोकःप्रकाश बड़ाहै जहांते जीव आयो है। वेदकी अज्ञाते नाना ईइवर मानि लियो है सो बड़ा है कि रामनाम वेद्‌ उपजाहै सोबड़ाहै अधाव रामनाम बड़ा है जाते बेद भयो है। मन बचनके परे है सोई बड़ो है नाको मन मान्यो है। श्री रामचन्द्र काहको उप- देश करे नहीं आवें श्री रामचनख्दके जाननवारे रामकों बतायके जीवनकों डप« देश के उद्धार के देइहें याते रामदास बड़े हैं। तीर्थ बड़ो कि जे तीर्थकों विधि सहित न्हाईहें ते बड़े अर्थाव्‌ जे तीर्थके दास बने हैं ते बड़े हैं सो है कायाके बीरी जीवों ! श्रमि श्रमिं काहे को उदास किरो हो या बात को बिचारों

इति एकसे बारह शब्द समाप्त

अथ एकसे तेरह शब्द ११३॥

झूठे जनि पतिआहु हो सुन संत सुजाना

घटही में ठगपूरहे माते खोड अयाना १॥ झूका मंडान है धरती असमाना।

दशो दिशा जेहि फंद है जिउ घेरे आना २॥ योग यज्ञ जप संयमा तीरथ ब्रत दाना नवचावेद किताब है झुठेका वाना काहुको शब्दे फुरे काहुकरमाती

मान बड़ाई लेरहे हिंदू तुरुक दुजाती

१७

४१८ ) बीजक कबीरदास

बातकथे असमानकी झुद्दति नियरानी

वहुत खुदी दिल राखते बूड़े बिन पानी «॥

कहे कबीर कासों कहों सिगरों जग अंधा

सांचेसों भाजे फिरें झूठे सों बेचा

है संत सुजान! जो तुम सुज्ञान होउ तो वा झुठेसों पतिभाहु मेरी बात

सुनी वह ठग नो है तिहारो अनुभव धोखा ब्रह्म सो तेरे घट्ही में है थोखामें चारे आपनो स्वरूप जो साहबकी दास ताको मतिं खोड घधरतीमें कहे नीचेके छोकनमें असमानमें कहे ऊपरके छोकन में वहीं झूठे ब्ह्मका मंदानहे दशो दिशा जे हैं छः शाख चारिविद तिनमें वहीकों फंदह वहीं के फंदत इनको जो है यथाये अर्थ सो कोई नहीं जानिह॑ जोवके आनिके घेरि लियो है अथोद शासन वदनमें अर्थ बद॒लि बदाले वही झूठे अह्मको उपदेश कैंकै गुरुषा छोग भुछाहई दियो है सब में वही घोखही बह्म देखावैहे योग यज्ञ जप संयम तीर्थ ब्रतदान नवधा सगुणाभक्ति ओऔ वेदकिताब इनसब में झूठे कहे वही घोखा बह्मका बाना कहे बिरदावलछी गुरुवा छोग सबकी मनावे हैं कि, या साधन कीन्हे अंतःकरण शुद्ध होय है तब अहम को पाप्त होइहें काहूको शब्दे फुरे है कहे वेद शा किताब कुरान पंढिके उनको अर्थ बदलि बदलिके शाखा्थें करिके औरकों हरावै है उनहींको हिंन्दू तुरुके दूनों जाति मान बढ़ाई करेंहें वोई मान बढ़ाई हछैरहै हैं पंडित मोलबीलोग कोई जे बैरागी हैं संन्यासी हें फूकीर हैं ओलियाहें ते काहकी बेटादियों काहकों जागा दियो कहे जठमें होठि गयो कहूं आकाशते डाड़ि गये कहूं दश पांच वर्ष कोठरी चुनाइके आये कहूँ भूत भविष्य वतेमान जानिलियो इत्यादिक नाना प्रकारकी करामात देखा- इके हिंन्दू तुरुक दूनों दीनन सों मान बड़ाई ढेके रहे हैं

झाब्द ( ४१५९ )

परम पुरुष श्री रामचन्द्र अल्छाह साकेत जाहूतके रहनवारे तिनंको तो जानें नहीं हैं आसमान जेहि शृन्य थोखा ब्रह्म तीने की वातें कथे हैं कि हमहों अह्नहैं हमहों बेचन बेचिगूग बेंसुवा बेनिमून हैं औं उनके जिन्‍्द्गीकी मुद्दति नियरेही है केतनों यहैं कथत कथत मरिगये केती मरेंगे केती मरे जायह यह नहीं बिचारहें कि ने खुदा होते बह् होते तो मारे कैसे जाते सो बहुत खुदी दिलमें राखते हैं कि खदखाविंद हमहीं हैं नो बहुत खुबी पाठ होइ तौ यह अथै कि हमहों सबते ख़ब कहे अच्छे हैं पे बिना पानी झूरहींमें वूड़ि गये अर्थात्‌ मरिही गये वहनो ब्रह्म खुदकों ज्ञान कियो कि हमहीं हैं सो ज्ञान झूरही ठहरों वामें कुछ रस ठहरयों मरतमें वह रक्षा तनकऊ कियो जो कहो जे साहब खुदाको जनिहें ते कब ।निये हैं तेऊतो मरिही ज!यहैं तो तुमही रामायणर्में सुन हाउगे फ्रैने ते भर प्रनाहँ जे ते भर भालु बांदरहें तिनकी श्रीरामचन्द्र संदेह आपने धामफो लैगये श्री हनुमाननीको बविभीषणको छोड़िगये ते अवलों बने हैं कागभुशुण्ड नारद अगस्त्य बशिष्ठजी रामोंपासक हैं ते अब- छो बने हैं जो कहों अब केतों राम भक्तको मरत देखे हैं तो ने साधनमें हैं परमपुरुष श्री रामचच्दकों नीकी भांति नहीं जाने हें श्री रामचन्द्रकी प्राप्ति नहीं भई ते शरीर छोड़िके वह छोककों क्रमतें जाईहें शरीर छोड़िकै फिरि अपतार लछेह्हें पुनि ज्ञान होइ है तब जाइहै ने परमपुरुष श्री रामचन्द्रकों अच्छी भांति नानि लियोहै तहांको प्राप्त होइ गये हैं तिनको शरीर छोड़ें- बो ऐसो कि यहां गुप्त है गये पुनि कहूं प्राठ हैके उपदेश करिके भीवनकों तारये। वे साहबको प्रार्पई हैं जब चाहे हैं तब साहब के रहै हैं जब चाहै हैं तब प्रगट हके जीवनकों उपदेश करिके तंरेहें सो श्री कबीरणी प्रगटई देखाइदियों कि काशीमें शरीर छोड़ये मथुरा में उपदेश कियो चारिड युग डपरदेंश कतई मुसस्माननंके अछी शरीर छोड़यों पुनि छोटिके आयके संदूकर्म आपनी छाश राखिके ऊंटमें लादिके लेगेये सो दे पहारके बीच है निकसे जाई सो वहीमें अटकाइ दियो सो अबों वह संदूक अयकी है सो इनको चोंला. डांड़ियो याहि भांति कोहे जैसे सांप केचुरि छांड़िदेइहैं

( ४२० ) बीजक कंबीरदास

सो कबीरनी कहे हैं कि मैं कासों कहों सिंगरो संसार आंधर है रहोहें

सांच ज॑ परम पुरुष श्री रामचन्द्र स्वेत्र पूर्ण हें तिनसों भागो फिरे है उनको

नहीं देखेहे झंठा जो है धोखा बह्म ताही में बाँधि रहमोहे यथार्थ अर्थमें

चारयों वेद छदड शास्त्र तापर्यकैके परम पुरुष श्री रामचन्द्रकों बर्णन करे हैं सो में आपने स्व सिद्धांत में स्वष्ट करिके लिखि दियो है इति श्रीमहाराजाधिराज श्रीमहाराजा श्री राज। बहादुर

श्री सीतारामचन्द्र कृपा पात्राविकारे विश्वनाथ सिंह ज् देव कृत तिछक शब्द समाप्त

02 क०:77००0.:2>777227+->०>>मई

इते

सूचना-मूल ग्न्थमें ११५ झ्ब्ददें सो जाने किस कारणसे महाराजने उसे छोड़

दिया है सो दोनों शब्द प्स्तावनामें दे दियाँहे पृठक वहांसे देख लें

अथ चातासा।

हल-++ *अ कल 2पल्दीयक-न वनआमममण

ओंकार ओंकार आदि जो जाने।लिखिके मेंटि ताहि फिर माने॥ वेओंकार कहे सब कोई।जिनहूँ लखा सो विरला सोई॥ १॥

चॉतीसी कका कमल किरणिमें पावेशाशि विगासित संपुटनहि आवे॥ तहां कुसुम रंग जो पावे। ओगह गहके गगन रहावे खखा चाहे खोरि मनावे। खसर्माह छोडि दशो दिशि चावे॥ खसमहिं छोड़ि क्षमा हे रहई।होय अखीन अक्षय पद गहई२ गगा गुरुफे बचने माने। दूसर शब्द करे नहिं काने तहां विहंग कतहुं नाई जाई। ओगह गहके गगन रहाई॥ ३॥ घधा घट बिनशे घट होई। घटहीमें चंट राखु समोई जो घट घंटे घटे फिरि आवे। घटही में फिरे घंटे समावे॥९॥

( ४२२ ) बीजक कबीरदास

डडग निरखत निशि दिन जाई।निरखत नेन रहा रटलाई निमिष एक लो निरखे पांवे। ताहि निमिषमें नेन छिपावे७॥ चचा चित्र रचो बहु भारी।चित्रहि छोड़ि चेतु चित्र कारी जिन यह चित्र विचित्र उखेला।चित्र छोड़े तू चेतु चितिला छछा आहि छत्र पति पासा।छकिके रहसि मेटि सब आसा। में तोहीं छिन छिनसमुझाया।खसमछोड़िकस आपचंधाया जजा या तन जीयत जारो। योवन जारि युक्ति जो पारो जो कुछ जानिजानि पर जरै।घटहि ज्योति उजियारी करै८ झञझा अरुझि सरुझि कित जाना।हीठत ईूँढ़त जाहि पराना॥ कोटि सुमेरु इंंढ़ि फिरि आवे।जो गढ़ गढ़ा गढ़हि सो आवे९ अजा निरखत नगर सनेहू। करू आपन निरवारू सँदेहू नाई देखी नाहं आपभजाऊ।जहांँ नहीं तहँ तन मनलाऊ१ टटा विकट वात मन माही खोलि कपाट महलमें जाही रहे लटपंटे जटि तेहि माही।होहि अटल ते कतहुं नजाहीं ११ ठठा ठोर द्वारे ठग नीरे। नितके निठुर कीन मन धीरे जेहिडगठगसब॒लोगसयाना।सो ठगचीन्हिडोरपहिचाना १२ डडा डर कीन्हे डर होई डरहीमें डर राखु समोई जो डर डरे डरे फिरि आंवे।डरही में पुनि डरहि समावे॥ ३॥ ढढा हूंढ़तई कत जाना ठीगर ढठोलहि जाइ लोभाना जहां नहीं तहँ सब कछ जानी।जहां नहीतहँले पहिचानी १४७ णणा दूारे बसो रे गाऊं रे णणा टूटे तेरा नाऊं॥ झुये यते जिय जाही घना।झुये यर्तादिक केतिक गना॥ १५॥

चोतीसी (४२३ )

त॒ता अति त्रियो नहिं जाई। तन तरिभ्वनमें राखु छपाई जो तन त्रिुवनमाहँछपावे।तत्त्वहिमिलिसोत त्त्वजोपाव १६ थथा थाह थहो नहिं जाई यह थीरे वह थीर रहाईं थोरे थोरे थिरहो भाई। विन थंभे जस्‌ मन्दिर जाई ॥१७॥ ददा देखो विनशन हारा जस देखो तस करो विचारा दशी द्वारमें तारी लावे तव दयालको दशेन पावे॥१८॥ धथा अध माहँ अँधियारी। जस देखे तस करे बिचारी अथधो छोड़ि ऊरध मन लावे।अपा मेटि के प्रेम बढ़ावे॥ १९॥ नना वो चोथेमें जाई। रामका गदृह दे खरखाई नाह छोड़े किय नरक बसेरा।अजों मृढ़ चित चेतु सवेरा२० पपा पाप करे सब कोई पापके धरे धर्म नहिं होई पपा कहे सुनोरे भाई हमरेसे ये कछू पाई २१ फफा फल लागोे बंड़े दूरी चाखे सतगुरु देव तूरी फफा कहै सुनो रे भाई। स्वगें पताल कि खबारि पाई२२ व॒वा बर वर्‌ कर सव कोईबर वर किये काज नहिं होई॥ वबा बात कहे अरथाई।फलका ममे जानेहु भाई ॥२३॥ भभा भर्म रहा भरि पूरी भर्भरेते हे नियरे दूरी॥ भभा कहे सुनोरे भाई भभरे आबे मभरे जाई २७ मा सेये मर्म पाई। हमरे ते इन मूल गवाँई ममा मूल गहल मन माना।मर्मी होहि सो मर्महि जाना॥२५ यया जगत रहा भरि पूरी जगतह ते ययाहै दूरी यया कहे सुनोरे भाई। हमेरे सेये जे जे पाई २६

( ४२४ ) लीज़क कवीरदास |

रा रारि रहा अरु झाई। राम कहे दुख दारिद जाई॥ ररा कहे सुनारे भाई सतगुरु पूछि के सेवह जाई ॥२७॥ लला तुतेरे बात जनाई तुतेरे पवि परचे पाई अपना तुतुर ओर की कहई ।एके खेत दुनों निरबहई ॥२८॥ ववा वह वृह कह सब कोई वह वह कहे काज नहिं होई॥ ववा कहे सुनहुरे भाई स्वग पतालकी खबारि पाई २९ शशा शरद देखे नादें कोई। शर शीतलता एकहि होई शशा कहे सुनो रे भाई शून्य समान चला जग जाई॥३०॥ पषा पर घर कह सब कोई पर पर कहे काज नहीं होई पषा कह सुनहुरे भाई राम नाम ले जाहु पराई 8१ ससा सरा रचो वारआई। सर बेचे सब लोग तवाई ससाके घर सुन गुन होई यतनी वात जाने कीई १२ हहा होइ होत नाई जाने जवहीं होइ तवे मन माने है तो सही लहे सब कोई।जब वा होइ तब या नाई होई ३३ क्षक्षा क्षण परले मिटि जाई क्षेव परे तब को समझाई क्षेव परे कोउ अंत पाया।कह कवीरअगमन गोहराया३४

डॉंकार आदिहि जो जाने।लिखिके मोटि ताहि फिरि माने॥ वे डॉंकार कहो सब कोई।जिनहूँ खा सो विरला सोई॥१॥

ऑकारको आदि नो रामनाम ताको जो कोई जाने पिंडाण्ड ब्रह्माण्डकों चाहे! लिखिंके कहे उत्पात्तेके मेंटे कहे नाशकरे फिरि माने कहे पाठनकरे सो कहूँ ऑकारका तो सबे कोई कहे हैं परन्तु मिन बाकी छखांहै सो कोई

चॉतीसी | (४२५ )

बिरठाहै ताके लखिबेको प्रकारहों कहैहों अकार लक्ष्मणको स्वरूप उकार शनुप्कोी स्वरूप मकार भरतकों स्वरूप अर्द्धमात्रा श्रीरामचन्द्रकों स्वरूप संपूर्ण प्रणव श्री जानकीनीको स्वरूप यहि रीतिते जो कोई प्रणवको जाने सो बिरला है ; कौनी रीतित जपकरे जिकुटीमें अकार कंठमें उकार हृदय में मकार नाभिमें अरद्धमात्रा गेबगफामें संपर्ण प्रणव ऐसों एक एक मात्राको अथे बिचारत घंटानादकी नाई जप करनवारों बिरठा है साहबमुख यह अर्थ हम दिग्दशन करादियों है और बिस्तार ते अर्थ हमारे रहस्प त्रयग्रन्थमें है और सब जगतमुखअर्थ है कका कमल किरणिम पावेशशशि विकसितसंपुटनहिंआवि॥ तहां कुसुम्भ रंग जो पवि ओगह गहके गगन रहावे ॥२॥ कहिये सुखकोी से कका कहे सुखकों सुख नो साहब तितकों किरणि जो अद्धंमात्रा ताको नाभि कमलमें ध्यान करि जीव जनि शशी जो चंद नाड़ी तोनेको अमृत सीर्चिके विकसित कियिरहे संपुटित होनपावै | तहं कुसुभ रड् नो प्रेम ताको पावे तो अगह नो साहब ने मन वचन करिके नहीं गहे जाई तिनको गहिके गगन जो हृदय आकाश तामें राख याके आवरण के मंत्र ध्यानकों प्रकार हमारे श्ान्तशतक' में छिख्यों है ककार सुखको कहे हैं तामें ममाण “कं: प्रभापति रुद्दिष्ट: को वायुरिति शब्दितः॥करचात्मनि सं- माख्यातः कस्सामान्य .उदाह्तः १॥ कं शिरो जलमाख्यातं कं सुखे5पि प्रकीत्तितम॥ पथिव्यां कु; समाख्यातः कुड शब्दे5पि प्रकीत्तित: !” खखा चाहे खोरि मनावे। खसमहिं छोड़े दशहु दिशि चावे॥ खसमर्दि छोड़े क्षमा है रहई।होइ अखीन अक्षयपद्‌ गहई खा जो चेतन्याकाश ताहकों चेतन्याकाश अथौव्‌ बह्महेकों ब्रह्म जो साहब ताको जो चाहे तो अपनी खोरि जो चकसो मनावे कहे बकसावै | कौन चूक !

१-कः' बह्मा, वायु, आत्मा और साधारणको कहतेहें कं? क्षिर, पानी, और सुखको कहतेहें शब्द और भूमिको कु? कहंतेहें

( ४२५६ ) बीजक कबीरदास

जौन खसम जे साहब हैं तिनकों छोड़िके जो दरों दिशामें थावे है कहें नाना उपासना करे है सो या चूकबकसब जो चैतन्यांकाश सम कहे सत्र पूर्ण एऐसो नो धोखा बह्म ताको छोडिके तें क्षमा हैरहु ब्रह्मकी बाद विवाद करु होई अखीन कहे आपनो स्वरूप जानिके कि में साहबको हों अक्षय हों बल्महमें लीन भये मेरो जीवत्व नहीं जायहै ऐसो हंस रूप हैके अक्षय पद ने साहब तिनको गहु कहे आकाशतामें प्रमाण “खमिन्द्रिये खमाकाशेखः स्वरगंडपिपकीतित:'

गगा गुरुके बचने माने दूसर शब्द करे नहीं काने

तहां विहड़्म कतहुं जाईं।ओगहि गहिके गगन रहाई॥७॥

जो है साहबकों गीत ताको गा कहे ते गवेयाहै सो हेलीव ! तें गरु ने साहब हैं तिनके वचन मानु कोनबचन ? कि ' अजहू छेउ छंँडाइ कालसे नो घट सुराति सभारे ”? और दूसर शब्द कान करु जो घट सुरति सँंमांरैगो तो बिहज्गम जो जीवात्मा सो कर्तों जाइगो औगह कहे अवगाह ने साहब हैं [तिनकी गहिके गगन जो हूृदयाकाश ताही में रहेगो। अथीत्‌ नो साहबको गण गान करेंगो तो तेरों मन जो सत्र डोडे है सो कतों जाइगो तामें प्रमाण॥ “गो गेणेशः समुद्दिष्टों गेधवों गः प्रकीर्चितः। ग॑ गीते गाचगाथा स्यादरी- इचधनुस्सरस्वती *'

घधा घट बिनशे घट होई घटहीमें घट राखु समोई

जो घट घंटे घंटे फिरि आवे। घटहीमें फिरि घंटे समावे॥५«॥ नो घट है ताको या जो नाश है सो करन वारो अर्थात्‌ ननन मरण वारे

है घवा जीव ! घट जे पांचौ शरीर ताके विनशे घट जो है हंस शरीर सो होइहे! होइहे ताको साधन कहे हैं घटही में घट राखु समोई ”? कहे स्थूछ सुक्ष्ममें, सुक्म कारणमें,कारण महाकारण कैवल्यमें, कैवल्य हँेसस्वरूपमें, समोइ खु:अर्थांत्‌ एक एक में लीन के दइ जो यही रीतित घट जे पांची शरीर तिनको घंटे घंटे फिरि आवै तो घट जो है हृदयाकाश ताहीमें घट जो हंस दारीर सो

१-ख इन्द्रिग, आकाहा, स्वगेके कहते हैं

२-ग गणेश, गन्धवे, ग॑ ? गीत, ग? गाथा, गो गाय और सरस्वतीको कहते हैं

८५

चोंतीसी | (४२७ )

समावे अथोव्‌ जीते यहीश्वरीर में हंससवरूप पायजाय | घातको कहैहें _“बोघटे अपिसमाख्यातःकिंकिणीवा प्रकीत्तित:ः।घा हनूमते विख्यातोधृम्‌्दनि- प्रकीत्तित:

डडगानिरखत निशिद्न जाई।निरखत नय रहत_रतनाई निमिष एक लों निरखे पावे। ताहि निमिषमें नयन छिपावि5

डः कहे भयानक डग कहे बिषय बांछा सो डग्डग भयानक बिषय बांछा निर- खत कहे ब्चारत तोको दिनो राति जाइहै वाहीके निरखत में कहे बिचारतमें नय जा नीति सो नहीं रहत रतनाईं जो अनुराग बिषयमें सोई रहि जाइहै।कैसीह वह बि- पय कि एक निमिष ढो निरखे पाव कहे थामें छंगे तो तीनेन .निमिषमें भोगोपरान्त नयन छिपावहे नहीं नीक छांगेंहै अर्थात्‌ रूपको देंख्यों फिरिनयनमें गीर भारे आवैह नहीं नीक लागेंहे सुगन्ध बहुत सुंध्यों उपरांत नाक बारे उठेंहै, अच्छो भोजन कियो तृप्त भये पर बिरस परि जाइहे, गान बहुत सुन्यों फिरे बक वाधि लगे है। स्पर्श बहुत सुन्दर ख्लरी कियो फिरि बीये पात भये, नहीं नीकालांगै है, गरम छागन लगे है। सो ये सब तृप्रके उपरांत जो निमिष है तैनि निर्मिष नहीं नीक लगे है। डः विषय बांछाको कहेहें तामेंप्रमाण “डुकारो मैरवः ख्यातो डे ध्बनावपि कीत्तित: डम्कारस्स्मरणे प्रोक्तों उकारों बिपषयस्पृहद!!

[आप बिक [३० छोड़े 8

चावचित्र रचो बहु भारी। चित्र छोड़ि तू चेतु चित्र कारी॥ जिन यह चित्र विचित्र उखेला।चित्र छोड़ तू चेतु चितेला

कहे मन कहेते के, मनको देवता चंद्रमा याते मनको कही दूसर चा चोरकों कही सो तेरोमन जो चोर सो तेरे स्वरूपकों चोराय छीन्हो साहबकी भुछायदीन्हों सो यह जगवरूपचित्र नो रच्येंह चित्रविचित्र सो तू

१-व” घड़ा अथवा घुँवुरू को कहते हैं 'वा' हनुमान और “घर? शिरको कहतेहें २-ड” मेरवकी किसीकी याद करनेको और भोगकी इच्छाकों कहतेहें “डा झब्दकरनेको कहतेंहे

४२८ ) बीजक कबीरदास

छोड़िदे हे जीव ! चित्रकारी नो मन ताकों चेतकरु वही तेरे स्पस्वरूप कों

पोहै +ः कप आकर रे भुलाय दियोहै चंद्रमा को चोरकी कहैंहें “चेब्ंदशच समाख्यातस्तस्क मास्करेमत:?

छछा आहि छत्र पति पासाछकि किन रहे छोड़ि सब॒आशा।

में तोही क्षण क्षण ससुझाया।खसमछोड़िकसआपुर्वेधाया कहे निर्मल जीव तें आपने स्वरूपको भूलिके साहबको भूलिगयों ताति 'छाकेह छेद्रू ही द्वेगयों तेरे स्वरूपकी क्षयह्रैगई सो तें तो छत्षपती जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनको आहि तिनके पास जाय॑के ईं सब नाना देवनकी आश।/छोड़िके छकिरहाया बात में तोको क्षणक्षण समुझायों परन्तु तुमखसमजे साहब तिनको छोड़िके तें काहेको जगत्‌ में अपनयो बँधाया।छनिर्म को खेंद को कहे हैं तामें प्रमाण॥ ““निर्भछे छस्समाख्यातस्तरणि इछः प्रकीर्तित:॥ छेदे छः समा- ख्यातो विदृद्धिः शब्द्शासने!ः जजा तन जियतहि जारो। योवन जारि युक्ति जो पारो घटहि ज्योति उजियारी करे।जो कछु जानि जानि पर जरे९ कहिये वेगवंतकों जा कहिये जघनको ख्रो हे जीव ! वेगवारों मोम- नहें सोईं तेरो जघनहै ताहीते बागत फिरि है अर्थीव जननमरण होतरहेंहै। सो यातनकी कहें मत रूप तनकों हें जीते में कहे यही शरीरकों साधनकरके जा रिदे मरेते जरेगो दूसर शरीर देइगे॥ यौवन कहे युवाअवस्थाको जारिंकै बहयुक्तिको पारो कहे धारणकरो फिरि वृद्धावस्थामें साधनकरिबेकी सामथ्य नहीं रहेहे ताते यवे अवस्थामें इन्द्िनको विषय साधनकरि जारु कौनी तरहते जार कि जो कछु पदार्थ जगवमें जानि राख्यों है ते जानिपरें कि जरिगये अथीत्‌ मनको संकल्प विकल्प छूटि जाइ तबहीं ज्योति जो मनहै सोघटर्मे

आई, कट 4

साहबकी ओर उनियारी करेंहै। ज्यं)तिं मनको कहहें तामेंपमाण “जीवरू-

१-“च' चंद्रमा सूये, और चोरको कहतेहें २- छः निर्मल, छेद, सूये ओर नावको कहते है।

चॉतीसी | (४२९ )

पयकर्मतरबासा अंतरज्योतिकीनपरकासा जकार वेगवोरेकों जघनकों कहे हैं 'वागोनि नेः समाख्यातों नबने जः अकीरत्तित:” | # $

झुझा अरुझे सरुझे कित जाना।हीठत इढ़त जाहि प्राना। कोटि सुमेरु इंढ़ि फिरे आवे।जो गढ़ गढ़ा गढ़हि सोपाव १०

कहिये झंझापवनको, झा कहिये नष्टकी सो तें विषयझंझामें परिके नष्ट होइगये सी यामें अरुझेके तें कहां सरुझिके जैंहे कहिये पीठिको झा कहिये विषयवयारेकीसो विषयबयारिमें अरुझेके साहबको पीठिदेके सरुझिके कितनान चाहैँहै हिठत दूंढ़त तेरों परान जाइहै नाता उपासना नानामतक- रै है। अथवा हीठत इूंढ़त तेरोपरान नाइहै नानामतनमें, पे तोकी विषय बयारि छांडैगी वाहीमें अरुझो रहैगो कोटिसुमेरुकहे कोटिन अह्माण्ड भटकि आवो परन्तु नौन मन शरीरगढ़का गढ़ाहे कहे बनावा तोनेतकों औगढ़कहे शरीरको तपावैगो याते तें बिषयबयारिको छांडु साहबके सम्मुख होइ। झंझाबातकों नष्टको कहे हैं तामेंममाण “झंझावाते झकारःस्यान्नष्टे झस्समुदाहुत4) ॥१०॥

जज निएखत नगर सनेहू। आपन करु निरुवारु सदेहू

नहिदेखोनहिआपुभजाऊ।जहां नहींतहँतनमनलाऊ॥११॥ ञअ कहिये सोइबेफी आा कहिये झझेर ध्वनिकों सो झशैरनाक बजावतक सेसों सोवत कहे आपने स्वरूपकों भूछों जीव नाना मतनमें बाद विवाद करत नगर जो जगत शरीर ताहीको निरखे है वाहीमें सनेह करे है आपने जो संदेहकी में साहबकोहों कि और को हों ताको तो निरवारुकह नयबातते नहीं देखी नोहिमें साहब मिंडे हैं आप भजाऊ कहे अपनपो जाने कि मैं कौनकोहों निन निन मतनमें साहिबे नानिपरे ने आपने स्वरूप जाने- परै तामें तैं तनमनकीो छगाये है। जअशयनकों जौ झजशझैरध्वनिकोकहे हैं तार्मेत्रमाण “बकौरः शयने प्रोक्तो जकारों झझरध्वनो” १९

१-ज' बेगवाले ओर जाँच को कहते हैं २-झ' आँधी और खोजानेको हकते हैं ३-जञ! सोने ( झयनकरने ) झझर दब्रमें कहाजाता है

( ४३० ) बीजक कबीरदास !

टटाबिकट बात मन माही ।खोलि कपाट महलमें जाहीं॥

रहेलटपटेजाय्तेहिमाही।होहिअटलतेहिकतहु जाही १२॥

एक 2 कहे जो नाभीमें रेफकी ध्वनि उठेहे दूसरो ठाकहे जो सुरति कमलमें गुरुरकार ध्वनिकरे है सोदूनों ध्वनि जामें होईं सो ट्टकहविह सेहे- टटानीव ! बिकय्बातकी जेबासना तेरेमनमें तेई कपायहें ताकेखोलिके दूनों रकारकी ध्यनि एक के रामनामकी छदृड मात्रा जपत अर्थ बिचारत महर जो साकेत तहांको नाइ रहे लग्पटे कहे जैसे होय तैसे राम नाममें जुटिरहु तो साकेतर्मे जाई कैतें अय्लह्े है। अथवा बिकट बासननको तेरे मनमें टटाहे रहा है सो ठटाको खोलिकै महलमें जा।हे लटपटे।नोने संसारमें छग्पट हैरहे है कहे नरक स्वर्गमें तें गिरि उठे है सो तें साकेतमें जुटिरहु जे साकेत में जुटिरहें हैं कहे प्रवेश करिररहे तेई अटछ हैरहै हैं उनकी जनन मरणनहीं होय। वे कतहूं नहीं जाय हैं। टध्च-

हक 56

निकोक्हैहतामेंपर माण॥ ८९ भरथिव्यां करके टो ध्वनी पकीर्त्तित:” ॥१२॥ ठठा गोर दूरि ठग नीरे।नितके निठुर कीन्ह मन धीरे

जेहिउडगठगसबव॒लोगसयाना।सोठगचीन्हिडोरपहिचाना १३ कहिये बृहदध्यनिकों ठाकहियेचंद्मंडलकी सो बृहतहै ध्वनिकहे कीर्तिनिनकी तीनों तापके हरणहारे चंद्रमण्डलकी नाई ऐसे प्रमपुरुषपरने

के अर

श्रीरामचन्द हैं तिनको ठौर द्वारे है। ठग जो मनहै सोनेरे है अथवा हेठ- टुहा मसखरानीव साहबसों मसखरी करनवारों जाते जननमरण छूटे है वा साहबको ठौर दूरे है | ठगने मन बुद्धि चित्त अहड्डर ते नेरे हैं। तें नित्यकी निदुरहै यानो माया ताकों ना धीरे करत भे सोकहे तेनकरते भये ऐसो जो

ठग मन नौनसब सयाने छोगनकों ठगतंभों तोने ठगमनको _चीन्हिके साहब के

ठौरको पहिचानी अथवा ठग जे हैं गुहवालोग ते साहबते छोड़ायके और ७७ कप आर रस की की बच 23. चर हि

औरमें छगायो ते कहां तेरे मनको धीरे किये नाहीं किये 5 बृहदध्यूनिको

चंद्रमंडलकाकहे हैं तामें परभाण “वृहद॒ध्वनिश्वि 5: मोक्तस्तथा चंद्ू- स्थमंडछे! १३

१-८? भूमि, करकपात्र ओर शब्दकरनेमें कहागवया है -3' बड़े झब्द और चन्द्रमाके घेरेकी कहते हैं।

चोंतीसी ( ४३१ )

डडा डर कीन्हें डर होई। डरहीमें डर राखु समोई

जो डर डरे डरे फिरिआवि।डरहीमें पुनि डरहि समावै॥१४॥

एक कहिये ध्वनिको डा! कहिये त्रासको सों मायारूप बाणीकी त्ास कहे दर सो यादर तेरेकीन्हे ते होईहे अथीत ये मिथ्या हैं तैंहीं बनायलियो है समोइदे कैसेमिंटे सो जिनको तें डरै है। बिषयन को तिनको इन्दिनमें समोइदे,इंद्विनकी डरे है सोमननो महाडरहै तामें समोइंद,औ मनको चित्तन्मा- अब्नह्म में समोहदे या रीतिते डरको डरमें समोइके तें फिरिआउ साधनकरि साहबको जानु डकार ध्वनिकों जासको कहै हैं तामें ममाण “डकोरः शंकरे चघासे डकारो ध्वनिरुच्यंते १४

ढढा ढूढ़त कत जाना। ढीगर डोलहि जाइ लछोभाना जहां नहीं तहँसब कछ जानी।तहां नहीं जहँ ले पार्दिचानी १५

कहिये बाणीकी ठा कहिये निर्गुण ब्रह्म को सो हे जीव ! बाणीमें छगिकै निण बह्चको दूँठत तोको कहाँ नानाहै अथात्‌ उहँ कुछुनहीं है तेंतो साहबकों है वा ठीगर जापुरुषके है तौनेकों ठोल बाना बानीरूप पानी तौनेंमें छोभानें तेनाइ अथोव्‌ या बाणीरूप ठोलवान है अहंत्रह्म बुद्धि बतवै है सो दूरिकों ठोल सुहावन है वामे कछुतहों देशकालबस्तु परिच्छेदत शन्य है हाथ एक लगेगो। सो हे जीव ! जहांकह जौने साधनमें साहबनहीं हैं तौनेन साधन को तें सबकछु जानिलीन्हे है। सो जहां नहीं कहे जहां माया ब्रह्म ये एक हू नहीं हैं तहा साहबको तें पहिचानले निगुणकोी ध्यनि को कहे हैं तांमें प्रमाण ४“ ढकारःकीचितों ठक्का निर्गंणेच घ्वनावषि १५ णणा दूरि बसो रे गाऊं। रे णणा टूटे तेरे नाऊं॥ मुये येते जिय जाही चना। सुये यतादिक केतिक बना १६

कहिये निष्फलके! णा कहिये ज्ञानकी | सो हे जीव ! या धोखा बल्लको ज्ञान तेरो निष्फल है या ज्ञानते साहब मिलेंगे साहब को गाउंनो साकेत है

१-ड' श्री महादेव भय और शब्द में कहागयाहै

२-6? ढक्का गुगएहित और ज्ञब्दको कहतेहें

(४३२ ) बीजक कबीरदास

सो दरि बसे है सोरे निष्फल ज्ञानवारे मूढ़ जीव | दूटे तेर नाउं कहे वा थोखा ब्रह्ममें जंगे तेरोजीवत्व को नाउं टूटि जाइगो अथोव्‌ तेंहँ धोखा अह्म कहावन छंगेग। सो या ज्ञान में केतो मरिगये हैं औधना कहें बहुत जीव मुये जांहि हैं।ओ कैतेनने यही रीति मरिने हैं या धोखाबह्य निष्फलज्ञानते साहब

मिलेंगे निष्फलको ज्ञानको दहे हैं तामेंग्रमाण णकारः कीर्तितो ज्ञाने निष्फलेडपि प्रकीत्तित: १६ | + आशिक, आज 5 १... छा पे रद

तता आत त्रया नाह जाइ तन त्रिशुवनम राखु छपाई जो तन त्रिश्ुवन माह छपांवे।तत्त्वहि मिले तत्त्व सो पावे ३७

कहिये चोरकों ता कहिये सीगटकी पूंछको सो हे जीव! साहबते चोराइकै आंखी छपाइके सिंहनों साहब ताकीशरण छोड़िके सीगटकी पूंछनो धोखाबह्म तौनेको तें गहे सो अतित्रियोकहे भासमता तते कहे अत्यंत चारिड ओर व्याप्ि त्रिगुणात्मिका माया तोनों भरितिरी नहीं जाइईहै मुक्तिहोबे की कहाकहिये सो तनकदे अणुमात्र नो तें है ताको जिभुवनमें छपाय राखतिमै माया सो येने तेरे पांची तन हैं तिनको तें जिभुवनमें छपायदे अथीव चारिड शरीरहैं तिनको संसारी मानेठे में इनते भिन्नहों वा शरीर को अभिमान जो तें छॉँडिदे तो तत््व नो साहबको यथाथज्ञान कि में साहबकोहों तीोन जब तोको मिंले तब तत्त्व जे साहबहें तिनको पांवे। तत्त्व यथार्थ को कहे हैं तामें प्रमाण तत्त्व बह्म- णि याथायें॥ साहब तत्त्वकहवै हैं तामें परमाण॥ “राम एव परं तत्त्व राम एव- परंतपः ””॥ ता चोरको सीगटकी पूंछको कहे हैं तामे प्रमाण “' तकारः कीत्तितर्चौरः करोष्टपुच्छेपि तः स्मृतः '? १७ थथा थाह थहो नहें जाई। इह थोरे वह थीर रहाई थोरे २थिर रहु भाईह। विज थंभे जस मँदिल थंभाई॥१८॥

कहिये शिला समूहकी था कहिये रक्षाकों सो हे जीव! शिलासमूह जो मन जोनेके भयते अपनी रक्षाकरु कहेते थाहहे अर्थीत्‌ बिचार कीन्हे कुछ-

१--ण? ज्ञान ओर प्रयोजन रहित ( बेफायदा ) को कहतेंईें २-त! चोर और श्गालकी पूँछको कहतेहे

५:

चातीसी ( ४२३ )

बत्तु नहीं है परन्तु काहके थहाये नहीं थहाय जायहै शिलासमृह मनहे सो आगेपदमें कहिआये हैं “पाहनफोरे गंगयकनिकसी चहुंदिशे पातीपानी”” सो यह मनथिर होइ तो वह जीवह थिररहे ताते तें थोरे थोर साधन करु जाते मन थिर होइ जो साधन करेंगो तौ मन थिर रहेगो कैसे ? जैसे बिना धमकहे खंभा देवाउ और जो कौनो यशौवाली बात करे तौवह यश बने रहतहै ? मन्दिरथमे है ? अर्थात्‌ नहींयभे है अथवा थोरे थारे साधनकारे मन थिर केले जब मन थिर है जाइगो तब साधन करन परेगो। केसे जेते कौनों यशवार्वी बातकियों फिर वा यर रूप मंदिर बिना थम्मे बनारहे है। झिछासमूहकों रक्षाकोकहे हैं तामें प्रमाण “शिल्ो' चये थंकारस्स्थात्यकारोभयरक्षणे” १८

ददा[ देखो विनशनहारा। जस देखो तस करो बिचारा

दशो द्वारमें तारी लव तब दयालको दशेन पावे ॥१९॥ द्‌ कहिये कछत्रकों दा कहिये दानकों। सो हेजीव! या सबकहे यहलोंकमें

जो कलत्रादि वहलेोक स्वर्गादिक बिनशनहारा है अर्थात्‌ सब नाशमानहै सो जस देखो कहे जैसा नाशवान्‌ देखतहीं तैसा तुह आपने को बिचारकरों

|

कि, हमहू नाश है ने हैं | दशो द्वारकोी महा मुद्रा करि बंदकरि ताली छावे कहे समाधिकरे तबदयारु जे साहबहैं तिनको दर्शन तें पंविगो कलत्रकों द्वन को कहे हैं तामें म्रमाण॥ ''दंःकलते बुचैरुक्तो छेददानिषि दातरि!!॥ १५५॥

0 9.

धयां अंधे माहँ अँधियारी जस देखे तस करे विचारी

अधथो छोड़े उरध मनलावे। पार्मेटिके प्रेम बढ़ावैं॥२ ०॥

कहिये बंधनकी था कहियें धाताकी सोहेजीव ! मायाके बंधनमें परिक अपनेको धाताकहे ब्रह्मा मानिलियों है। सोहेजीव ! तें अप; कहे अधोग- तिडी अंधियारामें परो है तोकोनहीं सूझिपरे अज्ञानमें परो है सो जप हेखैंहै सुने है तेसही बिचार अज्ञान पूर्वक करेंहे सो तें करू अधो नो है अधो-

्न्क

१-थ' पवेत ओर सड्डूटसे बचाने को कहतेंहैं २-द खत्री, काटना, देना ओर दानकरनेवालेकों कहते हैं। शे८

( ४३४ ) बीजक कबीरदास |

गतिकी राह ताकों छोड़िके ऊध्वे कहें साहबके इहां जाबेकी नोराहहे तामेमन लगाड अपामेटिकि कहे जो आपन सब माति राख्यो है सो सबसाहबको मानिके आपनेहको साहबको मानिके भेमको बढठावै बंधनकों थाता को क- है हैं तामें प्रमाण “वो बेधने घनाध्यक्षे घाता धीमंहतावपि' २०

नना वो चेथेमें जाई रामको गदृह है खर खाई नाहछोड़ि कियेनकेवसेरा। नीचअजोंचितचेतुसवेरा॥२१॥

न्‌ कहिये गुणको ना कहिये निंदाको सो हेजीव ! तेंत्रिगुण में बँधिके तिन्दारूप द्वैगयों अर्थात्‌ निंदा करिबेल/यक दैकैमन बुद्धि चित्तमें अहंकार नो चौथ तामें परिकै अथीव्‌ आपने को ब्रह्ममानिकं रामको तें ढ्के अथीव्‌ तेंतो श्रीरामचन्द्कों है परन्तु अबरे में गइह! है खर खात फिरे है अथीव झुर ज्ञानमें परोहे सो नाह जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं तिनकों छोड़िंके नरकमें बसेराकियो सोहेनाच! अब सबेरो है अनहूं चेतु। गुणकी निन्दा- को यह हैं तारमेममाण “नेकारः स्ाहुगे चंरड+स्तुती मकीतितः”॥९१॥

रे कपिल ९5 हि छह

पपा पाप करे सब कोई पापके घरे धर्म नह हाई थपा कहे सुनहु रे भाई हमरेसेये कछ पाई २२

प्‌ कहिये ओष्ठकी पा कहिये रक्षककों | सो हेजीव | तें साहबके हेके औरे औरे देवतनको अ्ठ माने है रक्षक माने है। सो पापई करे है पापके किये- ते धर्म नहीं होयगो अंथीव औरे देंबतनके किये तेरी रक्षा होयगी काहिते पपा मेहेँ अ्रष्ठ रक्षक जिनके तें माने है तेई कहे हैं “हे भाई ! सुनो हमारे सेये कछू पावैगो, मुक्ति हमारी दीनि नहीं देनाइ मुक्ति श्रीरामचन्द्रही की दई दैजाइ है तामें ममाण ' मुक्तिमदाता सर्वेदा विष्णुरेव सेशय४?? विष्णु- श्रीरामचन्द्रकों नामहै सो हमारे सर्वैसिद्धान्तमें लिखेंहे ।प अहको रक्षकको कैंेंतामेंपमाण “परमे पसमाख्यातों पापाने चैव पातारे!! २९

१-ध' बाँधना; कुबेर, बढ बुद्धि और वायुकों कददतेंहें

२--न! गुण; चन्द्रमा और निन्‍्दामें कहाजाताहै

किक किम -म के चोक

३-“प' ओछठकों, 'पा! पीने; रक्नाकरनेंवाले और पीनेवालेकी कहतेई।

चोतीसी। ( ४३५ )

फफा फल लागो बड़ दूरी कर्ख सतग्रु देह तूरी फफा करें सुनुद्द रे भाई। स्वर्ग पताल कि खबारि पाई २३

कहिये फछको फा कहिये निष्फल भाषण को सो हे लीव! मोने फल- को तें भाषण करेहे कि ऐसोफछ होइगो सो या तेरों भाषणों निष्फछ है फल जे साहब हैं ते बहुत दूरि हैं सतगुरु जेहें जे साहब को जाने हैं तेईचासहैंव फल बे तारके काहको नहीं देहहैं काहे ते वे साहब मन बचन के परे हैं आपही ते आप जाने जाइ हैं आपनी दई इन्द्रि ते आप देखे जाइहें सतगरु जे बताँवै हैं ते साहबके मसन्न हेबेकी राह बतवे हैं सो हे भाई ! छोकनमें फल की चाहकरिके ।निष्फल के भाषणवाल़े ने गुरुवा छोगहें ते कहे हैं कि स्वर्ग पाताल मे साहब की खबरे हमहूं कहूँ नहों पाई अथाव्‌ साहब हुई नहीं हैं फल को ओऔ फा निष्फल भाषण को कहे हैं तामें प्रमाण “झंझावातिफेकारः स्थात्फ:फलेडपिपकीत्तित; फकारेइपि फश्मोक्तत्तथा निष्फठभाषण?!॥२३॥

वया बर बर कर सब कोई। बर वर किये काज नहीं होई

बबा बात कहे अरथाई। फलके मर्म जनिहु भाई २४

कहिये बरुणको वा कहिये घटकों सो बहुण जहछके भीतर रहै हैं ऐसे है जीव! तुहं बाणी के भीतर हक घटकी नाई भमक्रमकाइ बरबर सब कोई करोही सो बरबर के किये काजनहीं होइ है अथीव साहब नहीं मिलैहँ। सो हे बबा ! घटकी नाई भकमकान बारे बात तो बहुत अर्थायके कहे हैं परन्तु हे भाई ! छोकनके फलको मर्म नहीं जानोही ककि वा फल भोंगकरि कछुदिन में गिरही परेंगे बरुफफी कलशको करे हैं तामें मम[ण॥ “भ्रचेता बे: समाख्यातः कछशी घव उदाहृतः ”” २४

भभा मम रहा भरि पूरी भभरेते है नियरे दूरी भभा कह सुनो रे भाई समभरे आवे भभरे जाई २५

१-फ! आँधी, फल, अक्षर ओर, व्यथेभाषाकी कहतेंदें २--ब” बरुण ओर कलशकों कहतेंहें

( ४३६ ) बीजक कबीरदास |

कहिये आकाश शून्यकी भा कहिये श्रमणकी सो हे जीव ! भरिबों 0 पे 3 कहाँवे है, डेराबो धोखा या ज्यीहे मतन में फल शून्य है तेही मतनमे तें

8 कर |

श्रमण करि रहे है कहे सो विचार को भ्रमण तेरे पूरिरहो है, सो तोको गुरुवा छोग साहबते डेरवाइ दियो धोखा में छगाइ दियो सो तोको डरही डर सर्वत्रदेखो परे है जब आंवै कहें जन्महोरहै तबहू भभेर आँवेहे कहे डरेंमें आविहे जब जाइहै तबहूं भभरे कहे ढरेंमें जाइहे वोह नानामकारके दुःख होहहें | सों या भभरे ते नियरे जे साहबहें ते दूरिद्वेगये सो भभनेहें धोखा ब्ल्नके श्रमणवाले तेई कहें सो हे भाई ! सुनो श्रमेते अविहे श्रमते जाइहे महा- अल्यमें छीनहोइहै पुनिसृष्ठि समयमें संसारमें आये है आकाशकों भश्रम- णक्रो कहेहँ तामेंपमाण “' नक्षत्र म॑ तथाकाशेश्रमणेनः प्रकीत्तित: दीपमि- भामस्तथाभममिर्भमियेकथिता बुबें; *" २५

म्मा से ये मर्म पाई हमरते इन्ह घूल गंवाई

ममा मूल गहल मन माना।मर्मी होइ सो ममेहि जाना॥२६॥

म्‌ कहिये रक्ष्मको मा कहिये बन्धन को सो है जीव तें छक्ष्मीके बन्धन में परिके ऐद्वर्य में परिके साहब को मम्मे तू पापों हमरेते कहें यह सब हमारहै कहे यह बिचारते यह सब साहब को पहन जानेइहै आपनमानतें

इन्हमूलठ जे साहब हैं तिनको गवइदियों सो हे ममा ! मायाबन्वनमें बँधो जीव ! जीन तेरमन में मानाहै ताहीकी मरूमानि गहिलीन्होंहै सो तें मल पायों- काहे ते कि मर्मीकहे जो कोई साहबकी मर्म्मीहोई हैं सोई साहव के म्मकों जूनिहै। लक्ष्मीकी बन्धनको कहे हैं तामें ममाण में; शिरश्चन्द्मा

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बेधा मा लक्ष्मी: प्रकीत्तिता। मरच मातरि माने बन्धने मः पकीत्तित::":॥२६॥ यया जगत रहा भारे पूरी जगतहु ते यया है दूरी यया कहे सुनो रे भाई हमरे सेये जय जय पाई ॥२०॥

१-भः भ॑ उक्षत्र और आकाजश्को,“भः? घूमनेकी:'भाः' ज्ञोभाको'भी? डरकोकहते हैं २--म' झिर, चन्द्रमा) ब्रह्मा; माता, तोल, ओर बांधनेकी कहते हैं “मा? लक्ष्मीको कहते हू

चीतीसी (४३७ )

कहिये त्यागकों या कहिये प्राप्तको सो हे जीव! त्यागतें नामसंनन्‍्यासते भाप्तने साहब होई हैं ते साहक जगत्‌ में पूरिरहे हैं नोन भारिपूरिकह्यों सो साह- बकी सौलभ्यगुण दिखायो जनि ताकों जगवते दूरिहे अथोव बाहरहे ते यया जे साहबहें ते कहै हैं कि, हे भाई ! सुंनो हमरे सेयेते कहे हमरेन सेवाति सबकी जय करनेवारा जो काल ताहूते नयपावै ओरी तरहते काछते जय नहीं पावे है साहब त्यागहीते मिलें हैं तामें प्रमाण दोहा 'बिगरीनन्म अनेक- की सुधरे अबहीं आम होय रामको रामनपि तुलसी तनि कुसमान'” य्‌ त्यागकी प्राप्त को कहे हैं तामें प्रमाण॥ यमोय॑ः कीर्तितः शिष्टेयों वायुरिति विश्वतः याने यातरि या त्यागेकथितः शब्दवेदिभि4” २७

ररा रारे रहा अरु झाई राम कहे दुख दारिद जाईं ररा कहे सुनो रे भाईं। सत गुरु पूंछिके सेवहु आई ॥२८॥

कहिये कामकी कहिये अग्निकी सो हैं जीव तें कामामिमें अरुझे रहो है तामें जरो जाइहै यामें दुःख दारिद जाइगों रामनाम कहेते दुःख दारि द्रनाइहै सो हे भाई ! सुनो रराकहे रसरूप जे साहब तिनको ज्ञानागरिति कर्म छायके सतगुरु जे साहबके जाननवारें तिनसों समुझिके रामनामकों सेवहु रामनाम के सेवनकी युक्ति बझिके रको काम अर्थ छोड़िके कामको ओो आधि- को कहे हैं तामें मरमाण “रच कामे5नले सूर्य्य रुश्न शब्दे प्रकीर्तित:ः ॥२८॥

लला तुतरे बात जनाई ततुरे पावे परचे पाई

अपना ततुर और को कहई। एके खेत दुनो निरवह३ई॥२९॥

कहीं इन्द्रकों छा कही लक्ष्मीको सो हे जीव! तें इन्द्रकी नाई लक्ष्मी पाइके तत्त्वकी बातें जनाविहे सो तत्त्व तब पाविगो जब साधुनते परचे पाविगो | सो है जीव ! “तत्त्वंराति गृह्तीति तत्त्वर:” अपना तत्त्व जेह यथा साहब तिनको नहीं जानेहे ओर औरको ज्ञान सिखवै हे सो एकखेत जोहे एकहूदय तेरो तामें दोनों नि हैं अर्थात्‌ का दोनों निबहें हैं! नहीं निब है हैं कि, तें

नी बनोरहे है। और को ज्ञानकये है तोंका और के ज्ञानलंगे है! नहीं रंगे- है। जो तेंहू ज्ञानीहोहहै तो तेरो ज्ञानी कथिबो औरको छंगे जौ जो ततुरे पाठ

१-य! यम) वायु; “या? सवारी) बानेवाले और छोड़नेकी कहंतेहें | २-२! कामदेव, अभि और सूयेको कहंतेहें। “रु! शब्दकरनेमें होताहै

(४३८ ) बीजक कबीरदास |

होंइ ते याभर्थ है। “छा इन्द्रकों छेदतकोकहै हैं। सो हें जीव! नो यज्ञादिं- ककरे इन्द्रादिक देवतनके संतुश्के वास्ते पशुछेदन करोहो सो वेद या तुतरे- बात जनाई है नेसे छारेका रोश्ैकाो यो्थेंकहेह्दै परन्तु माता तात्पर्य जाने है कि रोटिही मांगे है। ऐसेवेद जो यज्ञादिक कहे हैं सो दुष्कर्म छड़ाइके यज्ञादिक में छगायों फेरिज्ञानदेके येऊकर्म छुड़ाइके तात्पयते साहबकों बतावे हैं सो तुतर नो है वेद तौनेको अर्थ तब पांव जब वाके तालये को पावे सो आपतो तुतरहै बेद परदा कैके बात कहै है सब जीवनको कहे हैं के, जीव औरकों औरई कहे है मेरो तात्पय नहीं समसैहै सो एके खेत जो संसार है तामें दूर्नों निबहै हैं” अथवा साहबके इहां वेदनहीं पहुंचि संकेहे प्रकट वर्णन कारे सकेहै तात्पर्यही करिके कहे है लगत कम याही- कौ प्रकट बेन करेंहे ओजीवजेहें ते जगतही में परे रहै हैं ने तात्यय जाने हैं तेई साहबके समीप पहुंचे हैं ताते वेदी जीवों एक खेत नो जगत है ताही- मों निबहे हें जो जगत रहे तो बद्ध विषयी मुमुक्षई रहिनायें मुक्तभारें रहिजायें चारिड वेद रकारमकार में रहिनायेँ इन्द्र को रक्ष्मी को छेदन को कहेहें तामें पमाण 'ले इंदों छवनो छश्व छा लक्ष्मी: प्रकीर्ततिता:'॥२५॥

ववा वह वह कह सब कोई। वह वह कहे काज नहि होई ववा कहे सुनो रे भाई।स्वग पताल कि खबारे पाईं ३०

वकहिंये भक्तको वा कहिये वायुकी से हेजीव! तें तो साहबको भक्तहै वायु की नाई जगवमें बहतफिरोहौ ! वहहै इंश्वर, वहहे ईइबर या कहा सब कोई कहौहौ सो वे नाना ईदवरनके कहे काज कहे मुक्ति होइहै | सोहे वा कहनेवारें भाई ! सुनते जाउ तुम स्वर्ग पाताछ॒की खबरि नहीं पाईं अर्थात सबके रखवार साहबको नहीं जानो हो तामें पमाण स्वर्गंपतारूममिलोंबारी

एक रामसकल रखवारी वा सात्वतको ओवायुको कहे हैं तामें प्रमाण सात्वतेवरुणे वातिवकार:समुदाह्तः ”” ३०

शशा सरदेखे नाहिं कोई सरशीतलता एके होई

शशध्खहेह्दो रेभाई शन्यसमान चला जगजाई ॥३१ १-ल” इन्द्र और काटनेवाले को, “छा? लक्ष्मीको कहते हैं। | २-व सत्वगुणी, वरुण और वायुको कहतेहें

शकहिये सुखको शाकहिये शेषकों सो है जीव! तैंतो सुखसागरने साहबहें तिनको शेषहै अर्थीत्‌ अंशहै सो सुखसर में साहब हैं तिनकी तुमकोई नहीं देखेंहें कैसो है वा सर कि जाकी शीतछूता एकई है वा शीतछता पावे फिरि जनन मरणनहीं होइहे सो शशा ने साहवंके शेषसाधुहं तेकहे हैं कि निनको अंशनीव तिनकों नहींजाने है शून्यनों धोखाब्ह्म ताहीमें नगव समानजाइहै। शेषको सुखकों कहे हैं “वदन्ति श॑ बुधाः शेषे शः शांततव निगद्यते॥शरच शयत- मित्याहु: हिंसा शः समृदाह्नतः ३१

कक कर 4

पषा परपर कहे सब कोई पर पर कहे काज नहीं होई

षषा कहे सुनोरे भाई राम नाम ले जाहु पराई ३२॥

प्‌ कहिये श्रेषधका सो पा दूसरी है सो हैं जीव ! श्रेष्ठोत श्रेष्ठने साहबरहें तिनको परपर सांचसांच से कहे हैं औरेकी खोटामने हैं परंतु पर पर कहेते कान जो है मुक्ति सो होगी बिना रामनामके साधनकीन्हे | विना नीकी प्रकार साहबके जाने। काहेते पषा कहे अ्ठीते अष्ठ ने साहब हैं ते कहे हैं कि, हे भाई ! सुनो ! तुम राम नामको लेके मायात्रह्म ते पराइ जाउ अथीत्‌ सब को छोड़िके रामनाम जपी ओअष्ठको कहे हैं॥ “पैकार:कीर्तितः अष्ठपु-

₹ु 9

इचगर्भावेमोचने” २०१ ससा सरा रचो वरिआई सर वेधे सव लोग तवाई

ससाके घर सुन गुन होई। यतनी वात जाने कोई ३३॥

स॒ कहिये छक्ष्म को सा कहिये परोक्षको सो हे जीव ! तेरों ऐश्वस्थ परोक्षमें है अर्थात्‌ साहबके यहां है या देखबेकी लक्ष्मी तेरी नहीं है सो तें सरा- जीकर्म है ताको बरिआई रचिलियो सो वाही सरारुपीशरहे कहे कमेरुपीशरमें लोग बेधे हैं ते सब तवाईमें परेहैं नरक स्वगेमें नाय आँवे हैं। सो ससा जो जीव ताके धर कहे हृदयमें काहुको शून्यक्हे धोखा ब्रह्म समान है, काहूके गुण जो

१-ज्ञ' ज्॑ं- सुख, मड्ल, श- शेषनाग, ज्ञान्त प्रकृति, सोना ओर हिंसाकरने को कहंतेहें २-४? श्रेष्ठकी और “बृ” गर्भेसे प्रणीकी उत्पत्ति होनिको कहतेहें

(६ ४४० ) बीजक कबीरदास

माया सो समानेहे सो यतनी बात कोई नहीं जानिहे कि, येई नाहब के चीन्हन देइहें छक्ष्मीकी परोक्षको कहेंहें ''सःपरोक्षे समार्यात:- स्ताच उक्ष्मी-मकीर्तिता'' है रे रू वर | इज हक आर

हहा होइ होत नहिं जाने जबहीं होइ तब मन माने हे तो सही लह्ठे सब कोई ।जब वा हो तब या नहीं होई॥३४॥

कहिये बिष्कम्भकी हा कहिये त्यागकोी सो हे जीव या बिष्कम्म शरी- रको त्यागहेत कोई नहीं जाने है। जब शरीरत्याग द्वैनाइ है तबहीं नानेह कि, शरीरत्यागहैगयो जामें जीव थेभारहंहै सो शरीरमें हंसरूप सही है। ता जीवको। परंतु सबकोई नहीं छंगेंहे कहे नहीं पावेंहे। जब वा हंसशरीरहोइ जब या शरीर- नहीं होइहे वाही हंसशरीर में येभारह है विष्कम्भको त्यागको कहे हैं तामें अप्राण “हंःकोपवारणे प्रोक्तों हस्स्यादपे झूंछिनि हानेषि ह: प्रकथितों ही विष्कम्भः प्रकीत्तित:” ३४

67%... ह:०... श्र कक किक श्‌

क्षक्षा क्षण प्रलय मिटि जाई क्षेव परे तब को समुझाई

क्षेवपरे कोउ अंत पाया।कह कबीर अगमन गोहराया ३५ क्ष कहिये क्षत्रकों क्षा कहिये वक्षस्थलकी सो हे जीव ! तें क्षत्रपति ने श्रीरामचन्द्रहैं तिनको बक्षस्थलूमें तो ध्यान करु तो तेरी पछय जनन मरण क्षणमें मिटिनाई जब क्षेव कहे तेरो शरीर क्षय है नाइगो तब तोको को मुझाँवेगो क्षेव परे कहे शरीर क्षय द्वैंगेये कोऊ अंत साहबको नहीं पायो है। सो कबीरजी कहे हैं कि, याहीते तोकों हम आगेते गोहरावै हैं कि फिरि क्या करेगो क्ष क्षत्रकों वक्षस्थठकों कहे हैं तामें प्रमाण ' क्षइच क्षत्रे क्षत्रपतौक्षो वक्षसि निगद्यते” क्षत्रकहे क्षत्रपतीकों बोधहैलाइ मैसेबर कहें अलूरामको बोध्वनाइहै ३५ | इति चौंतीसी संपूर्री १-स' आरके पीछेकी बात और लक्ष्मीको कहते | (.... है! कोधकेरोकने और शूल्युक्तका कहते हैं छोड़ने और रोकवेकोभी कहतें हैं। 5 औ-क्ष! दु'खसे बचाने वाले और छातीको कहते है।

सत्पुरुषाय नमः

अथ विप्रमतीसी

मा #9० थे

4० #

सुनहु सन मिलि विप्र मतीसी।हरि बिल बूड़ीनावभरीसी ब्राह्मण ढेके बह्म जानें। घरमें यज्ञ प्रतिमह आने ॥२॥ जे सिरजातेहि नहिं पहिचानें।कम मम ले वेठि बखानें ३४ अहण अमावस सायर पूजा।स्वातीक पात परहु जनिदूजा प्रेत कमे सुख अंतर बासा। आहति सहितदोमकीआसा« कुल उत्तम कुल माहकहावैं।फिरिफिरे मध्यमकमकरावें कमे अशुचि उच्छिएे खाहीं।मति मारेषयमलोकहिजाही७ सुतदारा मिलि जठो खाहीं। हरिभगतनकी छूतिकराहीं८ न्हायखोरि उत्तम ह्वे आवें।विष्णुभक्त देखे दुख पा4॥९% स्वार्थलागिरहे वे आद़्ा | नामलेत जस पावक डाढ़ा० रामकृष्णकीछोड़िनिआसा।पढ़िगुणिभयेकृत्तिमकेदासा 3 कमकराह कर्माहको धार्वे।जो पूछे तेहि कमेहढ़ावें ॥१२॥ निष्कर्मके निन्‍दा कीजे | करेकमेताही चितदीज ॥१३॥ असभगती भगवतकी लावें।हरिणाकुशको पन्थचलावे३४ देखहुकुमतिनरकपरगा[सा।विनुलखिअंतरकिरतिमदासा ३७ जाके पूजे पाप ऊड़े नाम सुमिरितिभवमेंबूड़े ॥१६॥

(४४२ ) बीजक कवीरदास

पापपुण्यके हाथेहिपासा। मारि जगतको की न्हबिनासा३७ येबहनी दोऊ बहाने छाड़े।यहगृहजारें वहगह माड़े॥ ८॥ बैंठेते घर शाहु कहावे। भितरभेद्मनसुसहि लगावे ॥१९॥ ऐसीविधि सुरविप्र भनीजे।नामलेत पंचासन दीजै ॥२०॥ ऊंचनीचक हुकाहिजोहारा!बूड़िगयेनहिंआपुर्सभारा॥२१॥ ऊंचनीचहे मध्यमबानी एकेपवन एकहे पानी २२ एकंग्राटियाएककुम्हारा एक्सवनकासिरजनहारा ॥२३॥ एकचाक वहुचित्र वनाया।नादविदुके बीच समाया॥२४॥ ब्यापीएकस्कलकी ज्योती नाम घरे क्याकाहिये मोती२५ राक्षसकरणी देवकहावे | वादकरे भवपार पावे २६॥ हंस देह तजि न्यारा होई ताकी जाति कहे थों को ई॥२७॥ ब्यामसुपेतकि,रातापियरा। अबरणवरणकिता[तासियरा२८ हिंदू तुरुक कि बूढ़ा वारा।नारि पुरुष मिलि करो विचारा२९ कहिये काहि कहा नाहिं माना।दास कबीर सोई पहिचा ना साखी-वहा अहे बहिजातुहे, करगहि ऐंचहु ठोर। समुझाये समुझे नहीं, दे घक्कादुइ ओर ३१

सुनहु सबनमिलिविप्र मतीसी।हरि बिन बूड़ी नाव भरीजी ब्राह्मण हेके ब्रह्म जानें घरमें यज्ञ प्रतिग्रह आनें॥ २॥ जे सिरजातेहि नहिंर्पदिचानें।करमभरम लेबेठि बखानें॥ ३॥ अहण अमावस सायर पूजा|स्वातीके पात परहु जनि दृजा

_ विम्रके वर्णनमें हम तीस चोपाईं कहे हैं सो सबन मिललि सुनते जाउ केसे आह्षण हीतभये कि, निनको जन्म हरिबिता भरी नाव ऐसी बूड़िगई

विभमतीसी ( ४४३ )

ब्र्नईके जानेते ब्राह्मणकहाव है से ब्रह्म को तो जान्यों यज्ञादिकनके प्रति- ग्रह परमें लेआवै हैं आदिते दानों आयो जोन उत्पत्ति कियो है ताकों तो जानतई नहीं हैं कर्मकाण्डकी भरम नाना प्रकारके बेठिके बखाने हैं ३े सों हे दूना कहें दुःखग्रहणमें अमावस में सायर कहे समुद्रादिक तीथन में नैते स्वाती के जलकों पपीहा दौरे है ऐसे तुम्हीं महण अमावसमें समुद्रादिक तीयेद में दान लेन को ताके रहो हौ परन्तु आशा नहीं पूनै है

प्रेत कर्म सुख अंतर बासा। भाहुति सहित होम की आसा&

कुल उत्तम कुल माह कहावैं।फिरि फिरि मध्यम कर्म करावें मुखते भेत कम करवे हैं कि, ऐसो पिंडदान करो ते प्रेतत्व छूटिनाइ। अंतःकरणमें या आशा बस है कि, जो या होमकरे तो हम दक्षिणा पांव ब्राह्मण तो बड़े उत्तमकुछके कहावै हैं कि, हमबढ़े कुलके हैं परंतु फिरिफिरि कहे वारबार मध्यम कहे नरक जायवाके कर्मकरवै हैं कर्म अशुचि उच्छिषटे खाहीं।माति भरिष्ठ यमलोकहि जाही$ सुत दारा मिलि जूठो खाही।हरिभगतनकी छति कराहें न्हाय खोरि उत्तम है आंवें। विष्णु मक्त देखे दुख पांव ॥९॥ नाना प्रकारके अपावनकर्म्म केंके भैरव दुरूह| देवादिकतकों उच्छिष्टखाय हैं सो मतिश्रष्टहैंके यमछोकहि जाइहेँ॥ तेने मेतनको जूठसुत दाराकहे पुत्र ख्री त्यहि समेत सब मिल्लि खाइहैं हरिभक्तन की छूति माने हैं नहा खोरि कै आपने जान पतित्रहै आयें भिनके दरनते पवित्र होयहैं ऐसे बिष्णुभक्त तिनको देखिके द्‌ःखपावै हैं। बढ़े तिरकदिये शह्ठ चक्र दीन्‍्हे कहां रहे उनको मुख देखैंगे तो पापछंगे है या कहे हैं ९५ स्वार्थ लागि रहे वे आढ़ा। नाम लेत जप्त पावक डांढ़ा राम कृष्णकीछोड़िनि आसापढ़ि गुणिमे किरतिमके दासा अपने खी पत्र यहीके स्वार्थ में वे अथे आदति छगायरदे हैं निनके अंश हैं रेसे जे श्रीरामचन्द्रहें तिनके नामलेतमें मानों नीम पावकर्में नरी जाइहै ॥१०॥

(४४४) बीजक कबी रदास |

रामकृष्णजे हैं तिककी आशा छोड़िके पढ़ि गुणिकै किरतिमकहे आपनी बनाई मूर्ति अथवा किरतम माया तिनको दास कहावे हैं ११ श्र 6 है 6०५ अक वि पूछे ७०००७ * 3 वें कर्म करहिं कमेहिको ध॒विं। जो पूछेत्यहि कम हृढ़वें॥१२॥ | का कर कुण की रू ०. /+ निःकर्मीकि निंदा करहीं कर्म करे ताही चित घरहीं॥१३॥ वें हा ५. $ + अस भक्ती भगवतकी लावे।हिरणाइुशको पेथ चलावे३४॥ कम नाना मकारके करे हैं कर्मफ नो स्व॒गोदिकनकों भोग ताहीको धवे हैं नो कोई मुक्तिहकी बात पूछे है ताको कर्मही दृढ़वे हैं १२ का कक 4 करे फक आय. 8. क्रै चह निःकर्मी ने साथु हैं तिनकी तो निन्‍्दा करे हैं कोई कमेकरे है ताक़े सत्कार करें हैं १३ स्रो या रीतिते भगववकी भक्ति करे हैंया कहे हैं . कि ईशबर तो अजा गछ थनकी नाई है बाते कीन कामहोय है। कोई हिरणाकुशको पंथ तामसी मत चढव हैं कहै हैं कि हमहीबह्नहैं ऐसो दैत्वनकों ज्ञानहे तामें प्रमाण “ईइबरो5हमहमोगी पिद्धो5ह बरवान्‌ सुखी आश्लों- भिजनवानस्मि कोन्यो5स्ति सदशों मया १४

देखहुकुमतिनरकपरगासाविनुलखिअंतरकिरतिमदासा १५ सो या कुमतिनको प्रकाशते देखो बिनु अन्तरके छखे कि हम कीौनके हैं या बिनानाने किरतिम जो माया ताके दास है रहे हैं रक्ष ड़्को माने रक्षा कौनकरे १५ जा की: किक [पक > पप बूड़े जाके पूजे पाप ऊड़े। नाम समिरितें भवमें बूड़े॥ १६॥ पापपुण्यकेहाथहिपासा मारिजक्तसबकीनविनासा॥१७॥ ये वहनी दोउ बहनिनछाड़ै।यहगृह जारे वहगृहमाड़ें॥१८॥ जैने देवताके पूनै पापछूटे ना मुक्तिहोइ तेई देवतन को पूनैहें उन- हींको नाम सुमिरे सुमिरि संसारमें बूड़े हैं १६ जी नाना प्रकारके कम बताइके पाप पृण्य रूप फांसी डारिकै जगतको विनाश करिदेत भये १७ कोई ब्रिप्त मे हैं ते बहनी कहे संसारमें बहनवारी जो विद्या अविद्या माया पाप पृण्य रूप ताको बहनिन कहे ठोवनवारों जो बिप्र सो ऊपरते छांड़िके यह गृह जारिके कहे छांड़िके बहगृह कहे वहांके महन्त भये ध्यान छगायके बैठे १८॥

विप्रमती सी (४४५ )

बैठेते घर शाह कहावें मितर भेद मन सुसहि लगावें॥ ९॥ ऐसीवीवे सुर विप्र भनीजे। नामलेत पंचासन दीजे॥२०॥ बूड़िगयेनहिआपसेभारा।ऊंचनीचकहुकाहिजोहारा॥२१॥ ऊंचनीच है मध्यमवानी एके पवन एकहे पानी २२॥ एके मटिया एक कुम्हाराएक सवनको सिरजनहारा॥२३॥ एके चाक वहुचित्र बनायानादविन्दुके वीच समाया॥२४॥

छा + को

सो ऊपरते ऐसो ध्यान छगायके घरमें बेठे बड़े साधुकहाें अन्त+करण में मनते पराई दव्य मूसैकों भेद लगाये हैं १९ सोयहि रीति विमनके सुरतकी विधिकहे हैं नामको लेइहें कहे मन्त्रजपे हैं पंचासनकहे पंच आसन देइहे अथीत्‌ पंचांगेपासना करे हैं २० सो आप मायाकी धारमें बूड़िगये सँभारत भये तो ऊंचनीच कहे पांच देवतनमें काको जोहारयो कहे काकिभये अथीत काहूके भये २९ सो बिप्रनको उत्तम मध्यम नीच बाणी करिके हेइहैं बास्तव तो सबके शरीरनमें एके पानी है एके पवनहै २९ एके सबकी मार्टहि कहे सब पांचभोतिक हैं सबके सिरननहार कुम्हार मन ऐकैंद्ै २३ एकचाक जो जगवहे तामें बहुत विषिके चित्र बनावत भयो मन नाद बिन्दुके बीचमें आप समातमयों २४

व्यापी एक सकलमें ज्योती।नामघेरकाकहियिमोती॥२०॥ राक्षकरणी देवकहावे दाद करे भवपार पावे २६॥ हँस देह तजि न्यारा होई।ताकी जाति कहे थों कोई २७॥ ज्यामसुपेदकि,रातापियराअवरणवरणकितातासियरा२८

सो एक ज्योति जो आत्मा सो सबमें व्यापि रही है ब्राह्मण नामपरथो सो ताहीते मोतीकही अथीव्‌ कही बिना ब्रह्म जाने बाह्मण नहीं कहावे हैं २५॥ करणी तौ राक्षसकी नाई करे हैं जगतमें ब्राह्मण देवता भूसुर कहवै हैँ

( ४४६ ) बीजक कबीरदास

बादविवाद नानाप्रकारके करेंहें परंतु संसार समुद्रको पारनहीं परविहैँ॥२६॥ सो हंसनों जीव है सो देहको त्यागिंके न्यारों हैनाइ है ताकी जाति कोई कहे तो वह कौन बणेहे ब्राह्मण क्षत्रिय वैद्य शृद्र २७ वह आत्मा कि, श्याम है कि सुपेद है कि छालहै किपियरहे कि अवर्ण है कि वर्ण में है कि गम है के शीतल है २८

हिन्दू तुरुक कि वृढ़ावारा।नारिपुरुष मिलिकरह विचारा२९ काहिये काहि कहा नाहें माना।दासकबीर सोई पहिचाना३०

साखी। वहि है वहि जातुहे, करगहि ऐंचहु ओर समुझाये सझुझे नहीं, दे घका दुइ ओर ३१

पुनि हिन्दू है कि, तुरुकहै कि बूढ़ा है कि छडिकाहै या नारि पुरुष मि- लिंक सबनने बिचारकरों २९ सो या बात कासों कहों कोई नहीं मनिहे सबके रक्षक मे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रहं तिनको दासकबीर क्है हैं कि, में सोई पहिचान्यों है कि उनको अंशनीव है वे स्वामी हैं ३० या जीव ओरे में छगिके बहत आयो है बहा भाइ है सो करगहि कहे एकबे- डपदेशकरिके और ऐंचो हों कि साहब में लागु समझावत आयो हैं समु- झाबतहों नो समुझाये समुझे तो छाचार हैके दुइ धका और महू देदेँ कि बहा जाय ३१

इति विप्रबर्तासी सम्भणों

3*+ अथ कहरा प्रारमभ्यते

«श्यय्य है 9 देर दप-न-»

कहरा पहिला

सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु गुरुके वदन समाई हो मेली सिष्ट चराचित राखो रहो दृष्टि लोलाई हो १॥ जो खुटकार वेगि नाहें लागो हूदय निवारहु कोहू हो ! मुक्तिकी डोरि गांठि ज॑नि खेंचो तव वाझी बड़ रोहू हो॥२॥ मन॒ुवो कहो रहे मन मारे खीझयो खीज्ि बोले हो। मन॒वे मीत मिताइ छोड़े कब॒हूं गांठि खोले हो ॥३॥ भूलो भोग मुक्ति जनि भरे योगशुक्ति तन साथो हो। जो यहि भांति करहु मतवारी ता मतके चित बांचो हो॥४॥ नाहिं तो ठाकुर है अति दारुण करिंहे चालु कुचाली हो | बांचि मारि डारि सब लेहे छूटी सब मतवाली हो जबहीं सामत आइ पहुंचे पीटि सांद भल टटेहदो। ठाढ़े लोग कुट॒म्ब सब देखे कहे काहु किन छूटेहों॥ ६॥ एक तो अनिष्ट पाउं परि बिनवे बिनती किये माने हो अन चिन्ह रहे कियो चिन्हारी सो केसे पहिचाने हो॥»॥ लेइ बोलाय बात नहिं पूछे केवट गर्भ तन बोले हो जेकारे गांठि सबलू कछ नाहीं निराधार द्वे डोले हो॥८॥

( ४४८ ) बीजक कबीरदास

जिन्ह सम युक्ति अगमनके राखिन घरणिमांझचपर डे हरे हो जेकरे हाथ पाउं कछु नाहीं घराणि छाग तनसे हरि हो॥९॥ पेलना अक्षत पेलि चलु बोरे तीर तीर कह टोवह हो उथले रहो परो जाने गहिरे म॒ति हाथे के खोवहु हो ॥१०॥ तर के घाम उपरके भ्रूभुरि छांह कतहुँ नहि पावहु हो। ऐसो जानि पस्ीजहु सीजहु कस छतारिया छावहु हो ११ जो कछु खेल कियो सो कीयो वहुरि खेल कस होई हो। सासु ननंद दोड देत उलाटन रहहु लाज सुख गोई हो ३२॥ गुरु भो ढील गोन भो लचपच कहा मानेहु मोरा हो ताजी तरुकी कबहु साजेहु चढ़चो काठके घोराहो॥१३॥ ताल झांझ भर वाजत आबे कहरा सब कोइ नाचे हो जेहि रँग दुलहा ब्याइन आये तेहि रँग दुल॒हिन राचे हो १४ नोका अछत खेंबे नहिं जान्यो केसे लागहु तीरा हो

कहे कवीर राम रस माते जोलहा दास कबीरा हो ॥१५॥

सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु गुरुक बचन समाई हो म्रेली सिष्ट चराचित राखो रहो दृष्टि लो छाई हो . श्रीकबीरजी कहे हैं |कि, हे जीव ! तें गुरुके बचनमें समाइके सहज ध्यान तें करुगुरके बचन जो आगे छिखि आये हैं कि, सुराति कमलमें गुरु बैठे रकार मकार जप हैं तामें समाइ जाइ अथोंव दुरूदलमें बाढ़िके इकीस हजार छसे श्वास जे बढ़े हैं तिनमें तेतने राम नाम जप कौनी रीतिते जप तामें परमाण॥ श्री कबीरनी को पद

कहरा ( ४४३ ) षट चक्र निरूपण ! है संतों योग अध्यातम सोई एके ब्रह्म सकछ घट व्यापे दतिया ओर कोई प्रथम कमछ जहँ ज्ञान चारि दर देव गणेशको वासा रीपे सिधि जाकी शाक्ते उपासी जपते होत प्रक्रासा पट दर कमर ब्रह्मकोी बासा सावित्री सँग सेवा घट सहस्र जहँ जाप जपतहैं इंद्र सहित सब देवा अष्ट कमल जहँ हरि संग लक्ष्मी तीजों सेवक पवना पट सहस्र जह जाप जपतहेँ मिटिंगो आवा गवना द्वादश कमछमें शिवकी बासा गिरिना शक्ती सारेंग पट सहस जहँ जाप जपत हैं ज्ञान स॒रति ले पारँंग पोडश कमल में जीवको बासा शक्ति अविद्या जाने एक सहस जहेूँ जाप जपतेोें ऐसा भेद बखाने भर्वेर गुफा जहूँ दुइ दल कमला परमहेस कर वासा | एक सहस जाके जाप जपतहें करम भरमकों नासा « सहस कमलमें झेल मिल दर्शों आपुई बसत अपारा ज्योति स्वरूप सकल जग व्यापी अक्षय पुरुष है प्यारा सुराति कमछ परसत गुरु बोड़े सहन जाप जप सोई छासे इकइस सहसहि जापेले बूमे अजप्रा कोई यही ज्ञानकों कोई बूझे भेंद अगाचर भाई।

आप

जो बूझे सो मनका पेखे कह कबीर समुझाई

यही रामनाम मनबचनके परे है सो आगे कहि आये हैं और सब मनके

रे है यही रामनाम सबके ऊपरहे ताहीमें मत तबहीं पारे जाउगे मेली सिष्ट कहे सिष्ठनों संसार ताको मेलि देउ कहे छोड़ि देउ। चरचिंठ

राखों कह सहन समाधि आगे कहि जाये हैं ताकों चराचित राखो कहे वई

जानतरहु अथवा वाहीमें जो आपने चितकों चरा कहे चलत राखी दृदृदृ« ५९,

भित

( ४५२ ) बीजक कबीरदास

यकतो अनिष्ट पांय परि बिनवे विनती किये माने हो अनचिन्ह रहे कियो चिन्हारी सो केसे पहिचाने हो एक जे साहब हैं सबके रक्षक तिनते ये अनिष्ठ रहे कहे उनको इृष्ठ मानत रहे वहां यमदूतनसों पांय परि पारे विनवै है, सब देवतनते विनबे है, बिनतीह किये नहीं मानेहें। काहेते कि, दयाहीन हैं साहब जे दयालु छुड़ावनवारे तिनरसों अन चिन्हार रहै चिन्हारी कियो सो कैसे अब प्हिचाने भाव यह है कि जो, अजहूं स्मरणकरों तो साहब छुड़ाइही छहेइगा _ लेइ बुलाय बात नहीं पूछे केवट गर्भ तन बोले हो। + 4 कर जेकरी गांठि सवल कछु नाहीं निराधार हे डोले हो८ केवट जे गुरुवा छोंगहें ते तब तो गर्भ कहे अहंकार तनमें केके तुमको बोछाय आपने मतमें मिलाय ढीन्हेनि | अब जब यमदूत मारन छगे तब तुमको बात नहीं पूछे हैं | गुरुवा छोंग सो जाके सवछ कहे खचे राम नाम रहो सो पार भयो जाके राम नाम सबहू कछु नहीं रहो सो निराधार कहे रक्षक रहित यमपुरमे डेलिंदे अथवा निराधार नो बह्मय ताहीम डेलिहे॥ ८॥

जिन सम युक्ति अगमनके राखिन घराणि मांझ घर डेहरिहो। जेकरे हाथ पाएँ कछ नाहीं धरन लागु तन सेहारे हो

कक

जौने ख्री पुत्रादिकन को नाना युक्तिकेके पाछन कियोहै तोन घरणि कहे ख्री शरीर छूटे डेहरी भारे जायहै आंगे नहीं जायहै सम जो पाठहोय तौ जिनका अपने सम बनाय.राखिन तोन ख्री डेहरीछों पहुंचाई है | ध्रुनिते या आयो कि पुत्र चिता ढों जायहे सो जेकरे हाथ पा्ें कछु नाहीं कहे नेकरे हाथपाडें नहीं है ऐसो जो जीवात्मा ताकों जब यमदूत घरनछागु तब तनमें सेहारे है आवे तन विकछ है माइहै, वे कोऊ नहीं सहाय करे हैं | ताते साहबकों जानो कहें यमदूते कैसे घरेंगे ! तो लिंग शरीरते घरेंगेः अथोद जाको जेसो कर्म बाके संस्कारते वा लछोकमें कर्म शरीर बनेंहे

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कहरा (४५३ )

पेलना अश्नत्‌ पेलि चलु बौरि तीर तीर कहँ टोवह हो। उथले रह परो जनि गहिरे मति हाथे कै खोवहु हो ३०

: सो कबीरजी कहैंहें कि,पेलगा जो राम नाम सो अक्षत बने है ताकों संसार समुंद्र्मे पेलिके हे जीव ! संसारस्मुद्र उतरिना | तीर तीर कहे नाना मतनको का टोवत फिरि है उथंले में रहो अर्थीव्‌ साहब को ज्ञान कीन्हे रहौं गहिर जो धोखा ब्रह्म कठिन तामें जाउ वहां गये तुम्हार हाथहुकों जीवत्त्व सो

जातरहैंगो ताते तुम खोवी उथ्थल् कहे साहबकी ज्ञान जानो १० तरके घाम उपरके य्ूधुरि छांद कतहु नहिं पावहु हो | ऐसो जानि पश्तीजहु सीजहुकस छतरियाछावहुहो

तरके घाम कहे नाना कमे जे नीकी नागा कियो ताकी जो ताप संसारमें ऊपरकी भृभुरि कहे नरक में गये तौ वहीं तप है, स्वगे में गये तो गिरनकी भय बनी है, काह को अधिक ऐड्वर्य देख्यो तो ईषी बनी रहैंहे कि, ऐसो कम हम किये ये दोऊ तापमें साहबको ज्ञान रूप छांह कतहं नहीं पांवेंहे ऐसों तुम जानतेहीं पै वहीं में पस्तीजो हो कहे श्रम करो है पसीना चलेंहे छीजोंहो साहबकी ज्ञान रूप छतरिया काहे नहीं छावहुहीं ११ विद वि हक तक | + ्रधीधिक का हु जो कछ खेल कियो सो कीयो वहुरि खेल कस होई हो

ही | कर वि वर वितकर

सासु ननद दाोउ देत उलाटन रहहु लाज सुख गाई हा 3३२

जो कछ खेल कियो कहे जो कछु कर्म कियो सोई भोग कियो अथवा जोन खेर माया ब्रह्मको साथ करिके कियो सोई फल भोग कियो सो बिना राम ताम डीन्हे इनको छोड़िकै फेर खेल कियो चाहौ मुक्तिवाछा सो कैसे होइगो सासु जो है मूल प्रकृति ननदे जो है विद्या माया सो ये दूनों तुमको डडाटन कहे उलटिकै जवाब देह्है कि, बिद्या माया करिंके मुमुशषुद् मुक्तिकी इच्छा करत रहो सो अब हम तुमहोंको छूपेटि लियो तुम हमकों त्यागत रहो है अब नहीं छूटि सकीहौ या जवाब सुनि तुम छाजिके मुखगोड

रहौहो छाचार है छूटि नहीं सकोही २९

(४५४ ) बीजक कबीरदास

गुरु भो ठील गोन भो लचपच कहा मानहु मोरा हो ताजी तुरकी कवहू साजेहु चढ़े काठके घोरा हो ॥१३॥

जो गुरुवा छोग तुमको उपदेश किये ते गुरु दीछ है गये काहेतेकि, जौन जौन उपासना की गोन तुम्हारे ऊपर छादि दियो तेते देवता छचपच हेगयें कहे उनके छुड़ायेते ना छूटे संसारमें परेजाय। देवता के फुरते उत फुर होइहै नइत: जब देवते फुरे तब गुरुवा दीरू परिगयों सो कबीरजी कहै हैं कि, ! में कहत रहो सो तुम ना मान्यो कि, रकार मकार जपो याहीते छटोंगे तानी तुरकी जो रकार मकार ताको कबहू साज्यों कहे कबहूं राम नाम ना छियो जो साहबक्ने पास हैजाय काठकों घोरा जो है मन जड़ तामें चढ़चों

से कूदिके संसार गाड़में डारि दियो जो ताजी तुरकी रामनाम तामें चढ़त्यो तो तुमको कूदिके साहब के पास पहुंचावतों १३

ताल झाँप्न मल बाजत आवे कहरा सब कोइ नाचे हो

जेहि रंग दुलहा ब्याहन आये तेहि रँग दुलहिनि राचे हो १४

गुरुवा छोंगनकी ओठ झांझ है नीम ताल देइहै वही बह्महीं में ताछू देहहे कहे नाना बाणी करिके नाना मतन करिके वही ब्रह्ममें चुवावे है ! अथवा जाको मौन उपासना बत॑वै है ताके तोन इष्ट देवता है ताहीकों अह्म कहे हैं ताहीको सब कुछ कहे हैं, उहै तालके| मान देइहें अथीत्‌ सब शासकों अर्थ वाहीमें पर्योवप्तानकरे हैं और गुरुपनमें लगिके सुखबाचक जौ कतो हरा गयो कहे परम पुरुष श्रीरामचंद्र को भूछि गये। संसार में सब जीव दुखि- या है नाचन लगे कोई रजोगुणी उपासनामें राचत भये, कोई तमोगुणी डपा- सनामें राचत भये, कोई सतोगुणी उपासना में राचत भये | जेहि रंग दुलूहा जे उपासना वारें जीव ब्याहन आये कहे गुरुवा छोंग जौन रंगमें छगायो तेहिं रंगर्मे दुलहिनि बुद्धि रचत भई १४

नोका अक्षत खेंबे नहिं जान्यो कैसेहु लागहु तीरा हो कह कबीर राम रस माते जोलहा दास कवीरा हो १५

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कहरा ( ४५५ )

ढक

अक्षत नौका जो राम नाम है ताको सेंवै ऊान्‍्यों कहे जौने बिधिते संसार सागरते पार कै देइ है सो विधि राम नाम जपिबिकी जान्यो सो कैसे संसार सागरते पार हैक तीर छागोगे ! सो श्रीकबीरनी कहे हैं कि, जोलहा कहे जो कोई राम रख लहाहे अथीत्‌ राम रस पाय मातो है सोई संसार साग- रकी पार पायो है, सोई कायाकों बोर जीव परम पुरुष श्रीरामचन्द्को दास भयो है जो माते पाठ होय तो या अर्थ है कि, कवीरजी क्है हैं कि, जातिको में जोछ॒हा सो राम के रसमें मांतेत में दास कबीर कहवावन छग्यों पापैदरूप जो हंस स्वरूप याही शरीरमें पाय गयो, खंसारकों पार हैगयो प्रमपुरुष श्रीरामचन्द्रको दास हैं गयो तुम बाह्मणादिक जो रामरस में मतौगें तैकैसे संप्तारसागरते ना पार होडंगे, पारही है जाउंगे कबीरनी रामरसमें मतिके बचिगये तामें प्रमाण सायरबीनककों “हम मरें मरिंहे संसारा हमकी मिला जियावन हारा अब ना मरे मोर मन माना तेई म॒वा जिन राम जाना साकृत मरे संत जन जीवै। भरि भरि राम रसायन पीवि”” १५॥

इते पहिलाकहरा समाप्त

अथ दूसरा कहरा माति सुन माणिक मति सुडुमाणिक हूदया बंदि निवारोहो अटपट कुम्हरा करे कुम्हरिया चमरा गाउ वांचेहो नित उठि कोरिया वेट भरतुददे छिपिया आंगन नाचैहों॥२॥ नित उठिं नोवा नाव चढ़त हे बरही वेरा वारिउ हो राउरकी कछु खबरि जान्यो केसे झगर निवारिउहो॥३॥

न,

[4 [का

याग्रन्थमें भी और और ग्रन्यनमें भी टीकाकार बारबार कवीरजीको अजन्मा कद गये हैं संसारमे केंब्ल साहबकी आज्ञाते हैं ते कोई गर्भ ते उनको आवनो होंय नहीं चर ए्‌ /#« (५ टू ७३ छह 46 है याते ऊपर के अर्थ ही ठीक है नीचे को अर्थ क्षेपक नानपरत है पीछें से कोई लिखि

का च्श दियो है |

४५६ ) बीजक कबीरदास |

एक गाँवमें पांच तरुणि बसें तिनमें जेठ जेठानी हो आपन आपन झगर पसारिनि प्रियसों प्रीति नशानीहो भसिन माह रहत नित वकुला तकुला ताकि लीन्हाहो। गाइन माह बसे नहिं कवहूं केसेके पद चीनहा हो ॥५॥ पथिका पंथ बूझिं नहिं लीन्हो मृढ॒हि सूढ़ गवाराहों घाट छोड़ि कस ओषट रेंगहु कैसे लगबेहु पाराहो जत इतके धन हेरिनि लछलइच कोदइतके मन दोरा

दुइ चकरी जिन दरन पसारिहु तव पेहो ठिक ठोराहो॥७॥ प्रेम वान एक सतगुरु दीन्हो गाढो तीर कमानाहो दासकवीर कियो यह कहरा महरा माहि समानाही ८॥

मति सुनु माणिक मति सुनु माणिक हदया बंदिनिवारोहो श्री कबीरजी कहेंहें कि हेजीव ! तेंतो माणिक है माणिक लाल होयहैं सोतें

कहां संसतारमें अनुराग करिके छाल हैरहे साहब में अनुराग कारे छाल होइ

गुरुवा लोगनकी वाणी तें मति सुनु मतिसुनु आपने दृदयकी जो संसाररूपी

बांदिं ताकी निवार

अटपट कुम्हरा करे कुम्हारिया चमरा गाउ वाचेहों

नित उठिकोरिया वेट भरतुहे छिपिया आंगन नाचेहो २॥

काहेते कि अग्पट कुम्हरा जो या मन है सो कुम्हरिया करे है कहे नाना शरीर रचैंहै जैसे कुम्हार नाना बासन बनांवै हे ऐसे या मन नाना शरीर रखेंहै से शरीर जो गाउं है तोत चमरा कालके मारे नहों बचेंहे मन रचत जाइहै शरीर काल खात जाइ कोरिया ने मुनि छोग हैं सत रन तम ग्रन्थ परवर्त- नवोरे ते बेट भरत हैं कहे बनावत जाहईहेँं तेई ग्रन्थनकों हैके छिपिया जे गुरुवा छोगहें ते आंगन आंगन नाचे हैं अथीत्‌ चेछा हेरत फिरे हैं नाना मतमें होके ओरनको नाना मतमें छगावत फिरे हैं

कहरा ( ४५७ )

नित उठि नोवा नाव चढ़तहे वरही बेरा वारिटहो। | राउरकी कछ खबरि जान्यो केैसेके झगर निवारिउहों

नौवा जो संन्‍्यासी जोन आपनो मृड़ मुड़ावहे आनो को मृड़ि के चेढा

बनाइ लेइहे सो वेषमात्र जो नाव तामें चढ़िके संसार समुद्ध पार होवा चाहे है

नाना देवतन मतिपाद्य जे ग्न्ध तेईं हैं बरही कहे बोझा ताहीको बेरा ७,

राच वारी जे ताना उपासना वारे है ते संसार समद॒को पार होव! चाहे है राउर

जो परम पुरुष पर श्री रामचन्द्रको बर ताको जानतई नहीं या झगरा केसकि

निवारण होइ साहबते तो चिन्हारिनि नहीं हैं कबहू माया पकरिे लेइहे कबहे ब्रह्म पकरि लेइहै कबहूं मन पकरिलेइ है इत्यादिक जेई पाविहें तेई धरि

लइ हैं सो कंसक झगड़ा निवारण होइ हे एक आममें पांच तरुणि दसे तिनमें जेड जेठानी हो

आपन आपन झगर पसारिनि प्रियसों प्रीति नशानीहों »॥

एकगांड जो या संसार तामें पांच तरुणि जे ज्ञानेंद्री ते बसे हैं ज्ञानेंदी कहते कर्मोद्धिउ आइ गई, तिनमें जेठ मन जेठानी माया है सोई दशो इंद्री आपन आपन झगर कहे अपने अपने विषय ओर मनको खैंचत भई सो मनके अधीनहे जीव सोऊ वहीं कत चले गयो परम पुरुष पर जे श्री रामचंद्र प्रीतम हैं तिन सों प्रीति नशाइ गई

भेंसिन माह रहत नित वकुछा तकुछा ताकि लीन्हाहो गाइन माह वसेहु नहिं कबहूं केसेके पद चीन्हाहो «

सो मैंसीने दशो इंदी हैं तिनमें बकुछा नो मन सो रहेहे नैसे भेंसी जलमें परेहें तब बकुछा वाके ऊपर बैठ रहेंहै जो मछरी मैसिनके किलनी खाबेको आईं सो बकुला खाय छोनो ऐसी इन्द्री जब विषय ओर चली तब मनहीं भोंग कर है इंद्रीदारा ताते मनको बकुला क्ट्मों है सो हे जीव ! तेंतो तकुलाँहै कहे ताकनवारों है काहे ताकि लीन्हा साहब के गावन वारे जे संत तिन गाइन में कबहूं बसबे कियो परम पुरुष पर श्री रामचन्द्र को पद कैसेंके चीन्हों

(४५८ ) बीजक कबीरदास

पथिका पंथ वृझ नहैं लीन्हो सूढ़हि सूढ़ गवांराहो

घाट छोड़ि कस ओषट रेंगहु केसेके लगिहे पाराहो ६॥ साहब जे श्रीरामचन्द्र तिनके पंथके चलनवोरे जे पेथी संतमन निनसों तो

पंथ ब्ि लीन्हेड मढ़ जे गुरुवा छोग तिनकी बाणीमें परिके मुढ़ ह्वेगयों

गवांर हैगयो से साहबके पहुचबे को जो घाट ताका छोडि औषद जो माया ब्रह्म तामें चछोहों सो केस कै पार छागोंगे

जतइतके घन हेरिने ललइच कोद्इतके मन दोराहो दुइ चकरी जिन दरन पत्चारेह तहूँ पेहहु ठिक ठोराहो ॥9॥

जत इतके कहे जिनके जतवा चडे है सो जतइत कहाये है सो धोखा ब्रह्म है जो सबको दरि ढारे है सबको मिथ्ये माने है तहां ललइच मे छाहलची हैं ते घन जो मुक्ति ताको हेरिनि सो उहाँ पाइन तव कोदइत ने गुरुवालोग जिनके नाना उपासनारूपकों दौरा जाय है तिनके इहांगये कि इहां मुक्तिधन मिंलैगो सो कबीर जी कहे हैं कि नतइत के तो घनकी ठिकाने लग्यो तो कोद- इत ने मार्टीके दुइ चकरी बनाइ दरना पसारै हैं तहां ठीकठोर पेही ? अथीत्‌ पैहें साहब को जानोंगे तबहीं ठिकान छागेगों.॥

प्रेम बाण यक सतगुरु दीन्हो गाढ़ो खेंचि कमाना हो दास कबीर कियो या कहरा पहरा माह समाना हो ॥८॥

| कप

श्री कबीरनी कहेह कि हे जीवों ! तुम यामें पार जाउगे जब ऐशो करो तब पारे जाउगे।प्रेमकों तो वाण करु सतगुरु जो ज्ञान दीन्हों है ताको कमान करि गाढ़ो खैंचि साहबरूंप जो निशान है तामें मेमबाण मार अथोत भेम लछगाड। है साहव को सदाकी दास ! कायाकेबीर जीव या कहरा में संसार को कहर है सो कहा कियो है, महरा माहिं समाना कहे जे साहब के महस्मी हैं तेहोंमे समाय अर्थीत्‌ उनहींको सत्संग करु कह गाढ़ों खैंचि कमाना यही पाठ हे।अथवा हे कबीर ! कायाके बीर जीव मन माया ब्रह्मके दास है यहि संसार दें

कहरा ! ( ४५९ ) किये सो कहरा कहे कहर करनवारों है सो तें आपनों रूपतो विचारु कहाँ माया दास हैरहै हे तें महरा कहे मायाके हरनवारे ने हैं साधु तेही माहिं समाना कहे तें तिनके बराबर है जो तैं आपने स्व स्वरूपको जाने है इति दूसरा कहरा समाप्त अथ तीसरा कहरा रामनामकी सेवहु वीरा दरि नहीं दुरि आशाहो | ओर देव का पूजहु बोरे सब झूठी आशाहो उपरके उजरे कहनो बोरे भीतर अजहं कारोहो तनको बृद्ध कहा भो बोरे मन अजहूं बारोहो.॥ मुखके दांत गये का बोरे अंदर दांत लोहेके हो ! फिरि फिरि चना चवाउ विषयके काम क्रीच मद लोभेहो हे तनकी शक्ति सकल चटि गयऊ मनहि दिलासा दूनीहो ! कहे कबीर सुनो हो संतो सकल सयानप ऊनीहो

राम नामको सेवहु बीरा दूरि नहीं दुरि आशाहो ओर देव का पूजह बोरे सब झूठी आशाहों ॥|

शा कवारजा कह हें कि हे कायाके बीरों जीवो ! रामनाम को सेवन करो [क' श्र हि

शम नाम दार नहा टठुन्हारश आशा दु।रह ऋार दृवका हु थार का पूजहुह! इनकी आशा सब झठी है

उपरके उजरे कह भो बोरे भीतर अजहूं कारोहो

तनको वृद्ध कहामो बोरे या मन अजहं वारोहो २॥ झुखके दांत गयेका बोरे अंदर दाँत छोहिके हो।

फिरिे फिरि चना चबाइ विपयके काम क्रोध मद लोभगेहो

( ४६० ) बीजक कवीरदास

है बौर जनों ऊपर बहुत ऊनर बनेरहों बहुत आचार कियों तौ कहा भयों भीतर तो अजहूं करिये हो तनकी बड़ी वद्धता मान्यो तो हैं बारे ] कहा भयो मनतो अजहूं बारों कहे छारिकवा बनाहे वही चाल चंलेंहे मुखके दांत गिरिगये तो हे बौरे कहा भयो अन्तःकरणके जे बिषय के चना चाबन- बारे ऐसे छोहेके दांततो गैषे भये काम कोध मद छोभ बनेनहें मिट्वे भये

ही पे [कप के

तनकी शक्ति सकल घटि गयऊ मनहि दिलासा दूनीहो कहे कबीर सुनोहों संतो सकल सयानप ऊनीहो

है बौरे! तनकी सकल कहे रूप बिषय करनवाली सामथ्य घटिगई संगी मरिगये पे दिलकी दिलासा जो तृष्णा सोती घटिबे भई सो कबीरणी कहे हैं कि हे संतों! तुम सुनो या सब जीवनकी सयानपऊनी है अर्थात्‌ तुच्छ है बिना रामनाम के जाने जनन मरण छूटेहै तामें प्रमाण कबीरजीका जोते रसना राम कहिहे उपजत बिनशत भरमत रहिहे जस देखी तरुवरकी छाया प्राणगय कहु काकी माया जीवत कछु किये परमाना मुये मर्म कह काकर जाना अंत काल सुख कोउ सोंवें। राजा रंक दोऊ मिलछि रोंवें हम सरोवर कमल शरीरा | राम रसायन पिवे कबीरा

इति तीसरा कहरा समाप्ता

'4काामकण

. अथ चोथा कहरा

ओढन मेरा रामनाम में रामहि को बनिजारा हो रामनामका करों बनिजमें हारे मोरा हटवाराहो॥ सहस नामको करों पसारा दिन दिन होत सवाईहो कान तराजू सर तिन पोवा डहकिन ढोल वजाईहो २॥ सर पसेरी पूरा करिले पासंघ कतहु जाईहो कहे कबीर सुनोहो संतो जोरि चले जहडाई हो

कहरा। ( ४६१ 2

ओहढन मेरो रामनाम में रामहिंको वनिजारा हो। रामनामको करों वनिजमें हरि मोरा हटवारा हो # श्री कबीरजी कहे हैं कि पांसडी लोग जे हैं ते कहै हैं हमारों ओटन राम- नामही है अथौत्‌ राम नामही के ओद्नते ठागि लेहिंहँ। परम तत्त्व जो रामनामह तौनेको ठगिविको ओठर बनाये हैं काहे मरे परें ! कौन तरहते के बड़े बड़े

आज

टीका देलिये माला जप हैं रामनाम को तत्त्व जानें अर्थ जानें जपेंके विधि जानें नामापराध दश जानें या कहे हैं कि हम रामनामको बनिनारा हैं रामनामकी बनिज करेंहें हरि जे हैं तेई हमारे हटवारे हैं कहे दलाछहैँ अथीत हम उनहींके द्वारा सब रामनामका सोदा लेहिहें उनकी प्ररणाते हम मन्त्र देंइ हैं जो वाके भागमें होयगो सो होयगों हमारों पेसा धोतीतो हाथकों जायगी। नो कोई कहे है कि शिष्य परीक्षा के लेड तो या कहे हैं कि कहांको

बखेड़ा लगायो है हम मन्त्र देदियों वह नो चाहे सो करे मुक्त होइ जाइगो सहस नामका किय॑ पसारा दिन दन हाँत सवाहहा।

कान तराजू सरातंन पावा डहाकन ढाल वजाइंहा॥२॥

ओऔ या कहै हैं कि एक नामके डीन्हेते सर्व कर्म छूटि जाइहें हम तो हजा- रन नाम छेइहें कम कहां रहेंगे सब छूटि जायेंगे हमारे सकमें दिन दिन सबाई बढ़ेंगे। सो दोऊ गरु चेलनकों ऐसो हवाछहै चेढनके कान जे हैं तेईं फेरहा तर : जुवा है तीनपावका सेरहे अथीत्‌ निगुणात्मक मन हैं सो मन बचन के परे जो रामनाम सो गुरुवाछोग तोछि दियो अथीत्‌ मन्ज दियो। डहकिन ढोल बजा ईं कहे चेछ़ा छोग चारिड ओर कहि आये कि हम मन्त्र लियो हैं के डहकाइ गये टोछ बनाइ

सेर पसेरी पूरा करिले पासच कतहु जाईहो |

कहे कबीर सुनोहों संतो जोरि चले जहडाइहो ॥३॥ गरुवनके उपदेशते सेर जो है मन पसेरी जो है ब्रह्मज्ञान सो परो कर्राहे अथीतद्‌ सर्वत्र बह्मकों पूर्ण माने परंतु पसंघा जो मृछाज्ञान सो कतहूं जायने वाहीमें परिके अन्तकाल में जहडायके कहे डहकाय चले जायेगे इंत चांथा कहरा समात |

(४६२ ) घचीजक कबीरदास

अथ पाँचर्वां कहरा ५॥ बह राम नाम भजझ राम नाम भजु चेति देखु मन माहीहो लक्ष करोरि जोरि धन गाड़े चले डोलावत वाहींहो॥ १॥ दाऊ दादा परपाजा उइ गाड़े शुइ भड़िहे ! अँधेरे भये हियाकी फूटी तिन काहे सब छांड्रेहो २॥ संसार असार को चन्धचा अंतकाल कोइ नाहींदी उपजत बिनशत वार लागे ज्यों वाद्रकी छाहींहो ॥३॥ नाता गोता कुल कुठुम्ब सब तिनकी कवनि वड़ाईहो। कह कवीर यक राम भजे बिन बूड़ी सब चतुराईहो 8॥

राम नाम भज राम नाम भज चेति देखु मन माहींहो।

लक्ष करोरि जोरि घन गाड़े चले डोलावत बाहींही॥ १॥ श्री कबीरजी कहे हैं कि हे मढ़ ! परमपुरुष श्री रामचन्द्रकों रामनाम है ताको भजु भजु। भन् सेवार्या धातुहै सो याही रामनामको सेवा करु रामनाम मन बचनके परे है सो आगे छिले आये हैं आपने मनमें चेति कहे बिचारिके देखु तो छाखन करोरिन धन जोरिके गाड़ि * परयो जब मरन छाग्यो यमदूत है जान छगे तब बाहीं डोढावत चलोहों कि वे घन हमारे नहों हैं दाऊ दादा परपाजा गाड़े थरुईँ मांड़ेहो

अँचेरे भगे हियोकी फूटी तिनकाहे सब छांड़ेहो २॥ जो कहे! वा जन्म कब देख्योह तो तेरे दाऊ दादा परपाना वे अईं में केतो भांड़े गाड़ि गाड़ि म्रिगये हैं उनहीं के साथ कबे धन गयो है सो तें आँधरे हगये तेरे हियोकी फूटि गई हैं नेसे सब धन छोड़िंके वे चले गये हैं धनकी मालिक तुहीं भयो ऐसे तह धन छोड़िके चले नायगो तेरों घन औरही

9० आप

की होयगो तेरे हाथ कछ लंगेगो

कहरा ( ४६३ )

या संसार असारको घंचा अन्तकाल कोइ नाहींहो

4 |$ पिन ८5५ ७. उपजत विनशत बार छांगे ज्यों वादरकी छाहींहो॥३॥ या संसार असार कहे झूठहीकों धंघांहे अंतकालमें कोई आपनो रहीं है

जोकहों कि हम जाबही करेंगे बनेही रहेंगे तो शरीरके उपजत विनशत में

चेक आह आस

वार नहीं लगेंहे जैसे बादरकी छाहों भई पुनि मिटिगई नाता गोता कुल कुटुम्ब सव तिनकी कवनि बड़ाईहो कह कवीर यक राम भजे विन बृड़ी सव चतुराइहो॥४॥ बड़े गोतके मये बड़े कुछ के भये बड़ी बड़ी नातिके नात भयें तिनकी कोन बड़ाइहै ये तो सब शरीरही के हैं जब तेरो शरीर छूटि जायगो तब तेरों शरीरही कोई छुवैगो ताते ये सब नात गोत जबभर शरीर बनोहें तबहीं भरेके हैं शरीर छूटे ये सब छूठि जाइहें इनकी कौन बड़ाई है। सो श्री कबीरजी कहे हैं कि, एक जे परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्रहें [तिनके रामनाम के भन्ते कहे सेवा किये बिन सब चतुराई तिहारी बाड़े जायगी नरकहीकों जाउगों नेने आपनी कल्पना ते नाना उपासना कैलियेहों तिनते चाहोहो |कि हमारी मुक्ति है जायगी ते एकहू काम आवैगों तामें प्रमाण श्री गोसाईजी की पद राम कहत चलु राम कहत चलु राम कहत चलु भाररे।नाहिंतो भव बेगारि में परिहौ पुनि छुटब अति कठिनाररे। बांस पुरान साजु सब अटषट सरछ त्रिकोण खटोलारे हमहिं दिहल कारे कुटिछ करमचँद मंद मोल विन डोछारे।बिषम कहारमार मद- माते चलें पाय बयेरेरे मंद बेहद अभेरा दलकनि पाई दुख झकझेरेरे कांट कुराय छपेटन छोटन ठामहिं ठाम बच्माऊरे जस जस चाहिये दूरि निज तस तस बांसन भेंट छकाऊरे | मारग अगम संग नहिं संबढ नाम गामकर भूलारे तुलसि दास भवआश हरहु अब होह राम अनुकूछारे अथे-राम कहत चलु राम कहत चलु राम ऋहत चलछु भाई रे॥ गोसाईनी जीवन को उपदेश करेंहें इहां राम कहतचलु तीनि बारकह्मों सो मुक्त मुमुश्षु विषयी तीनों जीवन को कहैहँ सो गोसाईनी अपनी रामायणमें कह्मोहै चो०॥

[कक

“वेषयी साधक जिद सबने जिविध जीव जग वेद बखते राम सनेंह

( ४६४ ) बीजक कबीरदास।|।

सरस मन जासू | साधुसभा बड़ आदर तासू सिद्ध विरक्त महामुनि योगी नाम प्रसाद ब्रह्म सुखभोगी” याते यह कि राम बिना मुक्तहनकी गति नहीं है अरु भाई जो कह्मो सो जीवके नाते कहे हैं कि हम सब यकीरं अरु इहां एकबचन कहें सो प्रति जीव सो पृथक्‌ कहे हैं कि हे भैया या दुःखमार्ग त्यागि दे यामें दुःख पावोंगे ताते राम कहते चछो नाहिंतो भव बेगारेमें परिहो पुनि छूटब अति कठिनाररें नहीं तो भव जो संसार है ताके बेगारिमें परोगे बेगारि परिबों कहाहै जाते संसारते कबहूं उद्धार होइ ऐसे कर्म माया तुमको धरिके करावेगी जों शरीरूप डोछाकों गुमान कियेहोहु कि डोंछा चढि बेंगारि परेंगे तो धरनवारों समरथ है डोलामें चढेह धारे छेइगों तब कठिन है जायगो नैसे फिरज्ञी म्याना पाढकिनवाले को बेगारे पकरे है तब कोई कहे हैं कि येतों बड़े आदमी हैं इनको सड़क खोदाना चाहिये तब अंगरेजछोग कहेंहँँ कि हमारें इहां दस्तुरहे म्याना चढेजाइ वही में फरुह्य कुदारी परेजाइ से पाछकिड चढ़े बेगारि धारे जाइ है डोलह तिहारी जर्गरहे सो कहे हैं ॥''बांस पुरान साजु सब अटखट सरल तिकोन खटो- छारे। हमहिं दिहलकारे कुटिल करमचैंद्‌ मंद मोल बिन डोलारे प्रारब्ध जो है सोई पुरान बस है कांहे ते कि संचित तो प्रारब्ध भें है तेहिते महापुरानहै ओऔ सव साभ अटखट कह्मों सो आठ षट कहे चोदह साज हैं शरीररूपी डोलाकी से कहेहदें ' त्वचा, राधिर, मांस, अस्थि, मेद्‌, मज्जा, शुक, केश, रोम, नस, नख, देत, मल, मूत्र, सो त्वचा डोंछाको बोहारहे रुषिर बोहार को रंग जो मांस बोहारकी तुई है अस्थिडोछाको काठहै मेद्‌ मजा डोछाकों तकिया बिछोनाहै नस रसरीहे ओो नख छोहेकी पतुरी है दांत खीढा है मलमूत्र लघुत है घुनको कीरा है काहेते कि कीरनहू में पानी होय है। अथवा साजु सब अटखट जों यह पाठ होंइ तो पुरणा पुरणा जो रे है यही अर्थ है सरछर जो कह्यों सो सरोहे कहे रोगनते ग्रसितहै तिकोन खो छा नो कहो डोछारमें सो शरीर की तीन अवस्थाहें जाग्रव्‌ स्वप्न सुषुप्ति याहीमें परारहे है सोई तिकोन खटोछा है अथवा बाढापन युवापन वृद्धापन तीनों- पून तिकान सयेरुहिं शरीर रूपी डोंछामें सो ऐसो डोछा कुटिल करमचेद

कहरा। (४६५ )

कहे कुटिल कढुंकी करम करिके कहे बनाइकै हम सबको दीन्‍्हों है ऐसो निबछ डोंछाहै मंद मोबिन जो कह्यों सो औरको मांस भोजनहूंमें काम अब है यह मानुष शरीरकों मांस बेचबेहूते कोऊ नहीं छेइ याते मंद मोल कहे थोरह मोल बिनाहे सो ऐसो डोछा में चढिके हे भेया ! या संसार मार्ग में चलौंगे तो कछूंकी करम को दियोंहे डोला तुम को कलंक छागि जाइगो | यह जर्जर डोला जो संसार मार्गमें ट्टैगो तो फँसि जाडंगे फिर निकसोंगे जो नाम सड़क चढ्ोंगे तो या सड़के राम घाटही लगीहे डोला टूट्यो दिव्य रूप ते आंखी मूंदेह चले जाउंग अथवा दिव्य रूपते बिमान चढ़ि चले जाडगे कैसो है डोला सो कहैहैं “बिषम कहार मार मद माते चल॒हिं पाय बयेरे रे मंद्‌ बिलंद अमेरा दककनि पाई दुख झक झोरेरे”” बिषम कहे कहार नेहिको पांचों इंड्रिय सो एकते सम नहीं है दूसरे स्वमावहीते बिषमरहें तीसरे मार मदमातेरैं सो मतवारे के पांय सम नहीं परे हैं चछत में पांय बगरि नाह हैं पांय बगारिबे कहे रूप रस गंध स्पर्श शब्द इनमें नाय रहेहे फिरे मार्ग कैसो है मंद कहे नीचहै बिलंद कहे ऊंचहै अर्थात्‌ कहूँ अपमानते दीन ड्रै जाइहै अपनेको नीच माने है कह मानते अपनेको बड़ो ऊंच माँनिहे कहूं अमेरा कहे धक्का छमि- जायहै। धक्का कहा है कहूं पुत्र मरिगयों भाई मरिगयो चोर चोराय छियो सो या लोकमें छोग कहैंहें कि हमको बड़ो धक्का छगो।दुलकाने कहाहै कि विषय सुख देत में अच्छो लगेंहे जब वामेररयों तव बिषय दलदुल में फँसि जाय है पाई दुःख झकझोरे कहें डोछामें झकझोरा छगेहे सो इंद्रीरूप कहार गिरें है कहूँ उडै हैं ताते विकलताई झकझोरा का दुःख पाइतहैं “कांट कुरायल पेटन छोंटन ठांवहिं ठांव बचाऊरे जस जस चलिय दूरि निम तस तस बासन भेटछ काऊरे” कहीं कांय्हैं कहे सुन्दर रूपहे सो नयनरूपी कहारनके छेदिजायहैं तब गिरि जाय हैं कहे आसक्त द्वै जाय हैं कुराय सजलू होइ है सो रस है तामें रसनारूप कहार बूडिजाय है लपेटन फूछी छताहै तेई गन्धहें तामें नासिकारूप कहार छूपटिके गिरि परे है छोटन छोकमें सर्पको कहें सो स्पर्श है त्वचारूप कहारनको डसे डॉरे है कामिनीके एक अज्ञः छुवतमें सर्वोग कामबिष चाढ़ि जाय है याते स्प्शकों छोटन सपे कहे हैं ३०

४६६ ) बीजक कबीरदास

ठांवहिं ठांव बच्माऊ कहें मोहरूप शिकारी सो नाना बिषय की कथा नाना भूत यक्षादिक सेवनते सिद्धिकी प्राप्त तिनकी कथा ओऔ नाना ता मसमत तिनकी कथा सो शब्दरूप बागुरि ठामहि ठांव छगाय राख्यो है तामें श्रवणरूप कहार अरुशिके डोछा डारि देइहे फिरे संसार मग कैसो है ज्यों ज्यों संसार पथ्में चडियदुदै त्यों त्यों दूरि रामपुर परतो जायहै मैया रामपुरकी गैल नहों है और राहहे फिरे केसो यामें वास नहीं है अथीव्‌ कछ नहीं रहे है कमे करतई जाइहै शांत हैंके कोई नहीं टिकयो «झरग अगम संग नहें संबछ नाम ग्रामकर भूछारे | तुछसिदास भव त्रास हरइ अब होहु राम अनुकूछारें ॥” सो या प्रकार यह मागे है संसार सोई पृथ्वी है तामें विषयके हेतु नाना यतन करियो अरु राजस तामस शाखमागग तदनुसार कर्म करिबो सोई चढियो है ताकी गोसाईजी कहे हैं कि अगमहै कहे चलिबे मुआफिक नहीं है जो नाम मार्गमें संतनकों संगहै ते रामपुरको बिन्न नाशिके पहुंचाइ देईहेँ यहां कैसो है संगनहिं संबल कहे सम्यक्‌ है बल जेहिके ऐसे संत सड़में नहीं है अथवा नानामागे में तो सात्विक श्रद्धा कलेवा मिले है या मार्गम श्रद्धारुप कछेवा नहीं मिलेंहै सो गोसाईजी अपनी रामायण में ढिख्यों है जें श्रद्धा संब रहित इत्यादिक जा गाडंकों तुमको जानोहै ताकों नामहीं मूक्ि-गयो है भूछा जो कह्मों सो गर्भमें सुधि होई है फिरे भूलि जायहे याते भूछा कह्यो है अथवा जीव नाम शाम कर भूछाहै नाना देवतन को न्यम लेईहे तिनहीं के धाम नाइबेकी इच्छा करे है सो तेरो ते नामनते भव बन्धना छूटे है नते घामनमें गये तेरो जनन मरण त्रास छूटेगो सो अब गोसाईनी कहेंहें कि हे मैया ! अब अपने अपने जीवन पे दाया करि संसारकी ञ्ास हरों भब काहेते कहो कि अनेक जन्म भटाके के अनेक शरीर पाइके मनुष्यकों शरीर पायो है सो अबहँ नाम मार्ग चछो याते अब कष्मों है जौ होई राम अनुकूला नो कह्मो स्तर उपक्रममें नाम माग बतायो ताकी चलिके उपसंहार में होड़ राम अनुकूछा कहो सो एक उपलक्षण है छः मकारकी शरणागती को सूचन कियो है उपकर्म अं नाम मारे बतायो उपसंहारमें शरगागती बतायी सोई श्री गोसाई जी कहेंहें

कहरा ( ४६७ ) कि है भैया ! रघुनाथनी को नाम जपो शरण जाड याहीमें डबारहै औरमें नहीं है पट ।बीधि शरणागत को छक्षण अनुकूछस्य सड्डल्पः प्रातिकूलस्य वर्जेनम्‌ रक्षिष्यतीति विश्वासों गोपृत्ववरणं तथा आत्मनिक्षेपकार्पण्यं चपड़विधा झरणागतिः ? इति पांचवां कहरा समाप्त |

अथ छठवाँ कहरा

शम नाम बिनु राम नाम विनु मिथ्या जन्म गँवाईहो॥ १॥ सेमर सेइ सुवा जो जहड़े ऊनपरें पछिताईहो

जैसे मादिप गांठि अर्थ दे घरहुकी अकिल गेँवाई हो ॥२॥ स्वादे उदर भरत थों केसे ओसे प्यास जाईहो। - द्रब्यक हीन कोन पुरपारथ मनहीं माह तवाईहो ३॥ गांठी रतन मर्म नाहे जानेहु पारख लीन्ही छोरी हो कह कबीर यह अवसर बीते रतनन मिले बहोरी हो ॥४॥

श॒म नाम बिनु राम नाम विन मिथ्या जन्म गँवाई हो ॥१॥

उपासक जे हें ते पंचांगोपासता करके कापालिकादिक मतवारे देवत- नके उपासना करिके नास्तिक मरबईं मोक्ष मानिके व्याकरणी शब्द ज्ञान करिके ज्योतिषी कालज्ञान कारके सांख्यवालें प्रकृतिपुरुषज्ञान करिके पूर्व मीमांसावारे कमेही कारक नेयादिक दुःखध्वेप्तही करिके कणाद वाढ़े नोग॒- णध्यंसही करिके शंकरवेदांतवाल़े ब्रह्मज्ञानही कारके इत्यादेक मुक्त होब माने हैं परम पुरुष पर श्री समचन्द्र तिनहीं बिना तिनके रामनाम बिना मिथ्यृ जन्म गँबाइ दियो

सेमर सेह सुवा जो _जहड़े ऊनपरे पछिताई हो। जैसे मदिप गांठि अथदे घरहुकी अकिल गँवाई हो २॥

(४६८) बीजक कबीरदास |

जैसे सेमरके फछकों सुवासेयों चोंच चलायो जब वामें धुवानिकस्यों तब भोजनते ऊन कहे खाही परया भोजन पायो तब पछितायके कहे जहड़ि के , भोजन डहकायके चस्यों ऐसे जीव नाना मतन में परिके मुक्ति चाह्मो जब मुक्ति पायो तब मुक्ति डहकाइके संसारमें परयों नेसे मद्प कहे मतवार गांठी को द्ब्य देके मद पियो घरोकी अकिल गैँवायदियों तैसे गुरुवा छोगनको गांठी की दब्य देंकै मन्त्र ऊँके औरे औरे मतनमें छागिगये घरोंकी आकेछ गँवाइ दियो कहे साहबकी सदा को दास है जीव सो आपने स्वरुपको भूलि गंयो॥२॥ स्वादे उद्र भरत थों कैसे ओसे प्यास जाईहो द्रब्यक हीन कोन पुरषारथ मनहीं माहँ तवाईहो जोने मतमें स्वादपायों सो तैनेहीं मतमें छग्यों सो ओसते कहूँ पियास बुझाईहे ओसपरों सो ओसको जछूको स्वाद मुखमें आयो सो कहा स्वादते पेट भरे है नहीं भरे है तेस जीव नाना मम छूग्यों नाना साधन करन छग्यों वे देवतन- के छोक गये अथवा बह्नज्ञान सिद्ध भयो अथवा आत्मज्ञान सिद्धभयों इत्यादिक सब सिद्धि भयो किंचिद सुख पायो तेतो ओसकेा चाटिबों है कहा मुक्तिहो३ है नहीं होय है दब्य का हीन जो पुरुषारथ है सो कौन पुरुषार थहें मनमें बहुत बिचार करे हैं कि वाको दशहजारदेडं वाको पांच हजार देडे जब द्रब्य की सुधि आई सो व्ब्य तो हैई नहीं है तब मने में तवाई होयहै कि हाय का करों ऐसे नाना मतनमें छंगे पाछे पछिताड होयहै अन्तकाढ में में कहा कियो साहबमें छाग्यों जाते मुक्तिहोती

गांदी रतन मम नहिं जानिहु पारख लीन्ही छोरीहो।

कह कबीर यह अवसर बीते रतन नमिले बहोरी हो॥४॥

या जीव सदाको साहबको अंशहै सो या रतन तुम्हारे गांठी में है ताकी _ यह राम नामते पारिख करिके छोरि लेउ साहबके गुण जीवो में हैं वे बृहद चैतन्यहैं यह अणुचैतन्यहैं ये घन रस रुपहेँ या लघु रसरुप हैं ऐसो जो शुद्ध आपनो रूप जने तो रतन तेरे गांठीमें है ताकी मर्म तुम रामनाम बिना नहीं जान्योकि

8 ७... हु

वा साहब कोहे मन माया बह्मको नहीं है काहेते कि गुरुवाठोग तिहारी पारख

कहरा। ( ४६५ )

छोरि छियो और और तिहारों साहब बनाइ दियो सो कबीरजी कहे हैं कि नो ऐसो मनुष्य शरीरमें साहबकों ज्ञान भयो किम साहबकों हों तो या अवसर बीते गये कहे या शरीर छूटिंगये फेरि रतन जोहै आपने स्वरूपकों ज्ञान कि में साहब को अंशहों सो पुनि मिंलेगो साहवकों ज्ञानके देनवारों राम नाम मिंलैगो आमे जे कहि आये पंचांगोपासनवारें कापालिकादिक मतवारें व्याकरणी सांख्य मीमांगावारें नेयायिक्त कणादवारे शेकरबेदांती नास्ति- मतवारे जो या कहे हैं के हमारे मतमें काहे मुक्ति नहीं होय है सो कहे हैं पंचांगोपासना तो सगुणहै सो सत रन तम ये गुण माया के हैं सो मायांते माया नहीं छुटे है या असंभवहै कापाछिकादिक व्याकरणादि मैरवको माने हैं सो वेद विरुद्धहे मुक्तिदाता कोई नहीं हैं तामें प्रमाण॥ “मुक्तिदाता सर्दे- थां राम एवं संशयः ॥” वैयाकरण शब्दब्ह्नते मुक्ति माने हैं सो केवल शव्दब्ह्के जाने मुक्ति नहीं होयहैं जब शब्दबह्कें जानिके परब्रह्मको नांने तब मुक्ति होइहे तामें प्रमाण॥ “'शब्दे ब्रह्मणि निष्णातो निष्णायात्परे यदि श्रमस्तस्य श्रमफलछोह्मपेनुमिव रक्षतः ”” ज्योतिषी काछज्ञानंत मुक्ति माने हैं सो कालहके कालने श्री रामचन्दहें तिनके बिना जोने मुक्ति नहीं होयहै तामें प्रमाण यः कालकाछे गुणी सर्ववेत्ता सांख्यवारे भरकृति पुरुषते मुक्ति मने हैं सो पुरुषोत्तम श्रीरामचंदहँ तिनंके विनानाने मुक्ति नहीं होयहै तामें ममाण बन्दे महापुरुष ते चरणारविंदम ॥”? पृवमीमां- सावारे कम ते मुक्ति माने हैं सो कर्म ते मुक्ति नहीं होय है कम त्यागिते मुक्ति होयहे तामें पमाण “नकमंणा प्रभ्याधनेन त्यागेनेके अमृतत्त्वमानशुः इति श्रुतंः नैयायिक ईइवर श्री रामचन्द्ही हैं तामें प्रमाण॥ तमीरव- राणां परम महेर्वरं'”॥ भो कणादवारे नौगुणध्वंस मुक्ति माने हैं सो नो गुणध्वेसही मुक्ति नहीं होयहै नोगुणध्वंस भये उपरांत जब भाकि होयहै तब मुक्ति होयहै तामें प्रमाण ब्रह्मम॒तः पसन्नात्मा नशोचति कांक्षति समः सर्वेषु भूतेषु मद्धक्ति लभते परां'!॥ शहर वेदांती बह्म ज्ञान करिके मुक्ति माने हैं सो जीव ब्रह्म कभी होतद्दी नहीं है ताम॑ प्रमाण “सत्य आत्मा सत्यों नीवः सत्यंभिद्‌:सत्यंभिद: 0 आओ नार्विक चारे प्रकारके हें-लौगत बिज्ञानवादी सौ-

(४७० ) बीजक कबीरदास |

आंजिक चार्वाक सो सौगतनामके आत्मा क्षणिक नाशमानमाने हैं जैसे घट, सोआस्तिक मतते विरुद्धहे काहेते कि आस्तिक आत्माको नित्य माने है ॥२॥ वेज्ञानवादी पदार्थ मातका ज्ञान स्वरूप माने है सो आस्तिक मतमें बाधक है फाहेत के जो क्षणिक ज्ञानके बाहर दूसर पदार्थ नहीं माने है तो ज्ञानाश्रय आत्मा केहितरांत होइ ओऔ सोचांजिक गुणरूप आत्मा माने है कौन गुण सुख विशेषगुण सो आस्तिक मतंते बिरुद्ध है काहेते आस्तिक सुखरूप सुखाश्रय आत्माकों मने है रे चावोक शरौरेको आत्मा माने हैं काहेते मत्यक्षहै सो आस्तिक मतते बिरुद्धहें काहेते शरीरते अभिन्न आत्माको माने है याही रीति उदयनाचाये बोद्धाधिकार अन्थमें बहुत नास्तिकनकों खंडन कियो है अछु हमहू कहे हैं सोगत जो आत्माको क्षणिक नाशदान्‌ मानेंगे चावौक जो शरीरको आत्मा मानेंगे तो जो क्षणिक नाश मान आत्मा होत तो भूत कैसे होत याते सोगत निराकरण भयो नो शररीरे आत्मा होयगो तो मुर्दा कैसे होइगो शरीर काटिह डॉरै चेतन्य रहैगो विज्ञानबादी जो आत्माको ज्ञानस्वरूप मनिगों तो अज्ञान कैसे होयगो सौत्रांजिक सुख गुणस्वरूप आत्मा माने है तो गुणतो बिना गुणी रहतई नहीं है सो गणी कोहै नो कहो अहनको अथवा जिनको गुण माने है जीवात्माकों तो गुण गुणी को समवाय है गुण शुणी को छोड़िंके नहीं रहै है सोजीव जो अज्ञानी भयो सो जाको गुणह जीव सोऊ अज्ञान भयो जो चा्बाक कांछैकै प्रत्यक्ष मानिहि गुण गुणी को नहीं माने है वेद शाखको कहो मिथ्या मानोहीं सो ग्रहण शाखमें लिखे है सो परतही है सो वेंदको कहो कैसे मिथ्या माने तुम्होर शाखत्र में छिखे है कि पृथ्वी नीचेकी चढी जाइहै सो जो पृथ्वी चढी जाती तो पाथर फेंकेते फेरि कैसे पृथ्वीमें मिलतो काहेसे कि पाथर हलुकहै बिलम्ब पूर्वक आवाचाही पृथ्वी गरूहै जल्दी नावा चाही ताते तुम्हारे ग्न्थ झूठे हैं वेद शाख सांचे हैं सो श्री रामचन्द्र बिना तुम मिथ्या जन्म गमाइ दिद्यों

इति छठवां कहरा समाप्त !

कहरा (४७१ 3

अथ सातवां कहरा॥ ७॥

रहहु सँभारे राम विचारे कहत अहो जो पुकारेहो मूड़ मुड़ाय फूलिके वेठे मुद्रा पहिरि मेजूसाहो ताहि ऊपर कछु छार लपेटे मितर मितर घर मूसाहो॥२॥ गा वसतहे गये भारती माम काम हंकाराहो। मोहिनि जहां तहां ले जैहे नहिं पति रहे तुम्हारा हो हे मांझ मँझरिया वसे जो जाने जन हेहे सो थीराहो निर्भय गुरु कि नरगरिया तहँवां सुख सोवे दास कवीरा हो ४॥

रहहु सँभारे राम विचारे कहत अहो जो पुकारे हो॥१४

मूड़ मुड़ाय फूलिके बेटे मुद्रा पहिरि मजूता हो।

ताहि उपर कछु छार लपेटे मितर मितर घर मूसाही २॥

श्री कबीरनी कहे हैं कि पुकारे कही हों कि श्री रामनाम को बिचारत हे जीवी!यह मनको सेभारे रहों अनत जान पावे में पुकोरे कहोहों अनत जायगो तो मारों जायगो ऊपरते मृड़ मुडायके कानेमें मुद्रा पहिरिके अंगर्मे छार लपेटिके मेजूसा कहे ग॒फामें बैठे प्राण चढ़ाईके मानन लगे कि हमहीं ब्रह्म हैं सो ऊपरते तो बहुत रंग कियो पे भीतर भीतर उनकी घर मृझ्ति गयो कहे साहबकों भूलिगये

गा बसतहे गे भारती माम काम हंकारा हो।

वा पी

मोहिनि जहां तहां लेजेंहे नहिं पति रहे तुम्हारा हो॥रे॥ यह शरीररूपी जो गा है तामें गरबको जो भाराहे सों थिर भयो कहे यह मान्ये कि यह शरीर मेरोंहे तब माम जो है ममता कामादिक जे हैं अहं- कार तेहिते भरे गयो सो श्री कबीरनी कहे हैं कि मोहनि नो है मोहि छू

(४७२ ) बीजक कवीरदास |

नवारी माया सो जहां रहे है तहैं तोको ये सब कामादिक लैंनेहैं जो यह मानि राख्योहे कि प्राण चढ़ाइके अक्मांडमें लेगये मायाते भिन्न द्वैगये सो या पति तिहारी रहैगी नब समाधिते जीव उतरेगो तब पुनि मायामें परि जाउगे

माँझ मँझारेया बसे जो जाने जन हँंहे सो थीराहो निर्भय गुरु कि नगरियातहँवांखुख सोवे दास कवीराहो सो मांझ जो है माया काहेते कि जीव साहब के बीचमें माया को आवरणहै तौने के मँझरिया में जो जन बस जानेहे कि मायके बीचमें बसेंहे माया याकों ग्रहण नहीं करिसके है नेंस जलमें कमछ जछ नहीों। स्परी करि सके हे काहेते साहब को जाने है सहन समाधि लगाये है तेई जन थिर रहै हैं। अथवा साहब जीव के मांझ कद बिचबादक रामताम तेंने मँझरिया कहें जामिन है साहबके पास पहुंचाइबे को तोने रामनाम में जो कोई बसे जानेहे कि मकार रुप मेंहों रकाररूप साहब है मैं सदाकों दास हैं रामनाम सर्वत्र पूर्ण है फेसो जो कोई जाने सो थिर रहै है तामें प्रमाण गोसाई की चोपाई ॥“ अगुण सगुमण बिच नाम सुसाख्ी उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी फिरि प्रमाण इलोंक “रकारर्शेषठोकदच अकारोमत्यैसंभवः मकारइशून्यलोकश्च चयो- छोकानिरामयाः ॥” तामें प्रमाण कबीर जीका पद “क्या नांगे क्या बांधे चाम जो नहीं चीन्हे आतम राम नांगे फिरे योग जो होईं बनको म्गा मुकु- ति गो कोई मूड मुडाये नो सिधि होई मूड़ी भेड़ि मुक्ति क्यों होई बिंद राखेनो खेलहि भाई | ख़सरे कौन परम गाते पाई पढ़े गुने डपने हंकारा अधधर बड़े वार पारा कहे कबीर सुनोरे भाई | राम नाम बिन किन सिधि पाई थिर हैंके गुरु कहे सबते श्रेष्ठ श्री रामच- न्द्के नगर कहे साकेतमें कबीर जे जीव ते उनके दासद्े तहां सुखसों सो वे हैं हां और देवके उपासना वारे अहं बद्मास्मिवारे जहैं ते नहीं जाइ सकेहें वे मायाहीमें रहे आवे हैं - इति सातवां कहरा समाप्त

कहरा। ( ४७३ )

अथ आठवाँ कहरा ८॥

क्षेम कुशल सही सलामत कहहु कोनको दीन्हा हो। आवत जात दुनो विधि लूटे सरव संग हारे लीन्हा हो॥१॥ सुर नर मुनि जेते पीर ओलिया मीरा पेदा कीन्हाहो कहँलों गिनें अनंत कोटिले सकल पयाना दीन्हाहो ॥२॥ पानी पवन अकाश जाहिगो चन्द्र जाहिगो सूराहो वहभी जाहिगो यहभी जाहिगो परत काहकी पूराहो॥३॥ कुशले कहत कहत जग विनशे कुशल कालकी फांसीहो कह कवीर सव दुनियांविनशल रहलरामअविनाशीहो॥ 8॥

' गशाानमआमंाााम काका,

स्षेम कुशल सही सला[मत कहहु कोन को दीन्‍्हा हो। आवतजात दुनो विधि लूटे सरव संग हरि लीन्हा हो॥ १॥ श्री कबीरजी कहे हैं क्षम कहे कल्याण स्वरूप सदा रहै कुशल कहें

सब बातमें कुशछू होय अथीद सर्वेज्ञ होय सही सछामत कहे जेहिके सहीते जीव सलामत है जाय अर्थात्‌ जेहिके अपनाय छीन्हेते जीवकी जनन मरण छूटि जाय ऐसे जे अपने गुणहेँ ते साहब कीने जीवकों अपने बिना जाने दीन्‍्ह है अथोत्‌ काहकों नहीं दीन ऐसे ने साहब हैं सरब संग कहे सब के अंत- योगी तिनकी या काल जीवकी आवत कहे जनन जात कहे मरन दूनों बिधिमें ढूट्यों अर्थात्‌ जब आये तत्र गर्मको ज्ञान नाशके दियो जब

जाइगों तब वहीं को नाश द्वैगयों साहबंते चिन्हारी ना करनदियों

सुर नर मुनि जेते पीर ओलिया मीरा पेदा कीन्हाहो कंदलों गिने अनंत कोटिले सकल पायाना दीन्हाहो॥२॥

(६ ४७४ ) बीजक कबीरदास |

सुर नर मुनि जे हैं पीर जे हैं औछिया जे हैं जो मीर जे पादशा- हहें तिनकी पैदा करत भये और कहांछों गिनें अनेत कोटि जीवनको पैदा करि पायना कराइ देतभयों

[4 | 4 पानी पवन अकाश जाहिगो चन्द्र जाहिगो सूराहो | मिि >> पीवी विद किया वह भी जाहिगोयहमभीजाहिगो परतकाइको पूराही॥१॥ कुशले कहत कददत जग बिनशे कुशल कालकी फांसीहो 5. | आप वि कृहकवीरसबदुनियाबिनशलरहलरामअविनाशीहो ॥४॥ पाती पवन आकाश चन्द्रमा सूरा कहे सूये यहभी कहे यह जगव्‌ वहमभी कंहे बह्ल सो ये सब चले जायेंगे सबकी कार साय छियो है काहूकी पूर नहीं परी है सो कुशहे कहत कहत कहे कुशले मानेमाने जग सब मरिगयो कुशछू कोई रहे कुशछर कालकी फांसी है जाकी फांसीमें सब परे हैं सो कबीरणी कहे हैं कि सब दुनियां बिनशि जाय है जो . राम करिके जन्‍म बिनाशी है सोई रहिंगे अर्थात्‌ रामके दासई अबिनाशी हैं इनका नाश नहीं होयहै सो या बाल्मीक रामायणमें प्रसिद्ध है अज्ञद हनुमान आदिकनको नाश नहीं भयो है इति आठवां कहरा समाप्त

अथ नवां कहरा शेसन देह निरापन बोरे सुये छुवे नहिं कोईहो डंडक डोरवा तोरि ले आइनि जो कोटिकृच नहोईहो॥ १॥ उरच इंवासा उपंजग तरासा हंकराइनि परि वाराहो जो कोई आवे वेगि चलावे पल यक रहन हाराहो॥२॥ चंदन चूर चतुर सब लेपें गल गजमुक्ता हाराहो। चोंचन गीच सुये तन लूटे जंबुक वोदर फाराहो

कहरा | ' ( ४७५ )

कहे कबीर सुनोहो सनन्‍्तो ज्ञानहीन माति हीनाहो।

यक यक दिन यह गति सवही की कद्दा रावकादीनाही 8॥ ऐसी देह निरानप है कहे अपनी नहीं है और सब अथी प्रगटई है श्री कबीरनी कहैँहें कि जे मतिते ह्दीन मर्खे परम पुरुष श्री रामचन्द्रके ज्ञानते हीन रहें तिनके शरीरकी दशा ऐसे एक दिन सबकी है चाहे रंक होइ चाहे राउ होइहे शत नवा कहरा समाप्त

__>्यामपाामवा्पाहाल“प्मिमिकक- जन.

अशमनननन-कबजन--+-

अथ दशवां कहरा॥ १०॥

हों सबहिनमें हों नाहों मोहि विछूग विलूग विलगाई हो

ओढ़न मेरे एक पिछोरा लोग बोलाहि यकताई हो एक निरंतर अंतर नाहीं ज्यों चद जल शशि झाइहो। यक समान कोई समुझत नाहीं जरा मरण अम जाइहो॥२ राने दिवस में तहेवो नाहीं नारे पुरुष समताइ ही नामें बालक नामें बूढ़ी नामोरे चेलिकाई हो ३॥ तिरविधि रहा सबनमें वरतों नाम मोर रम राइंहो ! पठये जाई आने नहिं आऊँ सहज रहों दुनिआई हो जोलहा तान बान नाहें जाने फाट बिने दश ठाईहो। गुरुप्रताव जिन जेसो भाष्यो जिन विरले सुधिपाईहो॥«॥ अनंत कोदि मन हीरा वेध्यो फिटकी मोल आईहो। सुर नर मानि वाके खोज परे हैं किछु किछु कबिर पाईहो हों सबहिनमें हों नाहीं मोहिं विठलग विलग विलगाईहो ओहढ़न मेरे एक पिछोरा छोग वोलहि यकताई हो॥

( ४७६ ) बीजक कबीरदास

गुरुमुख

में सबमें हों सब होईें ऐसे मोको बिछूग बिझुग कहे जुदा जुदा . बिलगाइकै बेद कह्यो इहाँ दुइ्बार बिलग बिछूण कह्यो स्रो एकतों चिद्‌ कहे - जीव ब्रह्म ईश्वर अचित्‌ कहे माया काछ कर्म सुभाव पृथ्वी आदिक मायाके कार्य सब सो ये दोहनमे अंतर्यामी रूपते व्यापक ही सो जीव ब्रह्म ईंबवर चित्‌ तत्त्व में व्यापक हों तामेंममाण “विष्ण्वाद्यत्तमदेहेषु प्रविष्टो देवतामवत्‌ | मत्याद्यथर्मदेहेषु स्थितों भगति देवताः””॥इति श्रुतिः। 'एकों देव; स्वभूतषुगृढः स्वैव्यापी सर्वेभृतांतरात्मा इति श्रुतिः” “ब्रह्मणों हि प्रतिष्ठाहमिति गीता- याम॥”” अचितौमें व्यापक है तामेंप्रमाण॥ “विष्म्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थि- तो जगव इति गीतायाम!॥सो चिवअचिवदोऊ व्याप्यपदार्थ हें व्यापक में हों सो चित आचितरूप पिछोरा दुइ छोरिया मेरों ओद़नहै सत्र महीहों सो वेद को तात्पम जानिके लोग यकताई बोले हैं कि एकई ब्रह्म है पिछोरा ओंटे याको एकही कहे हैं दूसरा नहीं कहै हैं छोगनों यकताई कहैंहें सो कौनी तरह ते कहे है सो कहे हैं

एक निरंतर अंतर नाहीं ज्यों घट जलू शशि झाईहो। यक समान कोइ समुझत नाही जरा मरण भ्रम जाइहो॥२॥

ही ब्रह्म निरंतर एक सर्वत्र है या छोग बोले हैं सो कहा अन्तर नहीं है अर्थीव्‌ अन्तरहै कैसे नैंस जछभरे घटनमें शशिकी छाया बामें व्याप्य व्यापक बने है सो एक जो भें सो समान कहे सबमें समव्यापकहों ताको कोई व्याप्य व्यापक कोई नहीं समुझे है तो कहा उनको जरा मरण श्रम जाइहे अर्थात्‌ नहीं नाइहे सो अंतर्योमी 'रूपते व्यापक साहब कहि चुके अब निन रूपते जहाँ रहे हैं तहांकी बात कहे हैं॥२॥

रो द्विस में तहँवों नाहीं नारे पुरुष समताईहो। नामें बालक नामें बूढ़ी ना मोरे चोलिकाईहो ३॥

जहांमें रहो हों तहां रातिंहे दिनहै सब नारी रुपहें जो. पुरुषह जाईहै 'सो नारिन रुपते रासमें प्राप्त होइहे पुरुष महींहों समताई है नेसे सच्ि्रानन्द्रूप

कहरा। ( ४७७ )

ऐसे ओऊ सचिदानेद रुपहेँ में बाढकहों बद्धहों सदा किशोररूप बनों रहौहों मोरे चेलिकाई कहे कोऊ वह उपदेश्य नहीं है अथीव्‌ अज्ञानीं कोऊ नहीं हैं सब मेरे रूपको जाने हैं उहां राति दिन नहीं है तामें ममाण “न तद्भासयते सूर्यों शशांकोी पावकः यहुत्वा निवर्तते तद्घधाम परम मम ”॥ ई३ तिरविध रहों सवनमें वरतों नाम मोर रमराई हो पठये जाईँ आने नाहें आऊं सहज रहों दुनिआई हो॥४॥

तिरबिध रहों कहे जीव बह्म ईइवरनमें जो अंतयोमी रूपते रहोहों सबनमें बरतें कहे माया काछ कर्म सुभाव इन में जो अंतयीमी रुपते रहोहों सो इनमें जो रमनवारो अंतर्यामी मेरों रूप ब्रह्म ताहको में राईहों सो पठये नहीं जाउहों आनेते आऊंहों अथाव जो कहूँ नहोंठे तो ना आने आएऊँ पठये जाएँ सर्वत्र तो हों सो यही रीतिते सहजही या दनियांमें अंतर्यामीके अंतर्योमी रूपते पृर्णहों

हक नें बिने ्‌

जोलहा तान वान नाहं जानें फाट बिने दश ठाईहो गुरु प्रताप जिन जेसो भाष्यों जन बिरले सुधि पाई हो॥५॥

जोलहा ने हैं जीव ते तान बान नहीं जानें अथीत वा हंसस्वरूप पोसाक बने नहीं मानें नो पहिरिके मेरे समीप आवे फाटविने दश ठाईं कहे दशहैं छिद्र निनमें ऐसो जो शरीर ताहीको बिने है कहे नाना मतनमें परिके वही कर्म करेहे जामें अनेक जन्म शरीर धारण करत जायहै जो कहो कोऊ जान- तही नहीं है तो गुरुके प्तापते जो कोऊ मेरों रूप भाष्यो है जैसो सो तो कोई बिरछा जन सुधि पायो है अथोव्‌ जाको सतगुरु मिल्यो है सोई पायों है ॥५॥

शक की बिक | वि कप श् अनंत कोटि मन्‌ हीरा वेध्यो फिटकी मोल आइईहो सुर नर माने वाके खोज परेहं किछु किछु कविरन पाईहो

अनंत कोटि जे जीव होराहें तिनमें मन बेध्यों है सो या होरारूप

हि बिक

जीवको फिटिकिरिंड को मोल रहिंगयो सो सुर ने हैं मुनि जे हैं नर जेहें

(४७८ ) वीजक कबीरदास ते वही अपने स्वरूपकों खोनेहें सो किछु किछ कहे थोरहते थोर जीव पाश्नहें और कोई नहीं पायो ने आपने रूप मेरो रूप गुरुत्ताप नानि शरीरकों बिनिैया मनको त्याग्यों है तेई पायो है अथवा किछु किछु कबिरन पाई कहे साकल्य करिके हमारों भेद तो कोई जानतही नहीं है ने अपनो रूप मेरोरूप जानत ने जीव ते किछ किछ भेद पायो है | इति दह्वां कहरा समाप्त

/'धमग७*पयाारकााभाइानाबकत'

अथ ग्यारहवां कहरा ॥११॥

ननँंदी गे तै विषम सोहागिनि तें निदले संसारागे आवत देखि एक सेंग सूती ते अरु खसम हमारागे ॥१॥ मोरे वापकि दोय मेहरिया में अर मोर जेबनीगे जव हम ऐलि रसिकके जगमें तव्दिं वात जग जानीगे माई मोर झुवल पिताके संगहि सर राचि सुवलू संचातागे। अपनो मुई और ले सवली लोग कट्॒म्व संग साथागे ॥३॥ जो लो सांस रहे घट भीतर तो छग कुशल परेहेंगे। कह कबीर जब श्वास निसरिंगे मंदिर अनल जरहंगे ४॥

कबीर जी जीवनपर दया कैंकै ज्ञान झक्तित कहे हैं कि; मगहमें मिथिला देशमें परस्पर खी छोंग बतातीहैं आदर कैंके तब गे संबोधन देती हैं सो या पदर्में गे संबोधनहै अथवा गे बिगेरे जीवको कहे हैं, हे गये नीवसो कबीरनी जीवजों चित शक्ति साहबकी खत्री सो ज्ञानशक्ति मो साहबकी बहिनी तासों कहे हैं कँंदी याते कहे हैं कि प्रथम साहबको ज्ञान प्रगट होयहे पीछे साहब प्रगट होयहे सो साहबकी बहिनी भई सो चित शाक्ते जीव कहे हैं कि तें हमते सब जीपहै तित पर तें विषम है गई पतिकी सोहागिनि ह्वैगई कैसीहे तें कि निदछे संसारा कहे तें तो संसारको

कहरा ( ४७९ )

निदरेनहै हम पर विषम द्वै गईहै काहको ज्ञानकारे साहबके मिलाय दियो काहूको ज्ञानहरि संसारी करिदियो। गेनो कहे हैं सो साहबको पतिमाने वाको नर्नेंदिमानि गारीदै कहे है कीन्ही तें कहा कि समष्टिते व्यष्टि करेवाली ऐसी मायाको आवत देखिंकें हमार खसमनों साहबंढे तिनके सड्डः सूती जाइ तें अपने भाईकों पति बनाये तें बर्थीव्‌ साहबको ज्ञान काह जीवके रहिगयो साहबको ज्ञान साहिब को रहिगयों सो जौने धोखा ब्रह्मकों मानि हम संसारी भयहें सो जो हमारों बापहे धथोखाब्रह्म ताकें दोय मेहरियाहें जीव चित शाक्ति कहे हैं कि एक भें एक मोर जेठानी जोन साहब अक्ञानमृल प्रकृति धोखा ब्ह्मते जेठ सर्मष्टिक रहीहै सो तब कारण रुपा है अब काये रूपा भई अथीव्‌ चितर्शोक्ति जीव कहै है कि वही मायामें परिके अह ब्ह्मास्मि हम सब मानत भये जो कहों तम या बात कसेके जानन्‍्यो। तो जब हम ऐेलि रसिकके जगमें कहे जब हम रसिक जे साहब तिनके छोकरमे आये तब हम या बात जान्यो कि अहं ब्रह्मास्मि हम मानेन रहे संसारमें परिबेह्दी कियो साहबकी ज्ञान हमारे नहीं भयो सों साहब या छोकके मालिक नेहें तेईहैं नितके माने संसार छुटेहे बह्मताहब नहीं है सो पिता जो हमारों धोखा ब्रह्म जोनेके द्वारा हम व्यष्टियये सो जब मिस्यों तब मोर माई जो मूलछ प्रकृति सो सर कहे चिंता वज्लीकार बैराग रचिंके पिताके साथ वाह सती ह्वेगईं अर्थात्‌ नब धोखाबह्य मिव्यों तब रामा . अज्ञानरूपी माया सोऊ छृटिगई साहबको ज्ञान हैगयो सो अपना मरी और जेंतने नाता मानि राख्यों छोग कुटुम्ब॒ तिनहूं को साथही लेजाव भई अर्थाव्‌ अहंब्रह्म छोड़ि दियो जगवर्क नाते छोड़िदियों एक साहबको जान छियो उनहीं नाता मानलियों सो हे ज्ञानशक्ति | जब या मोकी जनायो तब में जान्यों॥ सो जबलों इवास है तबलों कुशहकू हैं तू काहे बिषम है गईं जब्लों दवास हु तबलों इनके आइके साहबको प्राप्ति करायके इनको दुःख छुड़ाइदेड श्वास निसरि गयेपर यम धारि डैजायेंगे अनेक योनिमें भव्करत बागो गे शरीर जाइगों। सो हे ज्ञान शक्ति ! तब तू आय सकीगी तेहिते जीवन पर तुम शऋृय सक्ती हो साहबको ज्ञान है सकेहे इत ग्यारठदव कहरा समात।

(४८०)... बीजक कबीरदास।

अथ बारहवाँ कहरा १२

या माया रघुनाथ कि वोरी खेलन चली अहेरा हो चूतुर चिकनिया चुनि चुनि मारे काहु राखे नेराहो॥१॥ मोनी वीर दिगम्वर मार ध्यान घरंते योगीहो जंगल मेंके जंगम मारे माया किनहुं भोगीही २॥ बेद पढ़ंता पांड़े मारे पूजा करते स्वामीहो अथे विचारे पंडित मारे वांध्यो सकल लगामीहो॥ शंगीऋषि बन भीतर मारे शिर ब्रह्माके फोरीदो नाथमछंदर चले पीठदे सिहलहमें वोरीहो साकठके घर कत्तो धत्तों हरि भक्तनकी चेरीही। कहे कबीर सुनोहो संतो ज्यों आवे त्यों फेरी हो «५

ज्ञानशक्ति कबीर को जवाब दियो में कहा करों मोकों कोई जीवनके उदय हान नहीं देइहै माया सबको बांधि छियो है सो कबीरनी जीवनसों कहै हैं यह माया छुदद नान पावे जबहीं आवे तबहीं यासों मुंह फेरिले तबहीं बचौंगे या सबको बांधि लियो है तुमहंको बांधि छेइगी इहां रघुनाथकी बोरी जो माया कह्मो सो रघुहै जीव ताके नाथ जे श्री रामचन्द्र तिनकी या माया है सों जीवनको धरि धरिके शिकार खेंडे है सो जब अपने नाथकों या जीव जाने निनकी या मायाहै तब तब या मायाते छूठेगो अपने बर ते जीव छूटि संकैगो अवधथवा या माया रघुनाथकी बोरी है रघुनाथकी बौरी कहे रघुनाथकों जानिबों यहै याकी स्वरूप है ९१ ५॥

शत बारहवा कहरा समात्त

अयशयलाकाकमकाक,

इातिे कहरा सम्पूर्ण

पहिला बसंत जहूँ वारहि मास बसंत होयाप्रमा[रथ बूझे विरल कोय॥१॥

जहेँ वंषें अग्नि अखंड चाराबन हरियर भो अट्ठार भार २॥ पनिया अन्दर तेहि घरे कीयावह पवन गहे कश्मछ धोय बिनुतरुवरजहूँ फूलो अकासाशिव ओविरंचि तहँ लेहिवास 9 सनकादिक भूले मवर भोय | तहँ लख चोरासी जीव जोय« तोहिं जो सतगुरु सत श्रो लखावा।तुम तासु छांड्हु चरणभाव वृहअमरलोकफललगे चाय।यह हक कवीर बूझे सो खाय७

55५ [2 ब्‌ है बू आप जहेँ बारहि मास बसंत होय। परमारथ बूझे विरल कोय॥ १॥ जहँ वष अग्नि अखंड चार। बनहरियर भो अट्रढार भार जाके कहे जोने साहबके छोकमें बारहों मास बसंत बनो रहे है सो या परमार्थ कोई बिरलछा बृझे है। सो वा रुपकातिशयोक्ति अछुंकार करिकहै हैं॥१॥ बसंत ऋतुमें सूयते अग्नि बषें है असंडधार बन जो है अद्ठारह भार बन- स्पती सो हरियर होतजाइ हैं साहबके लोंकमें कोटिन सूर्यकी प्रकारहै परंतु सबको ताप हारे ढेनवारों है बहांके सब बन संतानक आदिक हरियर -

रहे हैं डे१

( ४८२ ) बीजक कवीरदास |

पनिया अंदर तेहि घरे कोय।वह पवन गहेकश्मल घोय बिनु तरुवर जहूँ फूलोअकासाशिव विरंचितहेूँ लोहबास

बसंत ऋतुमें वृक्षतके अंद्रनमें कोई पानी नहीं धरे है चन्द्र जो है सो अमतको श्रवै है ताहीकों गहे पवन वृक्षकके कश्मलन को थोयडारे है। औंसाहबके लोक कैसो है कि, पनिया अंदर कहे वा रसरूपहै ताकी कोई नहीं लानेहे वही रसरूप छोकको स्मरण पवनहै ताके गहे कहे कियेते कश्मछ जे पाप हैं ते धोय जात हैं अथवा कामादि जे कश्मलहें ते घोय जात हैं बसंत ऋतुमें जहां तरुवर नहीं हैं ऐसो नो आकाश सोऊ १हुपन के परागन करके फूछे देखो परे है कैसो है आकाश जहां शिव बिरचि बस छेहि हैं अथीव्‌ बासओन्हे हैं सुगंषित हेरहो है। साहबको छोककै- सांहै कि जेहिका प्रकाश चेतन्याकाश, बिना तरुपरे जगवरूप फूलफूलैहै शिव

ब्रचिआदिक बास लछेहिहें॥

सनकादिक भूले भवेर भोय।तहँ लख चोरासी जीव जोय«॥

बसंत ऋतुमें चोरासी लाख योनि जीवनकी कौन गनती सनकादिक जे मुनि हैं तेऊ पुष्पमकरंद में भोयके भर्वेरकी नाइ भूलि जाहिहेँं साहबको लोकप्रकाश ब्रह्म कैसहै कि, सनक सननन्‍दन सनत्कुमार जाके भर्र में भोयके कहे परेंके भूले हैं चोरासीलाख योनि जीवनकी कौनगिनती है

8 हक.

तोहिजोसतगुरुसतकेलखाव।तुमतासुनछांड्हु चरणभाव ६॥

वहअमरलोकफललगेचाय।यहकहकवबीरवूझे सोखाय॥»॥

सो श्रीकबीरजी कहे हैं कि, ऐसो जो साहब को लोक नहां बरहौ मास बसंत बने रहै हे तोन नो सतगुरु कहे साहबके बतायदेनवारे तोकों सत्पकै- रुखायो होय तो तुम ताके चरणको भाव छांड़ो भाव यहहै कि, वा छोक के मालिक जो साहब हैं तिनहकी बताय देइईंगे | वह अमरछोक कैसा है कि, जहां चारिड फल अर्थ धर्म काम मोक्ष आनंदेके फहू लमेहें। सो है जीवों ! या बात जो कोई बुझेहे सोई खायह साहब के धाम में बारहा मास बसंत-: रहे है तामें प्रमाण कबीरजीकी साखी ज्ञानसागरकी “रुदा बसंत होंत

बसंत | (४८४ )

तेहि ठाऊं | संशय रहित अमरपुर गाऊं जहेँवां रोग शोक नहिं होई सदा अनन्द करे सब कोई चन्द्र सुये दिवस नहिं राती बरण भेद नहीं जाति अजाती तहँवां जरा मरण नहैं होई कीड़ा बिनोद करे सब कोई पुहुप विमान सदा उजियारा अमृत भोजन करें अहारा काया सुन्दरकोी परवाना उद्त भये जिमि षोड़श भाना येता एक हंस उनियारा। शोमित चिकुर उदय जनु तारा बिमछ बास जहेँयां पौढ़ाही | योनन चार प्रान जो जाही रवेत मनोहर छत्र शिर छाजा वूझिन परे रंक अरू राना नहिं तहँ नरक स्वगेंकी खानी। अमृत बचन बोले भछ बानी अस सुख हमरे घएन महूँ, कहें कबीर बुझाय सत्य शब्दको नाने, से अस्थिर बैठे आय”

इति पहिला बत्नत समाप्त

अथ दूसरा बसंत २॥ रसनापढिभूलेश्रीवसंत पुनिजाइपरिहीोतुमयमके अंत॥ १॥ जोमेरुदण्डपरडंकदीन्ह। सोअश्कमलरपरजारिलीन्ह॥२॥ तबब्रह्मअग्निकीन्होप्रकास तहँअद्धऊध्वेबरतीवतास॥ ३॥ तहँनवनारीपरिमलूसोगावीमिलिसखी पांचतहँदेखनजावँ 3 जदँअनह॒द॒वाजारहलपूर। तहँ पुरुष वहत्तारे खेलें घूर ॥५॥ तैंगयादेखिकसरहसिभूलि जलवनस्पतीबनरहरूफूलि 5 यहकहकवीरयेहरिकेदास फग॒वामांगेबेकुंडवास

रसना पढ़ि धूल श्रीबंसत।पुनि जाह परिहो तुम यमके अंत३ श्रीबसत कहे ऐश्वर्य्यहप नो बसंत ताको रसना में पढ़िके मन बचनके

परे जो साहबके छोकको बत ताको तुम भूछि गयो रसनामें पढ़ि नो कहो

(४८४)... बीजक कबीरदास।।

तामें धुनियहहै कि, औरे देवतन की उपासनामें बड़ों ऐश्वर्य्य माप्िहोइहै यह पोथिनमें पढ़ि पढ़ि भुठाइगयों वाहकी जीमैभरेते कह्यो कछुप्राप्ति नहीं मे से तुम फेरि यमके अंत कहे संसारमें परिहो जो छेहू पाठहोय तो रस- नामें ओऔबसंतको पढ़िलेहुनहीं तो पुनि यमके अंत कहे फंदमें परिहीो

जो भेरु दंड पर डक दीन्ह। सो अष्ट कमल परजारे लीन्ह२

जो या गुमान करो कि हम योगवारे हैं हम यमंके अंतमें परेंगे सो जो तुम मेरुदंडमें प्राणखेंचिकै मेरुदंडपर डका दीन्दह्यों, अष्टजो हैं आगें कमर मुलाधार, विशुद्ध, मांणपूरक, स्वाधष्ठान, अनहद, आज्ञाचक्र, सहस्ता* रचक, अठयें सुरतिकमल जहां परमपुरुषह तामें पहुंचिके जारे दीनह जथौव योगो की खबरि भूलिगई २॥

तहूँ ब्रह्म अभि कीन्हों प्रकासातहँ अद्धो ऊध्बे बहती वतास

तहँनवनारीपरिमलसोगावीमिलिसखीपां चतहदेखनजावँ 9 सो वा न्योतिर्मे छीनमयों जीवतहैं अह्मअभि प्रकाश करत भई बतास- जो अधोऊध्वे श्वास सा वहे बहतमे अथीत्‌ बहिरे आवत भे इवास वहैं रहत भें याभांति जीव तखतमें बेठि माछिक भयो गांउकारा बसंतदेखेहे सो* यहां पारिमछ कहे गंघका गांव है शरीरमें प्रथ्वीतत््व अधिकहै सो गंधका गांद शरीरहे तौने में नो नारी हैं कहे नो राहहें तहां पांचो ने ज्ञानेन्द्री हैं तेई सखी देखन जायहैं अर्थात्‌ बहें छीन ढ्वे गई हैं तह अनहद्‌ बाजा रहल पूर।तह पुरुष बहत्तरि खेलें घूर॥५॥

तें माया देखिकस रहसिभ्रादि।जसबनस्पतीवनर हल फालि

बसंतमें बाजा बजे है सो अनहद बाजा नहां पूरे रद्मो है तहां बहत्तारि पुरुष जे बहत्तरिकोठाहं ते धारे खलेहँ अथौत चेतन्यता रहिगे सो बसंतमें बनस्पती फूंड़े हैं ऐसे या माया फूलि रही है तामें समाधि उतरे फिरे काहे भूछे अथवा जेसे बनस्पतीफूलैहं ऐसे भेवगुफामें सधापीके नागिनी

कस आर अप

फूढ़ी दे तामेंतें काहे भूलिरेहे है कहा वा माया के बहिरे है समाधि नागिनि- ०]

हाके आधार ता समावडह ॥॥

बसंत (४८५ ) . यह कह कवीर ये हरिके दास फगुवा मांगे वेकुण्ड वास»।

सो या हठयोग कारके जाने कि मैं मुक्त होईेंगो, तो या समाधिमें मायाहीते नहीं छृत्यो मुक्त कहां होइगो ताते श्रीकबीरनी कहे हैं कि, हे जौवात्मा ! हरिके दाप्त तें बैकुंडबासको फंगुवामाँगि अथीव फंगुहार फगुवा खेढाइके फगुवामांगे हैं सेतिंहठयोगकियों ताक़ी फछ फंगुवा रानयोग मांगु जाते वैकुंठ बासहोई इति दसरा बसंत समाप्त |

अथ तीसरा बसंत ३॥ मेंआयडमेहतरामिलनतोहिं।अवऋतुवसन्तपहिराउ मोि है लंवी पुरिया पाइ झीन। तेहि सूत पुरा ता खुंग तीन ॥२॥ शर लागे से तीनि साडि। तहँ कस वहत्तरि लागगांठि॥३ खुर खुर खुर खुर चले नारि।वहबेठिजोलाहिनिपलथिमारि४ सो करिगहमें दुइ चलाहि गोड़।ऊपर नचनी नचि क्रेकोड़«% हैं पांच पचीसो दशहु द्वार। सखी पांच तह रची पमार ४६॥ वें रंग बिरंगी पहिरें चीर। घारि हरिके चरण गांतरे कबीर ॥»॥

में आय मेहतर मिलन तोहि।अवऋतुव संतपहिरा उमोहई

हैं लंबी पुरिया पाइ झीन तेहि सूत पुराना खुंदा तीन ॥२॥

जीव कहैहें मेह कही बड़ेकी जो बड़ाते बड़ा होइ ताकेा मेहतर कहै हैं फारसीमें। सो इश्वरनते ब्क्मते जो बड़े श्रीरामचंद्रहैं तिनसों जीव कहे है कि, में तुमको मिछिन आयोहेों। सो जोने छोकमें सदा बसंत रहे है स्रो मोको पहिराओ अर्थीव्‌ मेरो प्रवेश कराइ दीजे ताना रूप जो मेरे शरीरकों बसंत तातें छुड़ाइये सो हूम्बी पुरिया कौन कहावे जो ताना तने है पूरे है

( ४८६ ) बीजक कबीरदास

सो मैं बासननि कारके बहुत हुम्बा है रहोंहों कहे बासर्नाने कारेके में संसारमें फेलिरहोहों औपाई वा कहावैहै जो ताना साफ करेहे सो या आत्माका साफ करिबो बहुत झीनहे कहे जब कोई बिरक्े संत मिलें तब आत्मा शुद्ध होइ काहेतें के, यह सृतनीव पुरान कहे अनादि कालते तीन खूंटा जो हैं सत रज * तम तामें बँषों है

शर लागे से तीनि साडि तहँ कसनि बहत्तारे लाग गांठि३ 4 जे 8 ३5 का #

खुर खुर खुर खुरचल नारावह बीट जालाहान पढाथ मार

पाई में शर छांगेहे सो शरीरमें तीनिसे साठि हाड़हैं तेई शरहैं बहत्तारे जे

कोठाहें तिनमें बहत्तारे हजार नसनकी गांठि एक एककोठनमें छागहेँ तेई कसनी

हैं बिनतमें जोन बीच दे चलाने है सो नारि कहावै है से या

शरीरमें नाड़ी जो है सो खुर खुर खुर खुर चलेहे।ओ जोछाहिनि जो है

०३५०० पी

बाद्धे सो पछथी मारिके बैठी है अथौत्‌ देहही में निश्चय करिके बेठी है

' स्लो करिगहमें ढुइ चलहि गोड़।ऊपर नचनीनचि करे को ड़

सो यह तरहकों जो शरीर है सो कारेगह है जहां जोछाहिनि बैठे है धमारि महलूमें होयहै सोशरीरे महलूहै सो कारेगहमें नोछाहिनि दोऊ अंगठा चढावे है ऊपर तानामें नचनी कोड़ करे है कहे नाचे है। इहां शरीररूपी करिगहमें बुद्धिर्पी नोछाहिनि बैठिके कहे शुभकर्म में निश्चय करे है कहू अशुभ कर्ममें निशचय करे है यही दोऊ अंगूठाकों लवचाइबेंहै वृत्तिबुद्धिकी कहूंशभमें कह अशुभमें नायहै यही नचनी है सो नाचे है घमारि पक्षमें नाचत में नचनी को गोड चलेंहै ऊपर कोड़ करे है कहे भावबतावै है

हैं पांच पचीसो दशहु द्वार। सखी पांच तहँ रची धमार ॥६॥ . कषाय पांच जे हैं अविद्या आस्मिता रे राग द्वेष अभि- निवेश पचीसो जे तत्त्व हैं जीव माया हे महत्तत््व अहंकार शब्द रूप रस गन्ध स्पशे दशोंइंद्रिय एकमन २० पंच भूत ५५ ताहीमें दरो द्वार ऐसे शरीर में पांच सखी ने हैं पंचभाण ते धमारि

बसंत ( ४८७ )

रचतमंई ताना पक्षमें पांच पचीस तत्त्वकेकह सबकोरीके साजु आइईगे धरिकहे सबभपने अपने धमारमें छंगिंगे कैड़ावारे माड़ीवारे पुरियावारें करिगहवारें तानासाफकरिवारे धमारिपक्षमं पांच सखी धमारिे रचैहैं दुइ एकबार कियो एकदेखैया भों

वे रंग बिरंगी पहिंरें चीर। धारे हरिके चरण गावे कवीर॥७॥

पांचों जे सखीहें पांच तत्त्वनका रंग बिरंग चीर पहिरें | स्व्गेंदय में लिखे है शवास तत्त्वनके रंग जुदेजुदे देखे परे हैं कोरीके घरके अनेक रंगकेंचीर पहिरे हैं धमारि पक्षमें केशारि कस्तुरी करिकै गुलारू भोड़र करिके चीर रंग बेरंग होयहैं ते पहिरे हैं सो यहि तरहकी धमारे या संसारमें है ताते हरिको चरण धरिके कबीर गांव है कहै है या धमारिकों प्रथम या कहि आये हैं जीने छोकमें सदा बसंत है तहांगवश करावो | इहां धमारि कहें हैं तात्पर्य यह कि, या शरीरकों ताना बाना जनन मरण में परिरहों है या धमारे तुमको देखायों जो रीझे होहु तो में फगुवा यहीं मांगोहों कि जहाँ सदा बसंत है वा छोक में प्रवेश करावो रीक्यो होहु तो तुम हरिहों या ताना बाना धमारे हरिलेड | या कहो कि, “ऐसी धम्मारे तें रचु” कबीर कहे हैं कि हे जीव हरिके चरणधारे ऐसी बिवयकरु

इति तीसराबसंत समाप्त अथ चोथा बसनन्‍्त बुढ़ियाहँसिकहमेनितहिवारि।मोहिऐसितरूणिकहुकोननारि ये दांत गये मोर पान खात।ओ केश गयल मोर गैगनहात नयनगयल मोरकजल देत।अरुबैस गयलपर पुरुष लेत जान पुरुष वा मोर अहार।में अन जानेको कर *गार७ कह कवीर बुढ़ि या आनंद गाय। पूत भतारहि वेठी खाय«॥।

( ४८८ ) बीज कबी रदास !

बुढ़ियाईँसिकहमैंनितहिवारि। मोहिऐेसितरुणिकहुकी निनारि बुढ़िया जो मायाहै सो हँसिके कहेंहे कि में नित्यही बारीहों माया अनादि है याते बुढ़िहाकझ्ों है तामें ममाण ““अजामेकांछोहित' इत्यादि इँतिंके कह्मो याते या आयो कि साधनकरिके छोटे छोटे या कहे हैं कि.हमको माया जी हैगई है अथीव्‌ अब छूटि जाइहे में नित्यही बारीहों सब कार्य रूपते उत्पन्न होत रहों हों मोहिं अस तरुणि कौनि नारे है सब जीवनको संग करोंहों बढ़ा कबों नहीं हों | दांत गये मोर पान खाताओ केश गयल मोर गँग नहात॥२॥ दांत गये पान सात जो कह्यो सो पान जो है वेद ताको तालर्य नो जाने है यही खाब है सो वेद तातयीरथ जानेते कामादिकजे मेरे दांतहैं निनते जीव सजननको ज्ञानखाय छेहहे ते दांत मेरे जातरहे काम क्रोधादिक मायाके दांतहैं तामें प्रमाण रत्नयोग ग्रंथ कबीरतीको काम कोध लोम मोह माया इन दांतनसों सब जग खाया ? साहबकों जो कथा चरित्र

आए ओर

रूप गंगा तामें जो नहायहै अथीत्‌ सुने है सो कुमति रूप केश मेरे जातरहे हैं॥२॥

ओनयनगयलमोरकजलदेत अरुवैसगयलप्रपुरुषलेत साहबको ज्ञानरहुप कज्जछ जो कोई दियो तो भेरे नयन जो निरंगनहें सो जातरहे हैं। अथीव्‌ चैतन्यके योग कार्ेंके माया देखे है औ। नयथनकों निरंजन कहे हैं तामेंममाण कबीरणीको “नयन निरंजन जानि भरममें गतपरै” बैस जो मोर है सो परम पुरुष ने श्रीरामचरूढहें तिनकों छेत अपने बश्के बेस मोर जात रहे है अर्थीव चारिए शरीर मोर नहीं रहतेंहे जान पुरुषवा मोर अहारामें अन जानेको कर शँगार जान पुरुषवा कहे जो या कहेहें कि, हम बरह्मको जानिलियो, हमहीं ज्ह्म हैं। तेतो हमार अहारहीहैं आपने आत्मैको भूलिगये अजान जे हैं (तिनको श्रंगारे किये हैं नाना विषदेके छोमाय लेउहों | अर्थीव जानो अनानकों

<4/ ४४०

बसंत ( ४८५९ )

विद्या अविद्या रुपीति बशकरि छियों है धुनि याहै, निनको साहव आपनों हंसरूप दियो है तेई बचे हैं या उपसंहार कियो '४ कह कवीर बुढ़िया अनेद गायापूत भताराहि वेठि खाय॥५॥

सो श्रीकबीरनी कहे हैं कि ब॒ढ़िया जो माया है सो जैसो या पद कहि आये तेसों आनंदसों गावेंहे | वेद शाखादिकनमें बाणीरूपते सबनीय सुनेंहें परन्तु या नहीं जानेहें कि, जीव ब्रह्म माया के मितरे है पूत नो जीव है भतार जो बह्नहै ताको बैठिखाय है अर्थीव जबनीव संसारी मयो तब संसारमें डारिके खायो जब ब्रह्म में ठीनमयो स॒ष्टि समय आयो तब वा बअक्वज्ञानहँ नहीं रहि जाइहे बह्ाहूंकी खायो

इति चोथा बसंत समाप्त

अथ पांचवां बसंत ५॥ तुम बूझहु पृण्डित कोन नारि। कीह नाहि विआहल रहल छुमारि | यहि सब देवन मिलि हरिहि दीन्ह। तेहि चारिहु युग हारि संग लीन्ह २॥ यह प्रथमाहि पद्चिनि रूप आय। है सांपिनिं सव जग खेदि खाय ३॥ यावर युवती वे वारनाह। अति तेज तिया है रेनि ताह॥ कृहकवीरसवजगपियारि | यहअपनेब॒लकवेरहलमारि ॥५॥

तुमबूझदुपंडितकीननारि।कोइनाहिंविआइलरहलऊुमारि यहि सबदेवनभिलि हरिहिदीन्हातेहिचारिहुयुगहरिसंगलीन्हर

श्रीकबीरनी कहेंहँँ कि, हे पण्डित | तुम बूझों तो या शब्डिनी हस्तिनी चित्रिणी पद्मिती चारि पकारकी नारिनमें कौन नारिहै या माया है ! अर्थीत्‌ एकोके

(४९० ) बीजक कबीरदास।

लक्षण नहीं मिलत एकीौके लक्षण जो मिलते तो कुमारि रहती बिभाहि जाती याहीते अब तक कुमारि है जब समुद्र मथिगयो छक्ष्मीकद़ी सौं

8 कल कप हि

सवदेवामाले हरिको देतभये सो हरि चारिहुयुग सड़ही राखतभये आप | 6० पी 4 कर 8 $ बकरे यह प्रथमहि पद्मिनिरूपआय है सा पेनिसब जग खेदि खाय यावर युवती बबार नाह। अंति तज तिया है राने ताह ॥५७॥ प्रथमतों बह्मजे हैं विष्णु तिनकी नाभिमें कमलिनीहे सो लक्ष्मी रूपहै सों आय अब घन रूप सांपिनि है संसारको खेदिखाय है या माया बरयुवती है कहे श्रेष्ठ है बार ने छरिका बह्मा विष्णु महेश तेई याके नाह हैं ताह: कहे तौन जो संसार रूपी रेनि है तौने में अति तेनहै [आप #2 2 बे कप कह कबीर सव जगपियारि।यह अपने बलकवे रहल मारि « . सो श्रीकवीरजी कहैं हैं कि या माया सबजगवकों पियारिद आपन बाछ-

जे जीव तिनको मारि रही है अथोत्‌ सब जीवनको बांधे हें जनन मरण करावै है

इतें पांचवां बसंत समाप्त

अथ छठवां बसंत माई मोर मन॒ुष है अति सुजान। चंथा कुटि कुटि करे बिहान बड़े भोर उठि अँगन बहार बड़ी खांच ले गोबर डार ॥२॥ बासी भात मतुष खाय। बड़ घेला ले पानी जाय ॥श॥। अपने सेंयां बांधी पाट लेरे बेंचो हांटे हाट कह कबीर ये हरिकेकाज जोश्याके ढिंगर कोन है लाज < जीव शाक्ति कहें है।कै, हे माई माया ! मोर मनुष नो मनसो बड़ा

सुज्ञान है। धंधा जो बाल पौगंड किशोर ताहीको कूटिकूटि कहै कैके बिहान- कहे दहांत के देंइहै सुजान याते कह्मो कि, मोकी नहीं जान देइहे आपही

बसंत (४९१ )

जाने है बड़े भोर कहे जबदूसर भयों तब आंगन बहार कहे गर्भबासमें ज्ञान- दियो अंतःकरण साफकियों यहीबहारबों है बड़ीखांच नो पसूत वायु तौनें- ते गर्भरूप गोबरटारचों अथोव्‌ बाहर निकारयो | बासीभात जो पूर्व कम ताको दुःख सुख आपही भोंगे है | चैछातो बुद्धिहि ताको लेके गुरुवन के इहां नाना बानी रूप पानी ताको लेनजाइ है अर्थात्‌ बुद्धित निरचयकरे हैं| . ऐसोनों मोर सैंयां है ताका पाट जो ज्ञान तामें बांधे पाऊं तो हाट हाट में बेंचों अथीत्‌ साथुनकों संगकरिके अपनों याको सम्बन्ध छोड़ायदेडँ सो श्रीकबी रजी कहे हैं कि, नोइया नो जीव तौनेको दिंगरा नोमन सो हरि जे श्रीरामचन्द् तिनको काज में जो नहीं छांगे तो याको कोन छाज है। ध॒नि या है जो साह- बमें छंगे तो यह शुद्ध होइनाय ९-५

इति छठवां बसंत समाप्त

अथ सातवां बसंत ७॥

घरहीमें बाबुल बढ़ी रारि।अँग उठि उठि लागे चपल नारि वह बडी एक जेहि पांच हाथ। तेहि पचहुनके पतच्चीस साथर पत्चीस वरतावें ओर ओर वे ओर वताव कई ठोर ३॥

सो अंतर मध्ये अंत छेइ | झकझेलि झुलावे जीव देह ४॥ सब आपन आपन चहैं भोग। कहु कैसे परिहे कुशल योग< विवेक विचार करे कोइ। सब खलक तमाशा देख सोइ मुख फारिहँसें सब राव रंक तेहि घेरे पेहों एक अंक ॥»॥

नियरे बतावें खोजें दूरि। वह चहुँ दिशि बागुरि रहल पूरि हे लक्ष अहरी एक जीड। ताते पुकारे पीउ पीड ९.॥

विवक

अबकी बारे जो होय चुकाव। ताकी कबीर कहपूरिदाव १०

( ४९२ ) बीजक कबौरदास

बरहीमे बाबुल बढ़ी रारि। अंग उठि उठि लागे चपलनारि१ -

वह बड़ी एक जेहि पांच हाथतिहि पचहुनके पच्ची सत्ताथ २॥

है बाबू ! नीव तुम्हारे घटहीमें कहें शरीरहीमें रारि बढ़ीहै काहेते कि. हमेशा डाठि उठि चपल नारे जो माया सो तेरे पीछ छंगेंहे॥ १॥तामें वह एक सब॑ते बड़ी काया नाके पांच हाथकहे पांच तत्त्वहैं पृथ्वी, अप, तेन, वायु, आकाश, पुनि एक एक तत्त्वनके साथ पांच पांच मकृतिहें सो असकैके पच्चीस प्रकृतिहैं कहेहें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार चोथ, पांचों अन्तःकरण जामें चारचेसरहेंहें। ये सब निराकारहें। ऐसे आकाशके साथहें। ओपम्ाण अपान समान व्यान उदानये कर्म करावैहें एते वायुके साथहैं आंखी कान ताक निद्ढा त्वचा येझ बिषयकी मकाश करे हैं एते _ अभ्रिके साथ हैं शब्द स्परें रूप रस गंध सी येऊ पांचो तृप्ति कत्तो हैं एत जल पंचक हैं जढकेसाथहें हाथ पांव मुख गुदा छिंग येऊ आधार- भूत हैं एते प्रथ्वीकेसाथहैं यही रीति पचहुन तत््वनके साथ पचीसों अकृति हैं

चर

पच्चीस बतावें और और वे और बतावें कई ठोर

सो ये पतन्चीसो प्रकृति जे हैं ते और और अपने विषयको बतावे हैं से| कहेहें अंतःकरणको बिपय निर्विकषष | मन को विषय संकल्प विकर्प ! खित्तको विषय बासना ! बुद्धि को विषय निरचय अहंकारको बिषय करतू- ति। प्र।णकों विबय चछूब ऊअपानको विषय छोडब | समानकी विषय बैठव। उदालको विषय उठब। व्यानको विषय पीढ़ब छानको विषय सुनव | आँखीको विपय रुप नाकको विषय सुंघवो जीभ्रको विषय बोलिबो। त्वचा को विषय स्पर्श छाब्दको विषय राग रस रूपछो को विषय कोमलत्व कठिनत्व शीतरत्व उष्णत्व | रूपकोबिषय सुंदरत्व रलकीविषय स्वाद | गंधकी विषय सुबास इनको वे पचीसो प्रकृतिबतावें हैं ईंसब कई ठौर और बतावे हैं कहे चौरासीलक्षयोनि नीवको बतावैहं

सो अंतर मध्ये अन्त लेइ।झक झेलि झुलाउब जीव देह ४॥

बसंत ( ४९३ )

हें मे कैसे क्‍ हक यो्‌ सब आपन आपन चहें भोग कह कैसे परदे कुशलयोग < विद विज बीबेक विचार करे कोइ ।सव खलक तमाशा लखे सोइ६ सोये विषय कैसे हैं कि अंतरमें अंत लेइहें कहे गड़ि जाते हैं झकझेलि कैकहे जोरवारी झुठाडव जो आवागमनहै सोजीवको देइहें से ये सब आपने आपने भोगचाह्यो तबनीवकों कुशछू को योग केसे परे अथीत कैसे कल्याण पाँवि सो ये बंघनकी विवेककहे बिचार कोई नहीं करे है के क्या सांचहै क्‍या झूंठहे सब खछक कहे सब संसारके छोग बाणी विष्यनकों तमाशा देखहैं वहीमें अरुझि रहेहें 4 ३७० + का, अल अरे. अं + मुख फारे हँसे सव राव रंक। तेहि घरन पेही एक अंक 4 पा जी छा आर > दि ९५ प्‌ हर नियरे वतावें खोजें दूरि वह चहु दिशि वागारे रहलूपूरे है लक्ष अहेरी एक जीड। ताते पुकार पीउ पीउ॥ ९॥ सो वही विषयमें परिके मुख फारिके राव रंक सब हँसें हैं या दुःखदायीहे विषय या अंक कोंऊ नहीं धरन फवे हें तेहिकी सो वेद शाख पुराण साहबको तो नियरेही बतावैहें दूरिखोने हैं काहेते कि, मायारूप बांगुरे सर्वत्र पूरिरहीहे < सो येतो सब शिकारी हैं लक्ष कहे निशाना एकजीवहीं है तते हे जीव ! तें पीउ पीड पुकारे तबहीं तेरों बचाउहे

है आिलि

अबकी बारे जो होय चुकाव। ताकी कबीर कह पूरिदाव १०

सो श्रीकबीरजी कहे हैं कि, अबकी बार जो मानुष शर्ररमें चुकाव होयगो साहबको जानेगा तो ताकी पूरिदावहै काहेते कि अब॒कीबारके चूकेफेरि ठिकाना लछंगेगो चौरासीछाख योनिन में भटकैगो फेरि जो भागन शररर पांवैगो तब पुनि नाना मतनमें लगिके चोरासी छाख योनिमें भ्कैगो उद्धार होइगो तांते अबकी बार नो समुझे साहबकी जाने तो तेरों पूरो दांव परे तामें प्रमाण कबीरनीकीसासी ल्ख चौरासी भटकि के, पोमें

अटकी आय अबकी पौ जो ना परे, तो फिरे चौरासी जाय १० ॥,. इते सातवां बसन्त समाप्त

( ४९४ ) बीजक कबीर दास

अथ्‌ आठवां बसन्‍्त्‌ <॥

कर पछवके वलखेलेनारि।पण्डित जो होयसोलेइविचारि कपरा नि पहिर रह उघारि।निर जीव सो धनअतिपियारिर२ उलटी पलटी बाज सो तारा।काहुह्ि मारे काहुहि उबार॥३॥ कह कबीर दासन के दासाकाहुहि सुख दे काहुहि उदास8॥ कर पछवके वलखेलेनारि।र्पाण्डित जो होयसोलेइबिचारि सो श्रीकबीरजी कहे हैं कि, नारि जो माया सो पछव जो राम नाम से करमें ढेँंके वाहीके बल खेंढैहे जब प्रथम यह जगव्‌ की उत्पत्ति भई तब राम नाम लैके बाणी निकसी है तामें प्रमाण “' रामनामंठैउचरीबाणी ताही जगत मुख अर्थ में चारिड वेद इंदवर ब्रह्म सब संसार निकसेहैं तामें भ्रमाणसायरकों रामनामके दोई अक्षर चारिउवेद कहानी सो तैनेहीके बलते सबसंसार बांधे लियोहै | सो जो कोई पंडित होइ सो बिचारिके छैलेइ जगत्‌मुख साहब मुख यामें दोऊ अर्थ हैं सो साहब मुख अर्थ रामनाममें लेइ

जगवमुखभर्थ केवल माया खेंलेंहे ताको छोड़दिइ कपरा नाह पहिर रह उचारे।निरनीव सोधन अति पियारिर उलटी पलटी वाजे सो तार। काहुहि मारे काहुहि उबार३॥ : सो वा नारि माया कैसी है कि कपरा नहीं पहिरे उपारही रहै है अथीव वह माया सबको मुंदेहै वाको मूंदनवारों कोई नहीं है नो कहो वाको अहम मूँदे होइगो तो निर्मीव जो ब्रह्म सो धन जो माया ताक अति पियारहै अथौोत वाहूकी सब्तित कियेहै ओऔ पूनि कैसाहै कि उलटी पछटी तार बाजैहे कहे काहको अविद्यामें डाग्कि नरकदेइहै काहको विद्यारुपते

स्वग सत्यलोकादि देइ है

कह कवीर दासनके दास।काह सुख दे काहू उदास॥४॥ ओऔ कबीरनी कहे हैं कि, दासनके दास कहे बह्यादरिक जे माया के दास तिनहूंके दास जीव तुम्हारी माया कैसे छूटे वे ब्ह्मादिके मायाते नहीं

बसंत (४९५ )

छूटे या माया कैसीहै काहको ते सुखदहै काहू कैति उदास है। कहे 'डनके स्पशैनहीं करिसकेहे अथोद्‌ ने साहब को जानेहें तिनकी कैति उदाहहै 'तिनहींके दास तुमहूं होड तब उबार होइगो माया बह्मनीवके परे श्रीरामच- न्द्रही हैं तामें प्रमाण * राम एवं पर॑ ब्रह्म राम एवं परंतपः। राम एव परंतत्त्वं आऔरामो ब्रह्म तारक ”? इतिश्रुतेः

इतति आठवां बसनन्‍्त समाप्त

.. _ अथ नवां बसन्त ९॥ ऐसो दुलेभ जात शरीर | रामनाम भजु लछागे तीर गये वेणु वलि गेहें कंस | दुर्योधन गये बूड़े बंस पृत्थु गये पृथ्वी के राव विक्रम गये रहे नहिकाव॥ छो चकवे मंडलीके झार। अजहूं हो नर देखु विचार ॥8॥ हनुमत कश्यप जनको वार। सब रोके यमके धार ॥५॥ गोपिचंद भल कीन्हों योग। रावण मारिगो करते भोग॥६॥ जातदेखु अस सबके जाम। कह कवीर भज रामे नाम॥»॥ चौरासी छाख योनिनमें भटकत भठकत यह शरीर पायो दुर्कलम सो वथाही जायहै सो राम नामको भजु सेवा करु जाते तीर छंगे। छो चकवे कहिये बेणु बलि ३े कंस दुर्योधन प्रथु विक्रम ये छवो चक्रवर्ती भूमिमंडल के, ते शरीर छोड़िके नातभयें।सो हे नर अनहू बिचारिकि त्‌ देख हनुमत कश्यप अदिति जनक कहे ब्रह्मा, बार कहे सनकादिक ते ये अबछो रामनाम कहि यमको धाररोकेहें अर्याव्‌ जे उनके मतमें जाय रामनाम कहें ते संसारते छूगिही जायहैं उनपे यम- को बल नहीं चलेहें गोपीचन्द योगीरहे रावण भोगीरहो पे रामनाम नहीं भने ते दोऊ मरिगये सो श्री कबीरजी कहे हैं कि याही भांति

॥०० ००

बेणुके स्थानमें विष्ण लिखाहै

अन्य प्रतियों तेयॉमें धारकी जगह द्वार लिखांहे

| में दसरी प्रतियोंमें

( ४९६ ) बीजक कबीरदास

सबके जामा जे शरीर ते जात देखे हैं ताते रामनाम भजु भनसे वाय[ धातुहे ताते तहूं रामनामकी सेवा करु तबही संसार समुदके तीरलगैगो नहीं ते बहि जायगो रामनामके जपैया नहीं मरे हैं तामें ्रमाण कबीरजी को पद “हम मरें मारे है संसारा। हमको मिछा नियावनवारा अबनामर्सें मोरम - नमाना सोइ मुवा जिन राम जाना साकतमरे संतनन जीवै भरिभरि रामरसायन पीव हारे मरिहें तो हमहूं मरिं हैं। हारे मेरें हम काहेको मरि हैं कह कबीर मन मनहें मिलावा अमर भये सुख सागर पावा” १-७ इते नवाँ बसंत समाप्त !

अथ दशर्वां बसंत १०

सवहीमदमातेकोइनजाग।सोसगहिचोरघरसुसनलाग १४ योगीमदमातैयोगध्यान पैंडितमद्मातिपढ़िपुरान तपसीमदमातेतपकेभेव संनन्‍्यासीमातेक्रिहमेव हे मोलनामदमातेपढ़िससाफ।काजीमदमातेकैनिसाफ ४॥ शुकदेवमतेऊघाअकूर हनुमतमदमातेलियेलेगूर « !! संसारमत्योमायाकेधार राजामदमातेकारिहँंकार 5 ॥। शिवमातिरहेहारेचरणलेव | कलिमातिना[मदेवजयदेव ॥७॥ वहसत्यसत्यक्हसुम्रतिवेद जसरावणमारेघरकेमेद ८॥ यहचंचलमनकेअधमकाम।सोकहकबीर भज॒रामनाम

यहि पदकों समेटिके अर्थ करे है यहसंसारमें सबकोई मदमे माततभयों, जागतकोई भयो। सो जिनको जिनको यह पदमें गनायआये तेते प्रथम जैसे रावण घरके भेदते मारे गयो, तैसे मनके भेदतें मारे गये। परन्तु इनसबमें जे रामनामको जप्यो तेई छूटे हैं हनुमदादि शुकादि ने काहिआये यह मन- के तो अधम काम हैं जे रामनामको नहीं नाने ते संझारहीमें परे ताते तें हूं

३१ इनसाफ को पूर्वी भाषामें निस्ताफ बोलते हैं इसाका अथे है न्याय | स्मृति !

बसत (४९७ )

संसार सागरको पार करनवारो एक राम्र नामही है कमें प्रमाण पद्‌ “माघव दुख दारुण सहि ने जाइ मेरी चपल बुद्धि ताते का बसाइ तन मन भीतर मदन चोर। तब ज्ञान रतन हारे लीन मोर हों में भनाथ प्रभ॒ कहों काहि अनेक बिगूंचे में को आहि सनकसनंदन शिव श॒कादि आपुन कमछा पति भो त्रह्मादू योगी जंगम यति जटाधारि अपने अवसर सब गयेहारि॥ सो कह कबीर कारे संत सात अभिअंतर हरिसों करहु बात॥ मन ज्ञान जान कार कारे बिचार | श्री राम नाम भजु होठ पार”॥ १-६ इति दल्नवां बसंत समाप्त

अथ ग्यारहवां बसन्‍त ॥११॥४ शिवकाशीकेसी भेतुम्हारि।अजहंहो शिवदेख हुविचारि १॥ चोवाअरुचन्दनअगरपान। सवघरघरस्मृतिहोइ पुरान॥२॥ वहुविधिभवननमेंलगेंभोगअसनगरकी लाहलकरतलोग बहुविधिपरजानिभंयहेंतोर। तेहिकारणचितहेढीठमोर॥७॥ हमरेबालककरयदैज्ञान तोहींहारिकोसमुझवेभान जगजोजिहिसोंमनरहललाय।सोजिवकेमरेकहुकहँसमाय तहंजोकछजाकरहोयअकाजहिताहिदोपनहिंसाहबलाज तबहरहपितसोकहलभेव जहँहमहीहेंतहद्सरकेव तुमदिनाचारिमनधरह॒ थी रापुनिज सदेखहतसक हकवीर ९॥

शिवकाशीकेसी भेतुम्हारि।अजहं हो शिवदेख विचारि १॥ चोवाअरुचन्दनअगरपान।|सवघर परस्मृतिहो इपुरान २0 बहविधिभवननमेंलगेंभोग।असनगरकी लाहलकरतलोग

बहुविधिपरजा निर्भयहँतोरातिहिकारणचितहेदीठमोर ॥४॥

श्री कबारजा कहे हें कि जब म॑ बाड़ापन साधन करत रह्या तबहीं

' देवतनकों दर्शन होत रह्मो है। सो में महादेवजीते पृछथों कि, यह काशी डे

६४९८ ) बीजक कबीरदास।

तुम्हारी कैसी भई है, अनहं तो बिचारि देखो तुम्हारी काशीम चन्दन चोवा अगर छगावै हैं, पान खायहैं घर घर स्मृति पुरान होंइहैं, बिविध भांतिके मेवा पकवान भोग छगावे हैं, यही रीतिते नगरमें कोछाहल छोंग कारिरहे हैं ऐसे परजा तुम्हारे निरभेय होइ रहै हैं तौने कारणते मोरो चित ढीठ होइ गये है १-४ कि 2 8 का अर हम्रबालककायहलज्ञान | ताहाहारंकासश्ठझ्ञवेआन

जगजो जेहिसोंमनरहललायासो जिवकेमरेकहुकहँसमाय ६॥ सो हम जे सब बालक हैं तिनकर यहै ज्ञान है तुम जे हो महादेव हरि जे हैं श्रीरामचन्द्र तिनकी तो समुझावे आनहैं काहेते कि, वेद द्वार यह कहते हैं कि, जब संसारछूटे है ज्ञान होइहै तब मुक्ति होईहे और ये सब काशञीमें जे नाना विषय भोग करे हैं संसारमें लिप्त रहे हैं सो यह वेदेके ममाणसे मुक्त हो यबों मानत है ॥५॥ और जगत्‌ में नो जोनेमें मनछूगंवे है सो शरीरकछूटे कहो कहां समायहै अथीत जाहीमें मन लगांवै है ताहीमें समाय है यह वेद में लिखे है॥अन्ते या माति; सा गतिः॥” सोहम तुमसों पछे हैं कि विषयमें मन छगाये मरे जे काशीके छोग ते कहां जायहें ? 3. |. कक न्‍ 2> आीविक 9 तहजाकदुजाकरहाइअकाज 'हताहइदापिसाहबनलाज (७॥ हरहर्षितद्वेववकहलभेव जहँहमहींइतहँदुसरकेव तुमदिनाचारभनघरहुचीर।पुनिज सदेखहुतसकह कबी र॥ ९॥ सो जाकर अकाज होइहै ताहीकी दोष है काहेते, वाके कमेंही ते अकान होइहै साहब जो आपहे श्रीरामचन्द्र तिनकों कौन छान है जो आप काशीके जीवनको मुक्ति देइहें सो कौने हेतुते कहा ! औरे संसार क्या आपका नहीं है काशी ही आपकी है ? तब हर्षित हेके हर मोसे भेद्‌ बतायो कि, नहां हमहेँ तहां दूसरको है काशीमें सब संसारमें जहां हमहें अथीव्‌ हमको ने नाने हैं तेके कम कालई कैसे जोर कैसकें काहेते कि जब हम बल्माति राम नाम पायो है तब जान्यो है ताहीते मुक्त करे हैं राम नामकों उपदेश करि श्रीरघुनाथनीको ज्ञानदेंइहै वाको तब मुक्त होइहैँ सेकाशीहूमें रामनाम दै मुक्त करे है औरह देशमें राम नाम पाइके म॒क्तद्वै लाइहे सो दिन- चार तुम मनमे धीर धरो पुनि नख देख्यों तस हे कबीर तुम कटह्मों अथोव

बसंत ( ४९९ )

ऋष के आह का.

जैसे हम रामनाम देके जीवनकों उद्धार करते हैं तैसे तुमहे करोंगे तब तस देखोंगे कि राम नामते कैसेह विषयी होइ पे बाकी उद्धारई होइ नाइहे।औ काशीमें रामनामही ते मुक्तिहोइहै रामई नाम महादेव देहहें तामेंप्रमाण पेये पेये- अ्वणपुटके रामनामाभिरामं ध्येयं ध्येयं मनसि सतत तारक अह्मरूपम जत्पं जल्पंप्रकृतिबिकृतोी भाणिनां कणमलछे वीश्यांवीष्यामटतिनटिझ: कोपि काशी निवासी इतिस्कांदे!!

इति ग्यारहवां बसंत समाप्त

अथ बारहवां बसंत्‌॥ १२

हमेरे कहल कर नाई पतियार।आए बूड़े नर सलिले चार१॥ अंचा कहे अब पतिआय। जस विश्वा के लगने जाय॥२॥ सोतो कहिये अतिहि अजझाखसम ठाढ़ ढिग नाहीं सूझ३

आपन आपन चाहईें मान। झुठ परपंच सांचके जान॥४॥ झूठा कबहूं करो नहि काज में तोहि बरजों सुनु निरलाज« छाड़ह पार्खंड मानहं वात। नहितो परिहो यमके हात ॥६॥ कहे कबीर नर चले सोझ। भंठकि म॒ये जस वनके रोझ

हमरे कहल कर नहिं पतियाराआपु बूड़े नर सलिले चार १॥ अंचा कहे अंध पतिआय। जस बिश्वाके लगने जाय २॥

साता काहय आताह अबूझ | खसम ठाढ़ ठिग नाही सूझ दे श्री कबीरनी कहे हैं कि, हमरे कहे ये जीव कोई नहीं पतिआयहैं साहब में कोई नहीं छगते हैं: आपने खुशीते बानी रूप सलिलमें बड़े जाते हैं बानी पानी आगे कहि आये हैं आंधर जे गरुवा छोगहैं ते नाना मतनको बतावे हैं ओर ऑधर जे जीव ते ग्रहण करे हैं साहब को नहीं जाने हैँ भैंस बेशया की छगन, वह तो नाना पुरुषते समे है एककों नानतिही नहीं है ऐसे नाना

उपासना मानव हू सा साहब का मानतहां नहीं है २॥ रु जीवन को

(५०२) . बीजक कबीरदास

छिलकत थोथे प्रेमतों, धरि पिचकारी गात। करि लीनो बश आपने; फिरि फिरे चितवद जात ९॥ ज्ञान गाड़ ले रोपिया, त्रिगुण लियो हे हाथ शिव सन ब्रह्मा लीनिया, ओर लिये सब साथ ०॥ एक ओर सुर मुनि खड़े, एक अकेली आप | दृष्टि परे छोड़े नहीं, करे लीनो यक छाप ॥११॥ जेते थे ते ते लियो, घूंघुट माह समोय कजल वाके रेखहै, अद्ग गया नहिं कीय ॥१२॥ इंद्र कृष्ण द्वारे खड़े, लोचन दोउ ललचाय

कह कबीर ते ऊबरे, जाहि मोह समाय ॥१३॥

खेलते माया मोहनी, जेर कियो संसार

6 3

कटि कहेरि गज गामिनी, संशय कियो शगार ॥१॥ रचे रँंगकी चूनरी, सुन्दरि पहिरे आय शोभा अद्भुत रूपकी, महिमा वरणि नजाय २॥ जौन माया सब संसार को जेर कियो है सो मोहिनी माया चाचरि खेले है केहरि जो है काठ सब को खाइलेनवारों सो वाकी कटिह कहे मध्यभाग है। मध्य भें बैठिके अधो ऊध्वे को खाय है। मन गण है तेही कारिके चडे है संशय रुप श्रृज्ञार किये अथीत्‌ जहैं बहुत संशय होइहै तहें माया बहुत शोमित होइ है॥ नारी छोग रचेकहे जो पीउ को रुचैंहै सो चूनरी पहिरे हैं माया नाना विषय जो जीवन को नीक छे ताकी चूनरी पाहिरे है अद्भधत शोभा 'लियनहूं की होइहै यहै मायीकी अछुत शोभा है चन्द्र बदनि मृग लोचनी, बिन्दुक दियो उचालि यती सती सब मोहिया, गज गति वाकी चालि ॥३॥

चाचर। (८०३ )

नारदकों मुखमाड़िके, लीन्हो वदन छिपाय। गबे गहेली गबेते, उछांदे चली मुसकाय 3॥|

नारी चंद बदनी मृग नयनी बिंदुक दीन्‍्हे पूँबुट उघारि गल की नाई चल्लि सबकों मोह हैं | माया कैसी है कि, चंदबदनी है चन्द्रमाके समान याहू आपने पदार्थते सबको आनन्द देय है मृगनयनी कहे यहू चचछ है। बिंदुक दौन्हे उघारि कहे आपने रागको फैछाय देंइहे गजगति कहें धीरे धीरे यती सती सबको मोहै है वे खी नारद कहें जाके रद्‌ कहे दूति नहीं हैं ऐसे ने वृद्ध पुरुष तिनकी मुख माड़िके बदन कहे बोढिबो छिनाय लेती हैं अथोव्‌ ओर बोलिबो सो छूटे जाइह नारी नारी यहँ कह है चाचरि वोऊ गाव लगे हैं अथवा माया जो है स्रों नारद्‌ ऐसे मुनिको बदि- रकी नाई मुख के दियो शीरनिधि राजाकी कन्याकों काज कंरे चले और खी गये हे गहे छोंगनके मोहिबे को चाचरि में मसक््याय चलेहे माया जो है सोऊ नारदके गबको गहिके मुसक्ष्यायके चढी है

शिव जे का कर. छक विन ५.

| अरू ब्रल्ला दधरक। दाना पकर जाय फशावा लांन

छिनायके, वहारे दियो छिटकाय अनहद जान

जे दर विप सो की आर

बाजा बजे, श्रवण सुनत भी चाव खेलनि हारी खेलिहे,

जेसी वाकी दाव

ख्री नेहें ते पुरुषनते चार्चार में पकरे फंग॒वा हैकै आपुस में छिटकाय कहे बांटिलेय हैं तैसेही मायानो है सोऊ ब्रह्मा शिव तिन को पकरिके फगुवा नो नाना मत सो छैकै अनेक ब्रह्मांडनमें छिटकाय दीन्हों चाचारे में बाजा बने है ताको सुनिके चाव होइ है खेलनिहारी आपनो दावे ताकि ताकि खेले हैं कि भाव जो है सोऊ अनहद बाजा बजाइ जौनेके सुनतमें योगिन के चाव होइहैं सो खलनिहारी जो कुंडडिनी शक्ति सो जैसो वाको दावे है तेसो खेले है जीवकी चढ़वि उतारे है

कि वि [आाक

आगे ढाल अज्ञानको, टोरे टरत पाव। खेलनिहारी खे

लिहे,बहुरि ऐसीदाव»सुरनर मुनि भूदेवता,गोरख दत्ता

व्यास।सनक सनन्दनहारिया,ओर कि केतिक आस॥<८॥

(५०४) बीजक कबीरदास

चाचारेमें खो भोडरकी ढाल आकर पांव पीछेको नहीं टरे हैं सो खेंल- निहारी जे हैं ते नब पतिकों पाय जाय हैं तब कहे हैं कि, खेलि छेंड अब ऐसो दावे मिलैगो। यहां मायानो है सोऊ अज्ञानकी ढाल आगे डीन्हे है, जाको पांव ज्ञानभक्ति बैराग्यकारे टारे नहीं टरे सो, खेलनिहारी नो माया सो खेलब करी ऐसो दांव वाकी फिरि के मिलेगा अपने बशकारि पायेहि ७) चाचरि में खिनते पुरुष हारे जाइहैं सुख माने हैं माया जो है ताहसों सुर जहैं देवता, नर जेहैं मनुष्य, मुनि जहैं ज्ञानी, भूदेव ने हैं ब्राह्मण, गोरख जे हैं योगी कवि, दत्तानेयजे हैं अवधूत, व्यास ने हैं कवि, सनकसनंदनने हें त्यागी ते सब हारिगये ओरकी कीन गिनती है

हा सा आन कि |

छिलकत थोथे प्रेमसों, धरि पिचकारी गात।

45९ लीनों विज कयत कु,.. कस इम्थिए... हे करि लीनो वश आपने, फिरि फिारे चितवत जात९॥ ज्ञान गाड़ ले रोपिया, त्रिगण लिये है हाथ

शिव सँग ब्रह्मा लीनिया, ओर लिये सब साथ॥ १०॥

चाचरि में नारी रंगकी पिचकारी गात में सींचि आपने बश कारे फिर फिरे चितवत कहे कयक्ष करे हैं इसी प्रकार मायाजेंहै सोऊ थोथे कहे झूठे- प्रेमसो संसार राग सबको गाततींचैंहे आपनेबश करिलियोहै फिरिफिरि चितवत जाते है कहे सबको ताकेरहै है क्रिकीऊ बाच्यौतो नहीं ॥५॥ औचाच रिमें खी छोग रंगकेहीदमें डारेदेइ हैं फूछनके माढामें हाथबांपे हैं पुरुषन- को बैसेही माया जोहै सोऊ ज्ञानके गाड़में ब्रह्मादिक देवतनको डारिके जिगुण की फांसीमे बांधि ढियो १० | :

एक ओर सुर मुनि खड़े, एक अकेली आप।

दृष्टि परे छोड़े नहीं, करिलिय एके छाप) ११॥

जेते थे तेते लियो, घूंचुट माहँ समाय।

कजल वाके रेख हैं, अदग कोई जाय॥ ३२॥

इन्द्र कृष्ण द्वारे खड़े, लोचन निज ललचाय

कह कबीर ते ऊबरे, जाहि मोह समाय १३॥

चाचर ( ५९०५ )

चाचारैमें दुइ पारा होयैं एकओर खी एंकओर पुरुष होईहें ऐसे सुर नर मुनि सब एक ओर माया अकेली आप है दृष्टिपरे काहको नहीं छोड़ेहै॥ ११॥ वैसे खी जे हैं ते आपने घंघुट में सबको मन समाय लेईेहैँ सबके काजर लगाइदेइ हैं अद्गकोई नहीं जायहै वैसे माया नों है सोऊ आपनेमें सबको समाय ढियो है सबके एकदाग लगाइ दियो है अदग कोई नहीं बच्यों १२॥ चाचरि में खिनके दोरे इन्द्र कृष्ण सबखड़े रहे हैं लोचन देखिबकों छलचायहें ऐसे माया जोहै ताहके द्ारमें इन्द्रकृष्णने हैं उपेन्द्र ते खड़ेहेँ मायाके देखिये को छोचन रूलचाय हैं से। श्रीकबीरनी कहे हैं कि तेई पुरुष डबररे हैं जे मोहमें नहीं समाने हैं १३

इति पहिली चाचर समाप्त

अथ दूसरी चाचर

जारहु जगको नेहरा मन वौराहो। जामें शोक संताप समझ मन बोराहो॥ काल बूतकी हस्तिनी मन बोराहो चित्र रचो जगदीश समुझ मन वोराहों २॥ बिना नेश्को देवघरा मन बोराहो। विन कहागिलके ईंट समुझ मन बोराहो तन धन सो क्या गये समझ मन वोराहो। भसम क्रीमकी साहझ्ु समझ मन वोराहों॥ काम अन्ध गज वश परे मन बोराहो। अंकुश सहिया शीश समुझ मन बोराहो «॥ ऊँच नीच जानेहु नहीं मन बोराहो। घर घर नाचेहु द्वार समझ मन बोराहो॥

(५०६ ) बीजक कबीरदास |

मरक॒ट सूठी स्वादकी मन बोराहों। लीन्हों धुजा पसारि समुझ मन बोराहो छूटनकी संशय परी मन बोराहो।!

घर धर खायो डांग मन बोराहों <८॥ ज्यों सुवना नलिनी गह्यो मन बोराहो।

ऐसा मर्म विचारि समझ मन बोराहों ९॥ पढ़े गरुने का कीजिये मन वोराहों।

अंत बिलेया खाय सघ्यशझ् मन बोराहो १० सूने चरका पाहुना मन बोराहो।

ज्यों आवे त्यों जाय ममझझ मन बोराहों ११ नहाने को तीरथघनी मन बोराहो

पूजा बहुदेव समझ मन वोराहों १२ ॥| बिनपानी नर बूड़िया मन बोराहो।

तुम टेकहु राम जहाज समझ मन वोराहों १३ कह कबीर जग भर्मिया मन बोराहो

तुम छोड़े हरिका सेव ससुझ मन बोराहो १४

जारहु जगको नेहरा मन बोराहों

जामें शोक संताप समझ मन बोराहो कालबूतकी हस्तिनी मन बोराहो

चित्र रचो जगदीश समझ मन बोराहों २॥

जब

चाचर। (५०७ )

विना नेह को देवचरा मन बोराहो। बिन कहगिलके ईंट समझ मन वोराहो॥

हे मन कारेकै बोरा जीव ! जोनेमें शोक संताप अनेक पांव है ते सब ऐसी नगतको नेहरा समुझिके जारिदे १॥ ओऔ या जगवकाछबूत जो घोंखा ताकी हस्तिनी है अथीव झूठो है जोनरूपते देखे जगदीश जो साहब ताको एचो यह चित्रहै सो बिचारिके छांड़ो। या देह कैसीहे जैसे बिता नेइकों वाला घन कैसों है नैसे बिना गिलावाकी ईंट अथॉव्‌ देंवालकी नाई पा तन गिरिही जायगो ईंट की नाई जेसेइट खरकिजाइह तेसेतव खराकहाँ नायगोी ९२॥ रे हि

तन धन सों क्या गये सझुझ मन बोराहो

भसम क्रीमकी साज्ु समुझ मन वोराहो ॥४॥

काम अन्च गज बशों प्र मने बाराहा

अंकुश सहिया शीश समझुझ मन वॉराहों॥ « ॥/

ऊंच नीच जानेहु नहीं मन वाराहो।

घर घर नाचेहु द्वार सघुझ् मन वाराही:॥ <

सो ऐसे नाशवान्‌ तनधनकों क्या गर्बकरे है भस्म कीराकी साज है प्ेतें जैसे कामते आंधर ढ्वैके हाथी हथिनी वास्ते बँषिके भंकुश शीश सहे हैं रेसे ते बिषयको बश परिके नाना प्रकारके दशखसहे है ऊंचनीच पहिंचाने द्वार द्वार बागत फिरे है

मरकट मूठी स्वादकी मन बोराहो। लीन्हों भ्ुजा पसारे ससुझ मन बौराहो ७॥ छूटनकी संशय परी मन बोराहो।

घर घर खायो डांग समुज्ञ मन बोराहो जैसे मर्कट स्वादके लिये भुजा पस्रारि चंना लेइहे मठी नहीं छांडे है ऐसे तें त्क्तिके लिये नानामतनमें परिके दृढकैलियों है साहब को नहीं जाने है सो तोकी

(५०८ ) बीजक कबीरदास संसारतें छूट्बिकी संशय आइपरी है यमके घर छाठी खायहै पे मतनहीं छांड़े है सो हे बौरा जीव ! मन कारक समुझुतो <॥ «० ज्यों सुवना नछिगी गह्यों मन बोराहो। ऐसा भर्म बिचारि समझ मन वोराहो॥ पढ़े गुने का कीजिये मन बौराहो। अंत बिलेया खाय समझ मन वोराहो ३०॥ जैसे नलिनीको सुवा श्रमते गहे है कोऊ घरे नहीं है ऐसे तुहे आपने भ्रमंते बँधो है सो साहबकों जाने बिचार करे तो छूटिही जायहै | नो सुवा पढ़े गुने बहुत भयो तो का भयों बिंलैया तो अंतमें खाय है सो ऐसेतें बहुत पढ़ि गुनि नाना मत कीन्हें परन्तु जौने में मीचते बचे सोतो करबही कियो॥९।१०॥ सूने घ्रका पाहुना मन वोराहों। ज्यों आवे त्यों जाइ समुझ मन बौराहो ११ न्हानेका तीरथ घना मन बोराहों। पूज्ेकी वहु देव सम्झ मन बोराहो ३२॥ विन पानी नर बूड़िया मन वोराहो। टेकहु राम जहाज समझ मन बोरहों १३ कह कबीर जग भमिया मन बोराहो। छोड़े हरिको सेव समुझ मन बोराहो १४ सो तें शून्य धोखा ब्ह्ममें छगिके सूना घरको पाहुना भयों जैसे आयो तैसे चल्पो मुक्ति भई सो जो मुक्ति भई तो का बहुत तीर्थ नहाये भयो का बहुत देव पूजे भयो तैंतो बिना पानी को जो संसार समुद्र तैनेन में बूड़िगयो सो तें श्रीरामनामरूपी जहाज समुझिके धरू | श्रीकबीरजी क्है हैं कै, हे मन करिके बोराजीव! जगवूम भर्मिया कहे भ्रमत फिरि है हरि ने साह- बहें तिनकी सेवाछोड़िंके सो हे मन बौरा अबहूं समुझ ॥११॥१२।१३।९४॥ . इति चाचरि समाप्त - _

35%

अथ बेलि प्रारम्भ

बम (७) “ई- ८: -- राणा

हंसा सरवर सरिरहो रमेया राम जगत चोर घर मसल हो रमेया राम जो जागल सो मागल हो रमेया राम सोवत गेल बिगोय हो रमेया राम २॥ आज बसेरा नियरे हो रमेया राम काहिह वबसेरा दरारे हो रमेया राम ॥| परेह बिराने देश हो रमेया राम। नन मरेंगे द्रंढ़े हो रमेया राम आास मथन दधि मथन कियो हो रमेया राम भवन मथ्यों भारे पूरे हो रमेया राम हंसा पाहन भयल हो रमेया राम बेघि पद निरबान हो रमेया राम ॥! तुम हँंसा मन मानिक हो रमैया राम हटल मानल मोर हो रमेया राम ७॥ जस रे कियो तस पायो हो रमेया राम। हमर दोष जनि देह हो रमेया राम ८॥ अगम काटे गम कीन्‍न्हो दो रमेया राम सहज कियो बेपार हो रमेया राम

५९१० ) बीजक कबीरदास

राम नाम धन बनिजहु हो रमेया राम ! लादेहु वस्तु अमोल हो रमेया राम १० नो बहिया दश गोन हो रमेया राम पांच लद॒नवा लादे साथ हो रमेया राम ११ पांच लदनवा परे हो रमेया राम। खाखरि डारिनि खोरे हो रमेया राम १२॥ शिर घानि इसा चले हो रमेया राम। सरवर मीत जोहार हो रमेया राम १३ आगी सरवर लागि हो रमेया राम। सरवर भो जरिक्षार हो रमेया राम॥ १४ कहे कबीर सुनो सन्‍्तो हो रमेया राम। परखिलेहु खर खोट; हो रमेया राम १५

हेसासरवरसरिरहोरमैयाराम।जागतचोरघरमूसलहोरमैया राम जोजागलसोभागलहोरमैयाराम सोवतगैलबियोगहोस्मैयाराम सो हे सम नामके रमनवारे हेसा ! या शरीर रूप सरवरमें तेरों ज्ञान जाग- तमें चोरमूसि लियो जो जागतहै मोहनिशाते सो भागे है संसारते सो है राममें रमनवारे मोहनिश्ञामें सोबत सब बिगोंय गये हैं कहे नानायोनिममें संसारस्वप्तमें भव्कत फिरे हैं * आजबसेरानियरेहो रमेयाराम।काह्हिबसेरा दूरि होरमेयाराम प्रेहु बिराने देश हो रमेयाराम निन मरेंगे हृढ़िहो रमेयाराम से हे राममें रमनवोरे! आजु बसेरा नेरे है कहे मानुष शरीरई में ज्ञान होइ है सो पाये काल्हि कहें जब या शरीर छूटि जायगो तब बसेरा दूरि हैजायमों

बलि ( <५१५१ )

अर्थीव अनेक योनिनमें भवकत फिरोौंगे तब मेरो ज्ञान होयगों ( तें जागते में छटिगयो है तें का नागत रहे है नहीं जागत रहे हे राममें रमनवारे ! आपनो देश साकेत ताकी छोड़िंके बिराने कहें मनकेदेशमें परयोहे तेसो

०० पे

अनेक यों निनमें तेरी आंखी आंश दारिदारि फूटिनायँगी

त्रास मथन दाध मथन ही रमया राम।

भवन मथ्यों भरि परि हो रमेया राम ॥५॥

हंसा पाहन भयलर ही रमयाराम

बेचि पद निबोण हो रमयाराम ६॥

तुम हंसा मत मानक हाँ रमंयाराम

हटल प्रानेंह मार हां सरमयारांत्र ७॥।

त्रास मथन जो है रामताम तेने है दघिमथन कहें मथानी तौंनेते हे राम- नापके रमनवारे ! भव सम॒द जो तेरे हृदयमें भारिपूर है ताको काहे नहीं मथ्यों हेरामनामके रमनवारे ! तेंतो चैतन्य है मनके साथ तुह जड़हैगये काहेते कि निर्बांणपदको बेधि के तें मड़ ह्वैगये है जो निर्बाणपद्‌ के तो मेरे साकेत को जाते हे हंसा तुमहीं मन में मानिंके कहो तो जब तुम राम नामकों नगवमुश् अर्थ करन लग्यो है तब में हयक्यों है सो तुम नहीं मान्यो है सो तमतो रामनाम के रमैयाहो परंतु राम नाम जो मोको वर्ण- नकेरे ताकी अर्थ नहीं जान्यो संसारमें परयो है

जसरे कियो तस पायो हो रमेयाराम

हमर दांप जान दृहु ही रमयाराम ॥।

अगम काटि गम कीन्‍न्हों हो रमेयाराम

सहज कर्कयां वषार हा रमयाराम ॥९॥

राम नाम घन बनिजहु हो रमेयाराम

लिया

लादृंदु वस्तु अमांद्द हा रमयाराम ॥१०॥

*चण्फी

पे

/

2 /ग्प

(५१२) बीजक कबीरदास

है रामनामके रमनवारे हेसा ! जस कियों तस पायो हमारों दोष जनि देहु अगम जो राम नाम ताकी काटि गम कीन्‍न्हों अर्थीव साहब मुख अर्थ छांड़ि जगत्‌ मुख अर्थ कियो फिरि वही रामनाम को ब्रह्ममुख अथ्थै- करि सहन ब्यापार कहे सहन समाधि छगावनछगे कि, हमहीं ब्रह्म हैं हे रामनाम के रमनवारे ! रामनाम धनको बनिन करिके रामनाम अमोछ बस्तु लादेहु परंतु अर्थ जान्यो जो बनिजहु छादहु पाठहोइ तों यहअर्थ है अगम जो है रामनाम ताको कार्टिके कहे बीनक में बनाइकै तुमकेों गमके दियो कहे सुगम कैदियों समुझनछूगे रामनाम को व्यापार तुम को सहन के दियो अर्थात्‌ रामनाम की सहज समाधि तुमको कोंड बतायदियों सों रामनाम अमोल है ताकी बनिज करो वहीं घनकों छादों यह सांच है और सब झूंठहै १०

पांच लदनवा लादे हो रमेयाराम। नो वहिया दश गोन हो रमेयाराम ११ पांच लद॒नवा आगे हो रमेयाराम खाखरि डारिनि खोरि हो रमैयाराम॥ १२५ शिर धुनि हंसा डाड़े चले हो रमेयाराम सरवर मीत जोहार हो रमेयाराम १३॥

8 0 आए

ताही ते पांच लछदनवा छादे अथोत्‌ पांचभोतिक शरीर धारण कीन्हे ते जीने- में दह्शों गोन दश इंद्य हैं तामें मन बाद्धे चित्त अहंकार पांचों प्राण ते बहि- या हैं अथीत्‌ बहनवारे हैं चलावन वोरे हैं ११ खाखरि नो शरीर तौन जब खोरिमें डारेनि अर्थीव्‌ नाश भयो तब पांच रूदनवा कहे वही पांचभीतिक शरीर आगे मिले है। “पांच छूदनवा गिरि परे” पाठ होइ तो यह अर्थ है कि जब इंद्रिय राहिगई तब शरीरों छूटिनाई है १२ सो हंसा जो जीव है सो शिर- धुनिके सरवर जो शरीर मीत तौने को नोहारिके उड़ि चले है १३

बेलि (“१३ )

आगि लगी सरबवरमें हो रमेयाराम सरवर जरिभो क्षार हो रमेयाराम ३४ कहे कबीर सुनो संत हो रमेयाराम पेरख लेहु खर खोट हो रमेयाराम १५

जंब हँसा उड़ि चलेँहै तब सरवर जो शरीर तामें आगि छंगे है सरवर जरिके क्षारहै नाइ है सो हे रामनाम के रमनवारे तुम तो संसारमुख अथकैंके संसारमें परयो सो तुम्हारी यहद्शा होतमई १४ श्रीकबीरजी कै हैं कि, हे सनन्‍्तो! साहब जो कहे हैं ताको सुनते जाडउ तुमतोरामनाममें रमन- वारेहों रो रामनामकों जगतमुख अर्थ छांडिके साहब मुख अर्थ करिके साहब में छागो साहब की बाणी गहों खरखाोट परखिलेहु कोन खराहै कौन खोददै साहबमुख अथ खरांहै काहेते साहिबे अपने मुख कहे हैं जगतमुख अर्थ खोय्हे सो खोट छांड़िके साहबमें छागो १५

इते प्रथम बेलि समाप्त

अथ द्वितीयबेलि भल सुस्मृति जहडायइ हो रमेयाराम। घोखां कियो विश्वास हो रमेयाराम॥ सोतो हैं बन सीकसि हो रमेयाराम श्रिके लियो विश्वास हो रमेयाराम इंतो हैं बिधि भाग हो रमेयाराम गुरु दीन्हों मोहि थापि हो रमेयाराम गोबर कोट उठायहु हो रमेयाराम

परिहरि जेंहों खेत हो रमेयाराम 8 डरे

(५९१४ ) बीजक कर्बारदास

वुधि वल तहां पहुंचे हो रमेयाराम ! खोज कहांते होय हो रमेयाराम « सुनि मन चीरज मयल हो रमेयाराम मन वढ़ि रहल लज्ञाय हो रमेयाराम फिरि पाछे जनि हेरइ हो रमेयाराम काल बूत सब आय हो रमेयाराम कह कवीर सुनो संतों हो रमेयाराम मति ढिगही फेलाव हो रमेयाराम

भल सुस्मृतिजहडायहु हो रमेयाराम धोखा कियो विश्वास हो रमेयाराम साहब कहे हैं हे रामनामके रमनवारे जीव तुम भछी तरहते स्मार्तिम जह- डाप गयो स्मृतिको तालयार्थ जो में ताक़ो जान्‍्यों काहेतेकि घोखा ब्रह्में विश्वास कीन्ही .॥ सो तो है बनसी कृप्ति हो रमेयाराम शिर के लियो विश्वास हो रभेयाराम सोती है कहे सो घोखाबह्म बंशीकी वाई है नो मछरीौब॑ंशीमें छागे है ताका प्राण छूटिनाइहै, ऐसे तुह वार्मे छगेहे सो तेरो जीवत्व रहैगो अथीव्‌ तेरो स्वरूप भूछि जाइगो मुरदाकी नाईटैंगो रहैगो। तोनिधोखा बह्ममें शिरके बिश्वास के लिये है अथवा ने गुरुवाडोग तोकों धोखा ब्रह्ममें बिदवास कराइ देहहैं स्मृतिन का अर्थ फेरिके ते बनके सीगय हैं उहां हैं वा जो ब्ह्महै सो तें आहे यही कहे हैं अथवा हुआहै हुआ है या कहे हें कि तें छगा सो बह्महुआ नैसे सीगटनकी बाणीर्मे अर्थ नहंहै ऐसे गुरुवा छोगनकी बाणी में अथनहीं है तें प्रह्म कबहूं होइगो तें रामनाममें रमनवारों है सो ताहींमें रमे तबहीं तेरोबनेगो *

बेलि (६ <*१५ )

तो है विधि भाग हो रमेयाराम

आय

गह दीन्द्यो मोदि थापि हो रमेयाराम गोवर कोट उठायह हो रमयाराम

प्रहार जहा खत हां रमयाराम साहब कहे हैं कि रामनामके रमनवोरे यहस्प्राते बिधि निषेधका भागकहांवे

है तेनि भागबश मोको गुरुवा छोग बहुँकाइ दियो में काकरों मेरोदोष कौन है तो हमारो महरू छोड़ि तहीं गोबरको कोंट डठायहुह नो तें गुरुवालोगनके जाते और उपासना पूछते तो वे काहेको बतोते सो मोको परिहरिके तें संसारूूष खेत में जाय जहां सब उत्पत्तिहोईहे

बाच वल तहाँ पहुंचे हा रसयाराम

खांज कहाँते हीय हीं रमयाराम

सुनि मन धीरज भयल हो रमेयाराम

मन बढ़िरहल लजाय हो रमेयाराम॥ सो धोखातह्म में बुद्धि बल नहीं पहुंचे है शून्य है खोज कहां ते होई जो कहो कि आप में तो बाद्धे बढ नहीं पहुंचे है तो जो कोई मेरे रामनाममें रमैंहै मोकी जाते है ताकामहों बताई दें हों नयनइन्द्रिय देखँहों ताहीमें मोहींदेख है ॥५।॥ गुरुपनकी बाणी सुनिके जो तेरे मनमें घेये भयो कि हम ब्रह्म है नाईगे सो है राम में रमन वारे वा ब्रह्ममें मन बढ़िके कहे बिचार करत करत लजाय गयो ब्रह्म भयो मन आपनी गति जब नहीं देखे हैं तब सकुचिके वाही में

5 मच

रहिजाइहे मनको नाश नहीं होयहै फिरि पाछे जनि हेरों हो रमेयाराम काल बूत सब आय हो रमेयाराम कह कबीर सुनो संतो हो रमेयाराम माते ढिगही फेलाव हो रमेयाराम

(५१६ ) बीजक कबीरदास

वि

तुमतो रामनाममें रमनवारे हौई तो सब तुमते पाछे हैं तिनकी ओर ननि हेसे माया ब्रह्म कालके पराक्रम आय जो इनके ओर हेरोगे तो ये कालकें बूत आय कहै कालके पराक्षमहैं अर्थात्‌ माये ब्रह्म द्वारा कार नाश सबको कै देइ है सो श्रीकबीरजी कहे हैं के हेसेती ! साहब कहे हें सो सुनते जाउ तुम तो राम नाम में रमन वारेही दूरिदूरि कहां खोजोहीं, मतिको ढदिगहीमें फैलाव अथाॉत अपने स्वरूपको बिचारु कि में कौन को हों तो या जानि लेइ तें कि में राममें रमनवारों हों रामनाम स्मरण करोगे तबहीं मुक्ति होयमी तामें प्रमाण

श्रीकबीरजीकोी पद

“असचरित देखि मन श्रम मोर ताते निशि दिन गुण रमा तोर

यक पढ़हिं पाठ यक भ्रम डदास यक नगन निरंतर रह निवास |

यक योग युक्ति तिन होहिं खीन यक राम नाम सँँग रहरू छीन

यक होहिं दीन यक देहिं दान यक कछूपि कछूपि के होयें हरान

यक तन्त्र मंत्र ओषधीवान | यक सकल सिद्धि राखें अपान

यक तीरथ ब्रव कारे काय जीसि यक राम नामर्सो करत प्ीति

यक धूम घोटि तन होहिं इयाम तेरी मुक्ति नहीं बिन राम नाम

सतगुरु शब्द तोहि कह पुकार | अब मूछ गहो अनुभव बिचार

में जरा मरणते भय थीर। मैं राम कृपा यह कह कबीर

है

इत बाल समात्ता |

3३४ अथ बिरहुली __ ..७४००- -.- आदि अंत नहिं होत बिरहुली नहिं जड़ पछव पेड़ बिरहुली ॥| निशिवासरणरदिहेतबिरहुली। पानीपवननहोतविरहुली ब्रह्मआदिसनकादिविरहुली। कथिगयेयोगअपारबिरहुली मासअसाद॒दिशीतविरहुली वोइनसातोबीजबिरहुली नितगोड़िनितर्सिचेबिरहुली नितनवपलछवपेड़बिरहुली & छिछिलविरहुलीछिछिलविरहुडी।छिछिलरहीतिहुंलीकबिरहुली फूलएकभलफुललबिरहुली फूलिरहलसंसारबिरहुली तेफुलबंदेभक्तबिरहुली वांधिंकेराउरजाहिबिरहु ली ८॥ तेफुललेहीसंताविरहुली डसिगेवितलसांपविरहुली ९॥ विषहरमंत्रनमानबिरहुली गार्डरबोलेआरविरहुली १० विषकीक्यारीबोयोविरुली।लोरतकापछितायबिरहुली ११ जन्मजन्मअवततरेविरहुलीफलयककनयलडारविरहुडी १२ कह कवीरसचुपायबिरहुली।जो फल चाखहुमो रविरहुली

आदिअंतनहिंहोतविरहुली | नहिजड़पल्‍्लवपेड़विरिहुली निशिंवासरनहिंहोतविरइुली पानीपवननहोतविरहुली ब्रह्मआदिसनकादिविरहुली।कथिगयेयोग अपार विरहुली

( *१८ ) बीजक कबी रदास

बी कहें दुइ विद्या अविदया रूपकों, रहुली कहे रहनवारढी जो माया ताको। सो कबीरजी कहे हैं कि, विद्या अविद्या दुहुतको आदि है अंत है अर्थीव्‌ विचार कीन्हे श्रममात्रै है जीव छूटि मात्र जाइ है। सो बिरहुली जो माया ताके जड़ है पेड़ है पह्कव है अर्थात्‌ विचार कीन्हे मिथ्या है जब निशिवासर नहीं होत है तबहूं बिरहुली माया रहो है जब पानी पवन नहीं रह्मो तबहू बिरहुली माया रही है औओ ब्रह्मा सतकादिककी आदि बिरहुली है जीन योग अपार कथि गये हैं सोऊ बिरहुली है ३॥

0 ९. विकार 5 [पे मासअसादृहिशीत॒विरहु ली।बोइनसातोवीजबिर हइली ॥४॥ नितगोड़ेनितासिचोविरहुली।नितनवपछवपेड़बिरहु ली॥५॥

जब प्रथम उत्पत्ति भई है सोई आषाठमास है काहेते चौमास को आदि आषाढ है तैसे युगनको आदि सतयुग है सो कैसा है शीतकहे शुद्ध सतोगुण ह॑ तौनेमें जीव को जो साती सुराते तेई हैं बीन तेके बोव॒त भये तेसब बिरहलिन आइ सो मंगरूमें लिखि आये हैं कि सात सुराति सब मूल हैं। पलयहू इनहीं माहँ सो जीव नितणौड़े है गुरुवनते वोई कम्म॑ पूछे है खोदि रोदि नित सींचे है कहे बोई कर्म करे है जाते बिरहुडी कहे माया बढ़ते जाइ है ॥४॥ छिछिलाबिरहुलीछिछिलबिरहुली।छिछिछूरहलतिहुँठो कबिरहुली फूलएकमलफुलल बिरहुली।फूलिरहलसंसारबिरहुली॥ आओ

कहूँ विद्यारुपते छिछिडी है बिरहुली माया; कहूं अविद्या रूपते छिछिली

8... | पी

है बिरहुली माया यही रीतिते तीनों छोकमें बिरहुली छिछिलरूरही है से यही माया बिरहली में कहूं कम्मेंत्यागरूप एक फूछ धोखा ब्रह्म फ़ाले रद्ोो है

की... का. 3 आकर

ताही में सब संसार छगिके फूलि रहे कहे आनन्द मानि छिये हैं ७४

तेफुलबन्देभक्तिविरहुली वांधिकेराउरजायविरहुली ॥८॥ तेफुललेहीसंतविरहुली डसिगोवेतलसांपविरहुली ॥९॥

आप का

बरहुली ( ५१९ )

किक कप

ते फूछ कहे तौन नो धोखा ब्रह्म सो भक्तनको बन्दे है अर्थात खुलो नहीं है वे धोखा में नहीं परे है काहेते वाको बांविंके कहें खण्डन करिके राउर जो साहबकों महरू है तहांकों जाहि हैं जे सन्त धोखा ब्रह्म रूप फूल ढेहि हैं

अर्थात्‌ ब्रह्म विचारमें ने शांत भे साहवकों भूछिगे ते बेतछ कहे बेताछ भुतहा

सांप ऐसो नो थोखा ब्रह्म तैनेते डसिंगे धुनि या है जाको सांप ड्से है ताको कर हे

स्वरूप भूलि जाई है सांपे बोड़े है ऐसे ने घोखा अह्वारे हैं तिनहँ आप- नेस्वरूप मूलिगये कहे हैं हमहों ब्रह्म हैं

बिषहरमंत्रनमानविरहुली।गाडुरिवोले आर बिरहुली ॥१ ०॥

विषकीक्यारीवोयोविरहुली।अवलोरतपछितायबिरहुर्क।

जाको ब्रह्मरूप सर्प डस्यों सो ब्रह्मरूप सर्पफों विषहरनवारों नो रामनाम ताको नहीं माने है। गाड़ारे जे हैं ते आर बोले हैं झारे हैं | इहाँ सतगुरु जेहें तें रामनाम उपदेश करे हहैं परंतु नहीं माने हें सो बिषयकी कियारी जो या संसार तामें आत्मज्ञानरुप बीज बोयो सो वा बिरहुडी कहे मायैआय सो अवछोरत कहे काटतमें का पछिताय है। अबका विषम छांड़े है ! नहीं छांडे है। कह बह्मान॑- दंकी कहू विषयानन्दकी चाह। विद्यामें ब्रह्मानन्दकी चाह अविद्ामें विषयानन्दकी

के

चाह तोकी नहीं छांडे है १० १९१

हि ब७ कल किक | है ९". जन्मजन्मअवतरेउबिरहुली ।फ्लयकृकनयलडारबिरहुडी १२ | अर विद वि पी

कृहकवीरसचुपायबिरहुली।जओोफलचाखहुमोराबिरहुली ३३

से| है जीव बिरहुछी जो माया ताहीमें तुम जन्मजन्म अवतरथों जोने बिरहुछीकी फल धोखाबह्य वह कर्मफल केसो है कि, कनयछ कैसो फल है अर्त्थात्‌ निरसहे रस नहीं है औबिषधरहै सो कौनीतरहते सचुपावोंगे सो श्रीकबीरनी कहे हैं कि, तब सचुकी पावे जब फल मोर चांखे कहे जीने राम-

$ आह ॥:+ हर पे विस रच नाममें में जपो हों ताही फहुकी चाखे तो सुचित्तई पावै या कनयछ का फल चाखे १९ ९१३ इति बिरहुली समाप्त

सधमांक्रमअमनारवाममंमम माप.

अथ हडाला |

. भर्म हिंडोलना झूले सब जग आय

जहँ पाप पुण्यके खंभ दोऊ मेरु माया नाय |

तहँ कमे पटुली बेठिके को को झूले आय १४ यह लोभ मरुवा विषय ममरा काम कीला ठानि।

दोउ शुभी अशुभ वनाय डांड़ी गद्यो दूनो पानि ॥२॥ झूले सो गण गंधबे सुनि नर झले सुर गण इन्द्र झूलत सु नारद शारदा हो झलत व्यास फणिन्द्र ॥३॥ झूलत बिराचि महेश म्ानि हो झुलत सूरज इन्दु

आप निरश्वण सग्रण ड्लैँके झूलिया गोविंदु चारि चोंदह सात यकइस तीन लोक बनाय

चो खाने वानी खोजि देखो थिर कोइ रहाय ॥«॥ शशि सर निशि दिन संचि तह तत्त्व पाँचों नाहिं। कालहु अकालहु प्रलय नहिं तहँ संत बिरले जाहि ६॥ खण्डहु ब्रह्मण्डहु खोजि षट द्रशन ये छूटे नाहिें

यह साथु संग बिचारि देखो जीउ निसतरि जाहि॥७॥ तहके विछारे बहु कल्प बीते परे शरमि भुलाय अब साधु सगांते शोचि देखो बहुरि उलयि समाय८॥

हिंडोला (५२१ )

तेहि झूलबकी भय नाहि जो संत होहि सुजान कह कबीर सत सुकृत मिले तो फिरे झुले आन९॥

भर्म हिडोलना झूले सब -जग आय

जहँ पाप पुण्यके खम्म दोऊ मेरु माया नाय

तहँ कम पट॒ली बेठिक की को झूले आय १॥ यह लोभ मरुवा विषय भमरा काम कीला ठानि

दोउ श्ञुभो अशुभ बनाय डांड़ी गहे दूनों पानि २॥

परम पुरुष पर श्रीरामचन्द के बिनाजाने भरमकों हिंडोछा सब संसार झलेहे केसे।है हिंडोला; महां पाप पुण्य रूप दोऊ खंभहें, माया जोंहें सो मेरु कहे गोलाहै, जोनेमें करमेंरूपी पटुली है, ताहींमें बेठिके को नहीं झूल्यों अथोत्‌ सब झस्यो है॥१॥ छोभ जो है सोई मरुवा लगो है, विषय जो है सोई भमरा है, काम नो है सोई कीछा है, शुभ अशुभ जे उपासनाहें तेईं हांड़ी हें ताकी पाणित गहिके सब झलेहें ! को को झे हैं ताका आगे कहे हैं

झुले सो गण गन्चवे मुनि नर झूले सुर गण इन्द्र झूलत सु नारद शारदा हो झुलत ब्यास फणिन्द्र झलत बिरांच महंश जान हो झुलत सूरज इंढु।

आएं निर्गेण सश॒ुण ह्वेके झूलिया गोविंदु गन्धवे मात नर सरगण इंद्र नारद शारदा व्यास फणान्द्र है शप सहरश

जहें बिराश्वि सय्ये चंद्रमा ये सब झलेहें और कहां तक कहें सगण निगंण रूपते अथीव्‌ चिंवंअचित्‌ के अंतर्यामी ढ्वेके गोबिंद जेहें तऊ झूठे हैं ॥३॥४॥

चारि चौदह सात यकइस तीन लोक बनाय चोखानि वानी खोजि देखो थिर कोइ रहाय «

का 2 कल.

छः: जे शात्रह, चारे जे वेदह चोदह जे विदाहे, सात जे द्वीप हे, भी इक्कीसों जहे सात शुन्य सात सराते सात कलम, यतनमें परे जे तीनिड ठोकका

*२२ ) बीजक कबीरदास

रचना भई सो इनमें चारिड खानिके परे जे जीव तिनकी हम चारिड बानीते वेदशाखांदिकनते बिचारि खोनि देख्यो कोई थिर नहीं रहें हैं सबे झूहेहें सो तें यहां को नहीं है तें तो बोहर को है जहां इहं की साजु डहां एकौ नहीं है 2 रत पी भे हक ८... तत्त | |, शशि सूर निश्चि दिन संचि तहँ तत्त्व पांचों नाहें। चर | छो ्यि ऐप... सथमणणक * जनक थे _ या काला अकालो प्रलयनाईँं तहँ सनन्‍्तबिरले जाहि॥६॥ ण्डो ण्डो कान किक हि खण्डो ब्रह्मण्डो खोजि षट दरशन ये छूटे नाहि। + के और का /१५क यहसाधुरसंंग बिचारि देखो जीउ निस्तारे जाहिें॥७॥ उहां सूर्य है, चन्द्र है, दिनहै, राते है, संध्योहै पांचों तत्वहैं, काढहै, अकाढहै, उहां म्रूयहै, ऐसी जगहमें कोई विरछे संत नाइहं पुनि केसो है जाको खण्ड जो शरीर बह्माण्ड जो जगत तामें वाकी छ३उ दशेन वारे खोजि खोजिहारे परन्तु पाये नहीं संसारते छूटे सो ऐसे छोकके साधुजे हैं तिनको सड्गकरके विचारिके देंखे जाते जीव यहीं संसारते निस्तारे जाइ 5३ > #० कर तह कीवबेछुर बहु कहप बीते परे भ्रूमि श्ुलाय $ कस का की कु खो हे अवसाधु संगति शोचिदेखो वहुरे उलदि सनाय॥८॥ के हे झूः लक के | $०२+ तेहि झूलवे की भय नहीं जो संत होहि सुजान। 5 आर अर कही हू कह कवीर सतसुकृत मिले तो फिरि झूले आन॥६॥ सो ऐसे छोकते बिछुरे तोको केतन्यों कर्य ब्यतीत भये तें संसारमें भुछा यके परे आय सो तें अब साधु सज्ञतिकरि बिचारे के रामनामकों जाने जाते बहुरिके वहँँ समाय अर्थोत्‌ नहांते आये है तहैं जाय या संसार हिंडोछा छांडु जो कोई साहबके गाना सुजान साधुहँ तिनको या हिंडोछामें झूलबे की भयनहीं है।तिनसों श्री कबीरजी कहे हैं कि, जो याको सतसुकृतराम नाम मिले तो फिर आनि बार झूछे। रामनाम को जपिबों जो है सोई सत्य सुकृतह वही बाढः मनो गोचरातीत जे श्रीरामचन्द् हैं तिनके और जे सुक्ृतहैं ते क्षयमा-

पे जे अरे

नहें रामनाम पास पहुँचावे है नहांते नहीं छोटे है तामें म्रमाण “सप्तको-

22

हिंडोला («२३ )

टिमहामंत्रारिचत्तविश्रमकारका: एक एव परो मंत्रो रामइत्यक्षरदयम्‌

इतिसारस्व॒ततंत्रे दूसरापमाण 'इममेवपरंमन्त्र ब्रह्मरद्रादिदेवता:॥ऋषयरच

महात्मानों मुक्ता जप्त्वाभवाम्बुधेः” इति पुलहसाोहित[स्प्र[ति॥ ९. इते प्रयम हिंडोला समाप्त |

अथ दूसरा हिडोला

बहुबिविके चित्र बनाइके हरि रच्यों क्रीडा रास ज्यहि नाहि इच्छा झूलबे अस बुद्धि केहिके पास १॥ झूलत झलत वहु कल्प बीते मन छोड़े आस

यह रच्यो रहस हिडोलना निशि चारि युगचो मास ॥२॥ कबहूंक ऊँच नीचे कवहू स्वगे भूलों जाय ! अति अमत अमहि हिंडोलना सो नेकु नहिं ठहराय॥ डरपत रहा यहि झलिवेकों राख यादवराय

कह कृबिर सुनु गोपाल बिनती शरण हों तुवपाय ॥४॥

बहुतबिधि चित्र बनाइके या जगत हरि जे हें गोलोकबासी कृष्णचन्द्र आपनी कीडा बनाइ राख्यो है अथीत्‌ अन्तर्यामी रूपते आपही बिहार कर सो या जगतरूप हिंडोलछा में झूलिबेकी बुद्धि केहिके नहीं आई अर्थाद स्वेके है झूलिबकी ब॒द्धि कोई विरले सनन्‍्तन के है सो ऐसो हिंडोछाना च!रि युग जे हैं चौमास तामें रच्यों है जीवनके झूछत झछत कोटिन कर्प ब्यतीत भय तऊ झूलिबिकी आशा मन नहीं छोड़े है। हिंडोलाके चढ़ेया कहे नीच आंबे हे कहूं ऊंचे जायहें ऐसे आति श्रमत नो जगव रूप हिंडोला तामें परे जे जीब त॑ कहूं नरकको जायेँ हैं, कहुं स्वर्गकी माय है सो नीवो! या नगत्रूप हिंडाला झुलिबेकी डरत रहो राखु यादवराय या कहों कि हे यादवराय कृष्णचंद हमको बचायो। सो हे कायाके बीरों जीवी | यह कहो।के,हे गापालछ ! गे हूं इन्द्विय तिनके रक्षा करनवारे हमारी बिनती सुनो हम तुम्हार चरण शरण हैं -४॥

(५२४ ) बीजक कबीरदास

अथ तासराहिडाला

जहूँ लोभ मोहके खम्भ दोऊ मन रच्योहो हिंडोर तहँ झुलहि जीव जहान जहेँ लागि कतहूँ नहिं थिति ठोर १॥ चतुरा झुलें चतुराइया झुलें राजा सेव अरु चन्द्र मरज दोऊ झूलहि नाहिं पायो भेव॥ २॥

रासि लक्षहु जीव झुलें धरहि रविसुत थाय। कोटिन कलछूप युग बीतिया माने अजहूं हाय ३॥ घरणी अकाशहु दोऊ झूलें झुलें पवनहूँ नीर।

धारे देह हारे आपह झूलाहे लखहि हंस कबीर जीन जगवमें छोम मोहके खम्भ बनाइकै मनको रच्यों जो हिंडोल ताहीमें सब जहानके जीव झूले हैं थिर नहीं कीौनो ठोर में रहे हैं चतुर चतुराईते झंडे हैंराजा झूले हैं, सेवक झूछे हैं, चंद, सूर्य तेऊ झूछे हैं हिंडोाको भेद नहीं पावेहें चौरासी लक्ष योनिके जीब झूलेहें तिनको सबको रवि सुत जे यमराज ते धरे हैं। सो कोटिन कल्प बीतिगंये जीवनका झूछत परन्तु अजहूं नहीं माने है घरणी आकाश पवन पानी ये सब वही हिंडोलामें झूले हें देहघरिके कहे अवतारहैके जोनी रीति सब झूंले हँ तोनी रीति हरि आपहू झड़े हैं। भीवनकों यह [दिखाइबे को कि, जैसे तुमह झलोहो तैसे हमहे झले हैं सो देहधरेकी फछ यह है इन को हेतु कोई जानि नहीं संके हे कि, जाविनपर दयाकरिके उद्धार करिबे को हेतु दिखावै हैं कि, देहको फल यह संस।रई है ताते देहकों अभिमान छोड़े हमारे अवतारके नाम लीछादि्कनमें छागि, मनको त्याग करिके चारों शरीरनको त्याग करिदेड जब तुम आपने स्वरूप में स्थित रहोंगे तब हंस स्वरूप दे आपने धामको ले आवोंगो यह बात कोई नहीं ठखे है कहे जाने है जे हंसस्वरूप पाये कायाके बीर जीवहैं तेई जाने हैं याते साहबकी दया- छुता ब्येगितमई १-४ इति तीसरा हिंडोला

हिंडीछा समाप्त |

अथ साखी।

जहिया जन्म मुक्ता हता, तहिया हता न्‌ कोइ छठी तिहारी हो जगा तू कहँ चला विगोइ

गुरुमुख जीवसों साहब कहे हैं जाहिया कहे प्रथम जब तुम जन्‍्मते म॒क्त रह्मोंहे कहे जन्ममरणते छूटे रह्माहे तहिया कहे तब हता कोयकहे ये मना- दिक नहीं रहे नो जहिया जन मुक्ता हता या पाठहोय तो साहबकहे हें के हे जन हमारे दास जब तुम मुक्त रहो है तब ये मनादिक कोई नहीं रहे अरु बिज्वर गुणातीत चिन्मात्र मेरों अश सनातनकों या स्वरूपते रह्मो है छठई देइ हमारे पास है तू कहां विगरों जाइ है मनादिकनमें छमरमिके तें कैवस्य शरीरमें दिकिके हमारे प्रकाशमें स्थित रहे हमको नहीं जाने याहीते माया

५२६ ) बीजक कमीरदास

तोको धारिके संसारमे डारिदियों सो तुम कैवल्य तनने महाकारणमें, महा- कारणते कारणमें, कारणते सूक्ष्ममें, सूक्ष्मते स्थूल शरीर में गयो सो जो अनह मनादिकनको त्यागेंके मोको जाने तो में तोकों हँसशरीरदेड, तामें दिके मेरे पास आंबे | प्रथम साहब बरज्यों है ताको प्रमाण आगे बेलिमें लिखिभआये हैं नो कोई कहे हैं कि, हँसस्वरूपइते माया तोधरिलेआई है भूछि भई है सो बिना बिचारेकहै है। पारिखकारेकैदेखों तो नो हँस स्वरू- यईत माया घरि छेआवती; तौ पुनि जब हंसस्वरूप पावेगों तबहे माया धार लेओवैगी ? काहेते कि एक बार तो धरिही लेआई ताते हंस शर्ीस्ते माया नहीं घरिल्यावहै जीव कैवल्य शरीरमें सदा स्थित रहै है तहां मनकी उत्पाति होइहै तब माया धरिलयाँवैंहे जीव संसारी ह्वैनाइहे | पुनि जब महाप्रयय होइहे तब फेरि वहीं ब्रह्म प्रकाशमें जाईके एकरूपते सब रहे है तांमें- अमाण परेव्येयेसवें एकीमवति'!॥औसब वह उत्पत्ति होइहे तामेंपमाण सदेवसौम्येद्मग्रआासीव्‌ एकमेवाद्धितीयम तदेक्षत एकोहं बहुस्याम”” इतिश्रते३॥ ओऔ जब जीव संसारते मुक्त है जायहे तब साहब हंस स्वरूप देहहैं, तामें स्थित जैक साहब के पास जाइहे ताकोप्रमाण आगे लिखिआये हैं, साहबके पास जाय कृरि नहों आवबे तामें प्रमाण नतद्भासयते सूर्योत शशांकी पावकः यहूत्वा- निवत्तैन्ते तद्धाम परम मम॥इतिगीतायाम्‌ ”? जबजीव कैवल्य शरीरमें रहै है सो सच्चिदानन्द्रूप प्रकाशमें भरोरहे हैं, तहां जब मनको अंकुर वह चित्‌ होइ है तब तुरीय अवस्था को स्मरणहोई है, सो याकी महाकारणररीर है। ओऔ जब वह सुख के स्मरणते बासना उपनी तब सुषुप्ति अवस्थामें मगनहोइहै जांगे है तब कहै है कि, आन खूब सोयो याफी या कारण शरीर है। जब वह बासना संकल्प बिकत्परूप भयो या याकी सुक्ष्म शरीरहे स्वप्त अब- स्थाको सुख भयो जब संकरप विकल्पते नाना कर्मेनके फछते पृथ्वी अप सेन वायु आाकाशादिकते स्थूछ शरीर पावै है तहां जागृत अवस्था स्रों सुख होइहे तामें म्रमाण कबीर नी के ग्रन्थ पचदेहकी निर्णयकों

साखी (५२७ )

पंचदेहका नेणय पकजीवको स्वत!पद, बुद्धि्रोति सोकारू | कालहोइ यहकाछ-रचि, तामें भये बिहाल बीहाडे को मतो नो, देड सकल बतलाय | जाते पारख प्रौढ़ छहि, जीव नष्ट नहिं जाय ॥| करि अनुमान जो शन्यभो, सूझे कतहूं नाहें आप आप बिछरो जब तन बिज्ञान कहि ताहि ज्ञान भयो जाग्यों जबै, करि आपन अनुमान प्रतिबिंबित झाई लखे, साक्षी रूप बखान ॥! साक्षी होय मकाश भो,मदहा कारण त्याहि नाम मसर प्रमाण सो बिम्बभो,नील बरण घन दयाम॥ बढ़यो विम्ब अथ पर्व भो, शन्याकार स्वरूप ताकी कारण कहतहें, महँ अधियारी कृप | कारणसों आकार भो, इवेत अंगुष्ठ प्रमान वेद शास्र सब कहतहें, सक्षम रूप बखान स॒क्ष्मरूपते करमेंभो, कमहिते यह अस्थूल परा जीव या रहटमें, सहे घनेरी शूल संते। पट प्रकारकी देही प्छ स॒क्ष्म कारण महँकारण केवकू हंस कि लेही साढ़े तीन हाथ परमाना देह स्थूल बखानी राता बणे बेखरी बाचा जागृत अवस्था जानी॥ रजोगुणी डोंकार माुका त्रिकुटी है अस्थाना मुक्तिदछाक प्रथम पद गाइच्री ब्रह्मा बेद बखाना॥ पृथ्वी तत्त्व खचरी मुद्रा मगर पपीछ घट कासा क्षए निर्णय बड़वाग्नि दशेदी देव चतदश बासा इस यन्थमें पदरेह के! बर्णन है पर याकों नाम पंचदेहका निर्णयद्ध बात २६ यहुह कि, दृसदह का दसर दहन के साथन मलाय अलह्म मान

(<*२८ ) (जक कवीरदास

और अहै ऋग्वेद बताय्‌ अद्धे जन्ने संचारा

सत्यछोक विषयका अभिमानी विषयानंद्‌ हंकारा

आदि अंत मध्य शब्द या लखे कोइ बुधिवारा |

कहे कबीर सुनो हो संतो इति स्थूल शरीरा १॥ संतों सुक्षम देह प्रमाना

सक्षम देह अगुष्ठ बराबर स्वप्न अवस्था जाना

इबेत बे डोकार माच्चका सतोगुण विष्ण देवा |

ऊध्वे सुन्न यजुर्वेद है कण्ठ स्थान अहेवा

मुक्ति सामीप छोंक बैकुण्ठं पाछन किरिया राखी

मार्ग बिहेग भूचरी मुद्रा अक्षर निर्णय भाखी

आव तत्त्व को हूं हंकारा मंदाअग्नी कहिये

पंच भाण दितीया पद गाइजत्री मध्यम बाणी लहिये

शब्द स्परी रूप रस गंध मन बुद्धि चित हंकारा

कहे कबीर सुनो भाइ संती यह तन सूक्षम सारा २॥ संतों कारण देह सरेखा

आधा पवे ममाण तमोंगुण कारा बर्ण परेखा

मध्य द्ञान्य मकार माचुका हृदया सो अस्थाना

महदाकाश चाचरी मुद्रा इच्छा शक्ती जाना

उद्रा अग्नि सुषुप्ति अवस्था निणेय कंठ स्थानी

कपि मारग तृतीय पद गाइच्री अहे प्राज्ञ अभिमानी

सामवेद पद्यन्ती बाचा मुक्त स्वरूप बखानी

तेज तत्त्व अंद्वेतानन्दं अहेकार निरबानी

अहैं बिशुद्ध महातम जामें तामें कछु समाईं

कारण देह इती सम्पूरण कहे कबीर बुझाई

सन्‍ती महकारण तन जाना | नील बरण ईइवर देवा है मसूर परमाना नाभे स्थान बिकार माच्ुका चिदाकाश परवानी

साखी। ( **९ )

मारग मीन अगोचर मुद्रा वेद अथंबेन जानी ज्वाढा कल चतुर्थ पद गायत्री आदि शक्ति ततु बाऊ आश्रय छोक बिदेहानंद मुक्ति सानोनि बताऊ नृणे प्रकाशिक तुरी अवस्था पत्यज्ञात्मतु अभिमानी शीव॑ अहंकार महाकारण तन इहो कबीरबखानी संतो केवल देह बखाना केवल सकल देहका साक्षी भमर गुफा अस्थाना निराकाश छोक निराश्रय निर्णय ज्ञान वसेखा। सूक्षम वेद है उनमुन मुद्रा उनमुन बाणी छेखा ब्रह्मानंद कही हंकारा ब्ह्मज्ञाकोा। माना प्रण बोध अवस्था कहिये ज्योतिस्वरूपी जाना पुण्य गिरी अरू चारुमाज्ञ॒का निरंमन अभिमानी प्रमारथ पंचम पद गायत्री परामाकते पहिचानी सदाशीव मार्ग सिखाहै छहै संत मत धीरा काछेतीत कछा सम्पूरण केवछ कहे कबीरा संतो सुनो हंस तन ब्याना अबरण बरण रूप नहिं रेखा ज्ञान रहित विज्ञाना नहिं उपने नहें बिनशें कबहूं नहैं आंवे नहिं जाहीं इच्छ अनिच्छ दृष्ट अद्ृष्ठी नहिं बाहर नहीं माहीं में तू रहित करता भोगता नहीं मान अपमाना नहीं ब्रह्म नाहें जीवन माया ज्यों का त्यों वह जाना मन बुधि गुन इंद्रिय नहिं जाना अछख अकह निबीना अकछ अनीह अनादि अभेदा निगम नीति फिरे जाना तत्त्व रहित रबि चंद्र तारा नहीं देबी नाहें देवा स्वयं सिद्धि परकाशक सोई :नहिं स्वामी: नहिं सेवा हंस देह विज्ञान भाव यह सकछ बासना त्यागे। नाहिं आगे नहिं पाछे कोई निम प्रकाशंमें पागे ३8

( ५३० ) बीजक कबीरदास

निन प्रकाशमें आप अपनी भूलि भये बिज्ञानी ! उनमत बाल पिशाच मृक नड़ दशा पांच इह लानी खझोये आपु अपन पो सब: रस निम स्वरूप नहें जाने फिरे केवछ महकारण कारण सूक्ष्म स्थूलठ समाने स्थृद् सूक्ष्म कारण महा कारण केवल पुनि विज्ञाना भये नष्ट ये हेर फेरमें कर्तों नहों कल्याना कहे कबीर सुनोहों संतो खोनम करो गुरु ऐसा। ज्यहिंत आप अपन पौ जानो मेटो खथ्कारैसा इति पंच देह निर्णय

ओऔ जब पांचौशरीर ते भिन्न अपने को मान्यो अरु आपनेकों ब्रह्महूप मान्यो यह मंन्यो कि, में साहबको अंशहो यह नान्यों तब साहब याको हेस- शरीर देहहै सो नैसे साहब आनिर्बंचनीय रस रूप है ऐसे जीवो है रकार रूप साहब है मकाररूप जीव है न्यूनता येती है साहब स्वामी है, जीव सेवक है, साहब स्वतन्त्र है यह परतन्त्रहें साहब की मरजी ते सब काम करे है। जैसे गुण साहबके हैं तैसे याहके हैं, जैसे साहब नहीं आवबे जायहै ऐसे यहो नहीं अवि जायहै साहबके पासते जैसे साहबकी सर्वत्र गति है ऐसे याह की सर्वत्र गति है साहब के बराबरयाकों भागहै तामें प्रमांणव्याससूत्रम॥ भोग- मात्रसाम्यलिंगाद तामें प्रमाण षटदीहावलछीको शब्दमी कबीरणीका “तत्त्व मिन्न निस्तत्त्व निरक्षर मनो पवनते न्‍यारा नाद बिंदु अनहद अगोचर सत्य शब्द निरधारा ॥” स्थूछ शरीर पतच्चीस तत्त्वको है प्रथ्वी अप तेज वायु आकाश दर इन्द्री पश्च प्राण मन बुद्धि चित्त अहेकार जीव सो जाग्रत अवस्था में अनुभव होईहे कऋग्वेदहे प्रथमपद्‌ गायत्री सक्षमशरीर सन्रह तत्त्वकोहे पश्रपाण, दराइन्द्री मन, बुद्धि, सो स्वप्त अवस्थामें अनुभव होहहे यजुवेद्है द्वेतीयपद्गायत्री कारण शरीर तीनितत्त्वको हे चित्त अहंकार जीवात्मा सो सुषुप्ति अवस्था में अनुभवहोईहै सामवेद है तृर्तायपद गायत्री और महाकारण शरीर दुइ तत्त्व कोहे अहंकार जीवात्मा सो तुरीया- वस्था में अनुभव होइहे अथवेणवेद्‌ है चतुथपदगायत्री है। जीव सूक्ष्मवेद्‌

साखी। ६(*३१)

है नी ओंकार पश्चमपद गयत्री है बचनमें नहीं आवेंहै ॥४॥ पंचम पद गायत्री नाम वेदहै तामें प्रमाण “निद्वादी जागरस्यांति यों भाव उपपयते तम्भा+ भावयेत्रित्यमक्षयानंद्मइनुते!'॥ कैवल्य शरीर एक तत्त्वकी है चित मात्र है जोन बह्यकों छठों शरीर मानि राख्यो सो निस्तत्त्व है सो वाकों श्रमहे, कुछबस्तु नहीं है। सो जा कोई रामनामकों स्मरण करत साहबकों जान्या पांचो शरीरको त्यागकियों तब साहब हँेसशरीर जीवको देइहे जो मनवचनेमें नहीं आंवै है सो हंसशरीर अनिर्बंचनीयहै रसरूप हैं वह निस्तत्त्वहसे परेंहे जब प्राऊँत रसनेंहे सोऊ ब्यंजनाबृत्ति करिके जानोपरेहै तो अभाकृत नो मनवचनके परेहे वाकी कोई केसेजाने सो तौने हंसशरीरमें भाप्त है के साहबके पासजाइफे फिरिनहीं आभहै उहां मायामनादिकनकी पहुंच- नहीं है सो साहबकहे हैं कि हे जावँ | हसस्वरूप जो छठों शरीर तिहारों से हमारे पास है तू कहां मनादिकन में छग्िकै बिगेरे जाउहों तुम हमारेपास आवो और अर्थ इनको स्पष्टे है अंतमें कछु अर्थ खोले देह हैं सो श्रीक- बीरनी कहै हैं कि, पट ने हैं छयो शरीर तिनकों रेसा कहे झगरा है सो भेये जौने ब्रह्म प्काशम तुम भरे रहेहो सो वाझे छठो शरीर आपनों मानो हो सो तिहारो शरीर नहीं है, वांम परे तो पिशाचवत्‌ उन्मत्तवव्‌ द्वे जाइहै जाको_ भूत लगे है औओ नो उन्मत्त होइ हे ताको यथार्थ ज्ञान नहों होइ है। सो ऐसा गुरु करो नो साहबको बतावे तब आपनो छठा शरीर हंसस्व- रूप पावोंगे छोकमें जो साहब देह है तोने इहां साहब कह्यो है कि, छठी तिहारीही नगा कहे छठों शरीर हेसस्वरूप हमारी जगह में कहे हमारे पास है सो हमको जानोंगे कि, वही ब्रह्म है तब हमारे दिये पावोंगे जौन छठों शरीर तम मानिराख्यो है खोनोही सो तिहारो नहीं है ताते तुम्हारों कार्य्य सेरेगो कत५ |

शब्द हमारा तुम शब्दका, सुनि मति जाहु सर्राकख।

जो चाहो निज तत्त्व को, ती शब्दे लेहु परक्खि ॥२॥

साहब कहे हैं कि, राव्द नोहैं हमारा रामनाम तैनेहों शब्द के तमही सो रामनाम को सरेखिके कहे विचारिंके माया बद्ञ में मतिताहु | नो नित-

(५३२) बीजक कबीरदास

तत््वकों चाहों कि, में कौन तत्त्व यथार्थहों तो शब्द जो रामनाम ताकों परावि लेउ, अनादि शब्द यही है मेरे धाममें यह नाम मेरा सदा बनो रहे हैं जब आदि उत्पत्ति पकरण होइ है तब यही नाम छैके यहीको अर्थ वेदशाख सब जग निकासिके बाणी जगव की उर्त्पीत्ति करे है राम- नाम को अर्थ मोमें रूढ है सो अथ बाणी गुप्तके देह है तौन अर्थ साधुनाने हैं कि, रकारजे हैं साहब तिनको अकार जो है आचास्4 सतगुरु सो मकार जो है जीव ताकी शरण करावै है सो तुम मकार तत्त्वहों ताको जाने चाहों तो शब्द जो है मेरों रामनाम ताकेो परखों जो ककारके समीप मकार होइ ते वो मकार काम रूप स॑ने है जो दकारके समीप मकार होइ तो दाम रूप सनेहें इत्यादिक नाना शब्द सन हैं तहां तोने रूप द्वैनाय है वतनी शुद्ध ता नहीं रहे जाय है। जब वहैं मकार रकार के समीप सने है तबहीं शुद्ध ता होइ है ! ऐसे तुम मेरे समीप सजोहो सो मेरे पास आबो मोको जाने ते! तुमहूं शुद्ध है जाउ जैसे रकार के समीप मकार सदा रहै है तेसे तुमहे सदाके मेरे समीप हो ताते मेरे समीप आवो ओरे२ में लगों। रकार के शरण मकार को अकार करावे तामें प्रमाण रकारों रामरूपोयं मकारस्तस्यसे बकः अकारश्रीमकारस्य रकारे योजनीमता ॥?? इंते शम्मु संहितायाम्‌ ॥२॥

शब्द हमारा आदिका, शब्दहि पेठा जीव फूल रहनकी टोकनी, घोरा खाया घीवे

साहब कहे हैं के हमारा शब्द जो रामनाम सो आदि को है आदिहीते- यहि शब्द में जीव पैठा है सो शब्द रामनाम जीवके रहिबेको पात्र है; जैसे फूछ के रहनकी टोकनी पात्र है सो राम नामको छेफे निर्भेय खुखपूर्वक बिचरे, कछू भय छंगे तीने रामनामको सार जो अर्थ है सोई घी है ताकों घोरे जे पशु हैं गुरुवा छोग अज्ञानी ते खाइलियों अथवा पूर्व में छांछकों घोरा कहे हें जामें सार नहीं है ऐसे जे हैं छांठ गुरुवा लोग ते साहब को यथार्थ ज्ञान जो घी ताको खाइढियो कहे वाकी ओर और अर्थ करिके नाना मतनमें छगाइ दियो जो रामनाम मोंकों बतावै है सो अर्थ भुछझायदियो गुरू

वा छोग बड़े घोर हैं येई संसारमें तोको डारि दियो है

साखी (<४३३२३ )

शब्द बिना श्रुति आंपरी, कही कहांकी जाय

द्वार पावे शब्दका, फार फार भटदका खाय | श्रीकबीरणी कहेहें कि, श्रुति जो है सो शब्द जो है रामनाम ताके बिना आंधरी है काहेते कि, रकार मकार श्रुति की आंखी हैं ताके बिना कहांकों जाय सो दरब्द जो रामनाम है तौनेकों द्वार नहीं पांव अर्थीत्‌ अर्थ नहीं जाने रामनाम तो साहबमुख अर्थमें मन बचनके परे पदार्थ बतावे है और या श्रुति नेति नेति कहि बतांवै है याते रामनामके साहब मुख अर्थ नहीं कहि सकैंह याते यामें पारेके जीव फिरि भटका खायहै। ज्ञान, भक्ति, बिज्ञान योग; बताबे है फिर फिरि नेति नेति कहि कहि देइहै, याते जीव भटकाखा- इहै उहां वस्तु कुछ नहीं पावैहे जो रामनामकों साहब मुख अथे जीव जानि- के लगाबै तो सब श्रति छागे जाये सबके परे पदार्थ सो जानि जाहिं | काहेते बिना आंखी कोई नहीं देखे जोनी तरहते राम नामते सब श्रति ढागिजायहैं अनिर्वेचनीय पदार्थ माठूम होयहे सो पीछे लिखि आये हैं ४॥ शब्द शब्द बहु अंतर हीमें, सार शब्द मथि लीजे कह कबीर जेहि सार शब्द नहिं,विग जीवन तेहि दीजे«

जहां जहां अन्तर तहां तहां बहुत शब्द देखे हैं। तुम रामनामको अनि- बचनीय है श्रुति की आँखी हैं या कहो हो सो कैसे होइगो ? एकशब्द . वोह होइगो! सो या ऐसे नहोंहे सार शब्दहे जब सब शब्दनकों मयै तब बा जानि परे सो श्री कबीरजी कहे हैं कि, जेहि को सार जो रामनाम सो नहीं मथि- लियोहै, ताकी जीवन संसार में घिगहे। 'सारशब्द मतरछीने *” जो यह पाठ होइ तो सारशब्द रामनाम ताकी मतिलेइ। और जे मर्तिहें ते कुमतिहं तेहिको छोड़िदे रामनाम वर्णन सब श्रुति की आंखीं हैं तामें प्रमाण “५ आखर मधुर मनोहर दोऊ वरण बिछोचन ज॑न जिय जोड ””॥ १॥ “मुक्तिख्लीकणप्रे- मुनिद्द्यवयः पक्षतीतीरभूमिः संसारापरसिंघो: कलिकलुषतमस्तोमसों मार्केविम्बे। डन्मीलत्पुण्पपुजदुमछलितद्लेछोीचनिचश्रुतीनां. कामंरामेतिदर्णोशमिहकलयतां 'ततेसजनानाम्‌

६५३४ ) बीजक कबीरदास।

शब्दे मारा गिरि गया; शब्दे छाड़ा राज-॥

जिन जिन शब्द विवेकिया, तिनकी सरिया काज ॥६॥

श्री कबीरनी कहे हैं कि शब्दजो रामनामतोंनेको जगवमुख अभथमें वेदशा- ख्र पुराण नानामतजे निकसे हैं तामें नो परथो सो गिरगया अथीव्‌ संसारमें परयो जिन जिन शब्द बिवेकिया कहें सब शब्दनते बिचारकारे सारशब्द- जो रामनाम ताकाजानि लियो सोईं संसाररूप राजको छोड़िंदिय हैं तिनहीं को क[|जसरियाकहे सिद्धमयो है

शब्द हमारा आदि का; पल पल करे जो यादि

अंत फलेगी माहली, ऊपरकी सब बादि॥ ७॥ गुरुसुख | साहबकहैहें हे जीवो! हमारा शब्द जो रामनाम सोई आदिको है अथीत्‌ याहीते प्रणव वेदशासत्र बाणी सब निकसे हैं सो याकी आदिकहे स्मरण जो पछ पल कहे निरन्तर करेगो तो अन्तमें फडैगी साकेत जो हमारों महल- ताकी माही होइगो बंसैया होइमों अर्थीत॒ तहांकों जाइगो और ऊपरके जे सब

# 8

नाना मतहें ते वादि कहे मिथ्या हैं अथवा ओर सब ऊपरके मत बाद विवादरहें॥७ जिन जिन संबल ना किया, अस पुर पाटन पाय

झाल परे दिन पाथये, संबल किया जाय ८॥

श्री कबीरनी कहे हैं के, अस पुरपाटन जो या मानुष शरीर तोने को पाय के, जिने जिन पुरुष संवक्ष किया कहे सम्यक प्रकार बल कियो अथोत्‌ मनादिकनको जीति छियो, साहब को जान्यो अथवा संबलकहे जमा, सो परछोककी जमा रामनामकों जानि लियो “अथवा सन्बरूकहे कलेवा सो जो कलेवा साधन ले लियो अथीव्‌ भजन के छियो सो दिन अथंय कहें शरीर छूटे झालिपरे अर्थीव चोरासी छाख योनि में परयो अब सबरछ कियों नहीं जायहै

इहई सम्ब॒ल करिले, आगे विषमी वाट सरग विसाहन सब चले, जहँ बनियां नाई हाट ९॥

साखी (५३५

इहई कहे यहीं संसारमें सम्बल कह कछेवा सम्पन्न कारैले आगे। विषमी बाट कहे कठिन दुखदाई बाटकों, सो श्री कबीरनी कहे हैं कि, आंगे जागे कीौनी योनि में परेगो और वहाँ कछु किये होइगो कि नहीं ! अथवा जो या कहो कि, स्वरगमें विसाहन करि छेहूँगे अथीव्‌ सौदा कारे- हैईंगे अथीत्‌ वहैं साहबको जानन वारो कर्म कारिलेईँगे तो वहां बनियाँ है हाट है अर्थीत्‌ बह तो भोगभूमि है कर्म भूमि नहीं है स्वगे के शरीर से केवल मृत्यु छोकमें किये कर्मनको भोग होइहै कर्म कंरिवे को स्थानतों या मनृष्य शरीर औरे या मृत्यु छोकही है। ताते श्री कबीरणी कहे है हे जीबो ! यहांहीं सुकम कारे लेड

जो जानो जिव आपना, तो करहु जीवको सार

जियरा ऐसा! पाहुना, मिले दूजी वार १० ॥! है नीवों! जो अपने स्वरूप को जानो तो जीव का सार जो सार शब्द तामें रकारके समीप मकार आपने स्वरूपको करो जथीत्‌ साहबको जानि साहबके होड सो हे जीवो | रा अर्थीत्‌ रामनाम ऐसो पाहुना दूजी बार ना मिंलेगो भाव

का के

यह है कि, याही मनुष्य शरीर में मिलेगो और कहीं ना मिलेगो १० जो जानहु पिव आपना, तो जानो सो जीव

पानिपचाबहु आपना, पानी मांगे पीव ११

जो आपना पीव जे साहब हैं तिनको जानो तो हम तुमको जानें कि, तुम जीब हो। पानिप जो शोभा सों जो आपनी शोभा ( प्रतिष्ठा ) चाहों तो पानी जे गुरुवा छोगोंकी नाना वाणी है तिनको मांगेके नो पिड अर्थात्‌ गुरुषन ते अपने साहबको ज्ञान मत छेड वे तो ठग हैं तुझे ठग लेईंगे २१

पानि पियावत क्या फिरो, घर घर सायर वारि। तृपावन्‍त जो होयगा, पीवेगा झख मारि १२ ॥!

साहब कहें हैं श्रीकबीरणीसे हे कबीर ! मेरो उपदेश रूप पानी जीवन को पियावत घर घर का ( क्‍या ) फिरो हो सबके समुद्‌ भरो है अथीव

(५३६ ) बीजक कबीरदास |

सब अपनी वाणी और कल्पना में मस्त हैं। नो तृषित होईँंगे अथीव्‌ मुक्तिका

पर कर पु 8 हिल ले पियैंगे चाहेंगे तो तुम्हार उपदेश रूपपानी झख मारेके कहे लाचार है के आप पियेंगे समुद्रका खारानल त्यागि देंगे १२

हंसा मोती विकानिया, केचन थार भराय

जो जस मम जानिया, सो तस काह कराय॥१३॥

श्रीकबीरनी कहे हैं कि, हे विवेकी जीवो ! हे हंसो ! कंचन थार रूप जो तुम्हारे अन्त करन; तामें मोती रूप साहब को ज्ञान मोंते भराओे अर्थात्‌ में तो तुमको उपदेश देऊहों तुम कहा बिकत फिरो हो जोन जस पदार्थ होइ है तौने को तस जानत है तो वाको लैंके का करे

अथवा-कबीरनी कहे हैं हे हंसो ! हे नीवो ! मोती जो निर्मछ शुद्धरूष आपना स्वरूप तौनेंकों कंचन थार जो माया तैने में भरिके विकनिडारे अथीत्‌ कनक कामिनीमें लगाई के मायाके हाथ बेचिडारे | सो जो जौने तरांते

आपने स्वरूपकों जानि सक्‍ये सो जाहिमें जैसी रूग्यों ताहिमें तैसों द्वै अज्ञान भयो अब कहा करे मायामें फंसिके मरिगे १३

हँसा तुम सुवरण वणे, का वरणों में तोहि।

तरवर पाय पंहेलि हो, तेबे सराहों छोहि १४

हे हंसा नीव | तुम सुबरण जे मकार तांके बंणेही, मैं तोंही का वरणों अर्थीव्‌ तुमहूं मन बचनंके परे हो सो तरिवर जों या संसार ताकी जब पाइके पहुलिहों कहे ठेलि नैहो अथीत्‌ संसार को दूरि कारे दैहो तबही में तो- को छोह कारिके सराहों गो कि बड़े बन्धनमें बंधिके छूल्यो १४

हँसा तू तो सबल था, हलकी अपनी चार। रंग कुरंगी रंगिया, किया ओर लगवार १५॥

है हंसा जीवो ! तुमतो सबंड कहे सम्यकृ प्रकार बढ़वाले थे ( तेहोरो . साहबी सबरहे ) परंतु अपनी चार कहे अपनी चालते हहुक कहे निबल है गयो काहेते के रंग कुरंग जो या संसार है तैनेमें रंगिंगे कहै राग करे लियो।

साखी (५९३७ )

और राग करिके और छगवार कहे नाना मतनमें जाइके नाना मालिंक बना- वृतभे धुनि यहहै ।कि, आपने स्वरूपकों देख १५

हैसा सरवर तजिचले, देही परिगे सन्नि कहे कबीर पुकारिके, तेई दर तेइ थुन्नि १६॥

है हंसाजीव! विना साहबके जाने या सरवररूपी शरीर तजिके जाउगे तब या देही सुन्नि पारैतायगों अथोत्‌ मरिजायगी | सो श्री कबीरजी के हैं कि, हम पुकारिके कहै हैं बिना साहबके जाने तेई दर तेई थ्ूनी बने हैं अथीत्‌ नये तलायेमें छाठि गाड़ि नाइहै सो नहैं जायगो तहें देहरूपी सरवरमें बासन रूपी दरमें कमरूपी थन्हि गाड़ि छेउगे। पुनि पेदा होइगो जनन मरण छुटेगो १६

इंसा वक यक रँग लखिये चर ए्कही ताल क्षीर नीर ते जानिये, बक उचेरे तेहि काल॥ १७ बकुछा और हँस एकही रंग हेोइहें और एकही ताल में चरे हें।परन्तु जब

नीरक्षीर एक करिके धारिदियों वे दूध पीलिये पानी रहिगयो तब जानिपरो हंसहे नीर क्षीर जुदो कीन भयो तब जान्येो कि बगुढा है। ऐसे टीका कंठी माछा टोपी सब बराबर होइ हैं नव बिचार करनलग्यों मत माया ब्रह्म भीव इनते साहबको अछग मान्यो तो जान्यो कि ये हंस हैं जो मनमाया ब्रह्म जीव ते अलग कियो साहब को तो जान्‍्ये कि ये बगुछाह १० विद ७.0 विस कक काहे हरिणी दूबरी, चरे हरियरे ताल दा हु 8

लक्ष अहेरी एक मृगा, केतिक टोरों भाल १८

जीव कहै है कि हे हारेणी! बुद्धि तें काहे दूबरी ह्वे रही है। संसार रूपी हरियरे तालमें चरिकें यह संसारतालमें लक्ष तो अहेरी कहे मारनवारोंहे सो

कक बन

तें केतिक भार यारोंगे मरिही जाइगो सो हरियर है जोने _"”"ए तैनेमें काह

(५४०) बीजक कबीर दास

मकार है। सो जरदबुन्द कहे जरद रन ख्लीकोी और बुन्द वीय्ये पुरुषफो ये दुन- इनके संयोगते शर्राररूप कूकुही नीवके छगि गई जैसे सेतनमें कूकुही छूमरि जाइ है सो कबीरनी कहे हैं कि, याका भीतर विचार करि देखो ते यहि जीव को स्वरूप जानि परे कूकुही छड़ाइबों जैसे कूकुद्दीति अन्ननाश है जाइ है ऐसे याहु शरीररूप कूकुही नीवके छगी है सो एकही शुद्धता को नाश के देइ है २५ क्‍ + लक [>> वि ध् पाच तत्त ले या तन कान्हा, सा तन कह कांनन्‍्ह | २2 [कु “जा 40 अधि सं 4०. जी

कमेहिके वश जीव कहतहे, कमेहिको जिय दीन्ह२६

या पांच तत्त्वनकों लैके या शरीर कियो सो या शरीर छेकै तें कौन काम कीन्द्यो, कर्मके बश हैके मेरों अंश .जो जीव सो कर्महि को देत भयों मेरो हैके अथीत्‌ कमेंके बश हेके संसारी भो जीव सो कौन बड़ो काम कियो जीव कहवावन लग्यो २६

पांच तत्तवके भीतरे गुप्त वस्तु अस्थान बिरल मर्म कोइ पाइहे, गुरुके शब्द प्रमान॥ २७ पांच तत्त्वको जो या शरीर ताके भीतर जो गुप्तवस्तु जीवात्मा है ताको स्थान है ताको मर्म कोई बिरला पावै है कि, यह नित्य कौनको है यामें गुरु कि ञ्‌ €्‌ः | आर

जै साहब हैं तिनका शब्द जो रामनाम सोई प्रमाण है। तौनेकों अर्थ बिचार

8 कक डर रे 8 ओह.

'करे तो या मानि लेहि कि जीव साहबैकी है २७

अशुनत खत अड़िे आसने, पिण्ड झरोखे नूर

तांके दिलमें हों वर्सों, सेना लिये हजूर २८

अशुन कहे शून्य नहीं वा निराकारके परें अशून्य जो साहबकों तर्त आडिके तामें आसन केक अर्थात्‌ ध्यानमें रत पिण्ड जो है शरीर ताके झरोखा जे हैं नेत्र तिनते साहबकों जो कोई नूरदेखें कि, सब साहिबैकों प्रकाश पृण्ण है सर्वत्र ताके दिछमें आपने परिकरते सहित बसोहों २८

साखी (५४२१)

हृदया भीतर आरसी, सुखतो देखि जाय

मुखतो तबहीं देखिहों,जब दिलकी द्विविधा जाय॥२९॥ हृदय भीतर जो आरसी तोनेमें आपनेरुपकी जो मुख सो नहीं देखों

जायहे वा बिचारकरिक देखोजाइहे सो मुख जो तुम्हारों स्वरूप सो तबहीं देखिहों जब में मोर या दिबिधा जात रही कि, चित अचित रूप सब साहदबेके

80 पक अं

दखां गे २९० वि है ऊँचे गाँव पहाड़ पर, मोटे की बाँह

ऐसो ठाकुर सेइये, उबरिये जाकी छाँह ३०

जोगांव ऊँचेपर होइहे तहां बड़ाकी भयनहीं होइहे, जाके जबरेकी बांह होइ्हे ताको डर नहीं होयहै ऐसे ऊँचो गांव जो साकेत, तहां साहब जे हैं तिनकी जहां बांह है ऐसे जे साहबहैं तिंनकी बाहँकी छांहमें टिको जाते डबरो उहां मायाके बूड़ाकों डर नहीं है इहाँ मन मायादिकनमें परेहौ इनमें. काछते बचोगे ३०

ज्यहि मारग गे पण्डिता, तेही गई वहीर ऊंची घाटी रामकी, त्याहि चढ़ि रहे कबीर॥ ३१

जीने मार्गमें राम नाम जाने बिना पण्डित गये, वहीं मार्ग है मखों जात भयें अर्थात्‌ पापीषुण्यवांन सबंवहीयमपुरी गये कबीर जी कहै हैं कि

ऊँची घाटी जो रामनाम तामें आरूदद्वेके हे कायाके वीर कबीर माया के बडाते बचिजाऊ ३१

है कवीरतें उतरि रह, सव॒ल परोह साथ

सबल घट पग थक जाव बिराने हाथ ३२

गुरुवाछोग मोको समझायो हे कबीर ! तें ऊँचीघाटी जो राम नाम तौनेते उतरिरहु तेरे सबढकदे कलेवा है परोहतकहे बाहन साथहे | सो सेब पगु जब थांकैगो तब नीव तो बिराने हाथ है जाइगो नो हमारेपास आवोगे तो ज्ञान योगादिक सम्बल बतावैंगे अहब्रह्मास्मि बाहनदेयँगे तामें आरुद्द्वक रुसरसमुद्र पार है जाइगी ३२

(५४२ ) बीजक कबीरदास |

घर कबीरका शिखर पर, जहां सिलि हिली गेल पाँय टिकें पिपीलिका, खलक लादे बेल॥ ३३॥ श्रीकबीरजी कहे हैं कि, हे गुरुवाछोगो ! हमारा घर शिखर जो रामनामहै

तामें है तहांगे चिकनीहे चींटी नो बुद्धिहि ताहीके पांय नहीं टिकेंहें अथीव्‌ वा मन बचनकेपरेहें रामनाम औरस्परूपहै तहां तुम पहुंचि सकी हो तांति बिछुल गैल हो उहां नाना मत शास्त्र रूप लाद छादे बैछ जे हैं गुरुवा ते नहीं जाइ सकैहें अथीद सूक्ष्म बुद्धिह नहीं नाइसकै हैं तो तुम ने नाना मतनको

छाद छादेहो सो कैसे जाइ सकोहो जहां में टिकोहों तहांभारे तुमहू पहुंचि सकते नहींहो कहां कलेवा देडगे कहां बाहन देडगे ३३

बिन देखे वहि देशकी, बातें कहे सो कूर आप खारी खात हों, बेचत फितर कपूर ३७ श्रीकबीरजीकहेहें कि, जोने शिखरमें हम चंदे हैं तौते देशको बिना सतगुरु

द्वारा देखे जे बात वहांकी कहें ते कूरहें अ्थाव्‌ तुम हमको उतरन शिख- रते बिना जाने कहोहो सो तुमहीं क्रहो कैसे हो आपतोखारी जे नाना मत तिनकों ग्रवण कीन्हेंहों स्वच्छ उज्ज्वल कपूर जो है ज्ञान ताको बेंचत फिरोहो। अर्थीत्‌ दव्य हैके चेछा बनावत फिरोंही भाव यहहै कि, नामको भेद नहीं जानों हमारे इहां केसे पहुचोंगे २३४ नह गृद् के कप ..- शब्द शब्द सबको कहें, वातो शब्द विदेह | मी 00 | कप जिल्दा पर आवनहा, नराख पराख कर छह ३५०॥ शब्द कि सबकोई कहेहें परन्तु वा शब्द नो रामनामहै सो विदेहहै बिना श्रीरका है जिद्ठा में नहीं भवि है मन बचन के परे है ताको ज्ञानदष्टिते निर- खिके पारिख करिछेहु ३५ कर ०. च्ज्छ परवत ऊपर हर बसे, घोड़ा चढ़ि बस गाई़े कक 3 कक. हि. बिन फुल भोरा रस चखे, कहु विरवाको नाउँ॥ ३६

4००५..

साखोी। ( ९४४ )

_ पवेत आगे जीव बह्चकों कहिआये हैं सो पर्वत जो ब्रह्म ताके ऊपर हर जो

हो र्‌ः अंक ८२५ है हर कर

माया सो है अथीत्‌ सबकित हैँके संसारकी उत्पात्ति करे है सो घोडा जो है पी अच च्ो औ, रः नम *_ अं,

मन तोनेमें गा जो संघ्तार है सो बसे है अर्थात्‌ मनेमें सब संसारहे बिनफु

कहे या संसार तरु को फूछ विषयहै सो मिथ्याहै कछु बस्तु नहीं है तोनिको

रसभोरारूप जीव चांखेंहे सो वा बिरवाको नारे तो कहु ? नाम संसार मिथ्याँहै

जीन याको सांचनाम है ताको कहु। ताको तें ध्वनी यहहै नहीं जाने है ॥३६॥

चन्दन वास निवारहू, तुझ कारण वन काटिया जिवत जीव जनि मारहू, झयेते संबे निपातिया॥३७॥

है चन्दन जीव ! अपनी बासना तू निवारणकरु काहेंते कि,में तेरे कारण नौने गुरुवनकी नाना बाणी नाता मतनमें तुम छाग्यों तिनकी बाणी रूप बेन काटि डारयो अथोत्‌ खण्डन करिडारये जाते तुमको ज्ञानहोय सो बासना - में पारके जीवत नीव तुम अपनो मारे जो वामें छागि जाहुगे तो _म्हारो नीवत्व जात रहे गो मरिजाहुगे। वाही धोखामें छागेंके आपकों ब्रह्म मानने छागोंगे तब निपातिया कहे सब साहबके ज्ञानकों निपात ह्वैनाइगो ३७ चुन ९. . न्द्न सप लपाटया, चन्दन काह कराय॥ किक [कक हू कप रोम रोम बिष भीनिया, अमृत कहाँ समाय॥ ३८ चन्दन जो जीवहै सो कहाकरे है सर्प्प नेगुरुवालोगहैं ते छपटिरहे हैं सो उनकी बाणी को जो है बिष सो रोमरोम बिषे भेदि गयो है हमारो उपदेश नो अमृत सो कहां समाय रे८ 6.0 2 (व ज्या झुदादूु समसानासल, सब यक रूप समाह * / 8 का हि कह कबीर साउज गतिहि, तबकी देखि भुकाहि ३९॥ जैसे मुदादि समसानसिल होइहे सो जो कोई देखे है ताकों मुरैडेरूप देखि- परे है सो कबीरनी कहै हैं कि, गुहवाछोगनकी बाणीरूप सिरूमें तबकी कहें सृष्टिके आदिम आपनीगतिदिख हैं कि, तबहूँहम बह्रहेहें या मानिके भोंके हैं कि, हमहीं बह्मह अथवा ज्यों मुंदादि कहे मुदको आदि ब्रह्म ज्योंकहे कैसे

कि | ५३

लैसे मसानते सहित सिल पाथरकेभुतहा चौरा, जेई वा चैरामें बेडे हैं साभमु-

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(५४४ ) बीजक कबीरदास

आहहें कहे हैं में फछानों भूतहों आपनो रूप भूलिजाइहं ऐसे जेई गुरुवालोंगन« की बाणी उपदेश में परे हैं ताहीके एकरूप ब्रह्म समाइ है यही कहै हैं कि, भहीं ब्रह्म हों सब बहाही है एकरूप दूसरों पदार्थ नहीं हैं। सो श्रीकबीरजी कहे हैं साउन जो नीवहै ताकी तबकी गति गुरुवाछोंग कहे हैं तब तुम बह्मही रेहीं आपने अज्ञानते तुम जीवत्वकों धारणकीन्हेही अबहूं जो ज्ञानकरों तो ब्रह्मही है नाहु या मानिकै उपदेश जीव भोंके है कि हमहीं बह्महें अथीव्‌ जेसे वा पण्डा भूतनहीं है नाइहै जीवहीरहे है ऐसे अह्म रहे हैं बह्म होइगो भोकै- पदके शाक्तीते दूसरो दृष्ठांत ध्वनित होइहै जैसे कृकुर कांचके मन्दिरमें आपने प्रतिबिम्ब देखि भूंक्ते है ऐसे अपने श्रमते गुरुवनकी बाणीरूप ऐनामें आपनो रूप ब्रह्महोदेखे हैं भूके हैं, यह नहींनाने हैं कि हम साहबके हैं या गुरुवाडो- गनकी बाणी में ब्रह्मेद्खोपरे है सो हमारे मनहींको अनुभवहै ३९ गही टेक छोडे नहीं, चॉच जीभ जरिजाय

मीठो काह अँगारहे,ताहि चकोर चवाय:॥ ४०॥ ब्रह्ममादिन की टेक कैसी है जैंस चकार को ओठ जीभ जहरै है परन्तु अँगरे को चावे है ४० ॥* झिलमिल झगरा झूलते, बाकी छुटी काह

गोरख अँटके कालपुर, कोन कहावे साहु ४७१॥

झिलमिल झगरा कहे दशमुद्रा करिंके बंकनालते खिरकीकेराह लेजाइकै बहज्योति नो झिलमिलाइह तामें आत्माको मिछाइ देइहै पुनि पट्चक्रते झिंलिकै गैबगफा में जो बह्मज्योतिंहे तामें मिडिके झगराकरिंके कहे कामकोधादि- कनको दूरिकरिकै पुनि संसारमें झूलिपरे है अथौव्‌ जबसमाधि उतरि आई तब- केरि वही झगरामें झूलिपरे सो कमेकीबाकी काहकी नहीं छूटे है सब कमे भोग- करे है। नो गोरखे कालपरमें अँटके अथीत्‌ उनहोंकों नो काछ खाइडियो तो और दूसरो कौन शाह कहावेै है कौनकालत बच्यों है। जो बहुत जियो योगी

# आर प्रतियों में ४१ वी साखी यह है चकेर भरोसे चन्दके, निगले तद्न अँगार कहे कबीर दांहे नहीं; ऐसीवस्तु रगार ४१

साखी। ( ५४“. )

तो कर्पान्तमें कोई नहीं रहिनाय है जो कोई रहिगयो जलूबढ़यों तो जलमें मि- लिंके रहिगयें अग्नि बढ़ी अग्नि में मिलिके रहिनाइ है तो महाप्ररूय में नहीं २हि जाइ है ४२१

गोरखरापिया योगके, सुये जारी देह

माँसगली माटी मिली, कीरो माँजी देह ॥४२॥

जो कहौ गोरख ते बने हैं तो पूयादिकनमें वोऊ रहैंगे। योग के रपति-

या जे हैं गोरख ते ऐसे योंग हनारन बर्ष कियो कि मरथोतों देहकी जारचों मांसगलिके मार्टमें मिलिगयो तब कोरो कहे मांनी कहे शुद्धवर्म॑ देह गोरखकी कढ़िआई आखिरपर वहीं श्ररयादिकनमें रहेगी सो डनकीदेह मुयोकह ऐसो योग कियो कि नाते अज्ञान रहिंगये संसार छुटि गयो संसारते मरिगये के उनकी सूक्ष्मादिक देहो मरथयों पर जरी भब देह जरी तब पूनि * संसार में आवते भय कव्पांतरनमें खो कसल्पान्तरमें गोरख आदिदेके योगी सब आंबे दे सो आगे कहै हें ४२

बनते भगि बिहड़े प्रा, करहा अपनी वबानि बेदन करह सो कहे, को करहाकी जाने 8३

बन जो है संसार तौनेते भागिके बिहड़ जो है अटपट गैले ब्रह्म तामें परथो- जाइ सो यह जीवकों सदा स्वभावई है कि, प्रछूयादिकनमें अह्ममें गयो पुनि करहा कहे करहि आयो संसार में जन्म लियो शशेर धारणकियों से यहजीव संसार योगादिक साथन कियो सो यह वेदन कहे पीड़ा जीव कासों कहे रारीर काहेते करहि आयो यह को जाने जैसे आम्रादिक वृक्ष कर्ाहें आवै हैं कहे फूलिआवै हैं फेरि फरे हैं आपनी ऋतुपाइके तेसे जब महाप्रुया- दिकभये तब छीन इदोइ गयो जब उत्पाति प्रकरणभयों तब फेरि करहिआये कहे शरीर धारणकिय पुनि नानाकर्म करिके नाना फ़छ पावन छगे ४३

बहुत दिवस सो हीठिया, शून्य समावि लगांय करहा परिगा गाड़में, दूरि परे पछिताय ४७

( ५४६ ) बीजक कबीरदास

जीव बहुत दिन समाधि लगाइईके शन्यमें हीठिया कहे श्रमत भये के, इमारों जन्म मरण छूटे सो हजारन कत्प समाषि छगाये रहे जब समाधि उतरी तब प॒नि नैपेके तैसे हैगये अथवा हजारन बषे बह्ममें छीनरहे जब संष्टि भई तब पुनि संसाररूपी गाड़में परिके पछितान छगे | पछिताइबो कहा है कि वही बासना लगीरही ताते पुनि नाना साधन करनछंगे कि हमारो जन्म मरण छूटे ४४

कृविरामभनभाजिया, बहुविधि घरियाभेरव

साइक पारचयाबिना, अन्त्रराहंगाोरंख ४५

कबीर ने हैं कायाके बौर यहजीव सो बहुत भांतिके वेष घरत भयों योगी हैंके योग करत भयों, ज्ञानी हैके ज्ञान करत भयो, भक्त हेके भक्ति करत भयो कर्मकाण्डी हेंके, कम करत मयों पे जिनको यहजीव अंश है ऐसे जे हैं साई परमपरुष श्रीरामचन्द्र तिनके बिना जाने याको श्रम भाजनत भयो जो मुक्त है गयो आपने को ब्रह्मह मानतभयों तो मूछाज्ञानरेख याके रहीगई काहिते कि, यह जाको है ताका तो जान्यो नहीं योग कियो, शञान कियों भाक्ते कियो, नाना कर्म कियो, ताते पूनि संसारहीमें परयो, कोन रक्षा करे, रक्षकको तो

बिसराइ दियों ४५

बिनडांड़े जग डॉड़िया, सोरठ प्रिया डांड॥

बांटन हारा लोभिया, गुरते मीठी खांड ४६॥

यह संसारमें जीव विना काहके डांड़े डांड़िया कं सब डारे जाते भये

अर्थात्‌ आपनेही कर्मते साहबको ज्ञान भूलिगये सोरठ या देश बोली है। सोरठे फछ देउ दशउ फछ देंड सो ये सोरठे उपाय बतायो चारे वेद छःवेदांग छःशासत्र, सोरठते ब्रह्मा साहब को उपदेश इनको किये, पे ये सब अपने अपने कमेमें छगिगय उनको वा सोरठकीह सोरठे नौने बह्मा उपाय बतायो तोन उनको डांड्परयो:। डांड वह कहाँव है जौन बन कटिके मैदान द्वैनाय है सो उनको चारे वेद छ/वेदांग छःशाख ईं ने सोरठ हैं ते डांड्रपरये कहे वामें साहब को खोज पायो साहबको बिचार उनको दिखाइ परयो। अनतही

साखी ( ५६४७ )

अनतही लगावेंहे वेद शाखका अथे कारे काहेतें पायों कि बांटनहारोजो बल्मा हैं सो छोभी रह्यो है कहे रजो गुणोहै सो बहुत चोराइके कह्मो परोक्ष कह्मो जातें कोईं पवि। जे जानतभये बह्माकों उपदेश ते गुरु ने अह्माहैं तिनहंते अधिकह्ैगये अथीद गुरुगुरुही रह्मो चेला खांड ह्ैगयो अथीत्‌ गरते मीठो खांड होइहे काहते बह्माति अधिक द्वैगये कि, बह्मा गुणको थारण किये हैं वे सगुण निर्गुणके परेकी बात जाने हैं ४६ #*. वि के मलयागिरिक वासमें, इक्ष रहा सब गोइ॥ हज + +॥०) काहेबेकी चंदन भया, मलयागिरे ना होइ ४७॥

भलयागिरि चन्दनके वृक्षके बासमें सब वृक्ष गोइरहे कहे मलछयागेरेके बास

७३ छुकनएचतक कह 4७० फू, ऐसे कक वि रु सबमें ओयगंई, कछू मल्यागिरि नहीं द्वैगई ऐसे तिनको साहबको ज्ञानभयों तिनमें साहबकी गुण आइगये शुद्धदै गये कछू साहब ड्वैगयों। जो कहो ब्ह्मातो चारिवेद छःवेदांग छःशास्र जें सोरठहैं तिनते सबको उपदेश कियो ताको गुप्ताथ और छे,ग काहे समझयेो एक साहबको जनेये काहेते जान्ये तोने को अर्थ दूसरी साखीमें दिखाँवे हैं ४७

कप के मलया गिरिके बासमें, वेधा ढाक पलाश

बैनाकबहूंन वेघिया, युगयुगराहियापास॥ ४८

मलयागिरिके बासमें ढाक पछाश सब बेधि गये बेना जो है बांस सो युगयुग मलयागिरे के पासरहै है पै वामें बास बेघत भई अथोव और वृक्षन भीतर सार रहो तेहिते बास वेघिगई ! बांसके भीतर सार रह्मो ताते बास बेधत भई अथोत्‌ और जे अज्ञानिउ रहे तिनके अन्तःकर णमें शन्य नहीं रह्यो सो नो कोई उपदेश कियों तो सच मानिकै समुझि लिये जिनके भीतर वह शून्य बह्ाघेखा घुसो रहो ते और ऊपरते खण्डन कर- नछगे और और अथ्थ वेदशास््र के बनाइ लियो ते बासि गये कहे उनकों साहबको रंग रुग्यो चारों युगमें वेदशासत्र सब पढ़तई रहे ४८

चलते चलते पथुथका, नगर रहा नो कोस

कि:

बीचहिमें डेरा परयो, कहो कोनको दोस ७९

(“४८ बीजक कबीरदास

चलत चछत थकिे गयो वह नगर नव कोश रहो सो नवकोशमें एक कोंग चढि सकक्‍्यो, तो दशों कोश जहां साहबकों मुकाम है तहां कैसे जाय- सके दशों कोंश दशों मुकाम रेखतामें लिखिआये हैं सो बीचै में याकों डेरा परयेो बीचही में रहिगयो ताते जन्म मरण होन छग्यों, तो कौन को दोषहे साहबके पास भर तो पहुँचिबोई कियो मुसस्माननके मंतमें कर आर कर,

बहत्तर हजार परदाके ऊपर जब गयो तब नव परदा बाफी रहिजाय हैं तने कोश है ददशयें में साहबहे ४९

झालि परे दिन ऑथये, अन्तर परिगे सौझ

बहत रासिकके लागते, वेश्या रहिगे वाझ ५०

यहि साखी में अर्थ कोऊ यह कहे हैँ के, प्रपंच करतेकरत बिषय रस लेते लेते बढ़ाई आईं। वेद शाख पुराण नानाबाणी पढ़ते पढ़ते कम्में उपासना तपस्या योग बेराग्य करते करते थके | आखिर गुरुपद पारिखकी प्राप्ति नहों मई यकदिन मोत आइ पहुँची तब ऑअँखिन पर झालिपरी कहे अधियारीपरी द्निकहिये ज्ञान सो गाफिली में डूबि गया | हमारे अथ यहहे

झालि पर कहे जब दिन अथवा कहे आयुर्दोय घटी तब गिरिपरे कहें बीमारहये इन्द्रिय शिथिलुभई तब अन्तःकरणमें अधियार हेगयो कहे कु सूझि परन लग्यों तब जैसे बहुत रसिकके संग ते बेश्या बांझ रहि जाइ है गुरुवा लोगनकी नाना प्रकारकी बाणी को उपदेश सुने सुनिके शन्य हेग

ज्ञान भक्ति उत्पत्ति भई साहब नप्राप्त मये॥ ५० मन ता कह कब जा३इय॑, चित्र कह कब जाउ

छा मासेके हीठते, आध कोश पर गाउँ «१

मन संकल्प ।बिकल्प करिके आत्मा को स्वरुप खोने है कि आत्मा कैसों है? चित्त स्मरण करे है कि आत्माकी स्वरूप कैसो है ! सो छा मास जो हैं छयू शाख तौनेम हीठत कहें स्वरूपफो खोजतई गये, पे वह गाड़ें आ-

त्माको स्वरूप मकार आध कोश में कहे अर्धनाम रकार ताके निकट्ही रहो पे खोने पायो ५१

हि

साखी ( ५४९ )

गिरही तजिके भये उदासी, बन खँँड तपकी जाय चोली थाकी मारिया, बरइने चुनि चुनि खाय॥ «२॥

घर छोड़ेंके नगवते उदास भये, वन पहारमें बैठे जाय साहब को तो जान्यो शरीर ओटिके तपस्या करन छगे सो या मारते कहे कन्दप्पे 'तें चोढ़ी थकिगई कहे वीयेकी हानि है गई जब बुद्ध द्वे गये तब मैंस चोली बरइनि की थकिगई तब बरइनि सरे सरे पान निकारिडारे है नये नये पान चुनिचुनिके खायहे तैसे माया जो है बरइनि कहे ज्ञानभक्ति को बरायदेनवारी कहे दूरि करनवारी सो पुरान पुरान जे शरीर हैं तिनकी निकारि डारथों नये नये सुन्दर देंकै स्वर्गोादिकनकों सुख दियो राजाबनायों, धनवान्‌ बनायो भोग कराइ कराइके उनको माया मत्युरूप खाय छियो ज्ञानी भक्तियोगी तपस्वी कोई नहीं बचे हैं जे साहब को जाने हैं ते बचे हैं ५२

[ आम | कप 8 $%३+ राम नाम जिन चीन्हिया, झीने पिजुर तास नयन आवे नींद्री, अंग जामे मौसु «३

जिन रामनामको चीन्हों है तिनके पिंगर झीने ह्वैगेये हैं पांचों शरीर उनके छूटिगये यह स्थूछ शरीर कैसो बन्यो है जैसे सूमा जरिजाय ऐंठंनि

॥०१:- आह, + की ड्लैकै आती बनी रहे जब यही शरीर छूटेगो तब हंस शरीर में स्थित हैँके साहब के पास जाइगों सो इनके शररूपी पिंजरा झीन दे गयों है नयनन में नींद नहीं कक. अर का व्‌ बा रे आप जाय छः कदर हि आंँबे है कहे सोवायदेनवारी जो माया है सो उनको स्पशी नहीं करे है अड्में पुनि माँस नहीं जाम अथीत पुनि वे शायर धारण नहीं करे हैं ॥५१॥

कर + | जे जन भीजे राम रस, विकसित कब रुवख झ्‌ विद

नुभव भाव द्रशें, ते नर सुक्व ढंकख ५७॥

. जे जन श्रीरामचन्दके रसमें भीने रहै हैं ते सदा बिकसित रहै हैं. उनको हृदय कमल सदा मफुछितई रहे है रूख़ कबहू नहीं रहे हैं रूख जो है अनुभव भाव वह धोखा ब्रह्म सों उनको कबहूं नहीं दरों है ते नरन-

को संसारको सुख होइहै दु।खहोइहे वै रामश्सही में मग्न रहैहें ५४

(५०४ ) बीजकं कवीरदास

4०७. 48

सुखे मग्ना देत्याश्चहार॑णा हता:। तज्ज्योतिर्मेद्नेसक्ता रसिका हारैवोदिवः”। साहब के छोकमें ने हैं तिनकी सर्व्वशत्न गति है तामें ममाण “समृत्युन्त रतिससर्वेषु छोकेषुकामचारों भवति ?”॥ इति श्रुतेः ६०

दोहरा तो नव तन भया, पद॒हि चीन्हे को३॥

जिन यह शब्द विवेकिया, क्षत्र धनी है सोइ ६१

सेव्य सेवक भाव मान्‍्यो साहबको जान्यों तब दोहरा नव तन भया कहे हंस शरीर पायों, परा भक्ति पाये तोने पदकहे साहबके लोक मवेशकरे है सो वो छोकको नहींचीन्है जो कंहौ बह्मरूप हैके केस सेव्य सेवक भाव साहबते कियो तुम बनायके कही हो तौ श्रीकबीरनी कहे हैं निन यहशब्द दिविकियां कहे जिन साहब यह बिविककारे शब्द बतायो सोई क्षत्रपनी हे अर्थाव साहिबे मोक़ो बतायो है मैं बनायकै नहीं कहीं हों तामें प्रमाण अीकवी रजी को “ज्ञानी बेगि जाहु संसारा अमी शब्द कारे जीव उबारा पुरुष हुक्म जब जब में पावा तब तब जीवकों आनिचेतावा” गीतामेंभी लिखाहि॥“बह्ममृतः मसन्नात्मा शोचाति कांक्षाते ! समस्सर्वेषु भूतेषुमद्धक्तिडमतपराम्‌ अकक्‍त्यामामभिनानाति थावान्यरचास्मि तत्त्वत३ ततो मां तत्त्वतोज्ञाल्ला विशते तदनन्तरम” ६९१

कविरा जात पुकारिया, चढ़ि चन्दनकी डार

वाट लगाये ना लगे, फिरि का लेत हमार ६२॥ श्री कबीरनी कहेंहेँ कि जब में चन्दनकी ढारमें चढ़िके कहे वह बह्नके ' परे हैके साहबके छोककीो जान रूग्यों तब में पुकारयों अबहूं पुकारों हों से पीछे लिखि आये हैं कि, बिरवा चन्दनते बासिनाइहै कछुचंदन नहीं डरे जाइहे ऐसे ब्रह्मज्ञान किये जीव शुद्ध है. जाईहै कछु ब्रह्म होइहै सो बह्म जे। है चन्दन तीनेकी डार चढ़िंके अथोव्‌ बजक्वज्ञान करिके शुद्ध ढ्वेके वाकों जानिके पुकारयों हों कि, साहबके होड ब्ह्महीमें ननि अट्केरहौ इतनाही नहीं है साहब ब्ह्मके आगेहै सो सबको में बाट छगावों हों कि, तुम साहब के होठ तुम हमारे छगगायें उस राहमें नो नहीं छगतेहों तो हमरों कहानायहै

साखी «५४ ):

अथवा हम नोनचाल व॒तावें हैं तोने चाछ नहींचठते हो हमारों नामछेतेहो कि, हम कबीरपंथी हैं। सो लम्बी टोपी दीन्हे बिना छिदको चंदन दिये बहुत साखी शब्द कण्ठ करलिये हमारे फ्िरिका नपाबेंगे मतको पावोगे यमके धक्ताते बचोगे। तामें प्रमाण॥ हमारा गाया गावैगा अनगेबी पक्कापॉवैगा | मेराबूझायबूझेगा सोतीनलोकमेंसझैगा”” ॥१॥ कबीर की साखी शब्दी पढ़िके और बितण्डाबाद अनर्थ करनेलग परमपुरुष श्रीरामचन्द्रकों वेदशाखकों झूठक- रनलगे आपने जीव को सत्य करतछगे ते यमको घका पवे चाहें ओजे कबीरकी साखी बलिके परमपुरुष श्रीरामचेद्रकों अंशहे जीव श्रीरामचंद्र याके रक्षक ऐसो जे बढ्यों ते तीनलोंक्में सझबई करेंगे काहेते डनके रक्षक परमपुरुष

फेर

श्रीरामचंद्र तो बनेई हैं सर्वत्र रक्षा करिलेइहें ६२ सबते सांचा है भला, जो सांचा दिल होह॥

सांच बिना सुख नाहि ना; कोटि करे जो कोइ ॥६३॥ जो आपना सँंचादिल्होइ तो सबते सॉँचे जेपरमपषुरुष श्रीरामचंद उनहींको अंशजीवहे उन्हींको में साँवो दासहों यह मत सबते साँचहै सोईमलाहै। सो यह साँच मत बिना सुख काहूको नहीं है कोटिन उपायकरे श्रीरामचंद सत्यहें ओऔनीव सत्यहे जीवको श्रीरामचदको भेद्सत्यहे तामेंपणाम #सत्यंभिदः सत्यंभिद+! इत्यादि श्रीकबीरनणीकी साखिहकों प्रमाण सत्य. सत्य समरथ घनीं सत्य करे परकाश सत्यछोक पहुँचावहू, छूटे भवकी आश ६३ ३) चर 6७ के हा सोचा सोदा कीजिये, अपने मनमें जानि ५७) ७... कप दा किस ही साँचे हीरा पाइये, झूठे सूरों हानि॥ ६४ आपने मनमें पारिखक लीजिये तब साँचा सोदा कीजिये कहे ऐसी खानि खदाइये जाते साँचे हीरा पाइये वहीं में कच्चे हारा निकसे हैं तिनको छाड़िदी- जिये ऐसे वेदपुराण खांनिहें तिनमें साहबकी मत निकासि लीजिये यह सॉंचो

बाप चर

सोदा कीमिये और मतनकी त्यागि दीजिये काहेते झूठे मत मैं छागे आपनो

स्वरूप जो हैं साहब को अन्त मूर ताकी हानि ह्वैनायहै अथोत्‌ भलिनायहै॥ ६४॥

(५५४ ) बीजक कबीरदास

सुक्ृत वचन माने नहीं,आपु करे विचार

कहें कवीर पुकारिके; सपन्यों गो संसार ! ६५

सुकृतसाहब अथवा सुकृतसन्त अथवा सुकृत बचन जो में कहौहों कि साह- बको भजनकरो सो नहीं माने हैं जो मनमें आवे है सो विचारकरे हैं सों कबीरजी पुकारके कहहें का उनको स्वप्न्यों में संसार गयो ! अर्थात्‌ स्पप्नेहमें संसार नहीं गयो यह काकुह्दे ६५॥

लागी आगे समुद्रमें,घुओं प्रकट नहिं होइ

को जान जो जरि मु॒वा; को ज्यहि लाई होइ ६६॥

समुद्रमें आगिबड़वाम लगी है वाको धुआओँ नहीं पकट होइहे सो वाकों सो जाने है जो वामें नरिन्ाय कि जाकी बह बड़वाप्नमि छाई कहे छगाई होय सो जानें अर्थाव्‌ संसारमें मायात्रह्म की अभि लगिरही है ताकी वही जाने जाकोज्ञान भयोहोय या समझैकि माया ब्ह्लकी अपभिमें हम जरेजाय हैं अथवा से जाने जाकी अभि बनाई हैं संसार रच्यो है॥ ६६

लाई लावनहारकी, जाकी लाई पर जरे॥

बलिहारी छावन हारकी, छप्पर वाचे घर जरे॥ ६७ यहआमे किसकी लगाई है ताकेछायेते सगुणनिर्मुण जेदोनों परहें ते जरै हैं घरजे हें पांचों शरीरते नरिजाते हैं तामें पमाण श्रीकबीरजीकी पद अबतो अनुभव अग्निहि छागी। घेरे पेरि तन जारन छागी यह अनुभव हम कासों कहिये बृझैँ कोड बैरागी ज्येठी छहुरी दोनों जरिया जरी कामकी बारी अगम अगोचर समृझि परे नहें भयो अचम्भी भारी सम्पति जरी सम्पदा डबरी ब्रह्म अगिनि पसारी कहे कबीर सुनो हो सन्‍्ते बड़ी सो कुशछ परी ६७ का कब जज कि ता बुन्द जो परा सझुद्रमें, सो जाने सव कोइ

समुद्र समाना बुन्दमे, बूझे बिरला लछोइ॥ ६८

साखी (५५५ )

यहब्ह्म ईश्वर माया आदिदेके नो संसारसागरहै तामें बुन्द जो जीवहे सो परे या सबै जानेहें कि जीव संसारी ह्ेगयो है वेदशासमें सर्वत्र लिखेंहे अरु यह सिगरों संसारसमुद बुन्द्रूप जीवमें समायजाय है अथौत्‌ ईश्वर मायात्रह्ममय जो संसार ताका जीवही अनुभव कार लियेंहै सो नबनीव याभांतिते अनुभवत्याग कि बिषय इंद्रीम इंद्रीमनमें मन चित्तमें चित्त प्राणमें प्राण जीवात्मामें छीनकैे देंद तब संसारसागर बुन्द्रूप जीवमें समायजायहै अर्थात्‌ संसार मिटिजायहै जीव साहबको जानि जाय है ६८

जहर जिमी दे रोपिया, अमि सींचे सो बार

२३

कविरा खलके ना तजे, जामें जोन विचार ६९ जिमीमें जहर को थलहादेंके जो बीज बौवे है सो वारमें जो सैकड़ों बार अमतो सींचे तो वहि बीजा में जहरका असर आयबोई करैगो तैसे यह खक कहे संसारमें मायाकी जिमी है विषय को थलहा है तांते केतिकी कोई उपदेश करे परन्तु मायाको असर कबिरा जे जीव हैं तिनके आयही जाय है नोई (१चारआव है सोई करे हैं सो संसार नहीं छोड़ें ६९५ दोकी दाही लाकरी, वाभी करे पुकार

अबजो जाउँ लोहार घर, दाह दूजी बार ७० दावानलकी दाही कहे जरी जो छकरी है सोई छाई भई वहे पुकारैके

[4]

कहे है कि अब नो लोहारके घरजाडं तो दूजी बार छोहार मोको दाँहै कहें

जारे सो दावागी जोहे ब्रह्माम्रि तैनिते जो सम्पूर्ण कर्म जरिहुगे ती कोयला रहिजायहे कहे वहें कैवल्य शरीर रहिजायेह सो कहे हैं कि, जो अब छोहार जे सतगुरु हैं तिनके इहां जाउं तो कैवल्यी शरीर छूटे मुक्त है जा अथीत जो साहब को जान्यो कमे सब जरिंगेये तो कैवल्य शरीर रहिगयो अथीव्‌ सब संसारहीमें आविहें नो केवल्य शरीर छूटे तो हंस शरीते मुक्त आर,

है जाय काहेते कमैनके जरे कैवल्यशरीर नहींछूरेहे ७० विरहाकि ओदी लाकरी; सपच गुंगुआय दुखते तवही बाचिहें, जब सगरों जरिजाय॥ ७१॥

2

2

(०५५९६ ) बीजक कबीरदास

रः

बिरहकी जरी छांकरी है अथीत्‌ याको साहब को विश्हभयों है सोवह बिर- हंते ओदी है याहीते सपचे है औगुंगुआयहै नानादु!खपापहै सो जब पांचौशरीर जारेजायहैं हंसशरीरपाय साहब के पासनायहै तब दुःखते बचेंहे। जो कही इहांतों सगरोशरीर को नरिनायबों कह्मयो हेस शरीरकी जरिबो काहे कच्ों तो हंसशर्ीर याकी होय वा साहबके दिये मिल हैं त्यहिते याहीके पांचो शरीर जबजेरेहैं तव सतई जगह भूमिकात नाषिकै आठई भामिकामें जायहे तब चितमात्र रहिनायहैं तब साहब हंसशरीर देइहें तामें टिकिके साहबके पासजा- यहैं सो पाछे छिखि आये हैं ७१

विरह बाण ज्यदहि छागिया, ओषध लगत ताहि सुसुकि सुसुक्कि मरि मारे जियें,उठे कराहिकराहि॥७२॥

साहबकों विरहरुपीबाण नाकेडग्यों अर्थीव जिनको यहनानिपरयों कि हमेतें

साहबते बिछोहुद्ढै गयोहै ते विरहवारनकों ज्ञान योगादिक औषध नहींछगे हे

बिरहबाणाप्रिते तप्त जरे है मरिमारे नियिहे यानो कह्यों सो बिरहाग्निते जरे

है स्थूठशरीरको नव अभिमान छूृत्यों तब सूक्ष्मशरीरमें जियो, नवसुक्ष्म

शरीर छृत्यो तब कारण शरीरमें मियो, जब कारणशरशीरछूस्यो तब महाकारण

शरीरमें जियो, जब महाकारण शरीर छूत्यो तब केवल्यशरीरमें जियो, यही ८, अऔ जे

मरिमरिनीबोहै तहों कराहि कराहि उठहै कहे एको शरीर नहीं आछे लगे हैं ७२

सांचा शब्द कवीरका, हृदया देखु बिचार चितदे समझे मोहिं नहिं,कहत भयल युगचार ७३ साहब कहे हैं के सॉचाशब्द नो कबीरका राम नाम ताको हृदयमें बिचा- रिंके देखु तो तें दित्तदेके नहीं समझे है मोको चारोंयुग बेद शाखमें कहत- भयो। जौ कबीरजे हैं तेऊ चारोंयरुगर्म कहलआपये हैं। सतयुगमें सत्यसुकृत नामेते जेतामें झुनीन्द्रनामते। दापर में करूणामथ ना-

साख (५.५७ 9

मंते कडियुगेमें कबीर नामते एक रामनामै को उपदेशकियों सो जो तें

वह रामनामको जानते तो तेरे समीप मोको आवननपरतो हंसशर्ररदे अपनेपास डेआवतों ७३

[॥ पलक... ्छ

जो तू साँचा वानियाँ, साँची हाट लगाड॥ अंदर झारहू देके, कूरा दूरि बहाउ ॥७४

हेजीव! जो तें अपने स्वरूपको चीन्हे तो तेंसॉचा बानियाँ है सो सॉँची हाट- लगाउ कहे साँचे जे साहब तिनकोजानु उनके नामरूप लीढाधाम सब सँचेंहें तिनकीहाट छगाउ कहे स्मरणकरू अन्दर्रमे झारूदेके विषय बास- ना नाना मत जे कूरा हैं तिनकों दूरि बहायदे तू साँचा है साहवको है असे|चिन मान लागु ७४ कोठी तो है काठकी, ढिंग ढिग दीन्ही आगि॥ पण्डित तो झोलाभये, साकठ उ्रे भागि॥ ७५ कोठीने हैं चारो शरीर ते तो काठकी हैं जरन वारी हैं ज्ञानाग्नि दिग ठिग उनके लगी है वेद्शाख पुराण साहबको बतावै हैं सो जे पण्डितरहे ते साराखसारकों विचारकर साहब जे सार तिनको जानन्‍यो ते उसअग्नि्में परिके झो- लट्ढेगये ये कहे उनके सबशरीरजरिगयें अथीव्‌ संसारते मक्तहैगये साकठ जे हैं शाक्तते भागिके उबरेंकहें जो वेदशाल्र साहबको ग्रतिपादनकरै है तांके डांड़े नहीं गये खण्डन करनलछगे उनसों भागिके संसास्में परे मायामें ढ॒पेटे हैं मायेकी स्मरण करनछंगे ७५

सावन केरा मेहरा, बुंद पश असमान ॥४

सब दुनियाँ वेष्णव मई, गुरू लाग्यो कान ७६

जैसे श्रावणके मेहकी असमान बुन्द परे है तेसे सब दुनिया वेष्णवहंत भई सब बीन मन्त्र छेत भये जैसे छोक में को गरु हजारनचेला एकैबार बेठा- यके मन्त्र गोहरायदेय हैं याही भाँति शवण केसोमेह सबको मन्त्रेदेइ हैं चेला- : मन्त्रलेइहें | याही रीति गुरुवाडोग उपदेश करतमये कोटिन बैष्णवहोत भरें

(५९५८ ) बीजक कबीरदास |

गरु कब कानछूग्यो! अथीव्‌ नहीं छग्पे। अरू गुरुतों वाकों कहे हैं जो अज्ञानकों नाशकरे सो जो चेढाको अज्ञान नाशभयों तो गुरुचेला दोऊ नरककों जायईहैं तामेंममाण “हरे शिष्य घन शोक हरहीं | ते गुरु घोर नरकमें पर- हों सो जो वो चेछाको अज्ञान दूरि कियो तो कौन गुरु है जोन गुरुते ज्ञानंडे अज्ञान नाशकियों तो वह कौन चेछा है अथीत्‌ वह गुरुनहीं है कायरकूर है और वह चेलानहीं है टूट मसखराहै और जो आज्ञानकी नाशै सोई गुरुहे तामेंप्रमाण॥ अज्ञानतिगिरान्वस्यज्ञानाअवशलाकया चक्लुरुन्मी- लितंयेन तस्मे श्रीगुरवे नमः" जो संसार दूरि नहीं करे है सो गुरुनहीं है तामेंप्रमाण '' गुरुनें सस्यात्‌ स्‍्वमननोन स्थात्‌ पिता नस स्थाज्जनती सा स्याद॥ देवन्न तत्स्यान्नृपतिथ्र॒ स्यान्न मोचये्स्समुपेतमत्युम !! श्रीकबीरनीकी गुरुपारख अंग की साखी॥ गुरू सीख देवे नहीं, चेछा गहै खूठ छोक वेद भावे नहीं, गुरु शिष्य कायर टूट! ॥७६॥

ढिग बूड़ा उसला नहीं, यहै जँदेशा मोहि सलिल मोहकी पघारमें, क्या निंद्‌ आई तोहि ७७॥ साहब कहे हैं कि है जीवों! तुम सब संसार सागर के तीरही में बड़िगये

एकहूबार उसछे,यहै मोको अदेशाहै या संसारसागरके मोहरूपी सलिछ धार- में क्या तोकों नींद आईं हैं भला एक बारतो मुड़निकासि उसलि मोको पुकार- तो तो में तोकीं पारही छगावतो सर्वत्र पूर्णमें बनोहों तें मेरे डिगही बड़ों

ज़ातेंहै अबहू जो जानतो में पारही छगाय देहुं ७७

साखी कह गहं नहीं, चाल चली नहिं जायें

सलिल मोह नदिया बहे, पाये नहीं ठहराय ॥७८॥

कबीरनी कहे हैं कि साखीतो कहे हैं जो में साखी कहो. है ताकों गहैं नहीं हैं वाको विचारे नहीं हैं जो मैं चाढलिख्यो है सोऊ नहीं चली- जाय संसाररूपी नदियामें मोहरूपी सलिलबहे है तामें पांवे नहीं यहराय जीव विचारा क्याकरे या साहब सों अनैके जीवको क्षमापन करावै है ७८

साखी। (५५५९ )

कहता तो बहुता मिला, गहता मिला कोइ

सो कहता वहि जानदें, जो नाहिं गहता होइ ७९ साहब कहे हैं याही भांति कहता तो बहुत मिल्यो गहता कोई नहीं मिलेहे

सो जो कोई गहता ने होय ताको तें बंहिनानदे तोको कहापरी है ७९

0 हूं कम 0 कु

एक एक निवारिया, जो निरवारी जाय॥

दुइ दुइ मुखको वोलना, चने ठमाचा खाय ८०

तामें पनि कबीरनी कहे हैं कि हेसाहब! याकों जीवकों दोष नहीं हे एक जो निरवारतों तो वेद शाख ते याकी निरवार ह्वेनातो अंथोंत्‌ नो एकमालिक आपही ठहराय ढेतों तो जीव गहिलेतों दुइदुइ मुखको बोलना वेद शाखकों अर्थाव्‌ कह! बह्मको, कहीं ईश्वरको, कहीं जीवको, कहीं काछको, कहीं कमेको मालिक बतायो सो या दुइमुख के बोलेते जीवूषने तमाचा खायहै तुम को नहीं जांनिसके ८०

जिद्वाको दे बंधने, बहु बोलना निवारि॥

सो परखी सों संग करु, गुरु मुख शब्द विचारि॥८१॥

सोकबीरनी कहे हैं कि हेनीव! में साहबसों बिनती करिलियो है सो तुम यहिराह चढछो तुम्हारों उबार साहब करिलेइगो आपनी निहाबधनकरों अस्त्‌ वाक्य बोलनेपावे एकरामनामहीं कहो औनाना मत जोकहों हो सो कहिबों निवारि देड। जोन सबमतनते पारिखकरिंके साहबकों ठहरायों होय ऐसे पारखीकों संगकरू ओगुरुमुख जोशब्दहे ताकों तू बिचारकरु काहेते साहब या क्यो है “अबहू छेडँ छुड़ाय कालसें जो घट सुराते समारे ? सो तें सुरातिसभारे साहबमें लगायदे अनत जानदे साहब तोको संसांरं सागरते

5

डबारिही लेईंगे ८९

जाको जिह्ा बंद नहिं, हद॒या नाहीं सांच॥ ताके संग लागिये, घाले बंटिया कांच ८२॥

(५६० ) बीजक कबीरदास जाकी निद्ठा बंद नहीं है जोनि मतकी चाहै तौनेन मतको प्रतिपादन करे हे औजिनके हृदयमें साहबके नामरूपादिक नहीं हैं तिनके संग कबहूं लागिये वें कच्चे हैं उनके संग छागेते संसारमें परोंगे ८२ का 65. कर (9... और किक विद पानी तो जिह्ने ढिगे; क्षण क्षण बोल छुबोल॥ रा * कर दम टींड मन घाल सरमत फफर: काल ढ्त्‌ हाड्डाल ८३॥ कप को का का 8 के आस हा कह यो पानीरूुप जो बानी है सो याके जीभके ठिगे है छिन छिनमें कुबोलई बोलबोले हैं असतंबाणी बोलि बानीरूप पानीमें भड़िगयों अथवा बह्ममायाकी आगी बुझावनवारों पानी याक्रे जीभहीके टिगहे सो नहीं कहे है छिन छिन कबोलेही ७. बे से ना ला का + चर कप है कुबोलही बोले हैं सो मनके घालेकहे फेरि संसारमें भरमत फिरि है काछ जो है सो याकों हिंडो रुप शरीर दियाहै स्रों झूछत फिरे है कबहूं मानुष होय है कबहूं पद्म पक्षी इत्यादिक शरीर धारण करे है ८३ का ऊर ५५ * (” कि हिलगें भाल शरीरमें, तीर रही टूटि चु का का किक «बी कप | आआ म्बक विन निकसे नहीं, कोटि पहन गये फूटि ॥८४॥ जिन मतनमें श्रीरघुनाथनी नहीं मिले हैं तेई मतनके बाण याके छगे हूँ नाना कुमतिरूपी गाँसी याके अठकी हैं सो रामनाम चुम्बक बिना वे नहीं निकसे हैं ८७४

आगे सीढ़ी साँकरी, पाछे चकना चूर परदा तरकी सुन्दरी, रही धका दे दूर ८५

साहबके यहाँ की गैल बहुँत सॉकरी है कोई कोई पावि है पाछे संख- रमें गिरे तो चकनाचूर हैनाय परदातरकी सुन्द्री नो माया सो जो को साहबसों लगनलगावन छाँगेहे ताकी पक्का देईहे जो कोई साहबके सम्मुख« भयो वही राह चढ़यो तेहिते दूरिरहे है धूंनि या है। कि, जो वार्के जायगी तो गैलसॉकरी है दूसेर की समाई नहीं है पीसिनायगी यहदेरेहै ८५ संप्तारी समय विचारिया, क्या गिरही क्या योग

अवसर मारो जात है, चेतु बिराने लोग ८६

साखी। (५६१ )

क्या गिरही कहे गृहस्थ क्या योगवारे कहे योगी ज्ञानी ते श्रीरामचन्द्र को छोड़े छोड़ि और औरसाहब बिचारे हैं ते सब संसारीसमय बिचारते हैं परमा- रथ कोई नहीं बिचरे हैं अंथीत संसारदीमेंरहे हैं भथीव्‌ आपने इष्ठ देवतन के छोकगये अथवा बह्म में लीन भये ज्योतिर्में लीनभये पुनि संसार में आयगये सो हे जीव! तें बिरानाहै साहबकोी है और काहको नहीं है और मतनमें छागे तैं छृटेगो जीनजाकों होयहै तोन ताहीके छुड़ाये छूटे हैं सोया मानुष शरीर पायके अवसर मारो जायहै चेतुतौ तें परमपुरुषश्री रामचन्द्रको है तिनहींकेछुड़ाये संघारत छूटेगो संसारी देंवतनकों कहा परी है जो आपनेते छुड़ायकै संसारते छुड़वैंगे वे तो ओर संसारदी में ढारेंगे ८६ संशय सब जग खंधिया, संशय खँघे कोय . संशय खंघे सो जना, जो शब्द विविकी होय <७ संशय जो है मनको सड्डत्य ब्रिकरप सो सब जगकों सँघाइ छियेंहै कहे फैदाय लियो है संशय जो है मनको सड़त्प विकल्प ताको कोई नहीं! खंधिं सकेहे अर्थात्‌ मतको सड्डल्पविकत्प काहूको नहीं छूटे है जो साहबके शब्द रामनामको भर्थ बिचारत रहे हैं सोई संशयको सँपिसके है अर्थीव ताहीके मनको सड़ल्पविकत्प छटे है, संशय छूटिबे को उपाय याहोमें है ८७ कुछ, + बोलनाई वहु भाँतिके, नयन कछू नहिं झुझ॥ कहे कबीर विचारिके, घट वाणी बूझ ८८॥ सो बोहना तो बहुत प्रकारके हैं कहे बहुत प्रकारके शब्दहैं बहुत प्रका- रके मतहेँ तिन मतनमें ज्ञान नयनते सार पदार्थ नों मनन मरण छुड़ांवे सो कछू सुझतभयों सो श्रीकवीरजी कहै हैं कि तें बिचारिके तो देखु येजे बाणी ते नानामत घटवटते निकस्े हैं ते मनेके सड्ुल्प विकसपते हैं, सो तेनिते संकरप विकल्प मनको कैसे छूटेगो येतो मनबचनमें है वह घटघटकी बाणी तो झूठकी कहांते निकर्सीहि वह बाणीको मूठ मनब्रचनके परे ऐसो जो रामनाम ताको बिचारकारे नानैगो तबहीं छेटेगों। यह सब बाणीकों मूछ रेफ है सो नाभि स्थानमें है तहाते बाणी डंडे है सो जो मूठ है सो तो साहब ३६

(५९६२ ) बीजक कबीरदास

बतावै है रामनामही प्रथम प्रकटकरे है। ओमूछाथार चक्रमें मूलजों रामनाम है मनवचनकेपरे त्यहिति नो अनुसार भयो बाणीको ताहीकी आभास परा बाणी प्रकट भई रेफ, ताहीते अकार नब नारथे तब रकार रूप हृदयमें पहयन्ती प्रकट होइ है।औ फेरि जब एक अकार और आयो तब कण्ठ में मध्यमा प्रकट होइहै।औ पुनि लब बैसरीमें एक अकार और प्रकटमयो जब ओठटढग्यों तब ब्यंगन मकार भई तब वहें मत बचन के परे राम नाम सो आपने रूप को आभास बैखरी में म्कटकरे है सोई प्रथमभी कबीरभी लिख्यो कि रामनाम है उचरीबाणी ”” सो प्रथम याको प्रतिछोम क्रमते जप करत चारेड बाणी को स्वरूप जाने फेरि अनुलोम क्रमते राममाम को उच्चारकरे घण्टा नाद बव या भांतित नो जपकरे तो जाने कि,मन बचनके परे जो रामनाम ताकी आभास . जो रामनाम है सो प्रथम याहीकी है कै बाणी उचरी है। फेरि प्रणवादिक

मन्त्र भये हैं यही घथ्घय बाणी को मूछ तें बूझ मन बचनते परे ने साहब हैं तितको पायनाय सो या भांतिते बाणीकी मूछ नो तें घटघटर्भे बिचारै तो ये सब बाणी ऊपरते नानामत नाना सिद्धांत कहै हैं याको मूल सिद्धांत तो साहिब को बतावे है त्यहिते चारोवेद छःशाख तातय्य करेंके श्रीरामचन्द्रही को बतावै हैं सो मेरे सब्बे सिद्धांत गन्थमें मसिद्ध है ८८

मूल गहेते काम है, तू मति भमे भुलाय॥

मनसा पर मन लहर है, वहि कतहूं माते जाय॥८९॥

मन नो है सोई समुद्रहै मनसा कहें मनोरथ ताकी लहरि में बहिकै तें मतिना अथीत मनको संकल्प विकल्प छोड़ि दे नाना बाणी नानामत में तें भूलिनाय, मूछ नो रामनाम ताही को ग्रहणकरु, याही के गहेते तेरों

उबार होइगो संसार क्टैगो <% भँवर बिलम्बे वागमें, बहु फुझवनकी आश॥ जीव बिलम्बे विषयमें, अन्तहु चछे निराश॥ ९०॥ जैसे मेंबर बागमें बहुत फूलनकी आश कारक बिलेबे है तेसे जीव संसारमें

कि#

बहुत विषयकी आशके परयो सो ऐसो फूछ श्रमर पायो कि एकैफूल

साखी | (*६३ )

सूंघते संतोषद्वैनाय ऐसे विषय जीवही पायो कि जामें संतुष्ट द्ेनाय

शट #.. किये में जप हो हू है अथीव विषयसुख जीव कियो परन्तु अन्तमें निराशही हैनाय है से प्रकयही है वह सुख नहीं रहेजायंहै परन्तु मढ़नीव नहीं छोड़े है ९०

भंवर जाल बग॒ जाल हे, बूड़े जीव अनेक

कह कवीर ते बाचिहें, जिनके हृदय बिवेक ९१॥ श्रमर जार जो हैं संसारसागरके विषयकों अनेक फेरों सो कैसे हैं कि बकुलाजे जीव हैं तिनके बोरिबिकों जालहैं, तामें बहुतनीव बड़िगये सो कबी- रनी कहे हैं कि, जिनके हृदयमें विवेकहे असार बाणीको छोड़िके सारजो रामनामरूपी जहान ताकी विवेक कारे गहि छियो है तेई संसारसागर के पारणाइहँ ९१

तीनि लोक टीडी भई, उड़िया मनके साथ॥ हारे जन हरि जाने बिना, परे कालके हाथ ९२॥

टींडीके जब पखना जामा तब जहें जाइहै तहें मरिही जायहै सो तीनिलोकके जीवनके मनरूपी पखनाजामे सो जहां जाय हैं तहां मरिही जायहैं सो हैं तो ये हरिकेनन हरिके अंश पे अपनो स्वामी औरक्षक हरिनि हैं परमपुरुष आरामचन्द सबके केश हरनेवाले तिनके बिना जाने कालकें हाथमें परे मनके साथ डड़ेहें सो मरतमें जहैं मननायहै तौनिरुप द्वैलायहै तामेंप्रमाण “अंते या मातिः सा गतिः”॥ कबीरजी हको प्रमाण॥ “जाकी स॒राति छागिंहे जहँवां। कहैकबीर सो पहुँचे तहँवां” ९२

नाना रंग तरंग हैं, मन मकरन्द असूझ

कहे कबीर पुकारिके अकिल कला ले बूझ ९३॥ सड्डल्प विकल्परूप नानारबड्गकी हैं तरंगे जामें ऐसो नो मन तामें काहेते तरंग उठे है कि, मकरन्द जो विषयरस ताको पान करिकैे मतवालो है गयो है सो जो मतवालो होय है सो औरको और करै चाहे श्रीकबीरजी पुकारेकै कहे हैं कि, अकिल जो बुद्धि तामें निश्चय करिके कछा जो है रेफ अर्थ- मात्रा ताको लेके बूझ अर्थाव वही अर्थ मात्रामें स्थितिकी विधि पाछे छिखि

«६४ ) बीज कबीरदास।

आये हैं अथवा नानारंगकी जामें तरक्ष उठतीं हैं ऐसा जो मकरन्द पुष्प्रस कहावै है सो मह॒वाके फूडका रस मदिए समुद्र मससो असूझकहें अपारहे वारपार नहीं सूझिपरे है सो कहा ते मनरूपी मद भरयो है सो आपनी अकिलते कहे बद्धित बह कछाढछू कहें कछार को तो वूझ ९३

बाजीगरका बंद्रा, ऐसा जिड मन साथ नाना नाच नचायके, राखे अपने हाथ ९४ ये मन चंचल चोर ई, मन शुद्ध ठहार

मनकारे सुर घुनि जहाड़िया, मनके लक्ष दुवार॥ ९५ ये दूनों साखिनको अर्थ स्पष्ट है ९४ ९५

विरह भुवंगम तन डसा, मन्त्र माने कोइ

राम वियोगी ना जिये जिये सो बाउर होइ॥ ९६॥ विरह भुवड़म कहे जिनकी साहबकी अपाप्तिहै तिन जीवनको अज्ञान भुव- ड्रग डस्यों हैं ताते ज्ञान भक्ति बैराग्य योग ये मंत्र नहीं माने हैं काहेते कि जिनमें साहबको ज्ञान नहीं है तें भाक्ते वेराग्य ते विमुखहै | सो कबीरणी है हैं कि रामके वियोगी जे जीवहें ते लिये नहीं हैं बिषयमें लागेहैं काल नको खायलेइहे जे योग करिके बेराग्य करिंके भक्तिकरिके जियेहेँ (वेषय छाड़िकै संसारको छोड़े हैं ते बाउर ह्वैनायहैं कहे बहुत दिन जीबों- फैये बह्महमें लीन भये तो पुनि संसारमें तो आवही करेंगे। काहेते कि, अपने स्वामीकी तो चीन्हबही किये अथीतव बेकल हगये हैं जो बेकलाय है सो

औरको और करेहे यथार्थ बात नहीं करे है ९६

वियो [कप | 8 आकर राम वियोगी बिकल तन, जाने दुखबो इन कोइ

छूवतही मारे जायेंगे, ताला बेली होइ ९७॥ श्रीकबीरणी गुरुवालोगनते कहे हैं ने साहबके बियोगीजीव हैरहेहें तिनको तम काहे दुखावतेहों अथीव्‌ नाना मतनमें नाना उपासनामें काहे भटकावतेहों ज्रैंमें छोन मींनतेहीं इनके भीतर आपहीत ताछाबेढी परिरही है नाना मत

०0१ ५» ००

साखी (५९६५ )

खेजिहें ये छुवतही मारे जायेंगे। अथीत्‌ धोखा बह्म उपदेशदेते में गहि लेईंगे सो अबे तो भला बंद्धे भरिहें नित्यबद्ध नहीं हैं जो कहूं साधुते भेंट ह्वेलाय तो उबारह ह्वेनाय जब धोखा ब्रह्म में छमगगो तब वाकी छड़ैगो साहब को मत खण्डन करेगो से तुम ऐसे मेरेनकों काहे मारौही ९७

बिरह अआुवंगम पेठिके, कीन करेजे घाव साधन अंग मोरिहे, जब भावे तब खाव॥ ९८

बिरहरूपी भुवद्गम कहे साहबकों अमाप्तरुपी जो भुवद़्म है सों पेठिके रेजेमें घाव करतभयो अथॉोत्‌ उत्पत्ति प्रकरणमें साहबकी अप्राप्ति जीवनकों होत हिते साहबते विमुख संसारी है गये अथवा गुरुवाछोग कानमें छागिके

नाना मत नाना उपासना बताय करेजेमें घाव करिदियेहैं अर्थात्‌ औरेईमें लगाइके साहबके मिलबके द्वारकी निरोध कारेके साहबकी अप्राप्तिको डफय अच्छी प्रकार करते भये अथोत्‌ साहब ते बिमुख करिंदिय सो जेते असा- धुरहे साहबकी भक्तिकों कीने जन्मको संस्कार उनको रहये तेतो मारिपरे ने कौनेहू नन्‍्ममें साहबकों पुकारयोहै उपासना कियो है धोखेहु कबइ एकबार सत्यप्रेम के साथ साहब को स्मरण कियेहै सो वाकी वासना बटत बढ़त बट जायमी आखिर साहबको जानिके साहबको प्राप्त होय जायेंगे | गुरुवा छोग जब चाहें तब उनको खातरहें, धोखामें लगावतरहें धोखामें कबहूं लगेंगे ऐसो जो साथु सो साधु कबहू अदज्जमोरैगो काछ उनका जब चाहै तब खायः वे जब जन्‍्मधरेंगे तब साहिबे की उपासनों करेंगे उपासना भये सिद्ध करि साहबके पास पहुंचेंगे तामें प्रमाण “अनेक जन्म संसिद्धिस्ततो याति परां गतिम!” जे धोखेह साहबको जान्ये है ते शरीर धारन कारेके चौरासीमें नहीं नाइ हैं और नो साहबको नहीं जाने हैं साहब को स्मरण नहीं कियोंहै ने संसार मेंही लंगेरहे हैं ते चौरासीमें बारम्बार पंडेंगे। साहबकी भजद करनवारों चोरासी नहीं जाइहे तामें ममाण चौरासी अंगकी साखीको भक्त बीज पलटे नहीं, जो युग जाहिं अनंत नीच ऊंच घर अवतरे, होय संतको संत '” | अथवा हबकी अप्राप्तिते जीव सब संसारी भये ते जीवनमें में साधु भये साहब

(५९६६ ) बीजक कबीरदास

को जान्यो उनके शरीरकों जब चाहे तब कार खाये उनको पीड़ा नहीं होय के जे अर, देखि के के के है उनको साहेंबे सर्वत्र देखि परे है साहबकी प्राप्तिही बनी रहे है ॥९८॥

क्रक करेजे गड़ि रही, वचन वृक्षकों फाँस निकसाये निकसे नहीं, रही सो काहू गाँस ९९

विरह रूप कहे, सब जीवको साहब की अप्राप्ति रूप जो भुवंगम है करककरहें पीड़ा गड़िरही हैं कहे गुरुवनके बैन बृक्षकी फांसको छगोद्‌ छोलिकै काठ के बाण बनाये है ताकी फॉस अथवा बृक्षते शरइव आयगई ताकी फॉस करेने में गड़िरही है सो निकासते नहीं निकसे है अथीत्‌ जिनकों गुरुवाछोग धोखाब्नह्ममें छगायदिये हैं ते पछटाये नहीं पछटे हैं वाहीकों गहै हैं। काहके तो बाण साहित गाँसी के अगकिरहै हैं ते वहीं ब्रह्मकी मतिपादन करे हैं सत्‌ मतको खंडन करे हैं वे ने ऊपरते बेष बनाये हैं भीतर धोखाब्रह्मही घ॒सों है तिनके भीतर करेने में गाँसिही भर अटकी है तामें प्रमाण अन्तश्शाक्ता ब- हिर्तेवा३ सभामध्ये वैष्णवा; नानारूपधराः कौला विचरंति महीतले''। अथवा गुरुवालोग जो और और देवतन को मत सुनायों है सोई उनके अंतःकरणमें जाइके अज्ञानरुपी वृक्ष जाम्यों है तौनेकी कुमतिरूपी फॉस याके करेजे में गड़िरही है सो वह करक कहे जनन मरणरोग नहीं जायहै अर्थीव्‌ वा फाँस काहकी निकासी नहीं निकसे केतों उपदेश कोई करे सो कवीरजी कहे हैं कि काहू गुरुवनकी यहजीव के कहा गाँस कहे बैररहो है नो ऐसी फॉँस मारथों जो अबलों निकासी नहीं निकसे ९९

काला सप्प शरीरमें, सव जग खाइसि झारि

बिरले जन बचिहें जोई, रामहिं भर्जे विचारि १००

कालरूप जो सर्प्प सो सबजीवन के शरीरमें बसे है शरीरके साॉथ उत्पन्न भयो हैं जेती अवस्थाजायहै तेतीकाल खातोनाय है जब आयुर्दीय पूरिगई तब सबकार खायलियो याहीभाति बस जगतको काल्झारांदै खाये लेईहे जे सबमतकों छोड़े परम पुरुष श्रीरामचन्द्रकों बिचारिके भने हैं तेई बिग्लैब्नांचे हैं तामें प्रमाण

साखी ( ५९६७)

कबीर जीकोी पद

सन्‍्ती रामनाम जो पावें। तो वो बहुरि भवजल आवें जंगमतो सिद्धिहिको थावें। निशिबासर शिव ध्यानछगावें शिवशिवकरतगयेशिवद्धारा रामरहेउडनहतेन्यारा पृण्डित चारिड वेदबखानें पढ़ें गुनें कछु भेद्नआनें संच्या तपण नेम अचारा रामरहे उनहूंते न्‍्यारा सिद्धरकजों दूधअधारा कामकोधनहिंतजें बिकारा खोजतर्फ्रिंराजकों द्वारा रामरहे उनहूंते न्‍यारा बैरागी बहुवेष बनाबें ।करमधरमकी युगुतिलगावें धण्टबजाय करें झनकारा रामरहे उनहूते न्‍्यारा जंगमजीवकबोंनहिंमारें पढ़ेंगुनें नहिं नामउचारें कायहिकों थाप करतारा रामरहे उनहूंते न्‍न्यारा योगी एकयोग चितधरहीं उलूटे पवन साधना करहीं योगयुगुतिले मनमें धारा रामरहे उनहंते न्‍्यारा 'तपसी एकजों तनकोदहई बस्तीत्यागिजँगलमें रहई कन्द्मूलफलकरभआाहारा रामरहे उनहूंतें न्‍्यारा मौनी एकजों मौनरहावें और गार्उमें घुनीलगावें दूध पूत देचछे लवारा रामरहे उनहूंतें न्‍्यारा यती एक बहुयुगुतिबनावें पेटकारणे जठाबढ़ाैं निशिबासर जो करहड्डगरा। रामरहे उनहूंते न्यारा फुकरा डैजिय जबे कराहों मुखते सबतर खुदाकहांहीं॥ हैकुतकाकहैं द्रम्ममदारा रामरहेँ उनहूंते न्‍्यारा कहैकबीरसुनोटकसारा सारशब्द हम प्रकयपुकारा जोनहिं मानहिं कहाहभारा। रामरहे उनहूंते न्‍्यारा १००

काल खड़ा शिर ऊपरे, जाग वबिराने मीत विद २३ अर बिक] ता वे कर ५. जाको घर हे गेलमें, क्या सोवे निइचीत ॥१०१

(५७० ) बीजक कबीरदास

माजुष हेके ना स॒वा, सवा सो डौगर ढोर

एका जीव ठोर नहिं लाग्यो, भया सो हाथी घोर १०८॥

जो कोई साहबके पास पहुँचे सोई मानुषहे अथीव्‌ साहब दिभुजहें यही दिभुन हैके साहबकें पास जाइहे कबहूँ मरे नहीं है सो साहबके जाननवारें नहीं मरें या पीछे लिखि आये हैं जे साहबको नहीं नाने हैं तेई मरे हैं ते वे डॉगरवटोरहैं ते मानुष नहीं हैं अथीव पशुहें एकी ठोर में नहीं छांगेहैं कहे साह- बके पास नहीं पहुँचे हैं हाथी घोर इत्यादिक नाना योनिमें मण्कै हैं॥१०८॥

मानुष ते बड़ पापिया, अक्षर गुरुहि मानि बार बार वन कूकुही, गभे घेरे चोखानि १०९

हेमानुष ! तेंतो श्रीरामचन्द्रकों अंशहे तेरों स्वरूप मानुष को है सो तें बड़ी पापी द्वैगयों काहे ते कि साहब तोको बारबार गोहरायोःकि तें मेरों है मेरे पास आउ सो उनके कहे अक्षर मान्यों आज्ञा भगकियों तौनें पापते बारबार जो बनकी कुकुही कहे मुर्गी तिनके कैसोग्म चारिड खानिके जीवनमें परिवारके पाल - पोषणमें छागिके पुनि पुनि जन्मघरत भयो नानादुःख सहत भयो इहँ

मुर्गी याते कह्योहे कि बच्चा बहुतहोयहैं १०९

मनुष बिचारा क्या करे, कहे खुले कपाट

झवान चोक बेठायके, पुनि पुनि ऐपन चाट ॥११०॥

बेद शास्त्र पुराण इनके कहे जो कपाटनहीं खुले हैं अथीव्‌ ज्ञाननहीं होयहै तो

मानुष बिचारा क्याकरे प्रथम साहबको कह्मो नहीं मान्यो यांते मानुष पशुवत्‌ हैगयो अज्ञान घेरे है सो जो कूकुर कुकुरिया को बिवाहकरे चोकमें बेठाइये तो - वे पुनि पुनि ऐपने चाटे हैं तेसे जीवनकों पशुवत्‌ ज्ञान हैगयों है फेरि फेरि वही बिपयमें छांगे हैं साहबकी ओर नहीं लागे हैं ११०

मनुष बिचारा क्याकरे, जाके शून्य शरीर

जो जिउ झाँकि ऊपजे, काहि पुकार कबीर॥ ११॥

साखी। ( ५७१ )

या मानुष बिचारा क्याकरे जाके शरीरमें शून्य जो धोखाबह्म सो समाय रहे है सो धोखाबलह्मयकी झोंकिउ कहे देखिउ चुक्यों कि इहां कुछ बस्तुनहीं है प्र रे ग्जी * २५३ ०. ३७ रे ४७ बडो साहबको ज्ञान उपज्यो तो कबीरंजी कहे हैं कि मैं काको पुकारों वहतो बड़ अज्ञानी है बूड़िगयो जो प्रत्यक्ष देखो नहीं मानेंहे कि यह शून्यही है यामें कछ छा मेरो कैसे मिलेगो तो मेरो कह्मौ कैसे सुनंगो १११

मालुष जन्महिं पायके! चइके अबकी घात जायपरे भवचक्रमें, सहे घनेरी लात ११२

चौरासीछाख योनिनमें मटकत भटकत ऐसो मानुष शरीरपायके अबकी जो धातचूक्यों साहबकों जान्यो तो संसारचक्र में परैगो और यमंकी पनेरी . ढांतें सहैगो ११२

ज्ञान रतनकी यतन करू, माटी का शंगार आया कविरा फिरिंगया, झूठा है हेकार ११३

साहबके ज्ञानरतनकों यतनकरु जाते साहब को ज्ञानहोंय यहजों माटटीकहें शरीरको श्रज्ञार करे है सो अनित्यहै कबिरांकहे कायाको बार जीव यह संसा- रमें आया और फिरिगया तबशरीर पराय जाताहै यह जो अहंकार करतांहै कि हम शरीरहैं हमब्राह्मण्हें क्षत्रियहैं वैदयहैं शूदहैं सोसब झूठे हैं नो फीका हे के 8. रब बे है संसार यह जो पाठहोय तो यह अर्थ है कि साहब के ज्ञानरतनकों जों यतन करे है ताक या संसार फीके लगे है जो कोई दाखको खानवारो है ताको महुवा फीके छगे है ११३

ब+ (५ कि ठूः 4 मनुष जन्म दुलेभ अहे, होय जीवार #५, पक्का फल जो गिरिपरा, बहुरि लागेडार ११४ यह मानुष जन्म तिहारों बड़ो दुलेभहे नोन अबैहो तौन फिरि होउगे

हा का जे आर

पकाफल गिरिपरे है तो पुनि वह डारमें नहींढगे है अबै साहबके जानिबेकों समयहै रो साहबकी जानिढेड ११४

(५७२) बीजक कबीरदास

बांह मरोरे जातहों; मोहि सोवत लियो जगाय

कहे कबीर पुकारिके; यहि पेंडे हेके जाय॥ ११५॥

किक.

मुसलमाननमें जें साहबके भक्त होयहैं तें नब मजन करे हैं तब उनकों पीर दस्तते दस्त |मिछावे है सो दस्तमिलायके साहब को बताई देदहें पास पहुँचाय देयं तिनसों नीव कहे हैं के हमारी बांहमरोरे चले जाडही हम संसारमें सोंव तरहे सो जगाय लियो तब उनके पीर ने हैं कबीर ते कहे हैं कि यहि पेंड़े हैंके- जाड या कहिके साहबके जायबेको राहवताय देहहैं तब उनके परमगुरु जे हैं महम्मद आदिदेकै पैगम्बर तिनके इहां पहुँचाय देय हैं तब उनके चेला वह राहचलि महम्मद के पास पहुँचे हैं तब महम्मद साहबके पास पहुँचाने हैं हिंदुनमें जे श्रीरघुनाथनी को स्मरणकरे हैं ते गुरुद्वारा हैकै सुमिरनकरे हैं ते गुरु परमगुरुको मिलावे हैं परमगुरु आचार्यकों मिलवे हैं ते साहब को मिलाय देंइहें जैसे रामानुन मतवारे आपने गुरुकों प्राप्मये गुरु शठकोपाचार्यकों प्राप्तमये वे विष्वक्सेनकी भाप्तकियो जीवकी ओो वे संकपणको प्राप्कियो वे जानकीजी को प्राप्त कियो जानकीजी श्री रामचन्द्रकों श्राप्त कियो कबीरनी रामानन्दके सम्पदायकें हैं तेहिते यह सम्पदाय संक्षेपत्ते लिखि दियो है ऐसे सब आचाये छोग आपने आपने चेछनको साहबमें छगाय देइ्हैं १९५

औरे औरे पतिमें इसके पश्चाव एक और साखी है पर इसमें नहीं दिया

या क॑ हे रु और कर | 4

बरा बॉाधिन सपका, भंवसागरक माह

छोड़े तो बूड़त अहे, गहे तो डसिहैवाहि ३१६॥

पंचमुखी सपे अहंकार ताके पांचमुखन में पांचभकारकी बाणी निकरी है अथममुख विश्वहैं ताते कर्मकांड निकरा दूसरामुख तनस तातें योंगकांड़ निकरा तीसरामुख प्राज्ञ ताते उपासनाकांड निकरा चोथामुख प्रत्यगात्मा

नौ... दूसरी प्रतियोमें यहाँ पर यह साखी है पूरन साहबकी टोकाकी ११० वीं

जल

“साख़ि पुलंदर ढहि परे, बिवि अक्षर युगचार | रसना रम्भन होत है, के सके निरुआर”?

साखी।! ( ५७३ )

तातें ज्ञानकांड निकरा पाचामुख निरंजन ताते अंद्वेतबिज्ञान निकरा सो ऐसे पेचमुखी सर्पमें बेराकों बांध्यो आपने मनसे कल्पिके भवसागर अनुमानाकैयों ताको मान्यो तब ये नरदेहमें पंचमुखी सर्प अहंकार उठा तौने अहंकारकों पहिरिके वामें सब नीवचढ़े भवसागरपार होनके वास्ते सो अब जो बिचार कार्रिके छोड़ाचाहै ता भवसागरकी भय छागे है ॥कि बूड़े जायेंगे घेरे रहे हैं तो सपडसे हैं सो पंचशर्रराहंकार सर्पकी बेराबने पर सब वाहीमे आरूढ़ हुये बेरा समुद्रकै पार नहीं जायसकै हैं तीरहीमें रहिगये सो नबेराकों गाहिसके बेराकों छोड़िसके संसारसागरमें बूड़ते उतराते हैं ११६

कर खोरा खोवा भरा; मंग जोहत दिन जाय

कविरा उतरा चित्तसों, छाँछ दियो नाहिं जाय ११७

गुरूसुख-जे साहबरके जनहैं ते कौनी भांतिते जाने जायें कि पूरहैं सर्वत्र साहन्न को देखे हैं हाथमें खोचा भरा कयेरा दीन्हे राह जेंहै हैं कि कोई आवै खाय सो सत्र तो साहिबैकों देंसे हैं ताते नोई आयके खायहे ताको साहबे जाने है साहिब मानिके आदरकरे हैं खोवा खबवब हैं कबहूं पुरुषबचन नहीं बोलैंदें ते जीव साहबके प्यारे हैं जिनसे मारे दौरे हें ते कबीर कायाके बीर जीव साहबके चित्तते उतारे जाय हैं अर्थीत्‌ वे मुक्ति कबहूं नहीं पावै हैं संसार हीमें परे हैं। अथवा यह साखी गुरुमुख है ताते यह आर्थ है साहबकहै हैं कि खोया भरा कयेरा हाथमें लियेहों रामनाम उपदेश करोहों यह कैसो है कि कहतमें सरछ है फिरे कायाको कलेश कौनी करनपरे सबको अधिकार है जैसे खोवा खातमेँ ने कौनो अरसाहै कौनों श्रमह ऐसे रामनाम रूपी खोवा उपदेशरूप लियेहों जो कोई याकों खाय अर्थात्‌ स्मरणकरे तो में वाको संसारतें छोड़ायदेज नो मेरे पास आंबै तौनेकों सोहे कायाके बीर कंबीरजीव ! जे नहीं ग्रहणकर हैं तेमेरे चित्तमें उतारे जायहैं उनकी छॉछऊ मोसों दियों नहीं जाय अरू ज्ञानादिक कर्मांदिक के फलती में देउहों सो उनके उत्तम कर्महके फलमोंसो नहीं दिये दे जायें अथीद मेरो चित्तनहीं चाहै है कि छाछ जे हैं ज्ञानादिक ते उनके उत्तम कर्मादिकके फलदेडँ सो श्रीकबीरणी कहे हैं कि अबै साहब समुझाँवे

(५७४ ) वबीजक कबीरदस।॥

हैं सो मानिके रामनाम कहिंके संसार छोड़िदें फेरे जब यमके सोंग ढगेंगे तब कहो कहि जायगो तामें प्रमाण॥“बहुरे बनि है कहत कछ जब शिरडंगिहै चोट अबहीं सब यकठरह दूषकयेरायेट' ? ११७ ०५ क्हों एक कहढं तो है नहीं, दोय कहों तो गारि

है जेसा तेसा रहे, कहे कबीर विचारि ११८ साहब कहे हैं कि हेनीव! जोमैं तोकों एककहों कि ब्रह्मई है सब तैंहों है तो वेदमें लिखे है कि॥ सत्य ज्ञानमनंतं ब्रह्म इति श्रतिः?॥ ब्रह्म तो ज्ञानमयहै सो नो ब्रह्म हो ती तो मायामें बद्ध हैके केसे संसारी होतो जो दोय कहाँ कि तें काहू ईश्वरकोदास है तौ गारी तोको परेंहै काहेते कि तें तो मेरो अंशहै सो हेकबीर कायाके बीर नीव बिचारेके देखु तो तें सनातनकों मेरों अंश है दासहे औरको नहीं है तामें म्रमाण “ममैवांशों जीवछोके जीवभूतः सनातनः”” में मालिक एकरहों दूनों नहीं है तामें प्रमाणचौरासीअंगकीसासी “साई मेस एक तू और दूजा कोई जो साहब दूना कहे, सो दुजा कुलकी होइ ११८

अमृत केरी पूरिया, बहु विधि लीन्हे छोरि

आप सरीखा जो मिले,ताहिं पिआऊं घोरि ॥११९॥

साहब कहे हैं कि अमृतपुरिया नो या रामनाम सो में बहुत भाँतिते छोरे ढीन्हेहों और जो दीन्ही पाठहोय तो यह रामनामकी पुरैया छोरे दीन है कहे बहुर्तविधिते प्रकट करिदीन्हों है कि यही संसोरते छोड़ावनवारों है दूसरो नहीं है सो आपसरीखा जो मोको मिंढे ऐसी भावना करतहोय कि में साहब को अराहों दापहों सखाहों दूसरेको नहींहों ताकी में रामनामकी पुरिया घोरिकै पिआइदेड कहे अथे समेत बताय दें पुरिया रामनामकी दैेंके संसाररोंग- मियायदेई रामनाम औषध है तामेंप्रमाण “राम नाम एक औषधी सत- गुरु दिया बताय ओषध खाँवे पथकरे, ताकी वेदन जाय ११५९

अम्नत केरी परी उतारि जाहि कहों में एक हों, मोहिं कह्दे द्वे चारे १२०

साखी। (५७५ )

साहबकहै हैं कि अमतकी मोंटरी जो रामनाम ताको तो शिर ते उतारे

चर ७. सर पं है क्‍िर् ७० आओ | हि घरयो कहे वाको तौ कोई बिचारकरे है नहीं जासों मैं कहौहों कि एक माहिक महींहों सो मोको दुइचारि बतांवै हैं कहे छःबतावै हैं अर्थात्‌ पश्चांगोपासना

ओछठों ब्रह्म सबकी मालिक जो मैंहों ताको भूछिगये कोई देवीको कोई सर्यको कोई गणेश को कोई विष्णुकी कोई महादेवकीं मालिक कहे हैं १५०

जाको सुनिवर तपकेरें, वेद पढ़ें गुण गाय

सोई देव सिखापना, नहिं कोई पतिआय १२१

जाके हेतु मुनिवर तपस्या करै हैं परन्तु नहींपावे हैं औजाको चारों वेद्गा- वैहें परन्तु गुणको पारनहीं पांव हैं तोनेन साहबके श्रीकबीरनी कंहै हैं कि में सिखापनदैके बताऊंहों कि उनहींके रामनामकों जपो तबहीं संसारते छूटोगे ताह में मोकों कोई नहों पतिआयहै अथबा वोई जौन सिखापन दियो है कि

भेरो नाम जप तो संसारते उद्धारद्ेनाय तोने में सिखापनदे बताऊं हों परन्तु पतिआय नहीं है सो महामृदहै १२१ ॥+%

एक शब्द शुरुदेवका, ताकी अनेत विचार

थाके पण्डित घने जना; वेद पावें पार ॥१२२॥

एक शब्द नो है रामनाम ताको अनन्त विचार है अथीत्‌ ताहीते वेद शास्त्र पुराण नानामत सबनिकसे हैं सो हमारे राममन्त्रार्थ में लिखो है तौने रामनामको अर्थ करतकरत पंडित मुनिवेद थकिगये पार पाये अर्थात्‌ अन- न्तकोटि ब्रह्मांड में वेद शास्त्र सब याहीति _निकसे हैं ये कैसे पारपाबें॥ १२२॥

कि का कु के

राउर को पिछवारके, गांवें चारो सेन

जीव परा बहु लूटमें, ना कछु लेन देन॥१२३॥

राउर जो है साहबको धाम ताको |पिछवारे कादये हैं चारोसेन जे चारेविद

तिनके श्रुतिनकों नाना उपासनामें नानामतमें छगायके तिनहीं मतनको उपास-

समय २२-3-3++नत+भ3ततलननीननीननशनीनमक43भत3त-त+3ीननतयीनननकिन-+3तब..न33 वतन + ना भवन क»+»++++नमऊ-+ ना »क कक ७७५५५५५७०-०- मादक

अन्य प्रतियों में इस साखीके आगे यह साखी है सो यहां छोड दिया है। साखी एकते हुआ अनन्त,अनन्त एकेंद्रे आया परचे भई जब एकते, एके माहें समाया”

कर.

(५७६ ) जक कबीरदास

कक नाकरि जीव ढूटमें परथों कछु छेनहे कछुदेनहे अथोत्‌ कछुबस्तु हाथ- नहीं लगे है १२३

चो गोड़ाके देखते, व्याधा भागा जाय अचरज हो यक देखो, सनन्‍्तोी मवा कालकी खाय १२४॥| चौगोड़ा जोंहे जीवात्मा ताकें चारिगोड़ जेहें मन बुद्धि चित्त अहड्ढडगर इनहींते नीवचलैंह तौनेके देखते कहे जब अपने स्वरूपको चीन्‍्होों कि में साह- बकोअंशहों तबब्याथा नो है कार सो भागे नायह निकट नहीं आँवै है सो हेंसन्ती! .एकबड़ो अचरजहै जब जीवात्मा स्वरूपको जान्यों तबतों काल भागतही भर है औमुंवा कहे मन बुद्धि चित्त अहड्डगर जे चारो गोड़ तिनकी पांचोश- रीरछोड्यो तब काल्खायही जाय है कहे काठकी भयनहीं रहि जायहै हंसशरी- रमें बैठिंके साहबकेपास जायहै उहँकालकीभय नहीं है तामें पमाण नय- त्रशोकेनजरानमृत्युनीत्तिनेचोदिगऋतेकुतश्चित्‌ यब्वित्ततोद।कृपयानिदंविदां- दुरंतदुःखप्रभवानुदशैनात्‌ इतिभागवंतें यस्यत्रह्मचक्षत्रवडभेभवतओदनम॥ मृत्युयैस्योपसेवेत इत्याविद्‌ यत्र सः ॥ओ वा छोकमें कीनी शोकनहीं हैं तामेंपममाण धम्मंदासजीकों पद नामलीलारंथको'

जहाँ पुरुष सतिमाव तहाँहेंसनकीबासा नहींयमनकों नाम नहींह्वां तृष्णयासा हर्षशोकवाघरनदीं नहोंढाभनंहिंहानं हेसापरमअनन्दमें धरे पुरुषफोध्यान नहिंदेवी नहिंदेव नहीं हृविद्कचारा नहिं तीरथ नहिंबतते नहींषट्कम्मंअचारा उतपतिपरलयहांनहीं नहीं पुण्य नहिं पाप। हंसापरम अनंदमें सुभिरिसतगुरुआप नहिंसागर संसारनहीं हां पवनहई पानी। नहिं धरती आकाश नहीं हांऔर निशानी चाँद सूर वा घरनहीं नहीं कर्म नाहें काछ।मगन होय नामै गहै छूटि गयो जंजाछ सुराति सनेही होइतासु यम निकट आंवै।परमतत्त्व पहिचानि सत्य साहब मनभावै॥ अजर अमर विनर नहीं परम पुरुष परकास। केवढ नामकबीरका गाय कहे धर्मदास

तीनि लोक चोरी भई, सबका सखस लीन्ह॥ बिना मूड़का चोरवा, परा नकाहू चीन्ह्र १२०५॥

साखी ( ५९७७ )

तीनिछोकरमें चोरोहोत भई सबको सर्वस्वड़ैलियो सो ऐसों जो बिता मूड़को चोर तिराकार ब्रह्म सो काह को चौन्हिपरयो अथवा बिनमूड़को चोर छिन्नमस्ता देवीके उपासक ते अपनेहूं को भावना करे हैं कि, हमारो मूड नहीं है काहेते कि “देवों मूत्वा देव॑ यनेत”” यह छिखे हैते शाक्त काहको नहीं चीन्हिपरे हैं मायामें डारिके सब जीवकों भरमाइ देह हैं १९५ 8 कु दिला चक्की चलती देखि के, नयनन आया रोइ

दो पद भीतर आयके, साबित गया काइ॥ १२६॥

: पुण्य पाप दूनों चक्की हैं कहे चकरी हैं तामें देत जो है हम हमार सों

किल्ली है तैंने चक्कीके दूनों पके भीतर आयके साबित कोई नहीं गया है

पीसिही गयो है जो कोई साहबको सर्वत्र चिदाचेव्‌ रूपते देखे है सोई बाचे है

तामें प्रमाण “पापपुण्य दुइ चक्री कहिये खूँटा देत छगाया है | तेहि चक्की

तर संबै पीसिंगे सुरनरमुनि बचाया है!॥ और प्रमाण खायर बीजककेी। चक्ती चली राम की, सब जगपीसाझारि

कह कबीर ते ऊबरे, जे किल्ली दियो उखातरे ?? १२६

चारि चोर चोरी चले, पग पनहींडतारि चारो दर थून्हीं हनी, पण्डित कहहु बिचारि ॥१२७॥

चारि चोर जे हैं विश्व तेनस भाज्ञ तुरीय ते चोरीकों चढ़े आपनी आपनी पनहीं जो है बिचार ताको उतारिके कहे छोड़िके चोर चड़े है तब पनहीं उतारिके चुपानाय है तैंसे येऊ चले हैं सो विश्वाभिमान कम्मैकाण्डकी थून्हीं गाड़ी तैलस अभिमान उपासनाकाण्डकी थून्ही गाड़ी प्राज्ञाभिमान योंगकी थून्ही गाड़ी पत्यगात्मा तुरीय अभिमानने ज्ञानकाण्डकी थून्ही गाड़ी सो ताही को बिचार पण्डितनन करने लछगे। अथवा चोर जो है मन बुद्ध चिव्‌ अहड्ढगर तें बिचार रूप पनहींकी उतारिक चोरीकों चडे सो मन सह्लल्प बिकल्पकी थून्ही गाड़ी चित्त अनुसंघानकी थून्हीगाड़ी बुद्धि निश्ययकी थून्ही गाड़ी अहंकार अहंब्रह्मकी थन्हीगाडी से ताहीकी सब पण्डित बिचार करने छगे सों कहे हैं। मनतो सड्डर्प बिकर्प करने लूग्यों के संसार कौनी भांति ते छूटे,

३७

(५७८ ) बीजक कबीरदास |

वित्त अनुसंधान औरे औरे ईश्वरनपर करने रूग्यो, बुद्धि ओरे औरे ईश्वर नपर निश्चय करनछागी अहंकार अहंब्रह्मको बिचार करने टुग्यो कि में ब्ह्न हों। सो है पण्डिता ! बिचार तो करो ये चारो जे हैं ते चारोद्रम थून्ही गाड़ दिये बिचार रूप पनहीं उतारिके कहे साहब को बिचार करत भये साहब बिचारको पनहीं कहिते कह्यों कि पनहीं पदत्राण कहावे हैं पायी रक्षा करे हैं सो बिचार रूप पनहीं उतारि डारये| तति जैसे कांटा बेधि जाय है तेंसे नाना मत नानाप्रकारके श्रमंबंधि गये १२७

बलिद्ाारी वहि दूधकी, जामें निकसे चीव आधी साखि कबीरकी, चारि वेदका जीव १२८

वहदूघ जो है चारों वेद अथवा और ने भक्तिशाख॒ तिनकी बलिहारी है जामें घीव रामनाम निकसे है आधी साखी जो है कबीरकी रामनाम सो चारो बेदका जीव है काहेते जीव है कि चारों वेद याही ते निक्से हैं आधी साखी रामनामे को कहो है तामें प्रमाण रामनामछेरचरीबाणी ””। सबको आदि रामनामही हैं १२८ | कह. कर बलिहारी तिहि पुरुषकी, पर चित परखनहार

रे 6०%, विआाक [ कि.

साइ दीन्द्यो खाँड़कोी, खारी बूझ गवार १२९

कबीरजी कहैँहें कि परचित कहे सबते परे चिद्रप नो साहब ताकी परखन* हार जो अणुचित्‌ पुरुष है ताकी बलिहारी है जे साईं कहे बयाना तो खांदको दीन्‍्हो कि वेदनमें श्रीरामचन्द्रको बूले ताको छोड़ि खारी नोहें नाना मत तिनके वेदन में बच हैं वोई मतनकी उपासना करे हैं ते गँवार हैं खारी जो बहुत खाय तो पेट काटि देइ है सो नाना मतनमें परिके नाना दुःख सेहै हैं १२५० .

बिषके बिरवा घर किया; रहा सपेलपटाय

तांते जियरे डर भया, जागत रैनि विहाय॥ १३५० दिषकों बिरवा नोहै संसार तामें जीव घरकियों जामें काछरूपी सपे लप- ठाय रहोहै तेहिते जाके हदयमें डरभयोहै जागि के साहबको जान्‍्यो ताकों

साखी (५९७९ )

मोहरूपी निशा बिहाय जायहै जे नहीं जागे हैं तिनको काछ डसिखायहै सो- निनको रामोपासना सिद्धहै गईहै ऐसे जे भक्तहैं तिनके शरीर नहीं छूटे हैं सो हनुमान कबीरजी प्रकटे हैं १३०

जो घर है सपेका। सो घर साधन होइ

सकल संपंदों ले मई, विष भर लागी सोइ॥ १३१॥

जो घर सपकाहै सोवर साथुकीं होइ अथौत सर्पको घरबेमौरहे तामें बहुतछिद होइहें सो या शरीरों बहुत छिदकी बॉबी है तामें कार बसेहे सों बेमोरमें नो जीव जायहै तिनकी सपे खाय लेइहै ने या शरीर में कौनों जीव बसैहै तिनकों काल खाइलेइहै १३१ #

मन भरके वोये कवों, घुंघुची भर ना होइ कहा हमार माने नहीं, अन्तहु चले विगोइ १३२॥ ररीरनें जो पूँघबुबी भर बासना उठे तो मन भर की हैजातीहै कहे मनसं- कल्पविकल्पकारेके और बढ़ाई देहहै मनमें वही भरे रहती है मनभर डप- देशकरे ते डुँबुची भर ज्ञाननहीं रहे यह मन में जायहै ऊंचेकी नहींनाय सो श्रीकबीरनी कहे हैं कि, हम केती उपदेश करें परंतु कोई नहीं मॉनिहैं तते अन्तमें बिगोइके कह बिगरिके मरिके नरकमें जायहैं १३२ हि. 4 कर आपातजो हरे भजो, नख शिव तजो बिकार॥ बा सब जिउते निरबेर रहु, साधु मता हे सार १३३॥ . श्रीकबीरजी कहे हैं कि जबभर तें यहि शरीरकों आपनो मानैगो तब भर तेरो जनन मरणन छूटेंगो ताते अहंशरीर:”'में शरीर हों यह नेहै आपा ताक छोड़िदे तें तो साहबकी पार्षद्स्वरूपहै तामें टिके तिनको भननकरु नख

शिखमें तेरे कामकाधादिक बिकारई देखे परे तिनको छोड़दे चिदचित उन न+ कार कस 3५५». 3+ नमक ३५७३५»+3५+ ओर कम ५3५७ कमवन++++-+यनना नन+++.टिपननननननननन-ममत-+प+-म+भ सम भवाभक++नममवा पाक नानक.

% इसके आगे कौ यह साखी छोड़दी है “बंघुची भर नो बें या, उपजप्सेरे आठ | डेए परा काल घर, सांझ सकारे बाठ?

(५९८० ) बीजक कबीरदास

बिग्रहते सर्वत्र साहिबदहीह-ं यह भावना करिके सब जीवनते निर्बैररहु साधु मतकों यही सारांशहै सब साहबके शरीरहें तामें प्रमाण “खं वायुमग्नि सलिलिमहीशअ्व॒ ज्योतींषि सत्त्तानि दिशादुमादीन सरित्समुद्रार्च हरेःशरीरं यत्किश्वभूतं प्रण- मेदनन्यः ** चिव्‌ जो है जीव सोऊ शरीरहे तामें भमाण ““यश्चात्मनि तिष्ठ नयमात्मानं वेद यस्य आत्मा शरीरम”” १३३

पक्षा पक्षी कारणे, सब जग रहा धुलान

निरपक्षे हे दारे भर्जे, तेई संत सुजान १३४

और तो सबमायेमें भुछानहै जिनके कछू समुझहै ते आपने आपने मतकों पक्ष कीन्हे हैं आनको पक्ष खण्डन कारे डरे हैं सो पक्षापक्षी छोड़िके साहब॒को भने हैं तेई सुजान सन्‍्तहैं १३४

माया त्यागे क्या भया; मान तजा नहिं जाय जेहि माने सुनिवर ठगे, मान सबनको खाय ॥१३५॥

सन्‍्तलोग नो मायाको छोड़िउ दिये तो कहा भयो मान बढ़ाई तो छोड़िबे कियो याही चाहे हैं कि, हमारों मान होय सो जौने मानमें मुनिवर ठगिगये हैं सोई सबको खाये लेइहै सो हम पूछे हैं कि जो विहारो बड़ो मान भयो बडी बेड़ाई भई कि फलानेके समान उपासनामें कोई नहीं है ज्ञानमें विद्यार्में कोई नहीं है तो यासों कहाभयो जाके निमित्त परछोड़थो सोतो मिलर्बाई भयो तेहितें जो कोई साहबके मिलिबर की संसार छूटिबेकी बात कहै तो मानिलेद चाँहै आपने मतको होइ चाहे बिराने मतको होइ काहेते कि साधुकी मत यही है के संसारछटे साहब मिलें माने प्रतिष्ठा भये साधुकहाँवै या कीने शाखमें- लिखाहै तेहिते साधु वही हैं नो साहबकी नाने॥ १३५

घुंचुची भरजो बोइया, उपज पसेरी आठ

. डेरा परा काल घर, सांझ सकारे बाठ १३६ यहशरीररुपी क्षेत्रकेसो है के जो घुँबुची भर बोइ जाय अथौव उठे तो आठ प्सेरी कहे मन उत्पत्ति होयहै कालके घरमें डेरा परयो है तेहिते यहशरीरकों

साखी। ( ५८१ )

कहंसांझ होइ है कहू सकार होइहैे अथीत कब मरिजायहै कबहूं उत्पत्ति होइहे बाठकहावे बरेठ सो मनमायामें मिलो जो आत्मा रो बरेंठ होइगयो बरेठमें तीनलहर होयहैं यामें .तिगुणात्मिका माया बरिगई है सो एककैतिपुण्यंकी गैलहै जप यज्ञ दूनते खेंचिकै स्वगकोी लैजायहैं एककैति पपकी गेलहै

कामक्रोधादिकते खचके नरकमें ढारिदेइ हैं जब बरेठ टूटिजायहै तब ख्याल गुलद्वैनायहै अथीद मुक्ति है जाय है १३१६

बड़े ते गयो बड़ापनो, रोम रोम इंकार

सतगुरुकी परिचय बिना, चारयो बणे चमार॥१३।

सबते बड़े को हैं साधु ने संसोरको त्याग कीन्हे हैं तिनमें और दोषतों हई- नहीं हैं काहेते कि संसारको छोड़े हैं परन्तु ये चिंवअचित्‌ रूप साहबकी नहीं . देखे हैं सवेत्न ते आपने बड़ापनहीं में गये कि हमारी बराबरीकों साधु कोई नहीं है या अहड्डर रोमरोम बेधि गयो सो सतगुरुतों पायोइ नहीं जो रामनामकों बतायदेइ जाते साहब याकी रक्षा करें सो साहबके जाननवारे नेसाधु तिनके विना परिचय चारेउ बर्ण चमारके तुल्यहें १३७ '

मायाकी झक जग जरे, कनक कामिनी छागि कह कबीर कस बाचिहो, रुई लपेटी आगि १३८

झक्वाकोकहे हैं कि जैसे या कहे हैं कि भूतकी झकलगी है सो कनक कामिनी में छगि मायाकी झकमें बैकलायके जरे है सो श्री कबीरजी कहै हें कि कनक कामिनीरूप रुई में छपटिकि बिषय आगिसेवन करो हो सोकेसे बाचिहो अथोव्‌ जारिही जायगो १३८

माया जग सॉपिनि भई, विष ले बेठी वाट

सब जगें फंदे फंदिया, गया कबीरा काट॥ १३९ संसारमें माया सॉपिनिभई हैं सो बिपंलेंके संसार की जे हैं सबराहे तन

धन कर्म तिनमें बेठी है सो सम्पूर्ण जग वाके फंदे में फंदिगंयो जोई कंबीर कहे जीव वे राहनमें चले है सोई काया जाय है अथवा कबीरजी कहे हैं कि

(५८२ ) बीजक कबीरदास।

में जोनजीने राहनमें वहसॉपिनि बैठी रहों है तोने तौने राहनको काटिके कहें बरायके औरे राह हे चछो गयो १३५०

सांप बीछिको मंत्र है, माहुर झारे जाय बिकट नारिके पाले परा, काटि करेजा खाय॥१४०॥ सँपबीछीकी बिपमंत्रत ते झारे जायहै वह विकट नारिजों माया है ताकेपाले नो परयो ताको करेजा काटिके खायलेइ है अथोत्‌ साहबेके ज्ञाना- दिक ने अंतःकरणमें हैं तिनकोखाय है सोई मायाकों रूप कहे हैं १४०

तामस केरे तीन गुण; भोंर लेइ तहँ वास किक | ध्ध् ३)

एके डारी तीन फल, भाँठा ऊख कपास १४१ ॥। आदि्तामस जो है अज्ञान मूल भरकृति तामें रनोंगुणी तमोगुणी सतोगुणी तीनफ़ल छगहैं सो सतोगुणी ऊँखहै नो ऊँखचुह्यों तौ पेहिले रस पान कियो कहे यज्ञादिक कर्म्म कियो स्वर्ग में जायकै अप्सरानके साथ सुखकियों जब . पुण्यक्षीणभयों तब फेरे संसारमें परे सो यहै हाथमें छग्ये। फिरे चोरासीमें भटक- नलग्यो रजोंगुणी कपास है कपासकोलियो कपरा विनायों पंहिर्यो हाँई फूटिगयो तेंसे रजोगुणी कर्म्म कियो तामें राजाभयों सुख भोगकियों दियों लियो बड़ो यश कियो फोरे फेरि मरिके जैसो कम्मकियो तेसो भयोजाय तमोंगणी करम्ममाँटहे टोर्यों तब कांटारूग्यों जब खायो तब पुरुष शक्ति की हानि हेंगई अखाद्य लिखे हैं द्ादशी त्रयोंदशी इत्यादिक दिनमें नो खायों क्री नरक को गयो ऐसे तमोगुणी कम्मंते काहको मारयों तो मरिगयो

पापछग्यो राजाबॉधपिके शी दियों मारो गयों दुःख पायों सो इहां दुश्ख पायों वहां नरकमें दुःखपायों १४१

मन मतंग गैयर हने, मनसा भई सचान॥

यंत्र मंत्र माने नहीं, छागी उड़ि उड़ि खान॥ १४२

मनरूपी नो हाथी है मतवार सो गेयर कहें आपने अरतेकहे हंठते गवा नो है जीव अर्थात्‌ साहबको भूलिगयों जो है जीव अथवा गैयर कहे बड़ा नो है

साखी। (६५८३ )

जीव ताको हने है सो जब जीव मारे परयो तब मनसा जो है मनोरथ सोई सचानभयो है कहे शार्दछ भयो सो उडि डाड़ि याको खायहै अथोत्‌ जब मरन- लांगे है तब जहैं मनोरथ जायहै तहैं जीव जायहैं सोई सायबो है यन्त्र मन्त्र जो नाना उपदेश वैदशास्र कहे है सो नहीं माने है १४२

मन गयंद माने नहीं, चले सुरातिके साथ

दान महावत क्या करें, अकुश नाहीं हाथ॥ ३3७३ ॥|

मनरूपी जो मतंगहे सो नहीं माने है सरतिरूपी जो हाथिनी है ताके साथ चंद है महाउत जो है जीव सो कहाकरे अंकुश जो नामका ज्ञान सो याके- हांथई नहीं है १४३

या माया हे चूहरी, चूहरकी जोइ॥

बाप पूत अरुझायके, संग काहुकी होइ १४४

या माया चूहरी कहे चाण्डालिनी है चूहरेकी नोइहे कहे नीवकी जोइ हेके जीवहको चृहर बनायलियो अर्थात्‌ आपने वश कैलियो सो यह माया काहकी सेंगनहीं है। मन जो है बाप, पूत जो है ब्रह्म ताको पतिनो है नीब

[पिच हे

तासों अरुझाय दियो हैं १४४ कनक कामिनी देखिके, तू माति भूल सुरंग विछुरन मिलन दुह्देलरा, केचुलि तजें भ्रुजंग ॥१४५॥ साहब कहे हैं कि कनक कामिनीरूप मायाकों देखि मतिभछाय तें तो सुरड़हे साहब कहै हैं कि मेरे अनुरागमें रंगनवारों है सो आपने स्वरूप तो बिचारु यह कनक कामिनीरूप जो मायहहै तोनेमें जो रँग्योहे ताको जो छोड़िदे तो जैसे भुजंग केचालि छोड़े देइहे तब वाकी स्वरूप निकारे आग है तैसे तेरे चारो शरीर छूटि जायें तब हंसशरीरपाय मेरे पास आबै १४५ मायाके बश सब परे, ब्रह्मा विष्णु महेश

नारद शारद सनक ओ।, गोरी सत्त गन्नेश॥ १४६॥ अथ याको स्पष्टटी है १४६

(५९८४ ) बीजक कबीरदास

है. किक पीपर एकजो महँगे मान ताकर मम कोऊझ जान डारलफायनकोीऊखायाखसमअछतवबहुपीपरजाय॥ १७० एकपीपरके वृक्षको सबे महँगे मानिलियो है सो वह ब्रह्म है अनुभवगम्य है वाकों मर्म कोई नहीं जाने है कि पीपरकों डार छूफायके कोई नहीं खायहै अथीव वा अलखंहे कैसेमिली वातो कथनमात्रही है सो साहब कहे हैं कि जीवनकों ससम अछत में बनैहों ताको तो नहीं भाप्ति होय वहपीपरनों बह्म ताहीमें सब चेलेज[तिहें सो वह तरह्म झौई है तामें प्रमाण मूठ रमैनीकों निर्मुणअछूख अकह निरबाना मन ब॒ुधि इन्द्री जाहि नजाना विधिनिषेध जहँवों नहों होई। कह कबीर पद झाँई सोई पहिले झाँई झौँकते, पैठो सन्धिककाल झाँईंकी झाँईं रही, गुरुबिन सकैकीो टाछः? १४७ पी पे किक शाहू ते भो चोरवा, चोरन ते भो छ॒ज्झ तब जानेगो जीयरा, मार परेगो तुज्झ १७८ प्रथम शाह रहें कहे शुद्धरहेही सो ब्रह्ममाया मनचोरहैं तिनमें लगिंकै तेंहूं चोर द्वेगये अर्थीव्‌ उपदेश करिके जीवन के साहब को ज्ञान चोराय ढछियो काहूकी कह्मों कि ब्रह्म तूही है काहकों कह्यो कि आदिशक्तिको भजु जगवकों कत्ता वही है काहको कह्यो जो मनमें आवबे सो करू बन्धमोक्षफो कारण मने है याही रीति गुरुवाचोरन ते जुज्झ भयो सो तुज्झ कहे तोहीं तबहों समुझि परेगो जब यमकों सोंग शीशमें छंगैगों तब तब जानेगो कि रक्षकको भुठाय दियो १४८ हे पूः कै ताकी पूरी क्यों परे; गुरु लखाई वाट ड़ हे हा ताको बेरा बूड़िहें, फिरि फिरि अवधद घाट ॥१४९॥ जाको गुरुने साहब के पास पहुँचिब की बाद नहीं छखाई ताकी पूरे कैसे परे ताकी बेरा जो है ज्ञान सो अवधट्वाटमें बूडि जाइगो अर्थात्‌ जब उनके शरीर छूटिणायेंगे पुनि पुनि ननम मरण होइगो तब वा ज्ञान भूलिनायगो १.४९॥

साखी। (६५९८५ )

जाना नह बूझा नहीं, सम्झि किया नाहें गोन॥

अन्धेको अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥१५०॥

मनमायादिक जो जगदहै ताको जान्ये कि यह जड़ है में इनको नहीं हों इनते भिन्नहों वा बरह्मकी बृक्‍़ष्पो विचारई करत रहिगये अपने स्वरूपकों जान्यो कि में साहबकों अंशहों समाझेके नाना मतनमें गोन किये कि ये नरक लैजानवारे हैं सो आधर जे जीव तिनकों आँधरे गुरुपाछोंग मिक्ठें साहब के यहॉकी राह कौन बतावे १५०

जाको गुरु है आँघरा, चेला कहा कराय॥ अंधे अंचा ठेलिया, दोऊ कूप पराय १५१ याको अथे स्पष्टही है १५१

मानस केरी अथाइया, मति कोइ पेठे चाय

एकइ खेंते चरत हैं, बाघ गदहरा गाय १५२॥

या संसारमें मनुष्यकी अथाई है तामें धाय कै कोई मति पेठे काहेते कि एकइ खेत जो है संसार तामें बाघ नो है जीव गदहा नो है मन गाय जो है माया सो एकई संग चरे हैं गदहा मनको कह्यो सो कर्मको बोझा याहीमें लादिनायहै जीव बाघहे समर्थ जो साहबको जाने तो गायनो है माया ताकी खायनाय अथीत्‌ नाशकर देइ १५२

चारे मास घन वरसिया, अति अपूर्व शरनीर पहिरे जड़तर बख्तरी, चुभे एको तीर १५३॥

कबीरनी कहे हैं कि घन जोहों में सो चारि मास नेहेँ चारियुग ताममें आतिअपूर्व जो है शरकहे बाणरूपी नीरज्ञान ताको बरसत भयों कहे उपदेश करतभयो सबनीवनकों परन्तु ऐसो जड़तरकहे नड़ोंते जड़ बख्तर पहिंरे है कि तीरकहे एको ज्ञान नहीं चुभे है अथवा चारिमाप्त हैं चारेड बेद ते घनकहे बहुतज्ञानकी बषा कियो कहे सबजीवनको उपदेश किये परन्तु साहब को

( ५८६ ) वीजक कबीरदास

कोई समुझत भयो वेदको अर्थ ओरईमें छगाय दियो सब शब्द को सार राम ताम जाने सब नरककों चछेगये तामें प्रमाण नाम लिया सो सब किया, वेद शाखको भेद बिनानाम नरक गये,पढ़ि पढ़ि चारो वेद!'॥ १५३॥

गरुके भला जिव डरे काया छी जन हार कुमाति कमाई मन बसे, लाग॒ जुवाकी लार ॥१५७॥

कबीरनी कहे हैं कि गुरुके भेढ़ेमें निउ ढरे है वहगरुकी भेली कैसी है कि काया ने हैं पांची शरीर तिनकी छीननकहे छोड़ायदेन वारी है सो ये संसारी जीवनके मनमें कुमतिकी कमाई छगी है ताते ज॒वाकी छार मानुष ररीर में छा-

गहे कम करतबन्यों तौ नरकगयो कर्म करत बन्यो तो स्वगैगये कम छूटनकों उपाय नहीं करे हैं छारसंगको कहे हैं परिचमकी बोली है १५४

तन संशय मन सोनहा, काल अहेरी नित्त एके डॉग बसेरवा, कुशल पुछो का मित्त १५७॥

साहब कहे हैं संशय नो मन सोई तनमें सोनहाहै नीबन को शिकारखेंडे है एक यह काछ अहेरी है अथीव्‌ जब कालमारे है तब मनकी सुरति जहां मर- तमें जायहैं तहां आत्मा जात रहै है तोने शरीर धारण करे है सो मन सोनहा फाछ अहेरी नीव सावन ये तीनों एकेडांग जो शरीर तामें बसे हैं सो हे मित्र! धछ ७/ छ. ऊर, ००.

तुमती हमारे सखाही मूलिके यहडाँग जो शरीर तामें कहाँ बसहो चारो शरीरन का छोड़े हसशरीरमें बेठि मेरे पास आवो १५५

शाहु चोर चीन्हे नहीं, अंधा मतिका हीन

पारिख बिना विनाशहे, करि विचार हो भीन॥१५6६॥

हे अंधा ! हेशानतयनकोहीन तेंतो शाहरशो है चोरजो है मन ताको तें

चीन्हें ताते तेहूं चोर द्वैगये सो बिचार कियो कि पारिख बिना बिनाशहै सो पारि

खतो करु तेंतो चिवहे यह मन जड़हैं तेरो वाकों साथ नहीं बनिपरे है सों

लैसे तें अणुवितहे तैंसें साहब विभुचिवहें चितचितकों साथ होइहै सो बिचारकरि यहि मनसे भिन्नह्ठे मेरे पास आउ १५६

साखी ( ५६८७ )

शुरू सिकिली गर कीजिये, मनहि मसकला दे३

शब्द छोलना छोलिके, चित दर्षण करिलेइ ॥१५७॥

जो कहौ मनंते हम कौनी माँतिते भिन्नहाईं तौ गुरु सिकिलीगरहै आत्मा तरवारि है मनादिकनकी काटनवारी है तामें साहबकों ज्ञानहूपी मसकलांदे रामनाम छोंछनाते अज्ञानरुपी मुरचाछोलि प्रेमकी बाढ़िधरि मनादिकनके काटिबेको समर्थ करिदेद अथावचारिडउ शरीरका छोड़ि स्वहूपरूपी दर्पण में आपनो हँेसशरीर जानिलेइ कि मैं साहबकों अंशहों १५७

मूरुखके समुझावते, ज्ञान गॉठिको जाय कोइला होइ ऊजरो, नो मन साबुन खाय॥१५८॥ यहसाखी को अर्थ प्रसिद्धे है १५८

सृढ़ करमिया मानवा, नख शिख पाखर आहि बाहनहारा का करे, वाण लागे ताहि १५९

मूढ़कर्मी कहें मूढ़ है कर्मी है कर्म्म त्यागकों उपाय नहीं करे है ऐसो जो # है

मानुष्य सो नसशिखडों अज्ञानरूपी पाखरपहिरे है नो मृढ़कर्मी पाठहोय तो बानरकी नाई बाँव्यो है हठ नहीं छांडे १५५९

सका 4६. चर

सेमर केरा सूवना) सिहुले बैठा जाय

चोँच चहोरे शिर घुने, यह वाहीकी भाय १६०

सेमरका सुवा जोसिहुले कहेमदारेमें बेठिके चोंच मारयो जब घुवा निकरचो-

तब शिर धुने है या कहै है कि या वहीको भाई है अथीव नीव संसार मुख छागि- रह्मा जब कुछ पाये तब ब्रह्म सुखमें छग्यो कि मोकों ब्रह्मानन्द होयगो सो वहीं बिचार करत जब अठई भूमिकामें गयो तब अनुभवों रहिगयो तब जान्यो कि जैसे संसारी सुख मिथ्या है तेसे अह्मसुखों मिथ्या है कुछ नहीं रहि जाय है अथवा घरछोड़िंके बेरागी भये महन्ती छिये मठ बॉँघे चेछा भये सो घरमें एके मेहरी रही एके बेटा रहो इहां बहुत चली भईं बहुत चेढा भये

( ५८८ ) मनीजक कबीरदास |

बहुत घर भय गृहस्थीमें बन्यो बैराग्यमें बन्यो तामें प्रमाण चौरासी अड्भकी साखी

« घरहु तानेनि तो अस्थछ बॉधिनि अस्थरू तनिनि तो फेरी

फेरी तनिनि ते चेला मूड़िनि यहि विधि माया पेरी २६०

सेमर सुवना वोगे तज्ञ, घनी बिग॒र्चन पाँख

ऐसा सेमर जो सेवे, हुृदया नाही आंख १६१

हे सुवा नीव संसार रूप सेमर को तें छोड़िदे तें ते पक्षी है तेरे मेरे पास आवनको पक्ष है कहे तेंरे स्वरूपमें मेरे पास आवनकों ज्ञान बनो है जों संसारी है नायगो माया ब्रह्म में छगैगो तो मेरे पास आवमनेकों तेरे पखना बिशुचन डै जायंगे कहे घुवा ऐसो चोंथि डारैंगे नाम नाना ज्ञानमें गाय देईँगे वाज्ञान रहि नायगो सो ऐसे संसारूयी सेमरकों सेवे है जाके हृदयमें आंखी नहीं हैं भरो ज्ञान नहीं है १६१

सेमर सुवना सइये, ढुइ ढेढीकी आश॥

ढेढ़ी फुटी चटाक दे, सुबना चले निराश १६२॥ हे सुवना! जीव संसार सेमरकी दुइ ढेदीकी आश सेवे है सेमरकी दुइ ढेंढी

5 भा

: कौनि हैं एक फूछकी है एक फलकी है या संसारमें एक तो संसारी सुख

है एक परलछोक सुख है सो. सेमरमें रसकी चाह कियो जब चोंच चहोरयो तब ढेही चयाकदे फूटिगई घुवा निकस्योसुवा निराश हैंके चले गये रसकी पाप्ति भई तैसे तें संसारमें परये जनन मरण छुटावे के वास्ते धोखा अह्ममे लाग्यों परन्तु जनन मरण छूट्यों १६२ 2 को बैडि किक लोग भरोसे नके, जग बैठि रहे अरगाय बा मेदे ९५७ ऐसे जियरे यम लुटे, जस मेंढ़े ठुटे कसाय ३६३ ओरे छोगौ याहे संसार में कौनके भरोसे अरगायकै कहे चुपाय के बैठि रहें हो ज्ञान करिके कि मैहें बाहों अथवा या मानिंके कि मैददीं जीवका मालिक हों अथवा योग करिंके कुंडलिनी के साथ प्राणको चढ़ायकै ज्ये/ति्मे मिलायके

साखी (५८९ )

चुप हैके बैठे रहे सो हम पूछे हैं के तुम कौनके भरोसे बैठे रहे साहबको तो जानि बोई कियो जब उत्पत्ति भई तब ब्रह्मत माया तुमको धरिले आईं पुण्यक्षीण भई तब स्वग्गोदिकनते उतारे आये जब समाधि छूटी तब जीव उतारे आयो पुनि जसके तस ह्वैगये आपनेहीं को मालिक मान्यों तो जब रारीर छूटयो तब यम खूब छूटयो नेसखे मेढ़ाको कसाई छूंटे हैं तेसे बिना रक्षक कीन बचांवे १६३

| भ्ण हे किक ४. ..ह..#..ए किक समुझि वृशझि रढ़ ह्रहे, बल ताजे निब्बंल होय के सा रे कह कबीर ता संतको, पला पकरे कोय १६४॥ सर्वत्र साहबकों समुझिके ओऔ साहब को रुपबूझिकै कि या भांतिको है जड़वत है रहे कि नो करे है सो साहब करें है एसे साहब की जो जाने है ताके बहुत सामर्थ्य हे जायहै जो चांहै सो करिलेइ तौने आपने बलढूकों छपाय कै आपको निब्बड़े माने है कि हम कहा करे हैं जौन काम करे है तौन साहिब करे है वे समर्थ हैं सो कबीरणी कहै हैं कि ऐसे संतको पला कोई नहीं पकरे है कहे बाधा कोई नहीं करिसके हे सब साहिबे करे हैं तामें प्रमाण कबीरजीके ज्ञान संबोधनकी साखी “पाप पुण्य फल दोय, सबैं समंपें समरथे निन मन शक्ति होय,मनसा बाचा कर्मणा” १६४

हीरा वही सराहिये, सहे घननकी चोट कृपट कुरंगी मानवा, परखत निकसा खोट ॥१६५॥

हीरा जो है साहबका ज्ञान सोई सराहा जायहै जो घन चोट सहे कहे मानामत करिकैकोई बादीखंडन करिसके ओमानुष ने कंपटकुरंगी कहे हरिणी हे रहे हैं अथोत्‌ चंचल द्वै रहे हैं सो जब घनकी चोंटछगी कहे गुरु- ब्राठोग आपनोमत समुझायो तब हृदय फूटिगयों साहबको ज्ञान तो जानो रहे तामेंममाण कंबीरपरिचंयकी साखी

६५९० ) बीजक कबचीरदास

“झूठ जवाहिरकों बनिज, तब छागे परि है पूर जबलगि मिंले पारखी, घने चढ़ा नहिं कूर” सो या मायाके रंगवारे मानुष प्रखतमें खोटही निकसे हैं १६५

हरि हीरा जन जोंहरी, सबन पसारी हाट

जब अब जन जोंहरी, तबही रोकी साट १६६

हरि ने हैं तेई हीरा हैं जन नेहें तेई जोंहरी हैं कहे नाननवारे हैं सो सब जीव हाट रूगावन छगे कहें साहब की जानन छगे ज्ञान कथनलगे गुरुवा- छोग आपने मतमें खेंचिगये सों जब साहबके जाननवारे जनाय देनवारे साहब जन जौंहरी आये तब सबके मत खंडन करि हीराके-समीप कनी जे जीव तिनकों पहुँचाय देतभय अथीव्‌ जीवनकों या जनाय दिये कि तुम साहबके होौ साहब में छगो या हीरो के साटकों अथथ है और मतनमें परे जननमरण छूटै- गे। ये कनफुका संसारही को ढेजायगों तार्मेपमाण॥'कनफुक!गुरु हददका बेहद्क: गुरु और बेहदका गूरु जो मिले, तब पावे निन ठौर १६६

हीरा तहां खोलिये, जहँ कुंजरोंकी हाट

# कप का, सहजे गांठी बांघिके, लगो आपनी बाद १६७॥ जहां कुंजरों की हाट है तहां हीरा खोलिये कहेते कि वे भांया खीराके बँचनवारे होराका भेद कहांनानें अथोव्‌ जहां आपने आपने मतमें काड काउ करि

रहे हैं तहां साहबके ज्ञानरपी हीरा खोलिये साहब में मनलछगायें एकान्त बैठे रहिये यही आपने बाटमें छगे रहिये १६७

शथ किक

हारा परा बज्ञारम, रहा छार लपटाय॥

बहुतक्‌ मूरख चाले गये,पारिख लिया उठाय॥१६८॥

हीरा जो है रामनाम जेहिते साहबको ज्ञान होइहै | सो बनारमें परांहै कहें सब संसार के छोग कहे हैं छारमें छपणाय रहो है अर्थीव्‌ नानामत नाना- ज्ञान रामनामहीते निकसे हैं, सब मत रामनामही ते सिद्ध होय हैं यह राम नाम साहबको बतावै है ते कोई नहीं जाने हैं या नहीं नानें ते ऐसे ने

साखी ! (५९०९१)

मूरख ते केतें संसार बनारमें चलिगंय पे नाते साहब को ज्ञान होई ऐसो नो रामनाम हीरासो छीन्हे अर्थीव्‌ यह रामनाम साहबके बतावन वारो है सो कोई समसझयो से जाते साहबकों ज्ञान होयहै ऐसो रामनाम हीरा ताके जे पारखी रहे ते राम नाम हीराकों जानिंके उठायों नाते साहब॒कों पहिंचा- निंके मुक्त है गये। अथवा रामनाम ऐसो हीरा बनार में कहे संसार में परि छार में छुपय्यो है अथीव्‌ ज्ञान कांड,कर्म कांड और योग कांडमें रूग्यो है और राम नाम में नहीं रूग्यों हैं, नो साहब को बतावनवारों है नाते मुक्ति है जाई छार में कहा लपये है ? कि, ज्ञान काण्ड कर्म काण्ड आदि कमनमें राम नामई को माँनि हैं याही ते काह को नहीं जानि परे है राम नाम को और ओर सिद्धिन में लगाई देइ हैं तामें प्रमाण श्रीगोसाई जीको

नाम जीह जपि जागहिं योगी विरति बिरंचि प्रपंच वियोगी

ब्रह्म सुंखहि अनु भवहि अनूपा। अकथ अनामय नाम रूपा

जाना चहै गूट मत नोऊ नाम जीह जपि जानें तेझक

साधक नाम जपहिं ले छाये होइ सिद्ध अणि यादिक पाये

जपहिं नाम जन आरत भारी मिट॒हि कृसकट होंहि सुखारी

सो येही रामानामकी लैकै सब साहबको जान्यो है तांम प्रमाण

श्रीकबीर जीको रेखता

रामको नाम चो मुक्तिका मूल है निशच्चोर रस तत्त्व छाती

रामकी नाम षट शाखमें मथलिया राम षट दक्षमें है कहानी

रामको नाम है ध्यान अल्मा किया ररंकरे घुनि सुनि मानी

कहें कब्बीर अवगाह लीला बड़ी रामकों नाम निर्बोण बानी

रामको नाम है विष्णु पूजा करें रामके नाम शिव योग ध्यानी

रामको नामछैे सिद्ध साधक जियो जियो सनकादि नारदहु ज्ञानी॥

रामको नाम छै राम दीक्षा छिया गुरु वाशिष्ठ मिलि मंत्र दानी

रामको नाम लै कृष्ण गीता कथी मथी पारत्थ नहिं ममनानी ॥१६८॥

होराकी ओवरी नहीं, मलयागिरि नं पांति सिहनके लेहड़ा नहीं, साथु चलें जमाति ॥१६९॥

( ५९९२ ) बीजक कबीरदास

सबको मालिक साहबएकही है साहब के जाननवारे बिरलेसाधुहं जे रामनाम को जप हैं वेसब साधुनके शिरमौरहें तामें प्रमाण साधु हमारे सब ख़ड़े,अपनी अपनी ठीर शब्द बिबेकी पारखी,सो माथेकी मौर''॥तामें या दृष्टान्त है मैसे मडैंगिरों चन्दन एक्है, सिंहएकहे तेसे हौरा जो राम नामहै तेहिते साहब को ज्ञान होयहे सो एकही है ताके जाननवारे साधु एकही हैं.

बा केक

वे नमाति में नहीं चले हैं ऐसेतो सब साधुह्दी कहाँवे हैं राम नाम वसूछ॥-

खोयके औरेमें छामे हैं ते गँवारहैं तामें मरमाण बह हीरा मतिजाए हमे, जेहिलादे वननार यह हीरा है मुक्तिको, खोये जात गँवार १६९ + तन हर पे शव

अपने अपने शीश की, सबन लीन है मानि॥ हु

हरिकी वात दुरंतरी, परी काहू जानि १७० ।हीवे

जौनजाकोमतनीकढाग्यौ सोतीनेंनमतकों शीशचढ़ाय मानि लीन्हो हरिकों,

जो दुरंतरी बातहै सबते दूरकहेपरे सो काहूकों जानिपरी |कि सबके रक्षक /

साहबै हैं १७० >"

हाड़ जरें जस छाकड़ी, तनवा जरे जस चास कविरा जर॑ सो राम रस, जस कोठी जरे कपास॥१७१॥ - कबीर जे जीवहें तिनके रामरसजो है रामभक्ति सो कैसे उनके अंतःकरणमें जरे है नैसे कोठीमेंकपास भितरेजरे है याहीते उनके हाड़बार लकड़ी घासकी नाई जरें हैं १७१॥ वाट झुलाना बाद विन, भेष लाना कानि॥ जांकी माड़ी जगत में, सो परो पहिचानि॥ १७२॥ घाटकहे सत्संग बाट नो है बिचार ताके बिना भूछिगयो अर्थात्‌ साहबकों तो नान्यो अपनेहीको - ब्रह्म माननरग्यों बिचारभूलि गयो सत्संग काहेकों करे आपने गुरुषनकी कानिमानि श्रमवोरे मत छाड़तभये भेषवारे साथु सबभुला-

यगये सो जाकी मारी कहे माया जगवर्में पूरिरही ऐसेजों साहब सो पाहिचानिपरयो माड़ी मायामें मूछिगये १७२

साखी। (५९३ )

मूरुख सा क्या वोलिये, शठ्सों कहा बसाय पाहनमें क्या मारिये, चोखा तीर नशाय १७३ मूरुख कौन कहावे है कि साधुनके समुझायेते सूझे परन्तु बूझे नहीं है तासें क्याबोलिये | शठकौनकहाँवैंहे कि चाहे नीकी कोऊ बतांवे परन्तुछांडे ठकीन्हे वाहीमें छागरहै जोन गुरुवा छोग पहिले बतायनिहे चाहै कूपोमा गेरिप्रे पै छाडे सोऐ्सेडोगन ते कहा बसाय उनको ज्ञानदीन्हे ज्ञानो खराब

यंगो पाहनके मारे तीरही ट्रटैगो श5ठ मूरुख नहीं समुझे तामें प्रमाण पे

पानी कोपाषाण, भीजे तो बेचे नहीं त्यों मरुखको ज्ञान, सके तो चर #

बे नहां! २७३ सु

जसे गोली गमजकी, नीच परे दुरि जाय ऐसे हृदया मु्खेके, शब्द नहीं ठहराय ३१७४ जैसे गुम्मनमें जो गोलीमाश्ये तो डँचेपरे टरकिजायहै ऐसे मरुखके हृद- यमेंशब्द रामनाम केती उपदेशंकारियें परन्तु ठहराय नहीं है एकघरीभर तौ ज्ञानरह्मों फिरि ज्योंकोत्यों है गयो १७४ ऊपरकी दोऊ गई, हियकी गई हेराय कह कवीर चारिउंगई, तासों कहा वसाय १७० ऊपरकी आँखिनते यादेंख हैं कि साहबकी भजिके हनुमानादिक अनर

अमर ह्ैगये निनकी पूजा देवता करे हैं सब सिद्धिकों पाप काल्शक बिष्णु हैं कि हाथिनको पति ऐरावतह पक्षि-

सबते अधिकहें हियेकी आँखिनते देखे हैं [ नंकी पति गरुडृहे भक्तनमें महादेवपाति हैं मनुष्यनमें भूपति है ऐसे सब ईश्व- रनके मालिक श्रीरामचन्द्र हैं तिनकों नहीं भजन करें है सो श्रीकबीरनी कहै हैं कि जाकीभीतरौबाहरकी ऑखिप्ूटिगई तासोंकहाबसाय १७०

का है पी पकिआर

कंत दुन एस गय, अन रूच की नह

8 के ज्जे जज

बोये उसर ऊपजे, जो घन वरसें मेह १७६॥

३८

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अन्‍न्‍ू्ू, 4.)

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(५०४ ) बीजक कबबीरदास ।॥

जैसे उसरमें बोवे घने बहुतो बरसें परन्तु जाम नहीं है तैसे निराकार धोखामेंडग्यो फठकछू हाथरग्यो वातों कुछ बस्तु ही नहीं है अनरुचेकों नेहं है अथीद थाबड़ी श्रीतिकियों वातोपीति ही नहीं करे १७६

में रोझे शव जगतकी, मोको रोबें कोइ

गरकी सेव सो जना; जो शब्द विवेकी होय १७७

सभ जगदपर दया कारक राऊुहा कि बर्त भश्‌ जगतम जतन्‌ मरणरूप दु: खसहे है जीवमोको

[ सो जन रोवे है जो शब्द जो रामनाम ताको विवेकीहों मभाष मकार शोमित द्वोइह में साहबकी हों १७७

पथ साहव साहव सब कह, ग्ीहि अंदेशा ओर उाहबसों परिचय नहीं, बेठेगा केहि ठोर ३७८ ||

5

कबीरणी कहे हैं कि साहब साहब तो सब जीव कहे हैं अर्थात आप हर दे लिहहे थे येतो सब

हर हि! अन्य

बज

आटा ४४2 28, है 4 टँ

ला दर्दा कार पालय, पूंडत कंरड | 8 १७९६ हि कक भ्े जि बिक या जीव बिना जीव कहे सतगरू बिना नहीं बाचे है जीवकोी कीव जो स्तगुरुहे साई आधारहे सो जीवपर दया करे अर्थात्‌ सतगुरुके शरणहे जीव

उद्धाएकरों हे पंडित ! तुम बिचारकर देखो तो दिना सतगरु संसार पार

हमतो सबहीकी कही, मोको कोइ जान तबभी अच्छा अच्छा अबभी,युग युग हॉहुनआन १८०

साखी («५९५ )

साहब कहे हैं कि हमतों सबके अच्छेकी कही जाते कालते बाचि नाय परंतु मोकों कोई जानत भयों सो तब भी अच्छा है अबभी अच्छाह काहते के यगयगमें में आन नहीं होडेँहों वहीवही बनोहों जो अबहूं मोको जाने तो से कालते बचायछेड तामें प्रमाण गोसाईजीको दोहा “बिगरी जन्म अनेककी, सुधरे भबहीं आज होय रामको राम जपि, तुछसी तजि कुसमान” शी कबीरजीने कह्मो है “कह कबीर हम युग युग केही वही [ तवहीं सही!" १८०

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रक ही 2 विआध लि जल नि ॥॒ संसारकों रचिलियों हे सो शरीर जो पयार तामें छपा है साहबके देइ है पयार शरीर याते कह्यो कि सार जो साहबको ज्ञान सो शा आह 4. भप

सो याकी कहिके बैरी होइ ब्रह्म बादिनते सहना वो कहावे है नो सरका- रते पयादा आवे है सो बढ्य मायाके साथ या मन आयो है साहबका ज्ञान छिदेहै साहबकों जानन नहीं देहहे या मनहीं सब संसोर रचिलियो है तामें ममाण

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वीर जीकी पद संतों या मन हैं बढ जालिम

जासों मनरसों काम परो है तिसही हैह भालुम मन कारणकी इनकी छाया तेहि छायामें अण्के ! निरगुण संर्गण मनकी बाजी खरे सयाने मठके मनहीं चौदृह छोंक बनाया पौँच तत्त्व गुण कीन्हे

ही. कर विन

तीनि छोक जीवन बश कीन्हे परे काह चीन्‍्हे

भर री

( ५९६ ) बीजक कबीरदास !

जो कोंउ कहै हम मनको मारा जाके रूप रेखा छिन छिनमें केतनों रंग ल्यावे ने सपनेह नोहें देखा रासातल यकईश ब्रह्मण्हा सब पर अदल चढापे | षट रसमें भोगी मन राजा सो कैसे के पांवे सबके ऊपर नाम ननिरक्षर तहँ ले मनकी राखे। तब मनकी गाति जानि परे यह सत्य कबिर मुख भाखे ॥१८१९॥

देश विदेशन हों फिरा, मनहीं भरा सुकाल जाका दृढ़त हो फिरा; ताका परा दुकाल ३८२॥४ देशकहें संसार बिदेशकहे बह्म तौने में फिराहै सो ये दूनों मायाको सुका- छभराहै अर्थात्‌ वह ब्रह्म मनहीं को अनुभवहे संसार मनहों को कत्पनोहै जौन बस्तु को में टूंढ़त फिरों हों नो मन बचनके परे है ताकों दुकाठुपस्थों वा ब्ह्ममें है संसार में है १८२ कलिखोटा जग आंपरा, शब्द माने कोइ ॥|

जाहि कहों हित आपना, सो उठे वेरी होइ ॥३८३॥ जगत तो आँधरहै ज्ञानदष्टि याक्रे नहीं है कुछ समुझे नहीं है तोने में या

कलिखोटा प्राप्त भयो सो जाको शब्द जो राम नाम में बताऊँहों सोई बैरी होहहै कहे शाखाथे करे है माने नहीं है १८३

मसि कागद तो छुवों नाहिं, कलम गहों नहिं हाथ ॥|

चारहु थुग माहत्म्य जाह, कारेक॑ जनायानाथ १८७

गुरुमुख चारउ युग म॑ है माहात्य [जका एस नाथ रखुनाथह तिनकी कबीरनी सबको जनायो ने कछमगही ते कागद लियो मसि लियों मुखहीतें कहो ये तो सरर करिके कह्यो कि जाम एको साधन करनपरे सो साहब कहे हैं कि जो मोकों जानिलेश तो संसारते तरिनाय जो कहां कूबीर जी मुखही ते कहो है ग्रन्थकैसे भये हैं तो कबीर जी कहते गये हें 'झेष्यकोग लिखते गये हैं १८४

साखी ! ५९७ )

फहमे आंगे फहमे पाछे, फहमे दहिने डेरी

फहमे परजो फहम करत है, सोई फहम हे मेरी॥ १८५॥ शुरुसुख

फहमजो है ज्ञानस्वरूप ब्रह्म सोई आगे है सोई पाछे है सोई दहिने है सोई

ढेरी कहे बायें है अर्थीत्‌ सर्वत्रपृणहि सो यहनेफहमहै ज्ञानस्वरूप ब्रह्म तौनेके ऊपर ब्रह्मयाहके परे साहब है फहम करे है कि वह ज्ञानरूप डनहींको पकाश

हैं याहके परे साहब हैं तान फहम मेरी है कहे वहज्ञान मेरोहै २८५ ६॥ दा भर ०: सिर हद चल सा सानवा, बेहद चले सी साथ क्‍ कप विज कि 4 किक वि

हद बेहद दोनो तजे, ताकी मता अगाधच॥ १३८६ हद जो च़े है सो मानवाहै कहे उनको मात कहे प्रमाण है अथोत्‌ जो जोने देवता की उपासना कियो सो तोने देवता के छोकगयें वाको वहैमर प्रमाणहै वरतनैज्ञान होइहै ने बेहद्‌ चडे हैं अह्ममें ढंग हैं ते सारे जो ब्रह्मकोी साधन करिके सिद्धि करिलेइ सो साधु सो हद नो है सगणसंसतार हि नकल निर्ग 3 जा चर बेहद जोहे निगंण ब्रह्म ये दोनोंकों जे तजिके निर्गंण सगुणके परे परम पुरुष श्री रामचन्द्र के सेवक हेरहे हैं ऐसे जे रामोपासक हैं तिनहीं के मत अगाधहें १८६

ञज्‌ आकर कर की रे समुझेकी गति एकहे, जिन समझा सब ठोर के तय बा. ही. भरे बह कह कबार जे बांचक, बल कांहे आर आर ॥१८३॥ जे रामोपासक निर्गंण सगुणकों समुझेके ताहते परे साहब को जान्‍्यो तिनकी गति एकहे कहे एक साहबहीकी सबठोर निर्गुण संगुणमें समुझे हैं कबीरजी कहे हैं कि जे बीचकेहें ते ओर और उपासना करे हैं और और ज्ञानकरे हैं आपने आपनेदेवतनमें बलके हैं कि येई सबके मालिकहैं॥ ८७॥ [आप कर थि जज राह बिचारी का करे, पिथिक चले विचारि 8 हक कै हर हु | [का] आपन मारग छोड़िके,फिराहि उजारि उजारि॥१८८॥

(६९८ ) बीजक कबीरदास

पथिक जो विचारिके चडे तो राह बिचारी कहाकरें बेद पुराण शास्र यई सच्चे राह हैं तिनकों तात्पय्य यही है यहनीव साहबका अंशहे उनहींके जाने संसारते छठे है सो रामनाम को जपिके साहबके हैरहे यह जो है आपनों

मारग तेनिकों छोड़िके उतारे उजारि कहे कोई बह्ममें कोई ईश्वरमें कोई नाना देवतन की उपासनामें फिरे हैं सोउनके लननमरण रूप कण्टक लागिबोई चाहें

नरकरूप खोह गिरियाहै जीवशाहबकी अंशहे तामें अम|ण ““ममेवांशों-

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नातवब:” ब्रह्ममाया इचर जगत इनको बिचारकरे इनते जीवको उद्धारनहीं होयह ताम पशण “ब्रह्मतीय

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बेन! ॥९१८८॥| (

र॒धरतआये हो अं

नं म्हारं खालेम थाने लिखे हैँ बिना फठके बाणसों

जन अपजममक | १५ ++ब्यदक #

के .. नल धु हट पपपपकणुय... छह ज्ञु 2 ष्‌ परे कह्हारे इक्षदश, आज मेरे की काल १८९ क्ू साइट ये

जनक

कछू नहीं है १८५ गली हाए चत्यीडी, हा दे १/७॥ 8४६९६ एच्नुक्क। इस >रदा माह के बच कक िमीकभ द्ु हम डक हमकादा हाई लखे, चर एूशुइका हाई 8 )९७ हमारी जो पच्चेकी पहिलेकी वोढी जो साहबकारुप उपडेश कारिकआये न्दि हु हि क्र 5 के. कक जीदकी स्वरुप बतायआये सो कोई नहीं छखे है हम को ठखे है सो हमारी- हे 5 & ल्खै हे ब़ो - 20०3: द्धू ्िल्ज्क ऑिलफणक अओंुफणओ एू्र्य जे बाणोंकी तो साई रूखे है जो कोई पूरुषबका कहे शुद्धजाद दैनाय मृत पूठपेई को ह्यों है १९० ॥|

साखी ( «५६९ )

रकरेंद्दे वहे साउन जो है जीव से शरीरनकों पायके आधिदेविक आधिमीतिक आध्यात्मिक ने तीनों तापहेँ तेई घाम हैं तिनहींभे जरे है सो है फण

बिचारकरिक असारको त्यागकरायके सार जे साहब श्रीरामचनद्हें तिनकाबता कल 3

| तो तीनों तापते जीव छूटे १९१ ॥| आग उठने नीपुत, दरिया हाथन पृरबत चाहत,

4 - 9 हि श्र 202 शक अम्ापप्रध ही (3५

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जे हाथनते पर्वत तोछते रहे पार्यनते पुदुदी नापदे रहे जो समुद्र हि ऋषजाए़ु कपल बह ह्श्‌ शा लक ४5 हो कर कम)

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उफाटानझ धाजा सवीकश लतीसश हाय सोने जय का ऐेप्पों कक फेपथ या इजपता अ्ञधवय केद लबान सवावय आग हांते आय सन एस! दृह चर अब थृ >्ऊक्ट अजूतओओ- ०2३. .... 85. लापता. तोड़ा डा वताप रे पते डर हैदव सदुष्यररार पाया हा कानाका दिपका जा बाखात्रल्लमं ढागवना दाल हमर जो सं ण््क हित जे ध्र्८ा जप ६४४) >> पशातस्प भू + ७४-०5 दल तट प्रहतीणए रख जा मनुष्य शरं। सा काना भया कह पशुतुस्य भया पावजा धाहबफाश, * डे | शहे ग्‌ पे रह ताका नाशद् गया। व्दी हावी जि व्सातफिज उस छ्वाह जाइ डे 3 आअधिया-ऊपरका। साखाम ब्बड़ परॉक्रमाकी फाइजाश जाई हु ते कीह जाये हैं। अब या शाखीमें कहें हैं हे ढव जीव हैं या शरीरको माँ: जाय है। अंब था सासखान कह है है दूध जाव | वे था शरारका ऊनमान हाओितः कूहा नाना ि घण्झ के की मप्र शत गये तो हे दयजञीयद ? रे 5४ पूछ ्पजर ३९३ चत्मुभ 9 गे | दा छू यर्ादि रेप ल्ल्न्ख्ाफ ७, >> #ह९ है गे ब्बु 5 के 5 हैं रः प्‌ किक कै यय बन्‍्ग्र ऋछथट- >> नी 3 ४७ हक थन कम श्य नगर रथ हा ना खनका बदारया,अथात ना काहय बंधांन बन काहुयू जनका आांदा हुईं बन >- जग 3 #५ भतन है हि कप टड्डी) ... भलेत दे नागा नकारक नंवान सतनसकाी शुख्वनत् सानक वाहाम साउक वन > 5, 5 मी मिममकद 4७ मे 27 5... प्रा क्या चुत ्> ०-0 बन झ्ु को भी जो है कांजीकाटिपका ( बिन्मु ) ताडो आश्रय करभोपर वही मुझको मार ञ्ये ञञ ्पज नह मिल दाग > यो जाप रस्म न्प हारया अपन में भिलछायाल्या ट्हू मनव माहढुक मन हू गयां। तात जाग हि सु कु मिलन झृत्ि ली धी किक] हि ष् अनन साहबका मदहनकीे शाक्त हाता वावसा नाश हू गईं। से आग शद्धरह्‌ ब्च्छा पर _ पी, निवमिल ५, चकज "ह पड स्वच्छ रहे तेरों संग किया सच जीव सुधरि जाते रहे हैं अथीत्‌ हाद्धरुप किक ८. ./- 3 3 8 3

पी वि लगायक का रिया |

के है. दि ल्ज्मकच 4 चर किक हि. के कु है गा को ३॥ 5. >> >> डारिदई ती घास जरि जाइ है तेसे तेरों संगकरिके जीव जरि भाइहे कहे

(६०० ) बीजक कवीरदास

कि

साहबकों ज्ञान ते रहित है जाइहै। सोतें ऐसों बिगारे गयो है कि जो अब दूध भयों चाहै तो आपने किये ते कोने हू भांति होंइ सके है फिर जो होन चाहे तो होइ कैसे ताको या युक्ति है कि, जाको वा छाछ है ताहीकों पियाई देह तो फिर वा दूध बनि जाइ है। तेसे जोने साहबकों तू है तिनको जो रूप गुह बताइ देंइ और तें ओई साहब श्रीरामचन्द्र्में छागे नाई तो पुनि तें शुद्ध जीव है जाइ १९३ केत्यो मनावें पायँ पारि, केत्यों मनावें रोई जे बिक का हिन्दू पूजे देवता, तुझक न्‌ काहुक होइ ३९४ श्रीकबीरनी कहे हैं कि केतन्यों हिन्द ते देवतनके पाये पारे मनकै हैं कि हमारी मक्ति द्वेनाय नाना देवतनकों पूजते हैं केतन्यों ने मुसलमान तिनकों हार आवती है साहब के इश्कमें रोवते हैं मानते हैं कि साहब बेचत बेचिंगून बेसुवा बेनिसन निराकारहें सो जे देवतनकी मनावतेही पँँ।य रेके तिनहीं की मुक्ति नहों भई तिहारी मुक्ति कैसे होयगी देवता तो सब सगुणहँ बिष्णु सतोगुण के बह्या रजोगणके रुद्र तमोगुणके अभिमानी हैं मुक्त नहीं भये तो तुमको कैसे मृक्त करेंगे सो जोन तीनों देवतनकी अधिकार दिये हैं सबकी मालिक श्रीरामचंद्र तिनको भननकरु तब मुक्ति पविगो तहां प्रमाण गोसाईजीको | 'हारेहि हरिता विषिहें विधिता शिवहि शिवता जिन दयो।! सो जानकी पति मधुर मूराति मोदमय मंगल भयो” और मुसत्मानों | तुम निराकार तो मानो हौ इश्क काकेपर करो हों सो जो साहबकोी रूप मानेंगे तो इश्क तुम्हारा झँटा ठहरि जायगा ताते बिचारी ती साहब रूप होता तो मूसा पेगम्बर को छिगुनी केसे देखावता ताते उसके रूपहें परंतु मायाकृत अभोतिक नहीं हैं दिव्यरूपहें याते निराकारकहै हैं सगुण निर्गणके परे जो साहब श्रीरामचंद्र ताको बन्दाहोड आपनेकों जो माछिक मानेंगे तो बड़ी मार सहौगे तामें भमाण “स्वामी तो कोई नहीं स्वामी स्रिजन हार स्वामी द्वे जो बठिह पनी परेगी मार! ॥१॥ साहब निगुण सगुणके परे हैं तामें प्रमाण सगुणकी सेवाकरों निगुणका करुज्ञान निर्गुण सर्गुणके परे तहें हमारा नान १५४

7

ना

साखी (६०१ )

. मानुष तेरा गुण वड़ा, मास आवे काज ॥| ' हाड़ होते आभरण; त्वचा वाजन बाज ॥१९०५॥ : हैं मानुष! जो तें देहको अभिमांन करे है सो नाहक करे है यह देह तरी

कौने कामकी है तेरो मांस काम नहीं आवै कोई नहीं खायहै हाड़नके आमरण नहीं होते हैं त्वचाके बानन नहीं बानते हैं सो तेरे एकगुण है या देहते साहब मिलते हैं सो मिलिबे की यतन करू १९५ |

जोलगे ढोला तवलागे बोला, तोलगि घनब्यवहार

लिप 8 हू

ढीलाफूटाचनगया, कोई झांकि द्वार १९६

सबकी उतपति घरणिमें, सब जीवन प्रतिपाल

घरती जाने आपगुण, ऐसा गुहूदयाल १९७॥

एकको अर्थ प्रकेटे हैं एकको क्‍है हैं दुःखसुख नीकनागा सबकी उत्पत्ति ध्रतीहीते है कहे शरीरंहीते है जोने ज्ञानतें सब जीवनकों प्रतिपाल है ऐसे ज्ानका तू जान अपने गुणकों धरती जो शरीर ताको मातु॒ ते पांचों शरीर है बाहिरे हैं ऐसे गुरु दयादुहें साहब छुड़ावन वारे ताको जानु तें अंशहै साहब अंशी हैं १९६ १९७

घरती जानतआपगुण, तो कची होतअडोल

तिलतिलहोतोगारुवा, ह्वैरहत ठिकोकीमोल ॥१९८॥

धरती जो शरीर ताके धरेया नो जीव घरती सो आपनो गुण नहीं नावत कि मोमें साहबकी प्राप्ति होयवों यही गुगह उत्पत्ति जो करोही सो साहबकी शक्तिते मेतेशक्ति नहों है तो कधी डोछ द्वोतो अर्थात्‌ मनादिकनकोी उत्पत्ति करि संसारी ने होतो शुद्ध बनो रहतो घरती जीव आपने गुण कहा जाने जो आपने गुण साहबकीो प्राप्त होइबो जानते |ता तिछ लिलमें गरुईं होतजातो कह्ढे तिछतिछ वह ज्ञान बादती ठीक जो है शुद्ध साहबके जनेया जीवात्मा ताके मोल है जातो कहे यही अमर द्वै नातों ने साहबसों मेल किये रहे हैं शरीरह

के

(६०२) बीजक कबीरदास

सांचढ़े जायहे तामें प्रमाण श्रीकबीरणीकी साखी “नाकी सांची सरति है सांची साखी खेल आठ पहर चौंसठ घरी, है साहब सो मे १९८ #॥

जहिया किरतिम ना हता; धरती हतो नीर

उतपृति परछय नाहती, तवकी कही कबीर ॥१९५९॥ कबीरनी कहे हैं कि जब येरहबै नहीं भये तबकी कहे हैं १९५० जहांबालअक्षरनहिआया,जहँअक्षरतहंमनहिंददाया वोलअवोलएकहेसोई, जिनयाकखासोबविरलाहोई२ ०० जहां बो जो झब्दृभया तहां अक्षर आपही जायहे जब अक्षर भया तब

वितक #

मन दृढ़ावही करे है कहे मनकी उत्पत्ति होतही है सो तब तो आकाशही नहीं रहो शब्द कहांते निकंसा सो पथस मो बाणी रामताम केके उचरी सो अबो"०

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लहे कहे अनिबचन है सोई कहे तोने जो है रामनाम सोई बोझहे कहे बहीतें तत्‌

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सब अक्षर निकप्ते हैं सो वहीं अबोलहै कहे अनिवेचनीयंहै लो | बिरका जाने है काहे ते कि जब कुछ नहीं रहे तब एक साहबही रहे है तिन वहतो सबकी मृछहे वाकी कोई केसे कहि

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ते ते सबकी उत्पासे भई है ह्खिवे यह साहब को है जाय ओर आशाछोड़ देश तव साहबेहीं मत बनाय लेहहें तामें प्रमाण साहबकी उक्ति “जाने सो जो महीं जन पकारे छोके पहुंचाऊं॥यही पती।ति मानु दें मेरी यह सुयाक्ते काह सत्य कही तो सो में टेरी भवसागरकी टूटे बेरी!! २५००

जो लो तारा जग मन, तो छों उगे सूर |!

ताला।जय जग के वश, जारी ज्ञन पूर ॥६ १।

जोहों सूर्य नहीं उगे हैं तो छगि तारा जग मगायहैं ऐसे जोछों साहबक पूरो ज्ञान नहीं होयहे ते को जीव नाना कर्मनके बश है नाना मतनमें छांगे है

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- जबजीव स'हब॒की जान्यो साहब को हेगयो तब साहबै अपनों ज्ञान देय है कम छूटि जाय है ९०१

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साखी ( ६०३ )

नाम न्‌ जाने गामको; भूछा मारंग जाय ॥| काल गड़गा कीटवा, अगमन कूस न्‌ खाराय ॥२०२ ॥| ओरें साहबके तो नगरको नामही नहीं नाने है औरे मतन मारगमें काहें मूछा

हम 2० अप

जायहै यह कार रूप कांटा तेरे गहैगा काछ तोकों मारे डारेगा तेहिते अगमन कहें आगे वह खोरिकहे राहमें आवे जेहिते काछते बाचिजाय २०२

संगति की जे साधुकी, हरे ओर की व्यावि॥

ओछी घंगति झूरकी, आओ पहर उपाधि २०३ जो साधकी संगति करिये नें साहबकी जनाय देतवारे हैं तो साहबको

जानिफ्े ओरकी ब्याधि हरे ओनो कर ने असाप तिन की संगति करे तो

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आठी पहर उपाधिहीं छूमी रहे है २०३

बम ब्यी ।क रे 0 कस का हक

ञ्‌ सी हागा आरका, लेसी निदह थार

4 की डी दिपु ०५ मे विवि सफल का बिके, & स्ड्, 2

कड़ी कीड़ा जोारक, एज्याी लुक्ष कंरार ६०७

हर पर 65 भ् छोस्लों अप पी

ओर ते जो थोरहथोर साहबमें छगे भक्ति करे तेय्ले छोर्छों निबहिना को के कप को. आई कज यहे तो जो थोरऊ थोर साहबमें लगे साहबकी भक्तिकरे ते जैसे कौड़ी कौड़ी नोरे केतो करोरि है जायहै ऐसे वाकी भाकि हु द्वैनायहै अनेक जन्मकी संसिंद्धिते मुक्ह्टे जायहै २०४

पु मकर

४० पु 7५७ ञ्‌ आप [को आजु कारिह दिन एके, अस्थिर नहीं शरीर | लक '्े केते दिनलों रांखिद्दी, काचे बासन नीर २०५ ! आज कालिहि यहि कछिकाछमे एकी दिनमें शरीर स्थिर नहीं है केदनीबेरपों शरीर छटिनाय आगे तो प्रमाण रह्मो है कि येती जआायुदाय मनुष्यकी हे अबठों कछ प्रमाणे नहीं है केती बेर शरीर छूटिनाय तेहिते साहब को भजन

जे 8 ही

करश कच्चे बासन शरोरम केते दिन नीर राखोंगे २०५ | कर्‌ बहियां आपनी। छाड़बरानी आल। जाके आंगननदीब है, सो कसमरे पिआस ॥३०६॥

(६०४ ) बीजक कबीरदास |

अरे औरे औरे मतनमे जो लगेहे तिनमें छागु बिरानी आशा छोड़िदें तें काहके छुड़ाये छूटैगो आपनी बहियांकों बल करू तेरे उद्धार करिबेकों तेरी बहियां श्रीरामचन्द्रहैं सो आंगे कहिआये हैं कि मोटे की बॉहले नाके आँगन में नादेया है सो का पिआासन मरै है तेरा तो साहब ऐसो रक्षकबनेंहै तें काहे साहब को भूंछि औरे औरे मतनमे छंगे है २०६

... 5३३८ & वहु वन्धनते बाधिया, एक बिचारा जीव बिक गियप कर

का बल छूटे आपने, जो छुड़ावै पीव २०७

कबीरजी कहे हैं कि ये बिचारे जीव ते बहुत बंधन ते बंध्यों है बहुत गरीबहें सो नो तें आपने बिचारते छूटा चाहे ती तें छूटैगो बिना श्रीराम- चन्बके छोडाये वोई तेरे पीउ हैं उनकी या प्रतिज्ञा है कि जो एकह बार मोको जीव गोहरावे तो में बाको छुड़ाय लेवहों तांते तें साहबकी शरण जाय

कप

जाते संसार ते छूटि जाय जे साहबकी शरण जाय हैं ते काछ॒हके माथ पै छात

हि हें "तर आप

दे चले जाय हैं तामें प्रमाण श्रीकबीरनीको काछके माथे पग धरी; सतगुरुके उपदेश साहब भट्टः पसारिके, छेगे अपने देश गगन मँडढ हग महहूमें, हे घाटीके ईशा नाम लेत हेसा चले, काल नबावें शीश ॥!

३, 22 चर

जे राम नाम नहीं छेइ हैं ते नहीं मुक्त होय हैं तामें प्रमाण यहि ओतार चेतो नहीं, पशु ज्यों पाली देह . रामनाम जान्यो नहीं, अन्त परा मुख खेह २०७ -जिवमति मारहु बापुरा, सबका एके प्राण हत्या कबहुँ छूटि है, कोटि सुने पुराण ॥२०८॥ जीव घात ना कीजिये, वहुरिछत वह कान

| पे

तीरथ गये बाचिहो, कोटि हिरादे दान २०९॥

साखी ( ६०५ )

तीरथ गये सो तीन जन, चितचंचल मन चोर एको पाप काटिया, लादे दमन ओर २१० इनके अर्थ स्पष्ट हैं॥ २०८ २०९॥ २१०

तीरथ गये ते बहि सुये, जड़े पानी न्हाय

कह कबीर संतो सुनो, राक्षस है पछिताय २११

तीर्थ में जे जाय हैं ते तीर्थके जूड़े पानी में नहायके बाहे मुये कहे खराब मुये काहे ते कि जोन तीथजाबे नहाबेकी विधि है सो एकी किये काहको धका मारये। काहपै कोप कियो सो कबीरजी कहै हैं ॥के हे सन्‍ती सुनो ते नर राक्षक होइके पाछिताय हैं कि हम सों बनी २११

तीरथ भे बिष वेलरी, रही युगन बुग छाय

कबिर मूल निकन्दिया,को हलाहल खाय॥२५१२॥

तीरथ कहे तीन हैं रध जाके सतरणतम ऐसी जो त्रिगुणात्मिका माया सों

का हु “अं क.. छ+ चर आर का जों

विष बेंटरीमेि चारिेउयुगमें छाय रही है कबिरन मूलहनिकन्दिया कहे मर जों

रामनाम है ताकों कबिरा जे> जीव हैं ते निकन्दिया कहे यहण करते भये कतय

जो कोई कहबौकियो ताहको खण्डि डारत भये सो या नाना कुमति रूप हलाहऊर खाय जीव क्‍यों नरके जाय जाबिही चाहे २१२

' हे गुणवन्ती बेलरी, तव गुण वरणि जाय जर कार्ेते हरि अरी; सीचेते इंभिलाय ॥२१३॥ हे गुणवंती बेलरी माया बाणी तेरों गुण बरणि नहीं जाय है कहांडों वर्णन करें जब तेरी नर कागन चलें हैं तीर्थ करिके अहंबल्लास्मि कैके तो अधिक हरिअरी होय है महीं अह्महीों या अभिमान बढ़यो अधिक हारे भरी भई तामें भमाण कुशछाबह्मवातोयां वृत्तिहीवा: सुरागिणः तेषि यान्तित- मोनूनं पुनरायान्तियान्ति ”” २१३

(६०६) बीजक कबीरदास

बेलि कुढंगी फलबुरो, फुलवा कुबुधि वसाय मूल बनाशा टसरा, सरोपात कर्आय ॥२१४॥ यह मायारूपी नो बेलि है सो कुढंगी है काहेते कि याकों दुःख रूपी फल चुरो है कुबुधि जो है सोई फूछहेँ वाकी नाना वासना जें हैं सोई बास बसायहै | यह मूल विनाशीहें अथांत्‌ मिथ्याहै याकी मुठ नहों हैं आपहीते उतात्ति भई हैं जेते भर मायिक पदार्थ हैं ते पातहें तिनमें सब करुआई है अथीत्‌ सँचे सुख नहीं हैं २.९४ पीनात आंत पातला, बताते आंत झान ।! पवनहुत आठ उऊठला, दस्त कबारा कान ॥२१५॥ वानिहति पातर घूमों ते जीव पबनेंति चंचक ऐसो जो छुदमन ताको कबीराने नजीब ते दोस्त किये हैं सो चौरासी लक्षयोनिमें डारदियों |॥२१५॥

सतगश्वचनसुनोहोसन्ती, मतिलीजेशिरभार

हहिहुर ठाढ्ाकर्दहा, अंबत संमर संभार २१६ साहब कहे हैं सतगुरु नो कबीर तिनकों वचन सुनिके हे संतो आपनेमें

. हा कर

मनऊको भारा मति छेहु तुमझों समर ह्व रहो है सो मनकी जीति लेहु मे हजरमें

भर

उठाठकहों हों अर्थात्‌ दरार नहींहों नो तुम मवकी जीती तो में अपनायलछेहु २१६

ये करुआई बेलरी, करहूदा फलतोर

सिधनाम जब पा[इये, बेलबिछोहा होर २१७ ॥|

हे कल्पनारूपबेलि! तेश फल बहुतकड़ुवहै जो कल्पना करेहै सो नरकहीको जायहे सो तब सिंधुताम पंवैगों नोने जगठमुख अर्थवेद शाखमाया बह्मजीब सब जगवमराहै तोनेकी जब पावेंगो तब साहबमुख अर्थ जानिके साहब रत्नकों

पविगो तब करपना बेकि को बिछोह हैं जायगो २१७॥ परदे पानी ढारिया, संतो करहु विचार . श्रमी शरमा पचि मुआ, कार चसीटन हार॥२१८॥

साखी। (६०७ )

गरूसख परदेते पानी ठरियाकहे गुरुवालोग नये मंत्र वनायके परदे परदे उपदेशकियों सिखापनदियों कि काहसें। काहियों नहों सब वेदशाल् झठे हैं जीवास्मे सत्य है ताही मानो या समुझायदियो सो वहीं धरे धरे जीव नर कको गये जो सँचो राम नतामहे ताको जान्‍्यो वही गुरुवतकी बताओ मंत्र ताहीके भरोसे सब्र पुजापाठ धर्मकर्मे सब झांडिदियो कहेंहे हमनिष्कर्म हैं और यहब्यात नहीं जानें है कि भगवान्‌ पूजादिक ये कर्मनमें नहीं हैं तामे प्रमाण शअआ्रीकवी रजीकी॥ ओर कर्म सब कम हैं भक्ति कम निष्कम।कह कबीर पुकारिके

8 8 8 2.

भक्ति करो तजि भ्म!!॥सो देखो ता भाजीके छियतो बाजारमे सड़फारे हे भगवान नकीमाकति करिबेको कहेहेँ हम निष्कर्म हैं पिसानके चोकडारे माछपुवा घरिके चोकाकरे हैं आरतीकरें हैं भगवानकी आरती कारिबेकों कहे हैं हमहीं मालिक शरमा शरधामें पचिमवाहे या कहेंहै कि हम गुरुवत को उपदेश छाडंगे या नहीं ने हैं कि या शरम में हमको हमोरे गुरुवो की यम पसीटिडरेंगे नरकमें रि देयहें कियो ।निन साहबको जान्‍्यो है हनुमान अंगद कबीरतें अबडॉबने है ते हि कं में पाचिमरींगे तुम भगवानको नहीं मानोही भगवानके पाछे नहों मं जानामिदग्घकर्मोप भवदंद्‌ बह्राक्षस:' दहते पुरुषोत्तम माहा- ।औ सब झेँठा है साहबकी भजन साँचा है तामें प्रमाणकबीरजी को।!

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्। “7 -थे

हैं हमारी आरती सब जने करते नाड सो हे सन्‍्तो! विचारते तो जाउ यह अपने जाने हैं | तब मालिक है के बचोंगे तब कोन रक्षा करेगो साहब जनबे हबकी भजन करो जेहिते काछते बचिजाड नहीं ते शरमा शरमीमें नर- सो ब्रह्म राक्षस होइगो तामें प्रमाण “नानुव॒जति यो मोहाद्धजन्तं जगदी- !

22 जज ८2%

“४ कश्वन केवछ हारे भजन, दूगी कथा कथीर झेंठा आरू जंजाल तनि, पकरो सॉँच कबीर |, जो रक्षक है जीवको, नाहें करो पहिंचान रक्षकके चीन्हे बिना, अंत होइगी हान!” * तेहिते तुम साहबको भननकरों जाते साहब के छोकैनार जहां कारूकी गम्यनहीं है तोमें प्रमाण

(६०८ ) बीजक कंबीरदास।

जहां काछकी गमि नहीं, मुभा स॒निये कोई जो कोइ गामे ताकी करे, अनर अमर सो होइ *? साहबते बिमुस करनवाले गुरुवाछोग यम दूतहैं तामेंममाण ॥॥ नानारू- पधरा दूता जीवानांज्ञानहारकाः काछाज्ञांसमनुप्राप्य विचरन्तिमहीतद्धे ?'॥२॥ कबीरजी चौकारमेरघुनाथनीकी पूजा षोड़शही प्रकारकी छिख्यो है तामें प्रमाण चोकाविधानका झाब्द

अगर चंदन घसि चौक पुरावा सत सुकृत मन भावा

भर झारी चरणामृत कीन्हा इंसनको बरतावा

पुरन मौन और रखवारा सतगुरु शब्द छखावा

छोंग ठायची नरियल आरति धोती कलश छसावा

रेत सिंहासन अगम अपारा सों अति बर ठहराया

छांड़े लोक अमृतकी काया जगमें जोरूह कहाया

चौरासीकी बंदि छोड़ाया निर अक्षर बतढाया

साधु संबे मिलछि आरति गावें सुकृत भोग छगाया

कहे कबीर शब्द टकसारा यमसों जीव छुड़ाया

प्रण मासी आदि जो मड़्छ गाइये

सतगुरुके पद परशि परम पद पाइये |

प्रथम मंदिर झराय के चँँदन छिपाइये

नूतन बस्चर अनेक चेंदोबा .तनाइये ॥।

तब॒ प्ृरण गुरु के हेतु ती भातन बिछाइये

गुरके चरण परछाडि तहाँ बेठाइये

गन मोतिनकी चौक सु तहां पुराइयें

तापर नारेयछ थोती मिष्ठात्न पराइये

केछा ओर कपूर तो बहु बिधि स्थाइयें

अछ सुगंध सुपारां छो पान मेँगाइये

पक सहित सो कछूश सँवारिके ज्योति बराइये

साखी ( ६०९ 3

ताूू म॒दज्ञ बजाईके मड़लछ गाइये साधु सड़' के आरति तबहिं उतारिये आरति करि पुनि नरियद्ठझ तबहें मोराइये पुरुषकोीो भोग छगाहइ सखा मिलि खाइये युग युग शक्ष॒धा बुझाइ तो पाह अघाइये। परम अनंदित होइ तो गुरूुहि मनाइये कहे कबीर सत भाय सो छोक सिधाइये

इहांपूजा के मंत्रनहीं लिख्यो सो पुरुष सुक्तनके मंत्र हैं ताते नहीं लिख्यो है॥

दी दिशा कर मेटों धोखा। सो कड़हार बैठही चोखा दशो दिशा कर लेखा जाने। सो कड़हार आरती उठाने #॥ दुशइंद्रीके पारिख पावै सो कड़हार आरती गावे जो नहिं जाने एतिक साजे। चौका युक्ति करे क्यहि काने हिंसे कारण करहिं गुरुआई बिगरे ज्ञान नो पंथ पराई पद्‌ साखी अरुग्रंथ दढ़ावे। बिन परखन उत्तम घर पावे शव्द साखीसिखिपारस करहीं।होय भूत पुनि नरकहि परहीं। विना भेंद कड़हार कहावै। आगिरू जन्म इवानको पाँव पद साखी नहिं करहि बिचारा। भृंकि*जस मरे सियारा पर साखी है भेद हमारा | जो बूझे सो उतरहि पारा जबलछग पूर। गुरू पावै।तब रंग भवन फिरिफिरि आवे। पूरा गुरु जो होय छखावे। शब्द निरखि परगट द्खिलावे।॥ एक बार जिय परचो पावे। भव जल तरे बार नहिं छावे

साखा-शब्द भेद जो जानहों, सो पुरा कड़हार कह कबीर पृमक्ष है, सोह शब्दृहि पार २१८ आस्ति कहो तो कोइ पतीजे,बिना अंस्ति को सिद्धओ कहे कबीर सुनो हो सन्‍्तो, हीरे हीरा विद्ध २१९ हे

(६१० ) बीजक कवीरदास

कबीरनी कहे हैं कि आस्तिकमत जो मैं सबको बताऊंहों तो कोई नहीं पति आयहें काहेंते कि गुरुवा छोगनकी बाणी मानि डनको सिद्धनाने हैं या नहीं जॉने हैं कि ये आस्तिकनहीं हैं साहब को नहीं जाने हैं इनते संसार छूटैगों साहबके जाननवारे जे सांचे साधु हैं तिनहीं ते संसार छूटे है काहेते हीरा ही रैते बेधि जाय है २९९

चर आर सोना सजन साथु जन, टूटि जुरे सो बार श्

दुल्गन कुम्भ कुम्हारके, एके धका दरार २२०

सज्ञन साघुनन जे हैं ते सोनाहै जो सैकरनवार टुंटे फिरि फिरि जुरिनायहे दुर्नत ने हैं कुम्हारके कुम्भ कहे घड़ा जो फूथ तो फिरि नहीं जुरे है अथीव्‌ जो साधुजन कहूं मांगंभं भूलिहनाय परंतु फिरि समझाये -वाहीमे छगिनायहैं खोटी राह डांड़ि देइ हैं दुर्नन ने, हैं ते पड़ासे फूटिजायहैं अर्थाव जौने कुप्तंगमें परे तोनेहीके भये फिरि नहीं बूझे हैं २०२०

काजर केरी कोठरी, बूड़न्ता संसार

बलिहारी तेहि पुरुषकी, पेठिके निकसन हार॥२२१॥

3

यह कामरके कोठरी मार्याहे तोने में यह संसार बूड़िगयों सो वह जीवकी घलिहारी है जो मायामें आय निकसि जाय २२१ काजरदी की कोठरी, काजरदीका कोट तांभी काराना भया, रहाजो ओदहि ओट २२२॥ शुरुूसख साहबकहे हैं कि यह माया काया काजरकी कोठरी है याके कामरहीके कोट बतेहें नाना आशा नानामत माने हैं सो यद्यपि ऐसेह रहो परंतु मोको रक्षक माने रह्मो मेरी भाकेकी ओट हो ओट बचि गयो अर्थीव्‌ मायाते बचिगयो२२२ रू चेक "9 के के अबखब ला दब हू, उदय जस्तढ। राज आल पी ... भक्ति महातम ना तुले, ये सब कोने काज २२३

साखी (६११)

अवैखबलों द्ब्यमई अथवा अर्बृसबैलों विद्याकों पदजाता भयो साखी शब्द चोपाई दोहा कंठ भये सब शाख कंठभये उदय अस्तलों राज्यमयों बड़ों बादशाह भयो सबके अपने बश केैलियो अथवा महंत भयो पंडित भयों सबके उदय अस्तढों चेढा करिलियो शाखाथे करके नीतिडियो मन जीत्यों तो कहां कियो भाक्तिके माहात्म्यकों नहीं तुझेंहे २०३

मच्छ बिकाने सब चले, दीमरके दरवार रतनारी आँखियांतरी, तू क्यों पहिराजार २२४

मनमें रंगिके सबनीव मच्छमायाकीं अनुभव ब्रह्म है ताहीके हाथ जीव बिकाय गये टमरके दरबार सब चले नायहैं अर्थात्‌ कार मनरूपी जालमें सबके फँदायलेइ्है ताहीके दरबार सब चलढेनायहें अर्थात्‌ मायाके मारिबेकों सब उपायकरे हैं के माया को नाशकेके ब्रहहैनायँ मनरूपी जाहमें फनदें मछरी जो मायाकी अनुभव ब्रह्म ताही के साथ बिक्राय गये अथौव वही में छीनभये ताहपे काछते बचे सो साहब कहे हैं कि तेतो मेराहे तेरे ज्ञान नयन रतनार रहेहें कहे मोमें तेरों अनुराग रहे है तें कांहे मनहूपी नाहूमें परेके कालके दरबार चढ़े जाय॑हे जामें मेरों अनुरागंहे वे आपने ज्ञान नयन खोलु मेरी निर्गण भक्ति छा गुणवारी है सो करु मेरे पास आइके मन माया कालते बचि. जायगो २२४

$, आक बा पानी भीतर घरकिया, शय्या किया पतार + विज ऊर6 आप पांसापराकरमकोा, तवमस पाहरा जार २२७ जीवमुख।

'जीवकहे हैं कि में बाणीरूप पानीमें घराकैयां है गुरुताछोगं वाणीको उपदेश करिके वही बाणीरूप पानीर्भ डारि दिये संसाररूपी जोपतारहै बन तामें शय्याकिया तब कर्मको पांसापरयों तामें मनरूषी जाल भें पाहिरयो अर्थीद मनरूपजाछू में फंदिगयों २९५

(६१२ ) बीजक कबी रदास

मच्छ होय ना वाचिहो, ढीमरतेरे काल जेहि जेहि डावर तुम फिरों, तहँ तहँ मेले जाल२२६॥ हें जीव ! जो तुम मच्छ जोहे मायाकों अनुभव बह्न सोई हेके नो बाचा- चाही तो बाचोंगे तेरों फैदावनवारों ठीमर जो है मन सोई कालह सो तुमको फूँदायके कालके घर पहुँचाय देइगो अथोव जों ज्ञानकारे ब्रह्मह हेनाउंगे तबहे माया धरिद्दी है आवैगी अथवा समाधि करिके प्राणको ब्रह्मांड में पठायके ज्योति में ठीनो होडंगे तबहे माया धरिडे अविगी तेहिते जोने जीने मत जे डावर तामें फिरोंगे कहे मतमें छागोंगे तहातहों या मनरूपी दीमर जाहू फेंकिके तुमको घरिंही है अविगो तेहिते मन वचनके परे जो भक्तियोग तौनेका जानो तब वह कालते बचोंगे सो भक्तिके गुग पाछे कहिआये हैं भक्तियोग : मन्‌ बचनके परे है तामें प्रमाण कबीरजीके शब्दावछी ग्रन्थकी ऋब्द। अबधघ ऐसा योग बिचारा जो अक्षरह सों है न्‍्यारा जौन पवन तुम गड्डः चढ़ावों करो गुफाम बासा | सोतो पवन गगन जब बिनरी तब कह योग तमासा॥ जबहीं विनरें इंगलापिंगछा बिनशे सु्र॒ुभन नारी जो उनमुनि सो नाडी ढागी सो कह रहे तुम्हारी मेह दण्डमें डारे दुढेचा योगी आसन स्थाया। मेर्र दण्डकी खाक उठेगी कच्चे योग कमाया सोतो ज्योतिगगनमें दरही पानीमें ज्यों तारा | बिनशी नीरनसों जब तारा निसरोंगे केहि द्वारा दवैैतकाग बैराग कठिन है अटके मुनि जन योगी अक्षरलों सब खबंरि बतावे जहँलों मुक्ति बियोगी सोपद हा कहे सो न्‍्यारा सत्य असुत्य निबेरा कहे कबीरताहि रखुयोगी बहुरि करिये फेरा २२६

साखी। (६१३ )

विन रसरी गरसव बँध्यो, तामें वँचा अलछेख दीन्हो दर्पण हाथमें, चशमविना क्यादेख॥२२०॥ गुखसख बिनरसरी सबर्रेंगर बाँधिलियों ऐसो जो है धोखातह्म तामें अछेख ने जीव हैं ते वँबे हैं साहब कहे हैं तिनके हाथमें दर्पणदियो रामनाम बताइ दियो से चशम तो हैं नहीं कहे रामनामकों श्ञानतों है नहीं:आपनोरूप कैसे देखें किमें

साहबको अंशहों मकार स्वृूपहों जब आपनोरूप नजान्यों तब मोकों कहां जाने २२७ ||

समुझाय समझे नहीं, परहथ आप विकाय मखचतहा आपको, चला सा यमएर जाय २२८ ॥|

9 को के

साहब कहै हैं कि में बहुत समझाऊँहों कि तें मरो है मेरे पास आउ आनके हाथ कहां बिकान जायहे नानामतनमें छांगे है बरह्ममें छागे है कि आपहीकों

माछिक माने हैं सो में वहुत खँचोहों आपनी ओर कि तें मेरे पास आड़ यह यमपुरहीकों चछोनायहै ९२८

लोहे केरी नावरी, पाहन गरुवा भार शिरमें विषकी मोटरी,उतरन चाहे पार २२५९॥

या काया लोहेकी नाव संसारसमुद पारनाबेकों है मन पाहन ताके गरुवाभार भरो है तापंर विषयरूप बिदंकी मोटरी शिरपर लीन्‍्हे है सो मीद

जे 9. अरे.

कसके पारणाय २२५९

कृष्णसमीपी पाण्डवा, गले हेवारहि जाय लोहाको पारसमिले, काई कांहेक खाय ॥२३०

कृष्णसमी पके बसनवारे पाण्डवा ते हेवारमें गलेजाय सो कृष्णचन्द्रकों जो बे जानते तो हेवारमें काहेको जाते काहेते नो पारसमें छोहा छुइ नातो है तामें

काई नहीं छंगे हे अर्थात सोनाहै नायहै साहबको जाननवारो पारसही है जायहे

(६१४ ) बीजक कबीरदास !

यामें या हेतुहै कि ले नीकी तरह साहबको जाने हैं ते यही दे है जायहैं सो गोपी याही देंहै गई हैं सो अह्मतैवर्तक में प्रसिद्ध है सो गोपिका नीकी प्रकार जान्यो है २३० गे सप रे रे

पूरवऊगे पश्चिम अथवे, भखे पवनको फूल

ताहूकी तो राहुगरासे, मानुषकाहिकभ्ूठ २३१

पूरबते सूये उगे हैं परिचिम अथवै हैं पचनको फूछभख हैं अर्थात्‌ प्रबल पवन चले है वाही श्रमतरहै हैं ऐसे सूर्य हैं तिनहूं सूर्य को राहुगरांसे है भरें मनुष्य जो तें भूले है कि पवनतेमें आत्माको चढ़ाय लेडैंगो हजारन वर्षपवने खाय जिवोंगो मुक्त दै जायगो सो तें केतेदिन पवनखायगो जे सूर्य केतीदिन पवनखायो ताहको कालराह गरासे है तें कैसे काछते बचौंगे २३१

नेनके आगे मन बसे, पलपलकरे जो दौर

0 हे पूः तीनि लोक मन भूपहे, मन पूजा सब ठोर २३२ ज्ञाननयनके आगे मनहीं बसे है वह धोखाब्रह्म मनहों को अनुभव है पलपलमें दौरे है नयन बिषयनमें लगे हे नानों मतनमें छगे हैं नानाज्ञान बिचा- : रकरे हैं तीने छोकमें या मनहीं भूपहे मनहों की पूजा सब ठोर होइहै अथीव मनहीं ब्रह्म है पुावि है मनहों जीवात्माकों ज्ञान करे है कि मेहीं मालिकहों जो मनंके परे साहब हैं ताकी कोई नहीं जाने हैं २३२ मन स्वारथ आपहि रासिक, विषय लहारे फहराय कप + मनके चलते तन चलत, ताते सरवसुजाय २३३॥

या आपनो स्वार्थ मनहोंकी मानिलियों मनकी रसिक आपही भयों अर्थोत मनको रस आपडहीं छेइ है मनके किये जे पाप पुण्य तिनकी भोंगिया आपढही बन्यो है याही हेतुते याके बिषय लहरि फहरायरही है सोई विषयनको जब मनचल्यो तब जीवहु चस्यो मनके चलते तनहूं चस्यो जाय है बिषय करनकों ताते सरबसुहानि या नीवंकी होती है अथीव्‌ बिषय लिये पापादिक कर्मकियों ' न्‌रककी गयो येई बिषियन लिये अप्सरनकों भोगकरे है नानायज्ञादिक कियों

साखी ( ६१५ )

स्‍्वगेको चछो गयो सो सर्बंस याकी साहबहै तिनके ज्ञानकी हानि ह्वेगई पाण्डवनके दृष्टांतते उपासनाकाण्ड सूयके दृष्ांतते योगकाण्ड मनके अनुभवके दृष्टांतते ज्ञानकाण्ड बिषय लहारिके दृष्टांतते कर्म काण्ड कहो सो इनमें छूमिके नित्यबिहारा साकेत निवासी जे श्रीरामचंद्र तिन को जीब भूलिगये याहीति जीवनकों जरा मरण नहीं छूटे है २३३

ऐसी गति संसारकी, ज्यों गाड़ूरकी ठाट एक पराजो गाड़में, सबे जात तेहिबाद २३४ या संसारकी ऐसी गंति है जैसे गाड़रकी पाँति जो एक गाड़में गिरे तो

वाहीराह सिगरी गिरंती नायहैं सो या संसारको भेड़ियाधसान यही है एक जो कौनो मत गहै तौ सिगेरे वा मतगहें नीकनागा को बिचार करें ॥२३४॥

वा मारगतो कठिनहे तहँ माति कोई जाय जे गे ते बहुरे नहीं, कुशलकहे की आय २३५॥

वामार्गतो महाकठिन है जें साहबके पास जायहैं ते नहीं छोटे हैं उनको जनन मरण नहीं होयहै इहां फिरि आइके वा मागैकी खबरिको कहे अथीव्‌ कुशछ को बताबै रहिंगे कुसंगी तिनकाो संग करके जीव नरक की चले जाय हैं साहबकों जाने २३५ ले $ पक पे 8 का मारी मरे कुसंगकी, केराके ढिग बेर ञँ विद रे ही $ श्र वह हाले वह अँगचिरे, विधिने संगानेबेर २३६॥ केराके साथ बैर जाम है ते नैसे बैरके हाले केराकी अंग फटिनाय है वाके काँटाते तैसे कुसंगकीन्हे साहबकों ज्ञान जातरहे है गुरुवन के वचनजे हैं तेई कॉटाहें गुरुवाछोग बेरहें २३६

केरा तबहिं चेतिया, जब ढिगलागी बे रि॥ अबके चेते क्या भया, कॉटन लीन्हो घोरि २३७

(६१६ ) बीजक कबीरदास

झरूखुख

साहब कहे हैं कि भरेकेरा ! अरेजीवो तैंतो बड़ोकोमरं है तब चेतकियो जब तरे समाप बेरलागी अर्थीत्‌ गुरुवा छोग उपदेश करनलगे अब तेरे चेते कहाभयो अबतो उपदेश रूप काँटा तोको घेरिलियो मेरे ज्ञानको फारिडारचों भब कहा चैते है तामें भमाण “आछेदिनं पाछे गये कियो हरिसोहित'” अब क्‍या चेते मूढूतें, चिडिया चुनिगईं खेते २३७

जीव मरण जाने नहीं, अंधभया सब जाय बादीद्वारेदादिनाहिं, जन्मजन्मपेछिताय २३८

सो कवीरजी कहे हैं कि साहब या जकारते उपदेश करे हैं जीवको काई मरण नहां जाने है कि हम मारे जायेंगे हमारों जनन मरण छडटैगों - सी एकतो आंधरही रहे साहबकों ज्ञान नहा रहे तांपे गुरुवनकों उपदेश भयो

रा

अधिरत आपर होत जाय हैं बादीके दोरे दादि नहीं पांव अथांव जासेों पढे

है कि हम केनिके हैं हमारो जनन सरण कैसे छूटे नरकते कौन हमारी रक्षा करे तो वेती बादी हैं साहबकों कैसे बताये ओर और मतमें छगाय दियो फिरि यादिह किये साहबके पाये तातें जगवमें पछितायहैं जनन मरण

कप

छूटयों गुर्वासाहबकों ज्ञान मलाय दियो तामें पमाण बिप्रम असीकी

बिन परशन दरशन बहुतेरे द्वे हैं ब्रह्म ज्ञानी बोन विना बिज्ञान कयैगो धोखाकी सहिदानी ऊतिम उपासी कम्म बिलासी जायें ते नन यमदारं। हम करता भाजे करता हेरहे औरे के उपकारं राम कहंगा सो निबहेगग उलटि रहे जो गाटा पासा दुदुर बहुत डठेगा राम भक्तिके आडा हिंद तुरुक दोऊ दल भूले छोक बेंद बटपारं सत गुरु बिना सिद्धि नहिं कोई खिरकी केन उचघारं ३८

साखी (६१७)

जाकोसतगुरुनामिल्यो, ब्याकुलचहुद्शिधाय आँखिनसूझवावरा, घरजारघ्रब॒ुताय २३९॥

मसरुसरस जाको सतगुरु नहीं मिले हैं सो ब्याकुल हके चारों ओर धावेहै कहुअहममें कहेगाना ईश्वरनमें नानामतनमेंछांगे हे कि हमारी मुक्ति द्वैनाय सो भेरे बावरे तेरी आंखिनमें नहीं सुझे है औरे औरे मतनमें निशवय करे है सो घूरहे ताको कहा बुतावैहै मेरोरूप आपनोरूप ताको तो नानु या बरतो जरोनाय है ताको-

किक

बुताड जांतें जनन मरण छूटे घर बुताये कहा है २३५९ अनतबस्तुजोा अनेतेखोज, केहिविधिआवैद्यथ || ज्ञानीसोइसराहिये, पारिखराखंसाथ २४० .

श्रीकबीरनी कहे हैं [कि अततकी बस्तु अनते खोने है कहेयह जीव साहबको अंशहे सदाकों दास है तोनेकों कहै हैं कि ब्रह्म को है देवतनकों है ईब्वरनको दासहै सो जोने साहबको दाह ताको तो नानबही कियो आपने स्वरूप कौनी रीतिते जाने सो हम तो सोई ज्ञानीकों सराहते हैं जो पारिख अपने साथ राख है कि हम साहबके हैं दृलरे के नहीं हैं ब्ह्मके मायाके ईशवरन के हैं स्लोई सांचि ज्ञानीकों हम सराहते हैं २७४० सुनिये सबकी, निवेरिये अपनी -सिन्धुरकी सेंदोरा, झपनीकी झपनी २४१ जहाँ जहाँ सुनिये तहाँ तहाँ साहबहीकी बात निबेरि छीजिये ओर मत खण्डन करि डारिये काहेते कि वेदशाख्र सोई है जामे साहबकों परत्वहोद जोकहूं वेदशाखक- रिके साहबको जान्‍्यो ताको उपदेश यहि रीतिते जेसे सिंधुर जो हाथी ताको सेंदुर शृड़ारकियों वे शुण्डत धूरिभरियों झपतीकी झपनी कहें जैसे रत झपिगई तैसे नबरों उपदेश सुन्यो तबछो ज्ञानरदयो फिरि नहींरहे जोने वेद शाख्रमें साहबकी परत्वहाइ सोई अथे ।! तार्मे प्रमाण चौरासी अंगकी साखी॥ “राम नाम निज

05 ०. 3 कृ आर आकर. #

जानिले, येही बड़ा अरत्य॥काहेकों पढ़ि पढ़ि मरे,कोटिव ज्ञान ग्रत्थ!॥२४१॥

श्र

(६१८ ) बीजक कवीरदास

बाजनदेवायंत्ररी, कलि कुकुरी म॒ति छेर ' तुझे बिरानी क्या परी, तू आपनी निबेर॥ २४२ जे और ओर बातें सबकहै हैं सो या शरीर यंत्रकहे बीणा है जैसों बनवैया बजावे है तैसोबाने है ऐसे या शरीरमनके आधीन है जहां चाहे तहां चंडे है कह बक बक करावै है कहूं बह्ममें छगावे है नानामतनका सिद्धांतकरे है सो वा यंत्रकों बाजनदे मन बेकछकुकुरिया है वाको विष जो तेरे चढ़ैगो ते तुहँ बेकलद्दैमरि जाइगो अर्थात्‌ चौरासी योनिमें परैंगो सो तोको बिरानी कह प्री है तें आपनी निवेरु नो तेरे यन्त्र बाने है सुराति कमलमें गुरु राम नाम ध्वनि उपदेश देईं हैं ताको ध्यान करू राम नाम शब्द सब शब्दते अछगहै सोई सॉचहै और सब मिथ्याहै सो तें राम नाम ते सनेहकरु राम नामकी सनेही मरत नहीं है तामें मरमाण कबीरणीकों “शुन्य मरे अजपा मरे अनहद हू मारे जाय राम सनेही नाम मेरे, कह कबीर समुझाय” ॥२४२॥ गावें कथें विचारें नाहीं, अन जानेको दोहा कहकवीरपारसपरशेबिन,न्योंपाहनविचलीहा ॥२७३॥ नाना पुराण नाना शाख नाना मत गावे हैं उनको कथनी करे हैं और औरको समुझावे है परन्तु सब शाखको अर्थ साहबही हैं यह नहीं बिचारे हैं जैसे शुक चित्रकूटी राम कहि दिये चित्रकूठकों अर्थ रामको अर्थ जाने है आने में आन साने है रसाभाव करे देयहै ऐसे सब शाखको सिद्धांत जो जो साहब पारस रूप तिनकी तो जानतहीं नहीं है कोनी रीति जीव छोहा कश्व होइ अर्थात जब सपशी होय उनको जानि उनमें छंगे भनन करे तब कन्च- होय २४३ में 8 आई का. आप प्रथमें एक जो हो किया,भयासी बारह बाट ॥| कसत कसौटी ना टिका, पीतर भया निराट ॥२४४॥ अ्थममें यह जीवकों एक कियो कहें एक राहमें लगायो कि मेरी भाक्ते करे गो तो संसारते छूटि जायगो यह बारह बन भयो कहे आपने रूपी बाणकों

साखी (६१९ )

बारह लक्षमें छगायो अर्थत्‌ छःशाखके सिद्धांतमें छ/दरशनमें लगाय दियों बारह बाट भयो मोको जान्यो सो जब ज्ञानरूपी कसौरटीमें कस्पो कि साहब को ज्ञानहै कि नहीं तब पीतरही द्वैगयों जगवम॒ख ठहरयो साहबमख ठहस्थों सहाबको ज्ञान सोना ठहरये २४४

कि भक्ति विगारिया, कंकर पत्थर घोय॥। अन्द्रमें विषराखिके, अमृत डारे खोय २४५

कबिरा जे जीव हैं ते भाक्ते को बिगारे डारथो कंकर जो है जोने को पत्थर जो है मन तामें धोयकै॥“पाहन फोरे गेगयक तिकरी चहुँदेशि पानी पानी॥'' या पदमें पृहन मनकी किखि आये हैं सो पाषाणमें नो कंकरपोवें तो और चरचरहे जाय सो मेरे भक्तिरुपी जलमें आपने अणनीव कन्करको तें नहीं धोये पाथरमें घोये ताते चूरचूरहैे नानामत नानादेवमें छागे आपने स्वरूपको जाने

अन्दरमें विषयरूपी बिषराखि अमृतरूप साहबको ज्ञानताके: खोइ ड|्यो॥२४५॥ रही एककी भई अनेककी, बेइया बहुत भतारी कहकवीर काके सँगजारिहे,बहुत पुरुषकी नारी २४६॥ गुरुसुख साहब कहें हें कि हैं नीव! तें तो मेरों रह्मो है सो तें अब बहुत मतनमें - लगिके बहुत मालिक मानन रुग्यों सौ कीन तेरो उद्धार करेगो बहुत भतारी बेइया काके काके साथ जरेगी २४६ तनबोहित मन कार्गहे, लखयोजन उाड़ि जाय कषहा दौरया अगमवह, कंबहां गगन समाय ॥२७४७॥ ये चारिउ शरीर बोहित कहे नावहैं तामें मनरूपी काग बेठाहै सो लख यो जनछीों उठ़ि मायहे कबहूं संसार समुद्रमें वहत रहे है ओऔ कवहूं पँचवां शपर नो केवल्य चैतन्यकाश अगम जायेबे छायक नहीं ताममें मह|मछयादिकनमें समायहे

से

सो ने हरिकी शरण जायहैं ते याहि संघार समुद्रकों गोखरकी तुल्य डतरि

( ६२० ) बीजक कबीरदास

जाय है तामें प्रमाण “'इच्छाकर मवसागर बोहित राम अधार॥ कह कबीर 'हरि शरण गहु गोबछ खर बिस्तार २४७

ज्ञान रत्रकी कोठरी, चुपकारे दीन्ही ताल

पारखि आगे खोलिये, कुंजी वचन रसारूू २४८

ज्ञान रत्की जो कोठरी है तामें चपको तारा, दीन्‍्हे ही रहिये जो कोई समुझनेवारों पारखाहोई ताहीके आगे रसालबचन कुनीते चुपको तारा खोलिके

[काका

'जशानका अकव्कारय काहत के नहा समुश है तनतक आग ने काहेथ साह- 'बंके ज्ञानरतल वे कहाजान॥ *४८

स्वगेपतालके वीचमें, द्रतुमरीयकबिद्ध घटदशेन संशयपरो, लखचोरासीसिद्ध २४९

यह स्वगे पतालरूपी वृक्षमें जीव ईशवररूप दुइतुमरीछगी हैं तांम जीवरूपी 'तुमरीबिधी है कहे जीवहीते नानाशब्द निकसे हें शशेर सारी हैं सो येई ने जीवहें पटदशनआदिंदेके तिनकी नाना मंतकरिके संशयपरों है साहबको नहीं जाने हैं एक सिद्धांत नहीं पाँवे हैं तिनको चौरासी छाख योनि सिद्धि बनी हैं -भटकतहीं रहे हैं २७४९

सकलादरमांदद्ारकरु, अच्छाजन्मबनाउ

कागगवन बुधिछोड़िदे, हंसगवनचलिआउ २५०

साहब कहे हैं कि भरे जीव ! तेरी जो सकलहे शरीर सोई दर्मते है सो 'पांचो शरीरतकों छोड़िदे आपनो अच्छो जन्म बनाड कागबुद्धि को त्यागु 'मेरो दियो हेस शरीर तार्मे टिकिके मेरे पास आई २५०

जसीकहे करे जो तेसी, रागद्वेष निरुवारे तामें घंटे बढ़े रतिओं नहि,यहिविधिआपसँमारे॥२५१॥ गरुसुख साहबक कहे हैँ के जैसो डपाय में तेरे छटिबेको कहि आयें है तेसोकरे बरि

संसारमें नाना रागद्रेष करिराख हैं ताको निरुबारे मोमें ग्रीति रकत्तिउइभर घूटे पाते एकरसही आजै २०१

बन

साखी। ., (६२११ )

द्वारे तेरे राम जी, मिला कबीरा मोहिं॥

तूतो सबमें मिलि रहा, में नमिलोंगा तोदिं २७२

साहब कहे हैं किहे जीव! तेरे मुखद्वारमें मेरा राम असनाम बनो है ताको भनन करि हे कबीर! जीवो मोको मिलो लो कहो कि साहब दयालु हैं वोई मिलिबेकी सामर्थ्य देईँगे सो सत्यहै तेरी दया मोंकों लगे है परन्तु तें सबसमें मिल्रिहा है ताते में तोका मिलुंगा तें सब छोड़िदे तो में तोको आपसे

मिल्नों आइ २५२

भर्मपरातिहुलोकमें, भमेबसों सब ठाड़े

कहहि कबीर पुकारिके, बसे भमेके गाउँ॥ २५३

कबी रजी कहे हैं कि हे जीव! साहब को तें कैसे मिले काहेते कि तीनें लोकमें कर्म भर्म नो है बोखाबह् सो भरों हे तिनमें भर्म बसो है भरमहींमें सब मिलिरहे हैं भरमके पार ने साहबंह तिन को तो जानबेही कियो ॥२५३॥

रतन लड़ाइनिरेतम, केड्टर चानेचाने खाय ॥।

कहकवीरयहअवसरवीते, बहुरिचलेपछिताय ॥२५०॥

रतन जो है साहब को ज्ञान ताको रेतमें लड़ाय कहे छगाय दियो अति- कठोर जो है कड्ढर ब्रह्मज्ञान तामें आत्माकों छगायो चुनिच्नि खानढग्यों सो कबीर जी कहे हैं कि जब या अवसर बीति जायगो अथौत्‌ शरीर छुटिनायगों तब पछितायगो वा थोखान्रह्म में कुछ मिलेगो २५७४ कण,

विद पाप जेते पत्रबनस्पती, गड्ाकी रेणु॥ 4३० #क हे पण्डितबिचारा क्याकहै, कविरकहे सुखबेणु ॥९«७०)॥ सारासारके बिचार करनेवारे पण्डित तोको केतो समुझावेंगे कबीरनी कहेहै हैं कि जेतो में समुझायो है कि बनस्पती पत्र गिनि जायें गंगाकीरेणु गनी- गनिनायें परन्तु मेरे मुखकेबैन गने नहीं गिनिनायहैं तक तुम बूझबो॥२५५॥

[आप च्ब्श्‌

परानी प्रतियोंमें इस शब्दके लिये “रमाइन”” लिखाई !

६२२ ) नीजक कवीरदास

ुफ $ किक वीक $

हमजान्यो कुलहंसही, ताते कीन्हो संग

जो जनत्यों बकबरणहो, छुवन देत्योंअंग ॥२०६॥

कबीरनीकहै हैं कि हमतो तुमको हंसके कुछमें जानते रहे हैं ताते तुमकों उपदेश कियो तुम्हारों सड़' कियो है नो तुमको ब॒के के बणे जानते कि हंस नहींहो तो एको अंग छुवन देत्यों अथीत्‌ उपदेशकी बातहू चछावतो उप« देश को कौन कहे २५६

गुणिया तो ग्रणको गहढै, निगुर्ण गुणहि घिनाय

बैलहि दीजे जायफर, क्या बूझे क्या खाय २५७

गुणियाकहे जोसगुणहोय है सो गुणको गहे है सत रण तमको जो धारण करे है सो अशुद्धई रहै है ते मायाते नहीं छूटे हैं ओनो निगुण उपासकहोइ है सो सगुणको पिनाय हैं सो निशणोवाले सगुणवाल्े साहबके गुणको कहा- जानें वेतो सगुण निगुणके परे हैं मायाकृत गुणते रहित हैं दिव्यगुण सहित हैं कहते कहे हैं कि बैठके आगे जो जायफर धरिदीजिये तो कहा बूझै क्याखाय ऐसे वे साहबके गुणकी कहाजानें २५७

अहिरहु तजि खसमहु तज्यो, विना दाँतकी ठोर

मुक्तिपरी बिललातिंहै, वृन्दावनकी खोर॥ २५८

बिनादाँतकीं ठोरनों है बूटा गाय बेल ताको: अहिरी चराइबो छोड़िदेइ है और खसम नो है बैलकी मालिक सोऊ छोड़ि देह है अथीव्‌ बूढाजानिके कि भरे कामको नहीं है तब वह बैछ बृन्दाबनकी खोरे बिलछानग्यों ऐसे जब मनरूपीदेत उखारिडारयों तब अज्ञानअहिर याको छोड़िदियों याकी ससम जो है माया सबलित बह्म सो जब॒ मन रहिंगयो तब याहू छांडिंदियो तब आपहदीआप मुक्त हैं गयो सर्वत्र साहबहीको देंखन लग्यो जैसे वृन्दावनमें डारमें थातमें कृष्णदेखिपरे हैं मुक्ति परी घिलछाइहै काको मुक्तकरे ऐसे यहू सर्वत्र साह- बंकी देखनेलग्यो मुक्तही ह्वैगयो मुक्तिकाकों मुक्तकरे तामेंग्रमाण सबन- दियाँ गज्गञ)भई, सब शिक्त शालिग्राम सकड़ो बन तुलसी भयो, चीन्हो आत्माराम” २५८

साखी ( ६२३ )

मुखकी मीठी जे कहें, हृदयाहै मति आन

कहकवीर तेहिलेगसों, रामो बड़े सयान २७५९

जो या भाँतिते मनकी त्यागिके सर्वेत्र साहब को देखे हैं तिनकी साहब सर्वत्र देखिपरे हैं जिनके मनमें मुख में आनिभान है तिनकी कबीरनी कहे हैं कि रामऊ बंढे सयानहैं अथीतव्‌ उनते दरें हैं २५९

हें इतते सबतो जातहें, भार लदाय लदाय उतते कोइ आइया, जासों पछों चाय २६० नानाकम्मेके नाना उपासनाके नानाज्ञानके भार छदाय-लदायइतते सबनात हैं परंतु उहांते ऐसाकोई आया जासों धायके उहांकी खंबारेपूछो कि कोनफल- पाया सो आपनेहोंनन्मकी खबरें नहींनाने साहबकी खर्बार कहानोने॥२६०॥ 4१0 [का आर का शा भक्तिपियारीरामकी, जेसी प्यारी आगि॥ ९5५ 2. रे सा + कप सारा पाटन जरिगया, फिरि फिरि दयावेमोंगि ॥२६१॥ यहभक्ति साहबकी बहुतापयारी है जैसे आगि पियारीहो३ है कि आगि छूगी सारापाटन कहे शहर जारैनाय पुनि आगीकी चाहना बनीहीरहे है पूनि पुनि मांगिलेआवै है आपनी करे है काम छोग ऐसे साहबकी भक्ति केतीछोग साहबकी भक्तिकरे संसारते पारदे गये परंतु अबतक नो कोई भक्ति करे है सो पिभरे होत जाय है संसारते उतरिनाय है २६१

नारिकहावे पीउकी, रहे ओर संग सोइ जारमीत हिरदे वसे, खपमखुशीक्या होइ॥२६२॥

नारितों अपने प्रीतमकी कहावै है आनपति छैकै सोइ रहें है ती खसम केस ख़ुशी होय ऐसे यह जीव साहब को अंश है और और मतमें छूग्यो कहीं बह्य में कहीं माया भ॑ सो साहब केसे ख़शी होय २६०२ जे रः [0 सजनतो दुर्जेनमया, सुनि काहुकोबोल | जी 4

कॉपातावाहेरहा, नहिं हिरण्यका मोल २६३

( ६२४ ) बीजक कबीरदास

'सज्ञन गुद्ध नींव हैं ते गुरुवाछोगन के बोछ सुनिके दुर्जन द्वैगये सो जों द्ग्ण्यिका मोल है सो जातरहा कॉँसा ताँबाकी तुल्य हैरहा है २६३

| कप विरहिन साजी आरती, दशनदीजे राम विद 8 8 मुर्येत दरशनदेहुगे, आंवे कोने काम २६७॥ कबीरजी कहे हैं कि जे श्रीरामचन्द्रके बिरही जीवहें ते आरतीसाने खड़े हैं कि जो रामजी मिरें तो आरतीकरें संसार छोड़े एक तुम्हारे मिलिबेकी आशा किये हैं से हेसाहब ! दर्शनदीने मुयेते दर्शनतो देवही करोगे परन्तु औरे जीवन के काम आवोगे कांहेते वेती उपदेश करही आवेंगे साहब बिरहीको मिले है तामें प्रमाण चोरासी अज्गभकी साखी “बिरहिन जरती देखिकै, साई आये-

#/ 5० /“«. ऑल,

घाय प्ेमब॒न्दते सींचिके, हियमें छई छूगाय'ः!॥ २६४७ |

पलमें परलयवीतिया, लोगन लगी तमारि आगिल शोच निवारिके, पाछे करो गोहारि २६०५

पलभरेमें प्रढयतेरी होती नायहै आयुक्षीण होती जायहै यही तमारि लोगनंके लगी है फिरे वा घरी नहीं मिले ताते आगिढ शोच छॉँड़िदेव नौन धन जोरि जोरि सत्री छरिकनहेत धरयोहे पाछिल गोहारेकरी साहब को जानो जाते जनन मण्ण छूटे २६५

एकसमाना सकलमें, सकलसमाना ताहि

कविरसमाना बूझमें, तहाँ दूसरा नाहि २६६

एक जो ब्रह्महे सो सब जीवनमें समाय रहो है कबीरजी कहे हैं कि में बूझमें समान्यों है अह्मके भकाशी सब जगत्‌ के अन्तस्यीमी ऐसे ले श्रीयमचन्द्र तिनको जब बूइग्ों तत्र वही बूझमें समायरक्यों है सर्वत्र साहबहीं को देखनलग्यों दूसरा ने देखत भयों मुक्तद्वे सांचा दासभयों तामें प्रमाण

कबीरनी को “जीवन मुक्ते ह्वरहै, तजें खहककी आ4॥ आगे पीछे हरिफिरें, क्यों दुख॒पावि दास ”॥ २६६

साखी ( ६२५ )

यकसाध सवसाधिया, सबसाधे यकजाय॥ उलदिजो सींचे मूलको, फूले फठे अघाय २६७

एक जो साहबकी भक्तिह ताके साधे सब सपिजायहै अर्थात्‌ छोकी परलोक

बनिनायहै और सब साधेते अर्थात्‌ नानामतनमें छागेते एक नो साहबकी भक्ति

सो जातरहै है ऊपरते वृक्षके जहमें डारिराख तो पत्ता फूछफक सरिजायहैं

जो वृक्ष को मूछते सींचे तौ्‌ फूलेफले अधायके ऐसे सबके मूछ साहबहैं के ओर

तिनकी भक्ति कीन्हे सब फूलैफले है दूसरेंकी चाह नहीं रहिजायहै दूसरे की उपासना में संसार नहीं छूटे है २६७

छत हर | $ #*२+ (8०... जेहि वन सिंह संचरे, पक्षी नहिं उड़िजाय रे 6 4 ०) सोवन कबिरन हीटिया, शुन्यसमायि छूगाय ॥२५६८॥ जेहि बाणी रूप बनमें कहे नेहि बाणीते ब्रह्म ज्ञानी कयै है तौनी बाणीमें सिंहजे हैं शुद्धनीव साहबके जाननवोर ते नहीं संचरे हैं कहे नहीं जायहैं ओं पक्षी जे हैं नानामतवारे नानाशाखवारें ते आपने आपने पक्षकारे बह्चको बिचा* पी हें जे ऑपव० कब का को पे जार हा रे मा रकरे हैं उड़े हैं पार कोई नहीं पावे हैं सो तोने बनकों कबीर जे हैं जीव सोहीं ठिया कहें हीठत भयो वहीं शन्‍्य समाधि छगायंके साहबकी प्राप्ति भई तामें प्रमाण चोरासी अड्गकी साखी शून्य महछमें सुन्दरी, रही अकेढ्े सोइ पीठ मिलयो ना सुखभयों, चली निराशा रोह *? ९२६८

बोली शक अमोलहे, जो कोइ बोले जानि हिये तराजू तोलिके, तब सुख बाहर आनि॥ २६९॥

से वें श्न्य समाधि लगायके शरन्य बह्में नायहें तिनकीं कहि आये अब ज्ञान कारेकै जे बह्ममें लीनहे हैं तिनकी कहे हैं कि वह बोली सोह अमे|छ ताको जो कोई जानिंकै हियेके तराजूमें तौलिके मुसंक बाहर लैआइके बोछे कहे श्वास दवासमें यही जंप जातमें सो आवत में हृदय तराजुमें यही तेल के सो पाषेंदरूप हेस साहब को है २६९

(६२६ ) वबीजक कवीरदास |

पा कप 4. वोहूतोवैसहिमया, तू मतिहोह अयान॥ तू + [अर के है

गुणवंता वे निरगुणी, मतिएकेंमें सान २७०

श्रीकबीरनी करे हैं के योगी तो समाधि करिंके शृन्यमें गयें वह जे हैं वह ज्ञानी सहजसमाधिवांरे तौनो ज्ञानकारिके वेंसेमयें कहे वही शून्यमें समाय रहो तू मति अयान होय कहे अज्ञानी होइ तूता गुणवंता कहे दिव्यगुण सहित जे साहब हैं तिनको है दिव्यगुण तेरेहहै निर्गुण नो धोखा ब्रह्म तामें तू काहे साने है तू मतिसान सँचांहैकै त्‌ असौँच काहे होइहै २७०

साधू होना चहहुजो, पकाके सेंगखेल कच्चासरसों पेरिके, खरी मया नहिं तेल २७१॥

जो तुम साधु होना चाहो तो पक्के ने साहबके जाननवारे तिनके संग खेल कहे सत्संगकरों जो तुम और नाना देवता नाना मतनमें लंगोंगे तो - तुम्हारों छोके बनेगे। परलोंके बनेगो नैसे कन्च सरतों को पेरनों तेे भयो खरी भई २७१

सिहेकेरीखालरी, मेढ़ा ओढ़ि जाय . बाणीते पर्िचानिया, शब्दहि देत बताय २७२

सिंहकी खालशीकह शुद्ध जीवनको वेष गुहवाछोग संप्तार में बनाये कण्ठी छापा टोपी दीन्‍्हें हैं सबकोग जानें कि बढ़े साधुहैं मैसे सिंहकी खाली मेद़ाकों वढ़ायदेइ अर्थीत्‌ मढ़िदेइ तो सब सिंहैकी नाई जनि हैं परंतु जब स्याँ भ्यो बोझन लग्यो तब बाणी ते जानि परेड कि सिंह नहीं है भेढ़ाहि ऐसे जब गुरुवनकों सत्‌ सद्गकीन्हों तब बाणीते जानिपरे कि ये साहबकों नहीं जने हैं बेपैमरि बनाये हैं इनते संसार छूटेगो ताोमें प्रमाण चौरासी अड्जकी साखी स्वामी भया तो का भया, जान्ये नहीं बिबिक छापा तिरुक बनायकै; दग्चे जन्म अनेक जप माछा छापा तिहुक, सरे

- -एको काम मन कांचे नाचे वृथा, सँचे राचे राम”? २७२

साखी। ( ६२७ )

ज्यहि खोजत कटपनभया, घटहीमें सो पूर

बाढ़ेगबगुमानते, ताते परिगो दूर २७३

जान मक्तिको खानत खानत करपभया अथांत्‌ कस्नाकरत करत करपना रूप द्वेगया बह्ममें लीनभया मुक्तिकों मूठ जो रामनाम सो तेरे घटही में है ताके अहंबल्लास्मिके गब्बेते तोकों दूरे पारेगयों अबहे समुझ तौ तेरे समीपही हैं २७३ हे ही

दश द्वारिका पीपरा, तामें पक्षी पोन

राहिबेको आइचयें है, जायतो अचरज कोन ॥२७४॥

रापहि सुमिराहिं रणमिरे, फिरें ओरकी गेल

मातुषकिरीखालरी, ओड़िफिरतहई बेल २७५

२६७ रामनामकों तैसुमिरे है परन्तु रामनामजापैबें की बिधिगुरुते नहीं पाये बादबिवाद करत साधुनते मिरतफिरिे हैं साहबकों नहीं जन हैंते मानुषकी खाल ओट़िती हैं परंतु बैलहैं अथीत्‌ पशु हैं जाने नहीं हैं २७५

खेत भला बीजो भला, बोइये मूठीफेर

काहि बिरिवाहूखरा, या ग्रुणखेते केर २७६

खेती तो नौ कई है परंतु तृगादिकनके जरकों कारण वामें बनों है त्यहिते बिरवा उठे नहीं पावि तृणछाय जायहै सो या गुण खेत को है ऐसे खेत अंत करणमें नाना बासनारूप तृण जानिरहे हैं तामें रामनामरूपी बीन फेरि फेरि बेवे हैं परंतु तृण बासननके मारे छगे नहीं पार्षें साहबमें श्ीति नहीं होय देइ जब सत्संग कारे के निराय डारे ती तृणऔौ रामनामरूप अंकुर इढ़ हैनाय साहब को जाननछगे संसार छूटिनाय पापजारेमें नामकी बडी शाक्ति है

तामें प्रमाण “यावती नान्मिवे शक्तिःपापनिदेहनिहरे! तावत्कत्तनशक्तोति पतकम्पातकीनन:”” २७६

गुरु सीढीते ऊतेरे, शब्द बिमूखा होइ ताको काल घसीटिदे,राखिसके नाहिं कोइ २७७

( ६२८ ) बीजक कवबीरदास

गुरुके बताये साधनसीढ़ीमें चढ़ो फिर उतारे और और साधनमें छगो राम नामते बिमुख द्वैगयों ताकों काछुनरकमें घसीटिके डॉरिही देइगो कोई नहीं राखिसकेगी २७७

आगि जो लगी ससुद्रमें; जरे सो कांदों झारि

पूरव पश्चिम पाण्डिता, म॒ुये विचारि विचारि ॥२७८॥

या संसार समुद्रमें अज्ञानरूपी आग्नि लगीहै सोपूरंबपाश्चिमके पंडित कहे

उदय अस्तेके पण्डित बिचारि बिचारिमरे परंतु अज्ञान रूपी आग्नि बुतानि

उपासना करके ज्ञानह करिके संसार समुद्र सूखि हू गयो परंतुवामूछ अज्ञानरूप दौमें फँसेनरे जायहेँ २७८

जा माह जाने त्याहम जानालाक वदका कहा मानों

भूभुरघाम संबे घटमाही।सवकीउबसे शोककी छाहीं२७९॥ गुरुसमख अज्ञानरूपी घामते अंतःकरणरूपी भूमि सबके तपिरंही है शोकरूपी

8

नाना उपासना तिनकी छाया चाहे है परंतु वहीते और तप्त होयहैं शीतल होइहे सो मोकों तो जानतही नहीं हैं में वाको काहेको जाने ्ई्‌

जाने तौ में वाको नानों जानबही करों छोकवेदतो कहतही है कि जो जा है सो ताहको जाने है सो या छोक वेदकी कहा मानबहीकरों अथवा कैसों पापी होइ नो मेरी शरण आंव तो में छोक वेदका कहा मानूं वाको शरणमें राख बई करों वाके सम्पूण पापमेंदीं छुड़ाय दें तामें प्रमाण सकृदेव मपन्नाय तवास्मीति या चते अभय सवेभूतेभ्यों ददाम्येतद्वतम्मम ? २७९

जोन मिलासो गुरुमिला, चेलामिला कोइ

छट्टटलाखछानबे रमेनी, एकजीव परहोइ २८० श्रीकबोरणी कहे हैं कि एकजीवके उपदेशपर में छः लाखछानबे रमेनी युगयुग कह्मो पे मेरो कह्मो कोई समझये| नो मिलो सो गुरुही मिलो चेला कोई मिल्ठों जो मेरो कहो बूसै साहबको जाने संसारते छूटे छानवे रमेनी में . अमाण सहसछानबें और छःछाखा युगपरमाण रमैनी भाखा॥२८०॥

“२ 2

जे

साख्ीे। ( ६२९ )

ही. ड॥ 5०५ $ ४७७५ 3) . जद गाहक तहहों नाएईं, हों जहेँ गाहक ना

विनविबेकभटकताफिरे,पकारिशब्दकीछाहि २८१

शुरुसख जहां नाना ईंदवर नाना उपासना नाना ज्ञान इन एकहकों जहां गाहकरहे तहां में नहीं हौ अथवा जहां कौनिहू बस्तुकी चाहहै तहां भें नहीं हों नहां को।नहूं बस्तुकी चाह नहीं है तहांमें हों सो बिना बिबिक कहे बिना सांच असांचके जाने अथोव्‌ स्रांच जो रामनाम तांके बिना जाने गुरुवाछोगनके शब्दकी छांह पकरिंके संसार भटकत फिरि है जगन मरण नहीं छूटे है जब रामनाम जाने तब संसारते छूंटे तामें प्रभूण “सप्रकोटि महामन्त्रारिचत्तवि भ्रम

कारका; एक एव परों मन्त्रों राम इत्यक्षरदयम २८१

शब्द्हमाराआदिका, इनते बली न्‌ कोइ आगे पाछे जोकरे, सो बलहीना होइ २८२५॥ गुरुतुख _

साहब कहे हैं कि शब्द जो है हमारों रामनाम सो आदिकाहै अर्थीव राम नामहीं ते सबकी उत्पत्ति भई है सो या रामनामते बली कोई नहीं है यह आदि शब्द जो रामनाम तके जपिबेमें नो आगगे पीछे क्रै है अर्थात्‌ याको बढ छोड़ि और देवतनको बल मान है सो बलहीन होदइहै अर्थात मुक्ति होनेकों बढ़ नहीं रहि जाये २८२

'' 4 बिक नगपषाणजगसकलहे, लखिआववे सब कोइ किए है... विदा नगते उत्तमपारखी, जगमें विरा कोइ २८३ या जगमें नग जो है तिहारों मन से पाषाण है रहों है त्यहिते तुमहँ बा का बस अर पा का ज. कर

जाषाण मैंगयो मनमें मिलतिके जग ह्वैगयें सो वहीमें आवे है वहीमें नाइहे सो नग जो है मन त्याहिते उत्तम जे पारखी जीव हैं अर्थीव मनते न्यारे जे जीव हैं तीन नक्तमें कोई बिरछाहै मनकी माणिक पीछे बेलिमे कहि आयेहें॥२८ २४७

(६३० ) बीजक कवीरदास

ताहि नकाहिये पारखी, पाहनलखे जो कोइ नग नल या दिलसों लखे, रतनपारखी सोइ ॥२८७॥

जो कोई पाहनरूपी मनको देखे है अर्थीत्‌ नब भरम जाके मन बनो रहें ताको पारखी ने काहिये जो कोई नर आपनो आत्मारूप जो है नग स्वस्व- रूप सो आपने दिल्‍रूमें रामनाममें देखे है अथोत्‌ मकार स्वरूप जो है आप

नो स्वस्वरूप ताको्‌ रकार रूप ने हैँ साहब तिनके समीप देखे सोई पारखी ज॑ंब नग मुन्द्री मे जड़ि जायहें तबहीं शोभा होयहे नहीं तो पाहने है २८४॥

सारीदुनियाँ बिनशती, अपनी अपनी आगे

ऐसा जियरा नामिला, जासों राहिये छागे ॥२८५०॥

सारी दुनियाँ आपनी आपनी आगिम कहे कोई ब्रह्ममें छागिंके कोई नाना देवतनमें छागिके कोईं नाना मतनमें छागिके बिशेषते बिनशि रहे है साहब को नहीं जने हैं सो कबीरनी कहे हैं ऐसा नियरा कहे रामोपासक सन्त कोई मिला जासें छागि रहे अर्थात्‌ सत्‌ सज्ञः करों कहे जे साहब को नहीं नानें ते बिनशि जायहें तामें ममाण॥ “यश्वरामंनपरयेतयंचरामोनपरयाति निद्तिः सर्वढ्ञोकेषु स्वात्माप्येन॑विगहँते २८५

सपने सोया मानवा, खोलि देखे जो नेन॥

जीव परा बहु लूटमें, ना कछु लेन देन २८६

जो मानुष आपनी आँखि खोलिके देखें तो सब स्वप्ने है यह जीच बहुत ढूटमें परयो है नाना मतनमें नाना उपासननमें रूग्यो है साहब को नहीं जाने ताते कछु लेन है देन है याते या आये कि इनमें बथे ढछांगे हैं मृक्ति काहूकी दई नहीं देनायहै या सब स्वप्न है तामें प्रमाण मोरख गोष्ठीकों कबीरजी को गोरख पे हैं

कतीकी स्वरूप कौन! अण्डका स्वरूप कौन! अण्ड पार बस कौननादबिन्दुयोग कौन जीव ईश्वर भोग कौन ? भूमी अवतार कौन ? निराकार पार कौन ! भाप पुण्य करै कोन ? वेद बेदान्त कौन ! बाचा अबाचा कौन चेद्र सुये भास कौन ! पश्चमें अपंच कौन ओह सोह कौन ? स्वगे नरक

साखी (६३१ )

बसे कौन ? पिण्ड बल्लांड कौन! आत्म परमात्म कौन ! जरा मरण काछू कौन ! गुरु शिष्य बोध कौन | क्षर अक्षर निरक्षर कोन ? तबकबीरजीबोले , नाद बिंदु योग स्वप्न, जीव ईश्वर भोग स्वप्त, भौमी अवतार स्वप्न, निराकार स्वप्न है पाप पुण्य करे स्वप्न वेद बेदान्त स्वप्त बाचा अबाचा स्वप्व चंद सूर स्वप्न है इत्यादिक बहुत बाक्यहैं २८६

नधैका यह राज्यहै, नफ्रक वरते ट्वेक

नि किक

सारशब्द टकसारहे, हिरद्यमाहि विवेक २८७

नष्टनो है घोखा ताहीको यहराज्यहै अर्थात्‌ अहृबह्मयास्मि कहिके सब नष्टभये नफरजो है काछ ताही को छेक संसार बरत रहो है अथीत्‌ सब संसारको कार छेकिछेकि खाये जायहे सारशवठ्दजों रामनाम टकसार ताको हृदय में कोई कोई विवेक करतभये अर्थीव्‌ कोई साहेबको मानतभये संसारते छूटतभये २८७

चर जप आप हदृष्ठमान सब बीनशे, अहृशलखे ना कोइ

हीनकोइ गाहकमिले, बहुतेसुख सो होइ २८८

जहांभरदृष्टमानहै सो सबबिनश है नाशहोयहै मनबचन के अगोचर जों बह्लहै ताकाती कोई देखते नहों है घोखही है सो दृए अदृष्ट के परे होन कोई कहे कोई हानहोंइ अथोतव दीन होइ ताकी गाहक ऐसें जे साहब श्रीराम * चन्द्रते मिलें जो जीवको तो बहुतसुख सो होय अथोत्‌ नननमरण छूटिजाय साहबके समीप सेवामें बनोरदहै तामें प्रमाण गोसाईजीकोदोहा पदगहि कहति सुछोचना, सुन्‌हु बचनरघुवीर तुमहिं मिले नहिं होइ भव, यथा सिन्धु- करनीर ! २८ दर हि थे पे

दृश्टिहि मा्दि विचारहे, बूझे बिरला कोइ

चरमदृष्टि छूटे नहीं, ताते शब्दी होइ २८९

जोकफहो साहबको देखे केसे हैं तो दृष्ठटिही में बिचारहे साहब को देखे है या चमैदृष्टिकरिके साहबको नहीं देखै या बात कोई बिरछा बसे है या नीवकी

(६८६३४ ) बीजक कबीरदास

इंसर्नाव बसे है सो या जौवठोरमें छूग्यो कहे साहबकें पास गये वहीमन- के ओटमें रहिगयो अर्थात्‌ मनरूपी सरोबरेमें रहिगयो २९५७

मधुरबचनहें औषधी, कटुकबचनहें तीर

श्रवणद्वार ह्वे संचरें, शाें सकल शरीर २९८

क्टुकबचन तीरहें अधुरबचन औषधेह ते ये दोऊ श्रवण दारहेके सश्रे हैं कहे नाईहें औसिगरे शरीरमें शाह हैं कहे व्याप्त द्वेनायहैं नो कोई मीठ बचन क्यो तो वासों रागमयों नो कोई कटुकबचन कह्मों तो वामें देषभयो मधुरबचन ते जहां राग कियो जहांमन ढुग्यों तहै जन्मतभयो कटठुकचचन सुनि कोप कारे बधादिक कियो तेहिते आयु हानिभई मरतभयों याते मधुर बचन कटुबचन दोंऊ बरोबर शांले हैं २९५८

जगतो जहडेगया, भया योग ना भोग

तिलतिलझारिकबीरलिय, तिलठीझारेलोग ॥२९९॥

या जगतों जहडेगयो कहे द्वैगयों काहेते कि याको योगही छसिद्ध भयों भोंगही सिद्धभयो कैसेड हजारन वर्षछों योगकै जिये महापलूय भररहे आख़िर नाशही द्वेजाइहै जो धर्मकारे दिविको भोंगकियो तो जब पुण्यक्षीण हैमाईहे तबतो मत्युही छोककों आवे है याते भोग सिद्धमयों योग सिद्ध- भयों सो तिलजों है रसरूपाभक्ति साहबकी ताको तो श्रीकबीरजी कहै हैं कि में झारिढियो तिलेठी जो है नानाउपासना तिनकी और छोग झारे हैं नामकरे हैं जामें रस नहीं है २९५९ क्‍

ढाव्सदेखुमरजीवको, घसिके पेठिपताल

जीवअटकमानेनहीं, गहिलेनिकरयो छाल ३००

मरजीवते कहावे हैं जेसमुद्रमें पेठिरत् निकारै हैं ताके ठाठस देखो ठाठस करिके पातालमें पेठे हैं जीवको अटक नहीं माने हैं समुद्रते ठारूगहि डैआवै हैं - तैंसे जीव तेहूँ मनादिकनको त्यागिंदे मरबिको नडेराय विश्वासकारेंके साहब रसरूपसागरमें पेठु २००

साखी। .. (६३५ )

येमरजीवाअम्ृतपीवा, काधसिमरेपताल गुरुकीदयासाधकी संगाति,निकसिआउ यहिकालू३

ये मरजीवा कहे तें तो अमृतको पीवनवारों पातारूमें धसिके कहे संसार में परिके कहामरे है जिये है नरकको चलामाइ है सो गुरूकी दयातें साधुनकी संगातिते तू यहोकालमें संसारते निकासिभाउ नो तें साहबके जाननवारे साधुनकी शरणहोइ वाही चाढूचंडे ३०१

पाप $ दिपु 0. 8 की

केते बंद हलफे गये, केते गयो विलोइ

8. हि. वा आिकिलक

एक बुंदके कारणे, मानष काहिको रोइ छे०२ हे...

हा इति कष्टमें है सो कबीरणी कहे हैं कि हाय केतन्यों जीव लफ़ेकहे नैगये अरथीत्‌ टरकि गये अर्थात्‌ साहबके मार्गचले साहबकी उपासनाकियों पे गुरुवाछोग जो नानामत छखाये तिनहींमें छफेकहे नेगये सो केती तो यापका- रसें गये केती पहिलेहीते बिगोयगये कहे बिगरिगये सो हे मानुष! श्रीराम- चन्द्रको जो आनन्द्समुद ताके एकबुन्दके कारण हे संसारीजीव ! तें काहेरोवै रे धोखा + #+ धर है धोखाबह्को छांडि साहबकों नानु जाते जननमरणछुटे ३०२

| | आकर बिक | आप जे बल आगिजो लगीससुद्रमें, टुटिटरुंटिे खसे जो झोल

रोवे कविरा डिम्मिया; मोरहीरा जरे अमोल॥३० शा।

या संसारसमुदमें अज्ञानरुपी आगिलगी कर्मरूप झोछ जे शरीरके कारणहें ते या देहते टुटिटुटि वा देहमें गंगे या देह जारैगई याही रीतिते नानादेह धरे हैं संसार नहीं छटेहे सो कबीर नी रोवे हैं कि दुम्भीहईकै मोर अमोर हीरा" जीव ते अज्ञानरुपी अम्रिमें जरेजायहैं | रै०३

साँचे शाप लागिया, सचे काल खाय

सौचे ९३) आप कर साँचे जो चले, ताकी कहा नशाय ३०४ !! कबीरनी कहे हैं कि दम्मकरिके काहे अज्ञानरुपी आगिमें जरे जाउहो जोसांचे साहबंमे लगिके सांचे साधुहोंउ ती वे सबते नबर होइहँ वाफोशापलांग

वाकोकाछ खायहे स्रो जाम्बवेतहनुमानादिक अबतकबने हैं ३०४

(६२६) बीजक कबीरदूस |

प्रासाहब सेइये, सवविधि पूरा होइ ओछे नेह लगाइये, मुलोआवे खोइ ३०५

पूरा साहब ने सर्वत्र पर्ण हैं तितकों जो सेइये तो सबबिबि प्रोहोंइ ओछे जेहें नानामत घोखा तैने में जो छगाइये तो नफाकी कौनचांड़े म॒- छोकी हानिद्देनाय है॥ २०५

जाहबेथ घरआपने, बात पूछे कोइ जिन यहभार लदाइया, निरबाहे वा सोइ ३०६

कबीरजी कहें हैं कि हे वेद ! गुरुवाछोगों तुम आपने घरको जाह तुमकों बात कोई नहीं पूछे है जिन यह संसाररूपी भाररदाया है कहे संसार उत्पत्ति कियाहै तोने निर्बाहेगा अथीत्‌ निर्बाहेगा येतों सबमायिकहें अधिक बॉधनेवारे हैं छुड़ाबनेवारे नहीं हैं ३०६

औरनके समुझावते सुखमें परिगो रेत

राशिं विरानी राखते, खाये चरको खेत ३०७

औरेनकी उपदेश करत करत तुम्हारे मुखमें रेतकहे धूरिपरिगई अर्थीव

कु तुमसों बनिपरयो बिरानी राशि तो तुम राखतेही कहे ओरे ओरिकों

उपदेश करके समुझावतेहीं आपने घरको खेते मो स्वरूप ताक नहीं ताकतेहों काछ खाये लेह्है सो तुम्हारों स्वरूपखेतती ताको नहीं रहे औरकी राशिकरें आत्मा तुमकैसे ताकीगे ३०७

में चितवतहों तोहिकी, तुम कह चितवे ओर

का

नालत ऐसे चित्तको, चित्त एक दुइ ठोर ३०८॥ शुरुसुख साहब जीवसीों कहे हैं कि मेंतो तेरी ओर चितवी हों सदा सन्मुख बनेंरहौ हों तू कहा और और में वित्त रूगांवे है स्रो ऐसे तेरे चित्तकों नालूति है पके एक आपने चित्तकों माया में ब्ह्ममें दुर्छऔर छगाये है ३०८

साखी ( ६१७ )

तकत तक्रावत तकिरहे, सके वेझामारि॥

सबे तीर खालीपरे, चले कमानी डारि ३०९

साहब कहे हैं कि जेजीव!मोको तकै हैं अर्थात्‌ मेरे सन्मुख़ भये हैं तिनको माया कालादिक जे हैं ते काम कोधादिकनते तकावे हैं कि जबहीं संधिपावें तबहीं मारिलिई आपह ताके रहै हैं परन्तु ने जेमोकों तके रहे चारयो युग तिनको ये कबहूं बेझा मारिसके हैं सो जबसबैतीर खाली परे माया कालादि- कनते तब कमानी डारिके चलेगये अथौद्‌ मोको ने हंसगीव जाने हैं तिन में माया काछादिकनको जोर नहीं चढ़े है ३०९

जस कथनी तस करनियो, जस चुम्बक तस नाम 4 के जे $ कह कबीर चुम्बक विना, क्यों छूटे संग्राम ३१०

जस साधुनकी कथनी कहे कहे हैं तस करनिउहे कैसे जैसे चुम्बक शररा- मचन्द्हैं तैसे उनको नामहूं है सो कबीरजी कहे हैं कि रामराम चुंबकबिना कामादिकनको संग्राम याकों कैसे छूटे जैसे छोहेकोकना ध्रिमें मिछोरहे है जब चम्बक देंखावो तो वाही में छपटि आबै है घरिमं नहीं रै ऐसे या जीव साहबको है साहबको नाम छेह्है तबहीं संसारते छूटे है नहीं भटकते रहे है॥ ३१०॥

अपनी कहे भरी सुने, सुनि मिलि एके होंइ मेरे देखत जगगया, ऐसा मिला कोइ ३११ गुरुस

साहब कहै हैं कि आपनी दका मोस्रों कहे पुनि नौन में वेदशाखादिकनमें कहो है ताका सुने वह मेरे वाक्यमें मिलावे देखतो कोई शंका रहिनादी है अर्थात रहिनायगी तब एके मत द्वेनाय एकैनो में हों ताहीको जानिदेइ और सब छोड़े देइ सो ऐसा मोकों कोई मिला जो मेरे देखत जगगया

होंइ कहे जगतते दारे भया होइ ३११

( ६३८ ) बीजक कबीरदास

देशदेशहमवागिया, ग्रामग्रामकी खोरि धक्‍ ऐेपाजियराना मिला, जोलेइफटकिपछीरि ३९१२

कम 2

करनी कहे हैं कि में देशदेश गार्ड गा खोरि खोरि बाग्यों परन्तु ऐसा _नियरा मोको कोई मिला कि जो में कहौ हों ताको फटकि पछोरि छेइ॥३१२॥

च्छ | आप का विदा

लोहे चुम्बक प्रीति जत्त, लोहा लेत उठाय

कप गृढ

ऐसा शब्द कवीरको, कालते लेइ छुड़ाय ३१३

लोहेकी चुम्बकक्री भीतिहै जो छोहकों चुम्बक देखे है सो उठाय लेइहे ऐसे कबीर जो है कायाकों बीर नीव ताको या शब्द रामनामहै जौन जीवनकों कालछते छड़ाय लेयहै जैसे चुम्बक छोहे के किणकाकों आपने में छूगाय हछेह्है णेसे रामनाम जीवको में छगाय लेइईहे ३१३

गुरू विचारा क्या करे, शिष्यहिमदेचक शब्द बाण वेषे नहीं, बॉसबजावें फूंक ३१४

कबीरजी कहै हैं कि गुरू जो है साहव सो-बिचारा कहा करे शिष्य जो है जीव ताहीमें चूफ़हे कौन चूकहे यासें कि रामनामरूपी जो शब्दबाण ताकें साथ छदउजेचकहेँ तिनकी बेधिके सातों चक्र जे हैं सुरातिचक्र ताको बेघिकै उहां जो गुरूबतावे हैं मकरतारडोरि ताही चढ़िके रामनाम रूपीबाणके साथ साहबके पास जायबो जान्यो वह निर्गुण ब्रह्म जो है झरबाँस ताहीमें छूगिंके

फूंकि-फूंकि बनवे हैं अथोव्‌ वोदीकों ज्ञानकै हैं ३१४

दादावाबाभाई के लेखे,चरनहोइगे बंधा

अबकी वेरिया जोना समुझयो,सोईसदाहे अंधा३१५॥

मानुष शरीर पायके दादा बाबा भाई सब साहिबेको माने है सोई साहबके > ।+ लि. छः अर, नयी किक हें शी चरणको बंधा होइहे कहे साहबके चरणमें सदा छंगे रहै हैं सो अबकी बेरिया कहे या मानुष शरीर पायके साहबको जान्‍्ये सोई सदाको अंघाहै॥३१५५॥

साखी। (६२१९ )

शः आर भली हा बिक लुताई सबते भली, लघुताइहिसबहो३॥ जसद्वितियाको चन्द्रमा, शीशनवे सबकोइ॥ ३१६ लघुताई सबते भरी है छूघुताइन ते सब होहहै सर्वत्र साहब को देखे आपनेको दासमाने तो वाकी भीति साहबमें बढ़ते नाय है सब माथनावै हैं तामें प्रमाण कबीर्नीकों “छघुताते प्रभुता मिले, प्रभुताते प्रभु दूरि चींटीडे शक्रचढी, हाथी के शिरधूरि” ३१६ मरतेमरते जगम॒वा। मरण जाने कोइ हम विदा विकार [का [ ऐसा ढे के नाम॒वाजो, बहुरि मरना होइ ३१७ मरते मरते सब जग मराजायहै मरण कोई नहीं जाने है ऐसा ह्ैँके कोई मुवा जाते फेरे मरण होय अर्थाव्‌ इंद्विनते मन ते शरीरते भिन्न हैक साहबमें छगे जाते पुनि जनन मरण नहीं होय ३१७ जे ४७ चर वस्तुअदै गाहकनही, वस्तु सो गरुवामोल हु 8 कर बाप बिनादामको मानवा, फिरे सो डामाडोह ३१८॥ वह गुरुवा मोछको जो साहबहे सर्वत्र पू्े है परतु बाको गाहक कोई नहीं मिले है बिना दामको कहे बिना मोछकी यह जीव साहबके शनि बिना डामाडोलमें फिरे है अर्थात्‌ नैसे वाजार में गयो सब साज उहां बनीं है हाथमें दाम नहीं है तो डामाडोछ फिरे है है नहीं सकेहै तेसे साहब सर्वत्र पूर्ण हैं परंतु सतगुरुको उपदेश रूप दाम नहीं है डामाडोंछ फ्रि हे॥३१२८॥ ०३५ चेहे, सिंह अकेला वनरमे, .पेलकपलककेदोर जसा बनहे आपना, तेसा बनहे ओर ३१९॥ बन नो है शरीर तामें सिंह जो है जीव सो अकेछा रमे है पछक पल- कमें दौरकारेके गुरुपनसों पूछे है सो असनहीं बिचारे है कि जैसा बन कहें शरीर मेरोहे तैसे औरहको है नैधे मोको भज्ञानहै तैसे इनहँकी अज्ञानहै येई नहीं संसारते छूटे हमको कैसे छड़वैंगे ३१९

(६४० ) बीजक कबी रदास।

मरतेमरते जगसुवा, बहुरि किया विचार

एकसयानी आपनी, परबशसुवा संसार ३२० मरत मरत सबनग मरिगया मरत चढोजायहै पे बहुरि के कहे उलछ- टिके कोई बिचार कियो कि काहेते मरे जाय हैं आपनी आपनी सयानी ते

एकएक खाविंद खोजि लियो साहब को जान्यो जे जीवके माहिक हैं तेहिते काछ के बरद्ढे सब मरे जायें हैं ३२० जे कफ ओर कप पेठाहै घर भीतरे, बेठाहि साचेत वा | 4% की. जब जेसी गाते चाहता, तब तैसीमाति देत ३२१ साहब जो है सो सब के घटमें पैठाहै साचेत बैठाहै जब जैसी गति जीवचांहे है तबतैसीमाते जीवको देइहै जीव अणुचेतन्य है साहब बिभुचैतन्यहैं सो जीव जौनेकर्मकी सम्मुख होइहै तब चेतन्यता बढाय देइहै तैसेमति बढ़ाय देइहे बिना साहब के समर्थ जीव कछुनहीं कंरिसके तामें मरमाण “कर्त- त्व॑ं करणत्व॑ स्वभावश्वेतनाधूतिः यत्मसादादिमे संति संति यदपेक्षया॥ इतिश्रुतः ३२१ |, 0.४ कप आप बोलतहीपहिंचानिये, चोरशाहके घाट अंतरकी करणी सै, निकसे मुखकी वाट ३२२ जे साहब में लंगे हैं ते ने घोखाबल्ल में लगे हैं ते इनको कैसे पहिंचानि- ये तो उनके बोछते अन्तरकी करणी मुखकी बाद निकसे है तबहीं चोर शाहु पहिंचाने परे हैं इहां चोर जो कहो सो यह जीव साहबको है तिनको चोराइके कहे छोड़ेके धोखामें रूग्यो ताते चोरक्मों है तामें प्रभाण नारिकहावैपी* जकी, रहे ओर संग सोइ॥ जारपुरुष हिरदे बसे,ससमखशीक्योंहोइ””॥३०२२॥ कक | आस ॥805 8 कल कितने दिलकामहरमकोइनमिलिया, जो मिलियासोगरजी पीर कहकवीरअसमानेफाटा, क्योंकरिसीबे द्रजी॥३२३॥ मन दिलका महरमी कहे निःकार्महे साहब में छगैया कोई मिल्यो जो मिल्यो सो गरनवाढा मिल्यो ताकों तेतने मँजूरी देके साहब अनृण ह्ेनाय हैं

साखी | (६४१ )

सो कबीरजी कहे हैं कि नो जीव साहबको है तो जोन जोन बस्तु साहबकी तोनतीौन बस्तुजीवहकी है पै आपनेको असफाटा कहे जुदाजुदामाने है कि साह- बसों मांगे है कि फलानी बस्तु मोको देउ या मूर्ख नहीं समुशै है कि साहबकी शरणभये कौनों बातकोयेटें रहिजायगी सो दरनी नो साहबहे सो कहांतक सीवे कहे आपने में मिलावै ३३२३

बनावनायामानवा, बिनाबुद्धि बेतूल

कहा लालले कीजिये, विनाबासका फूल ॥३२४॥ यह मानवा जो है मनुष्य सो बने बनावा बेतूछ है कहे कौनो देवता याकी बराबरीकों नहीं है पै बिना बुद्धिको है याही ते सबते नीच हैरहों है बिनाबासको कहे बिना सुगंधकों छाल फूल लेके कहाकरे ऐसे जीव बहुत सुंद्र भयो साहबको जान्यो औरे मतनमें छगिके छालहैरहों वा बुद्धिनहीं जाते साहबको बुझे तो कहामयो तामेंप्रमाण “कहामयो नो बड़कुछ उपने बड़ीबुद्धि है ताहिं जैसे फूछउजारेके वृथाढाल्झरिजाहिं ३२४ साँच बरोबर तप नहीं, झूठ वरोबर पाप जाकेमीतरसाँचहै, ताके भीतरआप ३२५ या साखीको अर्थस्पष्ट है ३२५ क्रतेकियानविधिकेया, रविशारीपरीनदाशे तीनलोकमें है नहीं, जानतसकलोमृश्टि ३२६ कत्तों पुरुष भगवान्‌ नहीं किया करतार किया रबि शशि दृष्टि परी- तीन छोक में खोनेमिंले परंतु सबसृष्टि जाने है सो कबीरनी कहै हैंके या झूठ कहांति आई है ३०६ आगे आगे दव वरे, पीछे हरियर होइ बलिहारी वा वृक्षकी, जर काटे फल होइ॥ ३२७ कर्त्ता जगवको बनायो सो कैसों है ताको कहेहें आगे आगे दव बरे आगे शरीर

440 पदक ३-प कक

सबके जरत जायहै पीछे हरियर होयहै कहे नये नये शरीर धारण होत हैं ४१

(६४२) बीजक कबीरदास

से ऐसे संसाररूपी बिटपकी बलिहारी है नामें नरकाटे फलहोइ है अर्थाव जौने लीवको संसार निम्मेठ ह्वैंगयों तोने जीवकी साहब रूपी फल मिले है ॥३२७॥

सरहर पेड़ अगाध फल, अरु बंठा पूर

बहुत लाल पचि पाचे मरे, फल मीठा पे दूर ॥३२८॥ या शरीर रूपी सरहर वक्ष बड़ा ऊँचाँहै सरलहृहे सबको मिले है ओर शरीर वक्षको फल कहा है साहबकों जाने सरअगाघ है सर्वत्र पूर्ण है तयीमी रूपते सबके हियेमें बेठाहै सो ऐसो साहबकों ज्ञानरुपी फछ मीठाहै परन्तु दूरे है बहुत छा कहे बहुत जे जीव हैं ते पचिपचि मरे पे पाये नहीं अथवा साहबको ज्ञानरूपी फल सरहरहे कहे चीकनहै चढ़ने माफिक नहीं है खसिलि परे है तामे भममाण कबीरनजी को बहुतककागचढ़े बिनमेदा देखाशिख गहिपानी खसिलं। पाउं ऊध्वेमुख झूछे परेनरककीखानी औदर्ररिकोफछ साहबको भजनहै तामें प्रमाण गोसाइजीको देहपरेको या फलभाई, भजोराम सबकाम बिहाई ३२८

बैठ रहे सो वानियाँ, खड़ा रहे सो ग्वाल॥

कप

जागत रहे सो पाहरू, तिनहंन खायो काढ॥३२९॥

बनियां बैठ रहे हैं दकान छगाय ते गुरुवालोगहें जे जोने देवताको मन्त्र मांगे हैं ताको तौनहों मन्त्र देइहैं ग्वालखड़े गौवनको चरवे हैं तेवे हैं आत्मेको मालिक माने हैं इन्द्रिकको चरानें हें जीने विषय चाहै हैं तोने भागें हैं दूसरो छोक नहीं माने हैं शरीरद्दीकों माने हैं ने जागत रहै हैं ते पाहरू हैँ आपनी बस्तु ताके हैं ते योगी हैं आपनी इन्द्रीकों ताके रहे हैं समाधि छगाये सदा जाग-

तरहैहें साय तीनों साहबका जान्या तात इनका कांड घारखायों॥ ३२५९॥ युवा जरा वालापन बीत्यो, चोथि अवस्थाआई ॥४

जस मूसवाकोी तकेबिलेया,तस्त यम घातलगाई॥ ३३ ०॥ .. तौनिर्ड अवस्था बीत गई चोथि अवस्था आय गईं जैसे मूसका बिलारी ताके है ताका घात लगायेहै तेंस यम तोकी घातढूगाये हैं सो अनहूं साहबके चेतु३३०

साखी (६४३ )

भू के भू # ५, लासो भ्रूला बहुरिके चेतु बज + दि शब्दकी छुरी संशयको रेतु ३३१ गुरुसुख साहब कहे हैं कि हे जीव ! तें भूछा सो भूछा भठा यह संसार ते बहारे कहें डलटिक तो चेत करो सारशव्द नो रामनाम छूरीं तेहितें आपनी संशय रेत डारु कहे काटिडारु अर्थाद रामनामको अर्थ तो बिचार तें मेरोई है और पदार्थ छोड़िदे तामेभममाण॥ “यक रामनाम जाने बिना भव बूड़िमुवा संसार” ॥३३१॥

सबही तरुतर जायके, सबफल लीन्हो चीखि फिरिफिारे मांगत कब्रिहे, दशनहींकी भीखि ॥३३२॥

सबही तरुतर जायकै कहे शरीर धारण कारिके सुख दुःखरूप फछ सब चारुयों नाना उपासना योगज्ञान बेराग्य सब केचुक्यो शंरीरधरेकी फछ कोई

पायो सो शरीर धरें को फल साहब को दरशन है सो फिर फिर कबीर मांगे है ३३२

ओता तो घरही नहीं, वक्ता वदें सो वाद

श्रोता वक्ता एकघर, तब कथनीको स्वाद ३३३

श्रोतातो घरहीमें नहीं है अथीत्‌ सुनते नहीं है औवक्ता आपनो मत बादि- बादिबंदे है श्रोताको समुझावे है सो जब ओरेतावक्ता एक घरहोइ -कहेएकै उपा-« सनाहाइ एके मतहोय तब कथनीकों स्वाद है कहे कथाकों स्वादत- बहीं मिंछे है जैसे याज्षवस्क्य भरद्वान इत्यादिक तामें प्रमाण “'इष्ठ मिले अरु मन मिले, मिले भनमन रस रीति तुलुसिदास सोइ संतसों, हठ कारे कीने श्रीति! १॥ दूसरो प्रमाण राम सखेजीको॥ “शिष्य सांच गुरु सांचहै,झूँठन नियत मान॥बध्यों शिष्य सांची प्रकृति, छोरत गुरुदे ज्ञान!!॥०॥ओऔ कबीर- हजीकी ममाण। साखी चौरासी अंगकी। “नाम सत्य गुरु सत्यहे,आप सत्य जब होइ तीन सत्य प्रकट जबे, गुरुका अमृत होइ” ३३३

है ६४४ ) वीजक कबीरदास

कंचन भो पारस परसि, वहुरि लोहा होइ॥

चंदन बास पलास विधि; ढाक कहे नहिं कोइ॥३३४॥

पारसकों परतिकै केंचनभयों जो छोह है सो फिर छोहा नहीं होइहै औ्‌ संदनकें बासते पछाश जो छिडछ है सो बेषिगयो ताको ढाख कोई नहीं कहे है चंदन वंहे है ऐसे नोंजीव साहबकों हैगयों साहब के पासगयो ताको जीव नहीं कहे दे पार्षद रूप कहन छंगे है॥ ३३४

बेचूने जग राचिया, साई नूर निनार्‌ . ्ऊ जे ही तब आखिरके बखतमें, किसका करों [दिदार ॥२२३५॥ बेचून निराकार जौन जगतको रचिसि है सो साई के नूरते कहे प्रकाशते निनारहै जुदा है अर्थात्‌ साहबकों भ्काश होइ वा नूरही अल्लाह हैं ऐसा जो माने तो हें मुसलमानों में पूछता हों कि आखिरके वखतमें कहे क्याम- तिके इसतमें वह इनसाफ करैंगा ऐसा कुरानमें लिखता है सो उसको बेचून मानते हो निराकार मानते हो तो भा वा किसतरहसे इनसाफ करेगा किसका दादार करोंगे अर्थीव्‌ किसकी सूराति देखौगे भावयाहै कि वा निराकार नहीं है साकार है तुमको श्रम भया है सो या बात सत्ताईस रमेनीके मूलमें साहबको नूरणों है प्रकाश सो सबके भीतर बाहर भरांहै कोई जगह डससे खाली: नहीं है साहब साहबकी सामग्री साहबको लोक सब नूरही- नए काहै वहां बहुतसा नूर समिटिके एकसल देखि परे है जिसतरहकी मिसारू कि नैसा साहबहै तेसासाहबै है दृष्ठातकाकोदेइ सो कबीरनी पूछे हैं के भछा तुमहूँ ते। विचारिदखों कि जो उसके हाथे पांउ होते तो जगवको कैसे रचतो सो साहबसाकार है तुमको निराकारकी ज्मभई है तामें ममाण * कहिमा बाँग निमाज्‌ गुनारै | भरम भई अछाह पुकारे

अजब भरम यक भई तमासा छा मकान बेचून निवासा

बे निमून वे सबके पारा। आखिर काको करे दिदारा |

रगरे महनिद्‌ नाक अचेता | भरमाने बुत पूजाहोता

बावनतीसबरण निरमाना हिन्दूतुरुक दोऊ परमाना

साखी | ६६४५८ )

भरमिररे सब बरणमहँ, हिन्दुतुरक. बखान कह कबीर बिचारिके, बिनगुरुकी पहिंचान भरमत भरमत सब भरमाना, रामसनेही बिरछा जाना र१५॥

साई नूरदिल एकहै, सोई नर पहिचानि

जाके करते जगभया, सो वेचन क्यों जानि ॥#३६ साईं जो है साहब श्रीरामचन्द्र ताहिको एक नूर सबके दिलमें हैः सोई नूर तें प्रकाश पहिंचानु जौनेके करते जग सब उत्पन्न भया है ऐसो जो साहब ताको तू बेचून कहे निराकार जान वे साहब खाकारहें औनिर्गफसगुणके- परे हैं तामें पंमाण कबीरनीको साक्षी श्राप अखण्डित ब्यापी चेतन्य चैतन्य ऊंचे नीचे आगे पीछे दाहिन बाय अनन्य बड़ा ते बड़ा छोयते छोटा मीहीते सब लेखा सबके मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा चाम चरमसों नजरिन आँवे खोजु रूहके नेना चून चगून बजुद मानु तें सुभा नमूना ऐना ऐना नेसे सब दरशावे जो कछु वेष॑ बनावे ज्यों अनुमान करे साहबको त्यों साहब दरशावे जाहि रूह अछ्लवाहके भीतर तेहि भीतरके ठाई रूप अरूप हमारि आश है हम दूनहुँके साई जो कोड रूह आपनी देखे सो साहबकों पेखा कहें कबीर स्वरूप हमारा साहबको दिर देंखा ३३६

रेख रूप जेहि है नहीं, अधर धरो नहिं देह

गगन मडलके मध्यमें, रहता पुरुष बिंदेह ३३७ कैसो साहब है कि जाके रूप रेखा नहीं है बिशेषिकै देह धारण कीन्दे

हैं अथीत रंसहीरस देह धारण किये है पाथ्रभोतिक नहीं है। अधर जो आकाश तामें देह कबहूं नहीं धरे अर्थात्‌ नो कब॒हूं रहे तब देह धारे

( ६४६ ) बीजक कबीरदास *

वातों सर्वेश्न पूर्ण है गगनमण्डल के मध्यमें कहें तीन आकाश हैं एक नीचे वयमें के हि पी पे से एक मध्यमें एक ऊपर सो तीनों आकाशमें वा विदेह पुरुष पूर्ण है ॥३३७॥

धरयो ध्यान वा पुरुषको, लाये बज्र केवाल ॥| देखिके प्रतिमा आपनी; तीनों भये निहाल ॥३३८॥

वह परम पुरुष साहब जे श्रीरामचन्द्र हैं,नव दूबों दल जिनकी रसरूप शरीर है तिनको ध्यान धरो नो कहो आनन्द को रूप तो सपेदको है है नव दूर्बोद्ल ब्याम कैसे कहो हो तो जहां बहुत खेताई है तहांहरित रंग देखही पर हैं जो कहे यह केसे अनुभव होइ तो सुनो सब ते श्वेत स्वच्छ गंगाकों जलू है सो जहां गंगाहूमें बहुत जल है बड़ी गहिराई है तहां हरितई देखि परे है। नों कहीं साहबको कैसे जानें सो वज्ञ कपाट लगाइबेफी बिधि आगे लिखि आये हैं जलन्धर बन्ध लगायकै झटकाँदैके वज्ञ कपाट लगायों सुराति कमरमें जो रकारकों उद्धार ओड्रे है सो सुनि परी है तब वही रकार को जो ध्यान करे तब सो ध्यान किये साहब आपही प्रकट होय है यही ध्यान करिके तीनों ब्रह्मा विष्णु महेश आपनी आपनी प्रतिमा देखिके निहाल भये हैं अर्थीत्‌ साह* बके समीप हजारन ब्रह्मा विष्णु महेश देखिके या निहाल भये कि धन्य हमारी भाग्य है कि श्रीरामचन्द्रके द्वारमें हमहूं हैं यहां तो कोटिन बह्मांडके ब्रह्मा विष्णु महादेव मोजूद हैं ठाढ़े स्तुति करे हैं ३३८

यह मनतो शीतल भया, जब उपजा बल्ल ज्ञात

जेहि बैसन्द्र जग जरे, सो पुनिं उदक समान॥३३९॥

जब ब्रह्मज्ञान भयो तब यह मन शीतल द्वेगयो अथीत संकल्प विकल्प छोड़े दियो तपिबों मिंटि गयो सो जोने बैसन्दरते कहे ब्रह्म ज्ञानते मनकों संकल्प विकर्प छूटि गयो जग जरि गयों अथीव रहो तौन जो ब्रह्म ज्ञान सो उदक जो साहबकी भ्रेमा भक्ति तामें समान अथोत्‌ जब साहबकी भक्ति भई तब वा बल्लाधि रहि गई यामें ते या आयो कि ज्ञानकों फू साहबकी भक्ति है तामें समाण *' बह्मभूतः मसन्नात्मा शोचति कांक्षति समः

साखी ( ६४७ )

सर्वेषु भूतेषु मद्धक्तितमते पराम भक्तिमेंछागुण हैं क्लेशघ्नी शुभदामोक्षरुघुताकृत्सु दुलेभा सांदानन्द्विशेषात्मा श्रीकृष्णाकषणी मता” भक्तिमें छे गुण हैं ।१। एक तो सम्पूर्ण क्ेशको दूर कर देइ है अर्थीत्‌ संसार दूर करि देइ है | फिर भक्ति कैसी है कि शुभदा है कहे सम्पूर्ण शुभ गुण दिव्य गुण देई है। और३ अपने आनन्द ते मीक्षेके सुखको छूघु करि देई है। और दुर्लूभा है अथोव्‌ जब ब्रह्म ढ्वैगंयह् के ऊपर होइ है। और सान्दानन्द विशेष आत्मा है कहे परमानन्द रूपा है और श्रीकृष्ण को आकर्षण करिडे आँवै है कहे जाकी भक्ति होइ है तो श्रीरघुनाथनीका दरशन होइ है। सो श्री- कबीरजी भक्ति को सिद्धान्त राख्यों है कि, बिना भक्ति रघुनाथनी कोई प्रकार से मिलि सकते नहीं हैं और जहां भक्त पहुंचे है तहां दूसरो पहुंचि सके नहीं है। सब ते ऊंची भक्तिकी सीहो है। बिना भक्ति साहब नहीं मिलें तामें प्रमाण श्रीकबीरजीकों भवंतरण गन्थकीं सुनु धरदास भक्ति पद ऊंचा तिन सीढ़ी नहिंकाउ पहुंचा वर्त एक है भक्तिकों पूरा ओर वें सब कीने दूरा और वते सब जमकी फॉसी भक्तिहि वर्त मिलें अबिनासी ३३५

जासों नाता आदिको, विसरि गयो सब ठोर

बिक पे कर बा

चोरासीके बश परे, कहत ओरको और ३४०

जौनें साहबकी आदिको नातारहे कहें जाको सदाकोी दास अंश तैने राम चन्द्रकों भक्ति बिसरी गयो मायामें परे चोरासी छाख योनिके वश है और सु | के 7९ कक # के का को और कहे हैं अथीतव कह कहे हैं कि वा ब्रह्म मेंहों हों कहे आत्मेकों मालिक माने हैं कह नाना देवतन को स्वामी माने हैं परंतु संसार काहको छुड़ायो छूल्यो ३४०

अविद्या, अस्मिता, शाग, द्वेप, अभिनिवेद् यही पॉच छलेश हैं अनित्य पदार्थोमें नित्य बुद्धि अनात्म पदार्थेमें आत्म बुद्धिका नाम अविदा है तात्पर्य यह !क अज्ञान जन्य जो काये हैं सब अविद्या कृत है में राजा, में पण्डित में ज्ञानी में कुलान इत्यादि अहड्डार युक्त कार्यकों अस्मिता कहते * प्रिय वस्तुमें गति होना राग | ओर अनिष्ट पदार्थमं अर्प्तिका होना द्वेष एवं विना विचारे किसी कार्यको एक प्रकारका मान कर उस में आग्रह बुद्धिको अभिनिवेश कहते हैं

( ६४८ ) वीजक कबीरदास

लीन्हो फंटाके पछोरि यह साख्री भर सब पोथिनकों पाठ मिलि आवा है ओऔ लोहे चुंबक प्रीति नस यह साखीते चौरासीके वश यह साखी भी उन्तिस साली एक पोथीके क्रमते है आवा अब एक पोथीमें अटूठाइस साखी औरऊई ओर हैं तिनहूनकी अर्थ लिखे हैं

बूझो शब्द कहांते आया, कहां शब्द ठहराय कह कबीर हम शब्द सनेही, दीन्हा अछख छखाय ३४७१

यह शब्द जो रामनाम है सो बूझो कहे बिचारो कहांते आयाहै कहा ठहरायहै सोहम वहीं शब्दके सनेहीं हैं वाशब्द तुम नहीं ब्झते हो केसो है शब्द कि साहब के इहां ते आयो है रामनामंले उचरीबाणी यह रमैनीमें डिब्बे आये हैं सो जब कुछ नहीं रह्े। तब रामनामहीतें सबकी उत्पत्ति भई है सो राम नाम मंत्रार्थ जो में बनाये है तामें ब्स्तारते लिखे दियो है। इहां सले- पते जनाये देजँहों"अइउ णूऋ रू क्‌ ओोडऐओ सच हयवरट छण मझूण- नम्‌ झभञ घदपप्‌ जबगडद्श्‌ खफछठथ चटतब कपय्‌ शपसर हलये ॥सबबणे चौद्‌ह सूत्रम पाणिनि लिखिंदियो॥ भादिरन्त्पेन सेहता। अन्त्येने ता सहित आदि मेध्यगानां स्वस्यच संज्ञास्यात”” यहि सूत्र करिके अकार आदिकाछीन ओलकार अंतकालीन तब अल प्रत्याहारकीन तेहितें बीच के वरण सब आयगये।सो अलु प्रत्याहार रामनामकेा एकदेश ते निकेस है सो रामनामके रकारकों बर्णे विपयेय कियो तब अकारकों यह कैतिले रकारको वह कैतिले गये तब अर भयों सो रकार छकारकों अभेदहै तेहिते अछूमयों तेहिते राम नामके एक देश ते सब निकसि आये तेहिते सबकी आदि राम नाम है। सो राम नामको अर्थ साहिबैके ठहरायहै, अर्थीत्‌ राम नाम साहबहीं को बतावै है। से श्री कबी- रजी कहे हैं कि, हम वही शब्दकें सनेही हैं कैप्तो है शब्द कि, अलखहे वा सबकी छूखावे है वाकी कोई नहीं लेख है जते आंखीते सबको देखे आंखी आपनी कोई नहीं देखे है जो कहो कबीर कैसे कहे हैं कि हम अल- खको छखायदियो तो सुनो जैसे ऐना लेके देखें तो आपनी आंखीकों प्रतिबिंब दे!खि परै है सो यह बीनकरूप ऐनाहै तांमें आनेरबंचनीय नो राम नाम ताको

साखी | ( ६४९ )

अतिबिब बीजकमें दिखायों अथीव्‌ यह बतायदियो कि, रामनामहीते जगत मुख अथ में सबकी उत्पत्ति भई है। रामनामही साहबकों बतवि है साहब मुख अर्थमें आनिर्बेचनीय साहबको रामनामही देखाय देहहै यह भी कबीरजी अरूसके देखिबेको उपाय बताय दियो यही अलहूखकों छखावनों है से| जब साहब को हैनाय तब या लखे तामें प्रमाण सुखसागरकों अ- लख अपार छसे केहि भांती। अछखढछूखे अल्खैकी जावी ३४९१

बूः ब् 5

झा करता आपना, मानों बचने हमार

पंचतत्त्वके भीतरे, जिसका यह बिस्तार॥ ३४२

तुम कहते आये तुमकी को कियों सो अपने कत्तोंको तुम बूझीो वह साखी में तो बचन हम कहि आये ताको तुम मानो तुम वह शब्द रामनामही ते भये हो निसका यह बिस्तार सब देखतेहों: जोन जोन मानिदी तुम मानिराखेही सो सब पंचतत्त्वकेभीतरहे एकवह रामनामही पंचतत्त्वके बाहिर है वही तुम्हारों आदि कत्तो है ३४२:॥

हमकत्तोहें सकल साश्कि, हम पर दूसर नाहि

कहे #+ [कप

कहे कबीर हमे नहिं चीन्हे,स।कल समानाताहि॥३४३॥

हमही सम्पूर्ण सृष्टिके करत्तों हैं हम मालिक दूसर नहीं है हमहों सबके मालिकहें सबमेरेहीं में समानहैं हमहों अह्महेँ ऐसा कोई कोई कबीर कायांके बीरनोव कहे हैं ताकों आप खंडन करे हैं ३४३

सुतनहिं माने वातपिताकी, सेवे पुरुष बिदेह

कहे कबीर अबहँ किन चेतो, छांड़ी झूठ सनेह॥३४४॥

तैं सुतहै रामनाम प्रतिपाय ने साहबरैं ते तेरे पितहैं तिन की बात तें

नहीं माने है बिंदेह पुरुष नो है ब्रह्म ताको सेंवे है कहे आपही बह्म द्वै कप [ रु हे (+प ७. ५४/ लिल

बैठे है सो अबहूं चेतकरु साहब कहि आये हैं कि॥अजहूं लेई छड़ाय काछसो नो घट

(६५० ) बीजक कबीरदास

सुरातिसभारै””॥ सो ऐसे पिताकी बातमानु यह झूठसनेह छोड़िदे नो आपने को बह्म मानिके बैंठे हैं कि महीं बह्महों यह ब्रह्मतो मनको अनुभवहें झूठा है जीव बह्नम कबहूं नहीं होयहै ३४४

सबे आशकरशून्यनगरकी, जहां कत्ता कीई

कह कबीर बूझो जियअपने, जातेभरम होई॥३४५॥

सबै वह उशान्यनगरकी आशाकरे हैं जहां कोई कत्तों नहों है सो वह तों झठाहै सो कबीरनी कहै हैं कि तुम आपने मनमें बूझी तो उहांतो कत्तों हई नहीं है जगव बनेंहै तों कौन जगत को कियो है तेहिते निराकार अकत्तों ब्रह्म कहनूति नो कहो हो सो सब झूठी है वो यह तुम आपने जियमें बूझी जेहिते ब्रह्मवालों भ्रम तुमकी होइ २३४५

भक्तिभक्ति सबकोई कहे, भक्ति आईं काज जहँकी किया भरोसवा; तहँते आईं गाज ३४६

भक्तिभक्ति सबकोई कहे हैं औरे औरे देवतनकी भक्ति करे हैं सो वा भक्ति : कीनो कान आईं जेहि जेहि देवंको भरोसा किये तहांते गाजआई कहें वें सब काल स्वरुपहें सब याकों मारिके आपने लोक ढैगये जब महाप्रठढय भई तब इष्ट उपासक दोऊ रहे पुनि जब जगवकी उत्पत्ति भई तब कम्मों- नुसार वोंऊ उत्पन्न भये ३४६

समझो भाई ज्ञानियों , काहु कहा सँदेश

जेइ गये बहुरे नहीं, है वह केसा देश ३४७ हे भाई ज्ञानिउ तुम समुझते जाड तौन तुम ब्रह्म बरह्मकहों हौ तहां को संदेश कोई कह्मों कहे सब वेदांती ब्ह्मज्ञानी कहे हैं कि वाकों तो हमकही नहीं सकेहें धोंकेसाहै जे उहां गये ते बहारिके आये जो बहां को सन्देश बतावें अत्थौत्‌ कुछ हाथ छग्यो ३४७ धोखे सबजग बीतिया, धोखे गई सिराइ॥ स्थितिनाकरे सो आपनी, यहदुख कहा जाइ३४८॥

साखी (६५१)

धांखाही ते सम्पूर्ण जगत्‌ व्यतीत होगया और घोखाही ते सिराय गया जौ यह मन अपनी स्थिति नहीं पकरे है स्थिर नहीं होयहै सो आपनी भूछ का्सों कहे यादुःख काहसों नहीं कह्यो ३४८

मायाते मन ऊपजे, मनते दश अवतार

ब्रह्मांविष्णु धोखेगये, भरमपरा संसार ३४९ साहब साहबकें पास पहुँचेहैं ने तिनकोीं छोड़े और सब मनके फन्दर्में परे हैं और अर्थ सपष्ठही हैं ३४९

| 40 पशिकीकक,

रामकहतजगवीते सिंगरे, कोई भये राम

(५ कप 5५ बिक कहकवीर जिनरामाहे जाना, तिनके भे सवकामरे« 5 हमहीं रामहें हमही रामहें या कहत कहत सब सब नग बीतिगये मरिगये परन्तु कोई राम भये कबीरजी कहैह कि निने श्रीरामचन्द्रकों

8 को

मालिक जान्यो है तिनके सब काम हैगये हैं ३५० यहदुनिया भे बावरी, अहृश्यसों बान्‍्यों नेह॥ हदृश्यमानको छोड़िके, सेवे पुरुष विदेह ३५१ यह दुनिया बावरी है गईं अहइ्य जो निराकार ब्रह्म तासें नेहबँध्यों है सो वातो धोखाहै काकों मिंले जीव ब्रह्म होतहीं नहीं है सो दृश्यमान जे साहब श्रीरामचन्द्रहें तिनको छोड़िकै वा बिंदेह पुरुष निराकार बह्मको सेवे है अर्थात्‌

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वाहीम लागेहे २५१ ९२ द्ठे ञ्ृ |

राजा रैयत हेरहा, रैयत लीन्हीं राज

रयतचाह सवालेया, ताते भया अकाञज ३५४२ ॥।

राजा जो साहब है सो रेयत है रहा है अर्थाव्‌ वाकों कोई नानतही नहीं है रेयत नो धोखाब्ह्म सो सब लेत भयो अर्थीव्‌ सब जग वाद में छग- भयों सो रैयत नो है अहम्ब्रह्मास्मि सो साहबको सब लियो चाहे है अथीव आप बह्ल होन चांहै है ताते अकान भयों माया के बश है आपनेनको मालिक मानन ढग्यों २५२

(६५२ ) बीजकू कबीरदास।

जिसका मंत्रजपें सप सिखिके, तिसके हाथ पाऊं॥ कहैकबीर मातुसुतकाही, दिया निरंजन नाऊं॥३५३॥ निसका मन्त्र सब सिखिकै जप हैं प्रणण उसका अर्थ बल्नही है नित्तके हाथ पांउ नहीं हैं निरञ्ञन जो है ब्रह्म ताको निस्थ्नननाम मायैकी धरायो है भाया वा निरझ्ञन ब्रह्मकी माता है काद्देते कि या निरञअ्नन नाम बचन में आवै है बिज्ञान करिके अनुभव नो ब्रह्म होईे सो मतका अनुभवहे मायै- को पुत्है वह माया मनमें मिलि इच्छारुपहै सो नाको तुम बह्म कहौहों सोई माया ते रहित नहीं है तुम केसे अहम्त्रह्म मानिं माया ते रहित होउगे तामें ममाण कबीरनीके शब्दकों “मनपरपथी मनैनिरज्ञन मनही है ओड्ढारा तीनछाक मनतफांसिलियाहै कोई ने मनते न्यारा ३२५३ | कप तप औक भा विज जनि भ्लारे ब्रह्मन्षानी, लोकवेदके साथ कृहकबीर यह बूझहमारी, सो दीपकलियेहाथ ३५४॥ कबीरजी कहे हैं कि रे बह्नज्ञानी तुम जाने भूले! छोक वेदके साथ छोंकमें सरहना पायके वेद में घोखाब्रह्ममें लागिके अथीत्‌ तुम यामें खराब होउ सों कह कबीर यह बूझ हमारी कहे कायाके बीर जीवों परमपुरुष ने साहब श्रीरा- -मचन्द्र तिममें तन मन ते छागो नो हमारी बूझहे सोई साहबके अनुराग रूप दीपकहाथमें लेउ जाते संसाररूप अन्धकारते पारहोड ३५४ का कप दि $%९२ देव देखा सवकाहि, सेवक देवनदीख कहकबीर इन मरते देखो, यह गुरु देह सीख॥३५५॥ देवता आपने सेवककों सेवक आपने इष्ट देवताकों दीख तिनको कबी- -रनी कहे हैं कि हम दूनों को मरते देखा है अर्थात्‌ महापलय में नहीं रहें ताते हम गुरुकी सीख इनको देते हैं कि धोखा नाना मतको त्यागि साहब कों

अर

जानो नाते जनन मरण फटे या सीख देते हैं ३५५ तेरीगति तें जाने देवा, हममें समरथ नाहीं कहकबीर यहभ्ूूल सबनकी;सबपरे संशय माहीं॥३५६॥

साखी। (६५३ )

सब लोग या कहे हैं तुम्हारी गति तुम्हीं जानो हममें सामथ्य नहीं है जोन हमको गुरु बताय दियो है ताही में छगें हैं :तिनकी कबीरजी कहै हैं कि इन सबकी भूल ईश्वर तो बताबे आवेंगे जीवका तो आपने साहबको जानबे चाही नाहक संशयमें परे हैं साहबको जानें तो साहब छड़ाइ छेईदँगे ३५६

खालीदिखिके भरमभा, ढूंढतफिरे चहुँ देश

ढूंढ़त हृढतमरगया, मिला निगुणमेश ३७७

जोने संशयमें सब बड़िगये हैं सो संशय कबीरनी देखे हैं खाली कहें शून्य देखिके सब जीवन को भरम भयों सो देवता परोक्षहे वाकों अर्थ जाने नहीं हैं चारों देशमें दूंढत फिर हैं ओऔ केते वा निगुण धोखाबह्न को इूंढुत टढ़त मरि गये खोज छाग्यो ३५७

बूझ आपनी थिररहे, योगी अमर सो होइ

अब बूझे भरमे तजे, आप ओर कीइ ३५८

देखादेखी सबजग भरमा, मिला सतगरुरु कोइ

कहे कबीर करत नितसंशय, जियरा डाराधोइ॥३५९॥

गुरुवा छोग कहे हैं कि नो बुझ थिर रहे तो योगी अमर है जाय जो जग- तके नाना श्रमछोड़िके अबहूं बचे तो एक आपकही है दूसरानहीं है मरैगा कौन ऐसे कहि कहि देखादेखी श्रीकबीरजी कहे हैं के सबजगत्‌ भरमि गये सतगुरु- कहे साहबके जाननवारें इनको कोई मिछो हमहीं ब्रह्महैं यही संशय में डा- रिंके आपने जीवन को खोइ डारे अर्थात्‌ नरकर्मे डारिदीन्हे ३५८॥३५५॥

ह्वांकी आश लगाइया, झूठी हांकी आश॥

गृहतजि वनखंड मानिया,गुगयुग फिरे निराश॥३६०॥ वा ब्रह्म जो धोखा ताकीआश छगाये है सो आश तेरी झूठी है गहत्या- गिके जाके हेत तुम बनखण्डमें थ्किहु सों युग युग निराश फिरेगो अथीत्‌ ठिकान रुूगगा वह भ्रथ्याह बना साहबक जाद संसारते छटगो ॥३६५०॥ नइके विचले सबचर बिचला, अब कछु ना|हि बसाइ॥ कहेकबीरजोअवकीसस॒झे, ताकोकालनखाइ ॥३६१॥

( ६५४ ) बीजक कवीरदास

कबीर जी कहे हैं कि नेइ नब बिगरि जायेहे तब सगरो घर बिगरि जायहै ऐेसे नेई जो है धोखाब्रह्म जौनेकों गुरुवाठोग समुझावै है सोई जब मिथ्या ठहरयों तब और सब छोकके देवता येई घरहें ते बिगरिबोई चाहें अथोत्‌ इनते अब कौन सांचफल मिले सो श्री कवीर जी कहै हैं नो कोई साहब को समुझ्ै अथीव्‌ तन मन ते छांगे ताको कार नहीं खाय है और सब कालकों कलेवा हैं ३६१

रामरहे बनभीतरे, गुरुकी पूजि आश कहकबीर पाखंडसब, झूठे सदा निराश ३६२

बन जो है संसार तोनेके भीतर जब जीव भयो रामरहे कहे वह जीव रामते राहत भयो रामको पुनि वरिआाई पांवै है अथवा रामते रहित जब जीव भयो तब संसारी है जायहै और परमगुरु जे सुर्रत कमरमें बैठे रामनाम बतावै हैं तिनकी आश पूजतभई वे रामनाम बतावे हैं यह नहीं सुने हैं वे छुड़ावन चहै हैं से नहीं छूटे हैं जे साहबको छोड़ि और औरंमें छगावै हैं ते सब पाखण्डी हैं झूठे हैं पासण्डी जे हैं और औरमें छागे हैं तिनकी मुक्ति कबहूं नहीं होइहै वें सदा निराशरहें तामें म्रमाण चौरासी अड्गकी साखी॥“चकई बिछरी रैने की - जाय मिली परभात जे जन बिछरे रामते दिवस मिलें नहिं रात''॥३६२॥

42... हर किक पे चांवे कि

बिनारूप बिनरेखको, जगत नचावे सोइ॥

च्‌ ब्क क्र बा

मारे पांचोजानही, ताहिडरे सबकोइ रेहश के.

जोमन जगत्‌ को नचावे है सो बिनारूपकों है बिनारेखकी है आकाश वायु आदिक जेहें तिनमें रूपनहीं है पे रेख देखी परे है बायुको स्पर्श होय है सोई रेखेहे मनके रेखऊ नहीं है सो जे पांचो पांचो ज्ञानेद्विय कर्मेंन्द्रियकों नहीं मारे हैं ऐसे गुरुवन को सबनने ढेराते जाउ नहीं तौ तुमहं को संसार में डारि देईँगे २६३

डर | कप उपजा जिय है डरा, डरते परा चेन नही वो नरेन

. देखा रामहि हेनहीं, यहौ कहे दिनरेन ३६७४

साखी ( ६५५ )

यही मनते डरउपजा कहे यहीके अनुभवंते बह्ममयो से भूत ब्ह्मको सबे डेंरा- यहें सो यही बह्मयके ढरमें नीव पराहे कहे हराहै सो यह ब्रह्मके डरते चेन याको परा अथोंद्‌ यह ब्ह्मको टूँढ़तही रहिगये पाये ब्रह्म भयो चैन भयो यह कहे हैं कि राम को कोई देखा है हमतो नहीं देखा नो कोई हमको देखाइ देइ तो हम मानें सो ओर मृद्ी तुमतो डरमें परेहीं तुमको कैसे देखाइईदेई जाको साहब कृपाकरे हैं ताको देखाइ देइहों ३६४

सुखको सागर में रचा, दुखदुख मेलो पांव

स्थिति ना पकरे आपनी, चले रछ्न राव ॥३६०॥

श्रीकबीरनी कहे हैं कि मेंतो या बीनक अन्धमें सुखको सागर रच्यो है कहे साहबका बताइ दियो है तामें नहीं लगे दुःखमें पाठ मेरे है अर्थात्‌ कहूँ ब्रह्ममें कहू ईश्वरनमें कहूं नानामत में छागे है जहां याकी स्थिति है साहबमें तिनको नहीं पकरे याही ते राजा रंके सब चले जायहैं कारुखाये छेइहै॥३६५॥

दुख हता संसारमें, हता शोक वियोग , सुखहीमें दुखलादिया, बोले बोली लोग ३६६ या संसार जो है सो चित अचितरूप साहबको है सो नो कोई साहबरूप करे संसारको देखे है ताकी दुःख शोकहै वियोगहै साहबतो सर्वेत्नपूर्ण है ऐसो सुखरूप नो है संसार तामें मोर तोरमें परिके दुखढादिया कहे दुःखभोगन टग्यों वही मोर तोरकी बोली छोग बोले हैं स्ाहबको नहीं जाति हैं॥३६६॥

लिखापढ़ीमें परे सब, यहगुण तजे कोइ

सबे परे भ्रमजालमें, डारा यह जिय खोइ॥ ३६७

सब लिखापढ़ीमें परे हैं वेदशाखर तातस्ये करिके साहब को बतावे हैं सो तो नान्‍यो वादविवाद पढ़िपाड़ि करनलगे नये नये ग्रन्थ बनाय लेनछगे छिख- नलरगे वेदशाखको अर्थ फेरि ढारनछंगे साहब मुख अर्थ जौन तातपय्ये करिके वेदशाख बतावै हैं ताको छोड़ि अर्थ बदडे हैं या गुणको कोई नहीं डांड़े याही ते सब श्रमजालमें परे आपने नियको खोइ ढारयो ३६७

(६६५८ ) बीजक कंबीरदास

बहु परचे परतीति दृढ़वे सांचेको विसराव कछुपत कोटि जन्म युग वाँगे दर्शन कतहूं पावे परम दयालु परम पुरुषोत्तम ताहि चीन्ह नर कोई तत्पर हाल निहार करतहै रीझतहै निम सोई बधिक कम कारे भक्ति दृढ़ावे नाना मतकों ज्ञानी बीजक मत कोइ बिरछा जाने भूलि फिरे आमिमानी कह कबीर कत्तोम सबहे कर्तों सकल समाना। भेद बिना सब भरम परे कोड बूसे संत सुनाना ३६९१ इति श्रीकर्बरजी विरचित बीजक तथा सिद्धिशत्रीमहाराजाधिराजश्रीमहाराना

ओऔरीराजाबहादु (रश्र.सीतारामचन्द्रकृपापात्राधिका रिविश्वनाथासें हजूदेवक - पाखण्डखण्डनी ठोकासमाप्त। | शुभमस्तु

बघेलवंशागमनिर्देश

पोज ++००४४४०2क् तन

निल्कोन

हा-वदों वाणी वीण कर, विधिरानी विख्यात वरदानी ज्ञानी सुपश, हरि गानी दिन रात १॥ मदन कदन सुत मुद सदन, वारण वदन गणेश बेदतहों अरविंद पद, प्रद उर बुद्ध विशेश सवैया-श्री रघुनंदन श्रीयदुनंदन ओध द्वारकाधीसविलासी | रावणकंस विध्व॑ंस किये जिन अंश मयअवदारभकाशो पारकयामवर्सिधु अपारकों वीहितनामजासतखुपातो। वंदत हों तिनके पद द्वद सुध अरावद अनदकरासी दोहा-शंकर शंकर पद कमल, बंदन करा निशक शिर मयंक शाचि बंक जेहिं,लसतति शेलजा अंक॥३े॥ प्रियादास पद्‌ पद्म युग, पुनि पुनि करहूँ म्णाम विश्वनाथ नरनाथ शुरू, हारे स्वरूप सुखधाम ४३४ सांच मकुंद स्वरूपजे, नाम सुकुदाचाय्य वेदों न॒प रघराज गुरु, करन सिद्धि सब काय्य हे ५॥।

(६६० ) बघेलवबंशवण्णेन

रामभक्त शिरताज जे, महाराज विश्वनाथ करन अनाथ सनाथ पद, पुनि पुनि नाऊ माथ सर्वीया-भूपशिरोमणिश्रीविश्वनाथतनेरघ॒ुराज अनाथनिनायै। आ्रीयदहनाथकीभक्त अनूपमसेबी सदाद्रिजसाधनगाथे तेज तपे देननाथसो जासु यशो निश्चि नाथ दिपे महिमाये तापद पाथजम झछुख साथ हे जोरिकेहाथनवावतमायें १॥ दोहा-पवनपूत जय छुखदवन, राम दूत खखधाम शमन धूत खुक्॒पाभवन, बल अकूथ सब ठाम॥ ७॥ जय कबीर मतिधीर अति, रति जेहि पद रघुवीर क्षीर नीर सत असत कर,विवरण हंस शरीर जय हारे गुरु हरि दाप्त पद, पंकज मोहिं भरोस जाकी कृपा कटठाक्षते,मिटल सकल अफसोस॥ ९॥ संतत संतन भसूसरण, चरण कमल छशिरनाय॥ बार बार विनती करों, सब मिलि करो सहाय १० रच्यो रामरसिकावली, अंथ; भूप रघुराज तामें बहु भक्तन कथा, वरण्यों भरि खुखसाज ११ भक्तमाल नाभा ज्ञुकृत, ताहदीके अनुसार ओआऔकबीरह की कथा, तामे रची उदार॥ १२४ छप्पय-जो कबीर बांधव नरेश वेजावालि भाखी अरू आगमानिर्देश भविष्यहु जो रचि राखी सोउ समास सहुलास तासु में वर्णन कीनो सुनत गुणत जेहिं सखुकवि संत संतत सुख भी नो तेहि तुम वरणों विस्तार युत, शासन नृप रघुराज दियो कह युगलदास घरि शीश सो, वणन हों आरंभकियो॥ १॥ घनाक्षरी मथम कबीरनी सिधारे पूरी मथुरामें संतत सहित अति हरप बढ़ायकै तह धमेदास आय प्रभु पद्पंकनमें बेठों बार बार जीश सादर नवायके

बघेलवंशवणेन ६६१ )

ज्ञान उपदेश ताको कीन्द्यों श्रीकबीर तहां कह्मों सो इति भीति विस्तर बुझायके मानिंके यथारथ कृतारथह्ठ धर्मदास चलि मथुरा तेपथ गौन्यों चिते चायके ॥१॥

दोहा-धर्मंदास आवत भय, बांधोगढ़ सहुलास गुरु विश्वास दृढ़ वास किय, जासु हिये आवास॥ ५॥ पुनि कछु दिन बीतेसुख छाये। श्रीकबीर बांचव गढ़ आये तहूँ चोहट बनार मभिमाहीं | निराखि एक सेमर तरु काहीं तहाँ; आठ “दिन आसन कीन्हों सेमर तरू उड़ाय पुनि दीन्‍्द्यो निराखि छोग सब अचरण माने भूपति सों सब जाय बखाने महाराज साधू यक् आईं सेमरतरुको दियो छड़ाई गुणि अचरन भूपति अतुराई | प्रभु पद्‌ किय दुंडवृत सिधाई सादर नृप कर नोरि सुहाये | पूंछयो नाथ कहाँसे आये तब प्रभु बचन कह्मों अभिरामा | हम कबीर निव॑स यहि ठामा ॥| दोहा-तव राजा पूछत भयो, केसे जानें नाथ॥ देहु परीक्षा हमहि जो,तो लाखे होसेँ सनाथ।॥ १४॥ होत अज्ञान नाश जेहिं तेरे | कहिय नाथ सो ज्ञान निवेरे देवी आदि वेदकी जोई आदि निरंकारहु नो होई सादर पूछते भथों भुआछा दियों बताय कबीरकृपाछा राजनाराम क्यों पुनि वेना कहिय जो आादि बघेल सचैना | तब तुमको कबीर हम जानें अपनो जन्म सफर करि मानें सुनि कबीर तब मृदु मुसक््याई उत्पत्ति जोन बंधे सोहाई छागे कहन भूपसों सो सब हम साकेत रहे निवसे जब तब मभोसें कह श्रीरघ॒राई। तुम कबीर संस्तारहि जाई दोहा-जीवन की उपदेश करि, मेरो ज्ञान अशोक हमरे लोकपठावहू, जो प्रद्‌ आनंद थोक १५ छेंदू-द्वापर अत आदि कलियुगम कृष्ण प्रकाश अनूपा ॥। पूरब दिशि सागरके तटमें धरिहे बोध स्वरूपा।॥॥.

( ६६२ ) बघेलवंदशवणन

तहां जाय ठुम प्रकट होड यह रघुवर आयस्ु पाई ४0 प्रगटि वोडेसा जगपतिकेरों द्रशान लीन्हछों जाई २७

सागर तीर गाड़ि कुबरी पुनि बॉघि तासु मयोंदा पुनि परबोधि सिधुकी बहु विधि गमन्यों युत अहादा 0 चलत चलत गुजरात आयके नगर विलोक्यों जाई जहां खुलंक भूप बहु साधुन राख रहो टिकाईं ॥२॥

भतक्तिवान अति रही रानि अति नित सब साधुन केरो दरद्दन करिले तिन चरणामृत निज घर करे बसेरो ते साधुनकी दर्ान करिके एक वृक्षतर जाई वसि आसन बिछायके बेठयों हरिको ध्यान लगाई॥ रे॥। यक दिन रानी सब साधुनकों भोजन हित बोलवाई पंगति दिय बेठाय गयो में नहिं तहँवांँ हरषाई रानी तब मेरे आश्रममें आवत्ने अतुशाई महि तजि अंतरिक्ष आसन मम निरखि परम सुख पाइईं४ विनती किय भञ्ठ आपहु चलिके मम घर भोजन कीजे में तब कह नहिं चूख प्यास मो हि हरि अधार गुलि लौजे! रानी कह यकतो खुत विन में हाखित राज्य सब सनी दूजे जो आप पगुधारे तपी ताप तो दूनी॥ ॥# में कह सोच करे नहिं राजा हे छुत हेंहें तेरे संतनकी चरणामृत अबदी लेआवे हढिग मेरे साधन चरण धोय चरणोदक लेआई जब रानी दियो पियाय रानिको तब में निज चरणोदक सा नी॥ ६॥ लादे मेरो दर साधुनकेरों बहु विधि करि सतकारा परम भमोद पायठर रानी गमनत भई अगारा कहो हवाल भूपसों सो सब सुनि नृूप अति खुखपाई ले फल फूल द्रव्य बच्चु साद्र मम समीप दुत आई॥शा

बघेलवंशवणेन ( ८६३ )

करि दंडवत प्रणाम विनय किय नाथ दया उर धारी

कछ दिन आप वास इत कीजे तो में होहँ सखुखारी कुटी [दियो बनवाय भूप तेँहँ करतनयोी में वासां

कछ वाप्तरमें गर्भवतीने रानी सहित हुलासा दोहा-ज्यों ज्यों रानीके उदर, बढ़यों गे करि वास

त्यों त्यों रानीके वपुष, बाढ़यो परम प्रकाश ॥१६॥ कछु दिन बीते सुदिन जब आयो तब रानी दुईइ खुत डपजायों भयो जो जेठ पुत्र तेहि आनन होत भयो सम मुख पेचानन छहुरो तनय होत जो भयऊ तेहि नर तनु अति सुंदर ठयऊ लखि रानी अति अचरन मानी दिय देखाय भूपति कहेँ आनी मानि शंक भूपाऊलूउदासा कह कबीर आयो मम पासा सादर करि देडवत प्रणामा | कीन्हीं विनय भूप मतिधामा नाथ भये मेरे सुत दोई। है जति कृपा आपकी सोई वे जो भयो जेठ सुत स्वामी व्याप्र बदन सो यह बदनामी

दोहा-सो खुने में वाणी कद्दी, करिके बहुत प्ररंस

यह सखुत वेश वलेसभो, रामलोकको इस १७ व्याप्त बदन परतो हदग जोई नाम वधेर ख्याति जग होईं याते वेश बयालिस ताईं अग्ल राज्य रहि है महि ठाईं तेनवान यह होंय महाना। प्ूरण भक्तिमान भगवाना वेश बयालिसलों अभिरामा चलिहे तुब बंषेल कुल नामा यह वर छहि सो मेरे मुखते | भूपति आय महरछ अति सुखते द्विनन दान दे तोपन काहों दगवायो वहु बार तहाँहीं पुनि मोकहँ सो नृपति सुलाना। कारे बहु विनय छाय निनथाना ऊंच आसन पर बैठाई पूजन किय अति आनंद छाईं दोह्ाय-रानीले दोउठ पुत्रको, मरे पग दिय डारि

में पुनि देतो भयों, बहु अछ्ीस चित धारे १८

(६६६ ) बवेलवंशवण्णेन

कियो शाह नहि कोष देशू नहिं चाकर यह बड़ो अदेश चलिहे किमि जग नाम हमारों नहिं. कबीर वर मृषा विचारो करत करत यहि भांति विचारा | होतमयो जबही मिनसारा दोहा-सपदि भूप जयसिद्ध तब, जाय जनकके पास

विनय कियो करजोरिके, मोहिं यह परमहुलास२४ करि महि अटन तीथे सब करहूँ परम प्रमोद हिये महूँ भरहूँ कै धर्म धरे घन जोरी। क्षत्री द्ै करतों धन चोरी तेहि नृप तेनअंश घटिनाई ।ताते धर्म करे मनढाई कै नीति रण पीठि देईं। सो नृप अनुपम यश महि लेई यह सुनि रब बघेल सुख पाये पितु प्रसन्नह्े वचन सुनायों जाहु हमारे पितुके पासा | कहों करे जस हुकुम प्रकासा शी यह सुनिके नयसिद्ध भुवाछा जाय पितामह निकट उताछा शीश्ष नवाय उभय कर जोरी विनय कियो यह इच्छा मोरी दोहा-जात अद्ठों तीरथ करन, दीजे नाथ रजाय

तब सुलंक नप पोनच्रसों, कह्यों गोद बेठाय २५ ॥। कौन कलेश परयों तुमकाहीं जो निन राज्य रहतहों नाहीं यह तुब सिगरी राज्य ललामा का परदेश जानको कामा सुनि जयसिद्ध कही तब बाता देहु राज्य दोंड पुत्रन ताता : काम मम तुब राज्यहि तेरे करिये विदा यहीं मन मेरे तिहरो यश॒ जगमें आति होई नहिं निंदा कारे है जन कोई तब कबीर वरदान प्रभाउ गुणि सुलड्ः नृप भारे अति चाऊ युगल उतेग मतंग निवरे तीस तुरंग तबेले केरे तिनकी नीकी भांति सनाईं द्रव्य उन्‍्ट दे तुरत भराई दोहा-वीर महारणधीर जे, काल सरिस सरदार

तिनको तिन संग करत मे, ओरहु चमर्‌ अपार २६ सुदिन शोधि जयसिद्ध नरेशा पितु मातहिं किय खातिर वेशा

का भर

पनि रानी भतिशय विलखानी महूँ संग चलिहों कह वानी

बंधेलवंशवणन ।- ( ६८७ )

जहाँ धर्म रहती तहँ माया जहां रूप रहती तहेँ छाया हे तिय सँंग मोहिं शीश नवाई मोस्रों बहुत आशिषा पाई दशराके दिन किय पस्थाना। पुरछोगनका करि सनमाना कह कबीर पुनि मो टिंग आई। कीन्ही विनय प्रमोद बढ़ाई प्रभु भोहिं निमि दीन्‍्हों बरदाना तिमि मम सँग कीजिये पयाना तब में सुनि यह ताकारे बानी हँसेंके वचन कह्यो! सुखमानी

दोहा-तुम सवा अति मम करी, दोड जन्मके मोर

भक्त अहो तात चलहँ, संग तजों नहिं तोर ॥२७ विजय मुहरत अबाहें न॒प, झाणि मम वचन प्रमाना। सुदिति निसान बजायके, वेगिहि करहु पयान॥२८॥

द-वर मालनि मोर निदेश, जयसिद्ध नाम नरेदा।॥ पु प्तामह टठेग जाय, बहु भनात शोशनवाय॥। ९॥ स्वरदाहिनो नूप साथि,चढ़ि चल्‍यो हय खुख कांधि॥। तेहि समय पुरजन यूह,ज्ञर दिय अव्यीस समूह ॥रा जस देश यह गशुजरात, तसंदेश लही विख्यात तब पर देवी मात, रक्षक रहे दिन रात तिमि रानि भारे अति चाउ, पारे सासु ससुराह पॉड कह छोंड़ियो नाहें छोह, नहिं किह्मो कबहूं कोह।॥४॥ पूनि रानि युत जयसिद्ध, यश जासु जगत्‌ भसिद्ध ॥॥ मोहिं सहित साध्ष समाज, संग ले चम्‌ छबि छाज *।। किय गवन मग रणधीर, तनु धरे मनु रसबीर बिच बीच पथ कारे वास, पुरगढ़ा कोसह्ुलास ॥६॥ परुँचयो महीश खुजान, लिय भूप तदँ अगवान निज महल गयो लेवाय, दिय नजूर बच्ु सुख छाय »॥ जयसिद्ध पुनि नरराख, सरि नमंदामें जाय भे तिय सहित कारे स्वान, घन अमित दीन्हो दान 4॥

(६७० ) बघेलवंशवणन |

तुमहीं राना अहो हमोरे निशि दिन सेवन करब तिहारे भये ख़शी केहरीसिंह सुनि करि नवाबकोी आति खातिर पुनि॥ भवन जानकी दई बिंदाई गयो सो बार बार शिरनाई॥ नूप केहरीसिंह सहुलासा कछु वासर तहूँ कियो निवासा सरदारनकी करि सनन्‍्माना | सब चकरनको सहित विधाना दिय चिट्ठा चाकरी चुकाई वे सबे सेवा मनलाई दोहा-तहां केहरी सिहके, माल केसरी पूत होत भयो जाके बदन, वसी सरस्वता पूत ॥२७॥ उभ्य मछको जोर तह्ु, सुंदर तेज विधान कछ दिनमे तेहि व्याहकरि दीनन्‍्हो दान महान ३4॥ फेरि व्यतीत भये कछुकाछा तनु तजि करि केहरी भुवाला वास कियो वासवपुर मांही माछकेसरी सपदि तहांद्ी विधि युतमतकक्रिया पितुकेरों करि दीन्ह्यो तहेँँ दान घनेरों मालकेसरी कछु दिन माहीं उपजायो सुंदर सुत काहीं सारंग देव नाम तेहि भयऊ सुयश प्रताप नाम तेहि ठयड भीमछदेव भयो सुत तासू फोछि रहो नगमें यश जासू हरिगुरुकों भो भक्त महाना पाल्यो एरजन प्राण समाना ब्रह्मदेव ताके सुत जायो सो निन पितुसों वचन सुनायों दोहा-आप की जिये भजन हरि, सुचित भोन करि बास मोहि दीजिये फोज सब, कारे उर कृपा प्रकाश ॥२९॥ कुछ दिन सैर करों महिं माही प्रकट्ह नाम राबरे काहीं सुनि नप भीमछदेव उदारा अह्सूनु सों वचन डचारा मनमें यह विचार किय नीकोी करे सुपती सोइ सुत ठीको जगमें नहिं. कुप्त कहवायों अस करतूति करन मन लायों ब्रह्मदेव सुनि ये पितु वैना करी तयारी भरि अतिचैना चतुरंगिनी चम्‌ संग लैकै कियो प्यान वीररस म्बैंके राज्य गहरवारनके आयें कछु वासर तहेँ वसि सुख छाये पुनि सिधाय शिरनेतन देश तहेँ विवाह किय ब्रह्म ब्रेश

बघेलबंशवणन | (६७१ )

दोहा-कछुक दिवस शिरनेतनप, सेवा कारे सुत प्रीति ब्रह्मंदव सों समय शुणि, कह्यों विनयकी रीति ४० ॥॥ यक मम भाई देश हमारे गनत हमहिं भये बलवारे तिनकी दंड दीजिये नाथा तौ हम दें राज्य सुख साथा ब्रह्मदेव यह सुनि तेहिं वानी | कह नर पंडेछेहिं हम जानी पुनि न॒प ब्रह्मदेव रिस छायो। पाती यक ऐसी छिखवायो ग्यारसे नेजा संग लीन्हे आवत तुब दरशन मन दीन्हे हैं बबेठ हम विदित नहाना तुम शिरनेत अनुज बलूवाना यह हवाकू लिखि पत्नी काहीं दे पठयो यक मनुज तहाँहीं सो पाती दिये तिन कर जाईं। बांचत गयो कोपमें छाईं दोहा-तुरत जवाब लिखायके, दीन्‍्हों तेहिं कर धारे आप दरहदा पादे जो हम, धनि धनि माग्य हमारे ॥४९॥ सुन्यो हम बंघेलको नामा। निराखि होहिं अब प्रण कामा पाती असि छिखाय शिरनेता बांध्यो युद्ध करनकों नेता फौन जोरे आगे कछु जाईं। ठाढ़े भये रोष अति छाई इततें ब्रह्लेद्‌की सेना काल समान गई कछु मैना भगी फौज शिरनेतन केरी | नृप शिरनेत बन्धु तहैँ घेरी पकरिे भूष शिरनेतहिं काहीं सोंप्यो सो आतिहीं सुख माहीं ब्रह्मदेकाी। निन सब देश सोंपिदियों शिसरनेत नरेशू तहूँ नृप अह्मदेव सहुठासा करत भये कछु वासर वासा दोहा-बहादेवके होतमयों, तनय सिंह जेहि नाम सिंहदेवके पुनि भये, वेणीसिंह ललाम ४२॥ भूपति वेणीसिहके, नरहरिसिह सुजान नरहरि हारिके होतमने, भेददेव मतिवान ४३ शिरनेतनके सहित ठउछाहा भेददेवकी कियो विवाहा भैददेवकी परम पतापा बादयो रिपुन देत आति पा अददेव पुनि पितु ठिग जाई सादर विनती कियो सुहाई

६७४ ) बघेलवंछावर्णन

संग चलीसेन्य विद्ञाल, सेनप लसे सम काल

सुतर सहित सेन समेत,विरसिह नप खुख सेत नियरान चित्रहिकूट, तब सुनन्‍यो शाह अटूड निज फोज दियो निर्देश, तहूँ भे तयारी वेस ॥१०॥ पयस्वनी सारिके पार, विरासिह भूप उदार जब गयी हलकारान, किय विनय जोरें पान ॥११॥ खुल खोदावंद हवाल, बड़ी सेन्य आवाति डाल सुनि बादशाह उमाह, भरिबेठ तख्तहिं माह॥५रा। विरसिहदेव जुवाल, गजते उतारि तेहि काल टेंग शाह चाले आमभेराम, बह भा ते ।केयो सलाम १३ सम्रभाल॒ पुनि विरभान, हथयकों उधाटि महान गजमस्त के परजाय, बठल भयो खुख छाय १४७४ लिखि साह तब हरषाय, लतेहि तुरत निकट बोलाय लिय तख्त में बेठाय, बहु विधि सराहि सुभाय॥ २५॥ पानि कह्यो! बॉकिवीर, तुम सम ननिडर सुधीर तुम कहँके अहो नरेश, काहे चल्यो परदेश १६॥

ग्ररठा-केहि कारण मम देखा,त्टूटयो सो नहि नौक किया आह वचन सुन बेस,वीरभानु बोलत भयो॥४५०॥

हम क्षत्री बघेल हैं रूरे। वासी थरू गुजरातहि केरे आप हमारे हैं सति स्वामी | हम चाकर राउर अनुगामी निन करतब देखायबे काहों आये हम यहि देशहिं माहीं जे| रिपुता करि हमको मारथयों | ताको हमहे सपदि सँहारयों 8 तुब देशहिकों द्रव्य खायो निन कोषहिकों वित्त उठायों जो नप हमको तेन देखायो। ताहि देडदेँ फेरि बसायों ॥# सो आपहिकी बदिकारे दीन्ह्ो। वृथाकोप हमपर पम॒कीन्हो यह सुनि बादशाह कह वानी यहि बारूक की बुद्धि महानी

बघरेलवंशवर्णन (६७५ ) दोहा-युल्ि कह विरसिंह देवसों, तुव सुत बड़ी निरोक रणरिपुगण जीतन प्रबल,बीर भीर अतिवंक ५० छंदहरिगीतिका-तठुव पूत बड़ी खपत डेढे वशतिहरे माहिश नप द्ादशंकोी भूप होई अचल प्नमिसदाहिं॥ यह भाषे शाह उछाह भारे वारहोनपकी राजि 'दियवख्खा शिसादर नानकारहि कह्यो भाई श्राजि ल्‍ए8 गिरि विष्य बॉधव दुर्गके तुम इेशा होह प्रसिद्ध जप सकल माहेके कराह सेवा होर्यासद्धि समद्ध लिखादेयो विरासहदेवकी पान भ्रप झाहसमेत चलि प्राग करे स््वान दिय बहुदान द्विजनसचेत हैँ क्र बहु सन्‍मानकरि कीन्होनिमंत्रण छाह।॥ पाने शाह दिल्लीकी गयो प्रागहिं वस्यो नश्नाह ऐवेरासहदेव विवाह किय स्रत वीर भालहिकेर सब जमीदारनको निमंत्रण दियो आये ढेर दिय दान द्विजन महानयुत सनन्‍मान मोद अमान सरसान सकल जहान बिच किय गायकन बहुगानाा गज बाजे धन मांणमाल वसन विशद्वाल दे सब काह। कारे मान किय सबकी विदा विरसिह सहित उछाह॥ दोहा-जमीदार निज निज सदन, जातमये हषाय ॥# त्योहीं याचक झुणीजन,गये अमित धन पाय ४५९ करिके सविधि क्रिया पितु केरी विरसिंहदेव द्विनन बहु हेरी विविध विधान दान बहु दीन्हों युत सन्‍मान विदा बहु कीन्हो कुछ वासर करि वास पयागा विरसिहदेव भूप बड़ भागा बोछि ज्योतिषिन सुदिन शोंधाई चकरनकी चाकरी देवाई #॥ करि खातिरी कह्मो तिनपाहों काल्हि सुदिन हमरो सुख माहीं चके सेब वांधव गढ़ देखी सुनत वीर हैं सयुग विशेखी

( ६७६ ) बचघेलवंशवणणेन

कहें नाथ भक कोन साहा | हमेरे उर महान उत्साह्ष | पुनि विरसिंहदेंव मुद॒ भरिके वीरभानु युत मजन करिके दोहा-वेणीमें बहु दान दे, युत सन्‍मान द्विजान ले सैंग सेन्य पयान किय,विपुल बजाय निसान*२॥ कवित्त सोहत सवाव लाख संगमें सवार लोने युग छाख पेद्रहु गोने जास साथमें वेशमारगन् त्योहीं सुतर अपार राजे योहीं कूँच करि भरे आनँदके गाथमें बिच बिच पंथ वास करि बांधवदुग,पास आय नीचे डेरा कियो घारे अखहाथमें॥ विरसिहदेव जाय लूषणकी पूजा तहां करे सविधान थास्यो पद जल माथमें॥ २॥ स०-सादर साधुन विप्रनकोी न॒प छिप्र भली विधि वो लिजेवा यो फेारेसबे जमींदारन भ्रमियानकी आपने पास बोलायों ते सब आय सलाम किये [दिये भेट कह्यो नृप बेन सोहायो ॥४ डेरा करो सब जाय सुखी दियो दण्ड तेहीं जो बोलाये आयो दोहा-साॉइझ समय दरवारको, सादर सबहिं बोलाय कह रे यत तुम शाहके, सुनहु सबे चित लाय ॥५३॥ कवित्त शाह यह राज्य हमैं दियो है उछाह भरि म्रथम समीति वैन सबसों बखाने हैं॥ रीते या बपेलवेशकी है कोष ठने नाहैं येतेई पे कोई नो हुकुमको माने हैं युद्ध करिवेकी जो तयार होत ताको हम बाघही है कुद्ध द्वेके आसनको ठाने हैं ऐसे अवनीशबैन सुनि साने शीशनाय कहे हम रावरेके रैयत प्रमाने हैं सोरठा-ईश्वर आप हमार, हम सेवक हैं रावरे सुनि गढ़भूप उदार,आयो विरसिहदेव ठिग॥५४॥ कावित्त तेंग घारे आगे विनय कियों हैं बार हम आपरें हमारे पिता पाले प्रीति ठानिकै॥ स॒नि विरसिंहदेव बाहँ गहि पुत्र कहि ढीन्दे। बेैठाय उर महामोद मानिकै कहो पुनि तूतो वोरभानुके समान मेरे कह्यो पुनि सोऊ पाणि जोरि सुख सानिकै॥ महारान किला चलि बेढें राज्य आसनमें करों सोई दौजिये निदेश दास नानिकै*

बघेलवंदशावर्णन ( ६७७9 )

दोहा-छुनत वयन विरसिह तप, बोलि ज्योतिषिन काह सुदिन शोधथि गुरु साधु द्विज, आगे करि सटछाह «« चल्यो निसान बजायकारि, जायहुगे भरिं चाय द्वारपालकी देतभो, बहु इनाम बोलवाय ९६ पूजा कारे सब सुरनकी, अति आदर युत भूप | विप्रन साधुनकी कियो, निवता महाअनूप ५७ बाजन बाते विविध प्रकारा। ताप छूटतमई अपारा सुदिन शोधिसिंहासन पाहीं | विरपिंह भूप. बेठ सुखमाहों जमीदार भूमियन बोछाई बिदा कियो दे तिन्हें बिदाई रैयत साहु महाजन जेते | आयमेंट दिय नति केरि तेते शिरोपांउदे तिन सब काहीं | खातिर करि किय विदा तहाँहों राज्य करत बहु वे बिताये। वीरभानु सुतयुत अति चाये ॥| नूप विरसिंहदेव यक वासर कीन्हो मन विचार यह सुखकर सुतहिं संर्माप राज्य यह सिगरी भजन करें चढ़ि नहिं अब विगरी ह॥

दोहा-बोलि साधु गुरुफे सपदि, सुदिन शोधि नरराय॥ वीरभाठुको शुभ दिवस, दिय गदी बेठाय ५६८॥

हक

आप मजन करिवेके हेंत्‌ मणिदे रनीं- सहित संचेतू विरसिंतदेव जागो. आई। वास कियो तिरवेणि नहाई दिनप्रति ब्राह्मण साधुन काहीं | भोजन करवांवे सुखमाहीं आनंद मम्न रहे वसुयामा सुमिरण करत जानकी रामा बीरभानु. बांधवगढ़में.. इत पेठि राज्य आसन मन प्रमुदित राज्य कियो बहु दिवस समाजा तासु सुवबन तुमरान विराना करहु निशंक राज्य सब काढा | यह सुनि राजाराम निहाढछा

३8 कु

बहु विधि स्तुति करिके मेरी मोसों विनती करी बहुतेरी !

दोहा-कह कबीर साहेब शुरू, तुम हमरे कुलकेर शिष्प कीजिये माहि प्रशु, अब की जिये देर ५९

( ६७८ ) बघेलवंशवणव

यह सुनिं तब में आति हषाई राजारामहिं. कह्यो बुझाई द्वैहे तुम्हे दशयें वेसा। परमप्रकाशमान यक हँशा कृथिहे सो मुख अनुभव वानी मोर शब्द गहि है मुखमानी सोई तुब॒ कुछकी अवतेसा विनक ग्रंथको करी पशंसा ताकोी अर्थ अनृूपम करि है। मम आश्रमहिं आय सुख भरि है यह सुनि रामभूष शिरनाई। करि प्रशंसा जनन सुनाई नंदपुराणिक तहँ सुख भीनी | करी देडबत वेंदना कीनी रामाराम महरमें जाई रानीसों सब गये जनाईं दोहा-रानी खुबचन कुवेरिसों, किय यह विनय ललाम श्रीशरुकी ले आइये, महाराज निज धाम ६० अश्रीकबीर गुरूकी मुद्ति, सादर शामझुवाल लेआये निज भवनमें, कारे बहु विनय . रसाल६१॥ कवित्त रहे जहाँ आसन तहाँई श्रीकबीरजीकों गुफा बनवायो प्रीतियत राजारामहै ! सान मँगवाय सब चोका कै कबीर शिष्य राजा अरु रानिहंकी कीन्द्यों तेहिं ठामहै औरो सब भूपके समीपी भंये शिष्य सुसी पूजा नौन चढ़यों तहां अगणित दाम॑है दियो भंडारा श्रीकवीर बोलि साधुनकों जय जयरद्यो पूरि बांधवगढ़ धामहे॥९२॥ दोहा-सुगल गँ।उ अरूगॉडउ प्रति, रूपयाएक चट़ाइ दिय कागज लिखवायके, रामभूप हषोय ६२ हीय जो ,हमरे बंशमे, भूपाते कोउ उदार लेय कबहूँ शपथ लेहि,अपेन कियो हमार ६३ ॥६ श्रीकबीरजी है. प्रसन्न अति त्रिकारज्ञ पुनि कद्मो महामाते औरहु कछु भविष्य में भाखों | सो तुम सति निन मन गुणिराखो दुशायें. वेश हंसकों रूपा। तुमहीं प्रगटण होहंगे भूपा सुवचन कुर्वरि रानि तुब जोई | सो परिहार भूष घरहोई तोसों तास होयगो व्याहा हरि पद राति अति करी उछाहा & पके वीरभद् सुत तेरों। जन्मिदेयगोी मोद घनेरों

बघेलवंदबवर्णन ( ६७९ )

सो तेहिति इंग्यरहोी वेशा। होइहे नृपनमाहँ अवतंशा बिच बिच और भूप जेह्ढे हैं।ते हरिभक्ति हीन है जै हें दोहा-बरह्मतेजते तपित अति, देह कोठ नरेश तजि यह बांधव ढुगे को, वसिदह्दे ओरे देश ६४

ते सब भूपन को जस नामा। शिष्य मोर छिखिहें अभिरामा दी वेश तुब॒ अंतहिकाछा संत वेषेदे दरश विशारा तोकोी, रामधाम लैनैहों | आवागमन रहित करिदेहों अस कहि श्रीकबीर भगवाना परमधामकी कियो: पयाना श्रीकबीरके / शिष्य सुजाना धमंदास भे विदित जहाना ॥। तिनकें शिष्य प्रशिष्य घेनेे लिखे ने ओर भूप बड़ेरे तिनके। नाम सुयश परतापा कहिंहों में सुखमानि अमापा कहो पूरे जे संत कबीरा | वीरभानु नृप भो मतिथीरा

दोहा-राम भूप सुत ताखछु भो, इन दूनों करतूति प्रथम कछुक बणन करा, जग प्रसिद्धमजबूति॥ ६५ दिह्लो रहो हमायू शाहा | मान्यो हुकुम सकछ नरनाहा शेरशाह दिल्लीमें आई। दियो हमायूं शाह भगाई दिल्लीमिं करे अमर सुहायो | सदर आपने अदरू चढलायो शाह हुमाये बेगमकाहीं गभवती सुनिके श्रुतिमाहीं नरहरि महापात्र लिय मांगी। सब भूपन ढिगंगे सुख पागी राख्यो नहिं कोड भूषति ताहीं | आयो वीरभानु हिंग माहीं वीरभानु तेहिं भगिनी भाखी | पाटन शरह देतभयों राखी बेगम सो दिल्लीपति जायाो। अकबर शाह नामसो पायो दोहा-आई बाधा नगरमें, शेरसाह की सन वीरभालु नूपसों कहे, लखि आये जे नेन ६६॥ तहँते न॒पलि पयान करि, बॉधवगढ़गो घाय शरशाह-लिय छेंकि तेहि, अमित सेन्य ले आय॥६39॥

( ६८० ) बघेलवंशवर्णन

ऊँके रमो वर्ष सो बारा। खायो बोयो आम अपारा दुर्ग अटूट मानि सो हारा।छे सब सेना सपादे सिधारा वीरभानु बरबीर नरेशा छीनिडियो दल ले निमर देशा है विायती दर निम संगा। चलो हुमायू सहित उमंगा इत अकबर यक दिवश उचारा सुनिय बांधवनाह डदारा भाई रामाप्रैहठ सरँग माहीं। बैठतही नित भोजन काहीं हमको क्‍यों बेठावत नाहीं। नृप कह आप खामिंदे आंहीं

के कि के.

पृंछिलिहू. मातासों जाई पंछयो सो सब दियो बताईं

दोहा-खड़चम ले हाथमें, सुनि अकबर सो हाल चल्यो कियो तिन संगमें, वीरभानु निज बाल८८॥ अकवबरसों तहूँ राम कह, कोस कोस कारे वास चलिये दिल्लीनगरको, ज्ुरे फोज अनयास ६५९ जुरी चम्‌ चतुरंग संग, अमित तुरंग मतंग रंगो रामसिह जंगके, रंग अमेंग उमंग ७०

नातनकी लिखवायो पानी चारों नप आये मुदमानी तिन संग रामसिंह यशावाला जातभया भो जंग विशाला हन्योशेरकी तहाँ हुमाऊ दिल्ली तरूत बेठ युत चाऊ इंते सुल्लेमें राम सेहारी दिल्लीकी द्रुत गयो सिधारी ताकन तनय हेतु सुखधारी चढ्यो हुमागूं ऊंचि अयरी मोद मगनसों गिरिगो नीचे होत भयो तुरंत वश मींचे तनय हुमायूं अकबर काहें बैठायों तब तख्तहिं माहीं वीरभानु जब तज्यों शरीरा रामसिंह नप भों मतिधीरा

दोहा-दिल्लीकोी पुनि राम नृप, गये अकब्बर शाह कीन्हो अति सनन्‍्मानसी, अकसः:मानि नरनाह॥9१९॥ ओचक मारनकी गये, ते नृप रामहि काईँ फिरे मानि विस्मय सबे, निरखि चारू चोवाहँ॥9२॥

बघेलबंशवणन ६८२ )

सआापितसेन स्वरूप धरि, हरि जिनके तल भार्दि तेल लगायो राम सो, कहियेकेह नप काहि ॥७२॥ वीरभद्र तेहि खुत भयो, वीरभद्र कर संत आगे वर्णा ओरहू, भये जे नृप मतिरमंत ७४॥ बवारभद्र खुतावेक्रमा-दित्य भयोा अबदात नार्माहिके अनुशुण भयो,जेंहि गुण जग विख्यात ॥७५॥ लीन्हो जाया रेझाय जो, निज करतूति हि माहदि बह्मके मारे मरिलहो, सोन देव पुर काहे ७८ अमरसिद ताकी खुबन, सरिस अमरपति भोज रोवां रजधानी करी, साीवा यश्ा अरू वोज़ ७७॥ दिल्लीको. गमनत भयो, चुक्यो खचे मग माहिं लूटि दोलताबादकी, गयी शाह टिग पाहि॥ ७८ उमशावन चुगुली करी, शाह निकट दहत जाय बादशाह मान्यो नहीं, तप पे खुछी बनाय ७९ अमरसिह #पालके, भो अनूपसिह -अअश्वप ॥॥ मझ्पर जारु प्रताप यहा, छायो परमअनूप <८०्प भावसिह ताकी तनय, भयो भाठु सम भास दाता ज्ञाता वीरवर, ज्ञाता बुद्धि विलास <१॥ जगन्नाथजी जायके, मूर्त्ति छाय जगनाथ थापिव्या सके अंथको, संच्यों मारे सुख गाथ ॥<श॥त राना घरमें व्याहनों, तहँते मूराते दोय॥ लाये सरस्वलि गरुड़की, थापित किय सुदर्मोय ॥८३२॥। विपभन दान महानदे, कीन्दे बहु सन्‍मान | तिनके में अनिरुद्ध सिंह,मूपति परम खुजान <४४॥ ताके भो अवधूतसिंह, जाहिर दान जहान ताके छखुबन अजीतसिंह, हवन अजीत महान <<«॥

( ६८२ ) बघेलवंशवर्णन

जाके गोहरशाह बसि, जायों अकबर शाह सैन्य साजि जेहिं तख्तमं,बेठावलत नरनाह ॥<६॥ जाजमऊलों जायके, दिछी दियो पठाय अँगरेजहूँ. अठवनको, दीनन्‍्हों जंगभगाय ॥८9॥ तास तनय जयसिहमो, जयमें सिंह समान जाहिर दान कृपानमें, भक्तिवान भगवान ॥८<८॥ दराहजार असवार ले, पूनाफो हारोल आवतनीो यशवंत तेहि, हत्यो म्ताप अतोल ॥८९॥ गहरवार कारे गये बहु, लीन्हे देश दबाय तिनकी मारे भगाय दिय,बचे ते गिरिन छुकाय९० देश आपने अमल कारि, दे विप्रन बहु दान अंत समय तनु प्राग तजि,हरिपुर कियो पयान॥९१॥ विशनाथ नरनाथनो, तासु तनय यशागाथ।॥ रति अनन्य सियनाथपे, भईं जासु माहिमाथ ॥९२॥ सारे सर घर घर पुर पथन,छयो राम शुणगाथ कितो परी क्षित के कियो, कलि कृतयुग विश्वनाथ९३२ तासुतनय रघुराज भो, महाराज शिरताज़ राजत राज समाज मधि,जाकी सुयरशा दराज़ ॥९४॥ आ्रीकबीरजी कथित यह, है विचित्र न॒प वेद नहें असत्य माने कोऊ, जाने संत अवतंश ॥९५॥ सतझुगममें सत नाम रह, अरू मनींद्र चेताहिं करुणामय द्वापर रहो, अब कबीर कलि माहि ॥९६॥ कबित्त नृपति उदार केते भये अनुसार मति तिनके अपार गुण यश कियो गानहे जनम केरम भूष रघुरानकों अनूप घरमको जप दिव्य जाहिर जहानहै देख्यो निन नेन ताते भरो अति चैन उर करतहों निन वैन सविधि बखानहै कु युगलेश अहे झूठको नछेश कहूँ मानि है विशेष सांच सोई बड़ो जान है १॥

बघेलवंशवणणन ( ६८३ )

छद-कह्यो कबीर भविष्य राम नप सुनि खुखराणी

. हासाने खुबचन कुवारे रानिे तू हंस प्रक्ाशी वीरभद्र त॒ब खुतहु इंस:नित हारे ढिग वासी गुणगनार आते वीर धीर यश सयश्य विलासी जब दशे बंद अवरतंस नृप, प्रगट होयहे तू अवशि तब सति परिहारे नरेशकुल,जनमीयहतुबतिय हुलसि

दोहा-तासों तेरो होयगो, खुखप्रद प्रथम विवाह वीरभद्र यह तेहि उदर, वहा इग्यरहे माह ॥९७७॥ जनामि देयगों तुमद्दि आति,परमभमोद विख्यात तेजबंत क्षिति छाय हु यश अनंत अवदात ॥९८॥: समय विजय करसिहतो, भो जयसिंह शुआल गगलियों अगवान जेहि, तद्चु त्यागनके काल ॥९९॥ प्रभद भयो ताके तनयथ, हँस जो कहो कबीर विशधनाथ तेहि नामभो, परमयश्ीी रणधीर ॥१००॥ रघुपाति भक्त अनन्य अति, अरू ब्रह्मण्य शरन्य अम्रगण्य क्षिति नुपनमें, लेग त्याग जेहि धन्य तेहि आद्विक गुण तेज यश, ओर हु अमित चरित्र में विचित्र वणन कियो, ग्ंथ सोपरमपवित्र २॥ देखहि अश्रद्धावान जे, होवें मन्तज खुजान आओरहु करहूँ बखान कछ, निजमातिके अतुमान रानी खुब्वचन कुँवरिभे, पुरी उचहरा मादिं॥ खुता भईद्द शिवराज नप, व्याहिगढ तेंदहे काद पत्यो भागवत ताहिमें, दृटमों तेहिं विश्वास गुण यश अलुपम तासुने, किय जो कवी प्रकाश ५. विश्वनाथ नरनाथकी, तिय सों अति अभिराम कुँवारे सुभद्रा नाम जेहि, सरिस खुभद्रा आम भे

(६८४ ) बघेलवंशवणत

छप्पय-वी रभद्र रुत रामरृपकी हंस खुहायों श्रीकवीर आगम निरदेश निजमग्रन्थाहिं गायो विश्वनाय तेहि तीय गमे जबते सो आयो तबते बॉधवर्देशा धर्म परमानेंद छायों कहूँ रहो अधरम लेश क्षिति विन कलेश पुर जन भयों कलि वेश छयो ऋतयतघरम सतयुगलेशसोी काहि दये दोहा-रींवा घर घर सब प्रजा, सुखभारे करत उचार विश्वनाथके होय सुत, तो धनि जन्म हमार ७॥ परमहंस जो ऋषभदेवसम ! चतुरदास नेहि नाम शमन श्रम फिरतरहे रीवापुरमाहीं राममजनमें मम्न सदाहीं डोछत मग ओरही मुखबाोदढें निम हियकोओंतर नहिंखोल़ें वर्षाफ्तु धोरें. शिरव्षों जाड़े जठमें बसे सहषो ग्रीपपष तपत उपछमें सोवें भ्रेमत हँसें कहूं क्षण रब नप रघुरान सुतासु चरित्रा भक्तमाछमें रच्यों पवित्रा परमहंस सो सहन सुभाये सुविश्वनाथ जन्मदिन आये छंगे बनावन मुदित नगारा कहि सुख हँस लेतु अवतारा !; दोहा-यह हवाल जयासह नृप,सनि सुनि त्थों पितु मात क्षण क्षण अति हरषातने, दियमे सी समाल ॥<॥ अष्टादशसे असीको, साल सुकातिक मास कृष्णपक्ष (तिथि चोथ शुभ,वासरदानि हुलास॥ वीरभद्र नूप हँससस्‍्वरूपा भयो भूष रघुरांन अनूपा कृष्णचंद्रको प्रिय अधिकारी शर्मद घरा थमें घरपारी नाम भागवतदास दुलारशा करहिं मातु पितु सदा उचारा बाल॒हिते भो ज्ञाननिधाना भाक्तिवानें पूजक मभगवाना कछुदिनमें जननी मातिवारी तनु तानि प्रवैकुंठ सिघारी पिता पितामह निकट सकारे। छैनित नाहि खेडावन बारे तिनसों कहि कहि सुंदर वानी कये ज्ञान मानहु बड़ ज्ञानी

बचेलवबंशवणन ( ६८५ )

जगत शरीर अनित्यहि जानो मरत सो नीव नित्य मव मानों अजर अमर तेहि गावत वेदा | वथा करत तेहि हित नरखेदा दोहा-छुनि सुनि कहे प्रसन्न मन, ते अति हिय हर्षात हैं थे पुरुष प्रानकोउ, पाल रूप दर्शोतत ११० कछु दिनमें पुनि जाय प्रयागा नृप जयारसंह तुरत तनु त्यागा श्रीविश्वनाथ राज पद्‌ पायो। रघुरानहु युवराज कहायों रहे उर्मिछादास सुसता भक्त अनन्दु उमिलाकंता चाकि चालि तिनके आश्रम माहीं दर्शन तिनकी करे सदाहीं मंत्र छेनकी बड़े उमाहा विनय कियो तिनसों सडछाहा प्रभ मोहिं मंत्र कृपाकारें दाने मेरो जन्म सफल जगकीनै नाथ कह्यो तबआति हरघाई मरें रूप संत यक आईं देहें तोहिं मंत्र सहुठासा हृहै सिगरे जगत्‌ प्रकासा दोहा-तोहिं देनको मंत्र मोहि, हे नहि लखन [नियोग मेट्हि तुव भव सोग सोड़े, धुवलखिहे सब लोग११॥ छंद-स्वामे सकुंदाचाय्य शिष्य यक संत रह्मो अभिरामा॥। नाम जास लक्ष्मी प्रपन्न ठिग विश्वनाथ निष्कामा मंत्र लनकी इच्छा गणि मन श्रीरघ॒ुराजहि केरो भाषि गयो भमूपतिसों निज गुरू भक्ति प्रभाव घनेरों १॥ आश्रम परम मनोहर तिनको ब्रह्मशिला तट गंगा प्रियादास जे शुरू आपके लतिनकों रह सतसंगा भक्ति अ्ंथ पठे तिनके बहु वाल्मीकि रामायन अ्ीमागवत भागवत पूरे पढटत निरंतर चायन २॥ लायक गुरू विद्ञोष होनेते नरनायक सुत केरे आयस होयथ बोलिले आऊं एह वेनती मेरे विश्वनाथ कह आप सरिस शिष जिनके जगत सोहाही जो काहिसके महामहिमा तेन कीहे अस मांहे माहीएश। ओऔरना जमानसिद जासों लियो मंत्र उपदेश

( ६८६ ) बघेलवंशावणेन

ऐसे शिष्य आप जिनकेदें तेती संत विशेद्ञ जोलों स्वामि|हि इते छावी ताला मम सुतकाहीं॥ ' भक्तिभेद तुमहा दरशावा करा सुकृपा उरमाही॥४॥ पुनि सुत शऔरघुराज नामकी एक वाग लगवायो लक्ष्मण बाग सुनाम तासुकों युत अनुराग धरायों अति उतंग आयत विचित्र हारे मंदिर यक अभिरामा॥ निरखत पद मुद्‌ दाम जननकोी बनवायो तेहि ठामा९॥ श्रीरघुराज खुद्विस माँ पुनि डर उछाह अति धारी॥। थापित किय सिय राम लषणकी म्‌राति तहँ मनहारी॥ ओरहु अमित देवकी भम॒ृदित सादर तहेँ बेठायों ' दान महान दिजन संतन कारे सतकार सो हायो द॥। विश्वनाथ पितु पद दिरधरर पुनि विनयकियोकर जो री पूरणभोीं प्रसाद यह (तेहरे अब यह इच्छा मोरी पठइय प्रश्न रूक्ष्मी प्रपन्नकों बह्मशिलामें जाई बोलिले आवबे सपदि स्वामिको लेहुं मंत्र हरषाई बेन सुनत सुतके सचेन ह्व विश्वनाथ नरनाथा कह लक्ष्मी प्रपन्नसों , सादर जोरे दोऊ द्ाथा॥ ब्रह्मशिला सुरसरि समीप जद स्वामि मुऊँदाचारी वास करत तुम जाय आशु तह लावहु तिन्हें सुखारी ८॥ दोहा-महाराज विश्वनाथके, सुनत वयन सुख पाय ॥# द्रत लक्ष्मीपरपन्न तब, बरह्मशिलागो घाय १२॥ * अमभु टिंग चलि करि देड प्रणामा कुशरू पूँछि पायों सुखधामा विनय कियो पुनि दोठ कर जोरी पुरवहु नाथ कामना मोरी बांधवेश विश्वनाथ नरेशा रीवॉं. रजघानी जेहिं वेशां राम अनन्य भक्त जगवीनों | राम परत्व ग्रंथ बहु कीनों पियादात भें संत महाना। तासु शिष्य सो विदित नहाना

बघेलवंशव्णन (६८७ )

भक्त ग्रंथ ते बहुत बनाये। ते सब आप वदन निन् गाये सो विशुनाथ तनय मतिवाना। है. रघुरानसिंह जग जाना आप सों मंत्र लेनके हेतू। कीन्हे त्रणः मन कृपानिकेत डोहा-ताहि समाश्रय कीजिये, चलि रीवामें नाथ प्रभु कह में नहिं जाएँ कहूँ, तजि तट झुरसरि पाथ॥ ११॥ यह थर नो विहाय डत जैहों | तो अब परममोद नहिं पैहों किय पुनि विनय सेव बहु ठानी | नाथ कह्मो पुनि सोई वानी सुनि लक्ष्मीप्रसन्न पुनि बोल्यों | निन अंतरको अंतर खोल्यो जो प्रमु रींवानगर जै हैं। तो सति मोहिं जिवत नहिं पे हैं सुनिहँसिके कह दीनदयाढा जो अस तेरों अहै हवाला तो अब आसु सुदिवंस विचारी तहां जानकी करें तयारी | सुनि लक्ष्मी म्रपत्न हरपाई। गणक बोछि दुत सुदिन शोधाई दर प्रमुसों वचन बखाना। सुदिन आजु भर करियपयाना दोहा-छुनत बयन प्रिय शिष्प बहु, ले संग संत अपार रीवांकी गमनत भये, भर्ठ हारे प्रेम अगार १४ म्थानामें प्रभ॒ मध्य सोहाहों | संत अनेत छसे चहूँ घाहीं रामकृष्ण हरिमुख उच्चारत | चहू ओरसें सोरपसारत जात नहां जहूँ प्रभु पुर ग्ञामा | होते तहां तहँ शुविनन ग्रामा यहि विधि आय स्वामिे सुख छाकी रीवां रह्मो कोस त्रय बांकी सुनि सत युत नृप आग डीन्ह्रो हरिसम बहु सतकारहि कीन्हों पुनि रींवाहं छायो युत रागा। वास देवायो छछिमन बागा मोदेर निरखि मकुंदावारी कह्यो रच्यो भर मंद्रि भारी कछ वासर करिके सुख वासा | पुनि मख ठान्यो कृपानिवासा दोहा-रंभ खम्भ गड़वाय कारे, हरिमनु द्विजनजपाय सुदिन सोधाय सचाय प्रभु, अति उव्सव सरसाय॥९५॥ विश्वनाथ नरनाथ संमेतू्‌ बोछि कुर्वर रघुरान सचेतू नारायण मनु किय उपदेशा हर्यो सकछ कलिकलुष कलेशा ॥# भई समाश्रय तासु तिया सब पूरे रहो पुर पर प्रमोद तब

( ६८८ ) बघेलवंशवर्णन

तोरथ चित्रकूट जे नाना | ठहां पंठे कारे द्रव्य महाना सविधि कियो साधुन सवकारा ते सब जय जय किये अपारा लियो मन्त्र जबते युत प्रीती | तबते चलन छग्यो यह रीती दोहा-पाठ गजेंद्राहि मोक्ष अरू, मूल रमायण ख्यात कारे नारायण कवचको, पाठ उठे परभात १६ पण्डित जे नव कृष्ण निबेरे बसनहार कलकत्ता केरे तिनहिं छाटसों कहि बोलवायो | विश्वनाथ नरनाथ सोहायो प्ॉपिदियों निंग सुत रघुरज विद्या सुखद पढ़ावन काने

बम,

तिनमों श्रेरघधुरान सुनाना अड्गेरेमी पढ़ि बहु सुख माना

50 2

मुग्धबोंध व्याकरण विशाला पुनि पढ़ि छियो थोरहो काछा फेरि अयोध्यावासि महन्ता जग जाहिर रामानुन सन्‍्ता

प्यो तिन्‍्हें पदावन हेतू नृप विश्वनाथ पर्मकों सेतू

हि&.# >य आआक

नर्सी वाल्मीके रामायन श्रीरघुरान पढ़यो :अति चायन दोहा-सवालाख छोक जेहि, महाभारत विख्यात विन श्रम ताकोी पदि लियो, काहि सबसों हरषात १७॥ कारे मजन वीधियुत श्रीकन्ता | पूनन ठानि रोज सुखबन्ता वाल्मीकि रामायण सादर श्रीभागवत सुहावत सुखकर वास्मीकि भागवत विशोका प्रति अध्याय जिति छोका जेहिं आगे लोक जो होईं।पूंछे बुधहि बतावत सोई महाभारतमें ने इतिहासा | ते पुस्तक विन करत प्रकासा अस सब भांति अछोकिक करणी श्रीरघुरान केरि कवि वरणी गति जो कविता रचन नवीनी बालहिते विरंचि तेहिं दीनी संस्कृत और भाषह केरी कविता बहु विधि रची घनेरी दोहा-विनयमालको प्रथम रचि, रूक्मिणि पारेणय फेरि पित॒हि सुनायों ते भये, अति असन्न मुख टेरि १८ चित्रकूट गमनत भये, एक समय रघुराज रच्यों तहां खुंदर छातक, हनुमतर्चारत दराज १९॥

57 252

बधघेलवंशवर्णन ! ६८५९ )

जो कोउ वांचत पात्रिका, देखि पिठोता ताखु वांचिआशु सबसों कहत, सुनि सब लहत हुलासु१२० लिखन शक्ति लखिनाथकी, विदित लिखारी जोड दीखन न॒प अस चखन काहि, सिखन चहतहे सोड२१९॥ कह चटेती तुरंगकी, दरशावत सबकाहिं कह मर्तंग सवारद्े, सरपति सरिस सोहाहि २२ कहूँ दइनातली घत्ष ले, गोली तीर चलाय हने निसाना रोपिके, तुरत॒हि देहि गिराय २३ कह तेगको घालिके, कर्राह टूक चोरंग॥ साने लाखि पितु विशुनाथ नृप,हात मनहिं मन देग २४॥ कहूँ वन जाथ अहेरकी, मारिशेर वनजीव॥ देखराबाह निज तातकोी, होहिते खुशी अतीव ॥२५॥ बहु वनशाजनको हन्या, वनहिं सिंह रघुराज ले दराज बिस्तर भयदहें, वरण्यों नहीं समाज ॥२६॥ कवित्त एक समय राना श्रीजमान सिंह हिंद भान गया करिवेकी कीन्‍्हे देश या पयानहै जाय विश्वनाथ चित्रकूट मुछाकात कारे रींवहि लेवायलाये करि सन्मानहे भाई रूछिमनसिंह कन्या तिन्हें व्याहि दीन्‍्ह्यो चीन्‍्हो विश्वनाथै भछोभक्तमगवानहै तासु सुत रघुरान तिछक चढ़ायआसु नातमभे हुछास भरि उदैपुर थानहे दोहा-कछ दिन माहि जमानसिंह, गे वेकुठ सिधारि रानामी सरदारसिह, तेंठंगे रुव्ग पधारि ॥२७॥ भूपति भयो स्वरूपसिंह, तेग त्याग समरथ्य राज काजमें निपुण आते,चल्यो सुनी ति सुपथध्य ॥२<॥ निज भगिनिनिके व्याह हित,करि संदेह मनमाह।॥। श्रीरघुराज सलाह कारें, चलि ढिग पितु नरनाहु॥२९॥ मदहापात्र अजवेशको, खतलिखाय याहे भांति

पठयो दोगे उदयपुरे, नुप सुत अति मुदमाति १३०॥ छ्छ

(६५९० ) बघेलवंशवर्णन !

आपसयान सुजान खुठि, को करिसंके बखान जहँकीज अतठुमान तहँ, हमहि प्रमाण आन ॥३१॥ विश्वनाथ नरनाथ अरू, युवराजहु रघराज वश्निंदशअजवेश लटहि, सुकविनकोी शिरताज ॥३२५॥ स०-चैन भरो चल्यो ऐनते वेगि गयो अजवेश उदेपुरमाही॥ राना स्वरूप अनूप जो भूप सुन्यो क्षति आयो इते लेहि काही।॥ सादर बोलि समेमते क्षेमको पूँछि कझो ठिग बेठों इहांही बेठि स्वनाथक्ों पत्रसों हाथ दियो लिय माथते घारि तहांहीं दोहा-श्रीस्वरूप राना सुघर, सुनि हवाल खत केर कहो सकते अजवेश सो ,लाहि प्रमोद उर टेर ॥३१॥ लिख्यो नो सता व्याहके हेंतू सो हम अवशि बांधि हैं नेतू पे राना जमानसिंह रूरे गया करनगे जब सुख पूरे तब रीवा गवने सडछाहा। तिनको तहां होत भो व्याहा रानकुवें: रुरान खुहायों। ताको तहूँ ते तिकक चढ़ायों वातिगयें बहु दिवस सुजानां। इतको ते नहिं कियो पयाना सो अब ऐसी करहु उपाई | जाते इहो वहीँ सपिनाई महापात्र आपहु लिखि पाती | पठवहु द्वत आवाहे जोह भाती +॥ हमहु लिखावतहँ खत आस आवहिं रानकुँवर सहुलास दीहा।-काज होय रघुशाज इत, हमरहु कारज होय जहँ की संमत देहिंगे, तहँकी करने सोय ॥३४॥ महापात्र सुनि भकछ कहि दीन्दो नाथ विचार भलों यह कीन्‍्ह्ों अस कहि वेगि सुकवि अनवेशा पत्र लिखतभों इतकों वेशा रानहु इतकी खत लिखवायो | बोलि प्रठायो सो इत आये खत सुनि विश्ववाथ गरनाथा सुतसों कह्यो माने सुख गाथा रानाकोा यह खत सुनिलेह लियो सो करहु वेंगि युत नेहू तब रघुरानहु खत सुनि सोई कहत भयो पितुर्सो मुदु मोई यह हवाऊ में सब सुनि छीन्‍्शो मोहिं बोढाबनकी छिसि दीन्ही: - -सों जस पभु मोहिं देहिं रमाई। सोइ करों सोइ नीक जनाई

बचेलवंदावणन। (६९१ )

दीोहा-विश्वनाथ नरनाथ तब, कह्यो भरे उत्साह

जाहु उदयपुर व्याह हित, मेरो इंदे सलाह॥ ३५ बा।ले ज्योतिषिन तुरत पुनि,ममनन सदिन बनाय ॥. कहा सुबनसा यह भली,साइत दियो बताय॥ ३६॥

सुनि रघुरान कह्यों हपोई | दीने सब तदबीर कराई कीन देवान जान सैंग योग | ताकहेँ दीने नाथ नियोग कीन कीन सरदार सुन्ञाना। मेरे सेगमें करहिं पयाना नाथ कृपा करि सादर सोई। देहिंबताय सिद्धि सब होई भाष्यो महाराभ सुख पाई। सभा खदनकोी सपदि सुनाई वीर धीर अरु होय उदारा। रान काजमें चतुर अपारा पमंतन पूजनक भगवाना द्विन खाधुनमें जरीति महाना सस्‍्वामिंह्दि मने प्राण समाना। ये छक्षणहैं विदित देवाना

दीहप

ल्‍

477 ५५ ८;

लें लक्षणसुत्‌ सांच अब, दीनवंचु तुब पास

8 कु 2 | |. 4 मील...

जिहुलाथ [तिनकी अवशि,तिनते सकल सुपास॥ ३७॥ सरदार सुजान सब, सावधान तुब सेव

रु लिनकी सबकी लेहु संग, जे जानत रणभेव ३८॥ :

नि रघुगन जनकके वेना। दीनवंधु कहूँ बोलि सचैना ने सरदारन निकट बोछाईं। चतुरंगणी चमू सनवाईं सैनप - दीनबंधुको. करिके व्याह पोशाक किये सुखभारेके

है

|

जरह चहु ओर नगारा। वेदीनन वर विरद॒ उचारा

लहि रुराज प्रमोद अपारा | भयो उतंग मतंग सवारा ओऔरहु सखा वृद्ध सरदारा। चढ़े चढ़ि हय गय रथनमँझारा हरि गुरु गणपति हनुमतकाहीं सुर्मिरि सुमिरि सब निन मनमाहीं॥ गहि गहि अख शास्त्र निनहाथा। गमनत भय संबै यक खाथा

दोहा-जे मगमें प्षपति परे, तिनसों लहि सत॒कार

निकट उदयपुर जब गये, राना सुन्यो उदार १९

( ६९२ ) बघेलवंशवणन

कवित्त

करिके पेसवाई महाराना श्री स्वरूपसिंह उद्‌पुर आनि मुंदे उरके दराजको सकल सुपास जहां दीन्ह्ोो ननवास तहां कीन्हो सन्‍्मान दे हुलास त्यों समानको॥ रूखि छाखि नारी नयन नृपाति किशोर सारी मेन वस भई छोंडी ऐन काज छानको॥ कहें ठाम ठाम कैषों काम सुखधामधाम काम त्यागि जी हैं जन ग्राम रचुराजकों १॥ छगन विचारे कह्यो नादिन गणक गण तादिन पधारयो रघुरान द्वारमाह है देखिके वरात शोभा पुरजनवातछोमा रानेहुको भा अथाह भारी उतसाह है व्याह भयो छोनीमें उछाह छायो महा तहाँ याचक उमाह भरो यांवचिभो अचाहंहे॥ राह राह कहत ऐसो नर नाह कहूँ सुन्यों सांच शाहनकों करन पनाहह

दोहा-रहस वहस युत होत भो, पुनि उदार जेवनार ॥| सरदारन युत फेरि भो, द्रबारहुँ दरबार १४०॥

कावित्त

जेते ऐंडदार राना रानत पछाह माह शाहन सों अकस जे कीर्नीहै बनायक कलम विनाही लिखे हिम्माति रही काहू महाराना सुता जो विवोहै सुख छ,यके॥ महारान विश्वनाथ सुत रघुरान सिंह अचरण कीनी करतूते तेम छायकै सुनि सुनि ते वैन नरराय पछितायमहा हाथ मीजिरहे शरमाय शीशनाइके दोहा-शिव यकलिंग प्रसिद्ध तहेँ, तिनके दहोन हेत जातभयों रघुराज पुनि, मंत्री सेन्य समेत ४१ हथ गय अरू मुद्रा सहस, सादर तिनहि चद़ाय दुशोन लीन्हो सरस उर, सरस हरस सरसाय ४२॥ महाराज विश्वनाथ सुत, शीरघराज उदार फारि नाथजी दरणछाहित, गये साथ सरदार ४३ साजि वाजि गज वसन वर, मोहर शत सुख साथ ... माथनाय अपर्ण कियो, पद पाथज श्रीनाथ ४४

बघेलवंदव्णन। (६८३ )

घनाक्षरी ! सनन्‍्मुख बेठि छवि निरसन छांगे चख अंग अंग केरी उर हरष वबढ़ायके ताही समे नाथंजीको हाथ ले पुजारी ऐना लग्यो द्रशाव मोद गाथ हिये पाइके॥ ग्रीवानाय हरि तब बदन रूखन छांगे छखि रघुरानसिंह अचरण छायके रण दवनसिंह सों कह्यो या तू देखी कला भाष्यो तिन होहूं रख्यो नेन टक छायके १॥ दोदा-कृपानाथजी आपके, ऊपर करी महान सुनत पुजारीहूं कह्यों, यहां प्रगट भगवान ४५ ॥॥ राम सागराहिक अहे, विश्वनाथ कृत जोन॥. बखतावर गायक लगे, गावन तिन ठिग तोन ४६ गावत सन्मुख निरखिके, तहां पुजारी कोय आयकह्यों अस बेठिवो, रानहुकी नहिं होय ४७ कादवित्त दीन्हो सो उठाय बखतावर विचारे यह हरिसवेत्रअ॥है और ठोर जायके प्रेम पूर पांगे छांगे गाबि राग सागरको प्रश्न॒ को रिज्ञाय लियो सुरनको छायके डघरे कपाट सबै आपही सो ताही समे टेरिके पुजारी कद्मो बाहेरहि आयके नाथको निदेश अहै लेह वह गायकको इतही बोलाय बैठि गांवे हरपाइके दोहा-कह पुजारि तुम्हरे उपर, रीकझेंहें बजराज स॒ुनि बखतार कहो सति, यह प्रभाव रघुराज॥ ४८ साहितचम्‌ चतुर्रगनि भाईं। पुनि रघुरान शिविर निजआई कछु वासर किय सुख युत वासा राना मान्यों परम इुलासा सीखदेन अवसर जब आयों | तब राना निज निकट बोलायो श्रीरघुरान समान समेत्‌ गमनत भयो तहां मति सेतू ले आगू राना चढि घामे | बैठायों गद्दी आभिरामै नही सकर भांति सत्कारा। दीन्हों हपय गय वसन अपारा भूषण बहु पुनि दिये अमेंडे ज्योतिमाव माणि मोतिन नोढे खनाथ नरनाथ कुमारा | राना सो पुनि वचन उचारा दोहा-आप सुज़ान सयान हैं, मेरे पिता समान ॥। दीजे संमत तास पु, जो में करों बखान ४९१

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29

सा

( ६५९४ ) बघेलबंशवण्णन

स.द्वेमगिनी मम व्याहन योग्य जहां लतिनव्या यो ग्यउ चा री ॥| होय विवाह तहां तिनकी शुव जानत आप सबे बड़वारी राना स्वरूप सराहि कह्यों सनिहे हमहूंकी खँभार या भारी

ती सम्बंध कियो हम ठीक हियो महँ जयपुर नाह विचारी॥ १॥

घनाक्षरी

नाम जाहि रामसिंह रूप अभिराम नाकोतिहक चढ़ायो जोधपुर नाह सुता व्याह पठदे वकील हमो टीछ नहीं हैंहे कान आपहको रीवां जात जयपुर परेगो राह महाराज विश्वनाथसिंहको कुणर रघुरान सिंह बोस्यों सुनि भछो या किये सलछाह॥ सहित उछाह कृपा करिके अथाह अब दीजे सीख काह यहींहै उमाह मनमाह॥ २॥

दोहा-सुनि राना खुख पायके, सुंदर दिवस शोधाय सीख दियो रघुराज को, दे बहु धन समुदाय ॥१५०॥ भूप स्वरूप अनूप खुनि, निज भगिनी हर्षाय विदा कियो धन अमित दे,शिविका रुचिर चढ़ाय ५१॥ संग रहे सरदार जे, जे बंधु अपार यथा उचित सब फोजको,की न्हो अति सत्कार ५२॥

महाराज विश्वनाथ किशोरा अति प्रसन्न युत चम्र अथोरा विजय मुहरतमें सुख छाई हारे गुरु गणपति पद शिरनाई सैन्य सहित हुत कियो पयाना बाज बहु गहगहे निसाना चढछृत चढछत जैपुर नियरान्यो | महारान जयपुरकोी जानयो फीश भरेते ले अगुवाई | डेरा दिय देवाय पुर छाई सैन्य समेत शिबिर पुनि आये रामसिंह भूषति सुख छाये श्रीरवुरान उदार अपारा | विविध भांति कीन्ह्ो सतकारा सो छहे नयपुरको नरनाहा | लह्मो संसैन्य मरम उतसाहा

दोहा-फोज साजि पुनि मौज भरि, युत समाज रघुराज जयपुरके महाराजपे, गमन्यो प्रभा दराज ५१

बघेलवंदावर्णन | ६९५ )

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निरप्ति निरखि जयपुर नर नारी | पावतमे उर आनंद भारी कछु दूरीते जयपुर राजा | आगू हे आवत रघुराना महल जाय गद्दी बैठायों | आपहई बैठि परमसुख पायों विविध भाँति सत्कारहि कीन्ह्ो पाय सो येऊ अति सुख भीन्यो सैन्य सहित पुनि शिबिर सिधाई बात होंन संबंध चढाई ठहरिंगयो सो विनहिं प्रयासा | गुन्यों कृपा यह रमा निवासा रसम व्याह - पूरव जो होई सो दे करि सादर मुदमोई वुन्दावन॒ तीरथ करिवेको बढ़ी लछाहलसा वसु दीवेकों दोहा-सादर सब सरदारसों, अरू देवानहु पाहि॥ कहहिं सफल होती जनम, लखे बंदाबन काहि॥ ५४ सुदिन शोधाय ज्योतिषिन तेरे | श्रीरघुरान मोद छहि ह्ेरे श्रीहरि गुरु पदर्षकन सोंरी | सैन्य सहित वृन्दावन ओरी कीन्धों होत प्रभात पयाना बने फीजनमें अमित निसाना बीच बीच वीथिन करे वासा। पहुँचत भये जबे व्रम पासा सादर करिके दुड प्रणामा | जातभये तुछसीवन ठामा के वन्दावन मधुपुर दशोना | नेदगोंव जो विदित जहाना मुख्य चारे तीरथ ये करिके | दशेन करि साधुन मुद भरिके पुनि चौरासी कोशहु केरी किय प्रदक्षिणा छहि मुद्‌ ठेरी दोहा-हरिमंदिर जेते रहे, दशोन किय पद जाय हथय गय वसन अमोल अरू, मोहर अमित चढ़ाय ५५ राधा राधारमणकी, मरति पुनि पंघराय रागभोग हित गाँव यक, दीन्हों तहाँ चढाय ' ५६४ पुनि विश्रांतघायमें. जाई सुवरण तुछा चठयो सुख छाईं सो सुवरण व्रजमंडर वासी जेते रहे विप सुखरासी तिनकों दे कीन्हो अति ततोष | ते माने सब भांति सँमोपू तिमि याचक जे रहे घनेरें। तिन्हें हेम बहु दिये निवेरे नारी रोके रोकि मंगमाहीं | कहि कहि लला छेहिं गहि बाहीं तिनकी मनवांछित घन दौीन्हे | शीशनाय बहु मानहि कीन्हे

(६९६ ) बघेलवंशवणेन ;

देश देशके याचवक आये। भये मसन्न हेम बहु पाये ब्रममंडठछमें नर औओ नारी। सब थरल ऐसो परयो निहारी दीहा-लाहे लाहि अमित हिरण्यको, आषहि ते काहि धन्य यह नवीन परजन्य नृप, वरस्यों बजहि हिरन्‍्य ॥५७॥ कावित्त दीन्हे हैं दिनान पंडितान हेम महादान रघुरानसिंह बृन्दा कानन मँझारी है सुयश महान शीत भानुर्सों प्रकाशमान सुकवि मधानमें वखान जासु भारी है मानिन अमानद्‌ अमानिनकों मानदान ज्ञानिन प्रदान ज्ञान दीन जाणकारी है दान सनमानमें नहानमें आन ऐसो भानुवेशमें निशान ज्ञान ध्यान घारी है ॥१॥ दीहा-“सुदिवरा ब्रजते कूच कारि,चलि मगमें दरकूच रावांनगर पहुंचिगों, संयत सेन्य समूच'”? सोरठा-उधादि वंध यक चित्र, जामें यही चरित्र सब्र सो राचि चात विचित्र, लिखे देत चरचें सुकवि पारसीके बेतका अर्थ-तन्‌- | अंगरेजीके दोहाका अर्थ-दी सरा कहे तन उसके तईं पेरहन भो | कहे प्रसिद्ध अमनि पीट कहे सर्व- कपरा सो भी उरियां कहे नंगा नहीं | व्यापी जो है गाड कहे इंश्वर ताकी देखतहै तांत नो कपरे उसके अंग- | में कहे प्रथ्वी अर्थ कहे ताके ऊपर को नहीं देखताहै तों और कोई | आई कहे हम भे कहे मायना करे हैं उसके अंगको नहीं देखताहैं यह | कहे सूक्ष्म माई कहे हमार कहा कहिबेकों यह काब्यार्थापत्ति ऊपर डीवाइन कहे आओ हा हे अंगको कैसे नहीं देखतहै बुना द्र- | “है कहे ल्थावने को अथीद गा जामें दिव्य आनंद जो है अलह्मानंद तन्‌ कहे नैसे नान नो है जीव सो | सो भेरे वित्तमें होय याके डिये मैं बीचनके है तन द्रकहें तनके शर्थना करोहों इहां सर्वव्यापी ईदव- बीच रहिह के जान नो है जीव सो | रकों कह्मो ताते मैं इश्वरहीके भरोसे ' नहीं देखाता है यह उपमालंकारतें | स्वेदा रहौंहों यह मेरे मनकी जान- स्वकीया नायिका व्यंजित भई तईं होयंगे यह व्यंजित कियो

बघेलवंशवणेन ( ६९७ )

दोहा-कछ दिनमें आवत भयो, जयप्रकों नरनाह॥ शाहन करन पनाहलमे, ध्ृपषति जेहि कुलमाह ५८ भगिनने उम्य रह जानकी, कृष्ण कुब(रे जिन नाम व्याहि विदा कीन्‍्झो तिन्हें,दे बहु घन अभिराम ॥५९॥ पुनि बीते कछु काल श्री, विश्वनाथ नरपाल है वश काल निवास किय,पास अवधपति लाल१६०॥

शरघुरान तनय तेहि. केरो | हरिइच्छा गुणि बिन अवसेरों माने राज्य सब यदुपति केरी | कामदार सों कह्मो निषेरी राजाराम राज्यके एकू | तिनकी कृपा भय मोहिं नेकू स्वामे धर्मेरत जन हितकारी करिहें कबहूँ न॒ काम विगारी सुदिन अबे राज अभिषेक | कह्मों ज्योतिषी सहित विबेकू ताति मो मन भावत येहू | करो यज्ञ संमत करिदेह सुनि दिवान कह बहुत सराही | प्रभु भर क्ट्मों ऐंसहीं चाही तब रघुरान परम सुख पाई। आशु बनारस मनुज पढठाईं।

_हा--विप्र वेद वित छिप्र बहु, रीवा नगर बोलाय सुदिन शो धाय सचाय गो, लछ्वमनवाग सिधाय ६१॥ तहँ किय कठिन कायको नेमा पगो परम यदुपति पद प्रेमा मज्जनन कारे गायत्री जापा। प्रथम करे नितहरे जो पापा पुनि पोडश मकार भरि चायन | पूजन करें रमा नारायन पुनि नारायण अषप्ठाक्षर मनु | बीसहजार जपें निश्चठ मनु यही भांति विपनहँ जपाबै | रहै यकांत अनत नहिं जावे पुरश्वरण सो दिन करि यहि विधि कृष्ण कृपा पात्रता लही सिधि कह्यो स्वप्तम.ँ आय मुरारी राज्य करे हैं मम अधिकारी ऊरूहत मनहिं मन परमहुछासा कोहुरसों कबहँ कियो प्रकाशा

दोहा-जप अष्ठटाक्षर मंत्रकों, बीस हजाराहें केर जोलों रहे शरारीर जग, किय संकल्प करेर ६२

(६९८ ) बचिलवंशबर्णन

रमा द्वारकाधीशकी, त्यों बलकी करि खूलि हेम रजत रचवायके, परम मनोहर मूलति ६१ बेद विहित करवायके, आखु भतिष्ठा वेश बाधवेश विश्वनाथ खुत, पूजन करत हमेशा ६४ करन लगे जप जेहिसमय,तब भारे मोद अनंत भजन सुने भजनी नसों, निर्मित निज बहु संत॥ ६५ सुद्िन राज्य अभिषेक की, आयी जब मुदवान सब तद्वीर महान में, वेद विधान भमान ६६८

श्रीरघरान जाय मखशाढ़ा | वसु मंचिनते सहित उताछा रघुपति यदुपति मरति काहीं | थिति के हेमसिंहासन माहीं महारान अभिषिक कराई अभिषेकित भो आय खोहाई श्रीकृष्णहिकि कृपापातव कर अधिकारी भो विदित अवनिपर कर परताप छयो परतापा सज्जन सुखप्रद्‌ सुयश अमापा पितु सम पाकृत प्रजन सप्रीती नीति रीति करि. मेटि अनीती सुनि सुनि शाहहु जाहि सराह्यो | आय अजंट छाट भरू चाह्यों राज्य करत बीत्योी कछु काछा | दशन हित जगदीश छृपाछा

दोहा-करि छालसा विद्यवाल ले, संग चम्‌ चतुरंग रानिन युत जगपति पुरी, गमन्यों सह्दित उमंग ६७

बोच बीच वीथिन करे वासा | श्रीरवुरशाभन राज सहलासा शतक संस्कृत यक जगदीशा विरच्यों में निन आँखिन दीसा भाषा शतक कवितमें दूनों। विरचन रूग्यों सो उमग पूजों परयो अमर कंटक मंग माहीं गमनत भयो नाथ तहँकाहीं ॥! मेकल गिरिते कढ़ि तहँ प्रगटी शिव प्रिय रेवा सरि अधघ निघटी तहेँ मजजन करि दे बहु दाना रेवा अष्टक रच्यों सुजाना शिवअष्टक पुनि रव्यो. तहांहीं | सिंहवछाकन छंदृहिं माहीं - रहें जे संत विम तहँ बासी | तिनको देत भयो घन राशी

बचेलवंशवर्णन ( ६५९ )

दि हा-साहित सेन्य चतुरंगिणी, तहँते कारे सु पयान सेवरी नारायण निकट, जातभयों मतिमान॥ ६८ सेबरीनारायण करि देन | किय सहस्न मुद्रा कहेँ अपैन तहँते म्रमु पयान करि आसू | पहुँच्यो साक्षिगोपाछ॒हि पासू मुद्र सहस गयंद सुहायो दशन छेके तिन्हें चढ़ायो दे सबको ।तोमे दृव्य महाना सादर चढ़वायों भगवाना पंडा गाड़िव छादि बतादा। छाय दिये के युत अहलादा महाराभ सबकी विरताई। खायो स्वाद अपूर्व सुनाई आरिघुरान परमसुख भीनो ठहँते पुनि पयान द्वुत कीनों जगन्नाथ मंदिरके ऊपर | नीरूचक्ररररयों जब अधहर

सोरठा-कारे दंडवत प्रमाण, कीन्‍्हों। पुरी प्रवेश पभज्ु

डेरा किय गुरूुधाम, रानिन सददित डुलास भरि।।

दौहा--तहँते गमनतभोा तुरत, दुशशन हित जगदीदा अरूण खम्भ डिग द्वारमें, जाल भयो अवनी छा। ६५

रकबा चारग्रे दिशि बन्यो,मंदिर मध्य उतंग लसत दुगे सो उदाचि तट, तकतल करत अघ भंग॥९७०ा॥

प्रथम ऊकेले आपही, सत भाइन सरदार

सादर भीतर द्वारके, जाय नरेश उदार ७१॥

घनाक्षरी जगपति मंदिरके चारों ओर देवनके मंदिर सुखद तिन द्रशंके सुखकारि स॒हित समान परदक्षिणके चारि फेरि मंदिर सिधारि शिरनाय खम्भ पन्नगारि॥ जाय कछु निकट सुभद्रा बलभद् युत सछवि मुरारि वार वार नेन से निहारि॥ वारि मन प्रथम समारि तनु सुधि फेरि पलक नेवारि हेरि रहे धन वारि वारि स० आज्जुभयों सफली मम जन्म श॒न्‍्यों यह जन्ममें पुण्य बढ़ायो

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जानि लियो कियो पूरव जन्म हुँ पुण्य महान विशेष खुहायों

(७०० ) बघेलवंशवणेन

सत्य कहे रघराज हों आज अनेकन जनन्‍्मके पाप नशायो जो बलभद्र सुभद्रा सुदशन भओ जगनाथकी दरान पायो लोचन साझछुदे होत जब तब देखनकोा नाहे चाह ॥सहरातोी आनंद बाढ़े जितो उरमें मिति तासु मोसों कछू कद्ठि जाती को रघुराज बखाजनि सके जगदी शकी शो भा निलोक बेजाती॥ ज्यों ज्यों समीप दे हेरे त्यों त्यों क्षणदी क्षणमे सरस दरशाती

घनाक्षरी कन्चनकों छन्न उभय चौर वितनादिनोंठ भूषण वसन त्या अमोछ मोतिमारको॥ मोहर अमित मुद्रा दे गयन्द त्यों तुरद्गः पभुहिं समर्पि पायो परम निहारूकों भप रघुरान त्योंहि देके सबहीोकों वस॒ नगर देवायो तहां देवकीको छाछूकों पडा पुरीके भये परमसुखारी पाय पाय धन भारी गाये सुयश विशालकों

सोरठा-कहत मनहें मन नाथ, सो में करों भकाश अब की समान जगनाथ, हे ऊपाल यहि जगतमें विविर जाय खुख पाय, पायो महाप्रसादपुनि तहँके तीथे निकाय, जाय जाय सादर कियो ॥२॥ रानिहु सब सुखपाय, त्थोही नहर निकाइके जगपाति दरश सोहाय,करि मान्यो सफले जनम॥ १२॥

दोहा-बेखटका अटका अमित, चटके दियो चढ़ाय

मदका मटका ले गये,कीऊ सटका खाय।॥ ७२

महाराभ रघुरान उदारा। अरुणसम्भ ठिग पुनि पगु पारा देश देशकें जन बहु आईं। जुरे परीके जन समदाई पेखि अनूप भूषफी झोभा | सबहीको बरबस मन छोभा तह नृप नायक परम सुनाना हेम तुझा चढ़े वेद विधाना सुवरण वृष्टि करी मन भाई मानों मघा मेघ झारिछाई रहो पुरी कोड दिन बाकी जो सुबर्ण छहै सुख छाकी . रानिह. त्यों बिगरी तहेँ आईं। रजत तुछा चढ़ि चढ़ि सुख छाई

सर

बघेलवशबणेन (७०१ )

दो हा--भये अयाचक पुरी के, रहे जें याचक बंद

पाय पाय सुवरण रजत,गाय झुयरा सुदकंदा। ७३ घनाक्षरी

शतक बनायो जाय आपहि सुनायो सुनि जगदीश बढूहु सुभद्रा मोद भीने हैं शिरते सुमनमाछ तुरत खसाय रीजि अभिराम सादर इनाम करिदीन्‍हें हैं कहे युगलेश वेश दौरे बांधवेश तब सम्भूत कलेशहारी धन्य मा।ने छीन्‍्हे हैं महाराज रघुरान भक्तिकों म्रभावपुरी प्रगट देखानें जानो भक्तराज वीनेहैं दाहा-लखि पश्शव तेहि ठाँव यह, कहें लोग भरिचाय

श्रीरघुरान मोद भो जेतो। यक मुख सों कहिसकत तेतो माने सब जन अरू सरदारा पूर्व पुण्य कछ कियो अपारा जाते वश अस नूप ठिग माहीं। हरि प्रभाव निरले चख माहीं परदेशी अरूु पुरी निवासी | अरु ने रहें भूष सैंग वासी चठयो. रोज न॒प अठकानाई ताते सबको भोजन होई एक गाव जगदीश चढ़ायो पन्डा पाय परमसुख पायो पुरी सवाउ मास किय वासा। सबको सब वोधि देत हुछासा युत समान हरिमन्द्रि जाई | छिय जिकार दशेन नप्राईं

भक्ति भाव रघरावसति,कस द्ववें यदुराय ॥७४॥

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मान्मगानर, आयकाक जाजाबंधाकाई, #ऋगयाक अकाकक अयानाकाक हल

दोहा-अर््धरानत्रि नित जाय नृप, त्योंद्दी दशेन लेय

पाय सुमहाप्रसादकोी, सबकी सादर देय ७५॥ फाशनकी पूणिमाकी, फू्लडोल गोपाल

| श््‌ के झूलत निरखि निहाल हे, की तज्यो जगजाल॥9६॥

छंद-शुभदिवस तहँते गोौन करिके गया तीरथकों गयेा॥

करि श्राह्व वेद विधान सो बहु. दान विप्रनकी दयो द्विज पाय धन समुदाय वांछित करत भये बखानहें ॥। जस गया कीन्‍न्हो वॉधवेश नरेश कीन्धो आनहे

तहूँ सुन्यो नोकरहंनके गे बिगरि कारन पायके

(७०२) बघेलवंचावर्णेन

अरगंरेजके सब देशा लूटे हनेंगो रण धायके टठिग वागि बहु वागीन काहँ नरेश आश्ु मेंगायके यकमे चढ़ायो द्वारकेसहि वेंशा भीति बढ़ायके पुनि नाथं सहित समाज है असवार बदुबागीनमें चलिदियों परम निरंक परम वी परम भवी नमें मिरजापुरे टिग सूप जायो आय बागी वे तबे बहु विनय की नी आप करहिं सहाय तो खुधरे सबे तब नाथ ऐसे कहो तिनसों हाथ यह यदहुनाथहे सच भांति मोहिं मरोस जाकी जो अनाथन नाथदे सुनि गये ले सब महाराजहूँ आय रीवापुर बसे यक रच्यों नगर गोविंदगढ़ तहँ जायफे कबहूं लसे अँगरेजके बारी तिलेगा बागि सिरगरे देशको वर्श कियो को हु नरेश को रहे डरत कोहँ नरेंशकोी॥ मेहर विजय राघवहुके गे विगर लिनके दावते मग रोंकि गो रनकी हने बहु जोर ज़ुहुम जमावते तब आय बहु अँगरेज रीवा नगर कियो निवासदे ! महाराज श्रीरघुराज तिनकी कियो परम खुपासहेै॥ डर मानि रीवा नगर की नहिं आय बागी की सके॥ मलिदंत अति श्रीवंत गुणि सब संत नृपकी सुखछक्ते अंगरेज लखि वर लेज साष्यो वाधबेश नरेशसों ले खचे हमसों राखि लीजें ओर सेना वेशसों मेहर विजय राघवहुके यागी उपद्रव करत हैं चालि मारि तिनन्‍्हें निकारि दीजे इरग लीजे हम कहैं॥। खुनि भूप लेसहि कियो सेनप दीनवबंधु दिवानके छलिय घारे मेहर प्रथम तोप लगाय आस पयान्‍नके 5... भगि गये तहँके यूह योगी वेगि कारे तहेँ थानहें

पुनि विजयराघव बेरि लीन्हो संग सैन्य महानहें॥ तेठ भये बांबां करत मे करी थान तहँझ करि लियो महराज श्रीरघ॒राज सुख भरि सोपि अंगरेजटि।दियो॥ यह कृपा शुणि यहुराजकी रघुराज परम उदारहे निज्ञ राजधानी आय कछु दिन वस्यो छु्खित अपार हे॥

दोहा-रींबा ले जे काढ़ि गये, बहु सरदार खुखारि वागी भें रण रारिे कर, तिन मिसि नपहूँ विचाएरिे ॥99॥ कोपषित हे जरनेछ बहु, ले सेंग सेन्‍्य अपार चढहि आयो रीवानगर, गोरा कइक हजार ॥9<॥ हुकुम दियो महराजको, कारे दुष्ठता विचार॥ देखन हेतु कंवाइद, आये आज हमार ॥७९॥

सुनत कह्यो रघुशन उदाश। देखन चलिह कछु खभारा हमेरें सति सहाय यदुराई। का करिहें अरि सैन्य महाई तब रीवांके छोंग सुनाता। रहो नो और देवान पुराना वरज्यों विनती करि बहु भांती उचित जाब प्रबदध आभाराती तहेँ यक दीनबंधु नेहिं नामा | रह्मा दिवान वीर मतिधामा कहत भयों सो प्रण करि भारी.। चलिये आप कछ विचारी क्षंत्री ह्ैजों समर सकानो। कुछकरल्ुंक तेहिं पावर जानो यह रिपु करिहे कहा हमारो ! करिहे रोष जायगो मारो

दोहा-दीनबंध दीवानके, वचन सुनत नरनाथ॥ जात भयी रणसाज सांजि, लिये सन्य बह साथ॥१८०॥ भूप संग बहु सैन्य करेरी। सो जरनेर नयन निज हैरी ' भय अति मानि देखाय कवाइत गमन्यो हारे मानिके निनचित महारान रखघुर। सचेने कृपा कृष्ण गुणि आयो ऐने सुधि करि दीनबंधुकी वानी | है मसन्त बहु विधि सतमानी दीनह्यो गाँव अनेक इनामा | गुणि मतिवान दिवान छलामा

(७०४ ) बघेलवंशवर्णन

सुखयुत बीतिगये कछु काछा छाट हनपति जौन विशाला है बहु सैन्य कानपुर आयो। सब राननकी खत लिखवायो आवहिं इंते भेटके हेतू। सुनि सुनि सब नृप गये सचेतू दोहा-महा।राज रचघराजकी, लिखत भयो खत सोइ मुलाकात मम करनको, आदे इत सुद मोह <१।

तहाँ चछन नृप कियो तयारी बरने तबहूँ इंते नर नारी दीनबंध तबहूँ मतिवाना | कह्मों पैन करि वचन प्रमाना चलिय भूप संदेह कीजे। विना चलेहीं भय गुगि छीमने सत्य विचारि बचन तिनकेरे काहके दिशि तनक हेरे के कछु सैन्य चैन भरि भूरी | चल्यो कानपुर यद्यपि दूरी मगमें बहु नन॒ किये निवारण छाटबोछाये है कछु कारण - गुणि हरि उर भरोस नृप भारी | काहू ओर नेकु निहारी दीनबंधुके मग ज्वर भयऊ। सो मानि कछ नूप सँग गयऊ

दोहा-जाय सेन्य युत कानपुर, डेरा खरसरि तीर करत भयो सखुनि हूँनपति, भयो सुदित मतिधीर ॥८२।

दुगी मुकामी फेरि सलामी ।। बँधी पंचदश जोन मुदामी पैदर अरू असवारन काहों। दिय नृप अरुण पोशाक तहांहीं फूर्लासरी अरुण गन भासी सूही साम वाजिगण गासी सरिस वसंत सैन्य सुठि सोहो छखि लाख भूपहु गे मन मोही छा८ रूखनऊ दे जब आये मुलाकात हित नृवहि बोंलायो मुख्य अमात्य जौन अभिरामा दीनबंधु है जाके नामा श्रीयुरान ताहि के संगे। गये सैन्य युत भेट उमेंगे यक सहिब छैके अगवाई साहर भूपहि गयो छेवाई

दोहा-शिएदविर दूँनपतिके निकट, पहुँचे जब रघुराज 'पाय लाठ साहेब खबरिं, आग ले महाराज <३॥

कारे सलाम दोड परस्पर, प्‌छतमे कुशलात कहे कुशल सब भांति दो, बार बार हरषात ॥<४॥ वाम हाथ गहि दहिंने हांये। गयो लेवाय छाट सुख साथै तख्त्‌ उपर द्वे कंचन कुरसी। धरवायो जु हँनपति हुछसी तामें अपने दुहिने ओरे। नृप बैठाय बैठ सुख बोरे नीचे तख्तु सैकरन कुरसी | धरवावतभों साहेब विछसीं तिनमें काशी चरकहरीके रहे ने और भूप अवनीके ओरह जेंमींदार सरदारन बोछि पठायो आये तेहिंछन तिनको तुरत तहां बोलवाई | दे तानीम सब सुखदाई क्रम क्रमते दीन्‍्हों बेठाई | बैठे ते सब शीश नवाई दोहा-मंत्री मुख सरदार जेहि, दियो अजंद लिखाय नृप सगे चॉले तेहि ऋमदहिते, कुरसी बेठे जाय॥<५॥ निकट हूँनपतिके जबे, भई सभा यहि भांति अति प्रसन्न रघुराज पे, भयों लाट मुदमाति ॥८६॥ तेहि पितु किस्ती ने छागे आईं। तिनते अधिक तीनि छगवाईं भूषण बेसन विचित्र अमोछे | तिनमें धरि धरि दियो अतोले पूषे॑. सछामी पंदह जोई। छाट हुकुम दिय दशवस होई साजु नवीन भांति बहु साजी। दुन्‍्ह्ों यक गयंद वियवानी . पंरगन दिय सोहागपुर नामा। होत छाख मुद्रा जेहिं ठामा जानि भूपकों मुख्य सचिव चित कियो पराक्रम गुनि हमरे हिते .. दीनबंधु पे है प्रसन्न॒ अति खिछत तोपयुत दियों हँनपति पद दीवान बहादुर केरो। दियो छाट करि मान घनेरों

दोहा-पुनि नृप संग सरदार जे, गये तासु दरबार यथा उचित तिन सबनको, दीन्‍्हों लिखित अपार ८७ ऋमते पानि सब नृपनको, दीन्हो खिलत सराहि ते शिर घरि धरि लेत मे, हे मन परम उछाहि ॥८८॥ है. जो.

(७०६ ) बघेलवंशवर्णन

पुनि रघुराने भूपष मतिवाना। मुद्ति छाटर्सीं व: बखाना हम अस नहैँ तहूँ सुन्यो हवाछा। देन हेतु सबकी करबाढा आवत छाट्सो हम पहिंलेहीं | सोहों देहि. आप कैलेहीं सुनि सौहीं के छाद डवाही देखि भरी विधि कह्यो सराही यह झसौहीं केहिं देशहि केरी | कह नृप अहै फिरंग करेरी सुनत हँनपति मन मुसकयाई सौहों दें वाणी यह गाई॥ तुब॒हृथियारहि. केंवछ तेरे सदा रहें हम बिन अवसेरे

पुनि भूषति रघुरान डदारा। का हा-सब भूपहुं पुनि नाय शिर, गमने शिबिर मझार

दो

|

रे सछाम डेरे पगु धारा

इले हूँनपति सेन्य:युत, है करि सपादि तयार <९॥ महाराज रघुराजके, आये शिविर सिधारि

होत भयों जेहिं विधि सदा, तेदििते अधिक विचारि १९० करत भये सत्कार नृप, भो खुशलाट अपार बरण्यों इत संक्षेपते, भीति अंथ विस्तार ॥९१॥ महाराज रघुराज पुनि, कूच तहाँ तेकीन

सेन्य सहित रीवां नगर, आय सबे खुख दीन ९२॥ बाढ़ अठारहकी दियो, लाट विशेष निदेश

दगे सलामि हमेश सो, आवत जात नरेश ९३ कठछु दिनमें अरजंट पुनि, चलि सोहागपुर कादिं मूाहि अमल कराय द्य,सुयदा छाय जगमाहिं॥ ९४

संवैधा-एक समय पगे ब्रणनो अधीर भयो भई पीर महाई॥ जाप करें मलु बीस हजार करे तिमि राजकोी काज सदाई॥ हरि गये सब देश विदेशके वेद्य हकीम मिटी मिठाई दूरि व्यथा मे जबे रघुराज दियो शातके रचि छाम्भु खुनाई

दोह[-ओऔषध किय परदलाद द्विज, साख अयीष्या खून :.. पाणों मुद्रा शतसदस, गार्वें उसय नहिं ऊन ॥९५॥

बघेलवंदावर्णन (७०७ )

ज्वर विकारते यक समय, नूप किय विपुल उपास तज्यों तबहूँ जप करब, पूजन रमानिवास॥९१७ . बालहिते कविता मन छायो। चित्रकूट अष्टकहि बनायो अंथ रच्यो रघुनंद बिलासा | हनुमत शतक कियो सहुलासा लीन्‍्हो मंत्र केर उपदेश | तब जे ग्रंथ रच्योंहे वेश तिनकी अब में देत सुनाई | विनयमार दिय म्थम बनाई रुक्मिणि परि पय विरच्यों ग्रंथा जामें विदित काव्यकी पंथा व्यासदेव जो रच्यो पुराना | श्रीभागवत प्रसिद्ध जहाना भाषा. विरच्यो भूष डदारा। अहै बयाडिस जौन हजारा पुनि जगदीश शतक किय भाषा जामें कवित. बिचित्र सुराषा दोहा-रच्यों संस्कृत अंथ विय, एक शतक जगदीश कियो खुधमे विलास यक, श्रीरघराज महीश ॥९७॥ तिलक बनायो तासखु बुध, रंगाचारी वेश भजन कवित ओरहइ अमित, सादर रच्यो नरेश ९८॥ सोरठा-कानन जात शिकार, खेलत मारत दोरकों आरं जे जीव अपार, तिनाहें बचावत करि दया॥ २॥ कवित्तघना क्षरी फेरत आनन जो ऐसे उच्च वारनपै द्वैकारे सवार जाय नेर बेर बेरै टेर सरदार पै सकत उठायकोऊ ऐसो छे रफल्छ घाहि करे बाघ नरहै कहें युगलेश गेर गेर कहूँ टेर टेर हाई ठहराय जहां हौंकत करेरहै हेर हेर मारे लगे देर नहीं दोरिमिर भूप रघुरानसिंह शेरन पे शेरहे सोरठा-चबलि पहाड़ महराज,बागि बागि जेहि-बःरिमें हने जिते मृगराज, ले गोकुल बुध पहँ लिखे॥ १॥ दोहा-महाराज रघुराजको, ओरहु चारू चरित्र॥ युगलदास वर्णन करत, जेदहि यश छयो विचित्र ॥९९॥ शाह विलायतको दियो, खुका यक पठवायं॥ लाट वजीर हमारसो, तकमा देहे आय ॥२००॥

( ७०८ ) बघेलवंशवण्णन

माधोगढ़गे यक समय, तहँते आगू लाय सुनि हवाल भे अति खुशी,सभा मध्य बँचवाय 'बत लिखि पठयो लाट पूनि, जहाँ आप मन होय चलि लीजे तकमा तहाँ, बड़ी बड़ाई जोय २॥

नृप लिखि पठयो काशिको, सोउ लिख्यो हे वेश वांधवेश वर सन्‍य य॒ुत, गो महेशपुर देश ३॥

मुलाकात दरबार जन, भयो कानपुर माहि तस भो काशी लाट दिय,कटदों सी तकमा काहि॥ छंद-भूषण सितारेहिंदकी दीन्‍्हो . किताबी एकहे सुबहादुरी भूषण दियो यक जटित रतन अनेकहे 0 अति द्वे शअसन्न सुशाहजादी दियो रत्ननद्वारदें सो दियो नप रघुराजको वर हूंनपाति करि प्यारदहे॥ किय कूच फेर परेटते रघुराज भूप डउदारहे॥ ज्ञन यूह भये प्रसन्न अति लखि सेन्य तासखु अपारहे चलि असी सुरसारे संगमें तट वारू कारे सुखछ/यके मणिकार्णिका अरू गंगमें सठमंग जाय नहायके २॥ यक गा गो सहस भूषण बसन नोल अमोलहे उपरोधिते दिय दान करि सनन्‍्मान प्रीति अतोलहे पुनि दरश किय विद्वेशको दिय मार्षण्क चढ़ाइहे अरू सहस उऊद्रा वबसन भूषण अपंणे किय चाइहे अन्नपूरणा अरू बिदहुमाधव जाय निकट गोपालहे पद पंचशत झछझात अपि मुद्रा लियो दरशा विद्यालद्द पूनि कालभेरव इंठलिपाणिहे ऑर सिग्गरे देवको पा खत सु मुद्रा आपके दरणान लियो कारे सेवकों पंचगंगा आदि जेते घाट रहे महानह।॥ करिमजने लतिनमें कियो जो दान ब्रा बखानंए ... गज तुरंग गोशत वसन भूषण अन्नकी बहु राशिहे '. छद्दिविम काशि निवासि सब दिय आशिषेसडुलासिदे॥

बघेलबंशवर्णन (७०९ )

द।हा-महाराज रघुराज पुनि, दारू तुला मेगवाय यक पलरामे देतभे, सुवरण मनन घराय

ढठाक्ू कृपाण पाणि निम लेके निन भूषण वसनहुँ ठिग चैंकै यक पछलरामें सहित उछाहा बैठयो बांधवेश नरताहा सुवरण पछरा नींच लररुयो जब दिय नरेश सुनि देश आशु तब अपनो गरू रफलछ मेँगाई। निन समीपही छियो घराई तबहूँ सो पछरा नीच छखाना तबहूँ नृर्पीत अस वचन बखाना दै थेढी ये मोहरन केरी | उर्छूदि देहु करहु अब देरी शे कामदार ते सुनि सहुछासा। उलूदि दियो मोहर अनयासा सुवरण पछरा महि छूंगि गयऊ | पढरा ऊँच भूषफोी भयऊ तुला चढ़े अल छाखि नृपकाहीं | किये गशंसा छोंग तहांहीं उतरे तुलाते नप हरषाई | दशहनार मुद्रा मेँँगवाई दीनबन्धु. दीवानहु भपा | यक पछशा बैठाय अनूपा यक पलराते रुपयन रूरे। दियो धराय मोद सों पुरे

दोहा-भयों ऐसी नृपाते कोड, कामदारकों जोइ तुला चढ़ाबवे रजतमें, चढ़े हेममें सोइ ६॥ बढ़यो शोर खुनि जननको, तहाँ भूप शिरमोर कहो करें नहिं शोर कोड, कहो वचन यह मोर/॥४७॥ पॉडे नंदाकेशोर कह, सो सुनि भरि सुद थोक बेद हल्ला होत यह, छयो तीनिहूलोक <

राज रान पुनि श्रीरघुराता | मानि मोद उरमाहिें द्राना निन नामहें सुछ्छोक बनाई। सो दे सहस आशु छपवाई प्रथ पंडितनकों विरताई भोर कमक्षा सपदि सिधाई काशिरानकोी तहां मकाना अति आयत रह विदि्त जहाना तहूँ मज्नन करि पूजन नींके | वोढे सहस दे विप्रन जीके है दे मोहर दिय सबकाहीं | विविध भांति सन्‍्मानि तहांदीं

(७१० ) बघेलवंशावर्णन

ते सब सुयश भूपकों गावत निजानिन गृह गवने सुख छावत केरि आपने शिबिर सिधारी | महारान रघुरान सुखारी रै जे बाकी औरदु पंडित | सकल शाख्रमें अतिही मंडित सादर तिनको. निकट बोछाई करि सन्‍मान सभा बैठाई ढुइ दुई मोहर और दुशांढे देतमयों युत भ्रीति विशाले त्यड सब गावत सुयश भुआछा दे अशीश गृह गये उताछा दोहा-कहत परस्पर बात यह, जात पंथ हरषात

|, ॥। ५४ | ॥।

समान किय अवदात असि,कोउ नृप ब्रात विख्यात॥९॥ रे घाटिया विभजे, काशी कइक हजार सुवरण तन्नु तिनके किये, सुवरण वितरि अपाशार शव. हाट हाट हाटक विपुल, भयों बनारस ससस्‍त रस्तन रस्तन बागते, पंडित मोहर मस्त॥ ११ रहे जे संत, महंत तहेँ, संन्यासी विख्यात सादर तिनको द्रद्या लिय, दे धन बहु सहुलास ॥१२॥ देहरी बीस हजारहें, काशी विप्रन केरि

नए तिनके सत्कार हित, नीके मनाहे निवारे ॥१३॥ पांडे नंदकिशोर सिंह, इंइ्वरजीत बघेल तिमि शाहिजादई सिहसों, कह्यो धर्मको बेल ॥१४७॥ हम अब रीवहिं जातहें, रूपया बौसहजार॥ा

ले देहरी सब दविजन दे, अइयो निजहि अगार ॥१५॥ अस कटद्दि भ्रप भोरही, तहँते तुरत पधारि

निज पुरको आवतभयो, करे दरकेँच सुखारि १६ उततीनों जन काशि वसि, विभन सद्दित विवेक॥

. दीच्हझों गनि देहरीनको, फरक पच्यो नह नेक थे १७ | कवित्त

राना राठि ढरहाडा बंडे कछवाह राजा आय आय कीन्ही सभा देंकै घन राशी है॥ दक्षिणके सूबा जे करोरिनके राज्यवारे आय तेऊ सभाके सुकीरति प्रकाशी है

बघेलवंशावर्णन ७११ )

सुवरण वृष्टि पे कीनी कोऊ आज तऊ नैसे करे वारि वष्टि भादों मेंघ खासी है॥ भूप विश्वनाथकी अनूप तनय रघुरान जैसी जातरुप वृष्टि कीनी पुरी काशी है घर घर बाट वाट गंगाजूके घाट घाट हाट हाट भारहीं सो भाँपषें जन राशी है॥ पंडित अखंडित की कीनींसभा मंडित ना रेसी को भपति उदंढित विकाशी है॥' कहें युगलेश रहि गये। ना कलेशछेश याचक भशेषकों विदेश देश वासी है हम तुछा भासी महाराज रघुरान यश्ञी खासी कीर्ति अतुछा प्रकाशी पुरी काशी है* भूपर घनरे एक एकते बढ़ेरे भूप भये हैं अनूप पे ऐसी कोड कीनी है जैसी करी महारान विश्वनाथ तनय यह महारान रघुरान मोद उर भीनी है काशीपुरी असी गंग संगम निकट तट चढ़िकै हिरण्य तुला पुण्यकै अक्षीनी है॥ कहे युगछेश देश देशके नरेशनकी जाईवों महेशपुरी राह रोकि दीनीहै हे केते भूमिपाल भये भारी राज्यवारें भ्रामि केतको दिवान बड़े दानी सत्यसिन्धह आय आय काशीपुरी लाय लाय द्ब्य भूरी दैके विभ वृन्दनको पोष्यो पंगु अंधुह॥

पैन ऐसो भयो जौन हम रौप्य तुला चढ़िदान अतुझाकै छावे सुयश सुगन्धुहै राजा रघुरान राजे की तो या जमाने मध्य की देवान ताकों श्रीदिवान दीनबंधुहै४॥

कुंडालेया-छुवरण व॒ष्टि करी उत्ते, काशी नृप रघुराज

तेहि प्रभाव तिहें देशघन बरसे वारिदराज

वरले वारिदराज सकलमें भमयों सुभिदक्षे॥

रहो लेश कलेशवेश 'मिटिगो दुशिक्ष

भमिप्ते मॉगत रहे रंक जे घर घर कुबरन

तेऊ पाय अनाज भूरि हेगे तलु सुवरन

हा-महाराज रघराजकों, दृढ़ विधास यएर: तेहि प्रभाव सुखसाज सज,सकर दराजहु काज ॥१८॥ कवित्त

जोधपुर महारान राज्यहै द्रान जाहि राज कान ऐरही में बात दिनिरेंन है साहिबी सुरेशसी घनेश ऐसी मौन समै तेजमें दिनेश वेश विठसति रानहुश्न मैनकीसी मराते मनोहर तखतर्सिंह बखत बुढन्द निरखत करे चनेह जाके उर ऐने युगलेशकहूं छेस भेन देखे बने नेन वैन कहत बनेनहै

(७१२ ) बघेलबंशवण्णन

दोहा-राना नुप कछबवाह अरू, हाडा भूप विद्ाय जेती लसत पछाहमें, भृूपन की मझुदाय १५॥ तिनके भेजि कटारजो, करत आपनो व्याह णेसो प्रथित पछाईमें, जोघधपुरी नरनाह २२०॥७ पुरुषनते संबंध शुणि, लख्तसिह नरनाह रींवा करन विवाह को, कीन्हो परम उछाह ॥२२१॥

रानिन सुतन समेत भुवाछा निमपुरत किय गमन उताछा जेठो कुंतपेर तासु रह जोईं। चतुरड्जिणी फौनडे सोई आवत भयो आगरे जबहीं मिसयो नृपति जयपुरको तबहीं ताकी तास मित्रता भारी। तासों ऐसी गिरा उचारी जेहिं कनन्‍्याको तिछक चढ़ी तुब | सो ह्वैगर कालके वश भ्रुव जो रघुरानसुता अब अहई। सो तुव भयऊ नृप घर रहई तासों तुव नहिं. उचित विवाहा रीवां जानल्‍छन करहु उछाहा हमेरे संग जयपुर पगु धारो। सुनि सो कह यह भछो उचारो

दोहा-दे सवार बग्घी तुरत, जयपुरकों नरनाह ताकी संग चढ़ाय के, लेगो जयपुरकाह २२ मद्ााराज रघराजकी, जेठि छुता वछा काल॥ होत मई तबइतहिते, सुमति दिवान उलताल॥ २३

छिख्यो जोधपुरकों यह पाती | जहँ अजवशर दै विरुयाती जासु तिक जेठेकी चढ़ेऊ। सो नृपकी दुढ्िता निय कदढ़ेऊ ताते यह नृपशुता जो अहई तासु व्याद जेंठेकी चहई ताम पक्काइत कारैडीन्यो तब तुम इते पयानहिं कीन्हधो यह पाती छृहि कवि अजवेशा | सो पक्ताइन करि छियवेशा नुप दिवान कहेँ पत्र पठायो | हम यह पक्काइत कारे भागों सों आगरें सुराति विसरायो। जेठ कुँबरकों नहिं ले आयो तख्तसिंह नृप रे चढ़ाई सबकी तीरथषति नहवाई

बघिेलबंशवणेन | ( ७९१३ )

दोहा-सबको करिदीन्धों बिदा, ते द्वे रेल सवार रानी सुत सब सेन्यगे, निजपुरको विनवार २४ छरे संग सरदारले, युग रानी खुत दोय ॥॥ तख्तसिंह आवतभये, रीवाकोी मसुदमोय २४ ॥। नप रघुराम मोद उर छाई। शिविर कराये छे अगुवाई सुद्विसमें चय भंयो विवाहा छायो घर घर परमउछाहा जो पितृब्ययी सता सयानी | तख्तसिंह व्याहों सुखमानी तख्तर्सिंह ल्‍याये सुत दोई। तिनमें नेठ कुँवर रह जोईं॥ ताको सुता आपनी व्याहीं। महाराभ रघुरान उछाही तेहिते छहेर कुँवरहिं काही सुता विमातृ भागेनि कहँ व्याही दायन देन जु रहो करारा | पंचलक्ष दिय. दव्य डदारा हय गम भूषण वसन अमोछे | दियों तिन्हें रघुरान अतोले दोहा-मेवा सकल मंगायके, अरू [में ठाइ बहु भाँति केयो दिन सादर दियोी, ऊच नीच सब जाते २६ चारिें रोजको नेम जग, राखि मास लों बरात पूरी साज सबे जनन, पूरी सुख सरसात २७ रत्न जदित सुवरण कटक, अरू बहु मोती माल॥ निज सरदार नकोी दियो,छायो सुयशा।वेशाल २< ॥। कावित्त एक संमै बांधवेश महाराज रघुरान छरे सरदारन संगले देवानहे रेढमें सवार कलकत्ताकों पयान कीनो हरिहर क्षेत्र आदि तीरथ महान है प्रेमग तहाँकै नहान दे दविनान दान तीने रोन जब कलकत्ता नगिचानहै हनपति आज्ञा पाय हन मुख्य आगू आये गयो लेवाय डेरा देतभो मकान है॥ ९॥ दोहा-डेरा आयो लाट पूुनि, देखि भूपकों रूप रूप अस कोहु भूपको, भूपर गन्यों अनूप २५ मुद्रा सहस रसोई काहीं | शिविर जाय पठयो सुखमाहीं दूने दिन पुनि दृपति उदारा | सादर छाट शिविर पगुधारा

( ७१४ ) बघेलवंशवणन

सो आगे उच्च जो कुरसी | बैठायो तामें अति हुलसी विविधभांति कीन्हो सतकारा से कहँछों कवि करे डचारा बड़कीमतिकी उभय दुनाढ़ी | देत भयो झशचुनको शाद्थी फेरिला: असि गिरा उचारी ईजा रही आप मग भारी यहि पुर होत कहते कामा | याते कलकत्ताहे. नामा

| पक...

दै चारेक चले ठौर विशेषी | छेहि. आपहू आंखिन देखी

दोहा-पांचलाख स॒द्रा नितदिं, बनत कलेते ख्यात तूल सूत बिनिबो वसन, होत कलेते ब्रात २३० शहर फनूस बरे ब॒ुते, निशि कलते यक साथ॥ इत्यारिक बहु ओरऊ, निरखि नद विश्वनाथ ३१॥

कहो लाट साहेब सों जाई। याहि पुर कछा अपूर्ने छखाई तकन तोपखाने पुंनि भूपा गये छखे युग तोप अनूपा रहें अठरे पंनी केरी | तिनहि सराहतभो नृप ढेरी सो यक मनुन छाटर्सेों कहेऊ लाट खशी हे हकुमहि दयऊ महारान ऐसी युगतोपा तुमाहें देतहें हम भरि चोपा अहें श्राग सो लेव मेँगाई | दिये देत हम जहैं रजाई देशत फेरि तिलंगन काहीं | पथरकछा दीन्‍्ह्ो सुखमाहीं पुनि कह तुय॒दिवान सरदारा | वीर बड़े अरू सुधर अपारा

दोहा-बंहुत रोज आये भये, अहे रूजी यह देश यातेशअब पनिज पुरीको, कीजे गमन नरेद्या ३२ लाट वचन तब भूप सुनि, है द्वत रेल सवार मग नृप बहु सन्‍्मान लहि, आयो परी भेंझार॥ ३१३ ढूडहु भरको इुकुम नहि, तहँ असि ले सब ठाम इनके जन वागे बचें, ओर कसूरी नाम ३४ अरज कियो जो लाट सो, सो सब प्रण कीन कहा अापना राज्यमें, करें। जो चहो भवीन १५॥

बघेलवंरावर्णन ( ७१५ )

चारि अश्व बग्घीनमें, चहत छाट नहिं कौय॥ चढ़े जो कोऊ धोखेह, देइ दंड छुब सोइ ३६ सो पठयो महराज प, शुणि सो निजहि समान चाढड़ जपात रघुराज तब, शुन्यों कृपा भगवान २७ मानयो यह रघुराज नप, सब यहुराज प्रभाव.॥

. ओर येक आगे चरित, वरणों भमरि चित चाव रे4॥ विजयनगर है नामजेहि, इंजानगर विख्यात तहँकी गजपतिसिहहे, २_्ृपलि मति अवदात र२५ सादर सहित कुटुब सो, बसयों बनारस आय 0 ताके भे यक कन्यका, राति सम खुंदर काय २४०

तेहि व्याहन हित सो उत्साहन भेज्यों जन पछाह नरनाहन ते सब दूरिदेश बहु मानी अपनो जाब अगम मन जानी ताते ते कबूछहि कीने | मुद्रा छाखनहँके दीने तब सो : ईनानगर भुवाला मनमें कीन्दो शोच विशाला पुनिकीन्‍्झों अस मनहिं विचारा | रीवां को है बड़ो भुवाछा तेहिते जो ममसुता विवाह | होय तो होवे महाउछाहू एक समय रघुरान उदारा | भेंट करन जयपुरहिं; भुवारा मिरजापुरकोीक कियो पयाना तहेँ नृुप ईजानगर सजाना

दोहा-सुलाकात कारे नजरदे, बहु विधि कीन्दों सेव पाने जब तकमा लेनकों, गयो काश नरदेव ४१ तबहू बहुविधे सब करि, खुता व्याहर्े हेत विनयकियों बहुमाँति सो, सो नृप बडो सचेत॥ ४२॥

नाथ कह्यों वकीझ. करिदीने ज्वाब सवार तेहि मुख नृप कीजे

सुनि प्रसन्न गजपति नृप भयऊ | सादरनिनवकीरू करिं दयझ भयो जवाब स्वारू युगवरषा। पंरिनयकफों टीकोी कछुनरषा पूछो प्रभु तेहि नृूपकी आदी भाषतभ वकीझू अहछादी

(७१६ ) बघेलवंशावबणन

राना विदित उदयपुर केरे | तिन भाई करि छेहें निवरे सुनत उदयपुर खत लिखवायो रानानी लिखि तरत पठायो

ईजानगर भूप जों रहईं। सो हमरो भाई सति अहई सुनि खत बांधवेश महराजा कह वकीछ सों वयन दराजा दोहा-ले आवहु ह्रत तिलक इत, ले आये ते जाय टिके रहे बहु मासलो, तिलक चढ़त जनाया ४२ रामराजसिंहको तिलक, चढ़नकी कहे वकील भूप कहें नाहें बनत उन, कहें ज्योंत्रिषी ढील ४४॥ कतहूँ छुव संबध तोहिं, ठुव संबंधी माह्ि याते इत सब जन कहें, व्याह योग उत नाहि ॥४५॥ आति मतिवंत भ्रप रघुराज गुन्यो वृथा सब करत अकाज्‌ पंचछाख मुद्रा यह देई। तिछ॒ुक माहिं अति आनंद भेई उभय छाख दारे महँ दे हैं। उभमय छाख सँग सुता पड़े हैं हय गय भूषण वेसन अमोछा | और उपरते देह अतोछा दोषहु यामें कछु जनाई | रानको. असिद्धै भाई यह करि ठीक मनहिं मतिवाना। कछकत्ता जब कियो पयाना तहेँ किय लछाट अग्रते ठोकों। रामरानसिंह परिनय नीको दाइन लेन रही जो चाहा। ताहको करि दियों निवाहा

दोहा-रीवा में द्ुत आय भञ्ठु, कद्द पित॒व्य छुत पाहि साहेब ढिग सिद्धांत भो, तिहरों व्याह तहोंदि ॥४८॥

कहत रहे मे होबे नाहीं। तेड चुपभये कछु बतराहीं नप॑ वकीछझ ते कहि घर शाह पांच छाख धरवाय उछाह रामरानसिंकी छढे संगे। सानि बरात चल्यों सउमंगे

, काशीकी जब गये निराई। डेरा दिय सो ले अगुवाई तहईसो पुनि दिछक चढ़ायो। हय गय भूषण वृसन मैंगायो मुद्दा सहस पचास मेंगाई गनपति सिंह दियो सुख छाई

बघेलवंशवर्णन ( ७१७ )

होत भयो पूनि सविधि विवाहा पूरे रहमों काशी उतसाहा तह गजपति नरेशकी रानी | रूप भूष रघुरान लोभानी

दोहा-कहत भई्द निजनाहसों, सो डरभरी उछाह महाराज रघुराजको, कस नहि कियो विवाह॥ ४७ सो कह जब तुमसों कह्यो, तब तुम मान्यों नाहि अब सोच संबंध जेहिं, प्रब होत तदहाँहि॥ ४८ चारे रोन तहँ रही बराता। कीन्हों सो सत्कार अघाता पुनि सादर जब कियो बिदाईं | मुद्रा दिय दे छाख मेंगाई हय गय भूषण वसन जमाती। बड़े मोढछके दिय बहु भांती पुनि सरदारन और वकीछन | मुद्रा दिय पठाय घारि पीछुन नूप रघुरान फोरे सुख छाईं रुपया मोहर अमित मेँगाईं सादर रामरानसिंह काहों। तुला चढ़ाय गंग तट गाहीं सब॒विप्रनको दियो देवाई जय जय ध्वनि काशी महँ छाईं राम निरंनन. संत महाना | बसे बनारस विदित जहाना दोहा-सकल छाख्में निपुण अरू, कामादिकते होन राम निरंजन सो अब, कतहूं संत, प्रवीन ४९ महारान रघुरान डदारा | तिनके द्रश हेतु पगु धारा भूपहि. आवत जानि डुवारा | चाछे सेवक अस वचन डचारा नाथ द्रशहित बहु नृप आयें। दरशि दूरिते सपदि सिधावें सो आपहु दर्शन करि आवें। बैठन कहें बैठि तो नजाबें॥ सुनि बोल्यो रघुरान नरेशा बैठब तबहिँ जो होइ निदेशा अस कहि प्रभु ढिग चलि सुखधामा | वार वार किय दंड ग्णामा अशीश बहु बैठने कहेऊ | बैठे यामठों नप सुख कहेऊ कह प्रभु नूप विश्वनाथ समाना रामभक्त नहैं भयो जहाना

दौहा-सब विद्यनिर्मे निपण तिमि, दानी विदित महान तासखु तनयतेसदहि तुमहईूँ, सम अबडूँ ना आन ॥२५०॥

(७१८ ) बघेलवंदावर्णन

शम्भुशतक जगदीशइ शतके विरच्योतुमसुनि नेहिं बुधसुछकै जस तुम भक्त अहो नारायण | तस इंश्वरीमसाद नरायण जस पूरण सुख तुमते भयऊ। तैसहि उनहूँ ते सुख ठयऊ नूप पछाहियनमें कछु रुरो | बूँदी नृपति जानते पूरो तेहिंक आये भो सुख आधो | तुम सम कोउ कृष्ण अवराधो अति पसन्न करि दण्ड प्रणामा | गमन्यो पुनि भूपति सुखधामा सकल देव संतन गृह जाई यथा योग बहु द्वव्य चढ़ाई रामनगर गो सुरसारे पारा। गो लेवाय सो नृपति उदारा

दोहा-रामराजसिंहकोसतिय, घर दिय पठे ससेन आपरेल चढ़ि आयके, मिरजापुराहिसचेन ५१ पुनि बग्धी असवार है, सेन्य सहित सुख पाय रीवाँंको आवत मयो, ले संपाति सम्तुदाय ५२॥ बंधु कसोटाकों विदित, वंशपती महराव महाराज सो यक समय, विनय वचन सुखगाव॥५१॥ नाहक हमें अशुद्ध जग, कहत अं सब लोग विम्मुख आपते जो भये, यहां बड़ी उर सोग ॥. ५४ स.-आपहिके हमें करूणानिधि आप जो लीजिये मागहिपानी तो अहिती हमरे जे अहें जे असत्य बतात लिन्हें परे जानी॥ दीजिये मात कृपाकार के खुधरे मम लीजिये सत्य या मानी श्रीरघुराज कहो हँसिके यहुराज खुधारिदें हे साते वानी॥१॥ दोहा-भात देत खुनि नृपाहिको, बरजें बहु जन दृंद महाराज कह मानिहें, कहिंहें जल गोविंद ५५ अस कहि यक कागज लिखयो, यह अशुद्धहे नाहिं अशुद्ध अहे यह यक लिख्यो, घरि दीन्ह्यो दरि पाहिं५६ नयन मूँदि जगदीश टिग, पंडा तुरतहिं जाय ले आयो कागज सोहे, यह अशुद्ध नहिं आय ॥५७॥

बघेलवंशाबर्णन ( ७१९ )

नूप जगदीछ निदेश छट्ठि, शुद्ध मानि विख्यात॥ बेशपतीको करिलियो, भातहिमें अवदात ९८ # पंडा तलसीरामको, अश्निदांत्र करवाय कियो अग्नरिहोत्री विदित, रह्मो सुयकश्य जग छाय॥ ५९॥ दुशहजार मुद्रा अउर, दी हजारफी ग्राम दे गोविंदग ढ़ वास दिय, दे शुभ धाम अराम ॥२६०॥ छप्पप-श्री रघुराज सुवाजपेयि किय रह यश छाई याचक सोइ सोह वस्तु लही जोई सुख गाई विप्र जे याज्षिक रहे लहे ले द्रव्य हजारन लूषण वसन अमोल हेत असवारी वारन कवि वेश कहे युगलेश चलि, देशन देछा नरेश मथि है विन कलेश सुख गाय यश, भये धनेश सुरेश सधि कुंडलिया-सबनरनाहनते अधिक, बादशाह कियमान॥। महाराज रघुराजसों, कोन खुजान जदयान कौन सुजान जहान,खुकवि करि सके बखाने॥ जो वखदयों वसु वसन,जननकहँ बे परमाने माने निज लखि तजे भूप कलकत्ते महँ तब युगलदास यह कृपा जानि लीजे संतिके सब _१॥ कव्ह्िटः क्षरी वानिन सवार राज रानिन कराय तहां निम असवारी साथ शाह सोधवायो है ढाट कोठि कुरसीमें बांधवेशकी बैठाय निज असवारीकी जछूस दरशायों है देखि सब भूष छेखि निनेत आधिक मान शरमाय शीशेते बिशेषिहीं नवायोंह सांच यदुराज कृपा नानै रघुरान पर जान सब राजनते अधिक बनायो है ॥१॥ दोहा-लाख लायथ मुद्रा नजर, देनचंहे नरनाह तिनको लियो मानि तुण,शाह सहित उतसाह॥९१॥ स॒द्रा सहस पचासकी, दियो ऊअंगठी नाथ ले सराहि रघुराजको, पद्दिरिलियों निज हाथ ६९

(७१८ ) बघेलवंशवर्णन

शम्भुशतक जगदीशइ. शतके विरच्फेजाएुएँ नेहिं बुधसुछकै जस तुम भक्त अहो नारायण | तस इंदवरीमसाद नरायण जस पूरण सुख तुमते भयऊ | तैसहि उनहूँ ते सुख ठयऊ नूप पछाहियनमें कछु रुरो | बूँदी नृपति जानते प्ूरो॥ तेहिंके आये भो सुख आधो | तुम सम कोड कृष्ण अवराधो अति पसन्न करि दण्ड प्रणामा | गमन्यो पुनि भूपति सुखधामा सकल देव संतन गृह जाई। यथा योग बहु दब्य चढ़ाई रामनगर गो सुरसारे पारा। गो लेवाय सो नृपति डदारा दोहा-रामराजसिंहकोसतिय, घर दिय पठे ससेन आपरेल चढ़ि आयके, मिरजापुराहिसचेन ५१ पुनि बग्घी असवार हे, सेन्य सहित सुख पाय रीवांको आवत भयो, ले संपति समस्ुदाय ५२ बंधु कसोटाकोी विदित, वंशपती महराव महाराज सो यक समय, विनय वचन सुखगाव॥९*२॥ नाहक हमें अशुद्ध जग, कहत अहें सब लोग विम्गख आपते जो भये, यहां बड़ी ढर सोग ॥. ५४ स.-आपहिके हमें करूणानिधि आप जो ली जिये मागहिपानी तो अंहिती हमरे जे अहें जे असत्य बतात तिन्‍्हें परे जानी॥ दीजिये मात कृपाका रैके सखुधर मम लीजिये सत्य या मानी श्रीरघुराज कह्मो हँसिके यहुराज खुधारिहें है साते वानी॥१॥ दोहा-भात देत सुनि नृपहिको, बरजे बहु जन बंद महाराज कह मानिहें, काहिंदें जस गोविंद ५५ अस कहि यक कागज लिझछयो, यह अशुद्धहे नाहिं अशुद्ध अहे यह यक लिख्यो, घरि दीन्छो हरि पा हिं५८ नयन मूँदि जगदीश टठिग, पंडा तुरतहिं जाय ले आयो कागज सोई, यह अशुद्ध नहिं आय ॥५७॥

बघेलवंदावर्णन ( ७१९ )

नूप जगदीश निदेश छहि, शुद्ध मानि विख्यात॥ बेशपतीकी करिलियो, भातहिमें अबदात «< पंडा तलसीरामको, अग्िहोत्र करवाय कियो अग्निहोत्री विदित, रह्मो सुयश जग छाय॥ ५९॥ दुशाहजार मुद्रा अडर, दी हजारकी आम द्‌ गोविदगढ़ वास दिय, दे शुभ घाम अराम ॥२६०॥ ऊप्पय-श्री रछुराज सुवाजपेयि किय रह यहा छाहे याचक खोइ सोइ वस्तु ली जोई सुख गाई विभ जे याज्षिक रहे लहे ले द्वव्य हजारन भूषण वसन अमोल हेत असवारी वारन कवे वेश कहे युगलेश चलि, देशन देश नरेश मधि हे विन कलेश सुख गाय यदा, भये धनेर सुरेश सचधि कुंडलिया-सबनरनाहनते अधिक, बादराह कियमान॥ महाराज रघराजसों, कोन खुजान जहान कोन सुजान जहान,सुकावि करि सके बखाने॥ जो वखरयों वसु बसन,जननकहेँ बे परमाने माने निज लखि तज्ञे भूप कलकते महँ तब युगलदास यह कृपा जानि लीजे संतिके सब २१ कवित्तचनाक्षरी वाजिन सवार रान रानिन कराय तहां निन असवारी साथ शाह सोधवायो है छाट कोठि कुरसीमें बांधवेशकी बेठाय निन असवारीको नछूस दरशायों है देखि सब भूप लेखि निजत आधेक मान शरमाय शीशंते बिशेषिहीं नवायेंहे सांच यदुरान कृपा माने रघुरान परजान सब राजनते अधिक बनायो है ॥१॥ दोहा-लाख लाय सुद्रा नजर, देनचहे नरनाह ॥। लिनकी लियो मानि तृण,शाह सहित उतसाह॥६९१७ सद्रा सहस पचासकी, दियो ऑँगूठी नाथ ले सराहि रघुराजको, पहिरिलियों निज हाथ ६२

( ७२० ) बघेलवंशवण्णेत

कवित्त ! लकी माहिं महादेवनीके सम देव नर दानवमें भयो ना तिलक माहिं राम भक्ति घारहै साय बेष कीन्ही सती ताहि त्यागि दीन्‍्ह्यो जोन दक्षकी स॒ता जो रही माणनते अब कलिकालतो कराछ या कलुषमयो तामें वेसोहीग नहिं परत निहारीहै महारान विश्वनाथ तने रघुरान वैसो भयो युगलेश कछु कहतत डचारी है॥१॥ छोतूदास भगत पधारे एक सम रीवां कातिकते फामुनलों रहे सुख छाये फगुवाके रोज रेन निकसे बनार मंग राम सिय ऊषणकी गजंभ चढ़ायै | दीनबंधु धाम ढिंग एक बनियाको घर रहो तासु सुत के खलनादी चढायडै॥ चौंकि उठयो गन झूछ नरी डोलि उठे ठुत कोऊ जन नाथ क्या नृपको सुनायकै२ दोहा-भोर होत तेहिं बणिकको, मूपति लियो छुदाय॥ दे हजारकी वसनतेहि, लीन्हो तुरत भंगाय ६३ आधे आधे सो दियो, मोहन दद्यरथ काहहें दीनबंधु सो सुनि कियों, वणिक सद्दाय तहाँ।हिं॥ ६४॥ वणिक पुत्र भगिजातभो, छीतूदासहि पास आय भक्त महराज ढिग,शासन दिय सदुलास ॥हदा क्षमि आगस यहि वणिकको, दी जे लूटि देवाय॥ कुटी सिधारव का लिह हम,सुनि बोल्यो नरराय ॥६४६॥ वह भगवत भागवतको, कियो महा अपराध याकी देन काहिय प्रभु, ओर द्ोई बाघ ॥६० यहि अपराधी वणिकको, कीन्ह्यो जोन सहाय उंचित दंड सोउ पायहे, यह भशञ्ञ देद्दि सुनाय ॥६८॥ षुनि लिन कुटी भक्त पगु थारे। महारान उर अति मद परे परममित्र मंत्री यशवारा रहो जौन मराणनको प्यारा मुख्य देवान क्यों जेहिं काहीं। छाट खिछत दीन्हों। मुदमाही ताहकी गरुणि वणिक सहाई। कामकानते ददियो छाढ़ाई रहे जे कामकानि तेहि संगा। तिनहूँ छोड़ाय वियो सउमंगा दाक्षण देडरा नगर छछामा तंहँ:नेहि थान ओहे ससनामी

बघेलवंशवणन (७२१ )

लालशिवबकझर्सिह तेहि नामा | धीर वीर अतिहीं मतिथामा तासु अनुज भगवतसिंह तेंस वचन जासु अंगद पग कैसे तेहिं शिववकश सिंह सुत रूरो | छाहूरणद्वनर्सिह गुण पूरों कैयक अनुन॒ तासुके जानो तिनमें दिरिगनसिंह सुजानो छालरणद्वनर्सिंह पर पीती | केरि रघुरान मीत गुणि नीती सककछ बपेंढसंड जों राजी किये मुखतार परम है राजी दोहा-माधवगढ़ ड़िग पार सरि, कछिया टोला गादयें नावें जासु दिलराजसिद, मालिकहे तेहि ठावें अमरसिंहद कल्याणसिह, ताछ खुबन शुणआाम॥

६९९॥॥

महाराज परसन्न हे, तिनहँकी दिय काम २७०॥

वॉकेधोवा सिंहको, कोष काम करिदीन

देशी परदेशी बहुत, काम दियों खुखभीन ॥७१॥

तिन सबको मुखतारके, भूपति किय आधोौन॥

ते सब अबलों करतहें, काम लोभते हीन ॥७श॥

छंद-यक काल अकाल कराल पष्पों विन अन्न दुखी बहु जीव मच्यों मादिमें कैँगला सहसान जुरे सारे ओसर राहन रोज फिरे॥ १॥ बहु पर्मन बांधवदेश ठये बिन अन्न इखी सब जीव भये रघुराज गरीबनेवाज महा दिय अन्न तिन्‍्हें सुदमें उमहा॥ २॥ अंगरेजहु जोन निदेश कियो॥ रूपया तेहिं पंचसहस्म दियो जद ओरेहु देशनके कैेँगला॥ विन अन्न छझोक लहें अचला॥ ३॥

हद

(७२२ ) बंघेलबंशव्णन

दोहा-झूर अन्न केतेन दियो, केतेन दे पकान क्रेतेनकोी पेसा दियो, केतेन म॒द्बादान ७३ सोरठा-जौलों रहच्चो अकाल, लाखन रूपया खच्चे करि किय दीौनन प्रतिपाल, की ऋपाल रघराज सम॥ १॥ कॉन गरीबनेवाज, महराज रघुराज सम॥। छायों सुयद्य दराज, समुद्रांतलों अवानि तल २॥

सबैया-तीक्षण जासु प्रताप दिनेशकी आतप तेज महीप सररे॥

तापित हैरिपु ताछु महेश कलेशित वासु अरण्यकरे

भाषतहे युगलेश सही यह माने उरेमें विशेष नरें॥

श्रीरधराज नरेशके देशन शीतको पेस करे पस्तरे॥ १॥ महारान रघुरान सपूती है अपूबे॑ जिनकी करतूती पितुत अधिके राज्यबढ़ायों पितुते अधिकै द्रव्य कमायो पितुते अधिक कोष किय भारी | भूषति श्रीरघुरान सुखारी एक अनूपम झाहर बसायो। गोविंदगढ़ तेहिं नाम घराये रीवामें जस॒ रहे मकाना तिनते अधिक तहां निरमाना ताढ़ विशा् एक बनवायों | विश्वनाथ नप नाम सहायो जाके तीर तीर सरमांहीं। विरचायो बहु मंदिर काहों तिनमें रघुपति यद॒पाति मूरति | पधरायों परिकर युत अति रति

दोहा-भति उत्सव जो करतेहें, साधुन सेवा वेश सीयव्याह उत्सव तहाँ, करत नरेश हमेश ७४॥ छीतूदास खुसंत यक, सादर तलिनहि बोलाय

करत व्याह उत्सव सुखद,अगहन मास सोहाय।॥। ७५ संत महंतहँ विम अपारा | लुरें नारि नर कइक हजारा तितको विविष भांति सन्‍्मानी | वांछित अशन देत रति ठानी मांडव॒७ रुचिर रचाय डछाहा | सीय रामकों करत विवाहा सबकी मंडप तर बोलवाई सादर विदा करत हरपाई

बघेलंवंशवर्णन ( ७२३ )

मुद्रा अमित इशाकन जोरी | कोंडुको देत हाथ युंगे गोरी कोहको पद और बनाता मुद्न॒ सहित देत हरषाता कोहकी छोइ्या और रजाई | देत रुपैयन युत सुखदाई रुपिया और उपरना रासी | कोइकीो भूपति देत- हुछासी

दोहा-देत रूपेया सबनको, बचे कोउ नर नारि सुख छावत गावत सुयश,जात अयन पग॒ धारि॥ ७६॥

भरत लषण 'रिपुद्वन सुत, सीय रामको फेरि॥

भूषण वसन अमोल दे, विदा करत छवि हेरि

छीतूदास सुसतकोी, साधुन सेवा देत | द्वादश्से मुद्रा वबसन, अमित मोद शत देत ७७

जनकपुरी मम सोपुरी,समय सो जनक प्रमोद जनक सरिस मनप जनकहें,चलि चलि मग चहुँ कोद्‌ ७८ स०-ओषधपुरी मुद ओध किधों, किथों बृंदावने दिपे मोदिर भारी जानकीरामकीझांकीकहूँकहँराधिका माधवकी मनहारी झालंरी शंख बजे चहूँ ओर बसें जहूँ संत अनंत खुखारी भूय रच्यो है गो विंद्ग ढ़ सो अनूपम में निज नेन निहारी॥ १॥ दोहा-छन छन छन घन ध्यान मन, तनक तन धन भान धन धन धन जन ज्ञान पन, कन कन वनकनसान ७९॥

सोरठा-जेहिं गोविद गढमाहि, दुख दी को ढुखंदे खिये | डर परलोक सदाहिं,जई सब लोगन की अहे ॥२<*

(७२४ ) बघेलवंशवणेन

दंडनीय नहँ एक निसाना रागरागिणी भेद विधाना क्रोध नहां क्रोधहिं पर होई छोंम करे यशकों सब कोई॥ जहां अर्धमहिं कोः है त्यागा निन तियर्सों ठानब अनुरागा जहेँ गृह चित्र करें चित चोरी | बंधन नहां पशुनकों जोरी वचन असत्य कहत रोजगारी सुताब्याह गावहिं तिय गारी - चलत कुपर्थ जहां गन माते कुटिछ धनुष जहँदग दुरशाते सुभटनके मँग जहां कठोंरा | कर्कश जहेँ झिल्ली गण शोरा जहां, निर्धनी यती निहारी वारे नीचि गति जहाँ निहारी

दोहा-कंपध्वजामें देखिये, वँघे घोरहर धोल

क्‍ शोभा सब संसारते, वसी भूप पुर नोल॥ <१॥ सोरठा-कहुँ गोविंदगढ़ माहिं, कबहूँ रीवा नगरमें

श्रीरघुराज सोहाहि, सब राजनके मुकुद मणि॥

कबित्त धनाक्षरी

बंदी जे ताकत मुसह्दी कामकाजी सबे बैठे दुहुंओर ददीं दीननकोी ।दिूराज॥ कददी दीहवारे अमदी सरदार आगे बेठे अरिकरने गरही रणके गराज देवनदी कैसी किति दिपाति विसद्दी जासु युगलेश साहिबी विहद्दी मनो देवरान॥ रदी कर दुन अनेदी कर सज्जनको राजे राजगद्दी पर महाराज रघुरान १॥ देन समै नोई जोई याचि राख्यो याचकहे सोई सोई देत सांच छूगत वारहै॥ भूषणअमोछ गाँव वसन अमोंछ म्याना वानि गज नोल मुद्दा कैयक हजारहे कहे युगछेश ऐसी रीतिंदे हमेंश केरी देखत देश कोष नेकुकै विचारहे राजनके राज महाराज रघुरान ऐसो आजु तौन दूजो राना रानत उदारहै॥२॥ पूठु सब विद्यन में हटत काहूसों है निपट निशृंक बुद्धि नेकु ने हछति है ब्यूटपट जानिेत अटपट बात सब बात कपदीनकी केंसह चलतिंहे

बयलवबन्यवर्णन 4 ( ७२५ )

महाराज रघुरान निकट पस्ंडी कोटि कुटिकूऊ सटपरे ।थिति उसछति है कवि नटखटनकी कूर बहुकय्टनकी चुगुझ चवाइनकीं दारू ना गछुतिहै सुमति गणेश लसे साहिबीमें त्यों सुरेश धनमें घनेश शत्च नाशनमंहेशहैं तेनमें दिनेश मुदूननन प्नेश प्रजापाढनमें वेश सम राजत रमेशहैं गावत नरेश दीह निनहिं निवेश सभा सुयश विशेष नासु छान देश देशहै भन युगछेश रघुरानसे सुमतथारी सुत बांधवेश परेससेवा पेसहै करयुग जोरि कमछापतिस्सों कमछाजी कहे युगहेश बार बार कहैं वेन कछ रावरों भगत विश्वनाथ तने रघुरान जन्यो तनन्‍्यो जासु यश चारु स्वच्छमर असित पदारथ ते सित ह्वैगये हैं सबै परत पिछानि नाहिं जाय जहांजोने थरू वसिय निरंतर की ताहि ऐके अंतरकी उद्घिको अंतर छोंडि जैये छोनी तरू भागवत पढयो भागवत को विश्वास मान्यो जननि सुभदा श्रीसुभद्वारूप जानिये॥ रामभक्त प्रमअनन्य महा भागवत विश्विनाथसिंह जासु जनक बखानिये भागवतदास नाम तिनहीों से पायो भयो भागवत रूप कंठ भागवत गानिये भागवत सेवी रघुरानसिंह भागवत जाके उर भौन भगवंत भौन मानिये ६॥

सर्वेया-याचक दबेद मलिदनको गण पाय सुपास अनंदित ही में॥ आय मनोरथ प्रणके यश गान करें चहुूँ ओर मही में॥ भाषतहें कावे देशाने जाय नरेंशनके दरवारनहीमें दान करीके कपोलनमें कीहरी रघुराजके हाथनही में

दोहा-महाराज रानी सबे, गोरी सम महिमाथ लसें पातित्रत घमेरत, तज्ं कबहूं साथ <२॥ महाराज रघराजके, अमित चारित्र अनूप युगलदास वरण्यो कछुक, निजमातिके अजुरूप <शे॥ जामें सूचित चारेत सब, ऐसो अष्ठक वेश विश्चतहे युगलेश यह, सुखभद सुकावि विशेष ॥<४॥

( ७२६ ) बंघेलबंशवण्णेन

अष्टक नप रघुराज कृत, सुगलदास छझुदकंद सार्थ गतागत चंद्र ऋषि, सिंहवर्लोकन छंद ॥८५॥ अधथगतागत सवेया |

तो यश शीरा मह्दी सरसाय यसरस हीम शरा सजतो तोमह तेज भमसोी विरभादहि हिमा रवि सो भजते हमतो तो जग नेश्व सोहत चारू रूचा तहँ सो वरणे गजतो॥ तो रघुराज भजे नदहिं लोग गलोहिनजे भज राघुरतो ॥शा अथ-हेरघुरानपिंह तिहारो श्रीवृदावन अरु श्रीजगन्नाथपुरीमें सुवर्णतुरादानादि महादानरूप जो यह यशहै शीश मंही कहे महीके शीशमें अथवा सब राजनकें यश ते शीश कहे शिरा मेंही कहे प्रथ्वीमें सरसाय कद्दे अधिकार्यके सारस होम शशी समतों. कहे सारस जो है कमरू अरु हिम जोंहै पाछा अरु शशी जो है चंद्रमा ताको सजतो कहे आपनी शोभाते सानेंहे कहे शोमित करे है यह प्रतीपाढंकारते सारस अरु हिम अरु शशिकी शोभा सब ऋतुमें सब काछमें एकरेस नहीं रहे है कमल झरिजाय है हिम गलिजाइहै शशी क्षीण ह्वेलाहै अरु : संकर्ुंकहै अरु तिहारो यश सब काछमें एक रस रहे है अरु निःकलूंकहे यांते उन सबनते अधिक्है यह व्यतरेकालंकार व्योगित भयों, अरु तोमह तेन भस्रो विरमाहि. कहे तिहारो जो महातेजहै सो वीर जे हैं बड़े रामा तिनमें मप्तो कहे भाष्तितहै ताते तिहारे तेनते तेऊ शंकित रहै हैं कि हमारी राज्य छैें यह संचितमयों अथवा विरमाहि कहे सब जगमें तिहारो तेन विशेषकै स्मेंहे ताते तुम्हारे तेन केरिके सब राजा निस्तेज द्वैगये यह ध्वनित भयो याहीते, हिमा रविसों भजतें हमतो. कहे आपने हियमें हम तो तुम्हारे तेन को रवि सों कहे सूर्यसे भजै हैं कहे भगन करे हैं अर्थीत्‌ वर्णन करे हैं यह उपमालंकारतें सूये कमछनकों आनंद देइहेँ अरु तम नाञ्व करे हैं अरू सबकी सुधर्ममें प्रवृत्त करे हैं अरू आपको तेज सज्जनके हृदयकमलकों आनंद देइहें ओसब राजनके बीरताकें मदको, अज्ञानकी नाश करे हैं अरू

बघेलवंशवर्णन “. (७२७ )

सबके अधरम्म नाश करि सबको धर्ममें प्रवृत्त करे हैं यह अनुभया भेद रूप- का्ंकार ध्वनित भयों अरु, तोनग ने रव सोहत चारु. कहे ज॒गमें तिहारो जो है ने कहे नीति ताको जो रव कहे शोरकि रघुराजपिंह बड़े नीतिमानहैं सो चारु कहे सुंदर सोहतहें अरु रुचा तहँ सो वरने जगतों, तहाँ कहे तीने जगमें सो नीतिको रव सबको रुचाहै कहे सबको नीक लंगे है अथीत नीतिको बखान जो कोई करत सुने है रो तहैं खड़ा रहिजाईहै अरु वरने गनतो कहे सोझ जन गजत कहे ग्जेनाकी करत अथीव बड़ो शोर करत सर्वत्र वर्णन करे हैं के रघुरानसिंह बड़े नीतिमानहैं ताते आपके नीतिके सुनिबेत सबको उत्कंठा आतिशयरूप वस्तु व्योनित भयो इससे जैसी आपकी नीतिहै तेसी आपहीकी नीतिहे यह अनन्वयालंकार ध्वनित भयो ताते आपकी राज्यम अनीति नहीं है यह वस्तु सूचित भयो अरू गत वर्णन कैर है ताते इनके बरोबर ऐसों नीतिवारो प्रथ्वीमें कोई नहीं है याते निःशंक यह हेंतु व्यंगित भयो तातें, रघुराज भने नाहें छोग गछोहि. कहे या भांतिकें ने तुम रघुराजासह हो तिन- को जो कोई छोंग गछोहि कहे गछते अरू हियते नहीं भजे हैं कहे नहीं भजन करे हैं अथीव्‌ तुम्होरे नामको मुखते उच्चारण करत जाको गछ नहीं चले है अरु जो तुम्हारे नामको हियमें नहीं धारण करे हैं ननैभनरा कहे ताकों जरा कहे नेक कबहूं ने नहों भयो, अर्थीव्‌ वह सबसो हारिही गये है अरु बुरतोकहे घुरिनातहे अथीव्‌ वह नाश हैनाइईहै यहां प्रस्तुत कारे प्रस्तुत प्रगट प्रस्तुत अंकुर नाम यह प्रमाण करिके प्रथम प्रस्तुत कहे वर्णनीय जे हैं आप तिनते दूजे भस्तुत जे हैं श्रीरचुनाथनी तिनकों वर्णण कवित्तके चाहें तुकमें विद्तई है यह प्रस्तुतांकुर अलंकारतें आपकी श्रीरघुनाथनीकी उपमा व्यंजित भई १॥ | * दोहा-जन्मअष्टमी आददिदे, उत्सव जे भगवान

तिनमें वितरत जननको, मुद्रा पट सहसान॥ <६

( ७9५८ ) बघेलवंशाव्णन अथ सिहावलोकनके उदाहरण

सवेया-वी रनमें जे गने अवनी अवनीके गनेले चुने रणधीरन॥ भीरन में जसदेदुलसीलसीसों तसंदे जसमें जनभीरन भीरनतेयुगलिश सुने सुने भीतिजगीनहिंदानअजीरन जीरनसॉनदिभौते भजे भजेजोहियरोनित श्री रछुवीरन १॥ जाकरंजामेप्रतापदिवाकरवाकरतोप्रतिपाल प्रजाकर जाकर तेज संऊगोसुधाकर धाकरमाये मनेबसुधाकर बाहरहंवस॒पाइकेताकरताकरआननताकेसुखाकर खाकरहेदुखको कहे काकर काकर तार करे घर जाकर ॥२॥ कामनमेंअहे आलसनामन नामनमें चहतोपरवामन वामन बोलत बेननसामन सामनरेसो तजे केहूँजामन॥ जामनमेंबसतेोअभिरामनरामनसो तेहिमानेसदामन दामनदे रघराजके ठामन ठामन सेवत संत अकामन कीरतिरंभाकिधों देशची शाचीजामेंअछेहकविदनकीरति कीरतितो तिन्हो की इती झति कोनि अहेमाति मेरि ऊंची रति॥ चीरति यासिल धारे खरी खरी गबे भरी चहूँ छाचि खहीरति॥ हीरति प्रतिहे महि माहिमें जानि परे रघुराजकी कीरति शाह सराहतभोजाहि भृपर भूप रहो कितहूं अब ना अस॥

ना असते सुख भाषत वेनहें बेनहें चरासन तामस राजस॥ राजसमाज विराजत वासव वासव सो निशुणी शुणी पारस पार सबे करतो हल भव भवे सो रघुराज भजो कर साइस॥५९॥

सोहत भावसों ऋषट शिरे दिये दीपत जासु शिषत्तु विमोहता॥। मोह तमे को.विनाश करे करे कां ति भूवाय हगानिसों जोहत॥।

बघेलबंशबणेन ( ७२९ )

जोहत भाग है जात समाग समागतसों सब सोच विछोहत॥ छोहत ताप सबे जगहे गहजो रघुराजपंगे अजसोहत घनाक्षरी शारद शशीसो कोई शारद पयोदहीसो हौसे गुनि कहे कोई लस्पों सम पारद पारदरशाति नहिं कहि कद्दि काहु मति मति कहे कोई घनसारहकी पारद भार द्रशात पेन्हें भूप मोती होरा हार हार गईं झति भाषे कविवृंद मारद्‌ नारदकोहंते है बेहद्‌ रघुरान जस जस मही तस स्वर्ग गावती है शारद्‌ ॥१॥ दोहा-अष्टक कष्ट करे जग, जगत्‌ पार धन नष्ट नष्ट नहीं चित पृष्ठ कावि, कवित तुष्टकर अष्ट <9॥ संवेया-मभूप अजीतश्भयों लियो जीत रिपून नहीं कोउ बांचो॥ तासु तनय नप जयातलिंह जयासिंह होत भयो रणरंगमें राचो॥ ताखुत श्रीविश्वनाथ भथो विश्वनाथहू दान कृपानमें सांचो॥ ताखुत जो रघुराज समे रघुराज भो तोन अचंभव सांचो॥१९॥ कवित्त जाहि जपि पतितहू पावन परम होत होहिंगे भये हैं गये केते हारिघामको.॥ जाकों यश गावत पावत सुकवि पार सबको अधार जो देवैया मन कामकी जाके बल शेकर विरेचि सनकादि ऋषि नागत रहत जग यामिनि त्रियामकों चिरंजीव होवे महाराज रघुरान सदा याचे युगढेश वेश सोई राम नामकी कंगनि सुछबिकोटि बारिने अनंग नासु काछको विहाल करे शोर धनु घोरकों मार्तंड पावको प्रताप जासु ताप करे शशिहकी शीतल करैत यश ठोरको चारैत अशेष जासु शेषहु अशेष लहै नाम कहै पामर पुनीत होत नोरकों विरेजीव हेवै महारान रघुरान सदा यांचै युगंडेश सोई कोशलछ किशोरकों * जोलों राम निन नाम धाम गुण ग्राम राखौ कीबो काल कमेड म्रपंच पंच भाषिये जौछौं विधि आदि सिषि देवनको अधिकार नित मैतिकों विचार कीबे अबछाखिये॥

( ७३० ) बघेलवंशावणेन

जोछों दौनबंधु दग देखो दाया दीह दास तोलों युगढेश विनय मोरि यश साखिये॥ राज्यश्रीअसंड सुखयुत संयुत सुधमेंसान भूप रघुरान महाराज आप राखिये॥ ३॥

सोरठा-मंथ भयो जब पूर, उचित मंगलाचरणपर श्रीहरि गुरू सख पूर, चरण कमल वंदन करूं ५४॥

कावित्त

निरत जासू नाम हरिदास हरिरूप सीय राम सेव हीमें जिन्हें जात रेन दिन कोह सों कहे देखि संत निम आश्रम सादर करत सत्कार आयो छिन छिन॥ कहें युगलेश मान रजोगुणि वाहननि घटें नहिं कबों या स्वभाव रह्यो सब दिन॥ कहें। हरिरूप पर हरिते सरसरूप लिये द्वै अनूप श्री है येतो रहे तेहि विन॥१॥

दोहा-धरचो सपे यक को विछी, यक को दुःखित कीन्ह हरिचरणाम्ृत पाय तहँ,दुत निर्विष करिदीन्ह <८॥

ऐसे चारेत अनेक हैं, को कह आनन एक नेक कृपा लहि नाथ में, वरण्यों है संविबिक ८९

जो करताहे ग्रेथको, सोउड वरणे निज वंछा बुगलदास याते करत, कछ निज सुख परशंस ॥२९००॥

कवित्त

देश गुजरात ते नरेश संग आये यहां पुस्तिबहु तिन्हें कहां छों गिनाइये चैनसिंह भे दिवान अति मतिमान खास कलम सुबंश राय तिनकों सुनाइये छल्छहू खास कर्म कहाये नाम मंशाराम भूषति अजीत बहु मान्यो सो जनाइये॥ कायत भसिद्ध साधु सुमति अगाध तासु वेश गिरिधारी छाछ नाम जासु गाइये दोहा-महाराज विश्वनाथ तेहि, मान्यो कारि अति प्यार सोय खास कलमहि कियो,लखि तिहि बुद्धि अपार

भोदूछाऊ कोच दिवान सुजाना रहेतें अस मन किये अमाना सह से पुरुषतें. भारी करी हमरों इकुम सुखारी

बघेलवेद्वर्णन (७३१ )

अस विचारि नरनाथहिं पाहीं। कहें सुधर इनही सुस माही इन्हें खास कछमी रुनाथी | दे रासखिये निकट कर साथी सुनि विश्वनाथ हियेकी जाती। राख्यो अपने ठिग सुखमानी ग्ंथ अनूपण अमित बनायों सादर तासें मुद्रित छिखायो तेहि सुत युगढदास मम नामा विश्वनाथ ठप ठिग अभिरामा ह्यो बालते ने किय प्रथा | ढिख्यों है निनमें हरिपंथा दोहा-महाराज रघुराजके, अब निवसों नित पास तास हुकुम लहि म्रंथ यह,विरच्यों सहित हुलास॥९२ बृपचरित्र यह अंथको, कियो नाम अभिराम बॉचि सुकवि सज्जन सुमति, लहें सदा खुखधाम॥९१॥ ग्रंथ रामरसिकावली, रच्यों जो नृपष रघुराज तहँ कबीर इतिहास में, यहे मंथहें श्राज ॥९%४॥

इति सिद्धिआऔमहाराजाधिराजश्रीमहाराजा बहादुर श्रीकृष्णचन्द्र कृपापात्राविकारी श्रीरघुरानसिंहजुदेवकृते श्रीरामरसिकावस्यां ग्रेथान्तगैत श्रीयुगलदासइत ववेछवजवणगेने नाम आगम निर्देश ग्रंथसमाततः

फल्रलामकममाइलभाभाााभाकाक

सूचना

बीज सूक्ष्म कारण जिसे, गावत हैं बुध वेद . तेहि जानन को युक्तिसो,बीजक नाम अखेद॥ बीजक लीन्हा हाथमें, पाया धन सोइ ताते बीज नाम है, भया सबन को बोध बीजक लीन्हे हाथमें, सूझे नहीं घन धाम मुक्ता धन पाये बिना, बीजक संबे निकाम याकी टीकानेकरहें, बहु विधि कथ्यो सिद्धान्त! विश्वनाथ नृप रामरत, जान्यो यह वृत्तान्त - सूमप्रत्यय टीका करी,बहु पाण्डित्य तेहि मांहि। पढ़े विचारे जाहि को, राम भक्ति जन पाहि .. चिन्तामणि अरुकल्पतरु,शब्द जगतके मांहि अपनी अपनी भावना, सबही पावत जाँहि राम उपासना हृढहुते, रीवों नरेश सुभ्रप अपनी मनकी भावना, वणन कीन्ह सुरूप तेहि अन्धकों शुद्ध करि, कहुँ टिप्पण दीन युगलानन्द मोहि कहत हैं, क्षमियों परम प्रवीन संदिग्ध ठोर जेते रहे, टिप्पणी करी बनाय बाकी अब कछु होयजो, लीजो संत सजाय ॥# गुरु थछ हाता जानिये, शिवहर जन्म स्थान भारत पथिक मोहि कहत हैं, पंथ कबीर आन अआीवेडुटेश भेसवर, मर्सिद्ध सकल जहान | तामे छप्यो या अन्धथ है, सबको सुखद समान इति श्रीकबीर साहब कृत बीनककी पाखण्ड खण्डनी टीका रसीदपुर ( शिवहर ) वाले स्वामी युगढानन्द कबीर पंथी भारत पथिक द्वारा संशोधिता समाप्त हुईं

क्रय्यपुस्तकें-( भाषा काव्य, )

कब मलक< -/- इन. (8) ४४०. अंश नाम की, रु, आ, रामरसायन रामायन-रसिकविहारीकृत «०... ब«« «००५ «»«» ४-० रसिकग्रिया सटीक ्छ्छ ्७्क कक | कल ९००३० ००० २-७

रामचंद्रिका सटीक कवि केशवदास प्रणीत .«« «० +*«» २-७० काव्यनि्णयभाषा छन्द्बद्ध [ मिखारोदासकृत ] मनहरण छन्‍्दोंमें कठिन

( अलंकार ) वर्णन... «००५ -«*« +#««० १-७ जगबिनोद [ पऋकरऊकृत नायकामेद ]... ... -»« -»« ०-६ रसराज [ मातिरामकृत नायकामेद |) ... -«« -«« »»» ०-&

ब्रजविलास बड़ा मोटेअक्षरका टिप्पणीसहित ... -«»« «४ ५-० ब्रमविछास मध्यमअक्षर टिप्पणी सहित विछायती जिरद ग्लेज॑ .... २-७

तथा रफू कागलका -.. -.« »» «०» »»»« »»« ९-८ ब्रजविास छोटा अक्षर सलेज ... .... »»« .... »»« १-० ११ )१ स्फ्‌, «५ ०००. ०० >ग" ००» ०“ ब्रनचरित्र ( श्रीराधाकृष्णनीकी सर्वक्कछा सुगम दोहा चौबोडोंमें वर्णित हैं ) ००० »०० ०० »०० -. रे+० मेमसागर बडा ग्लेन कागनका. .. --« »« ; «»» १-८ प्रेमसागर बड़ा रफपू .... «««« ,०० »« २-७

हल, पड आर.

भक्तमाढा रामरसिकावली बड़ी रवोधिपाति महाराज रघुरानसिंहकृत अत्युत्तम छन्दबद्ध निसंमें चारोंयुगोंके भक्तोंकी भिन्न * कथा हें ओर यह दितीयावृत्ति उत्तर चरित्र समेत अत्युत्तम नई छपी है. ४-७० रामस्वयंवर श्रीमहाराजारघपुरानसिंहकृत ( काव्यदेखनेयोग्य ) ««« ४-८ रुक्मिणीपारणय-महाराज श्रीरघुरानसिहजुदेंव म्रणीत «० ««»« १-८ भक्तमाढ नाभाजीकृत सटीक ( छन्दबद्ध ) ««« «०» “»* २०४ महाभारत भाषा सबलासिंहक्ृत-तुलसादासजीके रामायणकी रीतिसे दोहा चौपाईमें १८ अठारहोंपव ००. «०० «०» «»«» «»» है+८

(२) जाहिरात

छः

नाम: का, रू, तथा प्रथम भाग ( ३-आदि, सभा, वनपवे ) «« «००५ «० १-० तथा द्वितीय भाग ( २-विराठ, डद्योगपव ) *** «०० -»«० १-० तथा तृतीय भाग ( ८-भीष्म, द्रोण, कण, शल्य, गदा, सौप्तिक,

ऐपिक, ख्रीपवे ) «०० «००० »०० »००५ २-०

तथा चतुर्थ भाग ( ५-शान्ति, अश्वमेष, आश्रमवासिक, कुशछ,स्वगी रोहणवर्णन ) ००७५१ कक कक ७७ कक क््क्क ३०० १-७० विनयमुक्तावडी ( महाभरतका सूक्ष्म वृत्तांत छंद बद्ध ) .... १-०

# पारिहासदर्एण... «० «»«« ««» «००» «»» »»» ०-६ अरजुनगीता भाषा. _.... »»» »»» -»» -»« » ०-४ शतिकथा कायस्थकी «७ «०० «०० «» .. »«» ०-२१॥| शनिकथारापवदासकृत ००७. ००० »०० -»० -«» ०-२ शनिकथा बड़ी प॑० रामप्रतापनीकृत ... --. ... .... ०-८ रुक्मिणी मंगढ बड़ा ( पद्ममक्तकृत मारवादी भाषा ) ०» ९-४ हनुमानबाहुक पंचमुखी कवच समेत मूठ... --« »»«» ०-१॥ नासिकेतपुराणभाषा ( स्वगैनरकका वर्णन ) ... «.« --«- ०-६

नरसीमेहताका मामेरा बडा ««« -«« «»»» «»» »-»« ०-५ विस्मिलपरिवारका स्वरांग ( इश्कचमन ) ... .,«« «»»« ०-८ सूर्यपुराणाद्‌ २९५ रत्न अतिउत्तमकागन और जिल्दूबंधा. «०-८ सयपुराणादे २९५ रत्त रफू ... ... --» ०-६ ज्ञानमाला ब््8 ह०४० 2००० ००० ४६ ल्‍>ू० ००० +न मंगढदीपिका अथोव्‌ शाखोच्चार. ५. ... ... --« ०-१॥ देपतिवाक्यविक्ास-जिसमें सब देशांतरकी यात्रा और पपेके

सुखकी पुरुषने मंडन और ख्ीने खंडन किया है दोहा

कवित्तोमें (सुभाषित ) ... ..- ««« -& «»«» ०-१२ रसतरंग ( ज्ञानमक्तिमागी अनबरंगीले. पद्म कृष्णगढ़

महारान प्रणीत ) «.. «५ «»« »»« »,» ००० ०८

जाहिरात।

नाम दादूरामोदय संस्कृत-दादूप॑थी साधुओंकीं.. «०० «-«« इयामकामकेलि व. ५०० ००० ००० «०० परमेश्वरशतक .... «-« --«५ -»« -«- भक्तिपबोध «.« -««« -««» «०० ००० «०० भावपषंचाहिका कविवृेद्जीकृत ... .... «० «»«»« भेमशतक. «००५ -»« -»»० -»० «०० «०० मदनमुखचपेटिका भाषाटीका .... -«-« ««» ००० प्रेमवाटिका भाषा ( रोचक भजन ). .... «»» «»«« हनुमतताका उन्दबद्ध ( वीररसके रोचककावित्त > . ... नामप्रताप उन्दबद्ध ( श्रीरामनाम माहात्म्य ) "००

श्रंगारांकुर भाषा-छन्द्बद्ध ( रसकाव्य )>. ««« «-«« जगन्नाथशतक-इसमें रघुराजसिंह रीवॉथिपतिके बनायेहुये

कवित्त विनयेके हैं ... ... .... «.« -«० नैषधकाव्य मनहरणछन्दोमें राना नह

दमयन्तीका सम्पूर्ण उदाहरणों समेत चरित्र ५५०० सुन्दरीतिछक ( श्वेगाररसके चुहचुहाते हुए

कवित्त भारतेन्दु बाबू हरिश्रच्धनी संगृहीत ). ««- विक्मविलास ( छनन्‍्दबद्ध वेताठपचीसी ). «-«+ ««« -मसलानामा ( मसरलेंकि उदाहरणमें शिक्षावर्णन ) . ««« काश्यसंग्रह ( प्राचीन रोचक कवित्त सवैया ) -«« ऋ«ड काव्यरत्नाकर ( एक * समस्यामें रोचकता

पूवेक अनेक कवियोंकी चातुरीके कवित्त ) «... ««« आरती संग्रह २५ आरतीका «« ««६ बन * «००० हनुमानसाठिका ( हनुमानजीके ओजवर्द्धक ६० कवित्त ) भाषाभूषण ( नायकामेद मधुर छंदबद्ध > .... «»«« अनुरागरसभाषा (.नारायणस्वार्माकृत ) पद्मोमें.... «««

१००

छक्के

(४) . जाहिरात

नाम, | की. रु. आ. प्रेमपुष्पमंजरी ( अच्छे * भनत पंनाबदेशके भी पढ़ हैं.... ०-ह कृष्णचरितावली ( कृष्णी छोटी*ढीछा ) -»« «:* “डे प्रेमचासा ( चित्रकाव्य ) -«० *««« #»आऔ. * हज रे सुदामाचरित्र अत्युत्तम छंदबद्ध ००... «« *«« *ऋ* *** करे होलीचौताछ संग्रह. «०० «»«»» -«» *०* *»» *»* “डे सुदामाकी बाराखड़ी -«« ««० न» ही. #आ. *+*. ०-३ दौपदीकी बारामासी -«« -»» «०» *»«» *** «“**» ०“ दुगीचालीसी ..« -«५ «०० «» «००» *«»» «“» ०-९ माता पिता पूजननविधि -«» -«« «>«« #आ ही +०» “2-रे बारामासी संग्रह. «० ->««« ««« -«»» #>«» *०० “शह हरदेवकी बाराखड़ी कलियुगका चरित्र .«.. ««»«५ *«« *+«» ५“ , उन्द्रलमाला [ पिंगह |] ««« «०० »»» ००. ०->र२, गोपीवियोगकी बारहखड़ी [ छालाशालिग्रामकृत दत्त़ारुकी बाराखडी

सहित] «««० «-» «*»० «»« ०००. ००० «० “रे नशाखण्डनचालीसी ४० कवित्तोर्में सब नसोंका खण्डन ००. ०-२, मिलछामद्पण ( मेलमिलाप शिक्षा ) ««« -«०५ «०० «० ०-२ श्राद्दर्षण ( श्राद्मण्डन ). »«« «०० +««० -न्‍»०» “ी ०“+े.. ब्रक्नक्षानदर्ण ... .... -०० ««»« *«०० ००० -०० ०“ पंजाबपंकनपराग [ महन्त रघुवीरदासकृत ] ०-४ अमपुष्पछता ( उत्तममजन ) .... «»«« «»«»* «०» «४» ०-८ कृबीरउपासनापद्धाति-( साधारणत+सर्वसाधारणकी और विशेषतः कबीर

थेयोंकी सदाचार बतानेवाढ़ी अद्वितीय पुस्तक ) . -««५ ०-१० खंपूर्ण पुस्तकोंका बड़ा सचीपत्र अरूग दे मैंगालीजिये

पत्ता-खेमराज श्रीकृष्णदास,

भीवेड्डटेश्वर ( स्टॉस ) प्रेस-वंबई.